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शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

navgeet

नवगीत :
संजीव 
*
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
बम भोले है अपनी जनता 
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े 
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल 
तीन तिलंगे कूटते. 
पत्रकार चंडाल चौकड़ी 
बना प्रजा को लूटते. 
किससे गिला शिकायत शिकवा 
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है 
थाना दंदी-फंदी है. 
काले कोट लगाये पहरा 
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे 
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से 
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को 
डॉक्टर भूले लाज-शरम. 
संसद में गुंडागर्दी है 
टूट रहे हैं सभी भरम. 
सीमा से आतंक घुस रहा 
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका 
इतिहासों में ज़िक्र है? 
पैसे वाले पद्म पा रहे 
ताली पीट रहे दाऊ 
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
सेवा से मेवा पाने की 
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा 
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली 
निकट आ घुसी है घर में. 
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली 
हिंदी भाषा के स्वर में. 
मस्त रहो मस्ती में, चाहे 
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे 
पाठ जां गयी सस्ते में. 
आम आदमी समझ न पाये 
छुरा भौंकते हैं ताऊ 
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
salil.sanjiv@gmail.com 
९४२५१८३२४४ 
#दिव्यनर्मदा 
#हिंदी+ब्लॉगर

अवंतीबाई

महारानी अवन्तीबाई की बलिदानगाथा
रानी का जन्म- 16 अगस्त 1831
बलिदान दिवस- 20 मार्च 1858
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अंग्रेजों से लोहा लेकर, डटकर करी लड़ाई थी।।
मनकेड़ी सिवनी जिला में, जन्म हुआ था रानी का।
पिता जुझारसिंह थे इनके, इनका न कोई सानी था।।
गोला भाला तीर चलाना, बचपन में ही सीख लिया।
संग पिता के जाकर जंगल, शेरों का 'शिकार किया।।
सोलह बरस की उम्र में राजा, विक्रमदित्य से ब्याह हुआ।
रामगढ़ जो मंडला जिले का, रानी का ससुराल हुआ।।
जन्म दिया था दो बच्चों को, अपनी कोख से रानी ने।
सींची ममता अरु करूणा भी, रानी जी की वाणी ने।।
रानी की वाणी के भीतर, दया प्रेम करूणाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अंग्रेजों की कुटिल चाल से, राजा जब विक्षिप्त हुये।
शीघ्र राज्य में लाकरके तब, तहसीलदार नियुक्त किये।।
शोक गहन ये सह न पाये, राजा फिर बीमार हुये।
छोड़ गये माया नगरी को, असमय स्वर्ग सिधार गये।।
रानी ने साहस का परिचय, देकर राज्य सम्हाल लिया।
प्रजाजनों के बीच में जाकर, दयाभाव संचार किया।।
तभी क्रूर अंग्रेजों ने फिर, राज्य पे धावा बोल दिया।
रानी ने तलवार खींच ली, और मोर्चा खोल दिया।।
कफन बांधकर सिर पर निकली, रानी न सकुचाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
शंकर शाह मंडला शासक का, बेटा था, रघुनाथ शाह।
पिता पुत्र को बांध तोप से, अंग्रेजों ने दिया उड़ाय।।
रानी ने फिर बिगुल बजा दी, गुप्त संदेशा दिया भिजाय।
चूड़ी कंगन बिंदी माला, जमीदारो को दी पंहुचाय।।
रक्षा करलो देश की या तो, या चूड़ी पहनों घर जाय।
पौरूष जागा जमीदारों का, सेना अपनी लिया सजाय।।
तट पर फिर खरमेर नदी के, अंग्रेजों से युध्द हुआ।
जीत मिलेगी रणकौशल से, रानी के ये सिद्ध हुआ।।
छापामार युध्द में माहिर, नीति जो अपनाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अठ्ठारह सौ सनतावन सन, की ही ये जो बात थी।
राजमहल को छोड़ के निकली, धरी खड्ग ले हाथ थी।।
सम्मुख खड़ी सेना अंग्रेजी, रानी ने हुंकार भरी।
रणबांकुरी जंग में कूदी, जग ने जयजयकार करी।।
रणचण्डी का रूप धरी और, सिर अंग्रेजों का काटी।
पुण्यभूमि भारतभूमि की, धन्य हुई थी फिर माटी।।
तलवार चमकती थी चमचम, बिजली सा परचम लहराती।
काट काट कर सिर दुश्मन का, दुनिया को वो समझाती।।
कांपे दुश्मन थर थर थर थर, सोचे अंत बिदाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
एक हाथ में बंदूक लेकर, एक हाथ में लिये लगाम।
चढ घोड़े पर वार कर रही, दुश्मन छोड़े प्राण तमाम।।
सनसनसन गोली की चींखे, अंग्रेजों के कांपे प्राण।
दन दन दन बंदूकें चलती, पल पल पल लेती थी जान।।
अंग्रेजी सेना चक्कर खा गई, रण कौशल रानी का देख।
धड़ से सिर फिर गिरे धड़ाधड़, करो कल्पना पढ़ो जो लेख।।
अंग्रेजों के पांव के नीचे, की धरती फिर फिसल गई।
रानी लड़ी छत्राणी जैसे, और दुश्मन की बलि दई।।
अंग्रेजों की हवा निकल गयी, ऐसी चोट लगाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
दूर फिरंगी हो जाना तुम, तेरी अब तो खैर नहीं।
छोड़ धरा मेरी तू छोड़ अब, लेना हमसे बैर नहीं।।
वाडिंगटन के घोड़े को, रानी ने मार गिराया था।
हाथ जोड़कर प्राण की रक्षा, के खातिर रिरियाया था।।
उस गोरे कप्तान को फिर, रानी ने जीवनदान दिया।
साथ में उसके बेटे को भी, जबलपुर प्रस्थान किया।
रामगढ़ से मंडला तक रानी, ने गढ़ का विस्तार किया।।
शाहपुर, बिछिया व घोघरी, की सीमा को पार किया।।
निज धरती, अभिमान, शान, सम्मान की जोत जलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
खाकर मुंह की इक नारी से, वाडिंगटन हैरान हुआ।
बारह मास के अंदर में फिर, सेना ले प्रस्थान हुआ।।
बड़ी भयंकर हुयी लड़ाई, दोनों ओर से जान गयी।
चारों ओर से घिर आई थी, रानी तत्क्षण जान गई।।
दुर्ग को चारों ओरों से जब, अंग्रेजों ने घेर लिया।
गुप्त मार्ग से रानी जी ने, सेना का मुख फेर दिया।।
सेना के संग रानी ने तब, जंगल ओर पड़ाव किया।
पीछे पीछे वाडिंगटन की, सेना ने घेराव किया।।
रानी दुर्गावती के जैसे ही, लड़कर दिखलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
घर के ही गद्दारों ने जब, अंग्रेजो का साथ दिया।
भेद बताकर रानीजी का, रानी को ही मात दिया।।
न्यौता आत्मसर्मपण का फिर, वाडिंगटन ने भिजवाया।
मरने की बातें लड़कर ही, रानी के मुख से आया।।
ये! वाडिंगटन तेरे जैसा, रानी के रगो में खून नहीं।
जीवनदान दिया था तुझको, क्या तुझको मालूम नहीं।।
केप्टन वाडिंगटन लेफ्टीनेंट,वार्टन और थे काकवार्न।
सेना संग नरेश की रीवा, मिलकर करने लगी प्रहार।।
रानी संग मुठ्ठी भर सेना, मुश्किल में घिर आई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
बायें हाथ लगी गोली तो, हाथ से बंदूक छूट गयी।
उमरावसिंह लोधी से बोली, आस जीत की टूट गयी।।
जान फिरंगी के हाथों के भय से खंजर खीच लिया।
निज हाथों से ही मरकर, धरती को लहू से सींच दिया।।
जान हथेली पर लेकरके, हुई शहीद बलिदानी थी।
मिट गई मातृभूमि के खातिर, आजादी जो लानी थी।।
गोद में भारतमां की गिरकर, चिर निद्रा में सो गयी।
यूं तो मरना था इक दिन पर, अमर वो मरकर हो गयी।।
जिस माटी में जन्म लिया, उस पर मिटना सिखलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
नाम अमर कर गई वंश का, गढ़ मंडला की रानी थी।
न्यौछावर कर प्राण देश पर, सम्बल जिसकी वाणी थी।।
जनम जनम तक याद रखेगें, रानी के बलिदान को।
देशभक्ति का पाठ पढ़याा, देकर अपने प्राण को।।
इस बलिदान की गाथा को हर, भारत वासी याद करे।
विरांगना फिर जनमें ऐसी, ईश्वर से फरियाद करे।।
सुनकर रानी की गाथा को, आंखें जिनकी नहीं सजल।
'सरल' गरल लेकर है कहता, उन्हे पिला दो आज गरल।।
धरती रोई, अंबर रोया, रोई सब तरूणाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
-साहेबलाल दशरिये "सरल"
8989800500

chintan gurudev

स्वतंत्र चिंतन 
"पाखण्ड और प्रलाप की ओर बढ़ते कदम"
महाकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1928 में उस समय के चीन के नेता लियां-ची-चाओ से कहा था कि "अंग्रेज और यूरोपियन एशिया छोड़ कर चले जाएंगे, इस बात का पूर्वाभास मैं देख रहा हूँ" तो चाओ ने पूछा था "क्यों बेकार छोड़ कर चले जाएंगे। हम लोग उतने शक्तिशाली कहाँ हो पाए हैं।" इस प्रश्न के उत्तर में ठाकुर ने कहा "एशिया में सर्वत्र जागरण हो चुका है। गृहस्थ जब तक सोता रहता है तभी तक चोरों-तस्करों का सुयोग होता है। गृहस्थ जाग गया है तो तस्करों को भागना ही पड़ेगा। मैं सज्जन यूरोपियों की बात नहीं कर रहा हूँ। उनमें से अनेक वंदनीय हैं,परन्तु उनमें जो चोर और तस्कर हैं वे तभी तक लूटपाट कर सकते थे जब तक हम सोये हुए थे।अब वह सब नहीं चलेगा। किन्तु जाने से पहले वे हमें परेशान करने की पूरी व्यवस्था करके जाएंगे।जापान विज्ञान और शिल्प में अग्रसर है। परन्तु इसी के साथ वे उसे दस्युमंत्र अर्थात साम्राज्यवादी राष्ट्र की शिक्षा देते जा रहे हैं वही उसका सर्वनाश करेगी। भारत वर्ष में भी साम्प्रदायिकता और प्रादेशिकता की शिक्षा जोर शोर से दे रहे हैं। भारतवर्ष में जातिभेद कालधर्म के प्रभाव से क्रमशः क्षीण हो जाता, किन्तु क्या जनगणना, क्या अदालत में, शपथ पत्र में या अन्यत्र भी इस जाति भेद को अंग्रेज दिन-प्रति दिन प्रबलतर करते जारहे हैं और इसके द्वारा ही जाति-जाति में विच्छेद घटित होगा। हमारे भीतर भी कुछ ऐसे बुद्धिहीन हैं जो इसमें घृताहुति देंगे। चीन के बारे में भी मुझे कुछ ऐसा ही भय लग रहा है।" "नहीं, लियां-ची-चाओ का कहना था कि "चीन में जातिभेद नहीं है। सर्वत्र एक वर्णमाला के अधीन हमारी भाषा है। धर्म और सम्प्रदाय को लेकर हम कभी गोलमाल नहीं करते। ऐसी हालत में वे हमारा क्या कर लेंगे।" इस पर गुरुदेव बोले थे "तब शायद राजनीति के रास्ते से वे चीन में ऐसी आग लगा देंगे कि चीन दुर्बल होकर रहेगा। जापान, चीन और भारत को दुर्बल रख पाने में ही इन दस्युओं को किसी खतरे की संभावना नहीं रहेगी।"(बंगला साप्ताहिक, 6 नवम्बर 1948)।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस चिन्तन को आचार्य क्षितिमोहन सेन ने स्पष्ट किया। कुबेरनाथ राय ने अपनी "चिन्मय भारत" पुस्तक के पृष्ठ तीन पर इसका उल्लेख किया है कि "आज हम देख रहे हैं कि कवि का दुःस्वप्न सही था। जापान को दस्युमंत्र(साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद) की दीक्षा दे कर उसे चीन और भारत से विच्छिन्न कर दिया। चीन के दोनों दलों के मूलमंत्र (राष्ट्रवाद और मार्क्सवाद) यूरोप से ही प्राप्त हुए हैं। भारत छोड़ने से पहले अंग्रेज साम्प्रदायिकता की आग लगा कर देश को विभक्त कर गए। खण्डित भारत में भी हिन्दू को हिन्दू परेशान करता रहे, इसके लिए प्रादेशिकता के बीज बो गये। प्रदेश के भीतर भी शांति न रहे इसके लिए अनुसूचित 'गैर अनुसूचित" इत्यादि नाना प्रकार के बिष बीज बो गये। वे ग्राम दहन कारी दस्यु तो चले गए, परन्तु गांव में सौ सौ बाघ छोड़ गए। स्वार्थपरता , संकीर्णता और दम्भ के दांत बाघों के दांतों से भी ज्यादा तेज होते हैं। हमारे घर से बाहर हो जाने पर भी वे अपने शत-शत उत्तराधिकारी छोड़ गए हैं। हम कहां-कहां सम्हाल पाएंगे।" स्वर्गीय डा.राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि "मार्क्सवाद यूरोप द्वारा एशिया को पहनाई गयी आखिरी बेड़ी है जिसे हमें तोडना होगा।" स्वर्गीय कुबेरनाथ राय कह गए हैं कि "1947 के बाद हमारे प्रातः स्मरणीय भाग्यविधाताओं एवं उनके अनुचर हमारे विद्या और वाङ्ग्मय के पीठासीन आचार्यों ने अपने को ब्रिटिश राज्य का योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध किया है,क्योंकि ये दोनों उनके द्वारा प्रदत्त आँखों से ही देखते हैं। ऐसे में अपनी असली आँख क्या है इसकी जानकारी जरूरी है। चश्मा यदि जरूरी हो तो एतराज नहीं है, परन्तु चश्में के भीतर निजी आँख ही होनी चाहिए।" अपनी इस स्थापना को बल प्रदान करने के लिए कुबेरनाथ राय डाक्टर श्यामाचरण दुबे के साथ अपनी एक चर्चा का उल्लेख करते हैं कि एक अनौपचारिक बातचीत में डाक्टर दुबे ने उनसे एक विदेशी पुस्तक की चर्चा की जिसके आधे निबंध लेखक विदेशी और आधे लेखक भारतीय थे। दिलचस्प बात यह थी कि विदेशी लेखकों ने अपने शोधपत्रों में अपनी स्थापनाओं के प्रमाण में मनुस्मृति, महाभारत, गीता और धम्मपद आदि का आश्रय लिया था तो भारतीय लेखकों में ये स्रोत सर्वथा नहीं तो प्रायः अनुपस्थित थे और इसकी जगह पर मार्क्स, दुखीम, बेवर, ग्रामची आदि मौजूद थे। इसमें जो दो बातें सामने आती हैं उनमें से पहली तो यह है कि भारतीय लेखकों को अपने देशी स्रोतों की प्रामाणिकता एवं युक्ति पर विश्वास नहीं है अथवा देशी विद्वानों का अपने वांगमय में कोई अभिनिवेश नहीं है। डाक्टर दुबे ने व्यंग्य में कहा था-"अब हिंदू धर्म क्या है, इसे विदेशी लेखक जब अंग्रेजी में समझायेंगे तभी हम समझ पाएंगे।"
भारतीय चिन्तन और धर्म को पश्चिमी चश्में और पश्चिमी आँखों से देखने और पश्चिमी बुद्धि से समझने का ही क्या यह दुष्परिणाम नहीं है कि हम भारत के शाश्वत सनातन धर्म को मजहब और यूरोप के मजहब को धर्म समझने लगे हैं ? इस संदर्भ में श्री कुबेर राय की राय उधार लूं तो बात यह हुई कि "भारतीय धर्म और पैगम्बर प्रदत्त मजहब या "रिलीजन" में एक और बड़ा बुनियादी अंतर है। एक बड़ा ही विलक्षण और बड़ा ही महत्वपूर्ण अंतर है, वह यह कि भारतीय धर्म में सिर स्वतन्त्र है, मस्तिष्क और प्रज्ञा को मुक्त रखा गया है, परन्तु सिर के नीचे हाथ-पांव जननेन्द्रियां,उदर को बांधने की चेष्टा की गयी है। इसके प्रतिकूल अन्य मजहबों में हाथ-पांव जननेन्द्रियां, उदर स्वतंत्र हैं, परन्तु सिर को कठोरतम अनुशासन में बांधा गया है और मुक्त चिन्तन की कोई गुंजाइश नहीं है। भारतीय धर्म-साधना में आचरण अनुशासनबद्ध है और चिन्तन स्वतंत्र है।
भारत अर्थात हम भारत के लोगों पर इस समय किया जा रहा बौद्धिक और सांस्कृतिक आक्रमण अप्रत्याशित नहीं है। इनके प्रति अनजान बनने का आत्मघाती प्रयास लज्ज़ाजनक है। हम अपने प्रति अपने चिन्तन, जीवन दर्शन, अपनी परम्परा और जिजीविषा के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त हैं, नहीं तो हमने श्री अरविन्द की चेतावनी पर ध्यान दिया होता। हम और हमारा देश अपनी देशी मूल से कटते जा रहे हैं। हम अपनी अस्मिता को लेकर वाचाल हो गए हैं। हमारे जीवन का "छन्द" भंग हो गया। उसकी मात्राएं, उसका स्वर और उसका अनुस्वार असंतुलित हो गया है। हमारा जीवन संगीत बेसुरा और हमारी जीवन कविता अकविता बन गई है।
हमारे वासुदेव कृष्ण ने भारतीय जीवन की छंदबद्धता का महत्व बताने-समझाने के लिए ही अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहा था कि "वेदों में मैं सामवेद हूँ, अर्थात मैं जीवन का "छन्द" हूँ।" श्री कुबेरनाथ राय चिन्मय भारत में इसकी चर्चा करते हैं कि "वस्तुतः प्रत्येक सही कर्म या रचना में एक "छन्द" एक "छंदोबद्ध रूप" या आकृति रहती है। यह छन्द चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। बिना इसके रचना में सुडौलता (सही अनुपात) नहीं आ पाती है। हर क्रिया में पद्धति का एक "प्रारूप" (फार्म) बनता है। वही उसका "छन्द" है। अतः इस वृहत्तर अर्थ में "साम" या "छन्द" की अनिवार्यता स्वीकार करनी पड़ती है।---गत महायुद्ध में जर्मनी बिल्कुल ध्वस्त हो गया था। जब जर्मनी के पुनः निर्माण का प्रश्न आया तो उस देश के प्रसिद्ध अस्तित्ववादी दार्शनिक स्पर्स ने जीवन निर्माण का दर्शन प्रस्तुत करते हुए कहा था: "उल्टा हाथ लगाओ। यह जान लो कि "विद्रोह" और "अवज्ञा" से कम प्रतिष्ठित नहीं है निष्ठा, "वफादारी" और "समर्पण" । "छन्द" की ओर लौटो।" जर्मनी ने निष्ठा और समर्पण के मूल्य को पहचाना "छन्द" स्थापित हुआ और जर्मनी पुनः सिर उठाकर खड़ा हो गया। हर बात में विद्रोह और छन्द-विमुखता का एकान्त समर्थन कभी रचनात्मक नहीं हो सकता। विद्रोह का शास्त्र शब्दों के घटाजाल से चाहे कितना भी आकर्षक क्यों न बनाया जाए, इसका विस्फरण कुछ समय के लिए भले ही हलचल पैदा कर दे, परन्तु इससे कोई रचनात्मक उपलब्धि नहीं होती।" अब क्या हो गया है हमें ? यही कि आज हम पाखण्डी हो गए हैं। हम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमन और उत्पाद, उनके आर्थिक और सांस्कृतिक आक्रमण और "बहुराष्ट्रीय बहू" का तो सार्वजनिक विरोध करते हैं लेकिन व्यक्तिगत जीवन में कोला गटकते हमें कोई शर्म-संकोच नहीं होता।
हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं कि हमारी जिह्वा का स्वाद हमारे शब्दों, सम्बोधनों, संस्कारों और जीवन को बर्बाद कर देगा। वात्सल्यमय, ममतामय और संवेदनशील "माँ" शब्द की जगह "मम्मी" और पिता की जगह "पापा" शब्द सम्बोधन से हमें चोट लगना बंद हो गया है। हर आम और ख़ास आदमी इसकी निन्दा तो करता है, लेकिन इसका निषेध कोई नहीं करता। देश के साधू-संत भी स्वयं के लिए "सेन्ट" सम्बोधन से गौरवान्वित होने लगे हैं। अधिकांश सन्तों का ध्यान अब आध्यात्म, ज्ञान और भक्तिमय दिव्यता पर नहीं साधनों और सुविधाओं एवं भौतिक भव्यता पर लगा हुआ दिखाई देता है। वे अपने शिष्यों-भक्तों के अभारतीय सम्बोधनों को सुनकर उन्हें रोकते-टोकते भी नहीं। वहां भी "शुभम्-सवागतम_" शब्दों को अब "टाटा" -"वेलकम" शब्दों ने धकिया दिया है। संतों के आश्रमों के भी इस रोग की चपेट में आ जाने से भारतीय आत्मसत्ता और अस्मिता बहुत ही आहत हो रही है। उसे उसका अंतिम कवच भी टूटता दिखाई दे रहा है।
हम विदेशों में जाते हैं तो वहां रह रहे भारतीय मूल के लोगों को यह सलाह देते हैं कि "ठीक है वहां की भाषा का प्रयोग किये बिना काम नहीं चलता तो बोलो वहां की भाषा, किन्तु अपने घर वापस आ कर परिवार में बच्चों, आगंतुकों-अतिथियों और घर वालों के साथ अपनी भाषा का प्रयोग तो कर ही सकते हो, करना भी चाहिए।" हमारी सलाह वे मानते भी हैं और अपने घर में अपनी मूल देशी भाषा का प्रयोग करते भी हैं, वहीं जन्में उनके बच्चे भी अपनी मातृ (माँ की) भाषा में बात करते हैं। लेकिन यहां, अपने देश में अपनी भाषा को हीनता का पर्याय मानकर अंग्रेजी बोलने को प्रगतिशील और आधुनिक होना माना जाता है। हम अपने दुधमुहें बच्चों को आकाश दिखाते हैं तो उस पर उगे तारों-नक्षत्रों को "तारे-सितारे" न कहकर "स्टार" कहने के लिए उन्हें प्रेरित करते हैं। विदेशी चोर और तस्कर हमारे राष्ट्र और लोकधर्म पर डाका डाल रहे हैं और हम हैं कि अपनी भाषा और बोली बोलने में भी लजाते हैं। माँ को "मम्मी" और पिता को "पापा" सम्बोधन सुनकर हमें सुखानुभूति होती है कि हमारे बेटे-बेटियां अंग्रेजी बोलते हैं। इतनी चेतावनियों, इनकी सलाहों और इतने अनुभवों के बाद भी हम अपनी आत्मसत्ता में स्थित न होकर पश्चिमी जूठन को भगवान् के प्रसाद की तरह खाते हैं और इस जूठन-जेवन में आधुनिक होने की गौरवानुभूति करते हैं। विदेशी भाषा, विदेशी विचार, विदेशी चरित्र, विदेशी पहनावा, विदेशी खानपान और विदेशी सम्बोधन को हमने हमारे देशी प्राण-धर्म का प्राण हरण करने की पूरी छूट दे रखी है। स्वदेशी और देशीपन केवल भाषणों-प्रवचनों और राजनीतिक रणनीति तक सिमट कर रह गया है।
मौका मिलते ही हम विदेशी चमक-दमक, विदेशी विचार, विदेशी उत्पाद और विदेशी व्यक्तियों की परिक्रमा करने लगते हैं कि जैसे हमारे पास कभी कुछ था ही नहीं, जैसे हमारे पास आज भी कुछ नहीं है और यदि इन्हें नहीं पकड़ा तो कल भी कुछ नहीं रहेगा। अपने विषय में यह अविश्वास, अपने प्रति यह अनास्था, यह असंयम, हमारा यह आतंकित भविष्य और हमारी यह परावलम्बिता हमारे भारत देश को काया-वाचा-मनसा गुलाम बना रही है। यदि हम समय रहते चेते-जागे नहीं, यदि हमने अपने श्रेष्ठ पुरुषों की चेतावनियों पर कान नहीं दिया, यदि हमने उनके अनुभवों और अनुभूतियों को आत्मसात नहीं किया और यदि स्वयं को विदेशी चश्में और विदेशी आँखों से देखने के लिए हम इसी तरह अपनी देशी आँख फाड़ लेते रहे तो न तो हमारी आत्मसत्ता शेष रहेगी और न अस्मिता। फिर हमारा भारत वह भारत नहीं रहेगा जिसका विधाता ने बड़ी जतन और विशिष्ट रूप से विश्व कल्याण के लिए सृजन किया है। शेष रह जाएगा केवल पाखण्ड, केवल प्रलाप, केवल प्रवचन, केवल खुशफहमी और भारतीय होने की गलतफहमी। "वयं राष्ट्रे जाग्रयामः पुरोहिता" की वेद ऋचा का आह्वान यदि हमारे संतों, नेताओं, माताओं, अध्यापकों, विज्ञानियों, व्यवसायियों और किसानों ने न सुना-माना तो यह प्रश्न हमसे कोई और पूछेगा कि हम क्यों मरे-मिटे से नाम शेष होने की ओर बढ़ रहे हैं। और हमारे पास इसका कोई उत्तर नहीं होगा।

प्रस्तुति-पं. कृष्ण मोहन शास्त्री 'मनोज'

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

नवगीत:
संजीव 
*
दुनिया रंग रँगीली 
बाबा 
दुनिया रंग रँगीली रे!
*
धर्म हुआ व्यापार है
नेता रँगा सियार है
साध्वी करती नौटंकी
सेठ बना बटमार है
मैया छैल-छबीली
बाबा
दागी गंज-पतीली रे!
*
संसद में तकरार है
झूठा हर इकरार है
नित बढ़ते अपराध यहाँ
पुलिस भ्रष्ट-लाचार है
नैतिकता है ढीली
बाबा
विधि-माचिस है सीली रे!
*
टूट रहा घर-द्वार है
झूठों का सत्कार है
मानवतावादी भटके
आतंकी से प्यार है
निष्ठां हुई रसीली
बाबा
आस्था हुई नशीली रे!
***

९-८-२०१७
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#हिंदी_ब्लॉगर
#दिव्यनर्मदा

दोहा पाठशाला २

दोहा पाठशाला २ 
दोहा है रस-कोष
रसः काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला अलौकिक आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस को साहित्य की आत्मा तथा ब्रम्हानंद सहोदर रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं। 
विभिन्न संदर्भों में रस का अर्थ: एक प्रसिद्ध सूक्त है- 'रसौ वै स:' अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनंद है। 'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रुचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश', आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।
भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
रस प्रक्रिया: विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मानव-ह्रदय में रसोत्पत्ति होती है। ये तत्व ह्रदय के स्थाई भावों को परिपुष्ट कर आनंदानुभूति करते हैं। रसप्रक्रिया न हो मनुष्य ही नहीं सकल सृष्टि रसहीन या नीरस हो जाएगी। संस्कृत में रस सम्प्रदाय के अंतर्गत इस विषय का विषद विवेचन भट्ट, लोल्लट, श्न्कुक, विश्वनाथ कविराज, आभिंव गुप्त आदि आचार्यों ने किया है। रस प्रक्रिय के अंग निम्न हैं-
१. स्थायी भाव- मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस श्रृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानक वीभत्स अद्भुत शांत वात्सल्य
स्थायी भाव रति हास शोक क्रोध उत्साह भय घृणा विस्मय निर्वेद संतान प्रेम
२. विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार अ. आलंबन व आ. उद्दीपन हैं। ‌
अ. आलंबन: आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
आ. उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। कभी-कभी प्रकृति भी उद्दीपन का कार्य करती है। यथा पावस अथवा फागुन में प्रकृति की छटा रस की सृष्टि कर नायक-नायिका के रति भाव को अधिक उद्दीप्त करती है। न सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
३. अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना या हास्य रसाधीन व्यक्ति का जोर-जोर से हँसना, नाईक के रूप पर नायक का मुग्ध होना आदि। 
४. संचारी (व्यभिचारी) भावः आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रसों पर दोहा 
श्रृंगार: स्थाई भाव रति, आलंबन विभाव नायक-नायिका, उद्दीपन विभाव एकांत, उद्यान, शीतल पवन, चंद्र, चंद्रिकाक आदि। अनुभाव कटाक्ष, भ्रकुटि-भंग, अनुराग-दृष्टि आदि । संचारी भाव उग्रता, मरण, आलस्य, जुगुप्सा के आलावा शेष सभी।
संयोग श्रृंगार: नायक-नायिका का सामीप्य या मिलन।
।।चली मचलती-झूमती, सलिला सागर-अंक। द्वैत मिटा अद्वैत वर, दोनों हुए निशंक।। 
वियोग श्रृंगार: नायक-नायिका का दूर रह के मिलन हेतु व्याकुल होना। 
।।चंद्र चंद्रिका से बिछड़, आप हो गया हीन। खो सुरूप निज चाँदनी, हुई चाँद बिन दीन ।।
हास्य : स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि। 
।।दफ्तर में अफसर कहे, अधीनस्थ को फूल। फूल बिना घर गए तो, कहे गए खुद फूल।।
(फूल = मूर्ख, पुष्प)
व्यंग्य: स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना, तिलमिलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि। 
।।वादा कर जुमला बता, झट से जाए भूल। जो नेता वह हो सफल, बाकी फाँकें धूल।। 
करुण रस: स्थाई भाव शोक, दुःख, गम। आलंबन मृत या घायल व्यक्ति, पतन, हार। उद्दीपन मृतक-दर्शन, दिवंगत की स्मृति, वस्तुएँ, चित्र आदि। अनुभाव धरती पर गिरना, विलाप, क्रुन्दन, चीत्कार, रुदन आदि। संचारी भाव निर्वेद, मोह, अपस्मार, विषाद आदि। 
।।माँ की आँखों से बहें, आँसू बन जल-धार। निज पीड़ा को भूलकर, शिशु को रही निहार।।
रौद्रः स्थाई भाव क्रोध, गुस्सा। आलंबन अपराधी, दोषी आदि। उद्दीपन अपराध, दुष्कृत्य आदि। अनुभाव कठोर वचन, डींग मारना, हाथ-पैर पटकना। संचारी भाव अमर्ष, मद, स्मृति, चपलता,गर्व, उग्रता आदि। 
।।शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌. जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।।
वीरः स्थाई भाव उत्साह, वीरता। आलंबन शत्रु याचक, धर्म, कर्तव्य आदि। आश्रय उत्साही, वीर आदि। उद्दीपन रण-वाद्य, यशेच्छा, धर्म-ग्रंथ, कर्तव्य-बोध, रुदन आदि। अनुभाव भुजा फडकना, नेत्र लाल होना, मुट्ठी बाँधना, ताल ठोंकना, मूँछ उमेठना, उदारता, धर्म-रक्षा, सांत्वना आदि। संचारी भाव उत्सुकता, संतोष, हर्ष, शांति, धैर्य, हर्ष आदि। 
।।सीमा में बैरी घुसा, उठो, निशाना साध। ह्रदय वेध दो वीर तुम, मृग मारे ज्यों व्याध।।
भयानकः स्थाई भाव भय, डर आदि। आलंबन प्राणघातक प्राणी शेर आदि। उद्दीपन आलंबन की हिंसात्मक चेष्टा, डरावना रूप आदि। अनुभाव शरीर कांपना, पसीना छूटना, मुख सूखना आदि। संचारी भाव देनी, सम्मोह आदि। 
।। लपट कराल गगन छुएँ, दसों दिशाएँ तप्त। झुलस जले खग वृंद सब, जीव-जंतु संतप्त।। 
वीभत्सः स्थाई भाव जुगुप्सा, घृणा आदि। आलंबन दुर्गंधमय मांस-रक्त, घृणित पदार्थ। उद्दीपन घृणित वस्तुएँ व रूप। अनुभाव नाक=भौं सिकोड़ना, मुँह बनाना, नाक बंद करना आदि। संचारी भाव आवेग, शंका, मोह आदि। 
।। हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। हँसते जन-का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।।
अद्भुतः स्थाई भाव विस्मय, आश्चर्य, अचरज। आलंबन आश्चर्यजनक वस्तु, घटना आदि। उद्दीपन अलौकिकतासूचक तत्व। अनुभव प्रशंसा, रोमांच, अश्रु आदि। संचारी भाव हर्ष, आवेग, त्रास आदि। 
।। खाली डब्बा दिखाया, पलटा पक्षी-फूल। उड़े-हाथ में देख सब, चकित हुए क्या मूल।। 
शांतः स्थाई भाव निर्वेद। आलंबन ईश-चिंतन, वैराग, नश्वरता आदि। उद्दीपन सत्संग, पुण्य, तीर्थ-यात्रा आदि। अनुभाव समानता, रोमांच, गदगद होना। संचारी भाव मति, हर्ष, स्मृति आदि। 
।।घर में रह बेघर हुआ, सगा न कोई गैर। श्वास-आस जब तक रहे, कर प्रभु सँग पा सैर।। 
वात्सल्यः स्थाई भाव ममता। आलंबन शिशु आदि। उद्दीपन शिशु से दूरी। अनुभाव शिशु का रुदन। संचारी भाव लगाव। 
।। छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।।
भक्तिः स्थाई भाव ईश्वर से प्रेम। आलंबन मूर्ति, चित्र आदि। उद्दीपन अप्राप्ति। अनुभाव सांसारिकता। संचारी भाव आकर्षण।
।।करुणासींव करें कृपा, चरण-शरण यह जीव। चित्र गुप्त दिखला इसे, करिए प्रभु संजीव।। 
विरोध: स्थायी भाव आक्रोश। आलंबन कुव्यवस्था, अवांछनीय तत्व। उद्दीपन क्रूर व्यवहार। अनुभाव सुधर या परिवर्तन की चाह। संचारी भाव दैन्य, उत्साहहीनता, शोक, भय, जड़ता, संताप आदि। (श्री रमेश राज, अलीगढ़ प्रणीत नया रस) 
दोहा लेखन के सूत्र:
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं। 
३. विषम (१-३) चरण में १३-१३ तथा सम (२-४) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. विषम चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है। कबीर, तुलसी, बिहारी जैसे कालजयी दोहकारों ने ग्यारहवीं मात्रा लघु रखे बिना भी अनेक उत्तम दोहे कहे हैं। 
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं। 
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें। 
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। 
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके। 
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो। 
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें। 
१४. दोहा सम तुकांत छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है। 
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता। 
१६. दोहा में एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न मात्रा भर में प्रयोग किया जा सकता है बशर्ते उतनी कुशलता हो। यथा कैकेई ६, कैकई ५, कैकइ ४ के रूप में तुलसीदास जी ने प्रयोग किया है। 
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muktak

मुक्तक सलिला:
आशा कुसुम, लता कोशिश पर खिलते हैं 
सलिल तीर पर, हँस मन से मन मिलते हैं 
नातों की नौका, खेते रह बिना थके-
लहरों जैसे बिछुड़-बिछुड़ हम मिलते हैं 
*
पाठ जब हमको पढ़ाती जिंदगी।
तब न किंचित मुस्कुराती जिंदगी।
थाम कर आगे बढ़ाती प्यार से-
'सलिल' मन को तब सुहाती जिंदगी.
*
केवल प्रसाद सत्य है, बाकी तो कथा है
हर कथा का भू-बीज मिला, हर्ष-व्यथा है
फैला सको अँजुरी, तभी प्रसाद मिलेगा
पी ले 'सलिल' चुल्लू में यही सार-तथा है
तथा = तथ्य,
प्रयोग: कथा तथा = कथा का सार
*
आँखों में जिज्ञासा, आमंत्रण या वर्जन?
मौन धरे अधरों ने पैदा की है उलझन
धनुष भौंह पर तीर दृष्टि के चढ़े हुए हैं-
नागिन लट मोहे, भयभीत करे कर नर्तन
*

pustak samiksha



पुस्तक सलिला
"शिवाजी सुराज" सिखाये लोकराज का कामकाज
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
* 
[पुस्तक विवरण- शिवाजी सुराज, शोध-विवेचना, ISBN 978-93-5048-179-0, अनिल माधव दवे, वर्ष २०१२, आकार २४ से.मी. x १५.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक फ्लैप सहित, पृष्ठ २३१, मूल्य ३००/-, प्रकाशक प्रभात प्रकाशन, ४/१९ आसफ़ अली मार्ग, नई दिल्ली ११०००२, लेखक संपर्क सी ६०३ स्वर्ण जयंती सदन, डॉ. बी.डी. मार्ग, नई दिल्ली ११०००१, दूरभाष ९८६८१८१८०६ ]
*
"शिवाजी सुराज" भारतीय इतिहास और जनगण-मन में पराक्रमी, न्यायी, चतुर, नैतिक, तथा संस्कारी शासक के रूप में चिरस्मरणीय शासक एवं महामानव छत्रपति शिवजी की प्रशासन कला तथा राज-काज प्रबंधन को अभिनव शोधपरक दृष्टि से जानने एवम वर्तमान से तुलना कर परखने का श्रम-साध्य प्रयास है। लेखक श्री अनिल माधव दवे सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता, पर्यावरणीय शुचिता तथा नर्मदा घाटी के गहन अध्ययन परक गतिविधियों के लिए सुचर्चित रहे हैं। एक सामान्य सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता से लेकर राष्ट्रीय स्तर का राजनेता बनने तक की यात्रा निष्कलंकित रहकर करते हुए अनिल जी के प्रेरणा-स्तोत्र संभवत: शिवाजी ही रहे हैं। इस कृति का वैशिष्ट्य चरितनायक से अधिक महत्व चरित नायक के अवदान को देना है।

आमुख, प्रतिमा (छवि) निर्माण, मंत्रालय (वित्त, गृह, कृषि, न्याय-विधि, विदेश, व्यापार-उद्योग, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, सड़क-नौपरिवहन, श्रम-रोजगार, भाषा-संस्कृति, रक्षा तथा जन संपर्क), संकेत (वन-पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण, अल्पसंख्यक, भ्रष्टाचार,स्वप्रेरित राज्य रचना), व्यक्तित्व (दूरदृष्टि, राजनैतिक कदम, योजकता-कार्यान्वयन क्षमता), मन्त्रिमण्डल (अष्ट प्रधान- मुख्य प्रधान, पन्त सचिव, अमात्य, मंत्री, सेनापति, सुमंत, न्यायाधीश, पण्डित), कीर्तिशेष, अच्छे-कमजोर शासन के लक्षण, जाणता राजा संवाद, शीर्षकों में विभक्त यह कृति पर्यवेक्षकीय तथा विवेचनात्मक सामर्थ्य की परिचायक है।
पुस्तकारंभ में भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ उद्घोषक स्वामी विवेकानंद के वक्तव्यांश में शिवाजी को राष्ट्रीय चेतना संपन्न नायक, सन्त, भक्त तथा शासक निरूपित किया गया है। आमुख में श्री मोहनराव भागवत, सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने शिवजी के शासनतंत्र को लक्ष्य लक्ष्य शासन या लोकोपकार मात्र नहीं अपितु जनता जनार्दन की ऐहिक, आध्यात्मिक तथा सन्तुलित उन्नति का वाहक बताया है। प्राक्कथन में बाबा साहेब पुरंदरे ने शिवाजी की राजनीति और राज्यनीति को वर्तमान परिस्थितियों में अनुकरणीय बताया है।
सुव्यवस्थित प्रस्तावना के अंतर्गत प्रजा केंद्रित विकास को सुशासन का मूलमन्त्र बताते हुए श्री नरेन्द्र मोदी (तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात, वर्तमान प्रधान मंत्री भारत) ने जनता को केंद्र में रखकर स्थापित विकास प्रक्रियाजनित लोकतान्त्रिक सुशासन को समय की मांग बताया है। पारदर्शी प्रक्रियाओं और जवाबदेही, सामूहिक विमर्श, प्रशासन में स्पष्टता तथा जनभागीदारी जनि विकास को जनान्दोलन बनाने पर श्री मोदी ने बल दिया है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि प्रशासन सत्य को छिपाने के स्थान पर जन सामान्य को उससे अवगत कराता रहे तो प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की नींव सुद्रढ़ होती है। नेताओं, अधिकारियों, कर्मचारियों व् युवाओं के लिए प्रस्तावित करनेवाले मोदी जी प्रणीत मेक इन इंडिया, स्वच्छता अभियान, मन की बात, विद्यार्थियों से सीधे संवाद, शौचालय निर्माण, गैस अनुदान समर्पण, संपत्ति घोषित करने आदि कार्यक्रमों में शिवाजी की शासन पद्धति से प्राप्त प्रेरणा देखी जा सकती है।
सामान्यत: एक ऐतिहासिक चरित्र, पराक्रमी योद्धा या चतुर-लोकप्रिय शासक के रूप में प्रसिद्द शिवाजी के चरित्र की अनेक अल्पज्ञात विशेषताओं का परिचय इस कृति से मिलता है। कृतिकार श्री अनिल माधव दवे की सामाजिक कार्यकर्ता से उठकर राष्ट्रीय नेतृत्व के स्तर तक बिना किसी विवाद या कलंक के पहुँचने की यात्रा में शिवाजी विषयक अध्ययन और इस पुस्तक के सृजन से व्युत्पन्न वैचारिक परिपक्वता का योगदान नाकारा नहीं जा सकता। राजतंत्र के एक शासक को लोकतंत्र के आदर्श पुरुष के रूप में व्याख्यायित करना अनिल जी के असाधारण अध्ययन, सूक्ष्म विवेचन, प्रामाणिक तुलनाओं तथा व्यापक समन्वयपरक तर्कणा शक्ति को है। तर्क दोधारी तलवार होता है जिससे तनिक भी असावधानी होने पर विपरीत निष्कर्ष ध्वनित होते हैं। अनिल जी ने तर्क और तुलना का सटीक प्रयोग किया है।
एक राजनैतिक दल से सम्बद्ध होने और वर्तमान राजनीती में दखल रखने के कारण स्वाभाविक है कि लेखक अपने दल की सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों का उल्लेख सकारात्मक परिणामों के संदर्भ में करे जबकि अन्य दलीय नीतियों और कार्यक्रमों का विफलता के सन्दर्भ में। 'मनोगत' शीर्षक भूमिका में लेखक ने महापुरुषों के जीवन में कष्ट, अवसाद, व् पीड़ा के आधिक्य को इंगित किया है। भारत में राजनीती के वर्तमान स्वरुप पर प्रहार करते हुए अनिल जी ने प्रतिमा (व्यक्तित्व-छवि) निर्माण अध्याय में शिवजी के दो मूलमंत्र "शासन करने के लिए होता है, छोड़ने के लिए नहीं तथा युद्ध जितने के लिए होता है, लड़ने के लिए नहीं" बताये हैं। दिल्ली में श्री केजरीवाल द्वारा विशाल बहुमत के बाद भी सरकार से भागने तथा पाकिस्तानी आतंकियों से छद्य युद्ध लड़ने के सन्दर्भ में ये दोनों मन्त्र दिशा-दर्शक हैं।
आरम्भ, आकलन, आस्था, तथा अभय उपशीर्षकों के अंतर्गत विद्वान लेखक ने शिवाजी के चरित्र, नीतियों तथा व्यक्तित्व को वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आदर्श बताया है। शिवजी के प्रशासन के विविध अंगों की वर्तमान मंत्रिमंडल से तुलनात्मक समीक्षा करते हुए लेखक ने तत्कालीन शब्दों का कम से कम तथा वर्तमान में प्रयोग हो रहे पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक किया है। इससे उनका कथ्य आम पाठक के लिए ग्रहणीय हो सका है। अहिन्दीभाषी होते हुए भी लेखक ने शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया है। शब्द चयन सटीक किन्तु सहज बोधगम्य है। अपनी बात प्रमाणित करने के लिए घटनाओं का चयन तथा विवेचना तथ्यपरक है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि यह विवेचन केवल अध्ययन हेतु है या व्यवहार में लाने के लिये भी? एक देश कुलकर्णी (छोटे स्तर का लेखापाल) द्वारा एक दिन का हिसाब पंजी में प्रविष्ट न किये जाने पर शिवजी द्वारा कड़ा दंड दिये जाने और वर्तमान में बड़े घपलों के बावजूद समर्थ को दण्ड न मिलने के बीच की दूरी कैसे दूर की जायेगी? सार्वजनिक धन के रख-रखाव में एक-एक पाई का हिसाब रखनेवाले महात्मा गाँधी ने एक पैसे का हिसाब न मिलने पर अपने सचिव महादेव देसाई की आलोचना कर उन्हें हिसाब ठीक करने को कहा था। क्या वर्तमान सरकार ऐसा कर सकेगी?
असहायों की सहायता, व्यक्ति से व्यवस्था को बड़ा मानना, महत्वाकांक्षा से अधिक महत्त्व कार्यपूर्ति को देना, सेफ हाउस, सेफ पैसेज, सेफ इवैकुएशन युक्त रक्षा व्यवस्था, प्रकृति चक्र के अनुकूल कृषि उत्पादन, सशक्त लोक संस्थाओं, पारदर्शी न्याय प्रणाली, अपराधी को कड़ा दण्ड आदि से जुडी घटनाओं के प्रामाणिक विवेचना कर शिवाजी के शासन को श्रेष्ठ व् अनुकरणीय बताने में लेखक ने अथक श्रम किया है। शिवाजी के अष्ट प्रधानों में से एक कान्होजी के संबंधी खंडोजी द्वारा अफजल खां की सहायता किये जाने पर शिवजी ने एक हाथ-एकपैर काटकर दण्डित किया था, आज सोते हुए लोगों को कर से कुचलने और मासूम काले हिरणों को मारने वाले समर्थ बच जाते हैं। एक साथ अनेक शत्रुओं के साथ संघर्ष न कर किसी एक से लड़कर जितने तथा उसके बाद अन्य को जीतने की शिवाजी की नीति भारतीय विदेश नीति की विफलता इंगित करती है जहाँ हमारे सब पडोसी भारत से रुष्ट हैं। सिद्दी जौहर के साथ पन्हाला युद्ध में अंग्रेजी तोपों और ध्वजों का प्रयोग राजपुर में अंग्रेजों का भंडार नष्ट कर लेने का प्रसंग कश्मीरमें पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा ध्वज फहराने के संबन्ध में विचारणीय है। क्यों नहीं भारत सरकार पाकिस्तानी क्षेत्र में स्थित अड्डे करती?
शिवाजी ने वेदेशी व्यापारियों के प्रवेश, व्यवसाय करने, इमारतें बनाने आदि हर सुविधा के बदले बड़ी धनराशि सरकारी ख़ज़ाने में जमा कराई, आज हमारी सरकार विदेशी कंपनियों को अनेक सुविधाएँ देकर आमंत्रित कर रही है। बड़े उद्योगपति अरबों-खरबों का कर्ज़ लेकर देश छोड़ भाग रहे हैं। शिवाजी को आदर्श माननेवालों के शासनकाल में उद्योगपतियों के करोड़ों रुपयों के बिजली के बिल माफ़ होना और आम नागरिक के चंद रुपयों के बिल भुगतान न होने पर बिजली कटने का अंतर्विरोध कथनी-करनी पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। शिवजी द्वारा नौसेना को ५ गुरुबों तथा ११ गलबतों में विभाजित किया जाना, शस्त्र भंडारण एक स्थान पर न करना, कर्मचारियों को यथेष्ठ वेतन ताकि गुणवत्तापूर्ण कार्य करे (अतिथि विद्वानों को नाम मात्र पारिश्रमिक देकर उच्च शिक्षा देने), राज प्रसाद की समुचित सुरक्षा (इंदिरा गाँधी हत्या), सैन्य शिविरों में छोटे-बड़े सैन्याधिकारियों का एक साथ रहना, कर्मचारियों का निर्धारित समयावधि में नियमित स्थानान्तरण, भ्रष्टाचार के प्रति कठोर रुख, त्वरित न्याय आदि प्रसंगों में लेखन की विवेचना शक्ति का परिचय मिलता है।
पाठक मंच के माध्यम से इस पुस्तक को पुरे प्रदेश में पढवाये जाने और चर्चा कराये जाने का विपुल महत्त्व है। सभी जनप्रतिनिधियों को यह पुस्तक पढ़कर शिवजी के आदर्शों के अनुसार सदा जीवन-उच्च विचार अपनाना चाहिए और विलासिता पूर्ण जीवन त्यागना चाहिए। सारत: यह कृति शिवाजी को युग-नायक के रूप में स्थापित करती है। अनिल जी को साधुवाद इस कृति के माध्यम से राजनेताओं के लिए शिवाजी की तरह आचार संहिता बनाये और अपनाये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करने के लिए। आवश्यक यह है कि आदर्शों को व्यवहार मेंसरकारें अपनाएं ताकि जनगण की निष्ठा शासन-प्रशासन और विधि-व्यवस्था में बनी रहे। 
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समीक्षक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयं, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com, दूरवार्ता ९४२५१८३२४४, ०७६१ २४१११३१। ९.८.२०१६ 

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muktak

मुक्तक
वही अचल हो सचल समूची सृष्टि रच रहा
कण-कणवासी किन्तु दृष्टि से सदा बच रहा
आँख खोजती बाहर वह भीतर पैठा है
आप नाचता और आप ही आप नच रहा 
*
श्री प्रकाश पा पाँव पलोट रहा राधा के
बन महेश-सिर-चंद्र, पाश काटे बाधा के
नभ तारे राकेश धरा भू वज्र कुसुम वह-
तर्क-वितर्क-कुतर्क काट-सुनता व्याधा के
*
राम सुसाइड करें, कृष्ण का मर्डर होता
ईसा बन अपना सलीब वह खुद ही ढोता
बने मुहम्मद आतंकी जब-जब जय बोलें
तब-तब बेबस छिपकर अपने नयन भिगोता
*
पाप-पुण्य क्या? सब कर्मों का फल मिलना है
मुरझाने के पहले जी भरकर खिलना है
'सलिल' शब्द-लहरों में डूबा-उतराता है
जड़ चेतन होना चाहे तो खुद हिलना है
*
सावनी घनाक्षरियाँ :
सावन में झूम-झूम
संजीव वर्मा "सलिल"
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
sanjiv verma 'salil'9425183244
salil.sanjiv@gmail.com

doha rakhi alankar

दोहा सलिला: 
अलंकारों के रंग-राखी के संग
संजीव 'सलिल'
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
बंध न = मुक्त रह, बंधन = मुक्त न रह
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना.
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
*

mahiya: anand pathak

चन्द माहिया सावन के
आनंद पाठक 
*
सावन की घटा काली
याद दिलाती है
वो शाम जो मतवाली
*
सावन के वो झूले
झूले थे हम तुम 
कैसे कोई भूले
*
सावन की फुहारों से
जलता है तन-मन
जैसे अंगारों से
*
आएगी कब गोरी?
पूछ रही मुझ से
मन्दिर की बँधी डोरी
*
क्या जानू किस कारन?
सावन भी बीता 
आए न अभी साजन
*

navgeet

नवगीत:
हुआ तो क्या
अविनाश ब्योहार 
*
हुआ तो क्या

सच का ही
यशगान करेगा
घर खपरैल
हुआ तो क्या!
ऊँचे बंगलों
के कंगूरे
बेईमानी की
बातें करते!
महानगर के
हैं बाशिंदे
विश्वासों पर
घातें करते!!
कोई तवज्जो
नहीं मिली
दिल में तुफ़ैल
हुआ तो क्या!
हो गईं
मुंहजोर हैं
शहर में
चलती हवायें!
भोंडेपन के
दबाव में
आ गईं हैं
हुनर कलायें!!
हमनें उनकी
करी भलाई
मन में मैल
हुआ तो क्या!
***
अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट कटंगी रोड
जबलपुर, 9826795372

बुधवार, 8 अगस्त 2018

ॐ दोहा शतक: श्री महातम मिश्र


उड़े तिरंगा शान से
दोहा शतक
महातम मिश्र (गौतम गोरखपुरी)
















जन्म: ९-१२-१९५८, गोरखपुर।
आत्मज: स्वर्गीया श्रीमती बादामी मिश्रा-श्री रामसबद मिश्र। 
जीवन संगिनी: श्रीमती रंभा मिश्रा।
शिक्षा : स्नातकोत्तर (मनोविज्ञान)।
प्रकाशन: कार्यालयीन वार्षिक पत्रिका “दर्शना” सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं  व जे.एम.डी. पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार-प्रसार योजनांतर्गत काव्य संग्रह काव्य अमृत में प्रकाशित।
उपलब्धि: युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा 'श्रेष्ठ रचनाकर',  'साहित्य गौरव २०१५'  सम्मान, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, अहमदाबाद द्वारा २०१६ में आयोजित काव्य पाठ प्रतियोगिता में पुरस्कार व सम्मान पत्र। अनेक पत्रिकाओं तथा समूहों द्वारा कई महत्वपूर्ण सम्मान।
संप्रति: भारत सरकार में वैज्ञानिकी कार्यसेवा में कार्यरत (वरिष्ठ तकनीकी अधिकारी-१)।
संपर्क:  वर्तमान: बी १२१, तेजेंद्र प्रकाश सोसायटी विभाग-१, अहमदाबाद-३८२३५०।
स्थायी पता: ग्राम-भरसी, पोस्ट-डाड़ी, जिला गोरखपुर २७३४२३ उत्तर प्रदेश ।
चलभाष: ९४२६५ ७७१३९ (वाट्सएप), ८१६०८७ ५७८३।  ईमेल: mahatmrmishra@gmail.com
*
महातम मिश्र जी भोजपुरी अंचल में जन्मे, पीला और बढ़े फिर गुजरात में दीर्घकालिक निवास रहा। लंबे समय से हिंदी भाषी क्षेत्र से दूर रहते हुए भी हिंदी के प्रति लगाव न आपको सेवानिवृत्ति पश्चात् साहित्य सृजन हेतु प्रेरित किया है। भोजपुरी मिश्रित हिंदी में रचित दोहन में उनकी एक विशिष्ट शैली का अंकुरण होता दिखता है। शुद्ध खड़ी, शुद्ध भोजपुरी या दोनों की मिश्रित शैली तीनों राहें महातम जी के सृजन-कार्य हेतु उपलब्ध हैं। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति चिंतित महातम जी माँ शीतला से पर्यावरण के साथ-साथ विचार की शुद्धि हेतु भी प्रार्थना करते हैं:
मातु शीतला अब बहे, शीतल नीम बयार।
निर्मल हो आबो-हवा, मिटे मलीन विचार।।
शिव-शिवा लीलाभूमि से नैकट्य का लाभ पा चुके मिश्र जी शिव के रागे-विरागी दोनों रूपों में अपने उपास्य को भजते हैं:
चंदा की सोलह कला, धारण करते नाथ।
गिरि-तनया अर्धांगिनी, सोहें शिव के साथ।।
प्रकृति के सान्निन्ध्य में रहते हुए पशु-पक्षियों का स्वभाषा-प्रेम उन्हें प्रेरित करता है साथ विस्मित भी करता है कि मानव को स्वभाषा बोलने पर हीनता की अनुभूति क्यों होती है?
पशु-पक्षी की बोलियाँ, समझ गया इंसान।
निज बोली पर हीनता, मूरख का अभिमान।।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक सकल देश को एक सूत्र में बाँधता तिरंगा उड़ता देख्कार मिश्र जी का शीश गर्व से ऊँचा होना स्वाभाविक है:
उड़े तिरंगा शान से, लहराए ज्यों फूल।
हरित केशरी चक्र सह, शुभ्र रंग अनुकूल।।
लोकोक्ति है 'अपन भले तो जग भला'। मिश्र जी इस लोकोक्ति को अपने जीवनानुभव के साथ मिश्रित कर दोहे में पिरोते हैं:
मैं अति भला तुमहिं सरिस, भला मिला संसार।
जैसी जिसकी नजर है, वैसा है व्यवहार।।
मिश्र जी जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। उनके लिए साहित्य सृजन विद्वता-प्रदर्शन का नहीं आत्माभिव्यक्ति का माध्यम है। मूल मानकों का पालन करते हुए भाषिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाए रखन उन्हें रुचिकर लगता है। भारत में हिंदी को आंचलिक बोलियों से मिल रही चुनौती और अलगाव भाव को देखते हुए वे हिंदी भोजपुरी को मिलकर रचना करने का प्रयोग उचित ही कर रहे हैं। ऐसे लेखन से बोलीओं के आंचलिक शब्द-भण्डार से हिंदी भाषी जुड़कर उन्हें अपना सकेगा और हिंदी शब्द-भण्डार को समृद्ध करेगा। 
*
पहले पूज्य गणेश जी, नंदन शिवा-महेश।
आसन विहँस विराजिए, भागें दुख अरु क्लेश।।
शिव कुल की महिमा अमिट, वंदउँ प्रथम गणेश।
शिवाशक्ति के लालना, जय शिव शंभु महेश।।
हे माँ वीणावादिनी!, वास करो आ कंठ।
कभी न कलम मलीन हो, साथ न आए चंठ।।
राधा छवि दर्पण लिए, मन कान्हा चितचोर।
मोरपंख सह बाँसुरी, वन-वन नाचत मोर।।
राधा-कृष्णा बोलिए, युगल रूप मकरंद।
प्रभु जब मंचासीन हों, तब आए आनंद।।
ममता बिन माता नहीं, वृक्ष बिना नहिं छाँव।
करुणाकर करुणामयी, हो अभाव नहिं गाँव।।
नीति विनीत चरित्र मन, विनय करूँ कर जोर।
भक्ति-शक्ति, तप-कर्म मम, नित साधना अँज़ोर॥
सदा भवानी पूजकर, रहे सुख कुशल-क्षेम।
विनय बुद्धि प्रतिपल बढ़े, जस कुबेर गृह हेम।।
हरि-हर अपने धाम में, लिए भूत-बैताल।
गणपति बप्पा मोरया, सदा रखें खुशहाल।।
बाबा शिव की छावनी, गणपति का ननिहाल।
धन्य-धन्य दोनों पुरा, गौरा मालामाल।।
वाहन नंदी सत्य शिव, डमरू नाग त्रिशूल।
भस्म भंग प्रभु औघड़ी, मृगछाला अनुकूल।।
चौदह स्वर डमरू बजे, सारेगामा सार।
जूट-जटा गंगा धवल, शिव बाबा-संसार।।
चंदा की सोलह कला, धारण करते नाथ।
गिरि-तनया अर्धांगिनी, सोहें शिव के साथ।।
बाबा भोले नाथ की, महिमा अपरंपार।
भंग-भस्म की आरती, शक्ति सत्य आपार।।
डम-डम डमरू बाजता, आदि कलश कैलाश।
अर्ध चंद्रमा खिल रहा, गंगा धवल प्रकाश।।
जय गणेश जय कार्तिके, जय नंदी महाराज।
जयति-जयति माँ पार्वती, धन्य शीतला राज।।
डोला माँ का सज गया, जय चैत्री नवरात।
नित-नव गरवा घूमती, जननी दुर्गा मात।।
भूल-चूक कर माँ क्षमा, विनय करूँ कर जोर।
सेवक 'गौतम' पग पड़ा, दे आशीष अंजोर।।
मातु शीतला अब बहे, शीतल नीम बयार।
निर्मल हो आबो-हवा, मिटे मलीन विचार।।
डोला मैया आप का, बगिया का रखवार।
माली हूँ अर्पण करूँ, नीम पुष्प जलधार।।
जन्म-दिवस है आप का, आज वीर हनुमान।
चरण पवन सुत मैं पडूँ, ज्ञानी गुण बलवान।।
शुभकामना बधाइयाँ, जन-जन पहुँचे राम।
हनुमत के हिय में बसें, लखन सिया श्रीराम।।
गंगोत्री सु-यमुनोत्री, बद्रीनाथ केदार।
चारों धाम विराजते, शिव; महिमा साकार।।
मातु पार्वती ने दिया, अपना घर उपहार।
आ बैकुंठ विराजिए, ममता विष्णु दुलार।।
स्वर्गलोक की छावनी, देव भूमि यह धाम।
ब्रम्हा विष्णु महेश को, बारंबार प्रणाम।।
दर्शन करके तर गए, पूर्वज सहित अनेक।
सकल कामना सिद्धता, आए बुद्धि विवेक।।
बार बार सब तीर्थ कर, एक बार हरि-धाम।
प्रेमिल रसना आरती, बोल विष्णु का नाम।।
दोहा अपनी बात से, मन को लेता मोह।
चकित करे हर मोड़ पर, काहु न बैर बिछोह।।
पशु-पक्षी की बोलियाँ, समझ गया इंसान।
निज बोली पर हीनता, मूरख का अभिमान।।
दोहा है ऐसी विधा, कहे छंद सत सार।
तेरह-ग्यारह पर रुके, रचना स्वर अनुसार।।
दोहा अपने आप में, रखता सुंदर भाव।
जागरूक करता सदा, लेकर मोहक चाव।।
पर्यावरण सुधार लो, सबकी साधे खैर।
जल-जीवन सब जानते, जल से किसका बैर।।
पर्यावरण विशुद्ध हो, नाशे रोग-विकार।
प्रेमी सींचें बाग-वन, मन में रख उपकार।।
मानव तेरा हो भला, मानवता की राह।
कभी न दानव संग हो, करते मन गुमराह।।
वो दिन कहाँ चले गए, ओल्हा पांती पेड़।
अभी कहाँ नियरात हैं, मोटे-तगड़े मेड़॥
उड़े तिरंगा शान से, लहराए ज्यों फूल।
हरित केशरी चक्र सह, शुभ्र रंग अनुकूल।।
झंडा डंडे से बँधा, मानवता की डोर।
काश्मीर जिसकी शिखा, कन्याकुमारी छोर।।
कड़क रही है दामिनी, बादल सह इतराय।
पलक बंद पल में करे, देखत जिय डरि जाय।।
क्यों रूठे हो तुम सखे, कुछ तो निकले बैन।
व्याकुल विरह बढ़ा रहा, पड़े न मन को चैन।।
तनिक बरस भी जाइए, आँगन मेरा सून।
गर्मी से राहत मिले, शीतल हो दिन जून।।
बारिस भी यह खूब है, बिन मर्जी के होय।
कहीं गिरे कहिं धौकनी, बिना रंग की पोय।।
किसे कहूँ? कैसे लिखूँ, दोहा तुझसे नेह।
परवश होती प्रीत है, मानों परमा स्नेह।।
गड़बड़ झाला देख के, पड़ा कबीरा बोल।
मौसम ऋतु वीरान है, पीट रहे दिग ढोल।।
कैसे तुझे जतन करूँ, पुष्प पराग नहाय।
अपने पथ नवयौवना, महक बसंत बुलाय॥
रंग-रंग पर चढ़ गया, दिखे न दूजा रंग।
अंग-अंग रंगीनियाँ, फड़क रहा हर अंग॥
ऋतु बहार ले आ गई,पड़ें न सीधे पाँव।
कदली इतराती रही, बैठी पुलकित छाँव॥
महुआ कुच दिखने लगे, बौर गए हैं आम।
मेरे कागा बोल मत, सुबह हुई कत शाम॥
नहि पराग कण पाँखुड़ी, कलियन मह नहि वास।
कब वसंत आया-गया, चित न चढ़ें मधुमास॥
सोनचिरैया उड़ चली, पिंजरा हुआ पराय।
नात बात रोवन लगे, जस-तस निकसत हाय॥
कई मंजिला घर मिला, मिली जगह भरपूर।
छूट जाय घर मानवा, जीवन जग दस्तूर॥
निर्धन-मरा जुआरिया, धनी मरा संताप।
मानवता पल में मरी, मरि-मरि जिए अनाथ॥
लोभी क्रोधी धूतरा, दिख सज्जन बड़ वेष।
उतराए दिन-रात है, कतहु न मिले निमेष।।
माया महिमा साधुता, उगी ठगी चहुँ ओर।
जातन देखि विलासिता, भीड़ भई मतिभोर॥
ऊटपटांग न बोली, बनते बैन बलाय।
हर्ष भरे मन शूरमा, फिर पाछे पछिताय॥
पाप-पुण्य की आस में, जीवन बीता जाय।
नहीं भक्ति नहि कर्म भा, दिन में रात दिखाय॥
भली भलाई पारकी, मन संतोष समाय।
खुद की थाली कब कहे, रख दे औरन खाय॥
कैसे कहूँ महल सुखी, दिग में सुखी न कोय।
बहुतायती अधीर है, रोटी मिले न भोय।।
मुट्ठी भरते लालची, अपराधी चहुँ ओर।
कोना-कोना छानते, मणि ले चले बटोर।।
गाय दुधारू को सभी, करते खूब दुलार।
दूध नहीं दाना नहीं, चला करे तलवार।।
पूत पिता को तौलते, लिए तराजू चोर।
हीरा हिंसक एक से, बँसवारी में शोर।।
समय-समय की बात है, आज बहुत है ठंड।
भीग रहे हैं छाँव में, बिना काम का फंड।।
सम समानता अरु समय, होता है अति वीर।
बुद्धि-विवेक बहुत भले, अपनाते हैं धीर।।
वीणा का स्वर अति मधुर, मन को लेती मोह।
मानों कोयल कूकती, बौर-बौर चित सोह।।
जगत जहाँ बढ़ता गया, बढ़ते गए फ़क़ीर।
बाबा ढोंगी हो गये, अब क्या करें कबीर।।
मिलन-मिलन में फेर है, मिल लीजे मन खोल।
अंतिम समय विछोह है, सब कुछ पोलम-पोल।।
खुश रहिये मेरे सखा, सब कुछ भगवत-हाथ।
कभी न चिंता कीजिये, करनी-भरनी साथ।।
डाली-डाली झूमती, लादे रहती बोझ।
झुक जाती है फल लिए, कैसा किसका झोझ।।
दुख में दुखी न होइए, धीरज दीजे मान।
क्लेश होत नहिं स्वार्थी, आता जाता शान।।
कभी न मन में रार हो, कभी न छाए द्वेष।
बोली भाषा एक सी, अलग अलग है भेष।।
लहर रही है ओस अब, ठिठुर रही है रात।
सूझत नाहीं कत गया, भौंरा गुंजत प्रात।।
चादर मैली हो गई, धोया जिसको खूब।
अजी खाद-पानी बिना, फैल गई है दूब।।
मैं अति भला तुमहिं सरिस, भला मिला संसार।
जैसी जिसकी नजर है, वैसा है व्यवहार।।
अलंकार साहित्य का, गहना भूषण मान।
छंदस मात्रा सादगी, आभूषण सुविधान।।
उचित कर्म सौंदर्य है, मंशा महक महान।
रे साथी! अब चेतना, क्रोध न करना जान।।
ज्ञान नहीं भूगोल का, लिखन चला इतिहास।
अर्थशास्त्र के महारथी, द्रव्य करे उदभास।।
करो अध्ययन लालना, मानों सखा किताब।
बिना पढ़े नहिं ज्ञान हो, यह पूँजी नायाब।।
कर्म बिना सत्कर्म क्या, धन होता बेकार।
सोच-समझ ले रे मना, तब करना तकरार।।
नेह-निमंत्रण आप को, पहुँचे मेरे मीत।
कोयलिया की स्वर सुधा, मीठी बोली गीत।।
मनन बुद्धि गर शुद्ध हो, बने आचरण नेक।
कड़वी पर शीतल लगे, नीम छाँव प्रतिरेक।।
निराधार हम सब सखे!, अगर नहीं आधार।
ठेंगा ही पहचान है, बाकी सब बेकार।।
मेरे परमात्मा सदा, करना तू मजबूत।
नित्य नमन आराध्य को, करता हो अभिभूत।।
नदी किनारा देख के, मन होता खुशहाल।
कलकल सरिता बह रहीं, जल-मछली बदहाल।।
रे मन! धीरज रख तनिक, नाहक क्यों हैरान।
समय-समय की बात है, समय सदा बलवान।।
सृजन सहज हो सामयिक, लय में हो प्रभु गान।
सुरावली हो सूर की, हो कबीर का मान।।
मानव होकर क्यों करें, यह झूठा अभिमान।
कर्म-धर्म होता सगा, जीवन जोगी जान।।
आविष्कारक हर किता, करता है अनुमान।
इस विकास की दौड़ में, खुद को भी पहचान।।
मंगलमय होता सदा, सु-मनसा अनुष्ठान।
सर्वकामना सिद्ध हो, हों प्रबल प्रतिष्ठान।।
हरियाली लहरा रही, झूम रहे हैं खेत।
सरसों भी फूलन लगे, रे किसान गृह चेत।।
मारा-मारी हो रही, मिल जाए अधिकार।
कुछ भी बोलो साथिया, मन नहिं हो व्यभिचार।।
करूँ नहीं अधिकल्पना, मन में रखता धीर।
स्वागत सबका हँस करूँ, निर्धन राजा पीर।।
जिम्मेदारी है बहुत, लेकर चलता आज।
जितना कर पाता भला, उतना करता राज।।
सिंहासन सजता रहा, आदिकाल से अंत।
कितने आए अरु गए, कैसे-कैसे संत।।
मरती है संवेदना, मानव तेरा हाल।
एक हाथ में हाथ है, एक हाथ में खाल।।
सहनशीलता पावनी, देती शीतल छाँव।
मानों बैठा है भगत, जिय के भीतर गाँव।।
मिला खूबसूरत जहाँ, क्यों करते हो रार।
हे बलशाली मानवा, मतकर जल को खार।।
नैतिकता की आड़ में, लूट रहे सब खूब।
खेतों में जकड़ा रहा, भल किसान जस दूब।।
देना आशीर्वाद माँ!, आया तेरे धाम।
रमा रहे मन भक्ति में, शुद्ध भाव निष्काम।।
सकारात्मक जब हुआ, आया चिंतन काम।
नकारात्मक क्यों बनें, हे मेरे अभिराम।।
रोजगार बिन फिर रहा, डिग्री-धार सपूत।
घूम रहा पगला जहाँ, जैसे काला भूत।।
नमन करूँ प्रभु आप का, रखकर हृदय विशाल.
स्वस्थ रहें साथी सकल, सज्जित पूजा-थाल।।
***

doha

दोहा सलिलाः
संजीव
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
*
आशा पर आकाश टंगा है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
*
गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
*
प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
*

८.८.२०१४ 

सोमवार, 6 अगस्त 2018

doha kahta yug-katha १

दोहा कहता युग कथा १ 
इतमें हम महाराज
----------------------
कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.

महाकवि बिहारी के भांजे लोकनाथ चौबे जयपुर दरबार के मानद कवि थे। चौबेजी को 'महाराज' कहा ही जाता है। तो हुआ क्या, एक बार चौबेजी गाँव गए हुए थे। वहाँ उन्हें रुपयों की आवश्यकता हुई, तो उन्होंने स्थानीय सेठ को राजा के नाम एक हजार की हुण्डी लिख कर दे दी, साथ में एक प्रशस्ति का छंद भी लिख कर दे दिया। राजा मान सिंह ने हुण्डी तो स्वीकार कर ली, लेकिन जवाब में एक दोहा भी लिख भेजा :
इतमें हम महाराज हैं, उतमें तुम महाराज।
हुण्डी करी हज़ार की, नेक न आई लाज।।
***

रविवार, 5 अगस्त 2018

muktak

"We're born alone, we live alone, we die alone. Only through our love and friendship can we create the illusion for the moment that we're not alone."
—By Orson Welles

मुक्तक
आए थे हम अकेले और अकेले जाएँगे।
बीच राह में यारियाँ कर कुछ उन्हें निभाएँगे।।
वादे-कसमें, प्यार-वफ़ा, नातों का क्या बन-टूटें 
गले लगाया है कुछ ने, कुछ को गले लगाएँगे।।  
*