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गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

das matrik chhand

दस  मात्रिक छंद
२५. १० लघु मात्रा
हर दम छल मत कर
शुभ तज, अशुभ न वर
पथ पर बढ़,  मत रुक
नित नव करतब कर
.
'सलिल' प्रवह कलकल
सुख गहकर पल-पल
रुक मत कल रख चल
मनुज न बन अब कल
*
२६. ८ लघु, १ गुरु
नित नर्तित नटवर
गुरु गर्वित गिरिधर
चिर चर्चित चंचल
मन हरकर मनहर
*
२७. ६ लघु, २ गुरु
नित महकती कली
खिल चहकती भली
ललच भँवरे मिले
हँस, बहकती कली
राह फिसलन भरी
झट सँभलती कली
प्रीत कर मत अभी
बहुत सँकरी गली
संयमित रह सदा
सुरभि देकर ढली
*
२८. ४ लघु, ३ गुरु
धन्य-धन्य शंकर
वन्दन संकर्षण
भोले प्रलयंकर
दृढ़ हो आकर्षण
आओ! डमरूधर
शाश्वत संघर्षण
प्रगटे गुप्तेश्वर
करें कृपा-वर्षण
.
हमें साथ रहना
मिला हाथ रहना
सुख-दुःख हैं सांझा
उठा माथ कहना
*
२९. २ लघु, ४ गुरु
बोलो, सच बोलो
पोल नहीं खोलो
सँग तुम्हारे जो
तुम भी तो हो लो
.
तू क्यों है बेबस?
जागो-भागो हँस
कोई देगा न साथ
सोते-रोते नाथ?
*
३०. ५ गुरु
जो चाहो बोलो
बातों को तोलो
झूठों को छोड़ा
सच्चे तो हो लो
.
जो होना है हो
रोकोगे? रोको
पाया खो दोगे
खोया पा लोगे
*

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

muktika

एक मुक्तिका
छंद- यौगिक जातीय विद्या छंद
मापनी- २१२२ २१२२ २१२२ २१२२
बहर- फाइलातुन x ४
*
फूलने दो बाग़ में गुंचे मिलेगी खूब खुश्बू
गीत गायेंगे ख़ुशी से झूम भौंरे देख जादू

कौन बोलेगा न झूमो? कौन चाहेगा न गाओ?
राह में राही मिलेंगे, थाम लेना हाथ ही तू

उम्र का ही है तकाजा लोग मानें या न मानें
जोश में होता कहाँ है होश?, होता है न काबू

आप नेता हैं, नहीं तो आपका कोई न चर्चा
आपकी पीड़ा न पीड़ा, फेंक एसिड, मार चाकू

सांसदों को खूब भत्ते और भूखों को न दाना
वाह रे आजाद लोगो! है न आज़ादी गुड़ाखू
***

doha

क्रिकेट के दोहे 
*
चहल-पहल कर चहल ने, खड़ी करी है खाट 
क्म्गेंदें ज्यादा विकेट, मारा धोबीपाट 
*
धोनी ने धो ही दिया, सब अंग्रजी ठाठ 
बल्ले-बल्ले कर रहा, बल्ला पढ़ लो पाठ 
*
रैना चैना छीनकर, नैना रहा तरेर 
ढेर हो गए सर झुका, सब अंग्रेजी शेर
*
है विराट के नाम की, है विराट ही धाक   
कुक ने स्तीफा दिया, हाय कट गयी नाक 

अंग्रेजों से छिन गया, ट्वंटी का भी ताज 
गोरी बाला वर जयी, हुए विहँस युवराज 
*
नेहरा गहरा वार कर, पहरा देता खूब 
विकट नहीं या रन नहीं, गए विपक्षी डूब 
***

das matik chhand

दस मात्रिक छंद
९. पदांत यगण
मनुआ! जग गा रे!
    प्राची रवि लाई
    ऊषा मुसकाई
    रहा टेर कागा
    पहुना सुधि आई
    विधना झट ला रे!
कुण्डी खटकाई
गोरी झट आई
अँखियाँ टकराईं
झुक-उठ शरमाईं
मुड़कर मात जारे!
    हुई मन मिलाई
    सुध-बुध बिसराई
    गयी खनक चूड़ी
ननदी झट आई
चट-पट छिप जा रे!
*
१०. पदांत मगण
मन क्यों आवारा?
जैसे बंजारा
हर दम चाहे हो
केवल पौबारा
*
११. पदांत तगण
ख्वाब में हैं आप
साथ में हैं आप
हम जहाँ मौजूद
न हों पर हैं आप
*
१२. पदांत रगण
बात जब कीजिए
साथ चल दीजिए
सच नहीं भी रुचे
तो नहीं खीजिए
कर मिलें, ना मिलें
मन मिला लीजिए
आँख से भी कभी
कुछ लगा पीजिए
नेह के नीर में
सँग नहा भीजिए
*
१३. पदांत जगण  ६+१२१
किसे कहें अनाथ?
सभी मनुज सनाथ
सबका ईश एक
झुकाएँ नित माथ
*
१४. पदांत भगण
लाया है सावन
त्यौहार सुपावन
मिल इसे मनायें
राखी मन भावन
.
सीमा पर दुर्जन
दें मार सैन्य जन
अरि के घर मातम
बोयेगा सावन
*
१५, पदांत नगण
जब से गए सजन
बेसुध सा तन-मन
दस दिश चहल-पहल
सूना मन-मधुवन
किया सतत सुमिरन
हर दिन, हर पल-छिन
पौधारोपण कर
जी पायें फिर वन
वह दिखता रहबर
हो न कहीं रहजन
*
१६. पदांत सगण
हमको है कहना
दूर नहीं रहना
चुप, कब तक पहनें
सुधियों का गहना?
मजबूरी अपनी
विरह व्यथा तहना
सलिला कब कहती
मुझे नहीं बहना?
मंगल मन रही
क्यों केवल बहना?
*
१७.  २ यगण
निहारो-निहारो
सितारों निहारो
सदा भारती की
करो आरती ही
हसीं चाँदनी को
धरा पर उतारो
सँवारो-सँवारो
धरा को सँवारो
१८. २ तगण
सीता वरें राम
सीता तजें राम
छोड़ें नहीं राग
सीता भजें राम
१९. २ रगण
आपसे काम ना
हो, यही कामना
गर्व का वास ना
हो, नहीं वासना
स्वार्थ को साध ना
छंद को साधना
माप की नाप ना
नाप ही नापना
उच्च हो भाव ना
शुद्ध हो भावना
*
२०. यगण तगण
कहीं है नीलाभ
कहीं है पीताभ
कपासी भी मेघ
कहीं क्यों रक्ताभ?
कड़े हो या नर्म
रहो जैसे डाभ  
सहेगा जो हानि
कमाएगा लाभ
२१. तगण यगण
वादा न निभाया
कर्जा न चुकाया
जोड़ा धन थोड़ा
मोहे मत माया
जो पुन्य कमाया
आ अंत भुनाया
ठानो न करोगे
जो काम न भाया
२१. यगण रगण
किये जाओ मजा
चली आती क़ज़ा
किया तो भोग भी
यही दैवी रजा
कहो तो स्वार्थ को
कभी क्या है तजा?
रही है सत्य की
सदा ऊँची ध्वजा
न बोले प्रेयसी
'मुझे क्या जा-न जा'
*
२२. रगण यगण
आपका सहारा
दे रहा इशारा
हैं यही मुरादें
साथ हो हमारा
दूर जा पुकारा
पास आ निहारा
याद है न वादा?
प्यार हो न कारा?
आँख में बसा है
रूप ये तुम्हारा
*
२३. तगण रगण २२१ २१२
आओ! कहीं चलें
बोलो कहाँ मिलें?
माँगें यही दुआ
कोई नहीं छले
*
२४. रगण तगण
आज का पैगाम
जीत पाए लाम
आपका सौभाग्य
आप आये काम
सोचते हैं लोग
है विधाता वाम
चाहिए क्यों पुण्य
कर्म है निष्काम
खूब पाया नाम
बात है ये ख़ास
प्रेरणा लें आम
*







दोहा

दोहा
रोज-प्रप्रोज पठा रहा, नाती कैसा काल?
पोता हो लव बर्ड तो, आ जाए भूचाल।।
*

maithily haiku

मैथिली हाइकु
*
स्नेह करब
हमर मंत्र अछि
गले लगबै
*

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

mukatak, kundali, vimarsh

मुक्तक
मेटते रह गए कब मिटीं दूरियाँ?
पीटती ही रहीं, कब पिटी दूरियाँ?
द्वैत मिटता कहाँ, लाख अद्वैत हो
सच यही कुछ बढ़ीं, कुछ घटीं दूरियाँ
*
कुण्डलिया
जल-थल हो जब एक तो, कैसे करूँ निबाह
जल की, थल की मिल सके, कैसे-किसको थाह?
कैसे-किसको थाह?, सहायक अगर शारदे
संभव है पल भर में, भव से विहँस तार दे
कहत कवि संजीव, हरेक मुश्किल होती हल
करें देखकर पार, एक हो जब भी जल-थल
*
एक प्रश्न:
*
लिखता नहीं हूँ,
लिखाता है कोई
*
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
*
शब्द तो शोर हैं तमाशा हैं
भावना के सिंधु में बताशा हैं
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है
*
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं,
*
अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.
*
जितने मुँह उतनी बातें के समान जितने कवि उतनी अभिव्यक्तियाँ
प्रश्न यह कि क्या मनुष्य का सृजन उसके विवाह अथवा प्रणय संबंधों से प्रभावित होता है? क्या अविवाहित, एकतरफा प्रणय, परस्पर प्रणय, वाग्दत्त (सम्बन्ध तय), सहजीवी (लिव इन), प्रेम में असफल, विवाहित, परित्यक्त, तलाकदाता, तलाकगृहीता, विधवा/विधुर, पुनर्विवाहित, बहुविवाहित, एक ही व्यक्ति से दोबारा विवाहित, निस्संतान, संतानवान जैसी स्थिति सृजन को प्रभावित करती है?
आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा है.

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

das maatrik chhand

ॐ 
दस मात्रिक छंद 
१. पदादि यगण 
सुनो हे धनन्जय!
हुआ है न यह जग 
किसी का कभी भी। 
तुम्हारा, न मेरा
करो मोह क्यों तुम?
तजो मोह तत्क्षण।  
न रिश्ते, न नाते 
हमेशा सुहाते। 
उठाओ धनुष फिर 
चढ़ा तीर मारो। 
मरे हैं सभी वे 
यहाँ हैं खड़े जो 
उठो हे परन्तप!
*
२. पदादि मगण 
सूनी चौपालें 
सूना है पनघट
सूना है नुक्कड़ 
जैसे हो मरघट 
पूछें तो किससे?
बूझें तो कैसे?
बोया है जैसा 
काटेंगे वैसा 
नाते ना पाले 
चाहा है पैसा
*
३. पदादि तगण 
चाहा न सायास  
पाया अनायास 
कैसे मिले श्वास?
कैसे मिले वास?
खोया कहाँ नेह?
खोया कहाँ हास?
बाकी रहा द्वेष 
बाकी रहा त्रास 
होगा न खग्रास 
टूटी नहीं आस 
ऊगी हरी घास 
भौंरा-कली-रास
होता सुखाभास 
मौका यही ख़ास 
*
४. पदादि रगण 
वायवी सियासत 
शेष ना सिया-सत 
वायदे भुलाकर 
दे रहे नसीहत 
हो रही प्रजा की
व्यर्थ ही फजीहत 
कुद्ध हो रही है 
रोकिए न, कुदरत
फेंकिए न जुमले 
हो नहीं बगावत
भूलिए अदावत 
बेच दे अदालत 
कुश्तियाँ न असली    
 है छिपी सखावत 
*
५. पदादि जगण 
नसीब है अपना 
सलीब का मिलना
न भोर में उगना 
न साँझ में ढलना 
हमें बदलना है 
न काम का नपना  
भुला दिया जिसको 
उसे न तू जपना 
हुआ वही सूरज 
जिसे पड़ा तपना 
नहीं 'सलिल' रुकना
तुझे सदा बहना 
न स्नेह तज देना 
न द्वेष को तहना 
*
६. पदादि भगण 
बोकर काट फसल
हो  तब ख़ुशी प्रबल
भूल न जाना जड़
हो तब नयी नसल 
पैर तले चीटी 
नाहक तू न मसल 
रूप नहीं शाश्वत 
चाह न पाल, न ढल 
रूह न मरती है 
देह रही है छल 
तू न 'सलिल' रुकना 
निर्मल देह नवल 
*
७. पदादि नगण 
कलकल बहता जल 
श्रमित न आज न कल 
        रवि उगता देखे 
        दिनकर-छवि लेखे 
        दिन भर तपता है 
        हँसकर संझा ढल
        रहता है अविचल 
रहता चुप अविकल
कलकल बहता जल
        नभचर नित गाते 
        तनिक न अलसाते 
        चुगकर जो लाते
        सुत-सुता-खिलाते
        कल क्या? कब सोचें?
        कलरव कर हर पल 
कलरव सुन हर पल  
कलकल बहता जल 
        नर न कभी रुकता 
        कह न सही झुकता
        निज मन को ठगता 
        विवश अंत-चुकता 
        समय सदय हो तो 
        समझ रहा निज बल 
समझ रहा निर्बल 
कलकल बहता जल
*
८. पदादि सगण    
चल पंछी उड़ जा 
        जब आये तूफां 
        जब पानी बरसे 
        मत नादानी कर  
मत यूँ तू अड़ जा    
        पहचाने अवसर  
        फिर जाने क्षमता  
        जिद ठाने क्यों तू?  
झट पीछे मुड़ जा 
        तज दे मत धीरज 
        निकलेगा सूरज 
        वरने निज मंजिल 
चटपट हँस बढ़ जा 
***
संपर्क - ९४२५१८३२४४ / salil.sanjiv@gmail.com 


 

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

gale mile doha yamak

गले मिले दोहा-यमक
*
नारी पाती दो जगत, जब हो कन्यादान
पाती है वरदान वह, भले न हो वर-दान
*
दिल न मिलाये रह गए, मात्र मिलकर हाथ
दिल ने दिल के साथ रह, नहीं निभाया साथ
*
निर्जल रहने की व्यथा, जान सकेगा कौन?
चंद्र नयन-जल दे रहा, चंद्र देखता मौन
*
खोद-खोदकर थका जब, तब सच पाया जान
खो देगा ईमान जब, खोदेगा ईमान
*
कौन किसी का सगा है, सब मतलब के मीत
हार न चाहें- हार ही, पाते जब हो जीत
*
निकट न होकर निकट हैं, दूर न होकर दूर
चूर न मद से छोर हैं, सूर न हो हैं सूर
*
इस असार संसार में, खोज रहा है सार
तार जोड़ता बात का, डिजिटल युग बे-तार
*
५-२-२०१७



शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

muktak, muktika, kundalini

मुक्तक
कल्पना के बिना खेल होता नहीं 
शब्द का शब्द से मेल होता यहीं 
गिर 'सलिल' पर हुईं बिजलियाँ लुप्त खुद 
कलप ना, कलपना व्यर्थ होता कहीं?
*
मुक्तिका
*
नाजनीं को नमन मुस्कुरा दीजिए
मशविरा है बिजलियाँ गिरा दीजिए 
*
चिलमनों के न पीछे से अब वार हो
आँख से आँखबरबस मिला दीजिए
 *
कल्पना ही सही क्या बुरा है अगर
प्रेरणा बन के आगे बढ़ा दीजिए
*
कांता के हुए कांत अब तो 'सलिल'
बैठ पलकों पे उनको बिठा दीजिए
*
जो खलिश दिल में बाकी रहे उम्र भर
ले के बाँहों में उसको सजा दीजिए
***

कुंडलिनी
*
जिस पर बिजली गिर गयी, वह तो बैठा शांत
गिरा रहे जो वे हुए अपने आप शांत
अपने आप अशांत बढ़ा बैठे ब्लड प्रेशर 
करें कल्पना हुए लाल कश्मीरी केसर
'सलिल' हुआ है मुग्ध अनूठा रूप देखकर
वह भुगते बिजली गिरनी है अब जिस जिस पर
***

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

muktak

मुक्तक
*
हुए मिथलेश के दर्शन, न झट क्यों जानकी आती?
लिख रहे राम मन ही मन, अ-भेजी रह गयी पाती
सुनैना ले सुनैना को हुईं जब सामने पल भर-
मधुर छवि देखकर धड़की अजाने साथ ही छाती
*
मन के द्वारे आया कोई, करें प्रतीक्षा आप
लौट न जाए कहीं द्वार से, शून्य न जाए व्याप
जब सपना बन रहा हो, सन्नाटे का जाल
मन ही मन में कीजिए, चुप रह प्रभु का जाप

*
शब्दों को नवजीवन देना, सीख सकें हम काव्य से
लय-गति-यति हो भंग न किंचित किसी छंद संभाव्य से
भाव-बिंब में रहे सुसंगति, हो प्रतीक भी उचित नये
रस-लहरों की बहे नर्मदा, नीरसता का किला ढहे
***



vimarsh/chintan

विमर्श / चिंतन 
ब्राह्मण और कायस्थ कौन हैं?
※※※※※※※※

सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य  अपनी योग्यता के अनुसार अपने कर्मों का संपादन कर तदनुसार वर्ण पाता है। एक वर्ण के माता-पिता से जन्मा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कर्म कर तदनुसार वर्ण पा सकता सकता है। चारों वर्ण समान हैं, कोई किसी से ऊँचा या नीचा नहीं है। ब्राम्हण बुद्धिमान, क्षत्रिय वीर, वैश्य दुनदार तथा शूद्र सेवाभावी है। हर व्यक्ति प्रतिदिन चारों वर्ण हेतु निर्धारित कर्म करता है।    
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।। -- यास्क मुनि  
हर व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
(ब्रम्ह कौन है? ब्रम्हं सत्यं जगन्मिथ्या ब्रम्ह सत्य है जगत मिथ्या है। ब्रम्ह भौतिक सृष्टि की रचना करनेवाली शक्ति या परमात्मा है अंश आत्मा के रूप में हर प्राणी ही नहीं जड़ में भी है। इसीलिए कण-कण  या कंकर-कंकर में शंकर कहा जाता है।) जब सभी में परमात्मा का  आत्मा के रूप में है तो कोई ऊँचा या नीचा कैसे हो सकता है? 
———————
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥ -- पतंजलि, (पतंजलि भाष्य ५१-११५)।
''विद्या और तप युक्त योनि में स्थित ही ब्राम्हण है जिसमें विद्या तथा तप नहीं है वह नाममात्रका ब्राह्मण है, पूज्य नहीं। '' 
—————————
विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥ -महर्षि मनु 
ईश्वर द्वारा शासित अर्थात सांसारिक शक्तियों से अधिक ईश्वरीय शक्तियों  नियंत्रण माननेवाला ब्राम्हण कहा जाता है।उसका अमंगल चाहना  अनुचित है। '' (मनु; ११-३५)।
————————————
"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो" - वेदव्यास, महाभारत 
—————————
"जो निष्कारण (आसक्ति के बिना) वेदों के अध्ययन में व्यस्त और वैदिक विचार के संरक्षण-संवर्धन हेतु सक्रिय है वही ब्राह्मण हे." - -महर्षि याज्ञवल्क्य, पराशर व वशिष्ठ शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति

——————————
"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है"-श्री कृष्ण, भगवदगीता             ----------------------------              
"ब्राह्मण वही है जो "पुंसत्व" से युक्त "मुमुक्षु" है। जो सरल, नीतिवान, वेदप्रेमी, तेजस्वी, ज्ञानी है।  जिसका ध्येय वेदों का अध्ययन-अध्यापन-संवर्धन है।"- शंकराचार्य विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक
—————————
केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं, कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है। 
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में हैं। 

(क) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | वे ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना कर ब्राम्हण हुए | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(ख) ऐलूष ऋषि दासीपुत्र, जुआरी और दुश्चरित्र थे | बाद में बोध होने पर अध्ययनकर ऋग्वेद पर अनुसन्धान व अविष्कार किये | ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(ग) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु सत्य निष्ठा के कारण ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(घ) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
( ङ) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(च) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र क्षत्रिय, प्रपौत्र ब्राम्हण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(छ) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(ज) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(झ) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
() क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए | इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(ट) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(ठ) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(ड) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(ढ) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(ण) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(त) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
(थ) कश्मीर के महामंत्री कल्हण राजतरंगिणी ग्रन्थ की रचना कर ब्राम्हण हुए, उनके पिता कायस्थ, लीत्तमः ब्राम्हण तथा प्रपितामह कायस्थ थे।  
'सर्वं खल्विदं ब्रह्मं' अर्थात सकल सृष्टि ब्रम्ह है, जो अजन्मा तथा अविनाशी है। थेर्मोडायनामिक्स के अनुसार ऊर्जा न तो बनाई जा सकती है, न नष्ट होती है उसका रूपांतरण (कायांतरण) ही किया जा सकता है। यह ऊर्जा ही ब्रम्ह है जो न बनाई जा सकती है, न नष्ट की जा सकती है तथा जिससे सकल सृष्टि का निर्माण होता है। इस ऊर्जा का कोई रूप-आकार भी नहीं है।  यह निराकार है जो कोई भी रूप ले सकती है। निराकार होने के कारण इसका कोई चित्र नहीं है अर्थात चित्र गुप्त है।  यह ऊर्जा जब किसी काया में स्थित होती है तो कायस्थ कही जाती है 'कायस्थिते स: कायस्थ:। परम ऊर्जा ही आत्मा रूप में जड़ को चेतन बनाती है। इससे विज्ञान अभी अपरिचित है।   
परम ऊर्जा जब सृष्टि में निर्माण करती है तो ब्रम्हा, संधारण या पालन करती है तो विष्णु और विनाश करती है तो शंकर कही जाती है। जीवन है तो प्रश् हैं, उत्तर हैं। जीवन नहीं तो प्रश्न या शंकाएं नहीं, तभी शंकर शंकारि (शंका के शत्रु) अर्थात विश्वास कहे गए हैं। 
''भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ'' -तुलसीदास, मानस 
विश्वास में विष का वास भी है, इसलिए शंकर नीलकंठ हैं। 
परमऊर्जा या परमात्मा आत्मा रूप में सकल जगत में होने के कारन सबसे पहले पूज्य कहा गया है'
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनां। " अर्थात चित्र गुप्र (निराकार परमेश्वर) सबसे पहले प्रणाम के योग्य है क्योंकि वह सब देहधारियों में आत्मा रूप में वास करता है।  
*** 

muktika

छंद बहर का मूल है 
एक मुक्तिका 
[चौदह मात्रिक मानव जातीय, मनोरम छंद, पदादि गुरु, पदांत यगण  
मापनी २१२२ २१२२, बहर फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन] 
*
ज़िन्दगी ने जो दिया है 
बन्दगी से ही लिया है 
सूर्य-ऊषा हैं सिपाही 
युद्ध किरणों ने किया है 
.
आदमी बेटा पिलाता 
स्वेद भू माँ ने पिया है 
मौत से जो प्रेम पाले 
वो मरा तो भी जिया है 
वक़्त कैसा क्या बताएँ?
होंठ ने खुद को सिया है 
***
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

muktak

मुक्तक
कभी अंकित, कभी टंकित, कभी शंकित रहे हैं
कभी वन्दित, कभी निन्दित, कभी चर्चित रहे हैं
नहीं चिंता किसी ने किस तरह देखा-दिखाया
कभी गुंजित, कभी हर्षित, कभी प्रमुदित रहे हैं
*  
एक रचना
*
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
टीचर-प्रीचर के क्या फीचर?
ऐसे मत हों जैसे क्रीचर
रोजी-रोटी साध्य न केवल
अंतर्मन है बाध्य व बेकल
कहता-सुनता
बात अधूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
शिक्षक अगर न खुद सीखा तो
समझहीन सब सा दीखा तो
कुछ मौलिकता, कुछ अन्वेषण
करे ग्रहण नित, नित कुछ प्रेषण
पढ़े-पढ़ाये
बिन मजबूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
४-१२-२०१६
प्रिमिउर टेक्निकल इन्स्तित्युत
कौन बताये आदि कहाँ है?
कोई न जाने अंत कहाँ है?
झुक जाते हैं वहीं अगिन सर
पड़ जाते गुरु-चरण जहाँ हैं
सत्य बात
समझाये पूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
४-१२-२०१६
प्रीमिअर टेक्निकल इंस्टीटयूट जबलपुर


nau matrik chhand

नौ मात्रिक छंद
१. पदादि यगण
निहारे सूरज
गुहारे सूरज
उषा को फिर-फिर
पुकारे सूरज
धरा से तम को
मिटाये सूरज
उजाला पल-पल
लुटाये सूरज
पसीना दिन भर
बहाये सूरज
मजूरी फिर भी  
न पाए सूरज
न आँखें संझा
मिलाये सूरज
*
२. पदादि मगण
आओ भी यार!
बाँटेगे प्यार
फूलों से स्नेह
फेंको भी खार
.
बोलेंगे बोल
पीटेंगे ढोल
लोगों को खूब
भोंकेंगे शूल
.
भागेगी रात
आएगा प्रात
ऊषा के साथ
लाये बारात
*
३. पदादि तगण
चंपा-चमेली
खेलें सहेली
दोनों न  बूझें
पूछें पहेली
सीखो लुभाना
बातें बनाना
नेता वही जो
जाने न जाना
वादे करो तो
भूले निभाना
*
४. पदादि रगण
शारदे! वर दे
तार दे, स्वर दे
छंद पाएँ सीख
भाव भी भर दे
बिंब हों अभिनव
व्यंजना नव दे
हों प्रतीक नए
शब्द-अक्षर दे
साध लूँ गति-यति
अर्थ का शर दे
*
५. पदादि जगण
कहें न कहें हम
मिलो न मिलो तुम
रहें न रहें सँग
मिटें न मिटें गम
    कभी न अलग हों
    कभी न विलग हों
    लिखें न लिखें पर
    कभी न विलग हों
चलो चलें सनम!
बनें कथा बलम
मिले अमित खुशी
रहे न कहीं गम   
*
६. पदादि भगण
दीप बन जलना
स्वप्न बन पलना
प्रात उगने को
साँझ हँस ढलना  
लक्ष्य पग चूमे
साथ रह चलना
भूल मत करना
हाथ मत मलना
वक्ष पर अरि के
दाल नित मलना
*
७. पदादि नगण
हर सिंगार झरे
जल फुहार पर
चँदनिया नाचे
रजनिपति सिहरे
.
पढ़ समझ पहले
फिर पढ़ा पगले
दिख रहे पिछड़े
कल बनें अगले
फिसल मत जाना
सम्हल कर बढ़ ले
सपन जो देखे
अब उन्हें गढ़ ले
कठिन मत लिखना
सरल पद कह ले
*
८. पदादि सगण
उठती पतंगें
झुकती पतंगें
लड़ती हमेशा
खुद ही पतंगें
नभ को लुभातीं
हँसतीं पतंगें
उलझें, न सुलझें
फटती पतंगें
सबकी नज़र में
बसतीं पतंगें
कटती वही जो
उड़ती पतंगें
***

ashta matrik chhand

 अष्ट मात्रिक छंद
१. पदादि यगण
यही है वचन
करेंगे जतन
न भूलें कभी
विधाता नमन
न हारे कभी
हमारा वतन
सदा हो जयी
सजीला चमन
करें वंदना
दिशाएँ-गगन
*
२. पदादि मगण
जो बोओगे
वो काटोगे
जो बाँटोगे
वो पाओगे
*
चूं-चूं आई
दाना लाई
खाओ खाना
चूजे भाई
चूहों ने भी
रोटी पाई
बिल्ली मौसी
है गुस्साई
*
३. पदादि तगण
जज्बात नए
हैं घाट नए
सौगात नई
आघात नए
ऊगे फिर से
हैं पात नए
चाहें बेटे
हों तात नए
गायें हम भी
नग्मात नए
*
४. पदादि रगण
मीत आइए
गीत गाइए
प्रीत बाँटिए
प्रीत पाइए
नेह नर्मदा
जा नहाइए
जिंदगी कहे
मुस्कुराइए
बन्दगी करें
जीत जाइए
*
५. पदादि जगण
कहें कहानी
सदा सुहानी
बिना रुके ही
कमाल नानी
करें करिश्मा
कहें जुबानी
बुजुर्गियत भी
उम्र लुभानी
हुई किसी की
न राजधानी
*
६. पदादि भगण
हुस्न जहाँ है
इश्क वहाँ है
बोल-बताएँ
आप कहाँ हैं?
*
७. पदादि नगण
सुमन खिला है
गगन हँसा है
प्रभु धरती पर
उतर फँसा है
श्रम करता जो
सुफल मिला है
फतह किया क्या
व्यसन-किला है
८. पदादि सगण
हम हैं जीते
तुम हो बीते
जल क्या देंगे
घट हैं रीते?
सिसके जनता
गम ही पीते
कहता राजा
वन जा सीते
नभ में बादल
रिसते-सीते
***

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

muktak

मुक्तक
*
मन में लड्डू फूटते आया आज बसंत
गजल कह रही ले मजा लाया आज बसंत
मिली प्रेरणा शाल को बोली तजूं न साथ
सलिल साधना कर सतत छाया आज बसंत
*
वंदना है, प्रार्थना है, अर्चना बसंत है
साधना-आराधना है, सर्जना बसंत है
कामना है, भावना है, वायदा है, कायदा है
मत इसे जुमला कहो उपासना बसंत है
*

muktak

बासंती मुक्तक 
श्वास-श्वास आस-आस झूमता बसन्त हो 
मन्ज़िलों को पग तले चूमता बसन्त हो 
भू-गगन हुए मगन दिग-दिगन्त देखकर 
लिए प्रसन्नता अनंत घूमता बसन्त हो 
*
साथ-साथ थाम हाथ ख्वाब में बसन्त हो
अँगना में, सड़कों पर, बाग़ में बसन्त हो
तन-मन को रँग दे बासंती रंग में विहँस
राग में, विराग में, सुहाग में बसन्त हो
*
अपना हो, सपना हो, नपना बसन्त हो
पूजा हो, माला को जपना बसन्त हो
मन-मन्दिर, गिरिजा, गुरुद्वारा बसन्त हो
जुम्बिश खा अधरों का हँसना बसन्त हो
*
अक्षर में, शब्दों में, बसता बसन्त हो
छंदों में, बन्दों में हँसता बसन्त हो
विरहा में नागिन सा डँसता बसन्त हो
साजन बन बाँहों में कसता बसन्त हो
*
मुश्किल से जीतेंगे कहता बसन्त हो
किंचित ना रीतेंगे कहता बसन्त हो
पत्थर को पिघलाकर मोम सदृश कर देंगे
हम न अभी बीतेंगे कहता बसन्त हो
*
सत्यजित न हारेगा कहता बसन्त है
कांता सम पीर मौन सहता बसंत है
कैंसर के काँटों को पल में देगा उखाड़
नर्मदा निनादित हो बहता बसन्त है
*

सोमवार, 30 जनवरी 2017

vimarsh

विमर्श 

वीरांगना पद्मिनी का आत्मोत्सर्ग और फिल्मांकन 
*
जिन पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों से मानव जाति सहस्त्रों वर्षों तक प्रेरणा लेती रही है उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना और उन्हें केंद्र में रखकर मन-माने तरीके से फिल्मांकित करना गौरवपूर्ण इतिहास के साथ खिलवाड़ करने के साथ-साथ उन घटनाओं और व्यक्तित्वों से सदियों से प्रेरणा ले रहे असंख्य मानव समुदाय को मानसिक आघात पहुँचाने के कारण जघन्य अपराध है. ऐसा कृत्य समकालिक जन सामान्य को आहत करने के साथ-साथ भावी पीढ़ी को उसके इतिहास, जीवन मूल्यों, मानकों, परम्पराओं आदि की गलत व्याख्या देकर पथ-भ्रष्ट भी करता है. ऐसा कृत्य न तो क्षम्य हो सकता है न सहनीय.

अक्षम्य अपराध
राजस्थान ही नहीं भारत के इतिहास में चित्तौडगढ की वीरांगना रानी पद्मावती को हथियाने की अलाउद्दीन खिलजी की कोशिशों, राजपूतों द्वारा मान-रक्षा के प्रयासों, युद्ध टालने के लिए रानी का प्रतिबिम्ब दिखाने, मित्रता की आड़ में छलपूर्वक राणा को बंदी बनाने, गोरा-बादल के अप्रतिम बलिदान और चतुराई से बनाई योजना को क्रियान्वित कर राणा को मुक्त कराने, कई महीनों तक किले की घेराबंदी के कारण अन्न-जल का अभाव होने पर पुरुषों द्वारा शत्रुओं से अंतिम श्वास तक लड़ने तथा स्त्रियों द्वारा शत्रु के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने के स्थान पर सामूहिक आत्मदाह 'जौहर' करने का निर्णय लिया जाना और अविचलित रहकर क्रियान्वित करना अपनी मिसाल आप है . ऐसी ऐतिहासिक घटना को झुठलाया जाना और फिर उन्हीं पात्रों का नाम रखकर उन्हीं स्थानों पर अपमान जनक पटकथा रचकर फिल्माना अक्षम्य अपराध है. 

जौहर और सती प्रथा 
जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था. जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता. जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए पराजित सैनिकों की पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था. जौहर के ३ चरण होते थे - १. योद्धाओं द्वारा अंतिम दम तक लड़कर मृत्यु का वरण, २. जन सामान्य द्वारा खेतों, अनाज के गोदामों आदि में आग लगा देना, ३. स्त्रियों और बच्चियों द्वारा अग्नि स्नान. इसके पीछे भावना यह थी कि शत्रु की गुलामी न करना पड़े तथा शत्रु को उसके काम या लाभ की कोई वस्तु न मिले. वह पछताता रह जाए कि नाहक ही आक्रमण कर इतनी मौतों का कारण बना जबकि उसके हाथ कुछ भी न लगा.

पति की मृत्यु होने पर पत्नि स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी. दोनों में कोई समानता नहीं है.

हजारों पद्मिनियाँ
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था. एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे. ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है. जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है. इसमें कोई संदेह नहीं है. ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं. ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो प्रष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं. एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती. प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे.

आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा. परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है. जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांन्तिकारी या भ्रष्टाचार मिटने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय है. वीरांगना देवी पद्मिनी सदियों से देशवासियों कि प्रेरणा का स्रोत हैं. आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान कि गीत में याद करें ये हैं अपना राजपुताना नाज इसे तलवारों पर ... कूद पड़ी थीं यहाँ हजारों पद्मिनियाँ अंगारों पे'.

आत्माहुति पाप नहीं 
मुश्किलों से घबराकर समस्त उपाय किये बिना मरना कायरता और निंदनीय है किन्तु समस्त प्रयास कर लेने के बाद भी मानवीय अस्मिता और गरिमा सहित जीवन संभव न हो अथवा जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो गया हो तो मृत्यु का वरण कायरता या पाप नहीं है.

देव जाति को असुरों से बचाने के लिए महर्षि दधीचि द्वारा अस्थि दान कर प्राण विसर्जन को गलत कैसे कहा जा सकता है?
क्या जीवनोद्देश्य पूर्ण होने पर भगवन राम द्वारा जल-समाधि लेने को पाप कहा जायेगा?
क्या गांधी जी, अन्ना जी आदि द्वारा किये गए आमरण अनशन भी पाप कहे जायेंगे?
एक सैनिक यह जानते हुए भी कि संखया और शास्त्र बल में अधिक शत्रु से लड़ने पर मारा जायेगा, कारन पथ पर कदम बढ़ाता है, यह भी मृत्यु का वरण है. क्या इसे भी गलत कहेंगी?
जैन मतावलंबी संथारा (एक व्रत जिसमें निराहार रहकर प्राण त्यागते हैं) द्वारा म्रत्यु का वरण करते हैं. विनोबा भावे ने इसी प्रकार देह त्यागी थी  वह भी त्याज्य कहा जायेगा?
हर घटना का विश्लेषण आवश्यक है. आत्मोत्सर्ग को उदात्ततम कहा गया है.

सोचिए-
एक पति के साथ पत्नि के रमण करने और एक वैश्य के साथ ग्राहक के सम्भोग करने में भौतिक क्रिया तो एक ही होती है किन्तु समाज और कानून उन्हें सामान नहीं मानता. एक सर्व स्वीकार्य है दूसरी दंडनीय. दैहिक तृप्ति दोनों से होती हो तो भी दोनों को समान कैसे माना जा सकता है? 

अपने जीवन से जुडी घटनाओं में निर्णय का अधिकार आपका है या आपसे सदियों बाद पैदा होनेवालों का? 

एक अपराधी द्वारा हत्या और सीमा पर सैनिक द्वारा शत्रु सैनिक कि हत्या को एक ही तराजू पर तौलने जैसा है यह कुतर्क. वीरगाथाकाल के जीवन मूल्यों की कसौटी पर जौहर आत्महत्या नहीं राष्ट्र और जाति के स्वाभिमान कि रक्षा हेतु उठाया गया धर्म सम्मत, लोक मान्य और विधि सम्मत आचरण था जिसके लिए अपार साहस आवश्यक था. १५००० स्त्रियों का जौहर एक साथ चाँद सेकेण्ड में नहीं हो सकता था, न कोई इतनी बड़ी संख्या में किसी को बाध्य कर सकता था. सैकड़ों चिताओं पर रानी पद्मावती और अन्य रानियों के कूदने के बाद शेष स्त्रियाँ अग्नि के ताप, जलते शरीरों कि दुर्गन्ध और चीख-पुकारों से अप्रभावित रहकर आत्मोत्सर्ग करती रहीं और उनके जीवनसाथी जान हथेली पर लेकर शत्रु से लड़ते हुई बलिदान की अमर गाथा लिख गए जिसका दूसरा सानी नहीं है. यदि यह गलत होता तो सदियों से अनगिनत लोग उन स्थानों पर जाकर सर न झुका रहे होते. 

अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का पालन न करने वाले, सिर्फ मौज-मस्ती और धनार्जन को जीवनोद्देश्य माननेवाले अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता कि आड़ में सामाजिक समरसता को नष्ट कर्ण का प्रयास कैसे कर सकते हैं? लोक पूज्य चरित्रों पर कीचड उछालने कि मानसिकता निंदनीय है. परम वीरांगना पद्मावती के चरित्र को दूषित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास सिर्फ निंदनीय नहीं दंडनीय भी है. शासन-प्रशासन पंगु हो तो जन सामान्य को ही यह कार्य करना होगा.

***