नव गीत:
हम खुद को....
संजीव 'सलिल'
*
*
हम खुद को खुद ही डंसते हैं...
*
जब औरों के दोष गिनाये.
हमने अपने ऐब छिपाए.
विहँस दिया औरों को धोखा-
ठगे गए तो अश्रु बहाये.
चलते चाल चतुर कह खुद को-
बनते मूर्ख स्वयं फंसते हैं...
*
लिये सुमिरनी माला फेरें.
मन से प्रभु को कभी न टेरें.
जब-जब आपद-विपदा घेरें-
होकर विकल ईश-पथ हेरें.
मोह-वासना के दलदल में
संयम रथ पहिये फंसते हैं....
*
लगा अल्पना चौक रंगोली,
फैलाई आशा की झोली.
त्योहारों पर हँसी-ठिठोली-
करे मनौती निष्ठां भोली.
पाखंडों के शूल फूल की
क्यारी में पाये ठंसते हैं.....
*
पुरवैया को पछुआ घेरे.
दीप सूर्य पर आँख तरेरे.
तड़ित करे जब-तब चकफेरे
नभ पर छाये मेघ घनेरे.
आशा-निष्ठां का सम्बल ले
हम निर्भय पग रख हँसते हैं.....
****************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 24 जुलाई 2010
नव गीत: हम खुद को.... संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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3 टिप्पणियां:
बढ़िया है.
जब औरों के दोष गिनाये.
हमने अपने ऐब छिपाए.
विहँस दिया औरों को धोखा-
ठगे गए तो अश्रु बहाये.
चलते चाल चतुर कह खुद को-
बनते मूर्ख स्वयं फंसते हैं...
कितनी सच्चाई बयाँ की है आपने । बढिया रचना ।
संजीव जी आपका गीत मन को छू गया। इस मनभावन गीत के लिए बधाई स्वीकारें।
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