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बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

समीक्षा

पुस्तक सलिला –

‘चुप्पियाँ फिर गुनगुनाईं’ गीत की, नवगीत की

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

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[पुस्तक विवरण – चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं, यतीन्द्रनाथ राही, गीत-नवगीत संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४३, मूल्य २५०/-, ऋचा प्रकाशन१०६ शुभम, ७ बी. डी. ए. मार्केट, शिवाजी नगर भोपाल १६, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, गीतकार सम्पर्क – ए ५४ रजत विहार, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९४२५०१६१४० ]

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समय के साथ कदम-दर-कदम चलते गीत-नवगीत की बाँह थामकर अठखेलियाँ करने का सुख पाने और लुटाने के अभ्यस्त श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीत-नवगीतकार श्री यतीन्द्रनाथ ‘राही’ की बारहवीं कृति और दूसरा गीत-नवगीत संग्रह 'चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं 'रस-गंगा में अवगाहन करने के इच्छुक गीत-प्रेमियों को बाँधकर रखने में समर्थ है. ९० वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह और उल्लास की अक्षय पूँजी लिए, जीवट के धनी राही जी गीत रचते नहीं गीतों को जीते हैं.

चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं राही जी की ५१ सरस. सार्थक, सामयिक गीति रचनाओं का पठनीय संग्रह है. नवगीत को सामाजिक विडम्बना, विद्रूपता, दीनता, बिखराव और टकराव का पर्याय माननेवाले संकीर्ण पक्षधरों के विपरीत राही जी नवगीत को सद्भाव, सहिष्णुता, सौहार्द्र, सहयोग और नवजागरण का वाहक मानते हैं. वे सगर्व घोषणा करते हैं-

‘जब तलक हैं / हम /

तुम्हारे पन्थ को / ज्योतित करेंगे...

पंख हैं कमजोर / तो क्या

हौसलों में दम बहुत है

सूर्य के हम वंशधर हैं

क्या करेगा तम बहुत है

पत्थरों को फोड़कर

हमने रचे हैं / पन्थ अपने

राही जी ने उन सबसे बहुत अधिक दुनिया देखी है जो संपन्नता से जीते हुए विपन्नता का रोना रोते रहते हैं अथवा पूँजीपति होते हुए भी बुर्जुआवाद की दुहाई देते हैं. कृति के शीर्षक गीत ‘चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं’ में युगीन तमस में नवाशा के दीपक जलाने का आव्हान करते हुए वे चुप्पियों की गुनगुनाहट सुन पाते हैं-

कान बहके खिड़कियों पर
चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं

झील के उस पार से / उड़कर पखेरू

खुशबुओं की कुछ नयी / सौगात लेकर आ रहे हैं

‘ हम पसीने से लकीरें भाग्य की / धोते रहे हैं’ , ‘कलम में ताकत बहुत है / बदल डालेंगे समय को’ के संकल्प को जीता नवगीतकार पलायनपंथियों से लौट आने का आव्हान करता है- ‘बहुत भटके / कमल लोचन / लौट आओ गाँव अपने... गाँव अपना ही / सरग है ’ क्या धरा है उस नगर में? / रह नहीं पाते जहाँ / बेटा-बहू भी एक घर में /काठ के हैं लोग / सुख-दुःख / कौन, किसके बाँटता है? / भीड़ का रेला सड़क पर / आदमी को हाँकता है... ‘

राही जी! सम-सामयिक परिस्थितियों की न तो अनदेखी करते हैं, न उनमें अतिरेकी दोष देखते हैं, वे पारिस्थितिक जटिलता के सन्नाटे को नवगीतीय कलरवों से तोड़ते हुए नव सृजन के गीत गाते हैं – ‘धूप / कोहरे से लिपटकर / सो रही है, चुप रहो / कुनकुने रोमांच तन में / बो रही है, चुप रहो / झुरमुटों में / चहकते उल्लास / आतुर हैं सुनो’. उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस का प्रतिनिधित्व करते ये नवगीत ‘बाँसुरी बजने लगी / है शाम / ठहरो बात कर लें’....‘टिमटिमाता एक दीपक / आज की सौगात कर लें’ कहते हुए समस्या का समाधान किसी और से या कहीं बाहर से नहीं चाहते अपितु अपने अंदर खोजने का पथ दिखाते हैं. गत पाँच दशकों से नवगीत को मर्सिया बना देने के बौद्धिक षड्यंत्र को बेनकाब करते हुए राही जी कहते हैं – ‘हम जिंदगी से / आज तो कुछ रू-ब-रू हो लें..... दहकते इन पलाशों ने / लगा दी आग सी देखो.... झनकती झाँझरों / मंजीर-कंगन के / रहस खोलें.... उतारो! / फेंक दो / ओढ़े हुए सन्यास के चीवर / करेंगे क्या भला / इस हाल में / सौ साल तक जीकर?.... उठाई पलक / सूखे प्राण में / कुछ प्राण तो ढोलें‘

स्वतंत्रता के पश्चात् सत्ता पर पूंजीवादियों और शिक्षा-संस्थानों पर साम्यवादियों के कब्जे ने सत्य और शुभ की ओर से आँखें फेरकर असत्य और अशुभ की चीख-पुकारकर आम लोगों को आपस में लड़ाकर स्वार्थ साधने का जो खेल खेला है उसे समझकर और उसकी काट बूझकर राही जी परामर्श देते हैं- ‘गुलमुहरों की / घमछैयों में / बैठो! बात करें’ नवगीत के नाम पर वर्गसंघर्ष के बीज बोनेवालों का प्रतिकार करते हुए राही जी असफलता को नकारते नहीं, स्वीकारते हैं- ‘हो गए / सारे निरर्थक / यत्न थे जो बाँधने के / टूट पैमाने गए सब / दूरियों को नापने के.... दर्द की नदिया सदानीरा / मिले ढहते किनारे / हम समय से बहुत हारे’ किन्तु वे असफलता से पारस्परिक द्वेष नहीं सहकार की राह निकलते देखते और दिखाते हैं. निराशा में आशा का संचार करते राही जी के नवगीत पाँच दशकीय दिशा-भ्रम को तोड़ते हुए सर्वथा विपरीत रचनात्मक दिशा का संकेत करते हैं- 'शाम गहराने लगी है / काम की बातें करेंगे / रात काली है / न सहमो / गगन की दीपावली है / जुगनुओं ने खोल दी लो / ज्योति की ग्रंथावली है / झींगुरों के ध्वनन में / यह / पाठ मानस का अखंडित / हो गयी साकार / स्वर की / साधना-आभा विमंडित / यंत्र-ध्वनि से दूर / कुछ / विश्राम को बातें करेंगे’.

राही जी के नवगीत शैल्पिक दृष्टि से ‘कम में अधिक’ कह पाने में समर्थ हैं. शब्द-सामर्थ्य की बानगी हर गीत में अंतर्निहित है. पाषाण, कंटकों, व्यवधान, शब्दायन, दीर्घा, पृष्ठायण, स्वप्नदर्शी, दिग्भ्रांत, संपोषक, परिवेषण, त्राहिमाम, उद्भ्रांत, श्लथ, संवरण जैसे संस्कृत निष्ठ शब्दों के साथ भरम, मुँड़गेरी, परेवा, टेवा, हिरनिया, हिया, डगर, उजारे, हेरते, भांड, सुआ, बिजुरी, मुँड़ेरी आदि देशज शब्द गलबहियाँ डाले हुए उर्दू के आवाज़, सफ़र, फौलाद, दस्तक, निजामों, हालात, कलम, ज़माने, अखबार, शक्ल, कागज़ी आदि शब्दों के साथ बतियाते हुए मिलते हैं. इससे इन नवगीतों की भाषा सीधे मन को छूती है. सोने में सुहागा हैं वे शब्द युग्म जो भाषा को मुहावरेदार मिठास देते हैं- साँझ-सकारे, मदिर-मंथर, लय-विलय, फाग-बिरहा, सुख-दुःख, वृक्ष-लताएँ, नद-निर्झर, झूठ-सच, आगे-पीछे, अच्छे-बुरे, गली-गाँव, लेना-देना आदि. राही जी ने तीन शब्दों के युग्मों का भी बखूबी प्रयोग किया है- रूप-रस-रंग, फूल-फल-पल्लव, कुएँ-बावली-ताल, ताल-पोखरे-नदियाँ, रजा-रंक-फकीर आदि. इनमें से कुछ राही जी की अपनी ईजाद हैं. भावाभिव्यक्ति के लिए राही जी अंग्रेजी शब्दों के मुहताज नहीं हैं किन्तु अपवाद स्वरूप अंग्रेजी के एक शब्द-युग्म ‘टॉवर-बंगले’ तथा उर्दू शब्द-युग्म‘शक्ल-सीरत’ का अनूठा प्रयोगकर चौंकाते हैं. इससे स्पष्ट है कि वे भाषिक संकीर्णता के नहीं किन्तु शुद्धता के पक्षधर हैं.

राही जी की एक विशेषता शब्दों को सामान्य से हटकर नए रूपों में इस तरह प्रयोग करना है कि वे मूल की तरह न केवल सहज अपितु अधिक सारगर्भित प्रतीत होते हैं. रश्मिल, उट्ठी, बरगदिया, हरषो, मसमसाया, हवनगंधी, रणित आदि ऐसे ही कुछ प्रयोग हैं. जाने-अनजाने वचन संबंधी काव्य-दोष कहीं कहीं आ गया है. इसका कारण बहुवचन में कही हिंदी व्याकरण के अनुसार (कंटकों, निजामों, कदमों आदि) तथा कहीं उर्दू व्याकरण के अनुसार (हालात आदि) शब्द-रूप का प्रयोग करना है. इसी तरह तारीख / तारीखों के स्थान पर तवारीख और तवारीखों का प्रयोग है. हो सकता है ये शब्द-रूप लय साधने में सहायक हों किंतु राही जी जैसे समर्थ कवि से अनजाने में ही ऐसी त्रुटि ही सकती है. ‘रेत की सीपियाँ बीन लें’ या ‘रेत पर सीपियाँ बीन लें’ विचारणीय हो सकता है? कृति में परजय ५४ (पराजय), प्रारव्धों ६३ (प्रारब्धों), आत्मश्लाधा ६५ (आत्म श्लाघा), लेबा ६६ (लेवा) आदि टंकण त्रुटियाँ स्वादिष्ट खीर में कंकर की तरह खटकती हैं. पृष्ठ ८८ के पहले और बाद में अक्षरों के आकार में भी अंतर है.

अपने नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ में मैंने ‘सूर्य’ के रूपक के माध्यम से कई बातें कही है. राही जी ने ‘बादल’ को माध्यम बनाकर विविध भावों को अभिव्यक्त किया है- ‘नेह-भीगे / पवनवाही / मेघ नभ में छा रहे हैं (पृष्ठ १५), ये घिरे घन / तमस गहरा / बिजलियों की कौंध (पृष्ठ ३३), झरे अंगारे/ अगन लगी है / बरसो! मेघा बरसो (पृष्ठ ६६), घटाएँ / घिर रही हैं / फिर सुहाने मेघ आये हैं (पृष्ठ ६९), चले आओ / गगन घिरने लगे / बरसात के बादल तथा पलक से रात भर / झरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ७८), हमें तो / प्यास ही धरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ७९), हमें उपहास ही भरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ८०), आकाश झुकाए फिरते हैं / थोथे आश्वासन के बादल (पृष्ठ ११९), नील नभ को / बादलों ने / ढक लिया है इस तरह से / दूर तक छत पर कहीं से / चाँद का दर्शन नहीं है (पृष्ठ १२०) आदि.

दोलिता संवेदनाएँ, बातों के बताशे, नीलकंठी भाग्य, सौध-शिखर, सगुन के सांतिये, सांस की डोली, गुलमुहरों की घमछैयाँ, घंटियों से रणित साँझें, रसवंतिनी धरती जैसी मौलिक अभिव्यक्तियाँ पाठक-मन को भाव-विभोर करती हैं.

इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकार की निर्दोष और मौलिक अभिव्यक्तियाँ सर्वत्र दर्शनीय हैं जिनसे नवोदित नवगीतकार बहुत कुछ सीख सकते हैं. झरनों के कल-कल-छल स्वर, गए कहाँ-कितने थक आदि में छेकानुप्रास अलंकार, हिल गयी साधना से सँवारी जड़ें, न जाने कह रही क्या-क्या आदि में वृत्यानुप्रास अलंकार, यंत्र-शोरों की कहानी, बरगदों के भी जरठ तन में आदि में श्रुत्यनुप्रास अलंकार, गाते गीत बजाते वंशी कितने ऐसे-वैसे में अन्त्यानुप्रास अलंकार तथा दर्द की नदिया सदानीरा में लाटानुप्रास अलंकार दृष्टव्य है.

हवन हो गए आहुति-आहुति (वेंणसगाई अलंकार), सुबह रेलें उगल जातीं / भीड़ के रेले सड़क पर, पर तुम्हारे प्राण को हे प्राण! मैं भाता रहूँगा (यमक अलंकार), चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं (विरोधाभास अलंकार), यह / जूड़े का फूल तुम्हारा / गिरा दिया था / जो अनजाने / या फिर जान-बूझकर ही था कौन तुम्हारे मन की जाने (संदेह अलंकार), माटी का कण-कण बहका है (पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार) आदि ने नवगीतों की सुषमा में चार चाँद लगाये हैं.

राही जी के नवगीतों में ग्राम्यांचलों के प्रति आकर्षण और शहरों के प्रति विकर्षण धूप-छाँव की तरह सम्बद्ध है. छायावादोत्तरी भाषा शैली और प्रसाद गुण संपन्नता ने इन्हें मिठास से सजाया है. राही जी आत्मानुभूति और आत्म-विश्वास के कवि हैं. वे ‘बदला समय / हवाएँ बदली / हम जैसे के तैसे’ कहकर विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग रहते हैं. जब तलक हैं हम / तुम्हारे पन्थ को / ज्योतित करेंगे, नफरतों की आग में / इतना तपे / कुंदन हुए हैं, नक्षत्रों पर / कीर्ति-कथाएँ / लिखने को / उल्लास मच गए. खुशबुओं की कुछ नयी / सौगात लेकर आ रहे हैं, आदि पंक्तियों में अपने आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति करते हैं. उनके अनुसार इन नवगीतों में ‘अभिव्यक्ति को फिर से एक नया आकाश मिला जिसमें विचरती कुछ अतीत की व्यष्टिपरक सुधियों की मोहक सरस मोरपंखी भ्रांतियाँ हैं तो आगत की सुकुमार रंगीन तितलियों के बीच स्थाई रूप से वर्तमान की खुरदरी धरती पर छटपटाती दम तोडती अच्छे दिन की प्यासी मछलियाँ भी हैं.’

राही जी के इन नवगीतों का जितना रसास्वादन किया जाए, प्यास उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है. उम्र के नौवें दशक के पार हो रहे राही जी से अगले नवगीत संग्रह में शतक की अपेक्षा करना अनुचित न होगा. नवगीत के सचिन तेंदुलकर राही जी का हर नवगीत चौए-छक्के की तरह करतल ध्वनि करने को विवश कर देता है, यही उनकी सफलता है .
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आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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samiksha

पुस्तक समीक्षा-- काल है संक्रांति का...डा श्याम गुप्त
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समीक्ष्य कृति- काल है संक्रांति का...रचनाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- २००/-, आवरण– मयंक वर्मा, रेखांकन- अनुप्रिया, प्रकाशक-समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, जबलपुर.. समीक्षक- डा. श्याम गुप्त, लखनऊ|
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साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार, कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल | प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही होजाता है | वास्तव में ही यह संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं | एक और अंग्रेज़ी का वर्चस्व जहां चमक-धमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और हिन्दी –हिन्दुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी मिट्टी की और खींचता है | या तो अँगरेज़ होजाओ या भारतीय –परन्तु समन्वय ही उचित पंथ होता है हर युग में जो विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है | सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक उदाहरण प्रस्तुत है- गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचानें |

माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप में चित्रगुप्त की वन्दना भी नवीनता है | कवि की हिन्दी भक्ति वन्दना में भी छलकती है –‘हिन्दी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’ |

यह कृति लगभग १४ वर्षों के लम्बे अंतराल में प्रस्तुत हुई है | इस काल में कितनी विधाएं आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भांति गहन दृष्टि से देखने के साथ साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति| 

कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना उकेरना | समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें |
साहित्य की शुचि साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें |
उस सलिल को चाहता है, चार शब्दों में पिरोना ||” 

सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का | अतः सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( -जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है, नवोन्मेष है जो उन्नाकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है | ‘मानव की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (-उगना नित) ‘छंट गए हैं फूट के बादल, पतंगें एकता की उडाओ”(-आओ भी सूरज ) |

पुरुषार्थ युत मानव, शौर्य के प्रतीक सूर्य की भांति प्रत्येक स्थित में सम रहता है | ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता – ‘सूरज बबुआ’ में, सम्पाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गयी है ‘छुएँ सूरज’ रचना में | शीर्षक रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज’ ..सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का,ज्ञान का व प्रगति का प्रतीक है जिसमें चरैवेति-चरैवेति का सन्देश निहित है | यह सूर्य स्वयं कवि भी होसकता है | “
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है –
‘जड़ गँवा जड़ युवापीढी, काटती है झाड, प्रथा की चूनर न भाती, फैकती है फाड़ /
स्वभाषा भूल इंग्लिश से लड़ाती लाड |’

यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएं | कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है ---‘शहद चाहैं, पाल माखी |’ (-उठो पाखी )| देश में भिन्न भिन्न नीतियों की राजनीति पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है..’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’ | ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार पर प्रहार है | 

अंतरिक्ष पर तो मानव जारहा है परन्तु क्या वह पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल छू / भू के मंगल का क्या होगा |’ ’सिंधी गीत ‘सुन्दरिये मुंदरिये ’...बुन्देली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है |

प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण से चिंतित कवि कह उठता है –
‘कर पूजा पाखण्ड हम / कचरा देते डाल |..मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल |’

‘जब लौं आग’ में कवि उत्तिष्ठ जागृत का सन्देश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है-
‘मोड़ तोड़ हम फसल उगा रये/ लूट रहे व्यौपार |जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अन्धेरा | 

धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण | सलिल जी कहते हैं हैं---‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है /सूर्य ग्रहण खग्रास है |’ (-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच..तुम बन्दूक चलाओ तो..मैं लडूंगा ..आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं| छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर / मामला सुलझाए समाजवादी’ |
पुरखों पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो पाया है, अतः सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों , पितृजनों के एवं उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में –
‘काया माया छाया धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में बोले / धन यश नहीं सृजन तब पथ हो |’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है | नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है –
‘बनी अग्रजा या अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण ) | मिली दिहाड़ी रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा उत्कीर्णित है |

‘लेटा हूँ ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं का वर्णन है | इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है | ‘राम बचाए‘ में जन मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है –‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएं ‘हाथ में मोबाइल’ में स्पष्ट की गयी हैं|

‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत के मूल दोष भाव-सम्प्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने हेतु, कुछ होरहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है—‘दिशा न दर्शन’ रचना में ...
‘क्यों आये हैं / क्या करना है |..ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’

राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं | वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी, कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है ....
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग तभी होपायेगा धरती पर आबाद |’

सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता, समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गयी है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न हो जाए-
‘पर्वत गरजे, सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारे |’ 

इस प्रकार कृति का भावपक्ष सबल है | कलापक्ष की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही हैं | कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं –‘अगीत-गीत’ हैं| वस्तुतः इस कृति को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए | सलिल जी काव्य में इन सब छंदों-विभेदों के द्वन्द नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं, जैसा उन्होंने स्वयम कहा है- ‘कथन’ रचना में --
‘गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचाने |’
‘छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता |’
‘विरामों से पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी |’

सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं | साहित्य, छंद आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रतुत किया गया है| विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों –दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्ह छंद, लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर कार्य है | वस्तुतः ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट सन्देश वाले तोड़ मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं | सोरठा पर आधारित एक गीत देखें-
‘आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता |
करता नहीं ख़याल, नयन कौन सा फड़कता ||’

कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध खड़ीबोली हिन्दी है | विषय, स्थान व आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुन्देली का भी प्रयोग किया गया है- यथा ‘मिलती कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ |’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें—
‘ख़त्म करना अदावत है / बदल देना रवायत है /ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है |’

अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है | वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है | कथ्य-शैली मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है | एक व्यंजना देखिये –‘अर्पित शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन |’ एक लक्षणा का भाव देखें –
‘राधा हो या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य कल्पना सुन्दर |’

विविध अलंकारों की छटा सर्वत्र विकिरित है –‘अनहद अक्षय अजर अमर है /अमित अभय अविजित अविनाशी |’ में अनुप्रास का सौन्दर्य है | ‘प्रथा की चूनर न भाती ..’ व उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका |’ में उपमा दर्शनीय है | ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र..’ में रूपक की छटा है तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है | उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का प्रयोग है | ‘कलश नहीं आधार बनें हम..’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी सूर’ व ‘पौवारह’ कहावतों के उदाहरण हैं | ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी/ दौड़ा गिरा उठाया तत्क्षण ‘.. में चित्रमय विम्ब-विधान का सौन्दर्य दृष्टिगत है | 

पुस्तक आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव प्रयोग हैं | अतः वस्तुपरक व शिल्प सौन्दर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है संक्रांति का’ एक सफल कृति है | इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी बधाई के पात्र हैं |

. ----डा श्याम गुप्त
लखनऊ . दि.११.१०.२०१६ 
विजय दशमी सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना , लखनऊ-२२६०१२.. मो.९४१५१५६४६४

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

doha

दोहा सलिला
*
जब-जब अमृत मिलेगा, सलिल करेगा पान
अरुण-रश्मियों से मिले ऊर्जा, हो गुणवान
*
हरि की सीमा है नहीं, हरि के सीमा साथ
गीत-ग़ज़ल सुनकर 'सलिल', आभारी नत माथ
*
कांता-सम्मति मानिए, तभी रहेगी खैर
जल में रहकर कीजिए, नहीं मगर से बैर
*
व्यग्र न पाया व्यग्र को, शांत धीर-गंभीर
हिंदी सेवा में मगन, गढ़ें गीत-प्राचीर
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
जीवन मूल्य खरे-खरे, पालें रखकर प्रीति
डॉक्टर निकट न जाइये, यही उचित है रीति
*
कलाकार की कल्पना, जब होती साकार
एक नयी ही सृष्टि तब, लेती है आकार
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
ज्वाला से बचकर रहें, सब कुछ बारे आग
ज्वाला बिन कैसे बुझे, कहें पेट की आग
*
सभी नाम उसके'सलिल', जिसका कहीं न नाम
एक कहे कर काम तू, अन्य कहे तज काम
*
सैयां करवा चौथ कर, है सजनी की माँग
ना कह संकट कौन ले?, साधे सधे न स्वांग
*

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

hindigazal / muktika

​हिंदी ग़ज़ल - 

बहर --- २२-२२  २२-२२  २२२१  १२२२ 
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो' 
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है 
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो 
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो 
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता,  गाँठें निज मन की खोलो 
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको 
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो 
***

बुधवार, 12 अक्टूबर 2016

navgeet

नवगीत
*
मन-कुटिया में
दीप बालकर
कर ले उजियारा।
तनिक मुस्कुरा
मिट जाएगा
सारा तम कारा।।
*
ले कुम्हार के हाथों-निर्मित
चंद खिलौने आज।
निर्धन की भी धनतेरस हो
सध जाए सब काज।
माटी-मूरत,
खील-बतासे
है प्रसाद प्यारा।।
*
रूप चतुर्दशी उबटन मल, हो
जगमग-जगमग रूप।
प्रणय-भिखारी गृह-स्वामी हो
गृह-लछमी का भूप।
रमा रमा में
हो मन, गणपति
का कर जयकारा।।
*
स्वेद-बिंदु से अवगाहन कर
श्रम-सरसिज देकर।
राष्ट्र-लक्ष्मी का पूजन कर
कर में कर लेकर।
निर्माणों की
झालर देखे
विस्मित जग सारा।।
*
अन्नकूट, गोवर्धन पूजन
भाई दूज न भूल।
बैरी समझ कूट मूसल से
पैने-चुभते शूल।
आत्म दीप ले
बाल, तभी तो
होगी पौ बारा।।
*

hindi vandana

हिंदी वंदना 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
भाषा सहोदरी होती है हर प्राणी की 
अक्षर-शब्द बसी छवि शारद कल्याणी की 
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम 
जो बोले वह लिखें-पढ़ें विधि जगवाणी की 
संस्कृत-पुत्री को अपना गलहार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
अवधी, असमी, कन्नड़, गढ़वाली, गुजराती 
बुन्देली, बांगला, मराठी, बृज मुस्काती 
छतीसगढ़ी, तेलुगू, भोजपुरी, मलयालम 
तमिल, डोगरी, राजस्थानी, उर्दू भाती 
उड़िया, सिंधी, पंजाबी गलहार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़   
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़ 
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर 
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़ 
देश, विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
**** 

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

muktak

मुक्तक
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।। 
सूपनखा सें चाल-चलन कर 
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*

लाजवाब आप हो गुलाब हुए
स्नेह की अनपढ़ी किताब हुए 
हमको उत्तर नहीं सूझा जब भी 
आपके प्रश्न ही जवाब हुए

(आप = स्वयं, आत्मा सो परमात्मा = ईश्वर)
*
हाय रे! हुस्न रुआंसा क्यों है? 
ख्वाब कोई हुआ बासा क्यों है?
हास्य-जिंदादिली उपहार समझ 
दूर श्वासा से हुलासा क्यों है?

*
प्रीत की रीत सरस गीत हुई
मीत सँग श्वास भी संगीत हुई
आस ने प्यास को बुझने न दिया
बिन कहे खूब बातचीत हुई
*
क्या कहूँ, किस तरह कहूँ बोलो?
नित नई कल्पना का रस घोलो
रोक देना न कलम प्रभु! मेरी
छंद ही श्वास-श्वास में घोलो
*
छंद समझे बिना कहे जाते
ज्यों लहर-साथ हम बहे जाते
बुद्धि का जब अधिक प्रयोग किया
यूं लगा घाट पर रहे जाते
*
गेयता हो, न हो भाव रहे
रस रहे, बिम्ब रहे, चाव रहे
बात ही बात में कुछ बात बने
बीच पानी में 'सलिल' नाव रहे
*
छंद आते नहीं मगर लिखता
देखने योग्य नहीं, पर दिखता
कैसा बेढब है बजारी मौसम
कम अमृत पर अधिक गरल बिकता
*
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
*
जीवन की आपाधापी ही है सरगम-संगीत 
रास-लास परिहास इसी में मन से मन की प्रीत 
जब जी चाहे चाहों-बाँहों का आश्रय गह लो 
आँख मिचौली खेल समय सँग, हँसकर पा लो जीत
*

छंद-छंद में बसे हैं, नटखट आनंदकंद
भाव बिम्ब रस के कसे कितने-कैसे फन्द
सुलझा-समझाते नहीं, कहते हैं खुद बूझ
तब ही सीखेगा 'सलिल' विकसित होगी सूझ
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
* ·
कहाँ और कैसे हो कुछ बतलाओ तो
किसी सवेरे आ कुण्डी खटकाओ तो
बहुत दिनों से नहीं ठहाके लगा सका
बहुत जल चुका थोड़ा खून बढ़ाओ तो
*
हाँ कह दूँ तो पत्नी पीटे, झूठ अगर ना बोलूँ
करूँ वंदना प्रेम आपसे है रहस्य क्यों खोलूँ ?
रोना है सौभाग्य हमारा, सब तनाव मिट जाता
क्यों न हास्य कर प्रेम-तराजू पर मैं खुद को तोलूँ
*

रचनामृत का पान किया है मनुआ हुलस गया 
गीत, गज़ल, कविता, छंदों से जियरा पुलक गया 
समाचार, लघुकथा, समीक्षा चटनी, मीठा, पान 
शब्द-भोज से तृप्त आत्मा-पंछी कुहुक गया 
*

मुक्तक एक-रचनाकार दो 
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें 
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ 
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें 
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर

karyashala

कार्य शाला- १२ 
प्रश्न-उत्तर 
आप अपने उत्तर समान मात्रा-भार और तुक की पंक्तियों में दें। 
*
जो न लिखते हैं,
न पढ़ते हैं,
वे क्या करते हैं ? - अर्पित अनाम
*
जो न लिखते हैं,
न पढ़ते हैं
वे संसद में बैठकर
देश गढ़ते हैं। -संजीव
*

drushya kavya- teer alankar

कार्य शाला ९ 
अभिनव प्रयोग 
दृश्य काव्य- 
तीर अलंकार 
*
मैं
बच्चा,
बचपन
से दूर हूँ।
मत समझो
बेबस-मजबूर हूँ।
दुनिया बदल सकता
मेहनत से अपनी।
कहूँगा समय से
कल- देख ले!
मैं भी तो
मशहूर
हूँ।
*

karyashala

कार्यशाला १० 
पैरोडी
नीचे एक चित्रपटीय गीत है। इसका आनंद लें। चाहें तो इसकी पैरोडी बनाइये। 
१. हर मात्रा गिनिये, तुक मिलान पर ध्यान दें। मात्राओं में लघु-गुरु का क्रम देखें। २. शब्दों को आगे-पीछे करिये, इससे लघु-गुरु का क्रम बदलेगा। 
३. ध्यान से देखें- क्या शब्द बदलने का लय पर कोई प्रभाव पड़ता है? 
४. इसमें कौन-कौन से अलंकार हैं? पहचानिये। 
५. गलतियाँ खोजिये।
उत्तर टिप्पणी में अंकित करें।
*
गीत-
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा
कहा दो दिलों ने, के मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में
के हम खो गये, प्यार की रागनी में
ये बाहों में बाहें, ये बहकी निगाहें
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो
करे कोई दिल आरजू और क्या
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे
रहे सांस जब तक ये बंधन ना टूटे
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा
-------- फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
***
पैरोडी 
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३० 
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१ 
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२ 
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २० 
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१ 
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८ 

अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२ 
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २० 
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१ 
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २० 
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१ 
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २० 
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१ 
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७ 
*****

karyashala- mukatak

कार्यशाला १६ 
प्रश्नोत्तरी मुक्तक-
माँ की मूरत सजीं देख भी आइये। 
कर प्रसादी ग्रहण पुण्य भी पाइये।। 
मन में झाँकें विराजी हैं माता यहीं 
मूँद लीजै नयन, क्यों कहीं जाइये?
*
इसे पढ़िए, समझिये और प्रश्नोत्तरी मुक्तक रचिए। कव्वाली में सवाल-जवाब की परंपरा रही है। याद करें सुपर हिट कव्वाली 'इशारों को अगर समझो राज़ को राज़ रहने दो'
*** 
दूर कर वो पूछते हैं आ रहे? 
फेरकर मुँह जा रहे पर भा रहे 
आँख दिखलाकर भले धमका रहे
गीत मेरे मन ही मन में गा रहे 
*
ज्योति तिमिर की जब कुण्डी खटकाती है 
तब निशांत हो, उषा सुनहरी आती है 
गौरैया-स्वर में कलरव कर हँसती है 
सलिल-धार में रूप अरूप दिखाती है 
*
आस माता, पिता श्वास को जानिए
साथ दोनों रहे आप यदि ठानिए 
रास होती रहे, हास होता रहे -
ज़िन्दगी का मजा रूठिए-मानिए
***