मुक्तक सलिला 
संजीव
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नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
संजीव
*
नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं 
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चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं 
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं 
ये संसद है अखाडा चाहो तो  मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं 
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खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट 
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों  कैच हो शाउट 
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये  नूरा कुश्ती  है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली *
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