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गुरुवार, 3 मार्च 2016

बरवै छंद

 
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रसानंद दे छंद नर्मदा १८
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दोहा, 
​सोरठा, रोला,  ​
आल्हा, सार
​,​
 ताटंक,रूपमाला (मदन), चौपाई
​, 
हरिगीतिका,  
उल्लाला
​, 
 ​
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गीतिका
छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए
​ बरवै 
से.

 बरवै (नंदा दोहा) 
बरवै अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके विषम चरण (प्रथम, तृतीय) में बारह तथा सम चरण ( द्वितीय, चतुर्थ) में सात मात्राएँ रखने का विधान है सम चरणों के अन्त में जगण (जभान = लघु गुरु लघु)  या तगण (ताराज = गुरु गुरु लघु) होने से बरवै की मिठास बढ़ जाती है। 

बरवै छंद के प्रणेता अकबर के नवरत्नों में से एक महाकवि अब्दुर्रहीम खानखाना 'रहीम' कहे जाते हैं किंवदन्ती है कि रहीम का कोई सेवक अवकाश लेकर विवाह करने गया वापिस आते समय उसकी विरहाकुल नवोढा पत्नी ने उसके मन में अपनी स्मृति बनाये रखने के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर दीं रहीम का साहित्य-प्रेम सर्व विदित था सो सेवक ने वे पंक्तियाँ रहीम को सुनायींसुनते ही रहीम चकित रह गये पंक्तियों में उन्हें ज्ञात छंदों से अलग गति-यति का समायोजन था सेवक को ईनाम देने के बाद रहीम ने पंक्ति पर गौर किया और मात्रा गणना कर उसे 'बरवै' नाम दिया मूल पंक्ति में प्रथम चरण के अंत 'बिरवा' शब्द का प्रयोग होने से रहीम ने इसे बरवै कहा। रहीम के लगभग २२५ तथा तुलसी के ७० बरवै हैं विषम चरण की बारह (भोजपुरी में बरवै) मात्रायें भी बरवै नाम का कारण कही जाती है सम चरण के अंत में गुरु लघु (ताल या नन्द) होने से इसे 'नंदा' और दोहा की तरह दो पंक्ति और चार चरण होने से नंदा दोहा कहा गया। पहले बरवै की मूल पंक्तियाँ इस प्रकार है: 

प्रेम-प्रीति कौ बिरवा, चले लगाइ
   सींचन की सुधि लीज्यौ, मुरझि न जाइ।।  

रहीम ने इस छंद का प्रयोग कर 'बरवै नायिका भेद' नामक ग्रन्थ की रचना की। गोस्वामी तुलसीदास की कृति 'बरवै रामायण में इसी का प्रयोग किया गया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा जगन्नाथ प्रसाद 'रत्नाकर' आदि ने भी इसे अपनाया। उस समय बरवै रचना साहित्यिक कुशलता और प्रतिष्ठा का पर्याय था दोहा की ही तरह दो पद, चार चरण तथा लय के लिए विख्यात छंद नंदा दोहा या बरवै लोक काव्य में प्रयुक्त होता रहा है। ( सन्दर्भ: डॉ. सुमन शर्मा, मेकलसुता, अंक ११, पृष्ठ २३२) 

रहीम ने फ़ारसी में भी इस छंद का प्रयोग किया-

मीं गुज़रद ईं दिलरा, बेदिलदार
   इक-इक साअत हमचो, साल हज़ार  

इस दिल पर यूँ बीती, हृदयविहीन!
    पल-पल वर्ष सहस्त्र, हुई मैं दीन     

बरवै को 'ध्रुव' तथा' कुरंग' नाम भी मिले ( छ्न्दाचार्य ओमप्रकाश बरसैंया 'ओंकार', छंद-क्षीरधि' पृष्ठ ८८)

मात्रा बाँट-

बरवै के चरणों की मात्रा बाँट ८+४ तथा ४+३ है। छन्दार्णवकार भिखारीदास के अनुसार-

पहिलहि बारह कल करु, बहरहुँ सत्त
यही बिधि छंद ध्रुवा रचु, उनीस मत्त

पहले बारह मात्रा, बाहर सात
इस विधि छंद ध्रुवा रच, उन्निस मात्र 

उदाहरण-
०१. वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार । 
    SI  SI   II   SII    IS  ISI
    सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ॥ 
    III    ISII  S   II   III   ISI

०२. चंपक हरवा अँग मिलि, अधिक सुहाय।
    जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हलाय।।

०३. गरब करहु रघुनन्दन, जनि मन मांह।    
    देखहु अपनी मूरति, सिय की छांह।। -तुलसीदास 

०४. मन-मतंग वश रह जब, बिगड़ न काज
    बिन अंकुश विचलत जब, कुचल समाज।। -ओमप्रकाश बरसैंया 'ओंकार' 

०५. 'सलिल' लगाये चन्दन, भज हरि नाम
    पण्डे ठगें जगत को, नित बेदाम।।

०६. हाय!, हलो!! अभिवादन, तनिक न नेह
    भटक शहर में भूले, अपना गेह।।

०७. पाँव पड़ें अफसर के, भूले बाप 
     रोज पुण्य कह करते, छिपकर पाप।।


शन्नो अग्रवाल -
०८. उथल पुथल करे पेट, न पचे बात
     मंत्री को पचे नोट, बन सौगात

०९. चश्में बदले फिर भी, नहीं सुझात
     मन के चक्षु खोल तो, बनती बात

१०. गरीब के पेट नहीं, मारो लात 
     कम पैसे से बिगड़े, हैं हालात

११. पैसे ठूंसे फिर भी, भरी न जेब
    हर दिन करते मंत्री, नये फरेब

१२. मैं हूँ छोटा सा कण, नश्वर गात
    परम ब्रह्म के आगे, नहीं बिसात

१३. महुए के फूलों का, पा आभास
    कागा उड़-उड़ आये, उनके पास

१४. अकल के खोले पाट, जो थे बंद
     आया तभी समझ में, बरवै छंद

अजित गुप्ता-
१५. बारह मात्रा पहले, फिर लिख सात
     कठिन बहुत है लिख ले, मिलती मात

१६.  कैसे पकडूँ इनको, भागे छात्र
     रचना आवे जिनको, रहते मात्र

****************

muktika

मुक्तिका:
*
जब भी होती है हव्वा बेघर 
आदम रोता है मेरे भीतर
*
आरक्षण की फाँस बनी बंदूक
जले घोंसले, मरे विवश तीतर 
*
बगुले तालाबों को दे धाढ़स  
मार रहे मछली घुसकर भीतर 
*
नहीं चेतना-चिंतन संसद में 
बजट निचोड़े खूं थोपे जब कर 
*
खुद के हाथ तमाचा गालों पर 
मार रहे जनतंत्र अश्रु से तर 
*
पीड़ा-लाश सियासत का औज़ार 
शांति-कपोतों के कतरें नित पर 
*
भक्षक के पहरे पर रक्षक दीन 
तक्षक कुंडली मार बना अफसर 
***

बुधवार, 2 मार्च 2016

muktika

मुक्तिका:
*
तुम कैसे जादू कर देती हो 
भवन-मकां में आ, घर देती हो 
*
रिश्तों के वीराने मरुथल को 
मंदिर होने का वर देती हो 
*
चीख-पुकार-शोर से आहत मन 
मरहम, संतूरी सुर देती हो 
*
खुद भूखी रह, अपनी भी रोटी 
मेरी थाली में धर देती हो 
*
जब खंडित होते देखा विश्वास  
नव आशा निशि-वासर देती हो 
*
नहीं जानतीं गीत, ग़ज़ल, नवगीत 
किन्तु भाव को आखर देती हो 
*
'सलिल'-साधना सफल तुम्हीं से है 
पत्थर पल को निर्झर देती हो 
***

navgeet

नवगीत
तुम सोईं
*












*
तुम सोईं तो
मुँदे नयन-कोटर में सपने
लगे खेलने।
*
अधरों पर छा
मंद-मंद मुस्कान कह रही
भोर हो गयी,
सूरज ऊगा।
पुरवैया के झोंके के संग
श्याम लटा झुक
लगी झूलने।
*
थिर पलकों के
पीछे, चंचल चितवन सोई
गिरी यवनिका,
छिपी नायिका।
भाव, छंद, रस, कथ्य समेटे
मुग्ध शायिका
लगी झूमने।
*
करवट बदली,
काल-पृष्ठ ही बदल गया ज्यों।
मिटा इबारत,
सबक आज का
नव लिखने, ले कोरा पन्ना
तजकर आलस
लगीं पलटने।
*
ले अँगड़ाई
उठ-बैठी हो, जमुहाई को
परे ठेलकर,
दृष्टि मिली, हो
सदा सुहागन, कली मोगरा
मगरमस्त लख
लगी महकने।
*
बिखरे गेसू
कर एकत्र, गोल जूड़ा धर
सर पर, आँचल
लिया ढाँक तो
गृहस्वामिन वन में महुआ सी
खिल-फूली फिर
लगी गमकने।
*
मृगनयनी को
गजगामिनी होते देखा तो
मकां बन गया
पल भर में घर।
सारे सपने, बनकर अपने
किलकारी कर
लगे खेलने।
*****







मंगलवार, 1 मार्च 2016

navgeet

नवगीत 
आ गयीं तुम 
*
आ गयीं तुम 
संग लेकर 
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*
परिंदे शत चहचहाते 
कर रहे स्वागत।
हँस रहा लख वास्तु 
है गृह-लक्ष्मी आगत।
छा गयी हैं 
रख अलंकृत 
दुपहरी-संध्या, चरण शत।
*
हीड़ते चूजे, चुपे पा 
चौंच में दाना।
चाँद-तारे छा गगन पर 
छेड़ते गाना।
भा गयी है 
श्याम रजनी 
कर रही निद्रा वरण शत।
*
बंद नयनों ने बसाये 
शस्त्रों सपने।
सांस में घुल सांस ही 
रचती नए सपने।
गा रहे मन-
प्राण नगमे 
वर रहे युग्मित तरुण शत।
*
आ गयीं तुम 
संग लेकर 
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*

samiksha

पुस्तक सलिला:
'नहीं कुछ भी असम्भव' कथ्य है नवगीत के लिये
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण- नहीं कुछ भी असंभव, नवगीत, निर्मल शुक्ल, वर्ष २०१३, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, कपडे की बंधाई, सिलाई गुरजबंदी, पृष्ठ ८०, मूल्य २९५/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ सेक्टर के, आशियाना कॉलोनी लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ९८३९८२५०१२ / ९८३९१७१६६१]
*
'नहीं कुछ भी असंभव' विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार-समीक्षक निर्मल शुक्ल का पंचम नवगीत संग्रह है। इसके पूर्व अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्य काल तथा नील वनों के पार में नवगीत प्रेमी शुक्ल जी  के विषय वैविध्य, साधारण में असाधारणता को देख सकने की दृष्टि, असाधारण में अन्तर्निहित साधारणता को देख-दिखा सकने की सामर्थ्य, अचाक्षुष बिम्बों की अनुभूति कर शब्दित कर सकने की सामर्थ्य, मारक शैली, सटीक शब्द-चयन आदि से परिचित हो चुके हैं। शुक्ल जी सक्षम नवगीतकार ही नहीं समर्थ समीक्षक, सुधी पाठक और सजग प्रकाशक भी हैं भाषा के व्याकरण, पिंगल और नवगीत के उत्स, विकास, परिवर्तन और सामयिकता की जानकारी उन्हें उस अनुभूति और कहन से संपन्न करती है जो किसी अन्य के लिये सहज नहीं। 

शुक्ल जी के अनुसार ''कविता रचनाकार की सर्वप्रथम अपने से की जानेवाली बातचीत का लयबद्ध स्वरूप है जो अवरोधों से अप्रभावित रहते हुए गतिमान रहती है, शाश्वत है ......कविता पर समय काल की गति-स्थिति से आवश्यकतानुसार धारा-परिवर्तन होता रहता है जो उसे समय-काल का वैशिष्ट्य प्रदान करता है। ....समय चक्र में कविता जागृत हुई है, चेतना मुखरित हुई है और मुखरित हुई है एक नव-स्फूर्ति..... शनैः -शनैः दृष्टिगोचर हुआ काव्य का अपराजित उत्कर्ष 'गीत'। .....गीत और उसके अधुनातन संस्करण नवगीत की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए अनिवार्य है काव्य के गेयात्मक तत्व का रेखांकन। इस अनुपमेय आत्म बोध के पवित्र कलेवर, सर्वांगीण उपस्थिति एवं औचित्य पर मोह निद्रावश किसी साहित्यानुरागी द्वारा आडंबरों में निर्लिप्त पूर्वाग्रहों के चढ़ाये खोल को विदीर्ण कर उतार फेंकना ही होगा, तोडना ही होगा उन सड़ी-गली चितकबरी विडंबनाओं का अमांगलिक पिंजरा, प्रदान करना होगा स्वच्छंद गीत को उसका इंद्र धनुषी उन्मुक्त ललित आकाश।'' 'उपसर्ग' का यह सारांश शुक्ल जी के नवगीत लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। वे नवगीत को विडम्बनाओं, पीड़ाओं, शोषण, चीत्कार और प्रकारांतर से साम्यवादी नई कविता का गेय संस्करण बनाने के जड़ विधान तो खंडित करते हुए गीतीय मांगकी भाव से अभिषिक्त कर समूचे जीवन का पर्याय बनते हुए देखना चाहते हैं।  उन नये-पुराने  गीतकारों-नवगीतकारों के लिए यह दृष्टि बोध अनिवार्य है जो नवगीत के विधान, मान्यताओं और स्वरूप को लेकर अपनी रचना के गीत या नवगीत होने को लेकर भ्रमित होते हैं

विवेच्य संग्रह में ३० नवगीत सम्मिलित हैं। प्रत्येक गीत बारम्बार पढ़े जाने योग्य है। पाठक को हर बार एक नए भावलोक की प्रतीति होती है। नवगीत के वरिष्ठतम हस्ताक्षर प्रो। देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' के शब्दों में "कविता (नवगीत) में व्यक्ति एक होकर भी अनेक के साथ जुड़ जाता है- यही है 'एकोsहं बहुस्याम' की भावना। इस भावना को आत्मविस्तार भी कहा जा सकता है। आत्म का यह विस्तार ही साहित्य अथवा काव्य में साधारणीकरण की दिशा में उसे ले जाता है। इस साधारणीकरण के अभाव में रस निष्पत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं होता। शुक्ल जी का रचनाकार इस तथ्य से अपरिचित नहीं है तभी तो वे लिखते हैं 
तुम हमारे गाँव के हो / हम तुम्हारे गाँव के 
एक टुकड़ा धुप का जो / बो गये तुम खेत में 
अचकचाकर / जम गये हैं / कई सूरज रेत में 
अब यहाँ आकाश हैं, तो / बस सुनहरी छाँव के" 

इस काल में पल-पल उन्नति पहाड़ा पढ़ता मानव वास्तव में अपने आदिम स्वरूप की तुलना में बदतर होता जा रहा है। चतुर्दिक घट रही घटनाएं मानव के मानवीय कदाचरण की साक्षी हैं। इस सर्वजनीन अनुभूति की अभिव्यक्ति शुक्ल जी भी करते हैं पर उनका अंदाज़े-बयां औरों से भिन्न है- 
राम कहानी / तुम्हें तुम्हारी     
उसकी तो है हवा-हवाई         
ईसा से पहले के पहले / उसको आदिम नाम मिला था 
इसके हिस्सेवाला सूरज / तब सबसे बेहतर निकला था 
अब तो बस / सादा कागज़ है 
भोर सुहानी / तुम्हें तुम्हारी 
उसकी तो है पीर-पराई 
पैर पसारे तो कपड़ों से / नंगेपन का डर लगता है 
एक सुनहरे दिन का सपना / केवल मुट्ठी भर लगता है 
देह थकी है / ओस चाटते 
रात सयानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है दुआ-दवाई 
एक भरोसा खुली हवा का / टिका नहीं बेजान हो गया 
राजावाली चिकनी सूरत / लुटा हुआ सामान हो गया 
आगे सदी / बहुत बाकी है 
अदा हुनर की / तुम्हें तुम्हारी 
उसकी हाँफ चुकी चतुराई 

निर्मल शुक्ल जी हिंदी, उर्दू, अवधी का मिश्रित प्रयोग करनेवाले लखनऊ से हैं, संस्कृत और अंग्रेजी उनके लिये सहज साध्य हैं शब्दों के सटीक चयन में वे सिद्धहस्त हैं। कम शब्दों में अधिक कहना, मौलिक बिम्ब और प्रतीक प्रयोग करना, वर्तमान की विसंगतियों की अतीत के परिप्रेक्ष्य में तुलना कर भविष्य के लिये वैचारिक पीठिका तैयार करने की सामर्थ्य इन नवगीतों में है। 

निर्मल जी का वैशिष्ट्य लक्षणा और व्यंजना के पथ पर पग रखते हुए भाषिक सौष्ठव और संतुलित भावाभिव्यक्ति है। वे अतिरेक से सर्वथा दूर रहते हैं। रेत के टीले को विदा होती पीढ़ी अथवा बुजुर्ग के रूप में देखते हुए कवि उसके संघर्ष और जीवट को व्यक्त किया है
मेरे घर के आगे ऊँचा / रेत का टीला है         १६-११ 
इक्का-दुक्का / झाड़ी-झंखड़                       ८-८ 
यहाँ-वहाँ दिखते हैं                                    १२ 
मरुथल के मरुथल / होने की                     १०-६ 
कुल गाथा लिखते हैं                                 १२ 
जलता है ऊपर-ऊपर / पर, भीतर गीला है  १४-१२ 
जहाँ हवा का / झोंका कोई                         ८-८ 
सीधा आता है                                          १० 
अक्सर रेत कणों से / सारा                       १२-४ 
घर घिर जाता है                                      १० 
बाबा का कालीन / अभी तक पूरा पीला है  ११-१५ 
पल में तोला / पल में माशा                     ८-८ 
इधर-उधर उड़ता है                                १२ 
बाबा कहते / अब भी                              १२ 
काली आँधी से लड़ता है                         १६ 
टूट चुका है कण-कण में                         १४ 
पर अभी हठीला है                                 १२ 

शुक्ल जी की छंदों पर पूरी पकड़ है वे कहीं छूट लेते हैं तो इस तरह की लय-भंग न हो।  'राम कहानी तुम्हें तुम्हारी' नवगीत सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद में है। 'तब सबसे बेहतर निकला था' में १७ मात्र होने पर भी लय बनी हुई है। उक्त दूसरे गीत में संस्कारी तथा आदित्य जातीय छंदों की एक-एक पंक्ति का प्रयोग दूसरे-तीसरे पद में है जबकि द्वितीय पद में संस्कारी तथा दैशिक छंद का प्रयोग है। ऐसा प्रयोग सिद्धस्तता के उपरान्त ही करना संभव होता है। उल्लेख्य है कि छंद वैविध्य के बावजूद तीनों पदों की गेयता पर विपरीत प्रभाव नहीं है। 

नगरीय जीवन की सीमाओं, त्रासदियों, संघर्षों, आघातों, प्रतिकारों और पीछे छूट चुके गाँव की स्मृतियों के शब्द चित्र कई गीतों की कई पंक्तियों में दृष्टव्य हैं। नगरों के अधिकाँश निवासी आगे-पीछे ग्राम्य अंचलों से ही आये होते हैं अत:, ऐसी अनुभूति व्यक्तिपरक न रहकर समष्टिगत हो जाती है और रचना से पाठक / श्रोता को जोड़ती है। गुलमोहर की छाया में रिश्तों की पहुनाई (ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल), पुरखों से डाँट-डपट की चाह (ऊँचे स्वर के संबोधन), रेत का टीला और झाड़ी-झंखड़ (रेत का टीला), छप्पर और सरकंडे (छोटा है आकाश), सनातन परंपराओं के प्रति श्रद्धा (गंगारथ),  मोहताजी और उगाही (पीढ़ी-पीढ़ी चले उगाही), पोखर-पंछी (रूठ गए मेहमान), सावन-दूब ढोर नौबत-नगाड़े (तुम जानो हम जाने) में गाँव-नगर के संपर्क सेतु सहज देखे जा सकते हैं। 

निर्मल शुक्ल जी भाषिक सौष्ठव, कथ्य की सुगढ़ता, अभिव्यक्ति के अनूठेपन, मौलिक बिम्ब-प्रतीकों तथा चिंतन की नवता के लिये जाने जाते हैं। 'नहीं कुछ भी असंभव' के नवगीत इस मत के साक्ष्य हैं। उनकी मान्यता है कि समयाभाव तथा अभिरुचि ह्रास के इस काल में पाठक समयाभाव से ग्रस्त है इसलिए संकलन में रचनाएँ कम रखी जाएँ ताकि उन्हें पर्याप्त समय देकर पढ़ा, समझा और गुना जा सके। संकलन का मुद्रण, प्रस्तुतीकरण, कागज़, बंधाई, आवरण, पाठ्य शुद्धि आदि स्तरीय है। सामान्य पाठक, विद्वज्जन तथा समीक्षक शुक्ल जी अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे। 

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- २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

navgeet

नवगीत:
तुम रूठीं 
*
तुम रूठीं तो 
मन-मंदिर में 
घंटी नहीं बजी।
रहीं वन्दना,
भजन, प्रार्थना
सारी बिना सुनी।
*
घर-आँगन में
ऊषा-किरणें
बिन नाचे उतरीं।
ना चहके-
फुदके गौरैया
क्या खुद से झगड़ी?
गौ न रँभायी
श्वान न भौंका
बिजली गोल हुई।
कविताओं की
गति-यति-लय भी
अनजाने बिगड़ी।
सुड़की चाय
न लेकिन तन ने
सुस्ती तनिक तजी।
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
दफ्तर में
अफसर से नाहक
ठानी ठनाठनी ।
बहक चके-
यां के वां घूमे
गाड़ी फिसल भिड़ी.
राह काट गई
करिया बिल्ली
तनिक न रुकी मुई।
जेब कटी तो
अर्थव्यवस्था
लडखडाई तगड़ी।
बहुत हुआ
अनबोला अब तो
लो पुकार ओ जी!
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
१-३-२०१६

navgeet

एक रचना- 
लौट घर आओ 
*
लौट घर आओ. 
मिल स्वजन से 
सुख सहित पुनि
लौट घर आओ.
*
सुता को लख
बिलासा उमगी बहुत होगी
रतनपुर में
आशिषें माँ से मिली होंगी
शंख-ध्वनि सँग
आरती, घंटी बजी होगी
विद्यानगर में ख़ुशी की
महफ़िल सजी होगी
लौट घर आओ.
*
हवाओं में फिजाओं में
बस उदासी है.
पायलों के नूपुरों की
गूँज खासी है
कंगनों की खनक सुनने
आस प्यासी है
नर्मदा में बैठ आतीं
सुन हुलासी है
लौट घर आओ.
*
गुनगुनाहट धूप में मिल
खूब निखरेगी
चहचहाहट पंछियों की
मंत्र पढ़ देगी
लैम्ब्रेटा महाकौशल
पहुँच सिहरेगी
तुहिन-मन्वन्तर मिले तो
श्वास हँस देगी
लौट घर आओ.
*
२९-२-२०१६

सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

navgeet

नवगीत:
आरक्षण
*
जिनको खुद पर
नहीं भरोसा
आरक्षण की भीख माँगते।
*
धन-दौलत, जमीन पाकर भी
बने हुए हैं अधम भिखारी।
शासन सब कुछ छीने इनसे
तब समझेंगे ये लाचारी।
लात लगाकर इनको इनसे
करा सके पीड़ित बेगारी।
हो आरक्षण उनका
जो बेबस
मुट्ठी भर धूल फाँकते।
*
जिसने आग लगाई जी भर
बैैंक और दुकानें लूटीं।
धन-सम्पति का नाश किया
सब आस भाई-चारे की टूटी।
नारी का अपमान किया  
अब रोएँ, इनकी किस्मत फूटी।
कोई न देना बेटी,
हो निरवंशी
भटकें थूक-चाटते।
*
आस्तीन के साँप, देशद्रोही,
मक्कार, अमानव हैं ये।
जो अबला की इज्जत लूटें
बँधिया कर दो, दानव हैं ये।
इन्हें न कोई राखी बाँधे
नहीं बहन के लायक हैं ये।
न्यायालय दे दण्ड
न क्यों फाँसी पर
जुल्म-गुनाह टाँगते?
***

laghukatha

लघुकथा
स्वतंत्रता
*
जातीय आरक्षण आन्दोलन में आगजनी, गुंडागर्दी, दुराचार, वहशत की सीमा को पार करने के बाद नेताओं और पुलिस द्वारा घटनाओं को झुठलाना, उसी जाति के अधिकारियों का जाँच दल बनाना, खेतों में बिखरे अंतर्वस्त्रों को देखकर भी नकारना, बार-बार अनुरोध किये जाने पर भी पीड़ितों का सामने न आना, राजनैतिक दलों का बर्बाद हो चुके लोगों के प्रति कोई सहानुभूति तक न रखना क्या संकेत करता है?
यही कि हमने उगायी है अविश्वास की फसल चौपाल पर हो रही चर्चा सरपंच को देखते ही थम गयी, वक्ता गण देने लगे आरक्षण के पक्ष में तर्क, दबंग सरपंच के हाथ में बंदूक को देख चिथड़ों में खुद को ढाँकने का असफल प्रयास करती सिसकती रह गयी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ।
***

laghukatha

लघुकथा:
घर
*
दंगे, दुराचार, आगजनी, गुंडागर्दी के बाद सस्ती लोकप्रियता और खबरों में छाने के इरादे से बगुले जैसे सफेद वस्त्र पहने नेताजी जन संपर्क के लिये निकले। पीछे-पीछे चमचों का झुण्ड, बिके हुए कैमरे और मरी हुई आत्मा वाली खाखी वर्दी।
बर्बाद हो चुके एक परिवार की झोपड़ी पहुँचते ही छोटी सी बच्ची ने मुँह पर दरवाजा बंद करते हुए कहा 'आरक्षण की भीख चाहनेवालों के लिये यहाँ आना मना है। यह संसद नहीं, भारत के नागरिक का घर है।
***

laghukatha

लघुकथा
आदर्श
*
त्रिवेदी जी ब्राम्हण सभा के मंच से दहेज़ के विरुद्ध धुआंधार भाषण देकर नीचे उतरे। पडोसी अपने मित्र के कान में फुसफुसाया 'बुढ़ऊ ने अपने बेटों की शादी में तो जमकर माल खेंचा लिया, लडकी वालों को नीलाम होने की हालत में ला दिया और अब दहेज़ के विरोध में भाषण दे रहा है, कपटी कहीं का'।
'काहे नहीं देगा अब एइकि मोंडी जो ब्याहबे खों है'. -दूसरे ने कहा.
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शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

doha salila

दोहा सलिला:
नेताओं की निपुणता, देख हुआ है दंग
गिरगिट चाहे सीखना, कैसे बदले रंग?
*
रंग भंग में डालकर, किया रंग में भंग
संसद में होता सखे, बिना पिये हुड़दंग
*
दल-दल ने दलदल मचा, दल छाती पर दाल
जाम आदमी का किया, जीना आज मुहाल
*
मत दाता बन जान ले, मत का दाता मोल
तब मतदाता बदल दे, संसद का भूगोल
*
स्मृति से माया कहे, दे-दे अपना शीश
माया से स्मृति कहे, ले जा भेज कपीश
*
एक दूसरे को छलें, देकर भ्रामक तर्क
नेता-अभिनेता हुए, एक न बाकी फर्क
*
सरहद पर सुनवाइये, बहसें-भाषण खूब
जान बचायें भागकर, शत्रु सिपाही ऊब
*

muktak

मुक्तक:
केवल दोष दिखाना ही पर्याप्त नहीं होता
जो न बदलता मिट जाता है, अगर रहा रोता
अगर न उत्तर खोजोगे तो खुद सवाल होगे
फसल ऊगती तभी बीज जब कोई कहीं बोता
*
बैठ हाथ पर हाथ रखे गर चाहोगे बदलाव
नहीं भरेंगे, सिर्फ बढ़ेंगे जो तन-मन पर घाव
अगर बढ़ेगी क्रय क्षमता तो कहता हूँ मैं सत्य
बुरा न मानोगे चाहे जितने बढ़ जाएँ भाव
*

dwipadiyaan (ash'aar)

द्विपदियाँ (अश'आर)
*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
*
देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'
*

laghukatha:

लघुकथा: संजीव
कानून के रखवाले 
*
हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े गीले हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम अपने देश में ऐसा नहीं होने दे सकते। वक्ता अपने कृत्य का बखान करते हुए खुद को महिमामंडित कर रहे थे। 

उनकी बात पूर्ण होते ही एक श्रोता ने पूछा आप तो संविधान और कानून के जानकार होने का दवा करते हैं क्या बता सकेंगे कि संविधान का कौन सा अनुच्छेद या किस कानून की कौन सी कंडिका या धारा किसी नागरिक को अपनी विचारधारा से असहमत अन्य नागरिक को प्रतिबंधित या दंडित करने का धिकार देती है?

क्या आपसे भिन्न विचार धारा के नगरिकों को भी यह अधिकार है कि वे आपको घेरकर आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करें?

यह भी बतायें कि अगर नागरिकों को एक-दूसरे को दंड देने का अधिकार है तो न्यायालय किसलिए हैं? क्या इससे कानून-व्यवस्था नष्ट नहीं हो जाएगी? 

वकील होने के नाते आप खुद को कानून का रखवाला कहते हैं क्या कानून को हाथ में लेने के लिये आपको सामान्य नागरिक की तुलना में अधिक कड़ी सजा नहीं मिलना चाहिए?

प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर थे कानून के रखवाले।
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navgeet

नवगीत:
जब तुम आईं
*
कितने रंग
घुले जीवन में
जब तुम आईं।
*
हल्दी-पीले हाथ द्वार पर
हुए सुशोभित।
लाल-लाल पग-चिन्ह धरा को
करें विभूषित।
हीरक लौंग, सुनहरे कंगन
करें विमोहित।
स्वर्ण सलाई ले
दीपक की
जोत मिलाईं।
*
गोर-काले भाल-बाल
नैना कजरारे।
मैया ममता के रंग रंगकर
नजर उतारे।
लिये शरारत का रंग देवर
नकल उतारे।
लिए चुहुल का
रंग, ननदी ने
गजल सुनाईं।
*
माणिक, मूंगा, मोती, पन्ना,
हीरा, नीलम,
लहसुनिया, पुखराज संग
गोमेद नयन नम।
नौरत्नों के नौ रंगों की
छटा हरे तम।
सतरंग साड़ी
नौरंग चूनर
मन को भाईं।
*
विरह-मिलन की धूप-छाँव
जाने कितने रंग।
नाना नाते नये जुड़े जितने
उतने संग।
तौर-तरीके, रीति-रस्म के
नये-नये ढंग।
नीर-क्षीर सी मिलीं, तनिक
पहले सँकुचाईं
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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

navgeet

नवगीत:
तुम पर
*
तुम पर
खुद से अधिक भरोसा
मुझे रहा है।
*
बिना तुम्हारे
चल, गिर, उठ, बढ़
तुम तक आया।
कदम-कदम बढ़
जगह बना निज
तुमको लाया।
खुद को किया
समर्पित हँस, फिर
तुमको पाया।
खाली हाथ बढ़ाया
तेरा हाथ गहा है।
*
तन-मन-धन
कर तुझे समर्पित
रीत गया हूँ।
अदल-बदल दिल
हार मान कर
जीत गया हूँ।
आज-आज कर
पता यह चला
बीत गया हूँ।
ढाई आखर
की चादर को
मौन तहा है।
*
तुम पर
खुद से अधिक भरोसा
मुझे रहा है।
*