एक रचना :
मानव और लहर
संजीव
*
लहरें आतीं लेकर ममता,
मानव करता मोह
क्षुब्ध लौट जाती झट तट से,
डुबा करें विद्रोह
*
मानव मन ही मन में माने,
खुद को सबका भूप
लहर बने दर्पण कह देती,
भिक्षुक! लख निज रूप
*
मानव लहर-लहर को करता,
छूकर सिर्फ मलीन
लहर मलिनता मिटा बजाती
कलकल-ध्वनि की बीन
*
मानव संचय करे, लहर ने
नहीं जोड़ना जाना
मानव देता गँवा, लहर ने
सीखा नहीं गँवाना
*
मानव बहुत सयाना कौआ
छीन-झपट में ख्यात
लहर लुटाती खुद को हँसकर
माने पाँत न जात
*
मानव डूबे या उतराये
रहता खाली हाथ
लहर किनारे-पार लगाती
उठा-गिराकर माथ
*
मानव घाट-बाट पर पण्डे-
झण्डे रखता खूब
लहर बहाती पल में लेकिन
बच जाती है दूब
*
'नानक नन्हे यूँ रहो'
मानव कह, जा भूल
लहर कहे चंदन सम धर ले
मातृभूमि की धूल
*
'माटी कहे कुम्हार से'
मनुज भुलाये सत्य
अनहद नाद करे लहर
मिथ्या जगत अनित्य
*
'कर्म प्रधान बिस्व' कहता
पर बिसराता है मर्म
मानव, लहर न भूले पल भर
करे निरंतर कर्म
*
'हुईहै वही जो राम' कह रहा
खुद को कर्ता मान
मानव, लहर न तनिक कर रही
है मन में अभिमान
*
'कर्म करो फल की चिंता तज'
कहता मनुज सदैव
लेकिन फल की आस न तजता
त्यागे लहर कुटैव
*
'पानी केरा बुदबुदा'
कह लेता धन जोड़
मानव, छीने लहर तो
डूबे, सके न छोड़
*
आतीं-जातीं हो निर्मोही,
सम कह मिलन-विछोह
लहर, न मानव बिछुड़े हँसकर
पाले विभ्रम -विमोह
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018
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