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रविवार, 27 सितंबर 2015

गणेश वंदना

















विघ्नेश्वर गणेश जी की विदाई-बेला:
प्रस्तुत आरती में जोड़ी गयी अंतिम दो पंक्तियाँ मूल पंक्तियों की तरह निर्दोष नहीं है. इस परंपरागत आरती में हम अपने मनोभाव पिरोएँ किन्तु इस तरह कि छंद, भाव, बिम्ब, लय आदि निर्दोष रहे. 

अग्रजवत श्री चंद्रसेन विराट ने प्रचलित आरती में एक पद जोड़ा है. उन्हें हार्दिक बधाई।
प्रथम पूज्य ज्योतिर्मय, बुद्धि-बल विधाता 
मंगलमय पूर्णकाम ऋद्धि-सिद्धि दाता
कदली फल मोदक का प्रिय उन्हें कलेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
मेरी समिधा:
जड़-जमीन में जमाये दूबा मन भाये
विपदा को जीतें प्रभु! पूजें-हर्षायें
स्नेह 'सलिल' साँसें हों, जीवन हो रेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*

शनिवार, 26 सितंबर 2015

navgeet

एक गीत:
संजीव 
*
ह्रदय प्रफुल्लित 
मुकुलित मन 
अपनों से मिलकर
*
सद्भावों की क्यारी में
प्रस्फुटित सुमन कुछ
गंध बिखेरें अपनेपन की.
स्नेहिल भुजपाशों में
बँधकर बाँध लिया सुख.
क्षणजीवी ही सही
जीत तो लिया सहज दुःख
बैर भाव के
पर्वत बौने
काँपे हिलकर
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
सपनों से मिलकर
*
सलिल-धार में सुधियों की
तिरते-उतराते
छंद सुनाएँ, उर धड़कन की.
आशाओं के आकाशों में
कोशिश आमुख,
उड़-थक-रुक-बढ़ने को
प्रस्तुत, चरण-पंख कुछ.
बाधाओं के
सागर सूखे
गरज-हहरकर
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
छंदों से मिलकर
*
अविनाशी में लीन विनाशी
गुपचुप बिसरा, काबा-
काशी, धरा-गगन की.
रमता जोगी बन
बहते जाने को प्रस्तुत,
माया-मोह-मिलन के
पल, पल करता संस्तुत.
अनुशासन के
बंधन पल में
टूटे कँपकर.
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
नपनों से मिलकर
*
मुक्त, विमुक्त, अमुक्त हुए
संयुक्त आप ही
मुग्ध देख छवि निज दरपन की.
आभासी दुनिया का हर
अहसास सत्य है.
हर प्रतीति क्षणजीवी
ही निष्काम कृत्य है.
त्याग-भोग की
परिभाषाएँ
रचें बदलकर.
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
गंधों से मिलकर
*

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
एक शाम
करना है मीत मुझे
अपने भी नाम
.
अपनों से,
सपनों से,
मन नहीं भरा.
अनजाने-
अनदेखे
से रहा डरा.
परिवर्तन का मंचन
जब कभी हुआ,
पिंजरे को
तोड़ उड़ा
चाह का सुआ.
अनुबंधों!
प्रतिबंधों!!
प्राण-मन कहें
तुम्हें राम-राम.
.
ज्यों की त्यों
चादर कब
रह सकी कहो?
दावानल-
बड़वानल
सह, नहीं दहो.
पत्थर का
वक्ष चीर
गंग
सलिल सम बहो.
पाये को
खोने का
कुछ मजा गहो.
सोनल संसार
हुआ कब कभी कहो
इस-उस के नाम?
.
संझा में
घिर आयें
याद मेघ ना
आशुतोष
मौन सहें
अकथ वेदना.
अंशुमान निरख रहे
कालचक्र-रेख.
किस्मत में
क्या लिखा?,
कौन सका देख??
पुष्पा ले जी भर तू
ओम-व्योम, दिग-दिगंत
श्रम कर निष्काम।
***
bengluru, 22-9-2015

baal geet

बाल रचनाएँ:
१. श्रेया रानी
श्रेया रानी खूब सयानी 
प्यारी लगती कर नादानी
पल में हँसे, रूठती पल में
कभी लगे नानी की नानी
चाहे मम्मी कभी न टोंकें
करने दें जी भर मनमानी
लाड लड़ाती है दादी से
बब्बाजी से सुने कहानी
***
२. अर्णव दादा
अर्णव दादा गुपचुप आता
रहे शांत, सबके मन भाता
आँखों में सपने अनंत ले-
मन ही मन हँसता-मुस्काता
मम्मी झींके:'नहीं सुधरता,
कभी न खाना जी भर खाता
खेले कैरम हाथी-घोड़े,
ऊँट-वज़ीरों को लड़वाता
***
३. आरोही
धरती से निकली कोंपल सी
आरोही नन्हीं कोमल सी
अनजाने कल जैसी मोहक
हँसी मधुर, कूकी कोयल सी
उलट-पलटकर पैर पटकती
ज्यों मछली जल में चंचल सी
चाह: गोद में उठा-घुमाओ
करती निर्झर ध्वनि कलकल सी
***

muktak

मुक्तक:
घाट पर ठहराव कहाँ? 
राह में भटकाव कहाँ?
चलते ही रहना है- 
चाह में अटकाव कहाँ?

shlesh alankar

: अलंकार चर्चा  ११ :  

श्लेष अलंकार

भिन्न अर्थ हों शब्द के, आवृत्ति केवल एक
अलंकार है श्लेष यह, कहते सुधि सविवेक

 किसी काव्य में एक शब्द की एक आवृत्ति में एकाधिक अर्थ होने पर श्लेष अलंकार होता है. श्लेष का अर्थ 'चिपका हुआ' होता है. एक शब्द के साथ एक से अधिक अर्थ संलग्न (चिपके) हों तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है.

उदाहरण:
१.  रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
    पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
    इस दोहे में पानी का अर्थ मोती  में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में  सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.

२. बलिहारी नृप-कूप की, गुण बिन बूँद न देहिं
    राजा के साथ गुण का अर्थ सद्गुण तथा कूप के साथ रस्सी है.

३. जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह जानत सब कोइ
    गाँठ तथा रस के अर्थ गन्ने तथा मनुष्य के साथ क्रमश: पोर व रस तथा मनोमालिन्य व प्रेम है.

४. विपुल धन, अनेकों रत्न हो साथ लाये
    प्रियतम! बतलाओ लाला मेरा कहाँ है?
    यहाँ लाल के दो अर्थ मणि तथा  संतान हैं.

५. सुबरन को खोजत फिरैं कवि कामी अरु चोर
     इस काव्य-पंक्ति में 'सुबरन' का अर्थ क्रमश:सुंदर अक्षर, रूपसी तथा स्वर्ण हैं.

 ६. जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय
    बारे उजियारौ करै, बढ़े अँधेरो होय
    इस दोहे में बारे = जलाने पर तथा बचपन में, बढ़े = बुझने पर, बड़ा होने पर

७. लाला ला-ला कह रहे, माखन-मिसरी देख
     मैया नेह लुटा रही, अधर हँसी की रेख
    लाला = कृष्ण, बेटा तथा मैया - यशोदा, माता (ला-ला = ले आ, यमक)

८.  था आदेश विदेश तज, जल्दी से आ देश
    खाया या कि सुना गया, जब पाया संदेश
    संदेश = खबर, मिठाई (आदेश = देश आ, आज्ञा यमक)

९. बरसकर
    बादल-अफसर
    थम गये हैं.
    बरसकर =  पानी गिराकर, डाँटकर

१०. नागिन लहराई,  डरे, मुग्ध हुए फिर मौन
     नागिन = सर्पिणी, चोटी

*** 

सोमवार, 21 सितंबर 2015

doha muktika:a

दोहा मुक्तिका :

जंगल-पर्वत मिटाकर, धरा कर रहा गर्म
भोग रहा अंजाम पर, मनुज न करता शर्म
*
काम करो निष्काम रह, गीता में उपदेश
कृष्ण दे गये, सुन-समझ, करते रहिए कर्म
*
मेहनतकश का काम ही, प्रभु की पूजा मान
अश्रु पोंछना स्वार्थ बिन, सच्चा मानव धर्म
*
पत्थर से सिर फोड़ मत, युक्ति लगा दे तोड़
मत कठोर मधुकर रहे सदा कली सँग नर्म 
*
अहं भुला रस-भाव में, जाता जब कवि डूब 
सफल वही कविता 'सलिल', जिसमें जीवन मर्म
*

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

alankar charcha : yamak alankar

 :अलंकार चर्चा  ०९ :   

यमक अलंकार 

भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक 
अलंकार है यमक  यह, कहते सुधि सविवेक 

पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.  

अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २.  सभंगपद ३. खंडपद हैं. 

आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक,  २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं. 

इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या  अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है. 

उदाहरण :
१.  झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात 
    अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात   -राम सहाय 
    प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात'  के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन'       हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है. 
    द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.  

२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय 
    या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय  
    कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक 

 ३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं 
     मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक 
     अधरान = पर, अधरा न =  अधर में नहीं - सभंगपद यमक 

४. मूरति मधुर मनोहर देखी 
    भयेउ विदेह विदेह विसेखी  -अभंगपद  यमक, तुलसीदास  
    विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.   

५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं 
    यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता     देने वाली) है.   

६. विदारता था तरु कोविदार को 
   यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश  आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार'  प्रयुक्त हुआ है.  

७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन  चहुँ ओर से 
    पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है. 

८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान 
    'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश

९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी  
    'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश

१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक 
     घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक   

११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम 
     वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम 
     वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी,  उल्टा 

१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार 
     नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार 
     नाग =  हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति  
जबलपुर, १८-९-२०१५ 
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alankar charcha punrukt prakash alankar

:अलंकार चर्चा  ०९ :   

शब्दावृत्तिमूलक अलंकार 

शब्दों की आवृत्ति से, हो प्रभाव जब खास 
शब्दालंकृत काव्य से, हो अधरों पर हास 

जब शब्दों के बार-बार दुहराव से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो तब शब्दावृत्तिमूलक अलंकार होता है. प्रमुख शब्दावृत्ति मूलक अलंकार [ अ] पुनरुक्तप्रकाश, [आ] पुनरुक्तवदाभास, [इ] वीप्सा तथा [ई]  यमक हैं. चित्र काव्य अलंकार में शब्दावृत्ति जन्य चमत्कार के साथ-साथ चित्र को देखने से उत्पन्न प्रभाव भी चमत्कार उत्पन्न करता है, इसलिए मूलत: शब्दावृत्तिमूलक होते हुए भी वह विशिष्ट हो जाता है. 
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार
शब्दों की आवृत्ति हो, निश्चयता के संग 
तब पुनरुक्तप्रकाश का, 'सलिल' जम सके रंग  
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार की विशेषता शब्द की समान अर्थ में एकाधिक आवृत्ति के साथ- की मुखर-प्रबल अभिव्यक्ति है. इसमें शब्द के दोहराव के साथ निश्चयात्मकता का होना अनिवार्य है. 
उदाहरण :
१. मधुमास में दास जू बीस बसे, मनमोहन आइहैं, आइहैं, आइहैं  
   उजरे इन भौननि को सजनी, सुख पुंजन छाइहैं, छाइहैं, छाइहैं
   अब तेरी सौं ऐ री! न संक एकंक, विथा सब जाइहैं, जाइहैं, जाइहैं
   घनश्याम प्रभा लखि  सखियाँ, अँखियाँ सुख पाइहैं, पाइहैं, पाइहैं 
   यहाँ शब्दों की समान अर्थ में आवृत्ति के साथ कथन की निश्चयात्मकता विशिष्ट है.
२. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल   
   यहाँ 'जल' क्रिया का क्रिया-विशेषण 'मधुर' दो बार आकर क्रिया पर बल देता है. 
३. गाँव-गाँव अस होइ अनंदा 
४. आतंकवाद को कुचलेंगे,  मिलकर कुचलेंगे, सच मानो 
    हम गद्दारों को पकड़ेंगे, मिलकर पकड़ेंगे, प्रण ठानो 
    रिश्वतखोरों को जकड़ेंगे, मिलकर जकड़ेंगे, तय जानो 
    भारत माँ की जय बोलेंगे, जय बोलेंगे, मुट्ठी तानो      
५. जय एकलिंग, जय एकलिंग, जय एकलिंग कह टूट पड़े 
    मानों शिवगण शिव- आज्ञा पा असुरों के दल पर टूट पड़े 
६. पानी-पानी कह पौधा-पौधा मुरझा-मुरझा रोता है 
   बरसो-बरसो मेघा-मेघा धरती का धीरज खोता है 
७. मयूंरी मधुबन-मधुबन नाच 
८. घुमड़ रहे घन काले-काले, ठंडी-ठंडी चली 
९. नारी के प्राणों में ममता बहती रहती, बहती रहती 
१०. विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात 
११. हम डूब रहे दुःख-सागर में, 
    अब बाँह  प्रभो!धरिए, धरिए!
१२. गुरुदेव जाता है समय रक्षा करो, 
१३. बनि बनि बनि बनिता चली, गनि गनि गनि  डग देत
१४. आया आया आया,  भाँति  आया 
१५. फिर सूनी-सूनी साँझ हुई 
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती
१७-९--२०१५
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alankar charcha : vainsagai alankar

:अलंकार चर्चा  ०८ : 

वैणसगाई अलंकार   
जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीत 
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत 
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो  वैणसगाई अलंकार होता है. 
उदाहरण:
१. माता भूमि मान 
   पूजै राण प्रतापसी 
   पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में  प' की आवृत्ति दृष्टव्य है, 
२. हरि!  तुम बिन निस्सार है, 
    दुनिया दाहक दीन
   दया करो दीदार दो, 
   मीरा जल बिन मीन.  - संजीव 
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे 
    हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे   -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद 
५. सब सुर हों सजीव साकार … 
   .... तान-तान का हो विस्तार   -मैथिली शरण गुप्त 
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल  -निराला 
७. हमने देखा सदन बने हैं
    लोगों का अपनापन लेकर    - बालकृष्ण शर्मा नवीन 
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए  - डॉ. रामकुमार वर्मा 
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन   -नागार्जुन 
१०.  तब इसी गतिशील  सिंधु-यात्री हेतु    -सुमित्रा कुमारी सिन्हा 
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती
१७-९--२०१५
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alankar charcha: latanupras alankar

:अलंकार चर्चा  ०७ : 

लाटानुप्रास  अलंकार
एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एक 
अन्वय लाट अनुप्रास में,  रहे भिन्न सविवेक 
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है. 
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.  
उदाहरण: 
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि 
    राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि 
   जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है. 
   जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है. 
  अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
    पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
    यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ. 
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद 
     सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद 
    यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों  में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी 
    यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही 
    उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है. 
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला 
   यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है. 
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ 
    चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है. 
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद 
    स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद 
   अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है. 
९. सब का सब से हो भला 
    सब सदैव निर्भय रहें 
    सब का मन शतदल खिले. 
    मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में  सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है. 
***
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
              चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है. 'मेरी जान'  के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है. 
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती -२०१५ 
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बुधवार, 16 सितंबर 2015

alankar charcha 7 : antyanupras alankar

अलंकार चर्चा : ७  
अन्त्यानुप्रास अलंकार 
जब दो या अधिक शब्दों, वाक्यों या छंद के चरणों के अंत में अंतिम दो स्वरों की मध्य के  व्यंजन सहित आवृत्ति हो तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. 
छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य। 
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है. 
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी 
   खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी 
   वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी 
   काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी   (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं  कौं झरी कै 
   मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै 
   गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै 
   जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै    (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार  
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर  समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है. 
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार 
    हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार 
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ 
   जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ   
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार 
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है. 
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े
   कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में

२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
   तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार 
   हौसलों के साथ रख चलो कदम 
   मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.  
उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
    जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन 
    इस सोरठे में विषम  चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन  में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं. 
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते   

इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.  
 
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार

जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण: 
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला 
   भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके  
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को

झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको,                                                                                                                                       
टोको ना रोको, आधी रात को                                                                                                                                                 
लाज लागे री लागे, आधी रात को                                                                                                                                       
देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को

बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को

रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को

गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है
***

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

चित्र पर रचना :

चित्र पर रचना:
यहाँ प्रस्तुत चित्र पर हिंदी के किसी प्रसिद्ध कवि की शैली में लिखिए। संभव हो तो मूल रचना भी दें. अपनी रचना भी प्रस्तुत कर सकते हैं. कितनी भी प्रविष्टियाँ दे सकते हैं किन्तु शालीनता और मौलिकता आवश्यक है.
रचनाकार: संजीव
*
शैली : बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
राधावत, राधसम हो जा, रे मेरे मन,
पेंग-पेंग पायेगा , राधा से जुड़ता तन
शुभदा का दर्शन कर, जग की सुध बिसार दे
हुलस-पुलक सिहरे मन, राधा को निहार ले
नयनों में नयनों देखे मन सितार बज
अग-जग की परवा ताज कर, जमुना जल मज्जन
राधावत, राधसम हो जा, रे मेरे मन
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मूल पंक्तियाँ:
अंतर्मुख, अंतर्मुख हो जा, रे मेरे मन,
उझक-उझक देखेगा तू किस-किसके लांछन?
कर निज दर्शन, मानव की प्रवृत्ति को निहार
लख इस नभचारी का यह पंकिल जल विहार
तू लख इस नैष्ठि का यह व्यभिचारी विचार,
यह सब लख निज में तू, तब करना मूल्यांकन
अंतर्मुख, अंतर्मुख हो जा, रे मेरे मन.
हम विषपायी जनम के, पृष्ठ १९
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शैली : वीरेंद्र मिश्र
जमुन तट रसवंत मेला,
भूल कर जग का झमेला,
मिल गया मन-मीत, सावन में विहँस मन का।

मन लुभाता संग कैसे,
श्वास बजती चंग जैसे,
हुआ सुरभित कदंबित हर पात मधुवन का।

प्राण कहता है सिहर ले,
देह कहती है बिखर ले,
जग कहे मत भूल तू संग्राम जीवन का।

मन अजाने बोलता है,
रास में रस घोलता है,
चाँदनी के नाम का जप चाँद चुप मनका।
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मूल रचना-
यह मधुर मधुवन्त वेला,
मन नहीं है अब अकेला,
स्वप्न का संगीत कंगन की तरह खनका।

साँझ रंगारंग है ये,
मुस्कुराता अंग है ये,
बिन बुलाये आ गया मेहमान यौवन का।

प्यार कहता है डगर में,
बाह नहीं जाना लहर में,
रूप कहता झूम जा, त्यौहार है तन का।

घट छलककर डोलता है,
प्यास के पट खोलता है,
टूट कर बन जाय निर्झर, प्राण पाहन का।
अविरल मंथन, सितंबर २०००, पृष्ठ ४४
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शैली : डॉ. शरद सिंह
आ झूले पर संग झूलकर, धरा-गगन को एक करे
जमुना जल में बिंब देखकर, जीवन में आनंद भरें

ब्रिज करील वन में गुंजित है, कुहू कुहू कू कोयल की
जैसे रायप्रवीण सुनाने, कजरी मीठी तान भरे

रंग कन्हैया ने पाया है, अंतरिक्ष से-अंबर से
ऊषा-संध्या मौक़ा खोजें, लाल-गुलाबी रंग भरे

बाँहों में बाँहें डालो प्रिय!, मुस्का दो फिर हौले से
कब तक छिपकर मिला करें, हम इस दुनिया से डरे-डरे

चलो कोर्ट मेरिज कर लें या चल मंदिर में माँग भरूँ
बादल की बाँहों में बिजली, देख-देख दिल जला करे  

हममें अपनापन इतना है, हैं अभिन्न इक-दूजे से
दूरी तनिक न शेष रहे अब, मिल अद्वैत का पंथ वरे
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मूल रचना-
रात चाँद की गठरी ढोकर, पूरब-पश्चिम एक करे
नींद स्वप्न के पोखर में से, अँजुरी-अँजुरी स्वप्न भरे

घर के आँगन में फ़ैली है, आम-नीम की परछाईं
जैसे आँगन में बिखरे हों, काले-काले पात झरे

उजले रंग की चादर ओढ़े, नदिया सोई है गुपचुप
शीतल लहरें सोच रही हैं, कल क्या होगा कौन डरे?

कोई जब सोते-सोते में, मुस्का दे यूँ हौले से
संझो उसने देख लिये हैं काले आखर हरे-हरे

बड़ा बृहस्पति तारा चमके, जब मुँडेर के कोने पर
ऐसा लगता है छप्पर ही, खड़ा हुआ है दीप धरे

यूँ तो अपनापन सिमटा है, मंद हवा के झोंकें में
फिर भी कोई अपना आये, कहता है मन राम करे!
प्रयास दिसंबर २००७, पृष्ठ ११
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शैली: ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान (सुभद्रा कुमारी चौहान के पति)
प्रिय! सरस सहेली नटखट हो,
           ज्यों कली अधखिली खिली हुई
चंपई रंग, मृगनयनी तुम,
                  रति सी साँचे में ढली हुई
बरसाने की गोरी छोरी
              आ मिली दैव! यह भली हुई
पल में रूठे, पल में माने
                  बाहों में मिसरी-डली हुई
सुधियों का झूला झूलें हम
             छलके खुशियों की गागरिया
मैं हुआ बावरा देखा तुझे
                  तू मुझे देख है बावरिया
ब्रज धूल यहाँ, जल-कूल यहाँ
           रस-रास रचायें मिलकर हम
तन-वीणा पर मन रागिनी के
          कुछ राग सुनाएँ खिलकर हम
खिलखिला चन्द्र-चन्द्रिका पड़े
                  गोरी! मैं तेरा साँवरिया
तज द्वैत, वरो अद्वैत सखे!
                मैं नटनागर तू नागरिया
मन-प्राणों के अनुबंध हुए
           हँस पड़ी पुलक ब्रज की माटी
मन-मंदिर में घट-ज्योति जली
           जो मिटी, बनी फिर परिपाटी
जप-जोग व्यर्थ, सुख-सोग व्यर्थ
         भव-भोग व्यर्थ, संयम है सच
नैकट्य-दूरियाँ बेमानी
      मैं-तुम का विलय, हुआ हम सच
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मूल रचना-
मैं और तुम
(सुभद्रा जी पर पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह
चौहान द्वारा रचित रचना)
*
वह ठिठक-अड़ैली चंचल थी,
           ज्यों प्रीति-लाज में घुली हुई
थी हँसी रसीले होंठों की,
              नवरूप-सुधा से धुली हुई
वह अजब छबीली चितवन थी
            था तरल वेग पर तुली हुई
उन घनी लचीली पलकों में,
        कुछ छिपी हुई, कुछ खुली हुई
है याद  मुझे,मैं चौंक पड़ा,
          बज उठी हृदय की बाँसुरिया
वह दृष्टि तुम्हारी गाती थी
            'मैं राधा हूँ तुम साँवरिया'.
ये शब्द कहाँ?, पद-वाक्य कहाँ?
             बस भाव सुनाई देता था
था राग अहा, अनुराग बना
               साकार दिखाई देता था
पूर्णेन्दु उमा, नव पुष्प खिले
        हाँ, लगी कुहकने कोयलिया
यों पूजा का सामान जुटा
          मैं राधा था, तुम साँवरिया
दो एक हुए, स्वच्छंद बने
         मिल गयी राह आजादी की
जग-मंदिर मंजुल गूँज उठा
            सुन पड़ी बधाई शादी की
आलोक हुआ, भ्रम लोप हुआ
      क्या दीख पड़ा, मैं था तुम थीं
मैं विश्व बना तुम विश्वात्मा
       मैं तुममें था, तुम मुझमें थीं
***