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रविवार, 30 जुलाई 2017

navgeet

नवगीत
*
मेघ न बरसे
बरस रही हैं
आहत जनगण-मन की चाहत।
नहीं सुन रहीं
गूँगी-बहरी
सरकारें, क्या देंगी राहत?
*
जनप्रतिनिधि ही
जन-हित की
नीलामी करते, शर्म न आती।
सत्ता खातिर
शकुनि-सुयोधन
की चालें ही मन को भातीं।
द्रोणाचार्य
बेचते शिक्षा
व्यापम के सिरमौर बने हैं।
नाम नहीं
लिख पाते टॉपर
मेघ विपद के बहुत घने हैं।
कदम-कदम पर
शिक्षालय ही
रेप कर रहे हैं शिक्षा का।
रावण के रथ
बैठ सियासत
राम-लखन पर ढाती आफत।
*
लोकतन्त्र की
डुबा झोपड़ी
लोभतन्त्र नभ से जा देखे।
शोकतंत्र निज
बहुमत क्रय कर
भोगतंत्र की जय-जय लेखे।
कोकतंत्र नित
जीता शैशव
आश्रम रथ्यागार बन गए।
जन है दुखी
व्यथित है गण
बेमजा प्रजा को शासन शामत।
*
हँसिया
गर्दन लगा काटने,
हाथी ने बगिया रौंदी रे!
चक्र गला
जनता का काटे,
पंजे ने कबरें खोदी रे!
लालटेन से
जली झुपड़िया
कमल चुभाता पल-पल काँटे।
सेठ-हितू हैं
अफसर नेता
अँधा न्याय ढा रहा आफत।
*
३०-७-२०१६
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

शनिवार, 29 जुलाई 2017

chhand parichay २

छंद परिचय : २  
पहचानें इस छंद को, क्या लक्षण?, क्या नाम?
रच पायें तो रचें भी, मिले प्रशंसा-नाम..
*
भोग्य यह संसार हो तुझको नहीं 
त्याज्य भी संसार हो तुझको नहीं 
देह का व्यापार जो भी कर रहा 
गह का अधार बिसरा मर रहा
***
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

kshanika


क्षणिका
१. सही-गलत
*
साथ हो?
तो सही।
साथ नहीं
तो गलत।
*
२. हम
तू तू
मैं मैं
तू-तू, मैं-मैं
तू मैं
मैं तू
हैं हम।
*
३. आँख
*
पीर तुम्हें तो  सूखी है
पीर मुझे तो गीली है
आँख।
*
४. मोल
*
किसान की फसल?
बेमोल।
सेठ का माल?
अनमोल।
*
५. पोशाक
*
दरिद्र की मज़बूरी
अधनंगा।
रईस का फैशन
अधनंगा।
*
६. आधुनिक
*
वसंतोत्सव मनाया
पिछड़े हो।
वैलेंटाइन सेलिब्रेट करो
आधुनिक बनो।
*
७. बेक़सूर
*
सालों से सम्बन्ध
अब नहीं करता शादी
वह धोखेबाज,
मैं बेक़सूर।
*
८. अबला
*
ये माताजी, वो ससुरी
ये पिताश्री, वे बुढ़ऊ
भाई बेचारा, देवर निखट्टू
बहिन लाडली, ननद दुष्टा
पुरुष शोषक
नारी अबला।
९. लोकतंत्र
*
लोक पर
हावी तंत्र
सच्चा लोकतंत्र।
१०. व्यवस्था
*
शिक्षक अस्थाई
अभियंता अस्थाई
चिकित्सक अस्थाई
अफसर स्थाई
आदर्श व्यवस्था।
११. पेंशन
कर्मचारी
कई साल बाद
पेंशन ले तो भार।
विधायक
एक दिन भी रहे
पेंशन अधिकार।
***
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#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर





kshanikaa

क्षणिका
१. त्यागपत्र
*
पद से त्यागपत्र
पद की प्राप्ति हित
अभूतपूर्व अनुष्ठान।
*
२.  जाँच
*
सत्तासीन का
हर झूठ सच।
सताहीन का
हर झूठ सच।
किसी पर न आये आँच
होती है,
हो जाने दो जाँच।
*
३. जय-जय
*
तुम अपना
हम अपना
साधें स्वार्थ।
होकर अभय
साथ-साथ करें
एक-दूसरे की
जय-जय।
४. फिर क्यों?
*
दोनों एक साथ
करें एक सा काम
पायें एक सा अंजाम
फिर क्यों
एक शहीद
दूसरा मारा गया?
*
५. गोष्ठी
श्रोता हैं तो
मित्र को पढ़ाओ
बिन सुने ताली बजाओ।
श्रोता नहीं तो
पढ़ा दो किसी को भी
सफल हो गयी गोष्ठी।
*
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#दिव्यनर्मदा 
#हिंदी_ब्लॉगर

kshanika

क्षणिकायें:
१. आभार
*
आभार
अर्थात आ भार.
तभी कहें
जब सकें स्वीकार
*
२. वरदान
*
ज़िन्दगी भरा चाहा
किन्तु न पाया.
अवसर मिला
तो नाहक गँवाया.
मन से किया
कन्यादान.
पर भूल गए
करना वरदान.
*
३. कविता
भाव सलिला से
दर्द की उषा किरण
जब करती है अठखेली
तब जिंदगी
उसे बनाकर सहेली
कर देती है कविता.
*
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#दिव्यनर्मदा
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kavita- purush

एक रचना
पुरुष
*
तुम्हें न देखूँ
तो शिकायत
किया करता हूँ अदेखा
पुरुष हूँ न.
.
तुम्हें देखूँ
तो शिकायत
देखता हूँ
पुरुष हूँ न.
.
काश तुम लो
आँख मुझसे फेर
मुझको कर अदेखा
जी सकूँ मैं चैन से
पुरुष हूँ न.
***
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#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

chhand parichay - 1.

छंद परिचय : १
पहचानें इस छंद को, क्या लक्षण?, क्या नाम?
रच पायें तो रचें भी, मिले प्रशंसा-नाम..
*
नमन उषानाथ! मुँह मत मोड़ना.
ईश! कर अनाथ, हमें न छोड़ना.
साथ हो तुम तो, यम से भी लड़ें.
कर-उठा लें नभ, रख भू में जड़ें.
***
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#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

sahityik nakal

क्या यह मौलिक सृजन है???
मुख पुस्तक पर एक द्विपदी पढ़ी. इसे सराहना भी मिल रही है. 
मैं सराहना तो दूर इसे देख कर क्षुब्ध हो रहा हूँ. 
आप की क्या राय है?
*
Arvind Kumar
उनके दर्शन से जो बढ़ जाती है मुख की शोभा
वोह समझते हैँ कि रोगी की दशा उत्तम है
*
उनके देखे से जो बढ़ जाते हैं मुंह की रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है - मिर्ज़ा ग़ालिब
***
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

kavyanuvaad

अनुवाद सलिला
मूल रचना: महादेवी वर्मा
अंग्रेजी काव्यानुवाद: बीनू भटनागर












*
मैं नीर भरी दुख की बदली!
.
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झणी मचली!
.
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली!
.
मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
.
पथ न मलिन करता आना,
पद चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन हो अंत खिली!
.
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
.











I am a wet cloud of sorrow
.
My vibrations rest on eternal still,
The world laughed when I cried
My eyes burn like lamps
A cascade fell from eyelashes.
.
Every step of mine is full of music.
Pollen of my dreams came out with breath
New colors weave shiny silk in the sky
In its shadow fragrant breeze is raised.
.
Mist covered my eyebrows at horizon
I remained the cause of ongoing worry.
On the particle of sand I dropped a water- drop.
A life sprouted and started growing
.
I don’t make the path filthy
I do not leave foot prints when I go
Everyone is happy at my arrival
I give immense joy to all.
.
I do not have my own corner in the sky
The sky that is so vast and gigantic
This is my introduction, my history
Today I am here tomorrow gone!
***
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर 

muktak

एक मुक्तक
भाव- अभावों का है तालमेल दुनिया
ममता मन में धार अकेले चल दे तू
गैरों में भी तुझको मिल जाएँ अपने
अपनापन सिंगार साजकर चल दे तू
मुक्तक में प्रयुक्त छंद का नाम और लक्षण बतायें.
२४-७-२०१७
***
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#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर 

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

hasya doha

दोहा सलिला:
शब्दों से खिलवाड़- १
संजीव 'सलिल'
*
शब्दों से खिलवाड़ का, लाइलाज है रोग..
कहें 'स्टेशन' आ गया, आते-जाते लोग.
*
'पौधारोपण' कर कहें, 'वृक्षारोपण' आप.
गलत शब्द उपयोग कर, करते भाषिक पाप..
*
'ट्रेन' चल रही किन्तु हम, चला रहें हैं 'रेल'. 
हिंदी माता है दुखी, देख शब्द से खेल..
*
कहते 'हैडेक' पेट में, किंतु नहीं 'सिरदर्द'.
बने हँसी के पात्र तो, मुख-मंडल है ज़र्द..
*
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, मिले दे रहे तर्क.
'कार्य' करें तो शर्म है, गर्व करें यदि 'वर्क'..
*
'नेता' 'लीडर' हो हुए, आम जनों से दूर.
खून चूसते देश का, मिल अफसर मगरूर..
*
'तिथि' आने की ज्ञात तो, 'अतिथि' रहे क्यों बोल?
शर्म न गलती पर करें, पीट रहे हैं ढोल..
*
क्यों 'बस' को 'मोटर' कहें, मोटर बस का यंत्र.
सही-गलत के फर्क का, सिर्फ अध्ययन मंत्र.. 
*
'नृत्य' न करना भूलकर, डांस इंडिया डांस. 
पूजा पेशा हो गयी, शाकाहारी मांस..
*
'सर्व' न कर 'सर्विस' करें, कहलायें 'सर्वेंट'.
'नौकर' कहिये तो लगे, हिंदी इनडीसेंट..  
*
'ममी-डैड' माँ-बाप को, कहें उठाकर शीश.
बने लँगूरा कूदते, हँसते देख कपीश..
*
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smaran

स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
संजीव
*
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक हैं जिनकी पहचान समय नहीं कर सका। उनका सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन, मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खांटी राजस्थानी बोली, छरफरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है. वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।

लीलाविहारी आनंदकंद गोबर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शिकल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया। सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चन्द्र-बुध-शनि की युति नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दे रहे थे जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक चंचरीक को निरंतर मिलता रहा।
बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। १९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा पर चल पड़े जगमोहन। जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये।
महाकाव्य त्रयी का सृजन:
चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३ दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। प्रथम कृति में कथा विकास सहायक पदों तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ) के आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा) में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि (अभी क्लक्की अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।
देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएं चंचरीक सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में समपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व् डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य सौभाग्य मिला।
चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान क देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को ऊपर समग्र ग्रन्थ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए। को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में उन पर पीठ स्थापित की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए।
दोहांजलि:
ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि 
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि

कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश 
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएं मथुरेश

सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप 
शाकुन्तल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप

चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य 
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य

राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन 
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन

सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष 
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष

कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़ 
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज

सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब 
चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब

चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत 
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत

दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम

चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य 
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य

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हिंदी_ब्लॉगर
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सोमवार, 17 जुलाई 2017

geet

एक रचना
*
गाय
*
गाय हमारी माता है
पूजो गैया को पूजो
*
पिता कहाँ है?, ज़िक्र नहीं
माता की कुछ फ़िक्र नहीं
सदा भाई से है लेना-
नहीं बहिन को कुछ देना
है निज मनमानी करना
कोई तो रस्तों सूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गौरक्षक हम आप बने
लाठी जैसे खड़े-तने
मौका मिलते ही ठोंके-
बात किसी की नहीं सुनें
जबरा मारें रों न देंय
कार्य, न कारण तुम बूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गैया को माना माता
बैल हो गया बाप है
अकल बैल सी हुई मुई
बात अक्ल की पाप है
सींग मारते जिस-तिस को
भागो-बचो रे! मत जूझो
पूजो गैया को पूजो
*
#दिव्यनर्मदा.कॉम
#हिंदी_ब्लॉगर 

janak chhand

जनक छन्द सलिला
*
श्याम नाम जपिए 'सलिल'
काम करें निष्काम ही
मत कहिये किस्मत बदा 
*
आराधा प्रति पल सतत
जब राधा ने श्याम को
बही भक्ति धारा प्रबल
*
श्याम-शरण पाता वही
जो भजता श्री राम भी
दोनों हरि-अवतार हैं
*
श्याम न भजते पहनते
नित्य श्याम परिधान ही
उनके मन भी श्याम हैं
*
काला कोट बदल करें
श्वेत, श्याम परिधान को
न्याय तभी जन को मिले
*
शपथ उठाते पर नहीं
रखते गीता याद वे
मिथ्या साक्षी जो बने
*
आँख बाँध तौले वज़न
तब देता है न्याय जो
न्यायालय कैसे कहें?
******
१६-७-२०१६  
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muktika

मुक्तिका:
अम्मी
संजीव 'सलिल'
*
माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.
*
बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.
*
भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.
*
कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.
*
अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.
*
तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.
*
तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.
१७-७-२०१२  
salil.sanjiv@gmail.com   
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doha

दोहा सलिला
नाम अनाम
*
पूर्वाग्रह पाले बहुत, जब रखते हम नाम
सबको यद्यपि ज्ञात है, आये-गये अनाम
*
कैकेयी वीरांगना, विदुषी रखा न नाम
मंदोदरी पतिव्रता, नाम न आया काम
*
रास रचाती रही जो, राधा रखते नाम
रास रचाये सुता तो, घर भर होता वाम
*
काली की पूजा करें, डरें- न रखते नाम
अंगूरी रख नाम दें, कहें न थामो जाम
*
कहते गांधारी सती, किन्तु न रखते नाम
रखा नहीं धृतराष्ट्र भी, नाम व्यर्थ बदनाम
*
मिलतीं रंभा-उर्वशी, जैसे नारी आम
सद्गुण ए प्रति समर्पित, साध्य न पाया चाम
*
अपनी अपनी सोच है, छिपी सोच में लोच
निज दुर्गुण देखें नहीं, पर गुण लखें न पोच
१७-७-२०१४,
salil.sanjiv@gmail.com
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#हिंदी_ब्लॉगर