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रविवार, 13 मार्च 2016

laghukatha

लघुकथा 
राहत की सांस 
*
लेख वार्ता (चैट) पर बार-बार रचनाओं की प्रशंसा के बाद कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं? घर में कौन-कौन हैं? कविता कैसे करते हैं? जैसे प्रश्न किये गये। उसने सहज शालीनतापूर्वक उत्तर दे दिए। जब उसे स्वस्थ्य और सुन्दर कहते हुए पूछा गया कि वह एकांत में समय कैसे बिताता है?, उसके शौक क्या है ? तो वह चौंका और कुछ रुखाई के साथ उत्तर दिया कि उससे केवल साहित्य संबंध में चर्चा की जाए, अन्य विषयों में कोई रूचि नहीं है।  वह स्तब्ध रह गया यह देखकर कि विपन्नता, समाज के अत्याचारों से पीड़ित, पुरुषों को कोसने, स्वावलंबन और स्त्री अधिकारों की दुहाई देनेवाली ने अपने निर्वस्त्र चित्र भेजते हुए पूछा कि वह प्रति रात्रि कितनी राशि दे सकता है?  

क्रोध, क्षोभ और अपमान का अनुभव करते हुए उसने फटकार लगायी कि विवाहित और बच्चों की माँ होते हुए उसका यह आचरण कैसे उचित है? यदि अर्थाभाव है तो उसे विधि सम्मत व्यवसाय कर अतिरिक्त धनार्जन करना चाहिए। इस तरह समाज को प्रदूषित करने का उसके बच्चों पर क्या असर होगा? 

​​उत्तर मिला कि संपन्न वर्ग यह सब करता है तो फैशन कहा जाता है, गरीब को सब उपदेश देते हैं, सहायता नहीं करते। देह व्यवसाय को मान्यता देनेवाले देशों के उदाहरण के साथ उस को बुर्जुआ, घिसी-पिटी दकियानूसी घटिया सोचवाला, समाज की प्रगति में बाधक कहते हुए समय के साथ बदलने की सीख दी गयी। स्त्री का अपनी देह पर पूरा अधिकार है। इससे रोकनेवाली पुरुषप्रधान मानसिकता समाप्त कर स्त्री सशक्तिकरण समय की माँग है। 

उसने हार मानते हुए फेसबुक प्रबंधन को रिपोर्ट कर वह लेखा बंद कराकर राहत की सांस ली।
***

laghukatha

लघुकथा- 
कुत्ते की पूँछ
*
विश्वविद्यालय में देश के संविधान का मखौल बनाने के बाद, न्यायालय में खुद को निर्दोष बताकर, करतूतों के लिये पश्चाताप व्यक्त करना और विश्वविद्यालय में सेना पर लांछन लगाकर क्या बताना चाहता है छात्र संघ अध्यक्ष? मित्र ने पूछा।
'यही कि कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं होती' मैंने कहा।

navgeet

एक रचना
कनैया नई सुदरो
*
नई सुदरो, बब्बा नई सुदरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
कालिज मा जा खें
नें खोलें किताबें
भासन दें, गुंडों सें
ऊधम कराबें
अधनंगी मोंड़िन सँग
फोटू खिंचाबे
भारत मैया कीं
नाक कटाबे
फरज निभाबें मा
बा पिछरो 
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
दुसमन की जै-जै के
नारे लगाए
भारत की सैना पे
उँगरी उठाए 
पत्तल में खा-खा खें 
छिदरा गिनाए
थूके खों चाटे, नें
तनकऊ लजाए
सूकर है मैला में
जाय सपरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*

शनिवार, 12 मार्च 2016

navgeet

नवगीत:
सरहद
*
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार
गया मैं लेने।
*
उठा हुआ सर
हद के पार
चला आया तब
अनजाने का
हाथ थाम कर।
मैं बहुतों के
साथ गया था
तुम आईं थीं
निपट अकेली।
किन्तु अकेली
कभी नहीं थीं,
सँग आईं
बचपन-यौवन की
यादें अनगिन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, पहुँच गया
मैं खुद को देने।
*
था दहेज भी
मैके की
शुभ परम्पराओं
शिक्षा, सद्गुण,
संस्कार का।
ले पतवारें
अपनेपन की
नाव हमें थी
मिलकर खेनी।
मतभेदों की
खाई, अंतरों के
पर्वत लँघ
मधुर मिलन के
सपने बुन-बुन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, संग हुए हम
अंतर खोने।
*
खुद को खोकर
खुद को पाकर
कही कहानी
मन से मन ने,
नित मन ही मन।
खन-खन कंगन
रुनझुन पायल
केश मोगरा
लटें चमेली।
शंख-प्रार्थना
दीप्ति-आरती
सांध्य-वंदना ,
भुवन भारती
हँसी कीर्ति बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, मिली राजश्री
सार्थक होने।
*
भवसागर की
बाधाओं को
मिल-जुलकर
था हमने झेला 
धैर्य धारकर।
सावन-फागुन
खुशियाँ लाये
सोहर गूँजे
बजी ढोलकी।
किलकारी
पट्टी पूजन कर,
धरा नापने
नभ को छूने
बढ़ी कदम बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, अँगना खेले
मूर्त खिलौने।
*
देख आँख पर
चश्मे की
मोहिनी हँसे हम,
धवल केश की
आभा देखें।
नव पीढ़ी
दौड़े, हम थकते
शांति अंजुला
हुई सहेली।
अन्नपूर्णा
कम साधन से
अधिक लक्ष्य पा
अर्थशास्त्र को
करतीं सार्थक।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सपने देखे  
संग सलोने।
***

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

tribhangi chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा २० :
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी तथा बरवैछंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए त्रिभंगी से.
तीन बार हो भंग त्रिभंगी, तीन भंगिमा दर्शाये
*
त्रिभंगी ३२ मात्राओं का छंद है जिसके हर पद की गति तीन बार भंग होकर चार चरणों (भागों) में विभाजित हो जाती है। प्राकृत पैन्गलम के अनुसार:
पढमं दह रहणं, अट्ठ विरहणं, पुणु वसु रहणं, रस रहणं।
अन्ते गुरु सोहइ, महिअल मोहइ, सिद्ध सराहइ, वर तरुणं।
जइ पलइ पओहर, किमइ मणोहर, हरइ कलेवर, तासु कई।
तिब्भन्गी छंदं, सुक्खाणंदं, भणइ फणिन्दो, विमल मई।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
संकेत : प्रथम यति १० मात्रा पर, दूसरी ८ मात्रा पर, तीसरी ८ मात्रा पर तथा चौथी ६ मात्रा पर हो। हर पदांत में गुरु हो तथा जगण (ISI लघु गुरु लघु ) कहीं न हो।
केशवदास की छंद माला में वर्णित लक्षण:
विरमहु दस पर, आठ पर, वसु पर, पुनि रस रेख।
करहु त्रिभंगी छंद कहँ, जगन हीन इहि वेष।।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
भानुकवि के छंद-प्रभाकर के अनुसार:
दस बसु बसु संगी, जन रसरंगी, छंद त्रिभंगी, गंत भलो।
सब संत सुजाना, जाहि बखाना, सोइ पुराना, पन्थ चलो।
मोहन बनवारी, गिरवरधारी, कुञ्जबिहारी, पग परिये।
सब घट घट वासी मंगल रासी, रासविलासी उर धरिये।
(संकेत: बसु = ८, जन = जगण नहीं, गंत = गुरु से अंत)
सुर काज सँवारन, अधम उघारन, दैत्य विदारन, टेक धरे।
प्रगटे गोकुल में, हरि छिन छिन में, नन्द हिये में, मोद भरे।
त्रिभंगी का मात्रिक सूत्र निम्नलिखित है
"बत्तिस कल संगी, बने त्रिभंगी, दश-अष्ट अष्ट षट गा-अन्ता"
लय सूत्र: धिन ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना।
नाचत जसुदा को, लखिमनि छाको, तजत न ताको, एक छिना।
उक्त में आभ्यंतर यतियों पर अन्त्यानुप्रास इंगित नहीं है किन्तु जैन कवि राजमल्ल ने ८ चौकल, अंत गुरु, १०-८-८-६ पर विरति, चरण में ३ यमक (तुक) तथा जगण निषेध इंगित कर पूर्ण परिभाषा दी है।
गुजराती छंद शास्त्री दलपत शास्त्री कृत दलपत पिंगल में १०-८-८-६ पर यति, अंत में गुरु, तथा यति पर तुक (जति पर अनुप्रासा, धरिए खासा) का निर्देश दिया है।
सारतः: त्रिभंगी छंद के लक्षण निम्न हैं:
१. त्रिभंगी ३२ मात्राओं का (मात्रिक) छंद है।
२. त्रिभंगी समपाद छंद है।
३. त्रिभंगी के हर चरणान्त (चौथे चरण के अंत) में गुरु आवश्यक है। इसे २ लघु से बदलना नहीं चाहिए।
४. त्रिभंगी के प्रत्येक चरण में १०-८-६-६ पर यति (विराम) आवश्यक है। मात्रा बाँट ८ चौकल अर्थात ८ बार चार-चार मात्रा के शब्द प्रावधानित हैं जिन्हें २+४+४, ४+४, ४+४, ४+२ के अनुसार विभाजित किया जाता है। इस तरह २ + (७x ४) + २ = ३२ मात्राएँ हर एक पंक्ति में होती है।
५. त्रिभंगी के चौकल ७ मानें या ८ जगण का प्रयोग सभी में वर्जित है।
६. त्रिभंगी के हर पद में पहले दो चरणों के अंत में समान तुक हो किन्तु यह बंधन विविध पदों पर नहीं है।
७. त्रिभंगी के तीसरे चरण के अंत में लघु या गुरु कोई भी मात्रा हो सकती है किन्तु कुशल कवियों ने सभी पदों के तीसरे चरण की मात्रा एक सी रखी है।
८. त्रिभंगी के किसी भी मात्रिक गण में विषमकला नहीं है। सम कला के मात्रिक गण होने से मात्रिक मैत्री का नियम पालनीय है।
९. त्रिभंगी के प्रथम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। इसी तरह अंतिम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। चारों पदों के अंत में समान तुक होने या न होने का उल्लेख कहीं नहीं मिला।
उदाहरण:
१. महाकवि तुलसीदास रचित निम्न पंक्तियों में तीसरे चरण की ८ मात्राएँ अगले शब्द के प्रथम अक्षर पर पूर्ण होती हैं, यह आदर्श स्थिति नहीं है, किन्तु मान्य है।
धीरज मन कीन्हा, प्रभु मन चीन्हा, रघुपति कृपा भगति पाई।
पदकमल परागा, रस अनुरागा, मम मन मधुप करै पाना।
सोई पद पंकज, जेहि पूजत अज, मम सिर धरेउ कृपाल हरी।
जो अति मन भावा, सो बरु पावा, गै पतिलोक अनन्द भरी।
२. तुलसी की ही निम्न पंक्तियों में हर पद का हर चरण आपने में पूर्ण है।
परसत पद पावन, सोक नसावन, प्रगट भई तप, पुंज सही।
देखत रघुनायक, जन सुख दायक, सनमुख हुइ कर, जोरि रही।
अति प्रेम अधीरा, पुलक सरीरा, मुख नहिं आवै, वचन कही।
अतिशय बड़भागी, चरनन लागी, जुगल नयन जल, धार बही।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'प' तथा 'र' लघु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'वै' गुरु तथा 'ल' लघु हैं।
३.महाकवि केशवदास की राम चन्द्रिका से एक त्रिभंगी छंद का आनंद लें:
सम सब घर सोभैं, मुनिमन लोभैं, रिपुगण छोभैं, देखि सबै।
बहु दुंदुभि बाजैं, जनु घन गाजैं, दिग्गज लाजैं, सुनत जबैं।
जहँ तहँ श्रुति पढ़हीं, बिघन न बढ़हीं, जै जस मढ़हीं, सकल दिसा।
सबही सब विधि छम, बसत यथाक्रम, देव पुरी सम, दिवस निसा।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'भैं' तथा 'जैं' गुरु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'हीं' गुरु तथा 'म' लघु हैं।
४. श्री गंगाप्रसाद बरसैंया कृत छंद क्षीरधि से तुलसी रचित त्रिभंगी छंद उद्धृत है:
रसराज रसायन, तुलसी गायन, श्री रामायण, मंजु लसी।
शारद शुचि सेवक, हंस बने बक, जन कर मन हुलसी हुलसी।
रघुवर रस सागर, भर लघु गागर, पाप सनी मति, गइ धुल सी।
कुंजी रामायण, के पारायण, से गइ मुक्ति राह खुल सी।
टीप: चौथे पद में तीसरे-चौथे चरण की मात्राएँ १४ हैं किन्तु उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता चूंकि 'राह' को 'र'+'आह' नहीं लिखा जा सकता। यह आदर्श स्थिति नहीं है। इससे बचा जाना चाहिए। इसी तरह 'गई' को 'गइ' लिखना अवधी में सही है किन्तु हिंदी में दोष माना जाएगा।
***
त्रिभंगी छंद के कुछ अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं
०१. री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।।
मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं।
भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं।। --रचनाकार : ज्ञात नहीं
संजीव 'सलिल'
०२. रस-सागर पाकर, कवि ने आकर, अंजलि भर रस-पान किया।
ज्यों-ज्यों रस पाया, मन भरमाया, तन हर्षाया, मस्त हिया।।
कविता सविता सी, ले नवता सी, प्रगटी जैसे जला दिया।
सारस्वत पूजा, करे न दूजा, करे 'सलिल' ज्यों अमिय पिया।।
०३. ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले।
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले।।
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले।
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले।।
०४. ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी।
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी।।
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी।
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी।।
०५. ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन।
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।।
०६. ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा।
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा।।
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने।
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने।।
शम्भुदान चारण
०७. साजै मन सूरा, निरगुन नूरा, जोग जरूरा, भरपूरा।
दीसे नहि दूरा, हरी हजूरा, परख्या पूरा, घट मूरा।।
जो मिले मजूरा, एष्ट सबूरा, दुःख हो दूरा, मोजीशा।
आतम तत आशा, जोग जुलासा, श्वांस ऊसासा, सुखवासा।।
डॉ. प्राची.सिंह
०८.मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे।
मन बनकर रसधर, पंख प्रखर धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे।।
ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये।
जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये।।
स्व. सत्यनारायण शर्मा 'कमल'
०९ छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे।
छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे।।
दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अतिशय सोहे।
पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनि मन को मोहे।।
१०. उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल चुप रह लख रे
रति सद्यस्नाता कंचन गाता रूप लजाता दृश्य अरे
मुद सस्मित निरखत रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा छिप रे
हँस गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित मौन ठगा कित रे
११. नम श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे।
नत नयन खुले से निमिष-तजे से अधर मंद मुस्कान भरे।।
उभरे वक्षस्थल जल क्रीडास्थल लहर उछल मन प्राण हरे।
सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे।।
१२. था तन रोमांचित मन आलोड़ित सिकता-कण शत-शत बिखरे।
सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति भी इस पल रे।।
उतरीं जल-परियाँ सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी।
नव दीप-शिखा सी नव-कलिका सी इठलाती हिम-कन्या सी।।
संजीव 'सलिल'
१३. हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे।
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे।।
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे।
भारत माँ पावन जन मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे।।
१४. अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे।
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे।।
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है।
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है।।
१५. श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें।
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें।।
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें।
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें न चुकें।।
१६. नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा।
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'।।
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें।।
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें।।
जनश्रुति / क्षेपक- रामचरितमानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छंद प्रयुक्त हुए हैं. कहा जाता है कि इसका कारण यह है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया था, अतः गोस्वामी जी की वाणी से सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया.
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गुरुवार, 10 मार्च 2016

navgeet

नवगीत:
तुम्हीं से
*
जीवन का हर रंग
तुम्हीं से
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
*
तुम हरियाली तीज हो
केसर हरसिंगार
तुम ही करवाचौथ हो
रंगपंचमी-धार
तुम ही हरछट हो प्रिया
स्वीकारो भुज-हार
जीवन में सुख-संग
तुम्हीं से 
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
*
तुम सातें संतान की
तुम अष्टमी अहोई
महा-अष्टमी हो तुम्हीं
जन्माष्टमी गोई
हो नौमी श्री राम की
विजयादशमी सोई
ठंडाई में भंग
तुम्हीं से
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
*
धनतेरस पर हँसी तुम
रूप चतुर्दशी पूज
दीप अमावस पर जला  
गोवर्धन हो खूब
भाई-बहिन दूज पर
मिलें स्नेह में डूब
गुंजित घंटी-शंख
तुम्हीं से
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
***

चन्द माहिया : क़िस्त 30

चन्द माहिया : क़िस्त 30

:1:
तुम से जो जुड़ना है
इस का मतलब तो
अपने से बिछुड़ना है

:2:
आने को तो आ जाऊँ
रोक रहा कोई
मैं कैसे ठुकराऊँ

:3:
इक लफ़्ज़ मुहब्बत है
जिसकी ख़ातिर में
दुनिया से अदावत है

:4;
दीदार हुआ जब से
जो भी रहा बाक़ी
ईमान गया तब से

:5:
जब तू ही मिरे दिल में
ढूँढ रहा किस को
मैं महफ़िल महफ़िल में

आनन्द.पाठक
09413395592

बुधवार, 9 मार्च 2016

samiksha

पुस्तक सलिला:
कोई रोता है मेरे भीतर : तब कहता कविता व्याकुल होकर 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[पुस्तक विवरण- कोई रोता है मेरे भीतर, कविता संग्रह, आलोक वर्मा,  वर्ष २०१५, ISBN ९७८-९३-८५९४२-०७-५ आकार डिमाई, आवरण, बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १२०, मूल्य १००/-, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७ सेक्टर ९, पथ ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क ७१ विवेकानंद नगर, रायपुर ४९२००१, ९८२६६ ७४६१४, lokdhvani@gmail.com]
*
कविता और ज़िन्दगी का नाता सूरज और धूप का सा है सूरज ऊगे या डूबे, धूप साथ होती है इसी तरह मनुष्य का मन सुख अनुभव करे या दुख अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से हो होती है मनुष्येतर पशु-पक्षी भी अपनी अनुभूतियों को ध्वनि के माध्यम से व्यक्त करते हैं ऐसी ही एक ध्वनि आदिकवि वाल्मीकि की प्रथम काव्याभिव्यक्ति का कारण बनी कहा जाता हैं ग़ज़ल की उत्पत्ति भी हिरणी के आर्तनाद से हुई आलोक जी के मन का क्रौंच पक्षी या हिरण जब-जब आदमी को त्रस्त होते देखता है, जब-जब विसंगतियों से दो-चार होता है, विडम्बनाओं को पुरअसर होते देखता तब-तब अपनी संवेदना को शब्द में ढाल कर प्रस्तुत कर देता है 

कोई रोता है मेरे भीतर ५८ वर्षीय कवि आलोक वर्मा की ६१ यथार्थपरक कविताओं का पठनीय संग्रह है इन कविताओं का वैशिष्ट्य परिवेश को मूर्तित कर पाना है पाठक जैसे-जैसे कविता पढ़ता जाता है उसके मानस में संबंधित व्यक्ति, परिस्थिति और परिवेश अंकित होता जाता है पाठक कवि की अभिव्यक्ति से जुड़ पाता है। 'लोग देखेंगे' शीर्षक कविता में कवि परोक्षत: इंगित करता है की वह कविता को कहाँ से ग्रहण करता है- 

शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास 
जब हम भाग रहे होंगे सड़कों पर / और लिखी नहीं जाएगी 
शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास 
जब हमारे हाथों में / दोस्त का हाथ होगा 
या हम अकेले / तेज बुखार में तप रहे होंगे / और लिखी नहीं जाएगी 

दैनंदिन जीवन की सामान्य सी प्रतीत होती परिस्थितियाँ, घटनाएँ और व्यक्ति ही आलोक जी की कविताओं का उत्स हैं इसलिए इन कविताओं में आम आदमी का जीवन स्पंदित होता है अनवर मियाँ, बस्तर २०१०, फुटपाथ पर, हम साधारण, यह इस पृथ्वी का नन्हा है आदि कविताओं में यह आदमी विविध स्थितियों से दो-चार होता पर अपनी आशा नहीं छोड़ता। यह आशा उसे मौत के मुँह में भी जिन्दा रहने, लड़ने और जितने का हौसला देती है। 'सब ठीक हो जायेगा' शीर्षक कविता आम भारतीय को शब्दित करती है -
सुदूर अबूझमाड़ का / अनपढ़ गरीब बूढ़ा 
बैठा अकेला महुआ के घने पेड़ के नीचे 
बुदबुदाता है धीरे-धीरे / सब ठीक हो जायेगा एक दिन 
यह आशा काम ढूंढने शहर के अँधेरे फुथपाथ पर भटके, अस्पताल में कराहे या झुग्गी में पिटे, कैसा भी भयावह समय हो कभी नहीं मरती। 

समाज में जो घटता है उस देखता-भोगता तो हर शख्स है पर हर शख्स कवि नहीं हो सकता। कवि होने के लिए आँख और कान होना मात्र पर्याप्त नहीं। उनका खुला होना जरूरी है- 
जिनके पास खुली आँखें हैं / और जो वाकई देखते हैं.... 
... जिनके पास कान हैं / और जो  वाकई सुनते हैं 
सिर्फ वे ही सुन सकते हैं / इस अथाह घुप्प अँधेरे में 
अनवरत उभरती-डूबती / यह रोने की आर्त पुकार।

'एक कप चाय' को हर आदमी जीता है पर कविता में ढाल नहीं पाता- 
अक्सर सुबह तुम नींद में डूबी होगी / और मैं बनाऊंगा चाय 
सुनते ही मेरी आवाज़ / उठोगी तुम मुस्कुराते हुए 
देखते ही चाय कहोगी / 'फिर बना दी चाय' 
करते कुछ बातें / हम लेंगे धीरे-धीरे / चाय की चुस्कियाँ 
घुला रहेगा प्रेम सदा / इस जीवन में इसी तरह 
दूध में शक्कर सा / और छिपा रहेगा 
फिर झलकेगा अनायास कभी भी 
धूमकेतु सा चमकते और मुझे जिलाते 
कि तुम्हें देखने मुस्कुराते / मैं बनाना चाहूँगा / ज़िंदगी भर यह चाय 
यूं देखे तो / कुछ भी नहीं है 
पर सोचें तो / बहुत कुछ है / यह एक कप चाय 

अनुभूति को पकड़ने और अभिव्यक्त करने की यह सादगी, सरलता, अकृत्रिमता और अपनापन आलोक जी की कविताओं की पहचान हैं इन्हें पढ़ना मात्र पर्याप्त नहीं है। इनमें डूबना पाठक को जिए क्षणों को जीना सिखाता है। जीकर भी न जिए गए क्षणों को उद्घाटित कर फिर जीने की लालसा उत्पन्न करती ये कवितायें संवेदनशील मनुष्य की प्रतीति करती है जो आज के अस्त-वस्त-संत्रस्त यांत्रिक-भौतिक युग की पहली जरूरत है
***
-समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 

mukatak

मुक्तक:
मुक्त देश, मुक्त पवन 
मुक्त धरा, मुक्त गगन
मुक्त बने मानव मन 
द्वेष- भाव करे दहन 
*
होली तो होली है, होनी को होना है
शंका-अरि बनना ही शंकर सम होना है
श्रद्धा-विश्वास ही गौरी सह गौरा है
चेत न मन, अब तुझको चेतन ही होना है
*
मुक्त कथ्य, भाव,बिम्ब,रस प्रतीक चुन ले रे!
शब्दों के धागे से कबिरा सम बुन ले रे!
अक्षर भी क्षर से ही व्यक्त सदा होता है
देना ही पाना है, 'सलिल' सत्य गुण ले रे!!
***

laghukatha

लघुकथा:
गरम आँसू
*
टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो. परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ. सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी. मोरी सगरी पूजा अकारत भई'
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है. तैं अपने मोंडा खों समझत है. मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई. भली भई, मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे.''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी को पाकर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
***
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

muktika

मुक्तिका:
*
कर्तव्यों की बात न करिए, नारी को अधिकार चाहिए 
वहम अहम् का हावी उस पर, आज न घर-परिवार चाहिए 
*
मेरी देह सिर्फ मेरी है, जब जिसको चाहूँ दिखलाऊँ
मर्यादा की बात न करना, अब मुझको बाज़ार चाहिए
*
आदि शक्ति-शारदा-रमा हूँ, शिक्षित खूब कमाती भी हूँ
नित्य नये साथी चुन सकती, बाँहें बन्दनवार चाहिए
*
बच्चे कर क्यों फिगर बिगाडूँ?, मार्किट में वैल्यू कम होती
गोद लिये आया पालेगी, पति ही जिम्मेदार चाहिए
*
घोषित एक अघोषित बाकी,सारे दिवस सिर्फ नारी के
सब कानून उसी के रक्षक, नर बस चौकीदार चाहिए
*
नर बिन रह सकती है दावा, नर चाकर है करे चाकरी
नाचे नाच अँगुलियों पर नित, वह पति औ' परिवार चाहिए
*
किसका बीज न पूछे कोई, फसल सिर्फ धरती की मानो
हो किसान तो पालो-पोसो, बस इतना स्वीकार चाहिए
*

रविवार, 6 मार्च 2016

navgeet

नवगीत-
आज़ादी 
*
भ्रामक आज़ादी का 
सन्निपात घातक है 
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*****

navgeet

नवगीत- 
रिश्ते 
*
जब-जब रिश्तों की बखिया उधड़ी 
तब-तब सुई स्नेह की लेकर 
रिश्ते तुरप दिए
*
कटी-फटी दिन की चादर में
किरण लगाती टाँके
हँस-मुस्काती क्यारी पुष्पा
सूरज सुषमा आँके
आशा की पुरवैया झाँके
सुमन सुगंधित लाके
जब-जब नातों की तबियत बिगड़ी
रब-नब आगे हाथ जोड़कर
नाते नये किये
*
तुड़ी-मुड़ी नम रात-रजाई
ओढ़ नहीं सो पाते
चंदा-तारे हिरा गये लड़
मेघ खोज थक जाते
नींद-निशा से दूर परिंदे
उड़ दिनेश ले आते
छब-ढब अजब नहीं अगड़ी-पिछड़ी
चुप मन वीणा बजा-बजाकर
भेंटे सुगढ़ हिये
*

navgeet

नवगीत -
आजाद हम
*
हमें न रोको, तनिक न टोंको 
प्रगतिशील आज़ाद हम 
नहीं शत्रु की कोई जरूरत 
करें देश बर्बाद हम 
*
हम आज़ाद ख़याल बहुत हैं
ध्वजा विदेश प्यारी है
कोसें निज ध्वज-संविधान को
मन भाती गद्दारी है
जनगण जिनको चुनें , उन्हें
कैसे देखें आबाद हम?
*
जिस पत्तल में कहते हैं हम
उसमें करते छेद हैं
उद्घाटित कर दें दुश्मन पर
कमजोरी के भेद हैं
छुरा पीठ में भोंक करेंगे
'न्याय मिले' फरियाद हम
*
हमें भरोसा तनिक नहीं
फिर भी संसद में बैठेंगे
काल कर निज चेहरे को हम
शिक्षालय में पैठेंगे
दोष व्यवस्था पर धर देंगे
जब तोड़ें मर्याद हम
*
आतंकी हमको हैं प्यारे
जला रहे घर ले अंगारे
आरक्षण चिरकाल चाहिए
चला योग्यता पर दोधारे
भारत माँ को रुला-रुला
आँसू का लेते स्वाद हम
***

jangeet

जनगीत -
जय राम जी

बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!

लोकतंत्र का अजब तकाज़ा 
दुनिया देखे ठठा तमाशा
अपना हाथ
गाल भी अपना
जमकर मारें खुदी तमाचा
आज़ादी कुछ भी कहने की?
हुए विधाता वाम जी!
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
जन का निर्णय पचा न पाते
संसद में बैठे गुर्राते
न्यायालय का
कहा न मानें
झूठे, प्रगतिशील कहलाते
'ख़ास' बुद्धिजीवी पथ भूले
इन्हें न कहना 'आम' जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
कहाँ मानते हैं बातों से
कहो, देवता जो लातों के?
जैसे प्रभु
वैसी हो पूजा
उत्तर दो सब आघातों के
अवसर एक न पाएं वे
जो करें देश बदनाम जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*

laghukatha




शनिवार, 5 मार्च 2016

एक ग़ज़ल : यूँ तो तेरी गली से ..



यूँ तो तेरी गली से , मैं बार  बार गुज़रा
लेकिन हूँ जब भी गुज़रा ,मैं सोगवार गुज़रा

तुमको यकीं न होगा ,गर दाग़-ए-दिल दिखाऊँ
राहे-ए-तलब में कितना ,गर्द-ओ-गुबार गुज़रा

आते नहीं हो अब तुम ,क्या हो गया है तुमको
क्या कह गया हूँ ऐसा ,जो नागवार  गुज़रा

दामन बचा बचा कर ,मेरे मकां से बच कर
राह-ए-वफ़ा से हट कर ,मेरा निगार  गुज़रा

मैं चाहता था कितना तुझको ख़बर न होगी
राह-ए-वफ़ा से तेरा  सजदागुज़ार  गुज़रा

सारे गुनाह मेरे  हैं साथ साथ चलते
दैर-ओ-हरम के आगे ,मैं शरमसार गुज़रा

रिश्तों की वो तिज़ारत करता नहीं था,’आनन’
मेरी तरह से वो भी था गुनहगार गुज़रा

-आनन्द पाठक-
09413395592

राह-ए-तलब = प्रेम के मार्ग में

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

lok kathayen

विशेष लेख-
लोककथा उद्भव और विकास 
लोक कथाएं क्या हैं?

लोककथाएँ मनुष्य जीवन के अनुभवों और विचारों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने के आख्यानात्मक संवाद, बोलचाल या कथ्य हैं, जो मौखिक या वाचिक परंपरा के माध्यम से विकसित हुए हैं। जैसे आदिवासियों की लोककथाएँ, प्रलय संबंधी लोक कथाएँ, खेती की लोक कथाएँ, पर्वों संबंधी लोक कथाएँ, व्यक्ति (देव,असुर,राजा, नायक) परक लोक कथाएँ।

कुछ लोककथाएँ चिरकाल तक कही-सुनी जाने के पश्चात पुस्तकाकार रूप में प्रचलित हुई। जैसे सिंहासन बत्तीसी, वेताल पच्चीसी, पंचतंत्र, दस्ताने अलिफ़ लैला, किस्सा हातिम ताई, अली बाबा चालीस चोर, सिंदबाद की कहानी आदि।

लोक कथाओं का उत्स ऋग्वेद में कथोपकथन के माध्यम से कहे गए "संवाद-सूक्त", ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषदों हैं किंतु इन सबसे पूर्व कोई कथा-कहानी थी ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पंचतंत्र की कई कथाएँ लोक-कथाओं के रूप में जनजीवन में प्रचलित हैं। जितनी कथाएँ लोकजीवन में मिलती हैं उतनी पुस्तकों भी नहीं मिलतीं। विष्णु शर्मा ने लोकजीवन में प्रचलित कुछ कथाओं को व्यवस्थित रूप से लिखकर पंचतंत्र रचा होगा। हितोपदेश, बृहदश्लोक संग्रह, बृहत्कथा मंजरी, कथा बेताल पंचविंशति आदि का मूल लोकजीवन है। अत्यधिक प्राचीन जातक कथाओं की संख्या ५५० के लगभग है किंतु लोककथाएँ असंख्य हैं। प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रंथ हैं। पैशाची में लिखित "बहुकहा" के बाद कथा सरित्सागर, बृहत्कथा आदि का विकास हुआ। उसकी कुछ कथाएँ संस्कृत में रूपांतरित हुई। अपभ्रंश के "पउम चरिअ" और "भवियत्त कहा"तथा लिखित रूप में वैदिक संवाद सूक्तों में कथाधारा निरंतर प्रवाहित है किंतु इन सबका योग भी लोकजीवन में प्रचलित कहानियों तक नहीं पहुँच सकता।

हिन्दी में लोककथाएँ-

मनुष्य चिरकाल से अमरत्व,सुख-समृद्धि तथा भोग है। सुख के दो प्रकार लौकिक व पारलौकिक हैं। भारतीय परंपरा लौकिक से पारलौकिक को श्रेष्ठ मानती है। "अंत भला तो सब भला" के अनुसार हमारी लोककथाएँ प्राय: सुखांत होती है। इस प्रभाव चलचित्रों (फिल्मों) तथा धारावाहिकों में भी देखा जा सकता है। इसलिए लोककथाओं के नायक व अन्य पात्र अनेक साहसिक एवं रोमांचकारी कारनामे कर सुख-सफलता पाते हैं। संस्कृत नाटकों का भी अंत संयोग में ही होता है। 

लोककथाओं का उद्देश्य-

लोककथाएँ मूलत: मांगल्य भाव तथा कल्याण कामना से कही-सुनीं गयीं। लोककथा कहनेवाले कथांत में मंगल वचन कहते हैं। जैसे - "जिस प्रकार उनके (कथानायक के) दिन फिरे वैसे ही सब श्रोताओं-भक्तों के दिन फिरें।" दैविक एवं प्राकृतिक प्रकोपों का भय दिखाकर श्रोताओं को धर्म तथा कर्तव्यपालन के पथ पर लाना भी लोककथाओं का लक्ष्य होता है। सारी सृष्टि उस समय एक धरातल पर उतर आती है जब सभी जीव-जंतुओं की भाषा एक हो जाती है। मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, धरती, आकाश, अग्नि, पानी, हवा, सूरज, चाँद, तारे आदि एक-दूसरे से बात करते हैं,एक दूसरे के दु:ख-सुख में सम्मिलित होते हैं।

लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ अंचलों की बात तो जाने दीजिए ये कथाएँ देशों और महाद्वीपों की सीमाएँ भी नहीं मानतीं। ये मानव जीवन के सभी पहलुओं से जुड़ती हैं। इधर लोककथा संग्रहों में बहुत ही थोड़ी कथाएँ एकत्र की जा सकी हैं। अपनी विशेषताओं के कारण श्रुति एवं स्मृति के आधार पर लोक कथाएँ युगों से प्रचलित तथा परिवर्तित होती रही हैं। लोककथाएँ मुख्य रूप से तीन शैलियों में कही जाती हैं। 

लोककथाओं का वर्गीकरण- 

(अ) शैली के आधार पर:

क. गद्य शैली- पूरी कथा सरल एवं आंचलिक बोली में गद्य में हो,  
ख. गद्य-पद्य मय कथाएँ - ये चंपू शैली में होती हैं। इनमें प्राय: संवेदनापूर्ण घटनाएँ पद्य में कही जाती हैं। 
ग. पद्य शैली - इस शैली की लोक कात्यायन पद्य (काव्य) में कही जाती हैं।
घ. संवाद शैली - संवादों में पद्य-गद्य के स्थान पर भाषिक प्रवाह होता है जो श्रोताओं को मोहता है, पर गेयता कम होती है। जैसे- जात रहे डाँड़े डाँड़े, / एक ठे पावा कौड़ी / ऊ कौड़ी गंगा के दिहा / गंगा वेचारी बालू दिहिनि / ऊ बालू मइँ भुँजवा के दिहा
/ भुँजवा बेचारा दाना दिहेसि - इत्यादि

कहानी कहनेवाला व्यक्ति कथा के प्रमुख पात्र (नायक) को पहले वाक्य में ही प्रस्तुत कर देता है; जैसे - "एक रहे राजा" या "एक रहा दानव" आदि। इस विशेषता के कारण लोककथाओं का श्रोता विशेष उलझन में नहीं पड़ता। लोकजीवन में कथा कहने के साथ ही उसे सुनने की शैली भी निर्धारित कर दी गई है। सुननेवालों में से कोई व्यक्ति, जब तक हुंकारी नहीं भरता तब तक कथा कहने वाले को आनंद ही नहीं आता। हुंकारी सुनने से कहनेवाला अँधेरे में भी समझता रहता है कि श्रोता कहानी को ध्यानपूर्वक सुन रहा है।

(आ) कथ्य (अंतर्वस्तु) के आधार पर

च. उपदेशात्मक/शिक्षात्मक लोककथाएँ - ऐसी कथाएँ प्राय: परोक्ष रूप से शिक्षा देती हैं। इनके माध्यम से गृहकलह एवं सामाजिक बुराइयों से बचने की प्रेरणा मिलती हैं। कहीं कर्कशा नारियों के कारण परिवार को कष्ट भोगना पड़ा है, कहीं विमाता या सौतों के षड्यंत्र हैं, कहीं मायावी स्त्रियाँ पर पुरुषों पर डोरे डालती या जादू-टोना करती हैं जिससे कथा के नायक तथा उससे संबंध रखनेवालों को विभिन्न संकटों का शिकार होना पड़ता है कहीं पुत्र को पिता की आज्ञा न मानने पर कष्ट उठान पड़ता है। ऐसी कथाएँ अंत में सुखद संयोग पर समाप्त होती हैं। कथा समाप्त होने तक पात्रों और मुख्य रूप से नायकों को इतनी भयानक घटनाओं में फँसा देखा जाता है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है। कुछ श्रोता कथा कहनेवाले तथा अन्य श्रोताओं की परवाह किये बिना खलनायक को कोसने लगते हैं।

(छ) सामाजिक लोककथाएँ - इनमें गृहकलह (सास-बहू एवं ननद-भावज, भाई-भाई के झगड़े), दुश्चरित्र और लंपट साधु-संतों के दुष्कर्म, अयोग्य राजा के कारण प्रजा को दुख, बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह, विजातीय व प्रेम विवाह, दहेज, ऊँच-नीच, छूआ-छूत, जाति प्रथा, भ्रष्टाचार, पर्यावरण प्रदूषण, भ्रष्टाचार, देश-द्रोह आदि की निंदा व् दुष्परिणाम इन कथाओं में कहे जाते हैं। सामाजिक कहानियों के दो उपवर्ग नायक प्रधान और नायिका प्रधान हैं।  बहुधा अतिशयोक्ति परक कथ्य इनकी विशेषता है। जैसे सच्चरित्र नारी जब तप्त तैल के कड़ाहे में हाथ डालकर अपने सतीत्व की परीक्षा देतो कड़ाहे का तप्त तेल शीतल होता है, पतिव्रता स्त्री सूर्य के रथ को रोक देती है या यमराज से अपने पति के प्राण वापिस ले आती है, उसके भय से भयानक दैत्य दानव, डाइनें भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि पास नहीं फटकते। इसी तरह चरित्रवान् नायक भी असंभव विकट परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं। इनका उद्देश्य समाज को सदाचरण का संदेश देना होता है।

(ज) धार्मिक लोककथाएँ - इनमें जप तप, व्रत-उपवास एवं उनसे प्राप्त उपलब्धियाँ बताईं जाती हैं। सुख-समृद्धि हेतु कही गयी इन लोककथाओं से उपदेश ग्रहण कर संबद्ध पर्वों के अवसरों पर स्त्रियाँ व्रत-पूजन आदि करती हैं। पति, पुत्र, भाइयों की कुशलता तथा संपत्ति प्राप्ति इनका लक्ष्य होता है। ऐसी लोककथाओं के दो उप वर्ग व्यक्तिपरक (देवी-देवता : गणेश, चित्रगुप्त, ब्रम्हा, सरस्वती, विष्णु, लक्ष्मी, शिव, पार्वती, कृष्ण, राधा आदि सतियों : "बहुरा" (बेहुला), जिउतिया या जीवित्पुत्रिका आदि नदियों : नर्मदा, गंगा, यमुना आदि पर्वतों : हिमालय, सतपुड़ा, विंध्याचल, अमरकंटक आदि) तथा तिथि परक (करवा चौथ, अहोईअष्टमी, गनगौर आदि) हैं।

(झ) संबंधपरक प्रेमप्रधान लोककथाएँ - ऐसी लोककथाएँ सबंधों (पति-पत्नि, माँ-बेटे, पिता-पुत्र, भाई-बहिन, देश-नागरिक, मित्र आदि) में प्रेम, शुचिता, स्थायित्व तथा उत्सर्ग रची जाती हैं। इनमें वर्णित प्रेम कर्तव्य एवं निष्ठा पर आधारित होता हैं। कुछ कथाओं में जन्म-जन्मात्तर का प्रेम पल्लवित होत है। सदावृज-सारंगा की कथा पूर्व जन्मों के प्रेम पर ही आधारित हैं। शीत वसंत की कहानी में विमाता का दुर्व्यवहार तथा भाई-भाई का प्रेम चरम सीमा पर है। कई कथाओं में कुलीन एवं पतिपरायण स्त्रियाँ कुपात्र तथा घृणित रोगों से ग्रस्त पतियों को अपनी सेवा, श्रद्धा और भक्ति के बल पर बचा लेती हैं।  कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से अगहन शुक्ल प्रतिपदा तक(पिड़िया) का व्रत कुमारी बालिकाओं द्वारा भाइयों की कुशलता हेतु किया जाता है। गोधन व्रत कथा भी कहते हैं। जीवित्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत पुत्र के जन्म व् दीर्घायु हेतु किया जाता है। किसी समय चील्ह तथा स्यारिन ने यह व्रत किया परंतु भूख की ज्वाला न सह सकने के कारण स्यारिन ने चुपके से खाद्य ग्रहण कर लियातो उसके सभी बच्चे मर गये जबकि व्रत पूर्ण करने वाली चील्ह के बच्चे दीर्घ जीवी हुए। इस पर्व के बाद पुत्र-प्राप्ति हो तो उसका नाम "जीउत" रखा जाता है। पौराणिक कतहनुसार जीमूतवाहन ने नार्गों की रक्षा के लिए अपनी देह का त्याग किया था। जिउतिया-कथा का उद्देश्य परोपकार व आत्मोत्सर्ग है। करवा चौथ कथा उस राजा-रानी की कहानी हैं जो दूसरों के बालकों से घृणा करते थे। इसीलिए उन्हें पुत्र नहीं हुआ। अंत में पश्चाताप तथा सूर्य की उपासना करने पर उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई।

(ट) मनोरंजन संबंधी लोककथाएँ - इनका मूल उद्देश्य श्रोताओं के दिल-बहलाव की सामग्री प्रस्तुत करना होता है। ये कथाएँ प्राय: छोटी हुआ करती हैं। पशु-पक्षियों (कुत्ता, बंदर, बिल्ली, गीदड़, नेवला, शेर, भालू, कौवा, चील, तोता, मैना आदि) पेड़-पौधों (नीम, बरगद, तुलसी, आँवला, सदासुहागन आदि) से संबंध रखनेवाली ये कहानियाँ बालकों का मनोरंजन करती हैं। इनमें वर्णित विषय गंभीर भी होते हैं किंतु प्राथमिकता हल्की-फुल्की बातों को दी जाती हैं। यथा- ढेले और पत्ते में मित्रता हुई। ढेले ने पत्ते से कहा, आँधी आने पर मैं तुम्हारे ऊपर बैठ जाऊँगा तो तुम उड़ोगे नहीं। पत्ते ने कहा पानी आने पर मैं तुम्हारे ऊपर हो जाऊँगा तो तुम गलोगे नहीं। संयोग की बात कि आँधी-पानी का आगमन साथ ही हुआ। पत्ता उड़ गया और ढेला गल गया। विभिन्न हास्य कथाएँ भी इसी प्रकार के अंतर्गत आती हैं।

(ठ) जातीय लोककथाएँ - ऐसी कथाएँ विविध जातियों, वर्णों, समूहों, वंशों (ब्राह्यणों, कायस्थों, वैश्यों, शूद्रों, आदिवासियों, अहीरों, धोबियों, नाइयों, मल्लाहों, चमारों, गोंडों, कोलों, भीलों, ढीमरों, किरातों, दुसाधों, रघुवंश, यादवकुल आदि) की उत्पत्ति, कुलदेवता के चयन, वरदान प्राप्ति से जुडी होती हैं।

(ड) अन्य लोककथाएँ - देशभक्ति, पर्यावरण संरक्षण, जीवन मूल्य, कृषि, नीति, इतिहास आदि विविध विषयों से सम्बंधित लोककथाएँ भी चिर काल से कही-सुनी जाती हैं। लोकगीत (कजरी, बम्बुलिया, फाग, रास, राई आदि) तथा लोक काव्य (आल्हा, बटोही आदि), नौटंकी लोक कथाओं के संरक्षण और प्रसार में सहायक हैं।
*****

navgeet

नवगीत -
याद 
*
याद आ रही 
याद पुरानी
*
फेरे साथ साथ ले हमने 
जीवन पथ पर कदम धरे हैं 
धूप-छाँव, सुख-दुःख पा हमको  
नेह नर्मदा नहा तरे हैं 
मैं-तुम हम हैं 
श्वास-आस सम
लेखनी-लिपि ने 
लिखी कहानी 
याद आ रही 
याद पुरानी
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े 
जीवन पथ पर दौड़े जुत रथ 
मिल लगाम थामे हाथों में 
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ 
अपनेपन की 
पुरवाई सँग  
पछुआ आयी 
हुलस सुहानी 
*
कोयल कूकी, बुरा अमुआ 
चहकी चिड़िया, महका महुआ 
चूल्हा-चौके, बर्तन-भाँडे 
देवर-ननदी, दद्दा-बऊआ 
बीत गयी 
पल में ज़िंदगानी 
कहते-सुनते 
राम कहानी 
***

navgeet

नवगीत 
तू 
*
पल-दिन, 
माह-बरस बीते पर
तू न 
पुरानी लगी कभी 
पहली बार 
लगी चिर-परिचित 
अब लगती  
है निपट नई 
*
खुद को नहीं समझ पाया पर 
लगता तुझे जानता हूँ  
अपने मन की कम सुनता पर 
तेरी अधिक मानता हूँ 
मन को मन से 
प्रीति पली जो 
कम न 
सुहानी हुई कभी 
*
कनखी-चितवन 
मुस्कानों ने 
कब-कब 
क्या संदेश दिए? 
प्राण प्रवासी 
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि  
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र 
जीवन का 
सच, न 
कहानी हुई कभी 
***