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सोमवार, 25 जून 2012

साक्षात्कार: स्वामी वासुदेवानंद जी -आनंदकृष्ण

साक्षात्कार :
 
 साहित्य "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात" का अनुगामी बने : ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज.
 
भारतीय मनीषा में भगवान् आदि-शंकराचार्य का अवतरण एक अलौकिक व विलक्षण घटना है. उन्होंने तत्कालीन समाज में फ़ैली कुरीतियों रूढियों और कुंठाओं को अपने अगाध ज्ञान और विश्वास के बल पर छिन्न-भिन्न कर भारतीय समाज में नई ऊर्जा का संचरण किया. उनके द्वारा प्रदीप्त किया हुआ ज्ञान का अखंड दीप आज भी अपने भरपूर उजास से हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहा है.

दिनांक १२ नवम्बर २००८ का वह पुन्य दिवस था जब मुझे श्री आनंद कुमार मिश्र (जबलपुर) तथा श्री रंगनाथ दुबे (अलाहाबाद) के आत्मीय सहयोग से अलाहाबाद में परम पूज्य अनंत श्री विभूषित ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज के पुन्य दर्शन करने व उनके अमृत वचन श्रवण करने का सौभाग्य मिला. महाराजश्री का बाल-सुलभ स्मित हास व उनका सहज व्यवहार मन को गहरे तक छू गया.

महाराजश्री के श्रीचरणों में बैठ कर मैंने अपनी कुछ जिज्ञासाएं और प्रश्न उनके सामने रखे जिनका उन्होंने समाधान किया. charchaa के दौरान जीवन, जगत और साहित्य से जुडी उनकी चिंताएं अभिव्यक्त हुईं. इस वार्तालाप के संपादित अंश प्रस्तुत हैं.

आनंदकृष्ण : महाराजश्री के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए मैं स्वयं को अत्यन्त गौरवान्वित और सौभाग्यशाली अनुभव कर रहा हूँ. आज के समय में प्रायः प्रत्येक भारतीय अपने समाज के अतीत के वैभव और वर्तमान की अधोगति को देख कर व्यथित और क्षुब्ध है. इस पतन का कारण क्या है ?

महाराजश्री : भारतीय परम्परा की शिक्षा का अभाव, रहन-सहन, व्यवहार, परिधान में अपनी परम्परा को त्याग कर विदेशियों का अन्धानुकरण, और भौतिकता की और दौड़ना ही वर्तमान में हमारे विघटन औत ह्रास के प्रमुख कारण हैं. हमें फिर से अपनी ही परम्परा को अपनाना होगा, उसे जगाना होगा. आज आपको मेरी बात कटु और अप्रिय लग सकती है किंतु भविष्य में हम सबको सोचना पडेगा कि हम अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अपनी संस्कृति को फिर से अपनाएँ उसे सम्मान देन और उसमें अपनी आस्था जगाये तभी हमारा समाज अपने अतीत के गौरव को पुनः संभाल सकेगा.

आनंदकृष्ण : " साहित्य समाज का दर्पण है" तो आपकी दृष्टि में साहित्य कैसा होना चाहिए-?

महाराजश्री : आपने बहुत अच्छी और ऊंची बात उठाई है. "साहित्य" को अपने व्यापक अर्थ में शब्द की शुद्धि के साथ शब्द की गरिमा, और दार्शनिकता को समेटते हुए उसे सरस बनाने की कला का रूप होना चाहिए. साहित्य में दार्शनिकता होना चाहिए, उसमें एक स्पष्ट दर्शन, और जीवन शैली की सम्यक व्याख्या होना चाहिए. इसके साथ उसमें ऐतिहासिकता हो, जिससे वह साहित्य अपने रचनाकाल के बाद भी प्रासंगिक रहे. उसमें व्याकरण की विधि-सम्मत शुद्धता होना चाहिए और इन सबके साथ उसमें सरसता होना चाहिए.

आनंदकृष्ण : महाराजश्री ! कृपया बताने की कृपा करें कि ये सारे गुण समाज में होंगे तो साहित्य में आयेंगे या साहित्य में होंगे तो समाज में आयेंगे-?

महाराजश्री : हाँ ! ये आवश्यक है कि साहित्य के द्वारा निर्धारित किए गए आदर्शों का समाज के द्वारा पालन किया जाए और उसका अनुसरण किया जाए और फिर समाज से ये मूल्य साहित्य में स्वतः ही पुनः प्रवेश करते जायेंगे. इस तरह इन शाश्वत मूल्यों का अनंत चक्र चलता रहेगा. साहित्य समाज से भिन्न रह कर नहीं चल सकता और समाज साहित्य से अलग हो कर नहीं रह सकता. दोनों अन्योन्याश्रित हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं. जिस साहित्य का अनुसरण समाज करेगा वही भविष्य का साहित्य कहलायेगा. इसलिए आज के साहित्यकारों से मैं ये भी कहना चाहता हूँ कि उन्हें सृजन के समय विशेष रूप से सावधानी रखना चाहिए. उनका रचा हुआ एक ग़लत शब्द भयंकर दुष्परिणामों का वाहक हो सकता है. शब्द को इसीलिये तो "ब्रह्म" कहा गया है.

आनंदकृष्ण : जी ! साहित्य को हम किस तरह समाजोपयोगी बना सकते हैं?

महाराजश्री : साहित्य में, जैसा कि मैंने पहले कहा, कि साहित्य में शब्द की शुद्धता, दार्शनिकता, और ऐतिहासिकता के साथ सरसता अत्यावश्यक तत्व हैं. जैसे "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियं" में "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात" ये भाग शब्द की शुद्धि, दार्शनिकता, और ऐतिहासिकता का परिचायक है और "न ब्रूयात सत्यमप्रियं" ये साहित्य के परिप्रेक्ष्य में सरसता की और संकेत है.

आनंदकृष्ण : महाराजश्री ! साहित्य में प्रायः यथार्थ और आदर्श का टकराव दिखाई देता है और यही टकराव समाज में भी दिखता है. कई बार यो यथार्थ होता है उसका आदर्श के साथ ताल-मेल नहीं होता और जो आदर्श होते हैं वे कई बार अव्यावहारिक होते हैं. ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए-?

महाराजश्री : ! वही | "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात" . सत्य अर्थात यथार्थ और प्रिय अर्थात आदर्श. दोनों के मध्य समन्वय और संतुलन स्थापित करना आवश्यक है- साहित्य में भी और जीवन में भी. अब जैसे आपने साहित्य की बात की तो साहित्यिक रचनाएं  जैसे नाटक हैं, उपन्यास हैं, कविता है- तो बिल्कुल यथार्थ ले कर चलेंगे तो सही होगा क्या-? और इनमें कोरा आदर्श होगा तो उसे कौन पढेगा-? तो आदर्श और यथार्थ में संतुलन होना आवश्यक है. और यह संतुलन बनने की कला ही सच्ची कला है- साहित्य में भी और जीवन में भी.

आनंदकृष्ण : हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के क्या प्रभाव हुए हैं.?

महाराजश्री : मेरा मानना है कि इस देश की राष्ट्रभाषा तो संस्कृत ही है, भले ही उसे घोषित नहीं किया गया है. हिन्दी तो संस्कृत से निकली बोली है. देश के बड़े भू-भाग में हिन्दी बोली जाती है इसलिए हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने से देश में वैचारिक एकता तो आई है किंतु यदि संस्कृत को राष्ट्रभाषा घोषित किया जाता तो देश में सांस्कृतिक और भावनात्मक एकता में और वृद्धि हुई होती.
आनंदकृष्ण : महाराजश्री : आप देश की जनता को क्या संदेश देना चाहेंगे-?

महाराजश्री : साहित्य के माध्यम से हम अपनी संस्कृति का सम्मान करें, उसकी यशोगाथा सुनाएँ और अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करें. मीडिया को सतर्क रहना चाहिए पिछले दिनों में मीडिया ने " हिंदू आतंकवाद" शब्द बहुत उछाला है. मैं बताना चाहता हूँ कि हिंदू न कभी आतंवादी था और न ही उसकी पृकृति ही आतंकवादी की है. ये झूठे और प्रायोजित प्रचार तत्काल बंद होना चाहिए. देश को, समाज को एक बना कर रखें. भाषा, प्रांत, जाती के नाम पर अलगाववादियों के षड्यंत्रों को समझें और उनसे बचें.
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आनंदकृष्ण, जबलपुर.
मोबाइल : 09425800818
 

poem: misguided angel --margo and michel timmins

गीत: लोकतंत्र में... --संजीव 'सलिल'


गीत: 

लोकतंत्र में... 

संजीव 'सलिल'

*
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
संसद में गड़बड़झाला है.
विधायिका में घोटाला है.
दलदल मचा रहे दल हिलमिल-
व्यापारी का मन काला है.
अफसर, बाबू घूसखोर
आशा न शेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*

रविवार, 24 जून 2012

क्षणिका: कविता कैसे बनती है अर्चना मलैया


क्षणिका:


कविता कैसे बनती है 


अर्चना मलैया
*
भावना के सागर पर 


वेदना की किरण पड़ती है 


भावों की भाप 


मानस पर जमती है. 


धीरे धीरे भाप 


मेघ में बदलती है .


मेघ फटते है , 


बरसात होती है, 


ये नन्ही-नन्ही बूँदें  


कविता होती हैं. 


********

मुक्तिका: नागरिक से बड़ा... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
नागरिक से बड़ा...
संजीव 'सलिल'
*
नागरिक से बड़ा नेता का कभी रुतबा न हो.  
तभी है जम्हूरियत कोई बशर रोता न हो..    

आसमां तो हर जगह है बता इसमें खास क्या?
खासियत हो कि परिंदा उड़ने से डरता न हो.. 

मुश्किलों से डर न तू दीपक जला ले आस का.
देख दामन हो सलामत, हाथ भी जलता न हो.. 

इस जमीं का क्या करूँ मैं? ऐ खुदा! क्यों की अता?
ख्वाब की फसलें अगर कोई यहाँ बोता न हो..

व्यर्थ है मर्दानगी नाहक न इस पर फख्र कर.
बता कोई पेड़ जिस पर परिंदा सोता न हो..

घाट पर मत जा जहाँ इंसान मुँह धोता न हो.
'सलिल' वह निर्मल नहीं जो निरंतर बहता न हो..

पदभार 26

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बालगीत: बिल्ली रानी --प्रणव भारती

बालगीत:
बिल्ली रानी
प्रणव भारती

*
 






*


एक थी प्यारी बिल्ली रानी,
शानदार जैसे महारानी|
रोज़ मलाई खाती थी वह,
मोटी होती जाती थी वह|
एक दिन सोचा व्रत करती हूँ 
वजन घटाकर कम करती हूँ|

बिल्ली ने उपवास किया,
काम न कुछ भी खास किया|
कुछ भी दिन भर ना खाया ,
उसको  फिर चक्कर आया|
मुश्किल उसको बड़ी हुई,
चुहिया देखी खड़ी हुई|

भागी चुहिया के पीछे ,
धम से गिरी छत से नीचे|
चुहिया तो थी भाग गई,
पर बिल्ली की टांग गई|
हाय-हाय कर खड़ी हुई,
बारिश की थी झड़ी हुई|

डॉक्टर को जब दिखलाया,
इंजेक्शन भी टुंचवाया|
चीखी चिल्लाई रोयी.
दूध-दवा खाई, सोयी|
"लालच में न आउंगी,

अब चूहा ना खाऊँगी "




कसरत रोज़ करूंगी अब ,
मोटी नहीं बनूंगी अब  |
बच्चों! करो न तुम लालच,
देखो बिल्ली की हालत|
कसरत नित करते रहना,
स्वास्थ्य खरा सच्चा गहना||

******

शनिवार, 23 जून 2012

रचना - प्रति रचना: ग़ज़ल मैत्रेयी अनुरूपा, मुक्तिका: सम्हलता कौन... संजीव 'सलिल'

रचना - प्रति रचना:


ग़ज़ल


मैत्रेयी अनुरूपा






*


बदल दें वक्त को ऐसे जियाले ही नहीं होते
वगरना हम दिलासों ने उछाले ही नहीं होते
उठा कर रख दिया था ताक पर उसने चरागों को
तभी से इस शहर में अब उजाले ही नहीं होते
कहानी रोज लाती हैं हवायें उसकी गलियों से
उन्हें पर छापने वाले रिसाले ही नहीं होते
पहन ली रामनामी जब किया इसरार था तुमने
कहीं रामेश्वरम के पर शिवाले ही नहीं होते
तरक्की वायदों की तो फ़सल हर रोज बोती है
तड़पती भूख के हक में निवाले ही नहीं होते
रखा होता अगरचे डोरियों को खींच कर हमने
यकीनन पंख फ़िर उसने निकाले ही नहीं होते
न जाने किसलिये लिखती रही हर रोज अनुरूपा
ये फ़ुटकर शेर गज़लों के हवाले ही नहीं होते
maitreyee anuroopa <maitreyi_anuroopa@yahoo.com>

मुक्तिका:
सम्हलता कौन...
संजीव 'सलिल'
*


*
सम्हलता कौन गिरकर ख्वाब गर पाले नहीं होते.
न पीते, गम हसीं मय में अगर ढाले नहीं होते..


न सच को झूठ लिखते, रात को दिन गर नहीं लिखते.
किसी के हाथ में कोई रिसाले ही नहीं होते..


सियासत की रसोई में न जाता एक भी बन्दा.
जो ताज़ा स्वार्थ-सब्जी के मसाले ही नहीं होते..


न पचता सुब्ह का खाना, न रुचता रात का भोजन.
हमारी जिंदगी में गर घोटाले ही नहीं होते..


कदम रखने का हमको हौसला होता नहीं यारों.
'सलिल' राहों में काँटे, पगों में छाले नहीं होते..


*


Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com

शुक्रवार, 22 जून 2012

हिंदी सलिला: पंख फैला कर उड़ पड़ी है हिंदी --दयानंद पांडेय

हिंदी सलिला
पंख फैला कर उड़ पड़ी है हिंदी
दयानंद पांडेय
 
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दयानंद पांडेयवरिष्ठ तथा चर्चित लेखक-पत्रकार. जन्म: 30 जनवरी १९५८ गांव बैदौली, गोरखपुर जिला.हिंदी में एम.ए.. 33 साल से पत्रकारिता.  डेढ़ दर्जन से अधिक उपन्यास और कहानी संग्रह. 'लोक कवि अब गाते नहीं' पर प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से प्रकाशित। ब्लाग: सरोकारनामा.
  
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      दुनिया अब हिंदी की तरफ़ बड़े रश्क से देख रही है। अमरीका, चीन जैसी महाशक्तियां भी अब हिंदी सीखने की ज़रूरत महसूस कर रही हैं और सीख रही हैं क्योंकि हिंदी जाने बिना वह हिंदुस्तान के बाज़ार को जान नहीं सकते, हिंदी के बिना उनका व्यापार चल नहीं सकता। सो वह हिंदी सीखने, जानने के लिए लालायित हैं क्योंकि हिंदी के बिना उनका कल्याण नहीं है। सच यह है कि हिंदी अब अपने पंख फ़ैलाकर उड़ने को तैयार है। यकीन मानिए कि आगामी 2050 तक हिंदी दुनिया की सब से बड़ी भाषा बनने जा रही है। अब भविष्य का आकाश हिंदी का आकाश है। अब इसकी उड़ान को कोई रोक नहीं सकता। हिंदी अब विश्वविद्यालयी खूंटे को तोड़ कर आगे निकल आई है। कोई भाषा बाज़ार और रोजगार से आगे बढती है। हिंदी अब बाज़ार की भाषा तो बन ही चुकी है, रोजगार की भी इसमें अपार संभावनाएं हैं। अब बिना हिंदी के किसी का काम चलने वाला नहीं है। भाषा विद्वान नहीं बनाते, जनता बनाती है, अपने दैनंदिन व्यवहार से। 
 
हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई इसका विधवा विलाप करने से कुछ नहीं होने वाला है। क्या हिंदी के लिए देश को तोड़ना क्या ठीक होता? क्या देश चलाने में तब क्या हिंदी सक्षम भी थी जो आप हिंदी को राष्ट्रभाषा बना लेते? क्या हम शासन चला पाते आधी-अधूरी हिंदी के साथ? हालत यह है कि आज भी हमारे पास तकनीकी शब्दावली हिंदी में पूरी नहीं है। लगभग सभी मंत्रालयों में इस पर काम चल रहा है। भाषाविद लगे हुए हैं। काम गंभीरता से हो रहा है। इसी लिए मैं कह रहा हूं कि हिंदी 2050 में दुनिया की सबसे बड़ी भाषा बनने जा रही है। कोई रोक नहीं सकता। बस ज़रूरी है कि हम आप हिंदी को अपने स्वाभिमान से जोड़ना सीखें। 
 
हमारे देश में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी लाई थी। बाद में मैकाले की शिक्षा पद्धति ने इस को हमारी गुलामी से जोड़ दिया। इसीलिए आज भी कहा जाता है कि अंग्रेज चले गए, अंग्रेजी छोड़ गए। तय मानिए कि अंग्रेजी सीख कर आप गुलाम ही बन सकते हैं, मालिक नहीं। मालिक तो आप अपनी ही भाषा सीख कर बन सकते हैं। चाहे वह हिंदी हो या कोई भी भारतीय भाषा। आज लड़के अंग्रेजी पढ कर यू.एस., यू.के. जा रहे हैं तो नौकर बन कर ही, मालिक बन कर नहीं। अगर 10 साल पहले मुझ से कोई हिंदी के भविष्य के बारे में बात करता तो मैं यह ज़रूर कहता कि हिंदी डूब रही है, लेकिन आज की तारीख में यह कहना हिंदी के साथ ज़्यादती होगी, क्योंकि हिंदी अब न सिर्फ फूलती-फलती दिखती है, बल्कि परवान चढ़ती भी दिखती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश तक अमेरीकियों से हिंदी पढ़ने को कह गए हैं, ओबामा भी कह रहे हैं। न सिर्फ़ इतना हिंदी अब ग्लोबलाइज़ भी हो गई है। जाहिर है आगे और होगी, क्यों कि हिंदी ने अब शास्त्रीय और पंडिताऊ हिंदी की कैद से छुटकारा पा लिया है। पाठ्यक्रमों वाली हिंदी के खूंटे से आज की हिंदी ने अपना पिंड छुड़ा लिया है। हिंदी आज के बाज़ार की सब से बड़ी भाषा बन गई है, हालां कि आम तौर पर अंग्रेजी की बेहिसाब बढ़ती लोकप्रियता कई बार संशय में डालती है और लोग कहते हैं कि हिंदी डूब रही है।
 
हिंदी के प्रकाशक भी जिस तरह लेखकों का शोषण कर सरकारी खरीद के बहाने हिंदी किताबों की लाइब्रेरियों में कैद कर पाठक-लेखक के बीच खाई बना रहे हैं, उससे भी हिंदी डूब रही है। प्रकाशक के पास बाइंडर तक को देने के लिए पैसा है, पर लेखक को देने के लिए उसके पास धेला नहीं है। बीते वर्षों में निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल को जिस तरह प्रकाशक के खिलाफ खड़ा होना पड़ा, रायल्टी के लिए यह स्थिति हिंदी को डुबोनेवाली है। महाश्वेता देवी जैसी लेखिका को भी बांगला प्रकाशक से नहीं, हिंदी प्रकाशक से शिकायत है। यह स्थिति भी हिंदी को डुबोने वाली है। आज हिंदी का बड़ा से बड़ा लेखक भी हिंदी में लेखन कर रोटी, दाल या घर नहीं चला सकता। यह स्थिति भी हिंदी को डुबोने वाली है। 
 
एक और आंकड़ा भी हिंदी का दिल हिला देने वाला है। वह यह कि हर छठवें मिनट में एक हिंदी भाषी अंग्रेजी बोलने लगता है। यह चौंकाने वाली बात एंथ्रोपॉलीजिकल सर्वे आफ़ इंडिया ने अपनी ताज़ी रिपोर्ट में बताई है। संतोष की बात है कि इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है हर पांच सेकेंड में हिंदी बोलनेवाला एक बच्चा पैदा हो जाता है। गरज यह है कि हिंदी बची रहेगी। पर सवाल यह है कि उस की हैसियत क्या होगी? क्योंकि रिपोर्ट इस बात की तसल्ली तो देती है कि हिंदीभाषियों की आबादी हर पांच सेकेंड में बढ़ रही है, लेकिन साथ ही यह भी चुगली खाती है कि हिंदीभाषियों की आबादी बेतहाशा बढ़ रही है। जिस परिवार की जनसंख्या ज्यादा होती है, उसकी दुर्दशा कैसे और कितनी होती है यह भी हम सभी जानते हैं। 
 
हिंदी आज से 10-20 साल पहले जिस गति को प्राप्त हो रही थी, हिंदी सप्ताह व हिंदी पखवारे में समा रही थी, लग रहा था कि हिंदी को बचाने के लिए जल्दी ही कोई परियोजना भी शुरू करनी पड़ेगी। जैसा कि पॉली और संस्कृत भाषाओं के साथ हुआ है। लेकिन परियोजनाएं क्या भाषाएं बचा पाती हैं? सरकारी आश्रय से भाषाएं बच पाती हैं? अगर बच पातीं तो उर्दू कब की बच गई होती। सच यह है कि कोई भी भाषा बचती है तो सिर्फ़ इस लिए कि उसका बाज़ार क्या है? उसकी ज़रूरत क्या है? उसकी मांग कहां है? वह रोजगार दे सकती है क्या? या फिर रोजगार में सहायक भी हो सकती है क्या? अगर नहीं तो किसी भी भाषा को आप हम क्या कोई भी नहीं बचा सकता। संस्कृत, पाली, उर्दू जैसी भाषाएं अगर बेमौत मरीं हैं तो सिर्फ़ इस लिए कि वह रोजगार और बाजार की भाषाएं नहीं बन सकीं। चाहें उर्दू हो या संस्कृत हो या पाली, जब तक वह कुछ रोजगार दे सकती थीं, चलीं। लेकिन पाली का तो अब कोई नामलेवा ही नहीं है। बहुतेरे लोग तो यह भी नहीं जानते कि पाली कोई भाषा भी थी। इतिहास के पन्नों की बात हो गई है पाली। 
 
लेकिन संस्कृत? वह पंडितों की भाषा मान ली गई है और जनबहिष्कृत हो गई है। इसलिए भी कि वह बाज़ार में न पहले थीं और न अब कोई संभावना है। उर्दू एक समय देश की मुगलिया सल्तनत में सिर चढ़कर बोलती थी। उसके बिना कोई नौकरी मिलनी मुश्किल थी। जैसे आज रोजगार और बाज़ार में अंग्रेजी की धमक है, तब वही धमक उर्दू की होती थी। बड़े-बड़े पंडित तक तब उर्दू पढ़ते-पढ़ाते थे। मुगलों के बाद अंग्रेज आए तो उर्दू धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई। फिर जैसे संस्कृत पंडितों की भाषा मान ली गई थी, वैसे ही उर्दू मुसलमानों की भाषा मान ली गई। आज की तारीख में उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में राजनीतिक कारणों से वोट बैंक के फेर में उर्दू दूसरी राजभाषा का दर्जा भले ही पाई हुई हो, लेकिन रोजगार की भाषा अब वह नहीं है और न ही बाज़ार की भाषा है। सो, उर्दू भी अब इतिहास में समाती जाती दिखती है। उर्दू को बचाने के लिए भी राजनेता और भाषाविद् योजना-परियोजना की बतकही करते रहते हैं। पुलिस, थानों तथा कुछ स्कूलों में भी मूंगफली की तरह उर्दू-उर्दू हुआ है। पर यह नाकाफी है और मौत से बदतर है।
 
हां, हिंदी ने इधर होश संभाला है और होशियारी दिखाई है। रोजगार की भाषा आज अंग्रेजी भले हो पर बाज़ार की भाषा तो आज हिंदी है और लगता है आगे भी रहेगी क्या, दौड़ेगी भी। कारण यह है कि हिंदी ने विश्वविद्यालयी हिंदी के खूंटे से अपना पिंड छुड़ा लिया है। शास्त्रीय हदों को तोड़ते हुए हिंदी ने अपने को बाज़ार में उतार लिया है और हम विज्ञापन देख रहे हैं कि दो साल तक टॉकटाइम फ्री, लाइफ़ टाइम प्रीपेड, दिल मांगे मोर हम कहने ही लगे हैं। इतना ही नहीं, अंग्रेजी अखबार अब हिंदी शब्दों को रोमन में लिख कर अपनी अंग्रेजी हेडिंग बनाने लगे हैं। अरविंद कुमार जैसे भाषाविद् कहने लगे हैं कि विद्वान भाषा नहीं बनाते। भाषा बाज़ार बनाती है। भाषा व्यापार और संपर्क से बनती है। हिंदी ने बहुत सारे अंग्रेजी, पंजाबी, कन्नड़, तमिल आदि शब्दों को अपना बना लिया है। इस लिए हिंदी के बचे रहने के आसार तो दिखते हैं। 
 
आधुनिक हिंदी के विकास एवं विस्तार में जाएं तो हम पाते हैं कि भिन्न-भिन्न भाषाओं के देश में आने, भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के संपर्क में आने से हिंदी को बखूबी बढ़ावा मिला है। हिंदी से यहां हमारा अभिप्राय खड़ी बोली से है। हम ब्रज भाषा,भोजपुरी, मैथिली, अवधी आदि भाषाओं के पिछड़ेपन को देखें तो बात ज़्यादा आसानी से समझ में आती है। वह भाषाएं अपने पुराने कलेवर राधा-कृष्ण (ब्रज भाषा), रामचरित मानस (अवधी) से आगे कुछ लेने को तैयार नहीं। इनके बोलने वालों ने अपने को भूतकाल में कैद कर रखा है। लेकिन खड़ी बोली यानी हिंदी ने ऐसा नहीं किया है। अमीर खुसरो जैसों ने हिंदी को एक नया विकास दिया है। नया तेवर और नया शिल्प दिया। बाद में इस की प्रगति उर्दू के नाम पर जो उस जमाने में अलग भाषा नहीं बन पाई थी, बल्कि हिंदी को देवनागरी की जगह फारसी लिपी में लिखी मर गई थी। कबीर, मीर तकी मीर और नज़ीर अकबराबादी जैसे शायर इस बात के प्रमाण हैं। उर्दू लिपि में लिखी जाने से पद्मावत उर्दू नहीं बन जाती। वह रहती अवधी ही है। ऐसे उदाहरण इस तरफ भी इशारा करते हैं कि अवधी आदि भाषाओं ने अपनी शब्दावली में नए शब्द लेने से इंकार कर दिया और नए भावों को अपनी भाषा में नहीं लिया, तो पिछड़ी रह गई। हमारी हिंदी के पाठ्यक्रमों में प्राचीन काव्य और साहित्य के नाम पर यही आंचलिक भाषाएं और उन के कवि सम्मिलित किए जाते हैं। जो बहुत हद तक इस के पीछे उन्नीसवीं शताब्दी की वह होड़ है, जो अंग्रेजी शिक्षाविदों ने हिंदी और उर्दू को अलग करने के लिए इन भाषाओं को धार्मिक रंग देने के लिए किया।
 
खड़ी बोली के विकास में अमीर खुसरो के बाद नई बातों, भावों, विषयों को लेने और उठाने की क्षमता पैदा हो चुकी थी। इस लिए उस का विकास अनुवादों, शुरू में बाइबिल आदि, बाद में समाचारों, लेखों, कविता, कहानियों आदि का विकास तेज़ी से हुआ तो इसके पीछे पढ़े-लिखे लोगों की पूरी फौज थी। यह लोग अंग्रेजी पढ़े-लिखे थे। इन सब ने नए भाव लिए थे, नई जानकारी पाई थी। हमारा आधुनिक हिंदी साहित्य अगर आज आधुनिक है तो इस के पीछे स्वयं अग्रेजी और अंग्रेजी के माध्यम से विश्व भर के साहित्य से हमारा संपर्क है। हमारी आज़ादी की लड़ाई, आर्य समाज जैसे सुधार आंदोलनों के पीछे अंग्रेजी भाषा और यूरोप के सामाजिक, राजनैतिक विचारधाराओं का हमारे नेताओं द्वारा आत्मसात किया जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण है। स्वामी दयानंद एक हद तक क्रिश्चियन आंदोलन के विरुद्ध हिंदू धर्म के समर्थन और उस की रक्षा का कार्य कर रहे थे। 
 
कई बार तो लगता कि अगर अंग्रेजी के माध्यम से हम लोग पूरी दुनिया के संपर्क में न आए होते या खुदा ना खास्ता 1857 का आंदोलन सफल हो गया होता तो शायद हम आज तक वहीं होते, जहां आज अफगानिस्तान या ईरान हैं। बात कुछ अटपटी है ज़रूर और तल्ख भी, पर सच्चाई यही है। अब वैश्वीकरण के युग में देश-विदेश से हम लोगों का संबंध केवल उच्च वर्ग तक ही सीमित नहीं रह पाएगा। गांव के लोग, छोटी जातियों के लोग भी अब तेज़ी से अंग्रेजी पढ़ रहे हैं। जैसे उच्च वर्ग के लोगों ने अपने भारतीय संस्कार नहीं छोड़े, बल्कि उन्हें बदला। उसी तरह यह नए लोग बहुत गहरे तक अंग्रेजी शिक्षा पा कर अपना सुधार तो करेंगे ही अपनी भाषा को भी नया रंग देंगे। आज मध्यम वर्ग जो अंग्रेजी मिश्रित भाषा बोलता है, वह इस बात का प्रमाण है कि हम हिंदी में नई शब्दावली स्वीकार कर रहे हैं। हमने अरबी, फारसी से शब्द लिए तो हम गरीब नहीं, अमीर हुए। और आज अंग्रेजी से हिंदी में कुछ शब्द ले रहे हैं तो भी हम अमीर ही हो रहे हैं, गरीब नहीं। आज की पीढ़ी ने और आज के अखबारों ने जो नई भाषा बनानी शुरू की है, वही हिंदी को और हमें आगे ले जाएगी। पंडिताऊ हिंदी से छुट्टी पा कर ही हिंदी गद्य और पद्य में क्रांतिकारी बदलाव स्पष्ट दिखाई देते हैं।
 
हिंदी के भविष्य की बात करें और हिंदी सिनेमा की बात न करें तो शायद यह गलती होगी। सच यही है कि हिंदी भाषा के विकास में हमारी हिंदी फ़िल्मों और हिंदी गानों की भी बहुत बड़ी भूमिका है। सिनेमा दादा फाल्के के जमाने से ले कर अब तक हमारे लिए हमेशा नई और विदेशी टेक्निक थी और रहेगी। बोलने वाली फ़िल्मों का अविष्कार भी हमारे लिए नया जमाना ले कर आया। हमने विदेशी टेक्निक का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया। दादा फाल्के ने पहली फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी। दादा फाल्के ने अपनी देखी पहली फ़िल्म के अनुभव पर लिखा है कि परदे पर मैं क्राइस्ट को देख रहा था और मेरे मन में कृष्ण का चरित्र चित्रों में चल रहा था। हिंदी फ़िल्में पूरी दुनिया में अभारतीयों को भी आकर्षित करती हैं। एक समय आवारा हूं जैसे गीत दुनिया भर के लोग गाते दिखते थे। रूस में, मिश्र में, अरब में, हर कहीं। आज फ़िल्म और फ़िल्मी गीत प्रवासी भारतीयों को भारत से जोड़े रखती है। उन की वह संतान जो विदेशों में पैदा हुई है और हिंदी पढ़ना-लिखना नहीं जानती है, लेकिन हिंदी फ़िल्मी गीत समझती है। और उन्हें सुनना चाहती है। हिंदी पढ़ना चाहती है।
 
यह अद्भुत संयोग ही है कि अमरीका में एक तरफ पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश अमेरिकियों से हिंदी पढ़ने के लिए कह गए तो आज ओबामा भी हिंदी पढने को कह रहे हैं। तो दूसरी तरफ अमरीका में ही एक भारतीय अविनाश चोपड़े ने रोमन स्क्रिप्ट में हिंदी लिखने की जो नई विधि (आईटीआरएएनएस) बनाई है, उसके द्वारा अनगिनत लोग हिंदी में लिख रहे हैं। यहां तक कि संस्कृत का डॉ. लोनियर का प्रसिद्ध कोश भी अब इंटरनेट पर आईटीआरएएनएस में उपलब्ध है। यह हिंदी के विकास का नया आकाश है। इंटरनेट पर या मोबाइल फ़ोन पर रोमन लिपि में ही सही हिंदी में चैटिंग और चिट्ठी-पत्री अबाध रूप से जारी है। अब विभिन्न टीवी चैनलों पर जो हिंदी बोली जा रही है, वह सारी दुनिया में पहुंच रही है, रेडियो की समाचारी हिंदी, हिंदी भाषा को सीमित कर रही थी, अब वह हिंदी अपने रुपहले पंख फैला कर उड़ पड़ी है। उड़ पड़ी है अनंत आकाश को नापने।
 
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ग़ज़ल दोहा: राधा धारा प्रेम की.... संजीव 'सलिल'

ग़ज़ल दोहा:
राधा धारा प्रेम की....
संजीव 'सलिल'
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राधा धारा प्रेम की, श्याम स्नेह-सौगात.
बरसाने में बरसती, बिन बरसे बरसात..

माखनचोर चुरा रहा, चित बनकर चितचोर.
सुनते गोपी-गोपिका नित नेहिल नगमात..

जो बोया सो काटता, विषधर करिया नाग.
ग्वाल-बाल गोपाल के असहनीय आघात..

आँख चुरा मुँह फेरकर, गया दिखाकर पीठ.
नहीं बेवफा वफ़ा ने, बदल दिये हालात.
  
तंदुल ले त्रैलोक्य दे, कभी बढ़ाए चीर.
गीता के उपदेश में, भरे हुए ज़ज्बात..

रास रचाए वेणुधर, ले गोवर्धन हाथ,
देवराज निज सिर धुनें, पा जनगण से मात..

पट्टी बाँधी आँख पर, सच से ऑंखें फेर.
नटवर नन्दकिशोर बिन, कैसे उगे प्रभात?

सत्य नीति पथ पर चले, राग-द्वेष से दूर.
विदुर समुज्ज्वल दिवस की, कभी न होती रात..

नेह नर्मदा 'सलिल' की, लहर रचाए रास.
राधा-मीरा कूल दो, कृष्ण-कमल जलजात..

कुञ्ज गली में फिर रहा, कर मन-मंदिर वास.
हुआ साँवरा बावरा, 'सलिल' सृष्टि-विख्यात..

२२.०८.२००५
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दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक





Solvey Conference 1927

दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों का  साल्वे में सम्मिलन १९२७ 

सारी दुनिया से आये, सारी दुनिया पे छाये, बैठे एक साथ मिल, न कहो अनेक हैं.

मानव की सेवा करें, पर नहीं मेवा वरें, ऐसा कुछ देवा करें, इरादे तो नेक हैं..

पीर को मिटा सकें, धीर को जिता सकें, साथ-साथ हाथ लिये, चेतनविवेक हैं.

पूत विज्ञान के हैं, दूत अरमान के हैं, शांति अभियान पे हैं, इंसान एक हैं.

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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गुरुवार, 21 जून 2012

:छंद सलिला: घनाक्षरी --संजीव 'सलिल'



:छंद सलिला:
घनाक्षरी 
संजीव 'सलिल'
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सघन संगुफन भाव का, अक्षर अक्षर व्याप्त.
मन को छूती चतुष्पदी, रच घनाक्षरी आप्त..
तीन चरण में आठ सात चौथे  में अक्षर.
लघु-गुरु मात्रा से से पदांत करते है कविवर..
*
लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|

लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|

भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|

छल-छद्म, दाँव-पेंच, द्वंद-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|


पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|

चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|

गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|

आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|

चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|

गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
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ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|


मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|

मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|

रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||
(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली  

जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए|  

ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक हो अभावबिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए|

किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़फालतू करें होड़, नेह सों निबाहिए|  

हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों वाम, देस-वारी जाइए||


छत्तीसगढ़ी

अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसानधरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे|  

बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहावमहुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे|

बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको ओतियाय, टूरी इठलावथे|  

भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोलघोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे||  


निमाड़ी

गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव s बटोs वोs, उल्लूs की दुम हुयो

मनख
s को सुभाsव छे, नहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो|

टीला
पाणी झाड़s नद्दी, हाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो|

 
'सलिल' आँसू वादsला, धsरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूरs माsतम हुयो||

मालवी:

दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम|
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम||


कवित्त
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पे, फूल नभ से झरे|
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे|
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर धरे|
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे टरे||
 राजस्थानी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़ तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?, होड़ तरां-तरां का.||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का||
हिन्दी+उर्दू
दर्दे-दिल पीरो-गम, किसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखें, हँस-मुस्कुराइए|
हुस्न के ऐब देखें, देखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिल, वारी-वारी जाइए|
नाज़ो-अदा नाज़नीं के, देख परेशान हों, आशिकी की रस्म है कि, सिर भी मुड़ाइए|
चलिए ऐसी चाल, फालतू मचे बवाल, कोई करें सवाल, नखरे उठाइए||
भोजपुरी
चमचम चमकल, चाँदनी सी झलकल, झपटल लपकल, नयन कटरिया|
तड़पल फड़कल, धक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिल, गिरल बिजुरिया|
निरखल परखल, रुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पग, धरल गुजरिया|
छिन-छिन पल-पल, पड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चल, चपल संवरिया||
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