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शनिवार, 25 जुलाई 2015

muktak

मुक्तक: संजीव * मापनी: २११ २११ २११ २२ *
आँख मिलाकर आँख झुकाते आँख झुकाकर आँख उठाते आँख मारकर घायल करते आँख दिखाकर मौन कराते *


मापनी: १ २ २ १ २ २ १ २ २ १२२
*
न जाओ, न जाओ जरा पास आओ
न बातें बनाओ, न आँखें चुराओ
बहुत हो गया है, न तरसा, न तरसो
कहानी सुनो या कहानी सुनाओ
*



अंग्रेजी कविता

Poem:
Success
Sanjiv
*
Success and un success
Are two faces of a coin.
Every un success leads to
Success in life
If you do'nt lose heart.
Success gives more pleasure
After un success.
Spoon feeded success
Without any struggle or
Testing your ability
Doesn't serve any purpose.
Baloon gets the height
Without any foundation
Hence, falls down.
Let us all try to get success
Only after proper efforts.
Success without doing our best
Can't give satisfaction.
Never feel shy
If the attempt fails.
Always ensure the use of
Proper and fair means
To get success.

***




मुक्तिका:

वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति
भावांजलि
संजीव
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी 
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी  

ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में 
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी 

सादगी से बात कहने में न सानी आपका 
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी 

इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी 
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी 

'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी  
***

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

अंग्रेजी कविता: Again and again.

Poem:
Again and again 
Sanjiv
*
Why do I wish to swim 
Against the river flow?
I know well 
I will have to struggle 
More and more.  
I know that 
Flowing downstream 
Is an easy task
As compared to upstream.
I also know that 
Well wishers standing 
On both the banks
Will clap and laugh. 
If I win,
They will say:
Their encouragement 
Is responsible for the success. 
If unfortunately 
I lose,
They will not wait a second 
To say that
They tried their best 
To stop me 
By laughing at me. 
In both the cases
I will lose and 
They will win.
Even then 
I will swim 
Against the river flow
Again and again. 
***

बुधवार, 22 जुलाई 2015

doha

दोहा सलिला:
दोहे का रंग कविता के संग
संजीव
*
बाहर कम भीतर अधिक जब-जब झाँकें आप
तब कविता होती प्रगट, अंतर्मन में व्याप
*
औरों की देखें कमी, दुनिया का दस्तूर
निज कमियाँ देखो बजे, कविता का संतूर
*
कविता मन की संगिनी, तन से रखे न काम
धन से रहती दूर यह, प्रिय जैसे संतान
*
कविता सविता तिमिर हर, देते दिव्य प्रकाश 
महक उठे मन-मोगरा, निकट लगे आकाश
*
काव्य -कामिनी ने कभी, करी न कोई चाह
बैठे चुप थक-हारकर, कांत न पाएं थाह

*

muktika

मुक्तिका
संजीव
*
मापनी: २१२२ १२१२ २२
*
आँख से आँख जब मिलाते हैं
ख्वाहिशें आप क्यों छिपाते हैं?
आइना गैर को दिखाते हैं
और खुद से नज़र चुराते हैं
वक़्त का दे रहे दुहाई जो
फ़र्ज़ का क़र्ज़ कब चुकाते हैं?
रौशनी भीख माँगती उनसे
जो मशालें जला उठाते हैं
मैं 'सलिल' ज़िंदगी का जीवन हूँ
आप बेकार क्यों बहाते हैं?
***

MUKTAK:

मुक्तक:
संजीव
*
सलिल से सलिल कब जुदा रह सका है 
सलिल से जुदा कब खुदा रह सका है 
मिले खुद से खुद जब भी तन्हाइयों में 
नहीं मौन तब नाखुदा रह सका है 
***

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव
*
हर चेहरे में
अलग कशिश है
आकर्षण है
*
मिलन-विरह में,
नयन-बयन में
गुण-अवगुण या
चाल-चलन में
कहीं मोह का
कहीं द्रोह का
संघर्षण है
*
मन की मछली,
तन की तितली
हाथ न आयी
पल में फिसली
क्षुधा-प्यास का
हास-रास का
नित तर्पण है
*
चितवन चंचल
सद्गुण परिमल
मृदु मिठासमय
आनन मंजुल
हाव-भाव ये
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है
*
गिरि सलिलाएँ
काव्य-कथाएँ
कहीं-अनकहीं
सुनें-सुनाएँ
कलरव-गुंजन
माटी-कंचन
नव दर्पण है
*
बुनते सपने
मन में अपने
समझ न आते
जग के नपने
जन्म-मरण में
त्याग-वरण में
संकर्षण है
*

सोमवार, 20 जुलाई 2015

muktika

मुक्तिका:
संजीव
*
मापनी: 2122 2122 2122 212
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को

सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को

कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को

भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को

आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को

***

geet:

एक रचना:
संजीव
*
ज़िंदगी का
एक ही है कायदा
*
बाहुबली की जय-जयकार
जिसको चाहे दे फटकार
बरसा दे कोड़ों की मार
निर्दय करता अत्याचार
बढ़कर शेखी रहा बघार
कोई नहीं बचावनहार
तीसमार खां बन बटमार
सजा रहा अपना दरबार
कानूनों की हर पल हार
वही प्यारा 
जो कराता फायदा
*
सद्गुण का सूना दरबार
रूप-रंग पर जान निसार
मोहे सिक्कों की खनकार
रूपया अभिनन्दित फिर यार
कसमें खाता रोज लबार 
अदा न करता लिया उधार
लेता कभी न एक डकार
आप लाख कर दें उपकार
पल में दे उपकार बिसार
भुला देता
किया जो भी वायदा
*

रविवार, 19 जुलाई 2015

एक ग़ज़ल : रास्ता इक और आयेगा निकल...

रास्ता इक और आयेगा निकल
हौसले से दो क़दम आगे तो चल

लोग कहते हैं भले ,कहते रहें
तू इरादों मे न कर रद्द-ओ-बदल

यूँ हज़ारो लोग मिलते हैं यहाँ
’आदमी’ मिलता कहाँ है आजकल

इन्क़लाबी सोच है उसकी ,मगर
क्यूँ बदल जाता है वो वक़्त-ए-अमल

इक मुहब्बत की अजब तासीर से
लोग जो पत्थर से हैं ,जाएं पिघल

इक ग़म-ए-जानाँ ही क्यूँ  हर्फ़-ए-सुखन
कुछ ग़म-ए-दौराँ भी कर ,हुस्न-ए-ग़ज़ल

खाक से ज़्यादा नहीं हस्ती तेरी
इस लिए ’आनन’ न तू ज़्यादा उछल

-आनन्द.पाठक-
09413395592

शब्दार्थ
ग़म-ए-जानाँ  = अपना दर्द
ग़म-ए-दौराँ   = ज़माने का दर्द
जौक़-ए-सुखन = ग़ज़ल लिखने/कहने का शौक़
हुस्न-ए-ग़ज़ल = ग़ज़ल का सौन्दर्य
वक़्त-ए-अमल = अमल करने के समय

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

muktika:

मुक्तिका
संजीव
*
मापनी: १२२ १२२ १२२ १२२
*
हमारा-तुम्हारा हसीं है फ़साना
न आना-जाना, बनाना बहाना

न लेना, न देना, चबाना चबेना
ख़ुशी बाँट, पाना, गले से लगाना

मिटाना अँधेरा, उगाना सवेरा
पसीना बहाना, ग़ज़ल गुनगुनाना

न सोना, न खोना, न छिपना, न रोना
नये ख्वाब बोना, नये गीत गाना

तुम्हीं को लुभाना, तुम्हीं में समाना
तुम्हीं आरती हो, तुम्हीं हो तराना

***



doha

दोहा सलिला:

आँखों-आँखों में हुआ, जाने क्या संवाद?
झुकीं-उठीं पलकें सँकुच, मिलीं भूल फरियाद
*
आँखें करतीं साधना, रहीं वैद को टेर
जुल्मी कजरा आँज दे, कर न देर-अंधेर
*
आँखों की आभा अमित, पल में तम दे चीर
जिससे मिलतीं, वह हुआ, दिल को हार फ़क़ीर
*
आँखों में कविता कुसुम, महकें ज्यों जलजात
जूही-चमेली, मोगरा-चम्पा, जग विख्यात
*
विरह अमावस, पूर्णिमा मिलन, कह रही आँख 
प्रीत पखेरू घर बना, बसा समेटे पाँख 
*
आँख आरती हो गयी, पलक प्रार्थना-लीन  
संध्या वंदन साधना, पूजन करे प्रवीण 
*

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

navgeet :

नवगीत:
संजीव
*
मेघ बजे

नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी

तोड़ कूल-मरजाद
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे
तनया तुरत तजे
*
पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई

जन्मे माखनचोर
हरीरा भक्त पिये
गणपति बप्पा, लाये
मोदक हुए मजे
*
टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?

डूबी गैल, बके गाली
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल'
जोड़ कर राम भजे

सोमवार, 13 जुलाई 2015

शिव, शक्ति और सृष्टि  



सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव  ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.  

शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है. 

शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में  ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.         
  
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?

वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया. 

वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं। 

विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती  है।

संदर्भ: 
१. 
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव 
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार, 

jangeet

जनगीत-
संजीव
*
जागो मेरे देश महान
जागो, जागो भारतवासी!
जागो मेरे देश महान!
*
भारत माता तुम्हें पुकारें
करो मलिनता दूर.
पर्यावरण प्रदूषण कर क्यों
हों आँखें रख सूर?
भू, नभ, पवन, समुद चेताते
हो न स्वार्थ में चूर.
पशुपति सँग केदार रूठते
पल में पर्वत धूर.

माँगो मिल प्रभु से वरदान
आओ, आओ भारतवासी!
होगा फिर से देश महान!
जागो, जागो भारतवासी!
जागो मेरे देश महान!
*
सब दुनिया परिवार हमारा
सबका करना मंगल.
क्षुद्र स्वार्थों-सत्ता खातिर
करें न मनुज अमंगल.
अगली सदी सुमानव की हो
फिर हरियाएं जंगल.
बहुत हुआ अब अधिक न हो
मानव-मानव में दंगल
.
हम सब हों सद्गुण की खान
आओ, आओ भारतवासी!
होगा फिर से देश महान!
जागो, जागो भारतवासी!
जागो मेरे देश महान!
*

रविवार, 12 जुलाई 2015

नवगीत:

एक रचना 
संजीव 
*
नहा रहे हैं
बरसातों में 
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*

शनिवार, 11 जुलाई 2015

geet:

एक रचना:
सत्य 
अपने निकट पायें 
कलम 
केवल तब उठायें
*
क्या लिखना है?
क्यों लिखना है?
कैसे लिखना है
यह सोचें
नाहक केश न
सर के नोचें
नवसंवेदन
जब गह पायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
लिखना कविता
होना सविता
बहती सरिता
मिटा पिपासा
आगे बढ़ना
बढ़े हुलासा
दीप
सम श्वासें जलायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
बहा पसीना
सीखें जीना
निज दुःख पीकर
खुशियाँ बाँटें
मनमानी को
रोकें-डाँटें
स्वार्थ
प्रथम अपना तज गायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

navgeet :

नवगीत:
संजीव
*
व्यापम की बात मत करो
न खबर ही पढ़ो,
शव-राज चल रहा
कोई तुझको न मार दे.
*
पैंसठ बरस में क्या किया
बोफोर्स-कोल मात्र?
हम तोड़ रहे रोज ही
पिछले सभी रिकॉर्ड.
यमराज के दरबार में
है भीड़-भाड़ खूब,
प्रभु चित्रगुप्त दीजिए
हमको सभी अवार्ड.
आपातकाल बिन कहे
दे दस्तक, सुनो
किसमें है दम जो देश को
दुःख से उबार ले.
*
डिजिटल बनो खाते खुला
फिर भूख से मरो.
रोमन में लिखो हिंदी
फिर बने नया रिकॉर्ड.
लग जाओ लाइनों में रोज
बंद रख जुबां,
हर रोज बनाओ नया
कोई तो एक कार्ड.
न कोई तुम सा, बोल
खाओ मुफ्त मिले खीर
उसमें लगा हो चाहे
हींग-मिर्च से बघार.
***

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

muktak

एक मुक्तक:
संजीव 
*
चलो गुनगुनायें सुहाने तराने 
सुनें कुछ सुनायें, मिलो तो फ़साने 
बहुत हो गये अब न हो दूर यारब 
उठो! मत बनाओ बहाने पुराने  
*