युगकवि नीरज के गीत
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खग! उड़ते रहना जीवन भर...
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भूल गया है तू अपना पथ
और नहीं पंखों में भी गति,
किन्तु लौटना पीछे पथ पर-
अरे! मौत से भी है बदतर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...
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मत दर प्रलय झकोरों से तू,
बढ़ आशा-हलकोरों से तू,
क्षण में अरिदल मिट जायेगा-
तेरे पंखों से पिसकर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...
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यदि तू लौट पड़ेगा थककर,
अंधड़ काल बवंडर से डर,
प्यार तुझे करनेवाले ही-
देखेंगे तुझको हँस-हँसकर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...
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और मिट गया चलते-चलते,
मंजिल पथ तय करते-करते,
तेरी खाक चढ़ाएगा जग-
उन्नत भाल औ' आँखों पर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...
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छिप-छिप अश्रु बहानेवालों...
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छिप-छिप अश्रु बहानेवालों,
मोती व्यर्थ लुटानेवालों,
कुछ सपनों के मर जाने से-
जीवन मरा नहीं करता है...
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सपना क्या है नयन-सेज पर,
सोया हुआ आँख का पानी.
और टूटना है उसका ज्यों-
जागे कच्ची नींद जवानी.
गीली उम्र बनानेवालों,
डूबे बिना नहानेवालों,
कुछ पानी के बह जाने से
सावन नहीं मरा करता है...
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माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या.
आँसू गर नीलाम हुए तो-
समझो पूरी हुई तपस्या.
रूठे दिवस माननेवालों,
फटी कमीज सिलानेवालों,
कुछ दीपों के बुझ जाने से
आँगन नहीं मरा करता है...
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खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर,
केवल जिल्द बदलती पोथी.
जैसे रात उतार चाँदनी-
पहने सुबह धूप की धोती.
वस्त्र बदलकर आनेवालों,
चाल बदलकर जानेवालों,
चंद खिलौनों के खोने से-
बचपन नहीं मरा करता है...
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लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आयी पर पनघट पर.
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर.
तन की उम्र बढ़ानेवालों,
लौ की आयु घटानेवालों,
लाख करे पतझर कोशिश पर-
उपवन नहीं मरा करता है...
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लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गंध फूल की.
तूफानों तक ने छेड़ा पर-
खिड़की बंद न हुई धूल की.
नफरत गले लगानेवालों,
सब पर धूल उड़ानेवालों,
कुछ मुखड़ों की नाराजी से-
दर्पण नहीं मरा करता है...
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जीवन कटना था...
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जीवन कटना था, कट गया...
अच्छा कटा, बुरा कटा,
यह तुम जानो.
मैं तो यह समझता हूँ,
कपड़ा पुराना फटना था, फट गया.
जीवन कटना था, कट गया...
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रीता है क्या कुछ,
बीता है क्या कुछ,
यह हिसाब तुम करो.
मैं तो यह कहता हूँ-
परदा भरम का जो हटना था, हट गया.
जीवन कटना था, कट गया...
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क्या होगा चुकने के बाद,
बूँद-बूँद रिसने के बाद?
यह चिंता तुम करो.
मैं तो यह कहता हूँ-
कर्जा जो मिट्टी का पटना था, पट गया.
जीवन कटना था, कट गया...
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बँधा हूँ कि खुला हूँ.
मैला हूँ कि धुला हूँ.
यह विचार तुम करो-
मैं तो यह सुनता हूँ-
घट-घट का अंतर जो घटना था, घट गया.
जीवन कटना था, कट गया...
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धर्म है...
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जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है...
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जिस वक्त जीना ग़ैर मुमकिन सा लगे
उस वक्त जीना फर्ज़ है इन्सान का.
लाज़िम लहर के साथ है तब खेलना-
जब हो समुन्दर पर नशा तूफ़ान का.
जिस वायु का दीपक बुझाना ध्येय हो-
उस वायु में दीपक जलना धर्म है...
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हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की.
उस राह चलना चाहिए इंसान को.
जिस दर्द से सारी उमर रोते कटे,
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को.
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है-
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है...
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आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे,
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर.
उसकी ख़बर में ही सफ़र सारा कटे,
जो हर नज़र से, हर तरह हो बेख़बर.
जिस आँख का आँखें चुराना कम हो-
उस आँख से आँखें मिलाना धर्म है...
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जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी,
तब माँग लो ताकत स्वयं ज़ंजीर से.
जिस दम न थमती हो नयन-सावन-झड़ी,
उस दम हँसी ले लो किसी तस्वीर से.
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो-
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है...
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कालजयी रचनाएँ :
कारवां गुज़र गया
गोपाल दास सक्सेना 'नीरज'
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हिंदी
काव्यमंच से चलचित्र जगत तक, सुदूर ग्राम्यांचलों से महानगरों तक, कश्मीर
से कन्याकुमारी तक हिन्दी गीत और ग़ज़ल को सूफियाना प्यार और आत्मिक
श्रृंगार से समृद्ध करनेवाले महान अर्चनाकर नीरज जी का एक कालजयी गीत
प्रस्तुत है काव्यधारा के पाठकों के लिये:
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी,
बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े
बहार देखते रहे|
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
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नींद भी खुली न थी,
कि हाय! धूप ढल गयी.
पाँव जब तलक उठे,
कि जिंदगी फिसल गयी.
पात-पात झर गए,
कि शाख-शाख जल गयी.
चाह तो निकल सकी न,
पर उमर निकल गयी.
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए.
साथ के सभी दिए,
धुआँ पहन-पहन गए.
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके.
उम्र के चढ़ाव का,
उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
क्या शबाब था कि फूल-
फूल प्यार कर उठा.
क्या सरूप था कि देख,
आइना मचल उठा.
इस तरफ ज़मीन और
आसमां उधर उठा.
थाम कर जिगर उठा कि,
जो उठा नजर उठा.
एक दिन मगर यहाँ
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली,
कि घुट गयी गली-गली.
और हम लुटे-लुटे,
वक़्त से पिटे-पिटे,
सांस की शराब का,
खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़,
चाँद की सँवार दूँ.
होंठ थे खुले कि हर,
बहार को पुकार दूँ.
दर्द था दिया गया,
कि हर दुखी को प्यार दूँ.
और साँस यूँ कि स्वर्ग,
भूमि पर उतार दूँ.
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गयी सहर.
वह उठी लहर कि ढह-
गये किले बिखर-बिखर.
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफन,पड़े,
मज़ार देखते रहे
माँग भर चली कि एक,
जब नयी-नयी किरन.
ढोलकें धमक उठीं,
ठुमक उठे चरन-चरन.
शोर मच गया कि लो,
चली दुल्हन, चली दुल्हन.
गाँव सब उमड़ पड़ा,
बहक उठे नयन-नयन.
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पूछ गया सिन्दूर तार-
तार हुई चूनरी.
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए,
कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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