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शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

नव गीत: हर जगह दीवाली है... संजीव 'सलिल

नव गीत:

हर जगह दीवाली है...                            

संजीव 'सलिल'
*
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है...

*

तप्त भास्कर,
त्रस्त धरा,
थे पस्त जीव सब.
राहत पाई,
मेघदूत
पावस लाये जब.
ताल-तलैयाँ
नदियाँ भरीं,
उमंगें जागीं.
फसलें उगीं,
आसें उमगीं,
श्वासें भागीं.
करें प्रकाशित,
सकल जगत को
खुशहाली है.
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है....

*

रमें राम में,
किन्तु शारदा को
मत भूलें.
पैर जमाकर
'सलिल' धरा पर
नभ को छू लें.
किया अमंगल यहाँ-
वहाँ मंगल
हो कैसे?
मिटा विषमता
समता लायें
जैसे-तैसे.
मिटा अमावस,
लायें पूनम
खुशहाली है.
कुटिया हो या महल
हर जगह दीवाली है.

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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

दें उजियारा आत्म-दीप बन : --- संजीव वर्मा 'सलिल'

दें उजियारा आत्म-दीप बन :                                    

--- संजीव वर्मा 'सलिल'

जलकर भी तम हर रहे, चुप रह मृतिका-दीप.
मोती पलते गर्भ में, बिना कुछ कहे सीप.
सीप-दीप से हम मनुज तनिक न लेते सीख.
इसीलिए तो स्वार्थ में लीन पड़ रहे दीख.
दीप पर्व पर हों संकल्पित रह हिल-मिलकर.
दें उजियारा आत्म-दीप बन निश-दिन जलकर.
- छंद अमृतध्वनि

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रचना विधान:

1. पहली दो पंक्तियाँ दोहा: 13- 11 पर यति.

2. शेष 4 पंक्तियाँ: 24 मात्राएँ 8, 8, 8, पर यति.

3. दोहा का अंतिम शब्द तृतीय पंक्ति का प्रथम पद.

4. दोहा का प्रथम शब्द (शब्द समूह नहीं) छ्न्द का अंतिम शब्द हो.

नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना: --संजीव 'सलिल'

नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:                      

संजीव 'सलिल'
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..
अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध,
भय, लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..
था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..
बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..
राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..
नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..
'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..
'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..

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बोध कथा : ''भाव ही भगवान है''. संजीव 'सलिल'

बोधकथा                                                    
''भाव ही भगवान है''.
संजीव 'सलिल'
*
एक वृद्ध के मन में अंतिम समय में नर्मदा-स्नान की चाह हुई. लोगों ने बता दिया की नर्मदा जी अमुक दिशा में कोसों दूर बहती हैं, तुम नहीं जा पाओगी. वृद्धा न मानी... भगवान् का नाम लेकर चल पड़ी...कई दिनों के बाद उसे एक नदी... उसने 'नरमदा तो ऐसी मिलीं रे जैसे मिल गै मतारे औ' बाप रे' गाते हुए परम संतोष से डुबकी लगाई. कुछ दिन बाद साधुओं का एक दल आया... शिष्यों ने वृद्धा की खिल्ली उड़ाते हुए बताया कि यह तो नाला है. नर्मदा जी तो दूर हैं हम वहाँ से नहाकर आ रहे हैं. वृद्धा बहुत उदास हुई... बात गुरु जी तक पहुँची. गुरु जी ने सब कुछ जानने के बाद, वृद्धा के चरण स्पर्श कर कहा : 'जिसने भाव के साथ इतने दिन नर्मदा जी में नहाया उसके लिए मैया यहाँ न आ सकें इतनी निर्बल नहीं हैं. मैया तुम्हें नर्मदा-स्नान का पुण्य है लेकिन जो नर्मदा जी तक जाकर भी भाव का अभाव मिटा नहीं पाया उसे नर्मदा-स्नान का पुण्य नहीं है. मैया! तुम कहीं मत जाओ, माँ नर्मदा वहीं हैं जहाँ तुम हो.''

'कंकर-कंकर में शंकर', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का सत्य भी ऐसा ही है. 'भाव का भूखा है भगवान' जैसी लोकोक्ति इसी सत्य की स्वीकृति है. जिसने इस सत्य को गह लिया उसके लिये 'हर दिन होली, रात दिवाली' हो जाती है. 
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बुधवार, 3 नवंबर 2010

नवगीत: हिल-मिल दीपावली मना रे! -संजीव 'सलिल'

नवगीत:                                                                               
हिल-मिल
दीपावली मना रे!

संजीव 'सलिल'
*
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
चक्र समय का
सतत चल रहा.
स्वप्न नयन में
नित्य पल रहा.
सूरज-चंदा
उगा-ढल रहा.
तम प्रकाश के
तले पल रहा,
किन्तु निराश
न होना किंचित.
नित नव
आशा-दीप जला रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
तन दीपक
मन बाती प्यारे!
प्यास तेल को
मत छलका रे!
श्वासा की
चिंगारी लेकर.
आशा-जीवन-
ज्योति जला रे!
मत उजास का
क्रय-विक्रय कर.
'सलिल' मुक्त हो
नेह लुटा रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*

स्नेह-दीप ------- संजीव 'सलिल'

स्नेह-दीप

संजीव 'सलिल'
*
स्नेह-दीप, स्नेह शिखा, स्नेह है उजाला.
स्नेह आस, स्नेह प्यास, साधना-शिवाला.

स्नेह राष्ट्र, स्नेह विश्व, सृष्टि नव समाज.
स्नेह कल था, स्नेह कल है, स्नेह ही है आज.

स्नेह अजर, स्नेह अमर, स्नेह है अनश्वर.
स्नेह धरा, स्नेह गगन, स्नेह मनुज-ईश्वर..

स्नेह राग शुभ विराग, योग-भोग-कर्म.
स्नेह कलम,-अक्षर है. स्नेह सृजन-धर्म..

स्नेह बिंदु, स्नेह सिन्धु, स्नेह आदि-अंत.
स्नेह शून्य, दिग-दिगंत, स्नेह आदि-अंत..

स्नेह सफल, स्नेह विफल, स्नेह ही पुरुषार्थ.
स्नेह चाह, स्नेह राह, स्वार्थ या परमार्थ..

स्नेह पाएं, स्नेह बाँट, स्नेह-गीत गायें.
स्नेह-दीप जला 'सलिल', दिवाली मनायें..

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स्नेह = प्रेम, स्नेह = दीपक का घी/तेल.

एक कविता: दिया : संजीव 'सलिल'

एक कविता:                                      

दिया :

संजीव 'सलिल'
*

राजनीति कल साँप
लोकतंत्र के
मेंढक को खा रहा है.
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है.
जब तक जनता
मूक होकर सहे जाएगी.
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चरे जाएगी..
एकता की लाठी ले
भैंस को भागो अब.
बहुत अँधेरा देखा
दीप एक जलाओ अब..

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एक कविता: दिया संजीव 'सलिल'

एक कविता:                       

दिया

संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*

छंद सलिला: १ सांगोपांग सिंहावलोकन छंद : नवीन सी. चतुर्वेदी

छंद सलिला: १

 ३ नवम्बर २०१०... धन तेरस आइये, आज एक नया स्तम्भ प्रारंभ करें 'छंद सलिला'. इस स्तम्भ में  हिन्दी काव्य शास्त्र की मणि-मुक्ताओं की चमक-दमक से आपका परिचय होगा. श्री गणेश कर रहे हैं श्री नवीन सी. चतुर्वेदी. आप जिक छंद से परिचित हों उसे लिख-भेजें...

सांगोपांग सिंहावलोकन छंद   : नवीन सी. चतुर्वेदी
(घनाक्षरी कवित्त)

कवित्त का विधान:
कुल ४ पंक्तियाँ
हर पंक्ति ४ भागों / चरणों में विभाजित
पहले, दूसरे और तीसरे चरण में ८ वर्ण
चौथे चरण में ७ वर्ण
इस तरह हर पंक्ति में ३१ वर्ण

सिंहावलोकन का विधान
कवित्त के शुरू और अंत में समान शब्द
जैसे प्रस्तुत कवित्त शुरू होता है "लाए हैं" से और समाप्त भी होता है "लाए हैं" से

सांगोपांग विधान
ये मुझे प्रात:स्मरणीय गुरुवर स्व. श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' जी ने बताया कि छंद के अंदर भी हर पंक्ति जिस शब्द / शब्दों से समाप्त हो, अगली पंक्ति उसी शब्द / शब्दों से शुरू हो तो छंद की शोभा और बढ़ जाती है| वे इस विधान के छंन्द को सांगोपांग सिंहावलोकन छंद कहते थे|


कवित्त:
लाए हैं बाजार से दीप भाँति भाँति के हम,
द्वार औ दरीचों पे कतार से सजाए हैं|
सजाए हैं बाजार हाट लोगों ने, जिन्हें देख-
बाल बच्चे खुशी से फूले ना समाए हैं|
समाए हैं संदेशे सौहार्द के दीपावली में,
युगों से इसे हम मनाते चले आए हैं|
आए हैं जलाने दीप खुशियों के जमाने में,
प्यार की सौगात भी अपने साथ लाए हैं||

यदि किसी मित्र के मन में कुछ शंका हो तो कृपया निस्संकोच पूछने की कृपा करें| जितना मालुम है, आप सभी के साथ बाँटने में आनंद आएगा| जो हम नहीं जानते, अगर कोई और बता सके, तो बड़ी ही प्रसन्नता होगी|

************

मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'
*
दीवाली को दीप-पर्व बोलें या तम-त्यौहार कहें?
लें उजास हम दीपशिखा से या तल से अँधियार गहें??....
*
कंकर में शंकर देखें या शंकर को कंकर कह दें.
शीतल-सुरभित शुद्ध पवन को चुभती हुई बयार कहें??
*
धोती कुरता धारे है जो देह खुरदुरी मटमैली.
टीम-टाम के व्याल-जाल से तौलें उसे गँवार कहें??
*
कथ्य-शिल्प कविता की गाड़ी के अगले-पिछले पहिये.
भाव और रस इंजिन-ईंधन, रंग देख बेकार कहें??
*
काम न देखें नाम-दाम पर अटक रहीं जिसकी नजरें.
नफरत के उस सौदागर को क्या हम रचनाकार कहें??
*
उठा तर्जनी दोष दिखानेवाले यह भी तो सोचें.
तीन उँगलियों के इंगित उनको भी हिस्सेदार कहें??
*
नेह-नर्मदा नित्य नहा हम शब्दब्रम्ह को पूज रहे.
सूरज पर जो थूके हो अनदेखा, क्यों निस्सार कहें??
*
सहज मैत्री चाही सबसे शायद यह अपराध हुआ.
अहम्-बुद्धिमत्ता के पर्वत गरजें बरस गुहार कहें??
*
पंकिल पद पखारकर निर्मल करने नभ से इस भू पर
आया, सागर जा नभ छूले 'सलिल' इसे क्यों हार कहें??
*
मिले विजय या अजय बनें यह लक्ष्य 'सलिल' का नहीं रहा.
मैत्री सबसे चाही, सब में वह, न किसे अवतार कहें??
*
बेटा बाप बाप का तो विद्यार्थी क्यों आचार्य नहीं?
हो विचार-आचार शब्दमय, क्यों न भाव-रस सार कहें??
*

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

एक कविता: मीत मेरे संजीव 'सलिल'

एक कविता:                                        

मीत मेरे

संजीव 'सलिल'
*
मीत मेरे!
राह में हों छाये
कितने भी अँधेरे,
उतार या कि चढ़ाव
सुख या दुःख
तुमको रहें घेरे.
सूर्य प्रखर प्रकाश दे
या घेर लें बादल घनेरे.
खिले शीतल ज्योत्सना या
अमावस का तिमिर घेरे.
मुस्कुराकर, करो स्वागत
द्वार पर जब-जो हो आगत
आस्था का दीप मन में
स्नेह-बाती ले जलाना.
बहुत पहले था सुना
अब फिर सुनाना
दिए से तूफ़ान का
लड़ हार जाना..

*****************

व्यंग्यपरक मुक्तिका: क्यों डरूँ? संजीव 'सलिल'

व्यंग्यपरक मुक्तिका:                                      

क्यों डरूँ?

संजीव 'सलिल'
*
उठ रहीं मेरी तरफ कुछ उँगलियाँ तो क्यों डरूँ?
छोड़ कुर्सी, स्वार्थ तजकर, मुफ्त ही मैं क्यों मरूँ??

गलतियाँ करना है फितरत पर सजा पाना नहीं.
गैर का हासिल तो अपना खेत नाहक क्यों चरूँ??

बेईमानी की डगर पर सफलताएँ मिल रहीं.
विफलता चाही नहीं तो राह से मैं क्यों फिरूँ??

कौन किसका कब हुआ अपना?, पराये हैं सभी.
लूटने में किसीको कोई रियायत क्यों करूँ ??

बाज मैं,  नेता चुनें चिड़िया तो मेरा दोष क्या?
लाभ अपना छोड़कर मैं कष्ट क्यों उनके हरूँ??

आँख पर पट्टी, तुला हाथों में, करना न्याय है.
कोट काला कहे किस पलड़े पे कितना-क्या धरूँ??

गरीबी को मिटाना है?, दूँ गरीबों को मिटा.
'सलिल' जिंदा रख उन्हें मैं मुश्किलें क्योंकर वरूँ??

****************************************

मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'
*
ज्यों मोती को आवश्यकता सीपोंकी.
मानव मन को बहुत जरूरत दीपोंकी..

संसद में हैं गर्दभ श्वेत वसनधारी
आदत डाले जनगण चीपों-चीपोंकी..

पदिक-साइकिल के सवार घटते जाते
जनसंख्या बढ़ती कारों की, जीपोंकी..

चीनी झालर से इमारतें है रौशन
मंद हो रही ज्योति झोपड़े-चीपों की..

नहीं मिठाई और पटाखे कवि माँगे
चाह 'सलिल' मन में तालीकी, टीपोंकी..

**************

मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                          

संजीव 'सलिल'
*
सारा जग पाये उपहार ये दीपोंका.
हर घर को भाये सिंगार ये दीपोंका..

रजनीचर से विहँस प्रभाकर गले मिले-
तारागण करते सत्कार ये दीपोंका..

जीते जी तम को न फैलने देते हैं
हम सब पर कितना उपकार ये दीपोंका..

निज माटी से जुड़ी हुई जो झोपड़ियाँ.
उनके जीवन को आधार है दीपों का..

रखकर दिल में आग, अधर पर हास रखें.
'सलिल' सीख जीवन-व्यवहार ये दीपोंका..
**********************************

मुक्तिका: किसलिए?... -----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                               
किसलिए?...
संजीव 'सलिल'
*
हर दिवाली पर दिए तुम बालते हो किसलिए?
तिमिर हर दीपक-तले तुम पालते हो किसलिए?

चाह सूरत की रही सीरत न चाही थी कभी.
अब पियाले पर पियाले ढालते हो किसलिए?

बुलाते हो लक्ष्मी को लक्ष्मीपति के बिना
और वह भी रात में?, टकसालते हो किसलिए?

क़र्ज़ की पीते थे मय, ऋण ले के घी खाते  रहे.
छिप तकादेदार को अब टालते हो किसलिए?

शूल बनकर फूल-कलियों को 'सलिल' घायल किया.
दोष माली पर कहो- क्यों डालते हो किसलिए?
**********************************

सोमवार, 1 नवंबर 2010

गीत : प्यार किसे मैं करता हूँ संजीव 'सलिल'

गीत :                           
प्यार किसे मैं करता हूँ
संजीव 'सलिल'
*
बतलाने की नहीं जरूरत प्यार किसे मैं करता हूँ.
जीता हूँ मैं इन्हें देखकर, कैसे कह दूँ मरता हूँ??
*
प्यार किया माता को मैंने, बहिनों को भी प्यार किया.
भाभी पर की जान निछावर, सखियों पर दिल हार दिया..
खुद को खो पत्नि को पाया, सलहज-साली पर रीझा.
बेटी राजदुलारी की छवि दिल में हर पल धरता हूँ..
बतलाने की नहीं जरूरत प्यार किसे मैं करता हूँ.
जीता हूँ मैं इन्हें देखकर, कैसे कह दूँ मरता हूँ??
*
प्यार हमारी परंपरा है, सकल विश्व में नीड़ रहा.
सारी वसुधा ही कुटुंब है, नहीं किसी को गैर कहा..
पिता, बंधु, जीजा, साले, साढू, मित्रों बिन चैन नहीं.
बेटा सब सँग कंधा देगा, यह जीवन-पथ वरता हूँ.
बतलाने की नहीं जरूरत प्यार किसे मैं करता हूँ.
जीता हूँ मैं इन्हें देखकर, कैसे कह दूँ मरता हूँ??
*
जामाता बेटा बनकर, सुतवधु बेटी बन आयेगी.
भावी पीढ़ी परंपरा को युग अनुरूप बनायेगी..
पश्चिम, उत्तर, दक्षिण को, पूरब निज हृदय बसाएगा.
परिवर्तन शुभ-सुंदर निर्झर, स्नेह-सलिल बन झरता हूँ.
बतलाने की नहीं जरूरत प्यार किसे मैं करता हूँ.
जीता हूँ मैं इन्हें देखकर, कैसे कह दूँ मरता हूँ??
*

हिंदी शब्द सलिला : २० संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : २०
         
संजीव 'सलिल' 
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, सूर.-सूरदास, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.      
'अग' से प्रारंभ शब्द : ७.
संजीव 'सलिल'
*
अग्रांश/अग्रान्श- पु. सं. देखें अग्रभाग.
अग्रांशु/अग्रान्शु- पु. सं. केन्द्रीय बिंदु, धुरी.
अग्राक्षण-पु./अग्राक्षि-स्त्री. - सं. कटाक्ष, तिरछी चितवन.
अग्राणीक/आग्रानीक- पु. सं. सेना का आगे जानेवाला भाग.
अग्राम्य-वि. सं. जो देहाती न हो, नागर, नगरीय, नगर का, श्री, शहर का, जो पालतू न हो, जंगली, वन्य.
अग्राशन- पु. सं. भोजन से देवता, पितरों या गऊ के निमित्त निकाला जानेवाला अंश.
अग्रासन- पु. सं. सम्मान का आसान/स्थान.
अग्राह्य- वि. सं. ग्रहण न करने योग्य, त्याज्य, अविचारणीय, अविश्वसनीय.-व्यक्ति-पु. किसी देश का राजदूत/राजपुरुष/अन्य व्यक्ति जो अन्य देश को मान्य/ग्राह्य/स्वीकार्य न हो, परसोना नों ग्रेटा इ., अमान्य/अग्राह्य/अस्वीकार्य  व्यक्ति.
अग्राह्या- वि. सं. ग्रहण न करने योग्य, त्याज्य स्त्री, शौचादि के काम आनेवाली मिट्टी, उपयोग न की जा सकनेवाली मिट्टी.
अग्रिम- वि. सं. पहला, अगला, श्रेष्ठ, उत्तम, पेशगी, आगामी, सबसे बड़ा. पु. सबसे बड़ा भाई.-धन-पु. एडवांस, वेतन/पारिश्रमिक/मूल्य का नियत तिथि/समय से पहले दिया गया अंश.
अग्रिम देय धन- पु. कार्य विशेष पर व्यय पहले से हेतु दिया गया धन जिसका समायोजन कार्य होने के बाद किया जाए, बयाना,पेशगी, इम्प्रेस्ट मनी इ.
अग्रिमा- स्त्री. सं. ग्रीष्मजा/लोणा नामक फल/वृक्ष.
अग्रिय-वि. सं. श्रेष्ठ, उत्तम.पु. बड़ा भाई, पहले लगनेवाले फल.
अग्रेदिधिशु- पु. सं. पूर्व विवाहित स्त्री से विवाह करनेवाला द्विज.
अग्रेदिधिषू- स्त्री. सं. वह विवाहिता स्त्री जिसकी बड़े बहिन अविवाहिता हो.
अग्रेमूल्य- पु. भविष्य में बिकनेवाली वस्तु का वर्तमान में लगाया गया मूल्य.
अग्रेसर पु./अग्रेसरी स्त्री.- वि. सं. आगे जानेवाला/वाली, अगुआ, नायक-नायिका.
अग्रेसरिक- पु. सं. नेता/स्वामी.मालिक के आगे जानेवाला नौकर.
अग्रय- वि सं. जो सबसे आगे हो, श्रेष्ठ, कुशल, योग्य. पु. बड़ा भाई, मकान की छत.
                                                                                  -निरंतर ....

गीत: आँसू और ओस संजीव 'सलिल'

गीत:

आँसू और ओस

संजीव 'सलिल'
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' संग नित गहिये हमको...
*

रविवार, 31 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : २०          
संजीव 'सलिल'*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, सूर.-सूरदास, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.      
'अग' से प्रारंभ शब्द : ७.
संजीव 'सलिल'*
अग्निक- पु. सं. इंद्रगोप, बीरबहूटी, एक पौधा, साँप की एक जाति.
अग्निमान/मत- पु. सं. विधि अनुसार अग्न्याधान करनेवाला द्विज, अग्निहोत्री.
अग्नीध्र- पु. सं. यज्ञाग्नि जलानेवाला ऋत्विक, ब्रम्हा, यज्ञ, होम, स्वायंभुव मनु का एक पुत्र.  
अग्न्यगार/अग्न्यागार- पु. सं. यज्ञाग्नि रखने का स्थान.
अग्न्यस्त्र/अग्न्यास्त्र- पु. सं. मन्त्रप्रेरित बाण/तीर जिससे आग निकले, अग्निचालित अस्त्र बंदूक, रायफल इ.,तमंचा, पिस्तौल इ., तोप, मिसाइल आदि.
अग्न्याधा- पु.सं. वेद मन्त्र द्वारा अग्नि की स्थापना, अग्निहोत्र.
अग्न्यालय- पु. सं. देखें अग्न्यागार.
अग्न्याशय- पु. सं. जठराग्नि का स्थान.
अग्न्याहित- पु. सं. अग्निहोत्री, साग्निक.
अग्न्युत्पात- पु. सं. अग्निकाण्ड, उल्कापात.
अग्न्युत्सादी/दिन- वि. सं. यज्ञाग्नि को बुझने देनेवाला.
अग्न्युद्धार- पु. सं. दो अरणिकाष्ठों को रगड़कर अग्नि उत्पन्न करना.  
अग्न्युपस्थान- पु.सं. अग्निहोत्र के अंत में होनेवाली पूजा/मन्त्र.
अग्य- वि. स्त्री. दे. देखें अज्ञ.
अग्या/आग्या- स्त्री. दे. देखें आज्ञा.
अग्यारी- स्त्री. आग में गुड़/दशांग आदि डालना, अग्यारी-पात्र.
अग्र- वि. सं. अगला, पहला, मुख्य, अधिक. अ. आगे. पु. अगला भाग, नोक, शिखर, अपने वर्ग का सबसे अच्छा पदार्थ, बढ़-चढ़कर होना, उत्कर्ष, लक्ष्य आरंभ, एक तौल, आहार की के मात्रा, समूह, नायक.-कर-पु. हाथ का अगला हिस्सा, उँगली, पहली किरण,-- पु. नेता, नायक, मुखिया.-गण्य-वि. गिनते समय प्रथम, मुख्य, पहला.--गामी/मिन-वि. आगे चलनेवाला. पु. नायक, अगुआ, स्त्री. अग्रगामिनी.-दल-पु. फॉरवर्ड ब्लोक भारत का एक राजनैतिक दल जिसकी स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बोसने की थी, सेना की अगली टुकड़ी,.--वि. पहले जन्मा हुआ, श्रेष्ठ. पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण, अगुआ.-जन्मा/जन्मन-पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण.-जा-स्त्री. बड़ी बहिन.-जात/ जातक -पु. पहले जन्मा, पूर्व जन्म का.-जाति-स्त्री. ब्राम्हण.-जिव्हा-स्त्री. जीभ का अगला हिस्सा.-णी-वि. आगे चलनेवाला, प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम. पु. नेता, अगुआ, एक अग्नि.-तर-वि. और आगे का, कहे हुए के बाद का, फरदर इ.-दाय-अग्रिम देय, पहले दिया जानेवाला, बयाना, एडवांस, इम्प्रेस्ट मनी.-दानी/निन- पु. मृतकके निमित्त दिया पदार्थ/शूद्रका दान ग्रहण करनेवाला निम्न/पतित ब्राम्हण,-दूत- पु. पहले से  पहुँचकर किसी के आने की सूचना देनेवाला.-निरूपण- पु. भविष्य-कथन, भविष्यवाणी, भावी. -सुनहु भरत भावी प्रबल. राम.,-पर्णी/परनी-स्त्री. अजलोमा का वृक्ष.-पा- सबसे पहले पाने/पीनेवाला.-पाद- पाँव का अगला भाग, अँगूठा.-पूजा- स्त्री. सबसे पहले/सर्वाधिक पूजा/सम्मान.-पूज्य- वि. सबसे पहले/सर्वाधिक सम्मान.-प्रेषण-पु. देखें अग्रसारण.-प्रेषित-वि. पहले से भेजना, उच्चाधिकारी की ओर आगे भेजना, फॉरवर्डेड इ.-बीज- पु. वह वृक्ष जिसकी कलम/डाल काटकर लगाई जाए. वि. इस प्रकार जमनेवाला पौधा.-भाग-पु. प्रथम/श्रेष्ठ/सर्वाधिक/अगला भाग -अग्र भाग कौसल्याहि दीन्हा. राम., सिरा, नोक, श्राद्ध में पहले दी जानेवाली वस्तु.-भागी/गिन-वि. प्रथम भाग/सर्व प्रथम  पाने का अधिकारी.-भुक/-वि. पहले खानेवाला, देव-पिटर आदि को खिलाये बिना खानेवाला, पेटू.-भू/भूमि-स्त्री. लक्ष्य, माकन का सबसे ऊपर का भाग, छत.--महिषी-स्त्री. पटरानी, सबसे बड़ी पत्नि/महिला.-मांस-पु. हृदय/यकृत का रक रोग.-यान-पु. सेना की अगली टुकड़ी, शत्रु से लड़ने हेतु पहले जानेवाला सैन्यदल. वि. अग्रगामी.-यायी/यिन वि. आगे बढ़नेवाला, नेतृत्व करनेवाला-योधी/धिन-पु. सबसे आगे बढ़कर लड़नेवाला, प्रमुख योद्धा.-लेख- सबसे पहले/प्रमुखता से छपा लेख, सम्पादकीय, लीडिंग आर्टिकल इ.,-लोहिता-स्त्री. चिल्ली शाक.-वक्त्र-पु. चीर-फाड़ का एक औज़ार.-वर्ती/तिन-वि. आगे रहनेवाला.-शाला-स्त्री. ओसारा, सामने की परछी/बरामदा, फ्रंट वरांडा इं.-संधानी-स्त्री. कर्मलेखा, यम की वह पोथी/पुस्तक जिसमें जीवों के कर्मों का लिखे जाते हैं.-संध्या-स्त्री. प्रातःकाल/भोर.-सर-वि. पु. आगेजानेवाला, अग्रगामी, अगुआ, प्रमुख, स्त्री. अग्रसरी.-सारण-पु. आगे बढ़ाना, अपनेसे उच्च अधिकारी की ओर भेजना, अग्रप्रेषण.-सारा-स्त्री. पौधे का फलरहित सिरा.-सारित-वि. देखें अग्रप्रेषित.-सूची-स्त्री. सुई की नोक,  प्रारंभ में लगी सूची, अनुक्रमाणिका.-सोची-वि. समय से पहले/पूर्व सोचनेवाला, दूरदर्शी. -अग्रसोची सदा सुखी मुहा.,-स्थान-पहला/प्रथम स्थान.--हर-वि. प्रथम दीजानेवाली/देय वस्तु.-हस्त-पु. हाथ का अगला भाग, उँगली, हाथी की सूंड़  की नोक.-हायण-पु. अगहन माह,-हार-पु. राजा/राज्य की प्र से ब्राम्हण/विद्वान को निर्वाहनार्थ मिलनेवाला भूमिदान, विप्रदान हेतु खेत की उपज से निकाला हुआ अन्न.
अग्रजाधिकार- पु. देखें ज्येष्ठाधिकार.
अग्रतः/तस- अ. सं. आगे, पहले, आगेसे.
अग्रवाल- पु. वैश्यों का एक वर्गजाति, अगरवाल.
अग्रश/अग्रशस/अग्रशः-अ. सं. आरम्भ से ही.
अग्रह- पु.संस्कृत ग्रहण न करना, गृहहीन, वानप्रस्थ.              ----------निरंतर                                                                                                                 

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

विशेष रचना : मेरे भैया संजीव 'सलिल'

भाई दूज पर विशेष रचना :

मेरे भैया

संजीव 'सलिल'
*
मेरे भैया!,
किशन कन्हैया...
*
साथ-साथ पल-पुसे, बढ़े हम
तुमको पाकर सौ सुख पाये.
दूर हुए एक-दूजे से हम
लेकिन भूल-भुला न पाये..
रूठ-मनाने के मधुरिम दिन
कहाँ गये?, यह कौन बताये?
टीप रेस, कन्ना गोटी है कहाँ?
कहाँ है 'ता-ता थैया'....
*
मैंने तुमको, तुमने मुझको
क्या-क्या दिया, कौन बतलाये?
विधना भी चाहे तो स्नेहिल
भेंट नहीं वैसी दे पाये.
बाकी क्या लेना-देना? जब
हम हैं एक-दूजे के साये.
भाई-बहिन का स्नेह गा सके
मिला न अब तक कोई गवैया....
*
देकर भी देने का मन हो
देने की सार्थकता तब ही.
तेरी बहिना हँसकर ले-ले
भैया का दुःख विपदा अब ही..
दूज-गीत, राखी-कविता संग
तूने भेजी खुशियाँ सब ही.
तेरी चाहत, मेरी ताकत
भौजी की सौ बार बलैंया...
*****