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बुधवार, 9 सितंबर 2020

तवा बाँध पर स्वप्न

इं. आर. पी. खरे की कालजयी रचना
कुछ दिन पूर्व एक मित्र ने तवा बाँध के स्पिलवे से निकलने वाले प्रवाह का
मनोरम दृश्य पोस्ट किया था ।मुझे सुखद अनुभूति हुई क्योंकि निर्माण काल
में मैं इस परियोजना मे पदस्थ था ।
तवा बाँध पर स्वप्न
———————————-
(यह कविता १९७० मे लिखी गई थी जब नर्मदा की सहायक नदी तवा पर बाँध
निर्माणाधीन था। एक और नदी देनवा का इसमें ज़िक्र है जो तवा में यहीं आकर मिलती है)
रात का दूसरा पहर
चाँदनी प्रगल्भ हुई
ऊपर उठा चाँद
फैल गया सम्मोहक
श्लथ सा आह्लाद ।
प्रेक्षामंडप में खड़ा इंजीनियर
बन गया कवि
तवा बनी तरुणी
देनवा से गलबहियाँ डालती
इठलाती बल खाती
काफर डैम की छेड़छाड से
बचती कतराती
शरमाती बह गई ।
फैल गया घाटी में रूप का प्रभाजाल
यौवन की पहिली पहिचान सी
मोहनी समाई सी रह गई ।
देखता रहा कवि-
तवा अभी वन्या है
किसी पुरुष की बाँहों मे नहीं बंधी
अभी भी चंचला कुमारिका गिरिकन्या है
सतत प्रवाहमयी
खोजती है राह
बाट जोहती उस विराट की
इस चट्टानी घाटी में
जो कवि की अन्तर्भूमि मे जग रहा है धीरे धीरे
पत्थर पर पत्थर
रखते हैं अनगिनत मज़दूर
रूप ग्रहण करता है विराट
पत्थर से बनता परमेश्वर ।
बाँध जब पूरा होगा
विराट दृढ़ संकल्प शिव की तरह
उन्नत मस्तक
फैलाकर मिट्टी के बाँध रूपी प्रलम्ब बाहु
बाँध लेगा इस पार्वती को
अपने बज्र वक्ष में
तवा बनेगी सरोवरा
यौवन की बाढ़ का हरहराता आवेग
शमित हो , जायेगा
शान्त हो जायेगा
तब यह बनेगी पयोधरा
फूटेंगी पयस्विनी ,रसस्विनी
वाम और दक्षिण नहर
और यहाँ अंतर मे
लहरायेगा शान्त सरोवर
वाम और दक्षिण भाग मे खड़े ये प्रेक्षामंडप
खड़े होंगे साक्षी से
कहेंगे कथा उस चाँदनी रात की
जब यहाँ एक इंजीनियर ने देखा था स्वप्न ।।

मुकुटबिहारी सरोज के दो नवगीत

श्रद्धेय मुकुटबिहारी सरोज के दो नवगीत
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* एक *
सचमुच बहुत देर तक सोये ।
इधर यहाँ से
उधर वहाँ तक ।
धूप चढ़ गयी
कहाँ कहाँ तक ।
लोगों ने सींची फुलवारी
तुमने अब तक बीज न बोये
दुनिया
जगा-जगा कर हारी ।
ऐसी
कैसी नींद तुम्हारी ।
लोगों की भर चुकीं उड़ानें
तुमने सब संकल्प डुबोये ।
जिनको
कल की फ़िक्र नहीं है ।
उनका
आगे ज़िक्र नहीं है ।
लोगों के इतिहास बन गये
तुमने सब सम्बोधन खोये ।
सचमुच बहुत देर तक सोये ।
.........
* दो *
मेरी कुछ आदत ख़राब है ।
कोई दूरी मुझसे नहीं सही जाती है
मुँह देखे की मुझसे नहीं कही जाती है
मैं कैसे उनसे प्रणाम के रिश्ते जोडूं
जिनकी नाव पराये घाट बही जाती है
मैं तो खूब खुलासा रहने का आदी हूँ
उनकी बात अलग
जिनके मुँह पर नक़ाब है ।
है मुझको मालूम हवाएं ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिए दवाएं ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण ग़लत होते जाते हैं
शायद युग की नयी ऋचाएँ ठीक नहीं हैं
जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वह किताब भी
क्या कोई अच्छी किताब है ।
वैसे जो सबके उसूल, मेरे उसूल हैं
लेकिन,ऐसे नहीं कि जो बिल्कुल फ़िज़ूल हैं
तय है,ऐसी हालत में कुछ घाटे होंगे
लेकिन,ऐसे सब घाटे मुझको क़ुबूल हैं
मैं,ऐसे लोगों का साथ न दे पाऊँगा
जिनके ख़ाते अलग
अलग जिनका हिसाब है ।
मेरी कुछ आदत ख़राब है ।
""""""""
किनारे के पेड़ नामक काव्य संकलन से
.............................

शुभकामना गीत

प्रिय पुष्पा जिज्जी!
सादर प्रणाम सहित
भावांजलि
*
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
ओंकारित होकर मुस्काओ
जीवन की जय-जय गुंजाओ
महके स्नेह-सुरभि दस दिश में
ममतामय नर्मदा बहाओ
पुष्पाओ तो हो
जग मधुवन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
अंशुमान अँगना उजियारे
आशुतोष उपकृत, मन वारे
सोनल तुमसे गहे विरासत
मृदुल मेघना जाती वारे
आशा-किरण
साधनामय मन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
पूनम की सुषमा है तुमसे
अर्णव-श्रेया झूमे-हुमसे
राजिव-संजिव नज़र उतारें
आरोही कैयां में हुलसे
भाव सलिल
लहरों का गुंजन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*

बुंदेली दोहा

दोहा सलिला :
बुंदेली दोहा
*
का भौ काय नटेर रय, दीदे मो खौं देख?
कई-सुनी बिसरा- लगा, गले मिटा खें रेख.
*
बऊ-दद्दा खिसिया रए, कौनौ धरें न कान
मौडीं-मौड़ां बाँट रये, अब बूढ़न खें ज्ञान.
*

पुरोवाक्: फलित ज्योतिष कितना सच कितना झूठ - विद्यासागर महथा

पुरोवाक्: फलित ज्योतिष कितना सच कितना झूठ - विद्यासागर महथा
आचार्य संजीव
*
पुरुषार्थ और भाग्य एक सिक्के के दो पहलू हैं या यूँ कहें कि उनका चोली-दामन का सा साथ है. जब गोस्वामी तुलसीदास जी 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'हुइहै सोहि जो राम रचि राखा' में से किसी एक का चयन नहीं कर पाते तो आदमी भाग्य और कर्म के चक्कर में घनचक्कर बन कर रह जाए तो क्या आश्चर्य?
आदि काल से भाग्य जानने और कर्म को मानने प्रयास होते रहे हैं. वेद का नेत्र कहा गया ज्योतिष शास्त्र जन्म कुंडली, हस्त रेखा, मस्तक रेखा, मुखाकृति, शगुनशास्त्र, अंक ज्योतिष, वास्तु आदि के माध्यम से गतागत और शुभाशुभ को जानने का प्रयास करता रहा किन्तु त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ भी काल को न जान सके और महाकाल के गाल में समा गये.
ज्ञान का विधिवत अध्ययन, आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण, अवधारणाओं परिकल्पन परीक्षण तथा प्राप्त परिणामों का आगमन-निगमन, निगमन-आगमन पद्धतियों अर्थात विशिष्ट से सामान्य और सामान्य से विशिष्ट की ओर परीक्षण जाकर नियमित अध्ययन हो तब विषय विज्ञान माना जाता है. यंत्रोपकरणों, परीक्षण विधियों और परिणामों को हर दिन प्रामाणिकता के निकष पर खरा उतरना होता है अन्यथा सदियों की मान्यता पल में नष्ट हो जाती है.
भारतीय ज्योतिष शास्त्र और सामुद्रिकी विदेशी आक्रमणों, ग्रंथागारों को जलाये जाने और आचार्यों को चुन-चुन कर मरे जाने के बाद से 'गरीब की लुगाई' होकर रह गयी है जिसे 'गाँव की भौजाई' मानकर खुद को ज्योतिषाचार्य कहनेवाले पंडित-पुजारी-मठाधीश तथा व्यवसायी गले से नहीं रहे, उसका शीलहरण भी कर रहे है. फलतः, इस विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण की कोई सुव्यवस्था नहीं है. शासन - प्रशासन की ओर से विषय के अध्ययन की कोई योजना नहीं है, युवा जन इस विषय को आजीविका का माध्यम बनाने हेतु पढ़ना भी चाहें तो कोई मान्यता प्राप्त संस्थान या पाठ्यक्रम नहीं है. फलतः जन सामान्य नहीं विशिष्ट और विद्वान जन भी विरासत में प्राप्त आकर्षण और विश्वास के कारण तथाकथित ज्योतिषियों के पाखंड का शिकार हो रहे हैं.
अंधकार में दीप जलने का प्रयास करनेवालों में श्री कृष्णमूर्ती के समान्तर श्री विद्यासागर महथा और उनकी विदुषी पुत्री श्रीमती संगीता पुरी प्रमुख हैं. प्रस्तुत कृति दोनों के संयुक्त प्रयास से विकसित हो रही नवीन ज्योतिष-अध्ययन प्रणाली 'गत्यात्मक ज्योतिष' का औचित्य, महत्त्व, मौलिकता, भिन्नता और प्रामाणिकता पर केंद्रित है. इस कृति का वैशिष्ट्य प्रचलित जन मान्यताओं, अवधारणाओं तथा परम्पराओं की पड़ताल कर पाखंडों, अंधविश्वासों तथा कुरीतियों की वास्तविकता उद्घाटित कर ज्योतिष की आड़ में ठगी कर रहे छद्म ज्योतिषियों से जनगण को बचने के लिये सत्योद्घाटन करना है. श्री महथा ने ज्योतिष को अंतरिक्षीय गृह-पथों कटन बिन्दुओं को गृह न मानने अथवा सभी ग्रहों के कटन बिन्दुओं को समान महत्व देकर गणना करने का ठोस तर्क देकर गत्यात्मक ज्योतिष प्रामाणिकता सिद्ध की है.
यह ग्रंथ जड़-चेतन, जीव-जंतु, मानव तथा उसके भविष्य पर सौरमंडल के ग्रहों की गति के प्रभावों का अध्ययन तथा विश्लेषण कर समयपूर्व भविष्यवाणी की आधार भूमि निर्मित करता हैA श्री महथा रचित आगामी ग्रन्थ उनके तथा सुशीला जी द्वारा विश्लेषित कुंडलियों के आँकड़े व् की गयी भविष्यवाणियों के विश्लेषण से गत्यात्मक ज्योतिष दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर लोकप्रियता अर्जित करेगा अपितु शिक्षित बेरोजगार युवा पीढ़ी अध्ययन, शोध और जीविकोपार्जन का माध्यम भी बनेगा, इसमें संदेह नहीं। मैं श्री विद्यासागर जी तथा संगीता जी के इस भगीरथ प्रयास का वंदन करते हुए सफलता की कामना करता हूँ.

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन
जबलपुर ४८२००१
९४२५१ ८३२४४   

निमाड़ी मुक्तिका ब्रजेश बड़ोले

निमाड़ी मुक्तिका
 ब्रजेश बड़ोले
*
चादर असी काईं वड़ेल छे।
माथो ढाकेल पाँय उघड़ेल छे।।1

छोरा वऊ सयर मs रमिया।
माय बाप गांव मs एकला पड़ेल छे।2

कां जाय बिचारा काकड़ छोड़ी नs।
पुरखा उनका भी तो व्हाज गड़ेल छे।3

जिनगी काटी ढूडण मs तुखs।
असी कसी  कां तू दपडेल छे।।4

इनी होळई सुकी नी रहयगs ।
बजेस कs भी भांग चड़ेल छे।।5

उतरs जsव नसों ,सब फ़िको फ़िको।
बिना थारा, रंग सगळा उड़ेल छे।।6

यार दोस भी फिरी रह्यज असाज।
एक लावतो नी, दुसरा की अड़ेल छे।7
*

                  

मुक्तिका

मुक्तिका
- चिंतन करें, चिंता तजें
  करनी करें, प्रभु भी भजें
 
  करनी गलत करिए नहीं
  हो गलत तो मन में लजें
 
  बनिए सहायक दीन के
  कर कर्म शुभ जग में पुजें

  हैं बोलियाँ अपनी सभी
  उद्यान में गुल सम सजें

  तन को सँवारे नित 'सलिल'
  मन भी हमारे अब मँजें
*

हरियालो आँचल हरीश निगम

हरियालो आँचल
हरीश निगम
*
भूमिका
मन की बात उजागर कर दूँ

कुसुम कुंज हरियालो आँचल और हिरना साँवली का बाद कोई नवी पोथी आपका सामें आती तो जरा बात बनती पर इनी किताब की माँग जगे-जगे होने की वजह से या बात सोची के पेलां ई की दूसरी खेप देनी जरूरी है।

लोकभाषा की पोथी का पाठक गिन्या-चुन्या है, वैसे श्रोता होन का प्यार तो भोत मिलीरियो है, पर अबे पाठक भी तय्यार हुइर् या है या मालवी का वास्ते गौरव की बात है।देश का कोना-कोना में भाई श्री बालकवि बैरागी ने और हमारा मालवी परिवार का कवि होन ने मंच से सुनई है। कश्मीर से लगई के कलकत्ता तक मालवी के आदर मिल्यो है या याँ की माटी की देन हे, हमारा देश की लोकभाषा होने की या पहचान है के वा होट से निकले तो हिरदा तक पोंची जाय है। बिगर लाग-लपेट की सीधी-सपाट बात सबके अच्छे ळगे हे। म्हारे तीस बरस में यो अनुभव आयो है के जो गीत गाँव के मेला-ठेला में पसंद आयो ऊज गीत कालेज और विश्वविद्यालय का मंच होन पे भी उनीज चाव से सुनी गयो।

मध्यप्रदेश को जयंती बरस चलीर् यो है, हरियालो आँचल खास तोर से मालवा पर तो हेज साथ में मध्यप्रदेश का खास-खास दर्शनीय स्थान की झाँकी आपकी सेवा में पेश है।

कविता यूँ बनी के एक मालवा को नोजवान ऊकी शादी दिल्ली हुई। शादी का बाद पति-पत्नि दोई दिल्ली की यात्रा पर निकल्या। लाल किला में बैठी ऊकी घरवाली बोली के "म्हारी दिल्ली तो ऐसी रंग-रंगीली छैल-छबीली है वाँ मालवा में आप म्हारे लइ जई के कँईं बताओगा?"

मोट्यार बोल्यो 'तू म्हारा साँते जरा घरे तो चल म्हारो हँसतो-गातो, मौज मनातो, चैन की बंसी बजातो भारत माता का हिरदा में रतन की तरे जड्यो
कीमती हीरो मालवो देख तो सी, थारे जिंदगी को मजो अइजायगो और तू इनी महानगर की तड़क-भड़क सब भूली के हरियाली में खोई जायगी।'

उनकी यात्रा ग्वालियर से शुरू होय और  मृत्युंजय महाकाल की नगरी का आसपास खत्म होय है, इनी बीच मालवा की संस्कृति, इतिहास, भूगोल, जन जीवन, जंगल की छटा, मंदिर, किला और खास-खास लोग और उनका काम की शोभा देखी के नायिका ठगी सी रह जाय है।

इनी यात्रा में आपको भी साँथ लई  चलीरियों हूँ, इनी भरोसा पे के आप पूरी यात्रा में साँथ निभाओ नीति मैं तो अपनी निराली के लई के आगे बढ़ी जऊँगा।

आज से दो हजार बरस पेलां महाकवि कालिदास ने मेघदूत भेजी के इनी पावन भूमि के अमर बनाया है, याँ की माटी धन्य है, उपजाऊ,  मक्खन सरीखी फिसलन वाली और यात्री का पाँव में चोंटी के यो संदेशो दे है के आप याँज अपनो आवास करो। इकी जितरी महिमा गाँवा उतरी कम है।

पोथी आपका हाथ में है, जैसी भी है आपकी अपनी है, या कोई भी कोना से आपके अच्छी लगे तो मैं समझूँगा के म्हारी कलम सार्थक है और कोई खामी नजर आय तो वा म्हारे माथे मढ़ी दीजो।
निगम कुंज                 - हरीश निगम
३८\१ यंत्रमहल मार्ग
उज्जैन (म प्र)
*
भूमिका - हरियालो आँचल, द्वितीय १९८२।
*

मात नरबदा देखो राणी, ईसा चरण पखाले रे।
चम्बल की महिमा से धरती, हालर-झूमर हाले रे।
अरे बेवा बेहद बणी के, लाड़ करे है बीर का।
विंध्या की घाटी पे ऊग्या, बादल गुलाल अबीर का।
क्षिप्रा का गुण गान करी ने, उज्जयिणी  सुख पावे है।
सत्पुड़ा से झरना झरता, मालव का गुण गावे है।
नदी, ताल, पोखर, सरवर भी, फोड़ीन्या पाताल वो।
भारतमाता का हिरदा में, जड़्यो रतन सो मालवो।

तानसेन की बणी समाधी, यां तो फूल चढ़ाने है।
लक्ष्मीबई की छत्री ऊपर, जइके शीश झुकानो है।
या वा भूमि है राणी जां, जन्म्या बाजू बावरा।
गालवमुनि ने करी तपस्या, बड़ा बन्या है रावरा।
मान और गुजरी महलाँ से, जइके देश निहारांगा।
जय हिंद जय मालव प्यारा, वां से याज पुकारांगा।
ई की रक्षा का सारु, सीना की म्हारी ढाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।

चँदेरी का चादर ऊपर, कैसा लेहग्या चमके रे।
अरे सुहागण पेरो साड़ी, कैसी दूणी दमके रे।
एक बखत जो पेरी ले तो, वाराणासी छोड़े रे।
छोटा छोटा तार जरी का, मन का तार जोड़े रे।
ढाका की मलमल के या तो, कितनी दूर, बिठावे रे।
सीली सीली हवा चलीरी, चंदेरी लेहरावे रे।
धीरे धीरे चलो सलोनी  लावण जरा समाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।

विदिशा की नगरी में राणी, यां वराह भगवान है।
काला बादल सी धरती या, कितनी सुंदर श्याम है।
सौंधी-सौंधी धरती ऊपर, उद्योगपति लहरावे वो।
एलीफंटा और एजन्टा, इनकी याद भुलावे वो।
मालव का किरसाण हटीला,  देखो श्रम में जूझीर् या।
बादल बिजली काबू करती, तूफाना से खेलीर् या।
चंबल का दरिया पे बाँधी, कितनी ऊँची पाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।

साँची का स्तूप बण्या है, ई शांति का दूत है।
झाँसी की महिमा गावे, मालव माँ का पूत है।
हेल्यूडोवर का थांबा पे, जईके माथो टेकांगा।
इनी देश की गाथा के, वां का भाटा पे लेखांगा।
बड़ी गुफा में जवीरी है, जानी बातां देश की।
दर्शक होण की भीड़ लगीरी, देखो देश-विदेश की।
गाड़ी में बैठी के राणी, चलां ताल भोपाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।

पंचवटी सी पंचमढ़ी है, सुंदर खोड्या पहाड़ वो।
काली बदली का घूंघट से, आज करीर्या लाड़ वो।
धरती को मीठो संदेशो, नील गगन के पोंचावे।
आसमान की चिट्ठी पत्री, नित धरती के दई जावे।
ऊँची नीची घांटी होन में, रस्ता है टेढ़ा मेढ़ा।
झुरमुट होन में पनिहारी का, झलकीर्या सुंदर बेड़ा।
काठी बाँह पकड़जे गोरी, खुद के जरा समाल वो।
भारत माता के हिरदा में, जड़्यो रतन सो मालवो।

जबलपुर का रेवा तीरे, चमके भेड़ा घाटी रे।
संगमरमर की चट्टान के, चाँदी सरकी पाटी रे।
साड़ी मकड़ी धाराहोन में, सरकीरी है नाव वो।
नीला नीला आसमान पर, है चंदा की छाँव वो।
मिसरी सरकी मीठी मीठी, इनी देश की रातां वो।
या जीवन की नाव चली री, करां प्यार की बाता वो।
लीला रूखा की लेहरां पर, झुकी रही है डाल वो।
भारत माता के हिरदा में, जड़्यो रतन सो मालवो।

जितरी सीधी, उतरी मीठी, प्यारी यांकी बोली रे।
हिंदी का निर्मल तन पे, चमके जैसे चोली रे।
बंगाली, तमील, तेलगू , मलयालम, उर्दू, सिंधी।
महाराष्ट्र, उड़िया, गढ़वाली, जय बोलो माता हिंदी।
निमाड़ी, गुजराती, डिंगल, प्यारी ई की बेचना है।
छत्तीसी, बुंदेली, भीली, गोंडी का कई कहना है।
हिंदुस्तानी का कंकू से, चमके ई को भाल वो।
भारत माता के हिरदा में, जड़्यो रतन सो मालवो।

मालव को कश्मीर शिवपुरी, यां की शोभा न्यारी रे।
यां थोड़ी सुख-सातां पावां, आइजा म्हारी प्यारी रे।
लाल-लाल धरती का ऊपर, लीला-लीला रूखा है।
गाँव गोयारो बड़ी झील है, जंगल घना अनोखा है।
शबे मालवा, सीली, रातां, शरद पवन को झोको है।
ऊषा रानी के सूरज से, मिलने को यो मोको है।
हल हुइ जावे याँ जीवन को, मोटो कठिन सवाब वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो
१०
कंई कंई कु कंई समझाऊँ, महिमा जग से न्यारी है।
हरिश्चंद्र सा दानी यां का, भामा सा व्यापारी है।
बचपन ई कृष्ण-कन्हैया, विद्या भणवा आया रे।
सांदीपनि का आश्रम में, ई साथ सुदामा लाया रे।
मितरता की रीत जगत में,  अमर कहानी हुइगी रे।
पेलां भणता था पोथी में, अबे जवानी हुइगी रे।
थाकी होतो बैठी जाबां, और बतऊँगा हाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो
११
भेरूगढ़ का छापा को, बंदागल आज मोलानो है।
रत्नललामी घांटड़िया के, थारा बस्ते लानो है।
भेरव बाबा का दर्शन के, वेगी अपनों जानो है।
कालीदा का कुंड होनो में, अपने जइके न्हानो है।
सिद्धेश्वर का नाथ से प्यारी, ऐसी मान करावांगा।
एक बलूड़ो दीजे दाता, छत्तर थारे चढ़ावांगा।
मंगल बाबा, मात कालका, खूब सज्यो है मालवो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो
१२
चौसट माता, चौबीस खंबा, जंतर-मंत्र देखांगा।
चाँद-नखेतर, किस्तर चाले, इनी बात के लेखांगा।
गोपीचंद भरथरी राजा, कैसा तप में भींज्या रे।
राजा-राजा करे पींगला तो भी नहीं पसीज्या रे।
जोग रमइ के अमर गुफा में, तप में जीवन छोड्यो रे।
हरसिद्धी, महाकाल, गणपति, बीच बस्या गोपाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
१३
 बारा बारा बरसां में याँ, लगे 'सिंह' को मेलो रे।
लाखों की संख्या में साधू, होवे याँ तो भेलो रे।
मालव की गंगा क्षिप्रा में, अबतो चुपकी माऱाँगा।
जनम-जनम का पाप धुलेगा, तीन जनम के ताराँगा।
सिंगत की रंगत देखी के, चलां दत्त दरबार वो।
धरम-करम में हाथ बटइलां, बटवो जरा निकल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो
१४
कोई पद गावे सूरदास का, कोई कबीरा की वाणी।
मीरां मतवाली का गाणा से, गूंजी री अंबर वाणी।
चन्द्रसखी का भावगीत में, मुकता बाजे साज वो।
"नानीबाई का मामेरा में, ठाकुर जी ने लाज वो"।
आल्हा-ऊदल ताल ठूमरी, नौटंकी और ब्रह्मानंद।
गरबा, माच, राम की लीला, हुइर्यो है स्वर्गीय आनंद।
रामदेव को ब्याव गवइर्यो, भर्यो हुवो चौपाल वो। 
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
१५
यो मालव को हिरदो प्यारी, ई को आगर नाम है।
आगर में सागर लहरावे, बैजनाथ को धाम है।
गोरा हों की बड़ी छावनी, बणी नगर का बाहर वो।
सत्तावन में गोली चाली, भाग्या कितना नाहर वो।
धरम करम को बड़ो अखाड़ो, पूजीर्या परदेसी वो।
सपना में संपत मिल जावे, माने आज विदेशी वो।
पनिहारी बेड़ा के लइके, चढ़े ताल की पाल वो
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
१६
तालाकूँची का कुवला में, भूल भुलइया खेलांगा।
क्षिप्रा तीरे बम्बूलां में, अलमस्ती से टेलांगा।
धन्वतरि को बूटी बन है, शंकर रम्या पहाड़ी में।
कितरो मोटो मेलो लाग्यो, प्यारी गंगावाड़ी। में
बब्रू वाहन की चोटी से, निकलीरी हे राखवो।
ऐसी भूमि पर थी, अंग्रेजां की धाक वो।
सं अट्ठारा सौ सत्तावन का, यहाँ छिप्या है हाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
१७
खेत ख़ुशी है, खला ख़ुशी है, बाग़ बगीचा लहरावे।
कुञ्ज-कुञ्ज में काली कोयल, श्रम भेरी के गावे।
बड़ा डागला देखो रानी, गोफणवाली इतरावे।
लीला लीला खेतां होन में, लीलो लहर्यो लहरावे।
बाँका-चूंका चाँस नदी का, फसलां होन में लूमे रे।
सदा सुहागण मस्त हुई के, खेतां होन में झूमें रे।
गूंदी ऊपर अमर बेलड़ी, आज सुखइरी बाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
१८
सीताफल का कुंजन वन है, और जामुन का गुच्छा है।
घनी करमदी की राड़ी में, फूलां का गुलदस्ता है।
मस्ती से आयो बसंत तो, मद से फूली अमराई।
राग बहारी कोयल गावे, भ्रमर बजावे शहनाई।
खारक सरकी बड़ी सवादी, लागे यहाँ खजूर है।
नीरा पीवे, गोल उगाले , मस्त यहाँ  मजदूर है।
पोसई जावे सगला यां तो, खावे आटा-दाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
१९
नाला होन भी प्यास बुझावे, प्यारा यांका गाँव की।
लीला-लीला नंदन वन में, कमी नहीं है छाँव की।
मोटा मोटा ताल झील सब, अरे समंदर सा लागे।
खेतां होन में पानी सींचे, कमल सिंगोड़ा लागे।
ग्रीषम की गरमी में प्यारी, होय रेत की खेती वो।
परबत की चट्टाना ऊपर, शर्म की चाले गेंती वो।
पग-पग  मिल जावे, कदी पड़ी नी काल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।                                                
२०
जनमेजय का नाग यज्ञ की, अभी भभूति शेष है।
करां शंख उद्धार अभी तो, यो चंबल का देश है।
नगर जावरो आवेगा वां, हुसेन टेकरी जावाँगा।
पीर बापजी की भभूत लई, वांज जलेब चढांवांगा।
बड़नेगर का बूट पेर के, फेर सफर में चालांगा।
सेलाना ककड़ी लइके, धौंसवास में खावांगा।
खाचरोद का छपर पलंग पर, अबे बिछाणो ढालवो।   
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२१ 
यो रेशम को मिल बड़ो है, प्यारी बिड़ला ग्राम में।
कितना भाई बहिन लगीर्या, अपना अपना काम में। 
जगमग जोत जली री श्रम की, रोज मनी री दीवाली। 
चंबल माता की कलकल से, चमकीरी हरियाली। 
आधा सीसी को जंगल थो, श्रम का महल बनाया वो। 
बिजली घर ने गाँव-गाँव के, चमक चमक चमकाया वो। 
गाँव गाँव खेड़ा बस्ती में, श्रम की बली मशाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२२ 
चंबल माँ बाँध बंध्धो है, सब से मोटो तीरथ है। 
आखी दुनिया में फैलीरी, प्यारी ई की कीरत है। 
सागर सरकी लहरीली है,  कितरी मोटी झील रे। 
भारत माता का वैभव की, आज मिली मंजील रे। 
गाँव गाँव में बिजली चमके, नहर नहर  में पानी रे। 
देस हमारो सरग बनेगा, सुनले म्हारी रानी रे। 
अन, धन, लछमी सभी मिलेगी, होगा देस निहाल वो। 
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२३ 
दशपुर का दर्शन का सारु, मेघदूत  तरस्या रे। 
कालिदास की उज्जयिनी में, बूँदा-बाँदी बरस्या रे। 
भील मुलुक में घुमीरी, मालव की सजग जवानी रे।
अमझेरा की अमर गुफा में, रुख्मा की अमर कहानी रे। 
ई मस्ताना भील भिलाला, पर्वत होन से खेले रे। 
अपनी काठी काया पे ई, सर्दी-गर्मी झेले रे। 
धरती की गोदी में ई को, काटे आखे साल वो। 
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२४ 
बाग गुफा में जइके राणी, बाग बाग हुई जावांगा। 
बड़वानी में आदिनाथ  के, जइके माथ नमावांगा। 
ऊ कारीगर धन्य जगत में, बावन गज भाटो कोर्यो।
कितनो ऊँचो पहाड़  बण्यो थो, अपनी छीनी से फोड्यो। 
अचरज होगा थारे राणी, मोटी सूरत देखी के। 
म्हारा से चोंटी जावेगी, अपनो माथो टेकी के। 
खल घाटी में रेवा तीरे, यांज दुफेरी वो।      
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२५ 
मोटर में बैठी के राणी, धारापुर में जानो है। 
'फड़के' की मूरत देखी के, धन्य धन्य हुइ जानो है। 
ऊँची चढ़के  खड़ी कालका, गले रुण्ड की माला रे। 
मार्तण्ड मंदर देखो के, चलां भोज के शाला रे। 
सुधर किला पे देखो राणी, बैठ्या बंदी छोड़ रे। 
लाखों का बंधन तोड़ीद्या, दुश्मन होन की खोड़ रे। 
नित्यानंद की वाणी समाधी, देखां चौदा ताल वो। 
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२६ 
गढ़ मांडव की बात सुनी के, कायर नाहर होव वो। 
परबत की चट्टाना ऊपर, वीर जुझारा सोवे वो। 
प्रेम प्रीत की रीत निभाती, रूपमती शर्मइरी है। 
बाज बहादुर की महिमा रे, धरनी यां की गइरी है। 
जहाज महल के देखो राणी, मुंज ताल के निरखांगा। 
हिंडोला के महल पे राणी, प्यार तमारा परखांगा। 
महल शीश से दिखे नरबदा, घूँघट जरा समाल वो। 
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२७ 
अमर शहीदां की लोइ से, सिंचित यां की भूमि है। 
जिनने गोली सीने झेली, संगीना के चूमी है। 
बखतावर सरदारपुरी का, आजादी का मतवाला। 
शेखर, भगतसिंग आजाद ने, पेरी गोली की माला। 
महाकाल सा वीर बहादुर, गोवा में कामे आया। 
बरथरिया बाबू ने अपनी, होमी सीमा पे काया। 
धन्य देश का पूत तमारे, जीवो लाखों साल वो। 
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२८
महेश्वर जी का घाट बण्या है, मात अहल्या थी दानी।
उनकी भक्ति अमर देश में, जीवे अमिट निशानी।
उगल-थुगल उतराती नीचे, बेवे सागर की राणी।
गेर-गमीरी बहे नरबदा, चमकीर्यो लीला पाणी।
जबलपुर को चिकणो भाटो, या प्रीतम तक लई जावे।
ओंकारेश्वर का मंदर पर, सौ सौ फेरा खइ जावे।
अरे समुन्दर याद करीर्यो, नदिया बेगी चालवो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
२९
कसा चितेरा फोटू खेंचे, गोरीहोन का अंग में।
राम-कृष्ण और हनुमानजी, सीता-राधा संग में।
नरम हाथ में ॐ छपावे, भव्य भाल पर टीकी रे।
अमर सुहागन का सामें, चंदा की आभा फीकी रे।
मूरत की सूरत देखी लो, जीती मूँडे बोले रे।
कलाकार की कलम कमाली, मनकी कलियाँ खोले रे।
हाथ चूड़लो, पाँव मछली , कम्मर में खेले लाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
३०
बड़ा अचंभा इनी मुलक में, कंई कंई थके बतऊँ रानी।
बुगदा होन में गाड़ी चाले, पड़े पताल में पानी।
महू छावनी बड़ी बणी है, बीच सरग को मंदर है।
अष्ट धात की मूंडे बोले, मूरत ऊका अंदर है।
इन्द्रेश्वर महाराज बिराजा, तम जूनी रजधानी में।
बीजासन का दर्शन करना, गंभीरी का पानी में।
देख शिखर देवास का ऊपर, मूरत है विकराल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
३१
बरखा में सावन का झूला, थके झुलाऊँ चल गोरी।
धीरे मचोला देव सायबा, मती करो तम बरजोरी।
लेंहगा की लावण का साते, फहरे पचरंग चूनरिया।
रात चाँदनी चढ़े हिंडोला, झूले गौरी साँवरिया।
मटमेली बदली से चंदो, छिपी छिपी ने झाँकेगो।
अपनी रंगरेली के राणी, अंबर पर से आँकेगो।
कजरारी आंख्या में प्यारी, प्यार मदीरा ढाल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
३२
गेर गमीरो यो हरियालो, प्यारो मालव देश है।
ठंडो कोयनी, गरम कोयनी, म्हारो मध्य प्रदेश है।
मेहमानां की करे सरवरा, ऐसा यां का नर-नारी।
एक बखत जो अइ जाबे ऊ, बिसरावे आफत सारी।
धरती का ई पूत हठीला, कपट कोयनी जाणे रे।
सागर का डोला पाणी के, सरल प्रेम से छाणे रे।
पारवती का पीयर राणी, थारी या ससुराल वो।
भारत माता का हिरदा में, जड्यो रतन सो मालवो।
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मालवी हाइकु ललिता रावल

मालवी हाइकु
ललिता रावल
*
बिलपत्तर
ठूँठ सावन माय
भोला रिझाय
*
इंद्रधनुष
छटा बिखेरीरियो
अकास माय
*
पँखेरू उड्या
बसेरा पे लौटीर्या
अकास गूंज्यो
*
पूरबी हवा
पच्छम आड़ी लइ
हिलोर लइ
*
रमा-झमा से
सावन सेरो लायो
भादो ग़ैरायो
*
लीलो आकास
सफेद हुइ गया
बूड़ो हुइ ग्यो
*
जेठ को घाम
तपावे आखो गाम
असाड़ पाछे
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