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गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

मुक्तिका: ---संजीव 'सलिल'


मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'                                                                             
*
लफ्ज़ लब से फूल की पँखुरी सदृश झरते रहे.
खलिश हरकर ज़िंदगी को बेहतर करते रहे..

चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे..

आँख से आँखें मिलाकर, आँख में कब आ बसे?
मूँद लीं आँखें सनम सपने हसीं भरते रहे..

ज़िंदगी जिससे मिली करते उसीकी बंदगी.
है हकीकत उसी पर हर श्वास हम मरते रहे..

कामयाबी जब मिली सेहरा सजा निज शीश पर-
दोष नाकामी का औरों पर 'सलिल' धरते रहे..

****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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बुधवार, 18 अप्रैल 2012

दोहा सलिला: धूप-छाँव दोहा-यमक --संजीव 'सलिल

दोहा सलिला:
धूप-छाँव दोहा-यमक
संजीव 'सलिल
*
शब नम आँखें मूँदकर, सहे तिमिर धर धीर.
शबनम की बूँदें कहें, असह हुई थी पीर..
*
मत नट वर, नटवर वरे, महकी प्रीत कदम्ब.
सँकुच लाजवंती हुई, सहसा आयीं अम्ब.. 
*
छीन रही कल छुरी से, मौन कलछुरी छीन.
चमचे के गुण गा आरही, चमची होकर दीन..
*
छान-बीनकर बात कर, कोई न हो नाराज.
छान-बीनकर जतन से, रखिए 'सलिल' अनाज..
*
अगर मिले ना राज तो,  राजा हो नाराज.
राज मिले तो हो मुदित, सिर पर धारे ताज.
*
भय का भूत न भूत से, आकर डँस ले आज.
रख खुद पर विश्वास मन,करता चल निज काज..
*
लगे दस्त तो दस्त ही, करता चुप रह साफ़.
क्यों न करो तुम भी 'सलिल', त्रुटि औरों की माफ़?.
*
हरदम हर दम का रखें, नाहक आप हिसाब.
चलती खुद ही धौंकनी, बँटे-मिटते ख्वाब..
*
बुनकर बुन कर से रहा, कोरी चादर रोज.
कोरी चादर क्यों नहीं?, कर कुछ इसकी खोज..
*
पत्र-कार मत खोजिये, होंगे आप निराश.
पत्रकार को सनसनी की ही, रही तलाश..
*
अमा नत हुए क्यों नयन?, गुमी अमानत आज.
नयन उठा कैसे करें, बात? आ रही लाज..
*
..Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

भजन: क्यों सो रहा?..... संजीव 'सलिल'


भजन:
क्यों सो रहा?.....
संजीव 'सलिल'
*
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है.
चिड़िया चहक-चहक कर, नव आस बो रही है...
*
मंजिल है दूर तेरी, कोई नहीं ठिकाना.
गैरों को माने अपना, तू हो गया दीवाना..
आये घड़ी न वापिस जो व्यर्थ खो रही है...
*
आया है हाथ खाली, जायेगा हाथ खाली.
रिश्तों की माया नगरी, तूने यहाँ बसा ली..
जो बोझ जिस्म पर है, चुप रूह धो रही है...
*
दिन-सोया रात-जागा, सपने सुनहरे देखे.
नित खोट सबमें खोजे, नपने न अपने लेखे..
आँचल के दाग सारे, की नेकी धो रही है...
***
 
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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सोमवार, 16 अप्रैल 2012

कवि और कविता : कवियत्री पूर्णिमा वर्मन

कवि और कविता : कवियत्री पूर्णिमा वर्मन

पूर्णिमा वर्मन 

पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) के मनोरम प्राकतिक वातावरण में जनमी (जन्म तिथि २७ जून १९५५) और पली-बढीं पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती। बाद में आप यूं ए ई में प्रवास करने लगी । आपने संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि सहित पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। आपके जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा- जीव मात्र से प्रेम और उसके कल्याण के लिए निरंतर कार्य करते रहना, पत्रिकारिता के माध्यम से। साथ ही भारतीय संस्कृति और हिन्दी की पहचान और सम्मान को बनाये रखने के लिए भी आपका अवदान सराहनीय है।

पिछले पचीस सालों में लेखन, संपादन, फ्रीलांसर, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त। साथ ही आप न केवल एक अच्छी नवगीतकार है, बल्कि आपने हिन्दी गीत और नवगीत के क्षेत्र में भी नवगीत की पाठशाला और अनुभूति के माध्यम से उल्लेखनीय कार्य किया है। आपकी प्रकाशित कृतियां : वक्त के साथ (कविता संग्रह) और वतन से दूर (संपादित कहानी संग्रह)। चिट्ठा : चोंच में आकाश, एक आँगन धूप, नवगीत की पाठशाला,शुक्रवार चौपाल, अभिव्यक्ति अनुभूति। आपकी कई रचनाओं का अनुवाद हो चुका है- फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में) आदि। 

वेब पर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के अपने प्रयत्नों के लिए आपको २००६ में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान[3], २००८ में रायपुर छत्तीसगढ़ की संस्था सृजन सम्मान द्वारा हिंदी गौरव सम्मान[4], दिल्ली की संस्था जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार [5]से विभूषित किया जा चुका है।[6] संप्रति: शारजाह, संयुक्त अरब इमारात में निवास करने वाली पूर्णिमा वर्मन हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी होने के साथ साथ हिंदी विकिपीडिया के प्रबंधकों में से भी एक हैं।[8] संपर्क : abhi_vyakti@hotmail.com

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
१. दर्द हरा है

टुकड़े टुकड़े 

टूट जाएँगे
मन के मनके
दर्द हरा है

ताड़ों पर 

सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी 

तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

गुलमोहर-सी जलती है
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर 

हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी 

भटक रहीं सब
प्रेम कथाएँ
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है
। 

२. 
सच में बौनापन 

जीवन की आपाधापी में
खोया खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन
लगता है

दौड़ बड़ी है 

समय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है

चैन कहाँ 

अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर खप कर के-
जितना जोड़ा
कितना भी हो 

कम लगता है

सफलताओं का 

नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा-
ऐसा हर पल
सच में 

बौनापन लगता है

खून-ख़राबा 

मारा-मारी
कहाँ जाए 
जनता बेचारी
आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन 

लगता है। 

३. राजतंत्र की हुई ठिठोली


सडकों पर हो रही सभाएँ
राजा को-
धुन रही व्यथाएँ

प्रजा
कष्ट में चुप बैठी थी
शासक की किस्मत ऐंठी थी
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
राजतंत्र की हुई ठिठोली
अखबारों-
में छपी कथाएँ

दुनिया भर में
आग लग गई
हर हिटलर की वाट लग गई
सहनशीलता थक कर टूटी
प्रजातंत्र की चिटकी बूटी
दुनिया को-
मथ रही हवाएँ

जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ
। 

४. माया में मन

दिन भर गठरी 
कौन रखाए
माया में मन कौन रमाए

दुनिया ये आनी जानी है
ज्ञानी कहते हैं फ़ानी है
चलाचली का-
खेला है तो
जग में डेरा कौन बनाए
माया में मन कौन रमाए

कुछ ना जोड़े संत फ़कीरा
बेघर फिरती रानी मीरा
जिस समरिधि में-
इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए
माया में मन कौन रमाए

***
आभार : पूर्वाभास 

दोहा सलिला: दोहा कहे मुहावरे --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा कहे मुहावरे
संजीव 'सलिल'
*
'अपने मुँह मिट्ठू बने', मियाँ हकीकत भूल.
खुद को कोमल कहे ज्यों, पैना शूल बबूल.१.
*
'रट्टू तोता' बन करें, देश-भक्ति का जाप.
लूट रहे हैं देश को, नेताजी कर पाप.२.
*
कभी न देखी महकती, 'सलिल' फूल की धूल.
किन्तु महक-खिलता मिला, हमें 'धूल का फूल'.३.
*
दिनकर ने दिन कर कहा, 'जो जागे सो पाय'.
'जो सोये सो खोय' हर, अवसर व्यर्थ गंवाय.४.
*
'जाको राखे साइयाँ', वाको मारे कौन?
नजर उतारें व्यर्थ मत, लेकर राई-नौन.५.
*
'अगर-मगर कर' कर रहे, पाया अवसर व्यर्थ.
'बना बतंगड़ बात का', 'करते अर्थ अनर्थ'.६.
*
'चमड़ी जाए पर नहीं दमड़ी जाए' सोच.
जिसकी- उसकी सोच में, सचमुच है कुछ लोच.७.
*
'कुछ से 'राम-रहीम कर', कुछ से 'कर जय राम'.
'राम-राम' दिल दे मिला, दूरी मिटे तमाम.८.
*
सर कर सरल न कठिन तज, कर अनवरत प्रयास.
'तिल-तिल जल' दीपक हरे, तम दे सतत उजास.९.
*
जब खाल से हो सामना, शिष्ट रहें नि:शब्द.
'बाल न बाँका कर सके', कह कोई अपशब्द.१०.
*
खल दे सब जग को खलिश, तपिश कष्ट संताप.
औरों का 'दिल दुखाकर',  करता है नित पाप.११.
*

एक कविता: शब्द-अर्थ के भाव सागर में... --संजीव 'सलिल'

एक कविता:
शब्द-अर्थ के भाव सागर में...
संजीव 'सलिल'
*
शब्द-अर्थ के भवसागर में कलम-तरणि ले छंद तैरते.
शिल्प-घाट पर भाव-तरंगों के वर्तुल शत सिकुड़-फैलते.

कथ्यों की पतवार पकड़कर, पात्र न जाने क्या कुछ कहते.
नवरस कभी हँसा देते हैं, कभी नयन से आँसू बहते.

घटना चक्र नचाता सबको, समय न रहता कभी एक सा.
पर्वत नहीं सहारा देता, तिनका करता पार नेंक सा.

कवि शब्दों के अर्थ बदलकर, यमक-श्लेष से काव्य सजाते.
रसिकजनों को अलंकार बिन, काव्य-कथन ही नहीं सुहाते..

गया दवाखाना डॉक्टर पर, भूल दवाखाना जाता है.
बाला बाला के कानों में, सजता सबके मन भाता हैं..

'अश्वत्थामा मरा' द्रोण ने, सुना द्रोण भर अश्रु बहाये.
सर काटा सर किया युद्ध, हरि दाँव चलें तो कौन बचाये?

बीन बजाता काल सपेरा, काम कामिनी पर सवार है.
नहीं रही निष्काम कामना, बीन कर्मफल हुई हार है.

जड़कर जड़ पत्थर सोने में, सोने की औषधि खाते है.
जाग न पाते किन्तु जागकर, पानी-पानी हो जाते हैं.

नहीं आँख में पानी बाकी, नित पानी बर्बाद कर रहे.
वृक्षारोपण कहते हैं पर, पौधारोपण सतत कर रहे.

है 'दिवाल' हिन्दी भाषा की, अंग्रेजी में भी 'दि वाल' ही.
ढाल ढाल बचना चाहा पर, फिसल ढाल पर हैं निढाल ही.

शब्द-अर्थ का सागर गहरा, खाना खा ना हो छलता है.
अर्थ अर्थ बिन कर अनर्थ, संझा का सूरज बन ढलता है.

ताना ताना अगर अधिक तो, बाना सहज न रह पाता है.
बाना बाँटे मौन कबीरा, सुने कबीरा सह जाता है.

हो नि:शब्द हर शब्द बोलता, दिनकर दिन कर मुस्काता है.
शेष डोलता पल भर भी यदि, शेष न कुछ भी रह पाता है..

हर विधि से हर दिन ठगता जग, विधि-हरि-हर हो मौन देखते.
भोग चढ़ा कर स्वयं खा रहे, क्या निज करनी कभी लिखते?

अर्थ बदलते शब्दों के तब, जब प्रसंग परिवर्तित होते.
'सलिल'-धार से प्यास बुझाते, कभी फिसलकर खाते गोते.
***  
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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रविवार, 15 अप्रैल 2012

मुक्तिका: सपने --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सपने
संजीव 'सलिल'
*
अनजाने ही देखे सपने.
सपने जो हैं बिलकुल अपने.

सपने में कडवा सच देखा.
बिलकुल बेढब जग के नपने..

पाठ पढ़ाते संत त्याग का.
लगे स्वार्थ की माला जपने..

राजहंस की बिरादारी में
बगुले भाई लगे हैं खपने..

राजनीति दलदल की नगरी.
रथ के चक्र लगे हैं गपने..

अंगारों से ठंडक मिलती.
हिम की शिला लगी है तपने..

चीन्ह-चीन्ह कर बंटी रेवड़ी.
हल्दी-हाथ लगे हैं थपने..
********

एक कविता: सपने में अमन - संजीव 'सलिल'

एक कविता
सपने में अमन

संजीव 'सलिल'
*
'मैंने सपने में अमन देखा है'
एक बच्चे ने हँस कहा मुझसे.
*
दूसरा दूर खड़ा बोल पड़ा:
'मुझको सपने में गोल रोटी दिखी.'
*
तीसरे ने बताया ख्वाब तभी:
'मैंने शिक्षक को पढ़ाते देखा.'
*
चौथा बोला कि उसने सपने में
काम करते हुए बाबू देखा.
*
मौन तज एक बेटी धीरे से
बोली:'मैया ने आज सपने में
मुझे भैया के जैसे प्यार किया.'
*
एक रोगी कराहकर बोला:
'ख्वाब में मेरे डॉक्टर आया,
फीस माँगी नहीं इलाज किया
मेरा सिर घूम रहा चकराया.'
*
'तौल पूरी, बकाया चिल्लर भी
स्वप्न में सेठ ने लौटाए हैं.'
*
'बिना मांगे दहेज़ दूल्हे ने
शादी अपनी विहँस रचाई है.'
*
'खाकी वर्दी ने सही जाँच करी
ये न पाया कि तमाशाई है.'
*
'मेरे सपने में आये नेता ने
अपना बुत चौक से हटाया है.'
*
'पाक ने बंद कैदी छोड़ दिये
और आतंक भी मिटाया है'
*
जितने सपने हैं मेरे अपने हैं
काश साकार 'सलिल' हो पायें.
देवता फिर तभी जनम लेंगे-
आदमी आदमी जो हो जायें.
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गीत सलिला; आज फिर... --संजीव 'सलिल'

गीत सलिला;
आज फिर...
संजीव 'सलिल'
*
आज फिर 
माँ का प्यार पाया है...
पुष्प कचनार मुस्कुराया है.
रूठती माँ तो मुरझता है गुल,
माँ हँसी तो ये खिलखिलाया है...
*
आज बहिना 
दुलार कर बोली:
'भाई! तेरी बलैयाँ लेती हूँ.'
सुन के कचनार ने मुझे देखा 
नेह-निर्झर नवल बहाया है....
*
आज भौजी ने
माथा चूम लिया.
हाथ पर बाँध दी मुझे राखी.
भाल पर केसरी तिलक बनकर
साथ कचनार ने निभाया है....
*
आज हमदम ने
नयन से भेजी
नेह पाती नयन ने बाँची है.
हंसा कचनार झूम भू पे गिरा
पल में संशय सभी मिटाया है....
*
आज गोदी में 
बेटा-बिटिया ले
मैंने सपने भविष्य के देखे.
दैव के अंश में नवांश निरख
छाँह कचनार साथ लाया है....
******
कचनार =
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गीत: हरसिंगार मुस्काए --संजीव 'सलिल'

गीत:

हरसिंगार मुस्काए

संजीव 'सलिल'
*
खिलखिलायीं पल भर तुम
हरसिंगार मुस्काए

अँखियों के पारिजात
उठें-गिरें पलक-पात
हरिचंदन देह धवल
मंदारी मन प्रभात
शुक्लांगी नयनों में
शेफाली शरमाए

परजाता मन भाता
अनकहनी कह जाता
महुआ तन महक रहा
टेसू रंग दिखलाता
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाए

पनघट खलिहान साथ,
कर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए
*
हरसिंगार पर्यायवाची: हरिश्रृंगार, परिजात, शेफाली, श्वेतकेसरी, हरिचन्दन, शुक्लांगी, मंदारी, परिजाता,  पविझमल्ली, सिउली, night jasmine, coral jasmine, jasminum nitidum, nycanthes arboritristis, nyclan, 

संजीव सलिल
जबलपुर

गीत: जिसने सपने देखे --संजीव 'सलिल'


गीत:
जिसने सपने देखे
संजीव 'सलिल'
*
 जिसने सपने देखे,
उसको हँसते देखा...
*
निशा-तिमिर से घिरकर मन ने सपना देखा.
अरुण उगा ले आशाओं का अभिनव लेखा..

जब-जब पतझर मिला, कोंपलें नव ले आया.
दिल दीपकवत जला, उजाला नव बिखराया..

भ्रमर-कली का मिलन बना मधु जीवनदायी.
सपनों का कंकर भी शंकर सम विषपायी..

गिरकर उठने के
सपनों का करिए लेखा.
जिसने सपने देखे,
उसको हँसते देखा...
*
सपने बुनकर बना जुलाहा संत कबीरा.
सपने बुने न लोई मति, हो विकल अधीरा..

सपने नव निर्माणों के बुनता अभियंता.
करे नाश से सृजन, देख सपने भगवंता..

मरुथल को मधुबन, 'मावस को पूनम करता.
संत अनंत न देखे, फिर भी उसको वरता..

कर सपना साकार
खींचकर कोशिश रेखा.
जिसने सपने देखे,
उसको हँसते देखा...
*

गीत- तुम मुसकायीं... ---संजीव 'सलिल'

गीत-
तुम मुसकायीं...
संजीव 'सलिल'
*
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.

अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.

कर प्रयास का थाम
मुग्ध नव आशा झूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
धूप सुनहरी
रूप देखकर मचल रही है.
लेख उमंगें पुरवैया खुश
उछल रही है.

गीत फागुनी, प्रीत सावनी
अचल रही है.
पुरा-पुरातन रीत-नीत
नित नवल रही है.

अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
हाथ बाँधकर मुट्ठी देखे
नील गगन को.
जिव्हा पानकर घुट्टी
चाहे लगन मगन को.

श्रम न देखता बाधा-अडचन
शूल अगन को.
जब उठता पग, सँग-सँग पाता
'सलिल' शगन को.

नेह नर्मदा नहा,
झूम मंजिल को छूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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नीरज के गीत


युगकवि नीरज के गीत

*
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
भूल गया है तू अपना पथ और नहीं पंखों में भी गति,
किन्तु लौटना पीछे पथ पर- अरे! मौत से भी है बदतर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
मत दर प्रलय झकोरों से तू, बढ़ आशा-हलकोरों से तू,
क्षण में अरिदल मिट जायेगा- तेरे पंखों से पिसकर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
यदि तू लौट पड़ेगा थककर, अंधड़ काल बवंडर से डर,
प्यार तुझे करनेवाले ही- देखेंगे तुझको हँस-हँसकर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
और मिट गया चलते-चलते, मंजिल पथ तय करते-करते,
तेरी खाक चढ़ाएगा जग- उन्नत भाल औ' आँखों पर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

 *
छिप-छिप अश्रु बहानेवालों...

 *
छिप-छिप अश्रु बहानेवालों, मोती व्यर्थ लुटानेवालों,
कुछ सपनों के मर जाने से- जीवन मरा नहीं करता है...

*
सपना क्या है नयन-सेज पर, सोया हुआ आँख का पानी.
और टूटना है उसका ज्यों- जागे कच्ची नींद जवानी.
गीली उम्र बनानेवालों, डूबे बिना नहानेवालों,
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है...

 *
माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या.
आँसू गर नीलाम हुए तो- समझो पूरी हुई तपस्या.
रूठे दिवस माननेवालों, फटी कमीज सिलानेवालों,
कुछ दीपों के बुझ जाने से आँगन नहीं मरा करता है...

*
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर, केवल जिल्द बदलती पोथी.
जैसे रात उतार चाँदनी- पहने सुबह धूप की धोती.
वस्त्र बदलकर आनेवालों, चाल बदलकर जानेवालों,
चंद खिलौनों के खोने से- बचपन नहीं मरा करता है...

 *
लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिकन न आयी पर पनघट पर.
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर.
तन की उम्र बढ़ानेवालों, लौ की आयु घटानेवालों,
लाख करे पतझर कोशिश पर- उपवन नहीं मरा करता है...

*
लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गंध फूल की.
तूफानों तक ने छेड़ा पर- खिड़की बंद न हुई धूल की.
 नफरत गले लगानेवालों, सब पर धूल उड़ानेवालों,
 कुछ मुखड़ों की नाराजी से- दर्पण नहीं मरा करता है...

*****
जीवन कटना था...

*
जीवन कटना था, कट गया...
अच्छा कटा, बुरा कटा,
यह तुम जानो.
मैं तो यह समझता हूँ,
कपड़ा पुराना फटना था, फट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

*
रीता है क्या कुछ,
बीता है क्या कुछ,
यह हिसाब तुम करो.
मैं तो यह कहता हूँ-
परदा भरम का जो हटना था, हट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

*
क्या होगा चुकने के बाद,
बूँद-बूँद रिसने के बाद?
यह चिंता तुम करो.
मैं तो यह कहता हूँ-
कर्जा जो मिट्टी का पटना था, पट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

*
बँधा हूँ कि खुला हूँ.
मैला हूँ कि धुला हूँ.
यह विचार तुम करो-
मैं तो यह सुनता हूँ-
घट-घट का अंतर जो घटना था, घट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

********
धर्म है...

*
जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है...
*
जिस वक्त जीना ग़ैर मुमकिन सा लगे
उस वक्त जीना फर्ज़ है इन्सान का.
लाज़िम लहर के साथ है तब खेलना-
जब हो समुन्दर पर नशा तूफ़ान का.
जिस वायु का दीपक बुझाना ध्येय हो-
उस वायु में दीपक जलना धर्म है...

 *
हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की.
उस राह चलना चाहिए इंसान को.
जिस दर्द से सारी उमर रोते कटे,
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को.
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है-
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है...

 *
आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे,
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर.
उसकी ख़बर में ही सफ़र सारा कटे,
जो हर नज़र से, हर तरह हो बेख़बर.
जिस आँख का आँखें चुराना कम हो-
उस आँख से आँखें मिलाना धर्म है...

*
जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी,
तब माँग लो ताकत स्वयं ज़ंजीर से.
जिस दम न थमती हो नयन-सावन-झड़ी,
उस दम हँसी ले लो किसी तस्वीर से.
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो-
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है...
*
कालजयी रचनाएँ :
कारवां गुज़र गया
गोपाल दास सक्सेना 'नीरज'
*
हिंदी काव्यमंच से चलचित्र जगत तक, सुदूर ग्राम्यांचलों से महानगरों तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिन्दी गीत और ग़ज़ल को सूफियाना प्यार और आत्मिक श्रृंगार से समृद्ध करनेवाले महान अर्चनाकर नीरज जी का एक कालजयी गीत प्रस्तुत है काव्यधारा के पाठकों के लिये:

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी,
बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े
बहार देखते रहे|
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
नींद भी खुली न थी,
कि हाय! धूप ढल गयी.
पाँव जब तलक उठे,
कि जिंदगी फिसल गयी.
पात-पात झर गए,
कि शाख-शाख जल गयी.
चाह तो निकल सकी न,
पर उमर निकल गयी.
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए.
साथ के सभी दिए,
धुआँ पहन-पहन गए.
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके.
उम्र के चढ़ाव का,
उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
क्या शबाब था कि फूल-
फूल प्यार कर उठा.
क्या सरूप था कि देख,
आइना मचल उठा.
इस तरफ ज़मीन और
आसमां उधर उठा.
थाम कर जिगर उठा कि,
जो उठा नजर उठा.
एक दिन मगर यहाँ
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली,
कि घुट गयी गली-गली.
और हम लुटे-लुटे,
वक़्त से पिटे-पिटे,
सांस की शराब का,
खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़,
चाँद की सँवार दूँ.
होंठ थे खुले कि हर,
बहार को पुकार दूँ.
दर्द था दिया गया,
कि हर दुखी को प्यार दूँ.
और साँस यूँ कि स्वर्ग,
भूमि पर उतार दूँ.
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गयी सहर.
वह उठी लहर कि ढह-
गये किले बिखर-बिखर.
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफन,पड़े,
मज़ार देखते रहे
माँग भर चली कि एक,
जब नयी-नयी किरन.
ढोलकें धमक उठीं,
ठुमक उठे चरन-चरन.
शोर मच गया कि लो,
चली दुल्हन, चली दुल्हन.
गाँव सब उमड़ पड़ा,
बहक उठे नयन-नयन.
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पूछ गया सिन्दूर तार-
तार हुई चूनरी.
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए,
कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
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शनिवार, 14 अप्रैल 2012

लघुकथा: जंगल में जनतंत्र - संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
जंगल में जनतंत्र -
संजीव 'सलिल'

जंगल में चुनाव होनेवाले थे। मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।

- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।' '

-''मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ।'' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया।

मंत्री जी खुश हुए। तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।

 विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।
समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '


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कवि और कविता १. : प्रो. वीणा तिवारी --आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


कवि और कविता १. : प्रो. वीणा तिवारी
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कवि परिचय:
३०-०७-१९४४, एम्. ए., एम्,. एड.
प्रकाशित कृतियाँ - सुख पाहुना सा (काव्य संग्रह), पोशम्पा (बाल गीत संग्रह), छोटा सा कोना (कविता संग्रह} .
सम्मान - विदुषी रत्न तथा शताधिक अन्य.
संपर्क - १०५५ प्रेम नगर, नागपुर मार्ग, जबलपुर ४८२००३.
*
बकौल लीलाधर मंडलोई --
'' वे जीवन के रहस्य, मूल्य, संस्कार, संबंध आदि पर अधिक केंद्रित रही हैं. मृत्यु के प्रश्न भी कविताओं में इसी बीच मूर्त होते दीखते हैं. कविताओं में अवकाश और मौन की जगहें कहीं ज्यादा ठोस हैं. ...मुख्य धातुओं को अबेरें तो हमारा साक्षात्कार होता है भय, उदासी, दुःख, कसक, धुआं, अँधेरा, सन्नाटा, प्रार्थना, कोना, एकांत, परायापन, दया, नैराश्य, बुढापा, सहानुभूति, सजा, पूजा आदि से. इन बार-बार घेरती अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए पैबंद, कथरी, झूलता पंखा, हाशिया, बेहद वन, धुन्धुआती गीली लकड़ी, चटकती धरती, धुक्धुकाती छाती, बोलती हड्डियाँ, रूखी-खुरदुरी मिट्टी, पीले पत्ते, मुरझाये पौधे, जैसे बिम्बों की श्रंखला है. 
 
देखा जाए तो यह कविता मन में अधिक न बोलकर बिम्बों के माध्यम से अपनी बात कहने की अधिक प्रभावी प्रविधि है. वीणा तिवारी सामुदायिक शिल्प के घर-परिवार में भरोसा करनेवाली मनुष्य हैं इसलिए पति, बेटी, बेटे, बहु और अन्य नातेदारियों को लेकर वे काफी गंभीर हैं. उनकी काव्य प्रकृति भावः-केंद्रित है किंतु वे तर्क का सहारा नहीं छोड़तीं इसलिए वहाँ स्त्री की मुक्ति व आज़ादी को लेकर पारदर्शी विमर्श है.''

वीणा तिवारी की कवितायें आत्मीय पथ की मांग करती हैं. इन कविताओं के रहस्य कहीं अधिक उजागर होते हैं जब आप धैर्य के साथ इनके सफर में शामिल होते हैं. इस सफर में एक बड़ी दुनिया से आपका साक्षात्कार होता है. ऐसी दुनिया जो अत्यन्त परिचित होने के बाद हम सबके लिए अपरिचय की गन्ध में डूबी हैं. 
 
समकालीन काव्य परिदृश्य में वीणा तिवारी की कवितायें गंभीरता से स्वीकारी जाती हैं. विचारविमर्श के पाठकों के लिये प्रस्तुत हैं वीणा जी की लेखनी से झंकृत कुछ कवितायेँ...
प्रतीक्षा है आपकी प्रतिक्रियाओं की--- सलिल

घरौंदा

रेत के घरौंदे बनाना

जितना मुदित करता है

उसे ख़ुद तोड़ना

उतना उदास नहीं करता.

बूँद

बूँद पडी

टप

जब पडी

झट

चल-चल

घर के भीतर

तुझको नदी दिखाऊँगा

मैं

बहती है जो

कल-कल.

चेहरा

जब आदमकद आइना

तुम्हारी आँख बन जाता है

तो उम्र के बोझिल पड़ाव पर

थक कर बैठे यात्री के दो पंख उग आते हैं।

तुम्हारी दृष्टि उदासी को परत दर परत

उतरती जाती है

तब प्रेम में भीगा ये चेहरा

क्या मेरा ही रहता है?

चाँदनी
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है

क्या करें सुनती है न कुछ बोलती है

शाख पर सहमे पखेरू

लरजती डरती हवाएं

क्या करें जब चातकी भ्रम तोड़ती है

चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है।

चाहना फ़ैली दिशा बन

आस का सिमटा गगन

क्या करें सूनी डगर मुख मोडती है

चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है

उम्र मात्र सी गिनी

सामने पतझड़ खड़ा

क्या करें बहकी लहर तट तोड़ती है

चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है

मन

उतरती साँझ में बेकल मन

सूनी पगडंडी पर दो चरण

देहरी पर ठिठकी पदचाप

सांकल की परिचित खटखटाहट

दरारों से आती धीमी उच्छ्वास ही

क्यों सुनना चाहता है मन?
सगे वाला
सुबह आकाश पर छाई रक्तिम आभा

विदेशियों के बीच परदेस में

अपने गाँव-घर की बोली बोलता अपरिचित

दोनों ही उस पल सगे वाले से ज्यादा

सगे वाले लगते हैं।

शायद वे हमारे अपनों से

हमें जोड़ते हैं या हम उस पल

उनकी ऊँगली पकड़ अपने आपसे जुड़ जाते हैं

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मुक्तिका: समय का शुक्रिया... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
समय का शुक्रिया...
संजीव 'सलिल'
*

समय का शुक्रिया, नेकी के घर बदनामियाँ आयीं.
रहो आबाद तुम, हमको महज बरबादियाँ भायीं..

भुला नीवों को, कलशों का रहा है वक्त ध्वजवाहक.
दिया वनवास सीता को, अँगुलियाँ व्यर्थ दिखलायीं..
शहीदों ने खुदा से, सिर उठाकर प्रश्न यह पूछा:
कटाया हमने सिर, सत्ता ने क्यों गद्दारियाँ पायीं?

ये संसद सांसदों के सुख की खातिर काम करती है.
गरीबी को किया लांछित, अमीरी शान इठलायीं..

बहुत जरखेज है माटी, फसल उम्मीद की बोकर
पसीना सींच देखो, गर्दिशों ने मात फिर खायीं..

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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

मुक्तिका : 'काव्य धारा' है प्रवाहित --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका :
'काव्य धारा' है प्रवाहित
संजीव 'सलिल'
*
'काव्य धारा' है प्रवाहित, सलिल की कलकल सुनें.
कह रही किलकिल तजें, आनंदमय सपने बुनें..

कमलवत रह पंक में, तज पंक को निर्मल बनें.
दीप्ति पाकर दीपशिख सम, जलें- तूफां में तनें..

संगमरमर संगदिल तज, हाथ माटी में सनें.
स्वेद-श्रम कोशिश धरा से, सफलता हीरा खनें..

खलिश दें बाधाएँ जब भी, अचल-निर्मम हो धुनें.
है अरूप अनूप सच, हो मौन उसको नित गुनें..

समय-भट्टी में न भुट्टे सदृश गुमसुम भुनें.
पिघलकर स्पात बनने की सदा राहें चुनें..
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