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सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक पुरातन देश है, किंतु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास एक नए सिरे से ब्रिटेन के शासनकाल में, स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य में और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान में हुआ। हिंदी भाषा एवं अन्य प्रादेशिक भारतीय भाषाओं ने राष्ट्रीय स्वाभिमान और स्वतंत्रता-संग्राम के चैतन्य का शंखनाद घर-घर तक पहुँचाया, स्वदेश प्रेम और स्वदेशी भाव की मानसिकता को सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम दिया, नवयुग के नवजागरण को राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय अभिव्यक्ति और राष्ट्रीय स्वशासन के साथ अंतरंग और अविच्छिन्न रूप से जोड़ दिया।
भाषाओं की भूमिका
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे भाषाएँ भारतीय स्वाधीनता के अभियान और आंदोलन को व्यापक जनाधार देते हुए लोकतंत्र की इस आधारभूत अवधारणा को संपुष्ट करतीं रहीं कि जब आज़ादी आएगी तो लोक-व्यवहार और राजकाज में भारतीय भाषाओं का प्रयोग होगा।
एक भाषाः प्रशासन की भाषा
आज़ादी आई और हमने संविधान बनाने का उपक्रम शुरू किया। संविधान का प्रारूप अंग्रेज़ी में बना, संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेज़ी में हुई। यहाँ तक कि हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेज़ी भाषा में ही बोले। यह बहस 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई। प्रारंभ में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भाषा के विषय में आवेश उत्पन्न करने या भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील नहीं होनी चाहिए और भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा का विनिश्चय समूचे देश को मान्य होना चाहिए। उन्होंने बताया कि भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन प्रस्तुत हुए।
14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद जब भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई के कुछ शब्द कहे। वे शब्द आज भी प्रतिध्वनित होते हैं। उन्होंने तब कहा था, ''आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।'' उन्होंने कहा, ''इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा।'' उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि संविधान सभा ने अत्यधिक बहुमत से भाषा-विषयक प्रावधानों को स्वीकार किया। अपने वक्तव्य के उपसंहार में उन्होंने जो कहा वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कहा, ''यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के निकटतर आते जाएँगे। आख़िर अंग्रेज़ी से हम निकटतर आए हैं, क्यों कि वह एक भाषा थी। अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।''
संघ की भाषा हिंदी
संविधान-सभा की भाषा-विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई है। भाषा-विषयक समझौते की बातचीत में मेरे पितृतुल्य एवं कानून के क्षेत्र में मेरे गुरु डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी एवं श्री गोपाल स्वामी आयंगार की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह सहमति हुई कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, किंतु देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों तथा अंग्रेज़ी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करते रहने के बारे में बड़ी लंबी-चौड़ी गरमा-गरम बहस हुई। अंत में आयंगर-मुंशी फ़ार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के प्रश्न पर अधिकांश सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण है। कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि के पक्ष में प्रस्ताव रखा, किंतु देवनागरी के पक्ष में ही अधिकांश सदस्यों ने अपनी राय दी।
हिंदी का अपहरण
आशंकाओं का खांडव-वन तब दिखाई देने लगा, जब पंद्रह वर्ष की कालावधि के बाद भी अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग की बात सामने आई। वे आशंकाएँ सच साबित हुईं। पंद्रह वर्ष 1965 में समाप्त होने वाले थे। उससे पूर्व ही संसद में उस अवधि को अनिश्चित काल तक बढ़ाने का प्रस्ताव पेश हुआ। तब मैं लोकसभा का निर्दलीय सदस्य था। स्व. लालबहादुर शास्त्री, पंडित नेहरू की मंत्रीपरिषद के वरिष्ठ सदस्य थे और उन्हीं को यह कठिन काम सौंपा गया। कुछ सदस्यों ने कार्यवाही के बहिष्कार के लिए सदन-त्याग किया। तब मैंने कहा कि मुझे तो सदन में प्रवेश के लिए और अपनी बात कहने के लिए चुना गया है, सदन के बहिष्कार और सदन-त्याग के लिए नहीं। सदन में मैंने अकेले ही प्रत्येक अनुच्छेद एवं उपबंध का विरोध किया। बाद में श्रद्धेय शास्त्री जी ने बड़ी आत्मीयता के साथ संसद की दीर्घा में खड़े-खड़े कहा, ''आपकी बात मैं समझता हूँ, सहमत भी हूँ, किंतु लाचारी है, आप इस लाचारी को भी तो समझिए।'' अब संविधानिक स्थिति यह है कि नाम के वास्ते तो संघ की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेज़ी सह भाषा है, जबकि वास्तव में अंग्रेज़ी ही राजभाषा है और हिंदी केवल एक सह भाषा। लगता है कि संविधान में इन प्रावधानों का प्रारूप बनाते समय कुछ संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क में यह बात पहले से थी। हुआ यह कि राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति ने मिलकर हिंदी की नियति का अपहरण कर लिया।
संसद में हिंदी के प्रबल पक्षधर कम हैं
संविधान सभा में श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने अपने भाषण में यह स्पष्ट ही कह दिया था कि हमें अंग्रेज़ी भाषा को कई वर्षों तक रखना पड़ेगा और लंबे समय तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में भी सभी कार्यवाहियाँ, अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगी एवं अध्यादेशों, विधेयकों तथा अधिनियमों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगे। इस लंबे होते जा रहे समय में मुझे एक अविचल स्थायी भाव की आहट सुनाई देती है। मुझे नहीं लगता कि आनेवाले पच्चीस वर्षों में उच्चतम न्यायालय या अहिंदी भाषी प्रदेशों के उच्च न्यायालय हिंदी में अपनी कार्यवाही करने को तैयार होंगे। तब तक हिंदी के प्रयोग की संभावना और भी अधिक धूमिल हो जाएगी। यह अवश्य है कि हिंदीभाषी प्रदेशों में, न्यायालयों में हिंदी धीरे-धीरे बढ़ रही है, किंतु जजों के स्थानांतरण की नीति हिंदी के प्रयोग को अवश्यमेव अवरुद्ध करेगी। उच्च न्यायालयों के अंतर्गत दूसरे न्यायालयों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग काफ़ी बढ़ा है, किंतु उनको भी अधिनियमों एवं उपनियमों के प्राधिकृत पाठ के लिए एवं नाज़िरों के लिए बहुधा अंग्रेज़ी भाषा की ही शरण लेनी पड़ती है। विधान मंडलों में प्रादेशिक भाषाएँ पूरी तरह चल पड़ी हैं। संसद में इधर हिंदी में भाषण देनेवाले सदस्यों की संख्या बढ़ी है, किंतु हिंदी के प्रबल पक्षधर कम हैं। राष्ट्रीय राजनीति के प्रादेशीकरण के चलते अब हिंदी को फूँक-फूँककर कदम रखना होगा, किंतु हिंदी का संघर्ष प्रादेशिक भाषाओं से नहीं हैं, उसके रास्ते में अंग्रेज़ी के स्थापित वर्चस्व की बाधा है।
हिंदी का विकास संसद के माध्यम से
जब संविधान पारित हुआ तब यह आशा और प्रत्याशा जागरूक थी कि भारतीय भाषाओं का विस्तार होगा, राजभाषा हिंदी के प्रयोग में द्रुत गति से प्रगति होगी और संपर्क भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित होगी। संविधान के अनुच्छेद 350 में निर्दिष्ट है कि किसी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य में प्रयोग होनेवाली किसी भाषा में प्रतिवेदन देने का अधिकार होगा। 1956 में अनुच्छेद 350 क संविधान में अंतःस्थापित हुआ और यह निर्दिष्ट हुआ कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास किया जाए। अनुच्छेद 344 में राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति गठित करने का निर्देश दिया गया। प्रयोजन यह था कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग हो, संघ और राज्यों के बीच राजभाषा का प्रयोग बढ़े, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग को सीमित या समाप्त किया जाए। हिंदी भाषा के विकास के लिए यह विशेष निर्देश अनुच्छेद 351 में दिया गया कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके एवं उसका शब्द भंडार समृद्ध और संवर्धित हो।
संकल्प खो गया
हिंदी के विषय में लगता है संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है। संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति, क्षमता और सामर्थ्य अकाट्य, अदम्य और अद्वितीय है, किंतु सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया? क्यों नहीं हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुए? क्यों और कैसे अंग्रेज़ी भाषा की मानसिकता हम पर और हमारी युवा एवं किशोर पीढ़ियों पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में हैं? शिक्षा में, व्यापार और व्यवहार में, संसदीय, शासकीय और न्यायिक प्रक्रियाओं में हिंदी को और प्रादेशिक भाषाओं को पाँव रखने की जगह तो मिली, संख्या का आभास भी मिला, किंतु प्रभावी वर्चस्व नहीं मिल पाया। वोट माँगने के लिए, जन साधारण तक पहुँचने के लिए आज भी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है, किंतु हमारे अधिकारी वर्ग और हमारे नीति-निर्माताओं के चिंतन में अभी भारतीय भाषाओं के लिए, हिंदी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के समकक्ष कोई स्थान नहीं है। हमारी अंतर्राष्ट्रीयता राष्ट्रीय जड़ों रहित होती जा रही है। जनता-जनार्दन से जीवंत संपर्क का अभाव हमारी अस्मिता को निष्प्रभ और खोखला कर देगा, इसमें कोई संशय नहीं है।
विदेशी भाषा से राष्ट्र महान नहीं बनता
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए यह रेखांकित किया था कि यद्यपि अंग्रेज़ी से हमारा बहुत हित साधन हुआ है और इसके द्वारा हमने बहुत कुछ सीखा है तथा उन्नति की है, ''किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।'' उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सोच को आधारभूत मानकर कहा कि विदेशी भाषा के वर्चस्व से नागरिकों में दो श्रेणियाँ स्थापित हो जाती हैं, ''क्यों कि कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती।'' उन्होंने मर्मस्पर्शी शब्दों में महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हुए कहा, ''भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।''
राष्ट्रीय सहमति का संकल्प क्षीण हो गया
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बहस में भाग लेते हुए हिंदी भाषा और देवनागरी का राजभाषा के रूप में समर्थन किया और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने इस निर्णय को ऐतिहासिक बताते हुए संविधान सभा से अनुरोध किया कि वह ''इस अवसर के अनुरूप निर्णय करे और अपनी मातृभूमि में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दे।'' उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है और इसे समझौते तथा सहमति से प्राप्त करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम हिंदी को मुख्यतः इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलनेवालों की संख्या से अधिक है - लगभग 32 करोड़ में से 14 करोड़ (1949 में)। उन्होंने अंतरिम काल में अंग्रेज़ी भाषा को स्वीकार करने के प्रस्ताव को भारत के लिए हितकर माना। उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर बल दिया और कहा कि अंग्रेज़ी को हमें ''उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा।'' साथ ही उन्होंने अंग्रेज़ी के आमूलचूल बहिष्कार का विरोध किया। उन्होंने कहा, ''स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में लाया जाए और अंग्रेज़ी को किस प्रकार त्यागा जाए।
यदि हमारी धारणा हो कि कुछ प्रयोजनों के लिए हमेशा अंग्रेज़ी ही प्रयोग में आए और उसी भाषा में शिक्षा दी जाए तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। उन्होंने भाषा परिषदों की स्थापना का सुझाव दिया ताकि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का सुचारु और तुलनात्मक अध्ययन हो। सभी भाषाओं की चुनी हुई रचनाओं को देवनागरी में प्रकाशित किया जाए और वाणिज्यिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और कला संबंधी शब्दों को निरपेक्ष रूप से निश्चित किया जाए। किंतु महात्मा गांधी की दृष्टि और उनका कार्यक्रम, पं. नेहरू की सोच और डॉ. मुखर्जी के सुझाव क्यों नहीं क्रियान्वित हुए? क्यों राष्ट्रीय सहमति का संकल्प क्षीण और शिथिल हो गया?
हिंदी विरोध राष्ट्र की प्रगति में बाधक
1949 से लेकर आज तक अर्द्धशताब्दी में हम राष्ट्रीय जीवन के यथार्थ में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार नहीं कर पाए।
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी
स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी ने देश के भविष्य के लिए, देश की एकता और अस्मिता के लिए हिंदी को ही राष्ट्र की संपर्क भाषा माना। भारतेंदु ने सूत्ररूप में कहा, ''निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।''
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक निबंध में लिखा है, ''जिस हिंदी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।'' जैसा कि मेरे गुरु कुलपति कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा था, ''हिंदी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि समस्त भारत की भारती के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।'' नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने यह घोषणा की थी कि ''हिंदी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।''
महात्मा गांधी ने भागलपुर में महामना पंडित मनमोहन मालवीय का हिंदी भाषण सुनकर अनुपम काव्यात्मक शब्दों में कहा था, ''पंडित जी का अंग्रेज़ी भाषण चाँदी की तरह चमकता हुआ कहा जाता है, किंतु उनका हिंदी भाषण इस तरह चमका है - जैसे मानसरोवर से निकलती हुई गंगा का प्रवाह सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता है।'' हमारे प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी का प्रत्येक भाषण भी इसी प्रकार सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता हुआ गंगा के प्रवाह की तरह लगता है। फिर क्यों हिंदी का प्रवाह रुका हुआ है?
मंज़िल दूर है
श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जिन्होंने राजभाषा के रूप में एक समय हिंदी का विरोध किया था, ने स्वयं 1956-57 में यह माना कि हिंदी भारत के बहुमत की भाषा है, राष्ट्रीय भाषा होने का दावा कर सकती है और भविष्य में हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा होना निश्चित है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत के सभी भागों में सारी शिक्षा का एक उद्देश्य हिंदी का पूर्ण ज्ञान भी होना चाहिए और यह आशा प्रकट की कि संचार-व्यवस्था और वाणिज्य की प्रगति निश्चय ही यह कार्य संपन्न करेगी। स्व. गंगाशरण सिंह, कविवर रामधारी सिंह दिनकर, प्रकाशवीर शास्त्री और शंकरदयाल सिंह का योगदान आज याद आता है, किंतु हमारी यात्रा अभी अधूरी है, मंज़िल बहुत दूर और दु:साध्य है, पर हमें हिंदी के लिए की गई प्रतिज्ञाओं का पाथेय लेकर चलते रहना है।
हिंदी का तुलसीदल कहाँ है?
इस वर्ष लंदन में छठा विश्व हिंदी सम्मेलन होने जा रहा है। ब्रिटेन में कुछ ही वर्षों में मैंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कई संस्थाएँ बनाईं, उन्हें प्रोत्साहन दिया और भारतवंशी लोगों में हिंदी के प्रति एक नई ललक, एक नया उत्साह, एक समर्पित निष्ठा पाई, किंतु विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी का वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय मंच है, जिसका उद्गम है भारत। अगर विश्व हिंदी सम्मेलन हमें यह पूछे कि भारत में हिंदी का आंदोलन-अभियान क्यों शिथिल पड़ गया है, क्यों भारत अपने संविधान का संकल्प और सपना अब तक साकार नहीं कर पाया, तो हम क्या उत्तर देंगे? जब तक भारत में हिंदी नहीं होगी, विश्व में हिंदी कैसे हो सकती है? जब तक हिंदी भाषा राष्ट्रीय संपर्क की भाषा नहीं बनती, जब तक हिंदी शिक्षा का माध्यम एवं शोध और विज्ञान की भाषा नहीं बनती और जब तक हिंदी शासन, प्रशासन, विधि नियम और न्यायालयों की भाषा नहीं बनती, भारत के आँगन में नवान्न का उत्सव कैसे होगा, हिंदी का तुलसीदल कैसे पल्लवित होगा?
मैं हिंदी की तूती हूँ
मुझे याद आता है सदियों पुराना अमीर खुसरो का फ़ारसी में यह कथन कि ''मैं हिंदी की तूती हूँ, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिंदी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा।'' कब आएगा वह स्वर्ण विहान जब अमीर खुसरो के शब्दों में हिंदी की तूती बजेगी, बोलेगी और भारतीय भाषाएँ भारत माता के गले में एक वरेण्य, मनोरम अलंकार के रूप में सुसज्जित और शोभायमान होंगी। यह उपलब्धि राज्यशक्ति और लोकशक्ति के समवेत, संयुक्त और समर्पित प्रयत्नों से ही संभव है।
(कादंबिनी / अभिव्यक्ति से साभार) | ||||||
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 18 सितंबर 2010
विशेष लेख: संविधान में हिंदी —डॉ. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी
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नवगीत: मेघ बजे --संजीव 'सलिल'
नवगीत:
मेघ बजे
संजीव 'सलिल'
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.

ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन,
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
*******************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
मेघ बजे
संजीव 'सलिल'
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.

ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे... *
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
* पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
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दोहा सलिला : भू-नभ सीता-राम हैं... संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला :

भू-नभ सीता-राम हैं...
संजीव 'सलिल'
*
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..
चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..
दीपावली मना रहा, जग- जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप..
जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल' न उन सा अन्य..
दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..
नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..
खरे-खरे प्रतिमान रच, जी पायें सौ वर्ष. .
जीवन बगिया में खिलें, पुष्प सफलता-हर्ष..
चित्र गुप्त जिसका सकें, उसे 'सलिल' पहचान.
काया-स्थित ब्रम्ह ही, कर्म देव भगवान.
*********************************
Acharya Sanjiv Salil
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भू-नभ सीता-राम हैं...
संजीव 'सलिल'
*
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..
चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..
दीपावली मना रहा, जग- जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप..
जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल' न उन सा अन्य..
दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..
नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..
खरे-खरे प्रतिमान रच, जी पायें सौ वर्ष. .
जीवन बगिया में खिलें, पुष्प सफलता-हर्ष..
चित्र गुप्त जिसका सकें, उसे 'सलिल' पहचान.
काया-स्थित ब्रम्ह ही, कर्म देव भगवान.
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Acharya Sanjiv Salil
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शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
मुक्तिका: सत्य -- संजीव 'सलिल'
मुक्तिका
सत्य
संजीव 'सलिल'
*
सत्य- कहता नहीं, सत्य- सुनता नहीं?
सरफिरा है मनुज, सत्य- गुनता नहीं..
*
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गयी.
सिर्फ कहता रहा, सत्य- चुनता नहीं..
*
आह पर वाह की, किन्तु करता नहीं.
दाना नादान है, सत्य- धुनता नहीं..
*
चरखा-कोशिश परिश्रम रुई साथ ले-
कातता है समय, सत्य- बुनता नहीं..
*
नष्ट पल में हुआ, भ्रष्ट भी कर गया.
कष्ट देता असत, सत्य- घुनता नहीं..
*
प्यास हर आस दे, त्रास सहकर उड़े.
वाष्प बनता 'सलिल', सत्य- भुनता नहीं..
*
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सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
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Font with Indian Rupee Symbol - Download and Use Free
How to use ?
1. Download the above attached font Rupee.ttf or the new version Rupee_Foradian.ttf
2. Install the font. (It is easy. Just copy the font and paste it in "Fonts" folder in control panel)
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How to type the Rupee symbol ?
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Limitations The "Rupee.ttf" font is necessary to view the currency symbol. So as long as the new symbol is not encoded in to unicode font by default, we cant use the symbol universally.
UPDATE: Dont forget to checkout the RuPi Foradian font with 26 different styles for the Indian Rupee Symbol. Click here
Update - 9pm, July 16, 2010
Some people reported that they are facing a problem to select font from the drop down list of MS Office and similar applications. This is because we haven't included glyphs for letters from A to Z. We are serious about copyright issues. Most of the fonts have complex copyright terms.
We have a solution and released the version 2.0 of the Rupee font. This one contains all the glyphs(letters) and is based on BitstreamVera
http://blog.foradian.com/rupee-font-version-20
Update - 11.30am, July 18th, 2010
Soumyadip is one of the first to create a font with Indian rupee symbol. Have a look at his blog post. There are many more people and companies coming with font support for Indian Rupee symbol. Go through the comments to get more info.
Download Version 2.0We have made the first font with support for Indian currency symbol.
How to use ?
1. Download the above attached font Rupee.ttf or the new version Rupee_Foradian.ttf
2. Install the font. (It is easy. Just copy the font and paste it in "Fonts" folder in control panel)
3. Start using it. :)
How to type the Rupee symbol ?
We mapped the grave acent symbol - ` (the key just above "tab" button in your keyboard) with the new Rupee symbol. Just select "Rupee" font from the drop down list of your fonts in your application and press the key just above your tab button. It will display our new rupee symbol. Try it.
Limitations The "Rupee.ttf" font is necessary to view the currency symbol. So as long as the new symbol is not encoded in to unicode font by default, we cant use the symbol universally.
UPDATE: Dont forget to checkout the RuPi Foradian font with 26 different styles for the Indian Rupee Symbol. Click here
Update - 9pm, July 16, 2010
Some people reported that they are facing a problem to select font from the drop down list of MS Office and similar applications. This is because we haven't included glyphs for letters from A to Z. We are serious about copyright issues. Most of the fonts have complex copyright terms.
We have a solution and released the version 2.0 of the Rupee font. This one contains all the glyphs(letters) and is based on BitstreamVera
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Update - 11.30am, July 18th, 2010
Soumyadip is one of the first to create a font with Indian rupee symbol. Have a look at his blog post. There are many more people and companies coming with font support for Indian Rupee symbol. Go through the comments to get more info.
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मुक्तिका:: कहीं निगाह... संजीव 'सलिल'
कहीं निगाह...
संजीव 'सलिल'
*
कदम तले जिन्हें दिल रौंद मुस्कुराना है.
उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है
कहीं निगाह सनम और कहीं निशाना है.
हज़ार झूठ सही, प्यार का फसाना है..
न बाप-माँ की है चिंता, न भाइयों का डर.
करो सलाम ससुर को, वो मालखाना है..
पड़े जो काम तो तू बाप गधे को कह दे.
न स्वार्थ हो तो गधा बाप को बताना है..
जुलुम की उनके कोई इन्तेहां नहीं लोगों
मेरी रसोई के आगे रखा पाखाना है..
किसी का कौन कभी हो सका या होता है?
अकेले आये 'सलिल' औ' अकेले जाना है..
चढ़ाये रहता है चश्मा जो आँख पे दिन भर.
सचाई ये है कि बन्दा वो 'सलिल' काना है..
गुलाब दे रहे हम तो न समझो प्यार हुआ.
'सलिल' कली को कभी खार भी चुभाना है..
*******************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
सामयिक कविता मेघ का सन्देश : -- संजीव सलिल'
सामयिक कविता
मेघ का सन्देश :
संजीव सलिल'
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..
सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..
तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..
*************************
मेघ का सन्देश :
संजीव सलिल'
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..
सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..
तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..
*************************
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सामयिक चिन्तन: दोषी कौन? मन्वन्तर
सामयिक चिन्तन: दोषी कौन?
मन्वन्तर
मूर्ति पूजा? पार्थिव पूजा? या आदर्श पूजा?


हमने प्रभु का किया अनादर ?

हम जैसे भक्त न होते तो अच्छा होता ...?
********************************************************************************************
मन्वन्तर
मूर्ति पूजा? पार्थिव पूजा? या आदर्श पूजा?
विसर्जन के बाद .. ?
एक दिन बाद
हमने प्रभु का किया अनादर ?
विसर्जन या तिरस्कार ... ?
कौन इस अवमानना का जिम्मेदार? भक्त.
हम जैसे भक्त न होते तो अच्छा होता ...?
.. मुझे मेरे भक्तों से बचाओ. !
मूर्ति के अपमान के बहाने दूसरों पर आरोप और दंगा करनेवाले सोचें ?

तारणहार की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन ?
इन्हें कौन तारेगा?
-
दोषी कौन?
सोचें और अपना आचरण सुधारें !
~
दोषी कौन?
सोचें और अपना आचरण सुधारें !
~
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मुक्तिका: ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई --संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
संजीव 'सलिल'
*
मुक्तिका:
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गयी
संजीव 'सलिल'
*
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी.
रिश्तों में भी न कुछ हमदमी रह गयी..
गैर तो गैर थे, अपने भी गैर हैं.
आँख में इसलिए तो नमी रह गयी..
जो खुशी थी वो न जाने कहाँ खो गयी.
आये जब से शहर संग गमी रह गयी..
अब गरमजोशी ढूँढ़े से मिलती नहीं.
लब पे नकली हँसी ही जमी रह गयी..
गुम गयी गिल्ली, डंडा भी अब दूर है.
हाय! बच्चों की संगी रमी रह गयी..
माँ न मैया न माता न लाड़ो-दुलार.
'सलिल' घर में हावी ममी रह गयी ...
गाँव में थी खुशी, भाईचारा, हँसी.
अब सियासत 'सलिल' मातमी रह गयी..
*********************************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
संजीव 'सलिल'
*
मुक्तिका:
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गयी
संजीव 'सलिल'
*
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी.
रिश्तों में भी न कुछ हमदमी रह गयी..
गैर तो गैर थे, अपने भी गैर हैं.
आँख में इसलिए तो नमी रह गयी..
जो खुशी थी वो न जाने कहाँ खो गयी.
आये जब से शहर संग गमी रह गयी..
अब गरमजोशी ढूँढ़े से मिलती नहीं.
लब पे नकली हँसी ही जमी रह गयी..
गुम गयी गिल्ली, डंडा भी अब दूर है.
हाय! बच्चों की संगी रमी रह गयी..
माँ न मैया न माता न लाड़ो-दुलार.
'सलिल' घर में हावी ममी रह गयी ...
गाँव में थी खुशी, भाईचारा, हँसी.
अब सियासत 'सलिल' मातमी रह गयी..
*********************************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 15 सितंबर 2010
अभियंता दिवस १५ सितम्बर पर: मुक्तिका: हम अभियंता अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'
अभियंता दिवस पर मुक्तिका:
हम अभियंता
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कंकर को शंकर करते हैं हम अभियंता.
पग-पग चल मंजिल वरते हैं हम अभियंता..
पग तल रौंदे जाते हैं जो माटी-पत्थर.
उनसे ताजमहल गढ़ते हैं हम अभियंता..
मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, मठ, आश्रम तुम जाओ.
कार्यस्थल की पूजा करते हम अभियंता..
टन-टन घंटी बजा-बजा जग करे आरती.
श्रम का मन्त्र, न दूजा पढ़ते हम अभियंता..
भारत माँ को पूजें हम नव निर्माणों से.
भवन, सड़क, पुल, सुदृढ़ सृजते हम अभियंता..
अवसर-संसाधन कम हैं, आरोप अधिक पर-
मौन कर्म निज करते रहते हम अभियंता..
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कंकर को शंकर करते हैं हम अभियंता.
पग-पग चल मंजिल वरते हैं हम अभियंता..
पग तल रौंदे जाते हैं जो माटी-पत्थर.
उनसे ताजमहल गढ़ते हैं हम अभियंता..
मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, मठ, आश्रम तुम जाओ.
कार्यस्थल की पूजा करते हम अभियंता..
टन-टन घंटी बजा-बजा जग करे आरती.
श्रम का मन्त्र, न दूजा पढ़ते हम अभियंता..
भारत माँ को पूजें हम नव निर्माणों से.
भवन, सड़क, पुल, सुदृढ़ सृजते हम अभियंता..
अवसर-संसाधन कम हैं, आरोप अधिक पर-
मौन कर्म निज करते रहते हम अभियंता..
कभी सुई भी आया करती थी विदेश से.
उन्नत किया देश को हँसते हम अभियंता..
उन्नत किया देश को हँसते हम अभियंता..
लोहा माने दुनिया भारत का, हिन्दी का.
ध्वजा तिरंगी ऊँची रखते हम अभियंता..
ध्वजा तिरंगी ऊँची रखते हम अभियंता..
कार्य हमारा श्रेय प्रशासन ले लेता है.
'सलिल' अदेखे आहें भरते हम अभियंता..
*******************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
'सलिल' अदेखे आहें भरते हम अभियंता..
*******************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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मंगलवार, 14 सितंबर 2010
नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय .... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
*
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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सामायिक लेख: हिन्दी : आज और कल संजीव 'सलिल'
सामायिक लेख:
भाषा के प्रश्न पर चर्चा करते समय लिपि की चर्चा भी आवश्यक है. रोमन लिपि और देवनागरी लिपि के गुण-दोषों की भी चर्चा हो. अन्य भारतीय लिपियों की सामर्थ्य और वैज्ञानिकता को भी कसौटी पर कसा जाये. क्या हर प्रादेशिक भाषा अलग लिपि लेकर जी सकेगी? यदि सबकी लिपि देवनागरी हो तो उन्हें पढना सबके लिये सहज हो जायेगा. पढ़ सकेंगे तो शब्दों के अर्थ समझ कर विविध भाषाएँ बोलना और लिखना आसान हो जायेगा. प्रादेशिक भाषाओँ और हिन्दी की शब्द सम्पदा साझी है. अंतर कर्ता, क्रिया और कारक से होता है किन्तु इतना नहीं कि एक रूप को समझनेवाला अन्य रूप को न समझ सके.
संस्कृत सबका मूल होने पर भी भी पूरे देश में सबके द्वारा नहीं बोली गयी. संस्कृत संभ्रांत औत पंडित वर्ग की भाषा थी जबकि प्राकृत और अपभ्रंश आम लोगों द्वारा बोली जाती थीं. अतीत में गड़े मुर्दे उखाड़कर किसी भी भाषा का भला नहीं होना है. वर्तमान में हिन्दी अपने विविध रूपों (आंचलिक भाषाओँ / बोलिओँ, उर्दू भी) के साथ सकल देश में बोली और समझी जाती है. राजस्थान में भी हिन्दी साहित्य मंडल नाथद्वारा जैसी संस्थाएँ हिन्दी को नव शक्ति प्रदान करने में जुटी हैं. राजस्थानी तो अपने आपमें कोई भाषा है ही नहीं. राजस्थान में मेवाड़ी, मारवाड़ी, शेखावाटी, हाडौती आदि कई भाषाएँ प्रचलित हैं. इनमें से एक भाषा के क्षेत्र में अन्य प्रादेशिक भाषा का विरोध अधिक है हिन्दी का कम. क्या मैथिली भाषी भोजपुरी को, अवधी वाले मैथिली को, मेवाड़ी हदौती को, बघेली बुन्देली को, मालवी निमाड़ी को स्वीकारेंगे? यह कदापि संभव नहीं है जबकि हिन्दी की सर्व स्वीकार्यता है. विविध प्रदेशों में प्रचलित रूपों को उनके राजकीय काम-काज की भाषा घोषित करने के पीछे साहित्यिक-सांस्कृतिक चिंतन कम और स्थानीय राजनीति अधिक है.
भारतीय भाषा में रोमन लिपि और अंग्रेजी को सर्वाधिक चुनौती देने की सामर्थ्य है? इस पर विचार करें तो हिन्दी के सिवा कोई नाम नहीं है. क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि कभी मेवाड़ी, अंगिका, छत्तीसगढ़ी, काठियावाड़ी, हरयाणवी या अन्य भाषा विश्व भाषा हो सकेगी? स्थानीय राजनैतिक लाभ के लिये भाषावार प्रान्तों की संरचना कर भारत के राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात करने की अदूरदर्शी नीति ने भारत और हिन्दी को महती हानि पहुँचायी है. यदि सरकारें ईमानदारी से प्रादेशिक भाषाओँ को बढ़ाना चाहतीं तो अंग्रेजी के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा को बंद कर प्रादेशिक भाषा के माध्यम से पहले प्राथमिक फिर क्रमशः माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्नातक स्तर की शिक्षा की नीति अपनातीं. खेदजनक है कि देश के विदेशी शासकों की भाषा अंग्रेजी का मोह नहीं छूट रहा जबकि उसे समझनेवाले अत्यल्प हैं.
यह तथ्य है कि विश्व भाषा बनने की सामर्थ्य सभी भारतीय भाषाओँ में केवल हिन्दी में है. आवश्यकता हिन्दी के शब्दकोष में आंचलिक भाषाओँ के शब्दों को जोड़ने की है. आवश्यकता हिन्दी में विज्ञान के नए आयामों को देखते हुए नए शब्दों को गढ़ने और कुछ अंग्रेजी शब्दों को आत्मसात करने की है. आवश्यकता नयी पीढ़ी को हिन्दी के माध्यम से हर विषय को पढाये जाने की है. आवश्यकता अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा को प्रतिबंधित किये जाने की है. हिन्दी का भारत की किसी भी भाषा से कोई बैर नहीं है. भारत के राष्ट्रीय गौरव, राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की वाहक सिर्फ हिन्दी ही है. समय के साथ सभी अंतर्विरोध स्वतः समाप्त होते जाएँगे. हिन्दी-प्रेमी मौन भाव से हिन्दी की शब्द-सामर्थ्य और अभिव्यक्ति-क्षमता बढ़ाने में जुटे रहें. वीवध विषयों और भाषाओँ का साहित्य हिन्दी में और हिन्दी से लगातार अनुवादित, भाषांतरित किया जाता रहे तो हिन्दी को विश्व-वाणी बनने से कोई नहीं रोक सकता.
अतः हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित और सुरक्षित है. स्थानीय राजनीति, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, आंचलिक भाषा-मोह आदि व्यवधानों से चिंतित हुए बिना हिन्दी को समृद्ध से समृद्धतर करने के अनथक प्रयास करते रहें. आइये भावी विश्व-वाणी हिन्दी के व्याकरण, पिंगल को समझें, उसमें नित नया रचें और आंचलिक भाषाओँ से टकराव की निरर्थक कोशिशों से बचें. वे सभी हिन्दी का हिस्सा हैं. आंचलिक भाषाओँ के रचनाकार, उनका साहित्य अंततः हिन्दी का ही है. हिन्दी के विशाल भाषिक प्रासाद के विविध कक्ष प्रांतीय / आंचलिक भाषाएँ हैं. उन्हें सँवारने-बढ़ाने के प्रयासों से भी हिन्दी का भला ही होगा. हिन्दी के विकास के लिये सतत समर्पित रहनेवाले अनेक साहित्यकार अहिंदीभाषी हैं. ऐसा नहीं है कि उन्हें अपनी आंचलिक भाषा से प्यार नहीं है. वस्तुतः वे स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में भाषिक प्रश्न को ठीक से देख और समझ पाते हैं. इसलिए वे अपनी आंचलिक भाषा के साथ-साथ हिन्दी में भी सृजन करते हैं. अनेक ऐसे हिन्दीभाषी रचनाकार हैं जो हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ में निरंतर लिख रहे हैं. अन्य कई सृजनधर्मी विविध भाषाओँ के साहित्य को अनुवादित कर रहे हैं. वास्तव में ये सभी सरस्वती पुत्र हिन्दी के ही प्रचार-प्रसार में निमग्न हैं. उनका योगदान हिन्दी को समृद्ध कर रहा है.
अतः हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित और सुरक्षित है. स्थानीय राजनीति, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, आंचलिक भाषा-मोह आदि व्यवधानों से चिंतित हुए बिना हिन्दी को समृद्ध से समृद्धतर करने के अनथक प्रयास करते रहें. आइये भावी विश्व-वाणी हिन्दी के व्याकरण, पिंगल को समझें, उसमें नित नया रचें और आंचलिक भाषाओँ से टकराव की निरर्थक कोशिशों से बचें. वे सभी हिन्दी का हिस्सा हैं. आंचलिक भाषाओँ के रचनाकार, उनका साहित्य अंततः हिन्दी का ही है. हिन्दी के विशाल भाषिक प्रासाद के विविध कक्ष प्रांतीय / आंचलिक भाषाएँ हैं. उन्हें सँवारने-बढ़ाने के प्रयासों से भी हिन्दी का भला ही होगा. आइये, हम सब भारत माता के माथे की बिंदी हिन्दी को धरती माता के माथे की बिंदी बनाने के लिये संकल्पित-समर्पित हों. -- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम **********************
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दो गीत : श्री प्रकाश शुक्ल
दो गीत :श्री प्रकाश शुक्ल
*
१.
जाने क्यों यह मन में आया......
प्रकृति जननि आँचल में अपने, भरे हुए अनगिनत सुसाधन
चर-अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवनयापन
बढ़ती आबादी, अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको प्रतिपल
असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर ठहरा
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानवजन्य उपकरण
सामूहिक सद्भाव सहित, खोजेंगे हल उतम प्रगाड़ गतिविधियाँ वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़
निश्चित उद्देश्य न पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
२.
जाने क्यों यह मन में आया
"जाने क्यों यह मन में आया?" अभी-अभी तत्पर
क्या होता नवगीत, विधा क्या, क्या कुछ शोध हुई इस पर?
कौन जनक, उपजा किस युग में, कौन दे रहा इसको संबल?
प्रश्न अनेकों मन में उपजे, सोया, जाग्रत हुआ मनोबल.
कैसे यह परिभाषित, क्या क्या जुडी हुयी इस से आशाएँ?
हिंदी भाषा होगी समृद्ध , क्या विचक्षणों की ये तृष्णाएँ?
शंका रहित प्रश्न यह लगते, सुनकर केवल मधुर नाम
पर नामों का औचित्य तभी, जब सुखद, मनोरम हो परिणाम
हिंदी साहित्य सदन में क्या ये, होंगे सुदीप्त दीपक बनकर
जिनकी आभा से आलोकित, सिहर उठे मानव अन्तःस्वर?
कैसे टूटा मानस मन, पायेगा अभीष्ट साहस, शक्ति?
बिना भाव संपूरित जब, होगी केवल रूखी अभिव्यक्ति?
छोड़ रहा हूँ खुले प्रश्न ये, आज प्रबुद्धों के आगे
नवगीतों की रचना में, वांछित क्यों अनजाने धागे.
(टीप: उक्त दोनों गीत ई कविता की समस्या पूर्ति में प्रकाशित हुए थे.
पाठक इनमें निहित प्रश्नों पर विचार कर उत्तर, सुझाव या अन्य जानकारियाँ बाँटें तो सभी का लाभ होगा. गीत, नवगीत, अगीत, प्रगीत, गद्य गीत आदि पर भी जानकारी आमंत्रित है.-सं.)
*
२८ अगस्त २०१०
सोमवार, 13 सितंबर 2010
दोहा सलिला: नैन अबोले बोलते..... संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला:
नैन अबोले बोलते.....
संजीव 'सलिल'
*

*
नैन अबोले बोलते, नैन समझते बात.
नैन राज सब खोलते, कैसी बीती रात.
*
नैन नैन से मिल झुके, उठे लड़े झुक मौन.
क्या अनकहनी कह गए, कहे-बताये कौन?.
*
नैन नैन में बस हुलस, नैन चुराते नैन.
नैन नैन को चुभ रहे, नैन बन गए बैन..
*
नैन बने दर्पण कभी, नैन नैन का बिम्ब.
नैन अदेखे देखते, नैनों का प्रतिबिम्ब..
*
गहरे नीले नैन क्यों, उषा गाल सम लाल?
नेह नर्मदा नहाकर, नत-उन्नत बेहाल..
*
मन्मथ मन मथ मस्त है. दिव्य मथानी देह.
सागर मंथन ने दिया अमिय, नहीं संदेह..
*
देह विदेहित जब हुई, मिला नैन को चैन.
आँख नैन ने फेर ली, नैन हुए बेचैन..
*
आँख दिखाकर नैन को, नैन हुआ नाराज़.
आँख मूँदकर नैन है, मौन कहो किस व्याज..
*
पानी आया आँख में, बेमौसम बरसात.
आँसू पोछे नैन चुप, बैरन लगती रात..
*
अंगारे बरसा रही आँख, धरा है तप्त.
किसके नैनों पर हुआ, नैन कहो अनुरक्त?.
*
नैन चुभ गए नैन को, नैन नैन में लीन.
नैन नैन को पा धनी, नैन नैन बिन दीन..
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तीन पद: ---- संजीव 'सलिल'
तीन पद:
संजीव 'सलिल'
*
धर्म की, कर्म की भूमि है भारत,
नेह निबाहिबो हिरदै को भात है.
रंगी तिरंगी पताका मनोहर-
फर-फर अम्बर में फहरात है.
चाँदी सी चमचम रेवा है करधन,
शीश मुकुट नागराज सुहात है.
पाँव पखारे 'सलिल' रत्नाकर,
रवि, ससि, तरे, शोभा बढ़ात है..
*
नीम बिराजी हैं माता भवानी,
बंसी लै कान्हा कदम्ब की छैयां.
संकर बेल के पत्र बिराजे,
तुलसी में सालिगराम रमैया.
सदा सुहागन अँगना की सोभा-
चम्पा, चमेली, जुही में जुन्हैया.
काम करे निष्काम संवरिया,
नाचे नचा जगती को नचैया..
*
बाँह उठाय कहौं सच आपु सौं,
भारत-सुत मैया गुन गाइहौं.
स्वर्ग के सुख सब हेठे हैं छलिया.
ध्याइहौं भारत भूमि को ध्याइहौं.
जोग-संजोग-बिजोग हिये धरि,
सेस सन्जीवनि सौं सरसाइहौं.
जन-गण-मन के कारण पल में-
प्रान दे प्रान को मान बढ़ाइहौं..
*
--- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
संजीव 'सलिल'
*
धर्म की, कर्म की भूमि है भारत,
नेह निबाहिबो हिरदै को भात है.
रंगी तिरंगी पताका मनोहर-
फर-फर अम्बर में फहरात है.
चाँदी सी चमचम रेवा है करधन,
शीश मुकुट नागराज सुहात है.
पाँव पखारे 'सलिल' रत्नाकर,
रवि, ससि, तरे, शोभा बढ़ात है..
*
नीम बिराजी हैं माता भवानी,
बंसी लै कान्हा कदम्ब की छैयां.
संकर बेल के पत्र बिराजे,
तुलसी में सालिगराम रमैया.
सदा सुहागन अँगना की सोभा-
चम्पा, चमेली, जुही में जुन्हैया.
काम करे निष्काम संवरिया,
नाचे नचा जगती को नचैया..
*
बाँह उठाय कहौं सच आपु सौं,
भारत-सुत मैया गुन गाइहौं.
स्वर्ग के सुख सब हेठे हैं छलिया.
ध्याइहौं भारत भूमि को ध्याइहौं.
जोग-संजोग-बिजोग हिये धरि,
सेस सन्जीवनि सौं सरसाइहौं.
जन-गण-मन के कारण पल में-
प्रान दे प्रान को मान बढ़ाइहौं..
*
--- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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एक तेवरी : रमेश राज, अलीगढ़.
एक तेवरी :रमेश राज, अलीगढ़.
*
*
नैन को तो अश्रु के आभास ने अपना पता-
और मन को दे दिया संत्रास ने अपना पता..
*
सादगी-मासूमियत इस प्यार को हम क्या कहें?
खुरपियों को दे दिया है घास ने अपना पता..
*
मरूथलों के बीच भी जो आज तक भटके नहीं.
उन मृगों को झट बताया प्यास ने अपना पता..
*
फूल तितली और भँवरे अब न इसके पास हैं-
यूँ कभी बदला न था मधुमास ने अपना पता..
*
बात कुछ थी इस तरह की चौंकना मुझको पड़ा-
चीख के घर का लिखा उल्लास ने अपना पता..
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