लुप्त होते लोकगीत
डॉ. जेन्नी शबनम
लोक संस्कृति के जिस हिस्से ने सर्वाधिक संक्रमण झेला है वो है लोकगीत| आज लोकगीत गाँव, टोलों, कस्बों से गायब हो रहे हैं| कान तरस जाते हैं नानी दादी से सुने लोकगीतों को दोबारा सुनने के लिए|
हमारे यहाँ हर त्यौहार और परंपरा के अनुरूप लोकगीत रहे हैं और आज भी ग्रामीण और छोटे शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बड़े बुज़ुर्गों में इनकी अहमियत बनी हुई है| विवाह के अवसर पर राम-सीता और शिव-पार्वती के विवाह-गीत के साथ हीं हर विधि के लिए अलग अलग गीत, शिशु जन्म पर सोहर, बिरहा, कजरी, सामा-चकवा, तीज, भाई दूज, होली पर होरी, छठ पर्व पर छठी मइया के गीत, रोपाई बिनाई के गीत, धान कूटने के गीत, गंगा स्नान के गीत आदि सुनने को मिलते थे| जीवन से जुड़े हर शुभ अवसर, महत्वपूर्ण अवसर के साथ हीं रोज़मर्रा के कार्य केलिए भी लोक गीत रचे गए हैं|
एक प्यारे से गीत के बोल याद आ रहे हैं जो अपने गाँव में बचपन में सुनी हूँ…
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी,
पुआ के बड़ाई अपन फुआ से कहिय,
ललन सुखदायी,
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी,
कचौड़ी के बड़ाई अपन भउजी से कहिय,
ललन सुखदायी …
खाना पर बना ये गीत बड़ा मज़ा आता था सुनने में| इसमें सभी नातों और खाने को जोड़ कर गाते हैं, जिसमें दुल्हा अपने ससुराल आया हुआ है और उसे कहा जा रहा कि यहाँ जो कुछ भी स्वागत में खाने को मिला वो सभी इतना स्वादिष्ट था कि अपने घर जाकर अपने सभी नातों से यहाँ के खाने की बड़ाई करना|

एक और गीत है जिसे भाई दूज के अवसर पर गाते हैं| इसमें पहले तो बहनें अपने भाई को श्राप देकर मार देती हैं फिर जीभ में काँटा चुभा कर स्वयं को कष्ट देती हैं कि इसी मुंह से भाई को श्राप दिया और फिर भाई की लम्बी आयु के लिये आशीष देती हैं…
जीय जीय ( भाई का नाम) भईया लाख बारिस
(बहन का नाम लेकर) बहिनी देलीन आसीस हे…
मुझे याद है गाँव में आस पास की सभी औरतें इकठ्ठी हो जाती थीं और सभी मिलकर एक एक कर अपने अपने भाइयों केलिए गाती थीं| मैं तो कभी ये की नहीं, लेकिन मेरे बदले मेरी मईयाँ (बड़ी चाची) शुरू से करती थी| अब तो सब विस्मृत हो चुका, मेरे ज़ेहन से भी और शायद इस लोक गीत को गाने वाले लोगों की पीढ़ी के ज़ेहन से भी|
पारंपरिक लोकगीत न सिर्फ अपनी पहचान खो रहा है बल्कि मौज़ूदा पीढ़ी इसके सौंदर्य को भी भूल रही है| हर प्रथा, परंपरा और रीति-रिवाज के अनुसार लोक गीत होता है, और उस अवसर पर गाया जाने वाला गीत न सिर्फ महिलाओं को बल्कि पुरुष को भी हर्षित और रोमांचित करता रहा है| लेकिन जिस तरह किसी त्योहार या प्रथा का पारंपरिक स्वरुप बिगड़ चुका है उसी तरह लोकगीत कह कर बेचे जाने वाले नए उत्पादों में न तो लोकरंग नज़र आता है न गीत| जहाँ सिर्फ लोक गीत होते थे अब उनकी जगह फ़िल्मी धुन पर बने अश्लील गीत ले चुके हैं| अब सरस्वती पूजा हो या दुर्गा
पूजा, पंडाल में  सिर्फ फ़िल्मी गीत हीं बजते हैं| होली पर 
गाये जाने वाला होरी तो अब सिर्फ  देहातों तक सिमट चूका है| गाँव में भी 
रोपनी या कटनी के समय अब गीत नहीं  गूंजते| सोहर, विरही, झूमर, आदि महज़ 
टी.वी चैनल के क्षेत्रीय कार्यक्रम  में दीखता है| विवाह हो या शिशु जन्म 
या फिर कोई अन्य ख़ुशी का अवसर  फ़िल्मी गीत और डी.जे का हल्ला गूंजता है| 
यहाँ तक कि छठ पूजा जो कि बिहार  का सबसे बड़ा पर्व माना जाता, उसमें भी 
लाउड स्पीकर पर फ़िल्मी गाना बजता  है| यूँ औरतें अब भी छठी मइया का हीं 
पारंपरिक गीत गातीं हैं| अब तो आलम ये  है कि भजन भी अब किसी प्रचलित 
फ़िल्मी गाना की धुन पर लिखा जाने लगा है|  किसी के पास इतना समय नहीं कि 
सम्मिलित होकर लोकगीत गायें| विवाह भी जैसे  निपटाने की बात हो गई है| 
पूजा-पाठ हो या फिर त्योहार, करते आ रहे इसलिए  करना है और जिसका जितना 
बड़ा पंडाल, जितना ज्यादा खर्च वो सबसे प्रसिद्द|  लोक गीतों का वक़्त अब 
टी.वी ने ले लिया है| गाँव गाँव में टी.वी पहुँच  चुका है, भले हीं कम समय 
केलिए बिजली रहे पर जितनी देर रहे लोग एक साथ होकर  भी साथ नहीं होते, उनकी
 सोच पर टी.वी हावी रहता है| अब तो कुछ आदिवासी  क्षेत्र को छोड़ दें तो 
कहीं भी हमारी पुरानी परंपरा नहीं बची है न  पारंपरिक लोकगीत| अब अगर जो 
बात की जाए कि कोई लोकगीत सुनाओ तो बस भोजपुरी  अश्लील गाना सुना दिया 
जाता, जैसे कि ये लोकगीत का पर्याय बन चुका हो|न मालूम 
लोकगीत का पुनरागमन होगा कि नहीं, लेकिन पूर्वी भारत में लोक  गीतों का 
लुप्त होना इस सदी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक क्षय है क्योंकि  परिवार और 
समाज की टूटन कहीं न कहीं इससे हीं प्रभावित है| गाँव से पलायन,  शहरीकरण 
और औद्द्योगीकरण इस सांस्कृतिक ह्रास का बहुत बड़ा कारण है| हम  किसी 
संस्कृति को दोष नहीं दे सकते कि उसके प्रभाव से हमारी संस्कृति नष्ट  हुई 
है| बल्कि हम स्वयं इन सबको छोड़ रहे और जिंदगी को जीने केलिए नहीं  बल्कि 
प्रतिस्पर्धा में झोंक रहे हैं| पारंपरिक लोकगीत गाने वाले अब बहुत  कम लोग
 बचे हैं और आज की पीढ़ी सीखना भी नहीं चाहती| ऐसे में लोक गीत का  भविष्य 
क्या होगा? क्या यूँ हीं अपनी पहचान खोकर कहीं किसी कोने में पड़े  पड़े 
अपने हीं लिए गाये शोक गीत?आभार: साँझा संसार
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