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मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

नवगीत

नवगीत
संजीव 
*
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी 
आदमी ने जब से 
मन पर रख लिए पत्थर 
देवता को दे दिया है 
पत्थरों का घर 
रिक्त मन मंदिर हुआ 
याद आ रही नानी 
नाक हो जब बहुत ऊँची 
बैठती मक्खी 
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति 
अहं ने ठानी
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख 
खुद से यार 
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार 
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी 
चीर हरकर माँ धरा का 
नष्टकर पोखर 
पी रहे जल बोतलों का 
हाय! हम जोकर 
बावली है बावली 
पानी लिए धानी 
१-१२-२०१४ 

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