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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

छंद-बहर दोउ एक हैं २

कार्य शाला 
छंद-बहर दोउ एक हैं २ 
*
गीत 
फ़साना 
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२] 
*
कहेगा-सुनेगा 
सुनेगा-कहेगा 
हमारा तुम्हारा 
फसाना जमाना 
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ 
तुम्हें माँगता हूँ 
तुम्हें पूजता हूँ 
बनाना न आया 
बहाना बनाना 
कहेगा-सुनेगा 
सुनेगा-कहेगा 
हमारा तुम्हारा 
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो 
तुम्हीं बन्दगी हो 
तुम्हीं वन्दना हो 
तुम्हीं प्रार्थना हो 
नहीं सीख पाया 
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा 
सुनेगा-कहेगा 
हमारा तुम्हारा 
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है 
तुम्हारा रहेगा 
तुम्हारे बिना ना 
हमारा रहेगा 
कहाँ जान पाया 
तुम्हें मैं लुभाना 
कहेगा-सुनेगा 
सुनेगा-कहेगा 
हमारा तुम्हारा 
फसाना जमाना
***

शब्द सलिला - सैलाब या शैलाब

शब्द सलिला - 
सैलाब या शैलाब?
*
सही शब्द ’सैलाब’ ही है -’शैलाब ’ नहीं। 
’सैलाब (सीन,ये,लाम,अलिफ़,बे) - अरबी/फ़ारसी का लफ़्ज़ है जो ’सैल’ और ’आब’ से बना है।  
’सैल’ (अरबी लफ़्ज़) मानी बहाव और ’आब’(फ़ारसी लफ़्ज़) मानी पानी। 
सैलाब माने पानी का बहाव ही होता है मगर इसका भावार्थ अचानक आए पानी के बहाव, जल-प्लावन. बाढ़ से ही लगाते है।  
सैल के साथ आब का अलिफ़ वस्ल (मिल) हो गया है अत: ’सैल आब ’ के बजाय ’सैलाब’ ही पढ़ते और बोलते हैं। हिन्दी व्याकरण के अनुसार ’दीर्घ सन्धि’ है।  
चूँकि ’सैल’ मानी ’बहाव’ होता है तो इसी लफ़्ज़ से ’सैलानी’ भी बना है -व ह जो निरन्तर सैर तफ़्रीह एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता है। 
आँसुओं की बाढ़ को सैल-ए-अश्क कहते हैं। 
हिन्दी का ’शैल’ (पर्वत) और अंग्रेजी का sell (विक्रय), cell (प्रकोष्ठ) का इससे कोइ संबंध नहीं किंतु sail (पानी पर तिरना) का संबंध जोड़ा जा सकता है।    
*

कीर्ति छंद

छंद सलिला :
संजीव 
*
कीर्ति छंद 
छंद विधान:
द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ 
आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.
२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो 
माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.
३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.
---

दोहा सलिला (नीति)

दोहा सलिला (नीति)
*
तन धन की रक्षा करें, जोश मानिए कोष  
मित्र आत्मविश्वास है, संबल है संतोष
*
करे प्रशंसा मूर्ख यदि, करें अनसुना रीत 
बुद्धिमान डाँटे अगर, करे भला ही मीत 
*
भाव नकारात्मक नहीं, तनिक सुहाए मित्र 
सदा सकारात्मक रहे, मानस पट पर चित्र 
*
जिसे जरूरत आइए, हरदम उसके काम 
चाहत का मत लगाएँ, मित्र कभी भी दाम 
*
जिसे भरोसा आप पर, छलें न उसको आप
याद आपको जो करे, रहें उसी में व्याप 
*
हर महिला को चाहिए, ऐसा साथी एक 
अश्रु पोंछ मुस्कान दे, कहे न तुम सा नेक 
*
पल भर में जो कहें दे, वह आजीवन घाव 
पल-पल करिए बात वह, जिसको सकें निबाह 
*
परिवर्तन में पीर है, देता दर्द विकास 
सत्संगति पाई नहीं, असहनीय संत्रास 
*
मत अपना बन या बना, अगर न सच्चा प्यार 
मत अंतर रख अगर हो, अंतर्मन में प्यार 
*
उषा देखकर मन करे, जिसको बरबस याद  
साँझ देख बेबस करे, मिलने की फरियाद 
*
आज न आए दुबारा, कर ले ऐसा काम 
नाम मिले पर मिल सके, कहीं न उसका दाम
*
आप चाहते यदि मुझे, मन में है अनुराग 
अगर न चाहें तो मुझे, रखता याद दिमाग  
*
खटखट करी न  द्वार पर, खड़े रहे यदि दूर 
सच न खुलेगा वह कभी, बजे न खुद संतूर 
*
जीवन बेहतर हो नहीं, बिन कोशिश बेनाम  
बदलावों से ही बने, बेहतर करिए काम 
*


हास्य मुक्तक

हास्य मुक्तक 
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
छत पर दिखी ज्यों फुलझड़ी, अनार मैं हुआ
कैसा गज़ब है एक ही पल में वो बम हुई
*
गृह लक्ष्मी से कहा 'आज है लछमी जी का राज 
मुँहमाँगा वरदान मिलेगा रोक न मुझको आज' 
घूर एकटक झट बोली वह-"भाव अगर है सच्चा  
देती हूँ वरदान रही खुश कर प्रणाम नित बच्चा"
*
हास्य कविता 
मेहरारू बोली 'ए जी! है आज पर्व दीवाली 
सोना हो जब, तभी मने धनतेरस वैभवशाली'
बात सुनी मादक खवाबों में तुरत गया मन डूब 
मैं बोला "री धन्नो! आ बाँहों में सोना खूब"  
वो लल्ला-लल्ली से बोली "सोना बापू संग  
जाती हूँ बाजार करो रे मस्ती चाहे जंग"
हुई नरक चौदस यारों ये चीखे, वो चिल्लाए 
भूख इसे, हाजत उसको कोई तो जान बचाए 
घंटों बाद दिखी घरवाली कई थैलों के संग 
खाली बटुआ फेंका मुझ पर, उतरा अपना रंग 
***  

एकता गीत

卐           ॐ           卐
एकता और शक्ति गीत
संजीव 
*
बारा बरसी खटन गया
झट लै आया झंडा
तिरंगा फहराया
कि जन गण मन गाया
*
बारा बरसी खटन गया
सब दै रहे सलामी
गर्व से शीश तना
एक यह देश बना
*
बारा बरसी खटन गया
मिल मुट्ठी बन जाएँ
अँगुलियाँ अलग न हों
देश ताकतवर हो
*
बारा बरसी खटन गया
स्वच्छता रखें सभी
स्वस्थ तन-मन भी हो
नित नव सपने बो
*
बारा बरसी खटन गया
जहाँ हैं कर मेहनत
बनाएँ देश नया
झुके सारी दुनिया
***

सोमवार, 16 नवंबर 2020

अनुप्रास अलंकार

कार्यशाला
अलंकार बताइये
*
अजर अमर अक्षर अजित, अमित असित अनमोल।
अतुल अगोचर अवनिपति, अंबरनाथ अडोल।।
*
संजीव
१६-११-२०१९

नवगीत

नवगीत  
*
लगें अपरिचित
सारे परिचित
जलसा घर में
है अस्पृश्य आजकल अमिधा
नहीं लक्षणा रही चाह में
स्वर्णाभूषण सदृश व्यंजना
बदल रही है वाह; आह में
सुख में दुःख को पाल रही है
श्वास-श्वास सौतिया डाह में
हुए अपरिमित
अपने सपने
कर के कर में
सत्य नहीं है किसी काम का
नाम न लेना भूल राम का
कैद चेतना हो विचार में
दक्षिण-दक्षिण, वाम-वाम का
समरसता, सद्भाव त्याज्य है
रिश्ता रिसता स्रोत दाम का
पाल असीमित
भ्रम निज मन में
शक्कर सागर में
चोटी, टोपी, तिलक, मँजीरा
हँसिया थामे नचे जमूरा
ए सी में शोलों के नगमे
छोटे कपड़े, बड़ा तमूरा
चूरन-डायजीन ले लिक्खो
भूखा रहकर मरा मजूरा
है वह वन्दित
मन अभद्र जो
है तन नागर में
***
संजीव
१६-११-२०१९

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
सुमन न देता अंजुमन, कहता लाओ मोल.
चकित हुआ माली रहा, खाली जेब टटोल.
*
ले-देकर सुलझा रहे, मंदिर-मस्जिद लोग.
प्रभु के पहले लग रहा, भक्तों को ही भोग.
*
मुखड़े को लाइक मिलें, रचना से क्या काम?
भले हुए बदनाम हम, हुआ दूर तक नाम.
*
खटमल बनकर रह रहे, तनिक न होते दूर 
समझ रहे हैं मित्रगण, हमको शायद सूर 
*
रहजन - रहबर रट रहे, राम राम रम राम।
राम रमापति रम रहो, राग - रागिनी राम।।
* 
ललित लता लश्कर लहक, लक्षण लहर ललाम।
लिप्त लड़कपन लजीला, लतिका लगन लगाम।।
*

मुक्तक

मुक्तक
माँ
माँ की महिमा जग से न्यारी, ममता की फुलवारी
संतति-रक्षा हेतु बने पल भर में ही दोधारी
माता से नाता अक्षय जो पाले सुत बडभागी-
ईश्वर ने अवतारित हो माँ की आरती उतारी
नारी
नर से दो-दो मात्रा भारी, हुई हमेशा नारी
अबला कभी न इसे समझना, नारी नहीं बिचारी
माँ, बहिना, भाभी, सजनी, सासु, साली, सरहज भी
सखी न हो तो समझ जिंदगी तेरी सूखी क्यारी
*
पत्नि
पति की किस्मत लिखनेवाली पत्नि नहीं है हीन
भिक्षुक हो बारात लिए दर गए आप हो दीन
करी कृपा आ गयी अकेली हुई स्वामिनी आज
कद्र न की तो किस्मत लेगी तुझसे सब सुख छीन
*
दीप प्रज्वलन
शुभ कार्यों के पहले घर का अँगना लेना लीप
चौक पूर, हो विनत जलाना, नन्हा माटी-दीप
तम निशिचर का अंत करेगा अंतिम दम तक मौन
आत्म-दीप प्रज्वलित बन मोती, जीवन सीप
*
परोपकार
अपना हित साधन ही माना है सबने अधिकार
परहित हेतु बनें समिधा, कब हुआ हमें स्वीकार?
स्वार्थी क्यों सुर-असुर सरीखा मानव होता आज?
नर सभ्यता सिखाती मित्रों, करना पर उपकार
*
एकता
तिनका-तिनका जोड़ बनाते चिड़वा-चिड़िया नीड़
बिना एकता मानव होता बिन अनुशासन भीड़
रहे-एकता अनुशासन तो सेना सज जाती है-
देकर निज बलिदान हरे वह, जनगण कि नित पीड़
*
असली गहना
असली गहना सत्य न भूलो
धारण कर झट नभ को छू लो
सत्य न संग तो सुख न मिलेगा
भोग भोग कर व्यर्थ न फूलो
**

इंद्रवज्रा छंद

छंद सलिला:
इंद्र वज्रा छंद
सलिल
*
इस द्विपदिक मात्रिक चतुःश्चरणी छंद के हर पद में २ तगण, १ जगण तथा २ गुरु मात्राएँ होती हैं. इस छंद का प्रयोग मुक्तक हेतु भी किया ज सकता है.
इन्द्रवज्रा एक पद = २२१ / २२१ / १२१ / २२ = ११ वर्ण तथा १८ मात्राएँ
उदाहरण:
१. तोड़ो न वादे जनता पुकारे
बेचो-खरीदो मत धर्म प्यारे
लूटो तिजोरी मत देश की रे!
चेतो न रूठे, जनता न मारे
२. नाचो-नचाओ मत भूलना रे!
आओ! न जाओ, कह चूमना रे!
माशूक अपनी जब साथ में हो-
झूमो, न भूले हँस झूलना रे!
३. पाया न / खोया न / रखा न / रोका
बोला न / डोला न / कहा न / टोंका
खेला न / झेला न / तजा न / हारा
तोडा न / फोड़ा न / पिटा न / मारा
४. आराम / ही राम / हराम / क्यों हो?
माशूक / के नाम / पयाम / क्यों हो?
विश्वास / प्रश्वास / नि:श्वास टूटा-
सायास / आभास / हुलास / झूठा
***

मुकतक

मुकतक सलिला 
*
सूरज आया, नभ पर छाया,
धरती पर सोना बिखराया
जग जाग उठा कह शुभ प्रभात,
खग-दल ने गीत मधुर गाया
*
पत्ता-पत्ता झूम रहा है
पवन झकोरे चूम रहा है
तुहिन-बिंदु नव छंद सुनाते
शुभ प्रभात कह विहँस जगाते
*
चल सपने साकार करें
पग पथ पर चल लक्ष्य वरें
श्वास-श्वास रच छंद नए
पल-पल को मधुमास करें
*

गीत : बाद दीपावली के

गीत :
बाद दीपावली के...
संजीव
*
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
कह रहे 'अंत भी एक प्रारम्भ है.
खेलकर अपनी पारी सचिन की तरह-
मैं सुखी हूँ, न कहिये उपालम्भ है.
कौन शाश्वत यहाँ?, क्या सनातन यहाँ?
आना-जाना प्रकृति का नियम मानिए.
लाये क्या?, जाए क्या? साथ किसके कभी
कौन जाता मुझे मीत बतलाइए?
ज्यों की त्यों क्यों रखूँ निज चदरिया कहें?
क्या बुरा तेल-कालिख अगर कुछ गहें?
श्वास सार्थक अगर कुछ उजाला दिया,
है निरर्थक न किंचित अगर तम पिया.
*
जानता-मानता कण ही संसार है,
सार किसमें नहीं?, कुछ न बेकार है.
वीतरागी मृदा - राग पानी मिले
बीज श्रम के पड़े, दीप बन, उग खिले.
ज्योत आशा की बाली गयी उम्र भर.
तब प्रफुल्लित उजाला सकी लख नज़र.
लग न पाये नज़र, सोच कर-ले नज़र
नोन-राई उतारे नज़र की नज़र.
दीप को झालरों की लगी है नज़र
दीप की हो सके ना गुजर, ना बसर.
जो भी जैसा यहाँ उसको स्वीकार कर
कर नमन मैं हुआ हूँ पुनः अग्रसर.
*
बाद दीपावली के सहेजो नहीं,
तोड़ फेंकों, दिए तब नये आयेंगे.
तुम विदा गर प्रभाकर को दोगे नहीं
चाँद-तारे कहो कैसे मुस्कायेंगे?
दे उजाला चला, जन्म सार्थक हुआ.
दुख मिटे सुख बढ़े, गर न खेलो जुआ.
मत प्रदूषण करो धूम्र-ध्वनि का, रुको-
वृक्ष हत्या करे अब न मानव मुआ.
तीर्थ पर जा, मनाओ हनीमून मत.
मुक्ति केदार प्रभु से मिलेगी 'सलिल'
पर तभी जब विरागी रहो राग में
और रागी नहीं हो विरागी मनस।
*
चल न पाये समय पर रुके भी नहीं
इसलिए हैं विकल मानवों के हिये।
प्यास को तृप्ति कैसे मिलेगी कहो 
दर्द में और के तुम अगर न दहो। 
जानते मानते तुम नहीं निज कमी 
और के गुण सराहे कभी क्या कहो?
पर्वतों से अडिग रह सके तुम नहीं,
यह न भाया कि सलिला बनो, नित बहो 
और का दुःख दिखा तो व्यथित हो सखे!
सुख सभी को मिले, सुख तभी हो मुझे
अलविदा कह चले, हरने तम आयें फिर
बाद दीपावली के दिए जो बुझे.
*
salil.sanjiv@gmail.com
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दोहा सलिला- नीति के दोहे

नीति के दोहे 
*
बैर न दुर्जन से करें, 'सलिल' न करिए स्नेह  
काला करता कोयला, जले जला दे देह 
बुरा बुराई कब तजे, रखे सदा अलगाव 
भला भलाई क्यों तजे?, चाहे रहे निभाव 
*
असफलता के दौर में, मत निराश हों मीत   
कोशिश कलम लगाइए, लें हर मंज़िल जीत 
*
रो-रो क़र्ज़ चुका रही, संबंधों का श्वास 
भूल-चूक को भुला दे, ले-दे कोस न आस 
*
ज्ञात मुझे मैं हूँ नहीं, यार तुम्हारा ख्वाब 
मन चाहे मुस्कुरा लो, मुझसे कली गुलाब 
*

छंद सलिला: उपेन्द्र वज्रा

छंद सलिला:
उपेन्द्र वज्रा
संजीव
*
इस द्विपदिक मात्रिक छंद के हर पद में क्रमश: जगण तगण जगण २ गुरु अर्थात ११ वर्ण और १७ मात्राएँ होती हैं.
उपेन्द्रवज्रा एक पद = जगण तगण जगण गुरु गुरु = १२१ / २२१ / १२१ / २२
उदाहरण:
१. सरोज तालाब गया नहाया
सरोद सायास गया बजाया
न हाथ रोका नत माथ बोला
तड़ाग झूमा नभ मुस्कुराया
२. हथेलियों ने जुड़ना न सीखा
हवेलियों ने झुकना न सीखा।
मिटा दिया है सहसा हवा ने-
फरेबियों से बचना न सीखा
३. जहाँ-जहाँ फूल खिलें वहाँ ही,
जहाँ-जहाँ शूल, चुभें वहाँ भी,
रखें जमा पैर हटा न पाये-
भले महाकाल हमें मनायें।

रविवार, 15 नवंबर 2020

चित्रगुप्त आख्यान

चित्रगुप्त आख्यान
॥ ॐ यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नमः ॥
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं,
‘धर्मराज चित्रगुप्त: श्रवणों भास्करादय:
कायस्थ तत्र पश्यनित पाप पुण्यं च सर्वश:’
चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम।
कायस्थ जन्म यथाथ्र्यान्वेष्णे नोच्यते मया।।
(सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विधमान चित्रगुप्त को प्रमाण। कायस्थ का जन्म यर्थाथ के अन्वेषण (सत्य कि खोज ) हेतु ही हुआ है।
>> यजुर्वेद आपस्तम्ब शाखा चतुर्थ खंड यम विचार प्रकरण से ज्ञात होता है कि महाराज चित्रगुप्त के वंसज चित्ररथ ( चैत्ररथ ) जो चित्रकुट के महाराजाधिराज थे और गौतम ऋषि के शिष्य थे ।
बहौश्य क्षत्रिय जाता कायस्थ अगतितवे।
चित्रगुप्त: सिथति: स्वर्गे चित्रोहिभूमण्डले।।
चैत्ररथ: सुतस्तस्य यशस्वी कुल दीपक:।
ऋषि वंशे समुदगतो गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यो महाप्रशिचत्रकूटा चलाधिप:।।
“प्राचीन काल में क्षत्रियों में कायस्थ इस जगत में हुये उनके पूर्वज चित्रगुप्त स्वर्ग में निवास करते हैं तथा उनके
पुत्र चित्र इस भूमण्डल में सिथत है उसका पुत्र (वंसज ) चैत्रस्थ अत्यन्त यशस्वी और कुलदीपक है जो ऋषि-वंश
के महान ऋषि गौतम का शिष्य है वह अत्यन्त महाज्ञानी परम प्रतापी चित्रकूट का राजा है।”
विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है।
येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत।
स जयत्यजित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय, कालाय, सर्वभूत क्षयाय च।।
औदुम्बराय, दघ्नाय नीलाय परमेषिठने।
वृकोदराय, चित्रायत्र चित्रगुप्ताय त नम:।।
एकैकस्य-त्रीसित्रजन दधज्जला´जलीन।
यावज्जन्मकृतम पापम, तत्क्षणा देव नश्यति।।
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म
किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते
हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है।

चित्रगुप्त भजन

चित्रगुप्त भजन सलिला:
संजीव 'सलिल' 
१. शरणागत हम 

शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु! 
हाथ पसारे आये 
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे! 
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी 
निराकार-साकार तुम्ही हो 
निर्गुण-सगुण देव आकाशी 
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो 
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी 
तिमिर मिटाने अरुणागत हम 
द्वार तिहारे आये 
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर 
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर 
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम 
तुम ही बृज रज के नटनागर 
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही 
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर! 
आत्म जगा दो; चरणागत हम 
झलक निहारें आये 
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे! 
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम 
गैर न कोई सब अपने हैं 
काया में हैं आत्म सभी हम 
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित 
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो 
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे! 
सुनो पुकारें आये 
*** 
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो... 
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो 
भवसागर तर जाए रे... 
जा एकांत भुवन में बैठे, 
आसन भूमि बिछाए रे. 
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में 
गुपचुप सुरति जमाए रे. 
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो 
निश-दिन धुनि रमाए रे... 
रवि शशि तारे बिजली चमके, 
देव तेज दरसाए रे. 
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल- 
गगन ज्योति दमकाए रे. 
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो 
मोह-जाल कट जाए रे. 
धर्म-कर्म का बंध छुडाए, 
मर्म समझ में आए रे. 
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह- 
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे. 
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो 

चित्रगुप्त हो जाए रे... 
३. समय महा बलवान... 
समय महा बलवान 
लगाये जड़-चेतन का भोग... 
देव-दैत्य दोनों को मारा, 
बाकी रहा न कोई पसारा. 
पल में वह सब मिटा दिया जो- 
बरसों में था सृजा-सँवारा. 
कौन बताये घटा कहाँ-क्या? 
कहाँ हुआ क्या योग?... 
श्वास -आस की रास न छूटे, 
मन के धन को कोई न लूटे. 
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं- 
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे. 
फूटे भाग उसी के जिसको- 
लगा भोग का रोग... 
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा, 
कितना किसने उसे सँवारा? 
समय बिगाड़े बना बनाया- 
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा. 
इसीलिये तो महाकाल के 
सम्मुख है नत लोग... 
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार... 
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार 
बार-बार है... 
कैसे रची है सृष्टि प्रभु! 
कुछ बताइए. 
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ?? 
मत छिपाइए. 
जो गूढ़ सच न जान सके- 
वह दिखाइए. 
सृष्टि का सकल रहस्य 
प्रभु सुनाइए. 
नष्ट कर ही दीजिए- 
जो भी विकार है... 
भाग्य हम सभी का प्रभु! 
अब जगाइए. 
जाई तम पर उजाले को 
विधि! बनाइए. 
कंकर को कर शंकर जगत में 
हरि! पुजाइए. 
अमिय सम विष पी सकें- 
'हर' शक्ति लाइए. 
चित्र सकल सृष्टि 
गुप्त चित्रकार है... 
*

'गोत्र' तथा 'अल्ल'

विमर्श :
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा का पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व् महामंत्री होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाति के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है. एक गोत्र तथा 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित होता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. गहोई वैश्यों में 'अल्ल' को 'आँकने' कहा जाता है तथा सामान 'आँकने' में विवाह नहीं किया जाता। एक ही गोत्र में कई पीढ़ियों से विवाह संबंध का दुष्परिणाम कायस्थों की प्रतिभा तथा बौद्धिकता में ह्रास के रूप में दृष्टव्य है. 

हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अल्ल 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे थे.

चित्रगुप्त पूजन क्यों

चित्रगुप्त पूजन क्यों?
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चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम में उनका जन्म प्रमाण पत्र है.कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती. नव उत्पत्ति प्रकृति तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता. चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह शक्ति निराकार है.हम निराकार शक्तियों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं.
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है.'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है.सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) केरूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं. यही शक्ति सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है. सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं. हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा,पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं.आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं.
वैदिक काल से कायस्थ जान हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं चूँकि वे जानते और मानते रहे हैं कि सभी में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा. कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया.
निराकार चित्रगुप्त जी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा. कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व,कोई जयंती,कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं सब चित्रगुप्त जी के एक विशिष्ट रूप के लिये हैं. उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते. यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा प्रचालन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया. यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वैदिक काल से है.
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा लोक में मान्य है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं.

समीक्षा चित्रगुप्त मीमांसा रवीन्द्र नाथ

: कृतिचर्चा :
चित्रगुप्त मीमांसा : श्रृष्टि-श्रृष्टा की तलाश में सार्थक सृजन यात्रा
चर्चाकार: आचार्य संजीव 'सलिल'
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(कृति विवरण: नाम: चित्रगुप्त मीमांसा, विधा: गद्य, कृतिकार: रवीन्द्र नाथ, आकार: डिमाई, पृष्ठ: ९३, मूल्य: ७५/-,आवरण: पेपरबैक, अजिल्द-एकरंगी, प्रकाशक: जैनेन्द्र नाथ, सी १८४/३५१ तुर्कमानपुर, गोरखपुर २७३००५ )

श्रृष्टि के सृजन के पश्चात से अब तक विकास के विविध चरणों की खोज आदिकाल से मनुष्य का साध्य रही है। 'अथातो धर्म जिज्ञासा' और 'कोहं' जैसे प्रश्न हर देश-कल-समय में पूछे और बूझे जाते रहे हैं। समीक्ष्य कृति में श्री रविन्द्र नाथ ने इन चिर-अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर अपनी मौलिक विवेचना से देने का प्रयास किया है।

चित्रगुप्त, कायस्थ, नारायण, ब्रम्हा, विष्णु, महेश, सरस्वती, इहलोक, परलोक आदि अबूझ प्रश्नों को तर्क के निकष पर बूझते हुए श्री रवींद्र नाथ ने इस कृति में चित्रगुप्त की अवधारणा का उदय, सामाजिक संरचना और चित्रगुप्त, सांस्कृतिक विकास और चित्रगुप्त, चित्रगुप्त पूजा और साक्षरता, पारलौकिक न्याय और चित्रगुप्त, लौकिक प्रशासन और चित्रगुप्त तथा जगत में चित्रगुप्त का निवास शीर्षक सात अध्यायों में अपनी अवधारणा प्रस्तुत की है।

विस्मय यह कि इस कृति में चित्रगुप्त के वैवाहिक संबंधों (प्रचलित धारणाओं के अनुसार २ या ३ विवाह), १२ पुत्रों तथा वंश परंपरा का कोई उल्लेख नहीं है। यम-यमी संवाद व यम द्वितीया, मनु, सत्य-नारायण, आदि लगभग अज्ञात प्रसंगों पर लेखक ने यथा संभव तर्क सम्मत मौलिक चिंतन कर विचार मंथन से प्राप्त अमृत जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है।

पुस्तक का विवेच्य विषय जटिल तथा गूढ़ होने पर भी कृतिकार उसे सरल, सहज, बोधगम्य, रोचक, प्रसादगुण संपन्न भाषा में अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है। अपने मत के समर्थन में लेखक ने विविध ग्रंथों का उल्लेख कर पुष्ट-प्रामाणिक पीठिका तैयार की है। गायत्री तथा अग्नि पूजन के विधान को चित्रगुप्त से सम्बद्ध करना, चित्रगुप्त को परात्पर ब्रम्ह तथा ब्रम्हा-विष्णु-महेश का मूल मानने की जो अवधारणा अखिल कायस्थ महासभा के हैदराबाद अधिवेशन के बाद से मेरे द्वारा लगातार प्रस्तुत की जाती रही है, उसे इस कृति में लेखक ने न केवल स्वीकार किया है अपितु उसके समर्थन में पुष्ट प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं।

यह सत्य है कि मेरी तथा लेखक की भेंट कभी नहीं हुई तथा हम दोनों लगभग एक समय एक से विचार तथा निष्कर्ष से जुड़े किन्तु परात्पर परम्ब्रम्ह की परम सत्ता की एक समय में एक साथ, एक सी अनुभूति अनेक ब्रम्हांश करें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। 'को जानत, वहि देत जनाई'... सत्य-शिव-सुंदर की सनातन सत्ता की अनुभूति श्री मुरली मनोहर श्रीवास्तव, बालाघाट को भी हुई और उनहोंने 'चित्रगुप्त मानस' महाकाव्य की रचना की है, जिस पर हम बाद में चर्चा करेंगे।

'इल' द्वारा इलाहाबाद तथा 'गय' द्वारा गया की स्थापना सम्बन्धी तथ्य मेरे लिए नए हैं. कायस्थी लिपि के बिहार से काठियावाड तक प्रसार तथा ब्राम्ही लिपि से अंतर्संबंध पर अधिक अन्वेषण आवश्यक है। मेरी जानकारी के अनुसार इस लिपि को 'कैथी' कहते हैं तथा इसकी वर्णमाला भी उपलब्ध है. संभवतः यह लिपि संस्कृत के प्रचलन से पहले प्रबुद्ध तथा वणिक वर्ग की भाषा थी।

लेखक की अन्य १४ कृतियों में पौराणिक हिरन्यपुर साम्राज्य, सागर मंथन- एक महायज्ञ, विदुए का राजनैतिक चिंतन आदि कृतियाँ इस जटिल विषय पर लेखन का सत्पात्र प्रमाणित करती हैं। इस शुष्ठु कृति के सृजन हेतु लेखक साधुवाद का पात्र है ।
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