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सोमवार, 25 मई 2015

kruti charcha: sarvmangal-shakuntla khare

कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह  
आचार्य संजीव 
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, मकान = क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत] 
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों  की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है. 

आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय  छोड़कर अन्यत्र  जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा  के  कारण  तर्क-बुद्धि का  परम्पराओं  के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन  तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों  से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों  से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में  पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता,  संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है. 

मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शकुंतला खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह  से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.

संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी  शैशव से ही इन लोक पर्वों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि  पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा  अगढ़ता  के समीप हैं. इस कारण इन्हें  बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है. 

भारत अनेकता में एकता  का देश  है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों  से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व  मनाये  जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी  सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
२०४
​ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, 
जबलपुर ४८२००१ ​
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४


मुक्तिका: संजीव

मुक्तिका:
संजीव 
*
सुरभि फ़ैली, आ गयीं 
कमल-दल सम, भा गयीं 
*
ज़िन्दगी के मंच पर 
बन्दगी  बन छा गयीं
विरह-गीतों में विहँस  
मिलन-रस बिखरा गयीं 
*
सियासत में सत्य सम
सिकुड़कर संकुचा गयीं 
*
हर कहानी अनकही 
बिन कहे फरमा गयीं 
*

muktika: sanjiv


मुक्तिका:
संजीव
*
हुआ जन दाना अधिक या अब अधिक नादान है
अब न करता अन्य का, खुद का करे गुणगान है 

जब तलक आदम रहा दम आदमी में खूब था 
आदमी जब से हुआ मच्छर से भी हैरान है.
*
जान की थी जान मुझमें अमन जीवन में रहा 
जान मेरी जान में जबसे बसी, वीरान है.
*
भूलते ही नहीं वो दिन जब हमारा देश था 
देश से ज्यादा हुआ प्रिय स्वार्थ सत्ता मान है
*
भेद लाखों, एकता का एक मुद्दा शेष है 
मिले कैसे भी मगर मिल जाए कुछ अनुदान है 
*

कौन हूँ मैं


पूछने मुझसे लगा प्रतिबिम्ब दर्पण में खड़ा इक
कौन हूँ मैं और क्या परिचय मेरा उसको बताऊँ
 
कौन हूँ मैं? प्रश्न ये सुलझा सका है कौन युग से
और फ़िर यह प्रश्न क्या सचमुच कहीं अस्तित्व मेरा
एक भ्रम है या किसी अहसास की कोई छुअन है
रोशनी का पुंज है या है अमावस का अंधेरा
 
नित्य ही मैं खोलता परतें रहस्यों की घनेरी
जो निरन्तर बढ़ रहीं, संभव नहीं है पार पाऊँ
 
मैं स्वयं मैं हूँ, कि कोई और है जो मैं बना है
और फिर कोई अगर मैं! तो भला फिर कौन हूँ मैं
और यदि मैं हूँ "अहम ब्रह्मास्मि" का वंशाधिकारी
तो कथाओं में अगोचर जो रहा, वह गौण हूँ मैं
 
प्रश्न में उलझा हुआ इक किंकिणी का अंश टुटा
चाहता हूँ किन्तु संभव है नहीं मैं झनझनाऊँ
 
पार मैं के दायरे के चाहता हूँ मैं निकल कर
दूर से देखूँ, कदाचित कौन हूँ मैं जान लूँगा
और जो परछाईयों के प्रश्न में उलझे हुए हैं
प्रश्न, उनके उत्तरों को हो सकेगा जान लूंगा
 
हैं विषम जो ये परिस्थितियाँ,स्वयं मैने उगाई
राह कोई आप बतला दें अगर तो पाअर पाऊँ
 
राकेश खंडेलवाल

शनिवार, 23 मई 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव 
*
पैर जमीं पर जमे रहें तो नभ बांहों में ले सकते हो 
आशा की पतवार थामकर भव में नैया खे सकते हो.​​
शब्द-शब्द को कथ्य, बिंब, रस, भाव, छंद से अनुप्राणित कर 
स्नेह-सलिल में अवगाहन कर नित काव्यामृत दे सकते हो 
*

शुक्रवार, 22 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
प्रयासों की अस्थियों पर 
संजीव
*
प्रयासों की अस्थियों पर 
सुसाधन के मांस बिन 
सफलता-चमड़ी शिथिल हो झूलती.
*
सांस का व्यापार 
थमता अनथमा सा
आस हिमगिरि पर
निरंतर जलजला सा. 
अंकुरों को 
पान गुटखा लीलता नित-
मुँह छिपाता नीलकंठी 
फलसफा सा.
ब्रांडेड मँहगी दवाई  
अस्पताली भव्यताएँ 
रोग को मुद्रा-तुला पर तौलती.
प्रयासों की अस्थियों पर 
सुसाधन के मांस बिन 
सफलता-चमड़ी शिथिल हो झूलती.
* 
वीतरागी चिकित्सक को  
रोग से लेना, न देना 
कई दर्जन टेस्ट  
सालों औषधि, राहत न देना. 
त्रास के तूफ़ान में  
बेबस मरीजों को खिलौना-
बना खेले निष्ठुरी  
चाबे चबेना.
आँख पीड़ा-हताशा के   
अनलिखे संवाद 
पल-पल मौन रहकर बोलती.
प्रयासों की अस्थियों पर 
सुसाधन के मांस बिन 
सफलता-चमड़ी शिथिल हो झूलती.
* 

बुधवार, 20 मई 2015

doha salila: aankh

दोहा सलिला:
दोहों के रंग  आंख के संग
संजीव
*
आँख लड़ी झुक उठ मिली, मुंदी कहानी पूर्ण
लाड़ मुहब्बत ख्वाब सँग, श्वास-आस का चूर्ण
*
आँख कहानी लघुकथा, उपन्यास रस छंद
गीत गजल कविता भजन, सुख-दुःख परमानंद
*
एक आँख से देखते, धूप-छाँव जो मीत
वही उतार-चढ़ाव पर, चलकर पाते जीत
*
धुल झोंकते आँख में, आँख बिछाकर लोग
चुरा-मिला आँखें दिखा, झूठ मनाते सोग
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
*
चल जब-तब परदेश को, अपना यही जुनून
गुड मोर्निंग करिए कहीं, कहीं आफ्टर नून
*
गर्मी की तारीफ में पढ़ा कसीदा एक
'भर्ता खाने के लिये, भटा धूप में भून'
*
दिल्ली में हो रहा है मर्यादा का खून 
खून मत जला देखकर पहुँच देहरादून 
*
आम आदमी बन लड़े कल जो आम चुनाव
आज हुए  सबसे  बड़े वे  ही अफलातून 
*
उपयोगी हो ठंड में,  स्वेटर बुन ले आज 
ले ले जितना मन कहे, सूर्य-किरण का ऊन 
*

dwipadi / doha

द्विपदियाँ:
संजीव
*
नहीं इंसान हैं, हैवान हैं, शैतान हैं वो सब 
जो मजहब को नहीं तहजीब, बस फिरका समझते हैं
*
मिले उपहार में जो फेंक दें अपनी नहीं आदत
जतन से दर्द दिल में 'सलिल' ने रक्खा सदा सेकर
*

दोहा सलिला:
संजीव
*
सिर्फ जुबां से ही नहीं, की जाती है बात
आँख- आँख में झाँककर, समझ सके जज्बात
*
कई फेसबुकिये मिले, जिन्हें चाहिए नाम
कुछ ऐसे जो चाहते, रहना सदा अनाम
*

navgeet: sanjiv

नवगीत:
जिंदगी के गणित में
संजीव
*
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
रही बाकी न दम.
*
इंद्र है युग लीन सुख में
तपस्याओं से डरे.
अहल्याओं को तलाशे
लाख मारो न मरे.
जन दधीची अस्थियाँ दे
बनाता विजयी रहा-
हुई हर आशा दुराशा
कभी कुछ संयम वरे.
कामनाओं से ग्रसित
होकर भ्रमित
बिखरे हैं हम.
वासनाओं से जड़ित
होते दमित
अँखियाँ न नम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
चलो मिलकर सनम.
*
पडोसी के द्वार पर जा
रोज छिप कचरा धरें.
चाह आकर विधाता-
नित व्याधियाँ-मुश्किल हरें .
सुधारों का शंख जिसने
बजाया विनयी रहा-
सिया को वन भेजता जो
देह तज कैसे तरे?
भूल को स्वीकार  
संशोधन किये
निखरे हैं हम.
शूल से कर प्यार
वरते कूल
लहरें हैं न कम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
बढ़ें संग रख कदम.
*

dwipadi salila: sanjiv

द्विपदी सलिला:
संजीव
*
वक़्त सुनता ही नहीं सिर्फ सुनाता रहता
नजर घरवाली की ही इसमें अदा आती है
*
दिखाया आईना मैंने कि वो भी देख सके 
आँख में उसकी बसा चेहरा मेरा ही है
*
आसमां को थाम लें हाथों में अपने हम अगर 
पैर ज़माने के लिये जमीं रब हमें दे दे
*
तुम्हें जानना है महज इसलिए ही
दुनिया के सारे शिखर नापते हैं
*
दिले-दिलवर को खटखटाते रहे नज़रों से 
आँख का डाकिया पैगाम कभी तो देगा
*
बेरुखी लाख दिखाये वो सरे-आम मगर 
नज़र जो मिल के झुके प्यार भी हो सकती है
*
अंत नहीं है प्यास का, नहीं मोह का छोर
मुट्ठी में ममता मिली, दिनकर लिया अँजोर
*
लेन-देन जिंदगी में इस कदर बढ़ा
बाकी नहीं है फर्क आदमी-दूकान में
*
साथ चलते हाथ छूटे कब-कहाँ- कैसे कहें
बेहतर है फिर मिलें मन मीत! हम कुछ मत कहें
*
सारे सौदे वो नगद करता है जन्म से ही रहे उधार हैं हम सारी दुनिया में जाके कहते हैं भारत में हुए सुधार हैं हम *




दोहा सलिला:
संजीव
*
जो दिखता होता नहीं, केवल उतना सत्य 
छोटे तन में बड़ा मन, करता अद्भुत कृत्य
*
ओझा कर दे टोटका, फूंक कभी तो मन्त्र 
मन-अँगना में भी लगे, फूलों का संयंत्र
*
नित मन्दिर में माँगते, किन्तु न होते तृप्त 
दो चहरे ढोते फिरे, नर-पशु सदा अतृप्त
*
जब जो जी चाहे करे, राजा वह ही न्याय
लोक मान्यता कराती, राजा से अन्याय
*
पर उपकारी हैं बहुत, हम भारत के लोग 
मुफ्त मशवरे दें 'सलिल', यही हमारा रोग
*


मंगलवार, 19 मई 2015

doha salila: naak -sanjiv

दोहा सलिला: 
दोहा का रंग नाक के संग 
संजीव 
*
मीन कमल मृग से नयन, शुक जैसी हो नाक 
चंदन तन में आत्म हो, निष्कलंक निष्पाप 
*
आँख कान कर पैर लब, दो-दो करते काम 
नाक शीश मन प्राण को, मिलता जग में नाम 
*
नाक नकेल बिना नहीं, घोड़ा सहे सवार 
बीबी नाक-नकेल बिन, हो सवार कर प्यार 
*
जिसकी दस-दस नाक थीं, उठा न सका पिनाक 
बीच सभा में कट गयी, नाक मिट गयी धाक 
*
नाक-नार दें हौसला, ठुमक पटकती पैर 
ख्वाब दिखा पुचकार लो, 'सलिल' तभी हो खैर 
*
नाक छिनकना छोड़ दें, जहाँ-तहाँ हम-आप 
'सलिल' स्वच्छ भारत बने, मिटे गंदगी शाप 
*
शूर्पणखा की नाक ने, बदल दिया इतिहास
ऊँची थी संत्रास दे, कटी सहा संत्रास 
*
नाक सदा ऊँची रखें, बढ़े मान-सम्मान 
नाक अदाए व्यर्थ जो, उसका हो अपमान 
*
नाक न नीची हो तनिक, करता सब जग फ़िक्र 
नाक कटे तो हो 'सलिल', घर-घर हँसकर ज़िक्र 
*
नाक घुसेड़ें हर जगह, जो वे पाते मात 
नाक अड़ाते बिन वजह, हो जाते कुख्यात 
*
बैठ न पाये नाक पर, मक्खी रखिये ध्यान 
बैठे तो झट दें उड़ा, बने रहें अनजान 
*

dwipadiyan: sanjiv

द्विपदियाँ
संजीव
*
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर 
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ 
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है 
*
आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे 
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
*



doha salila: aankh -sanjiv

दोहा सलिला:
दोहा के रंग आँखों के संग ३ 
संजीव 
*
आँख न रखते आँख पर, जो वे खोते दृष्टि 
आँख स्वस्थ्य रखिए सदा, करें स्नेह की वृष्टि
*

मुग्ध आँख पर हो गये, दिल को लुटा महेश 
एक न दो,  लीं तीन तब, मिला महत्त्व अशेष
*
आँख खुली तो पड़ गये, आँखों में बल खूब 
आँख डबडबा रह गयी, अश्रु-धार में डूब 
*
उतरे खून न आँख में,  आँख दिखाना छोड़ 
आँख चुराना भी गलत, फेर न, पर ले मोड़ 
*
धूल आँख में झोंकना, है अक्षम अपराध 
आँख खोल दे समय तो, पूरी हो हर साध 
*
आँख चौंधियाये नहीं, पाकर धन-संपत्ति 
हो विपत्ति कोई छिपी, झेल- न कर आपत्ति 
आँखें पीली-लाल हों,  रहो आँख से दूर 
आँखों का काँटा बनें, तो आँखें हैं सूर 
*
शत्रु  किरकिरी आँख की, छोड़ न कह: 'है दीन'
अवसर पा लेता वही, पल में आँखें छीन 
*
आँख बिछा स्वागत करें,रखें आँख की ओट
आँख पुतलियाँ मानिये, बहू बेटियाँ नोट 
*
आँखों का तारा 'सलिल', अपना भारत देश 
आँख फाड़ देखे जगतं, उन्नति करे विशेष
*

सोमवार, 18 मई 2015

दोहा सलिला: आँख संजीव

दोहा सलिला:
दोहे के रंग आँख के संग: ३
संजीव 

आँख न दिल का खोल दे, कहीं अजाने राज 
काला चश्मा आँख पर, रखता जग इस व्याज
*
नाम नयनसुख- आँख का, अँधा मगर समाज
आँख न खुलती इसलिए, है अनीति का राज
*
आँख सुहाती आँख को, फूटी आँख न- सत्य
आना सच है आँख का, जाना मगर असत्य
*
खोल रही ऑंखें उषा, दुपहर तरेरे आँख
संध्या झपके मूँदती, निशा समेटे पाँख
*
श्याम-श्वेत में समन्वय, आँख बिठाती खूब
जीव-जगत सम संग रह, हँसते ज्यों भू-धूप
*

doha salila: aankh -sanjiv

दोहा सलिला:
दोहे के रंग आँख के संग
संजीव
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया,पूरा हुआ हिसाब'
*
आँख मार आँखें करें, दोल पर सबल प्रहार 
आँख न मिल झुक बच गयी, चेहरा लाल अनार 
*
आँख मिलकर आँख ने, किया प्रेम संवाद 
आँख दिखाकर आँख ने, वर्ज किया परिवाद 
*
आँखों में ऑंखें गड़ीं, मन में जगी उमंग 
आँखें इठला कर कहें, 'करिए मुझे न तंग'
*
दो-दो आँखें चार लख, हुए गुलाबी गाल 
पलक लपककर गिर बनी, अंतर्मन की ढाल 
*
आँख मुँदी तो मच गया, पल में हाहाकार 
आँख खुली होने लगा, जीवन का सत्कार 
*
कहे अनकहा बिन कहे, आँख नहीं लाचार 
आँख न नफरत चाहती, आँख लुटाती प्यार 
*
सरहद पर आँखें गड़ा, बैठे वीर जवान 
अरि की आँखों में चुभें, पल-पल सीना तान 
*
आँख पुतलिया है सुता, सुत है पलक समान 
क्यों आँखों को खटकता, दोनों का सम मान 
*
आँख फोड़कर भी नहीं, कर पाया लाचार 
मन की आँखों ने किया, पल में तीक्ष्ण प्रहार 
*
अपनों-सपनों का हुईं, आँखें जब आवास
कौन किराया माँगता, किससे कब सायास 
*
अधर सुनें आँखें कहें, कान देखते दृश्य 
दसों दिशा में है बसा, लेकिन प्रेम अदृश्य 
*
आँख बोलती आँख से, 'री! मत आँख नटेर' 
आँख सिखाती है सबक, 'देर बने अंधेर' 
*
ताक-झाँककर आँक ली, आँखों ने तस्वीर
आँख फेर ली आँख ने, फूट गई तकदीर 
*
आँख मिचौली खेलती, मूँद आँख को आँख 
आँख मूँद मत देवता, कहे सुहागन आँख 
*

शनिवार, 16 मई 2015

muktak salila: sanjiv

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
जब गयी रात संग बात गयी 
जब सपनों में बारात गयी 
जब जीत मिली स्वागत करती 
तब-तब मुस्काती मात गयी
*
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी 
दूर जाना करीब आना है 
*
न, अपने आपको खुद से कभी छिपाना मत 
न, अपने आपको सब को कभी दिखाना मत 
न, धूप-छाँव से दिन-रात से न घबराओ
न अपने सपने जो देखे कभी भुलाना मत 
*
हर्ष उत्कर्ष का जादू ही हुआ करता है 
वही करता है जो अपकर्ष से न डरता है
दिए-बाती की तरह ख्वाब सँग असलियत हो
तब ही संघर्ष 'सलिल' सफल हुआ करता है
*



doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
लाज और कौशल रखें, अस्त्र-शस्त्र सम साथ
'सलिल' सफलता मिलेगी, ऊंचा रखिये माथ
.
बुद्धि विरागिनी विमल हो, हो जब ज्ञान गृहस्थ
तब मन मंदिर बन सके, सत-शिव हो आत्मस्थ
.
मन हारे मन जीत जब, मन जीते मन हार 
मीरा तब ही श्याम से, होती एकाकार
.
करें प्रशंसा प्रीति पा, जो बनते हैं मीत 
कमी कहें तो वे नहीं, पाते बाजी जीत
.
रौशन दीपक से हुआ, जग लेकिन था मौन
दीप बुझा तो पूछता, करे अन्धेरा कौन?
.
स्नेह सरोवर सुखाकर करते जो नाशाद 
वे शादी कर किस तरह, हो पायेंगे शाद?
.
जब नरेश नर की व्यथा-कथा सुनाये आप
पीड़ा पर मरहम लगे, सुख जाए जग-व्याप
.
शेर न करना मित्रता, अगर कहे इंसान 
तू निभाएगा, ठगेगा, गले लगा इंसान
.
रश्मिरथी भी देखकर, रश्मि न भूले राह 
संग चन्द्रमा भी, कहे वाह वाह जी वाह
.
चित्र गुप्त जिसका वही, लेता जब आकार 
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तब, होते हैं साकार
.
बेशर्मों की दीठ को, प्रभुजी दीजै फोड़ 
ताक-झाँक की फिर कभी, लगे न उनमें होड़


dwipadi: sanjiv

द्विपदी सलिला
संजीव
*
रूप देखकर नजर झुका लें कितनी वह तहजीब भली थी 
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़के उसे तका है
*
रंज ना कर बिसारे जिसने मधुर अनुबंध
वही इस काबिल न था कि पा सके मन-रंजना
*
घुँघरू पायल के इस कदर बजाये जाएँ
नींद उड़ जाए औ' महबूब दौड़ते आयें
*
रन करते जब वीर तालियाँ दुनिया देख बजाती है
रन न बनें तो हाय प्रेमिका भी आती है पास नहीं
*
जो गिर-उठकर बढ़ा मंजिल मिली है
किताबों में मिला हमको लिखित है
*
दुष्ट से दुष्ट मिले कष्ट दे संतुष्ट हुए
दोनों जब साथ गिरे हँसी हसीं कहके 'मुए'
*
सखापन 'सलिल' का दिखे श्याम खुद पर
अँजुरी में सूर्स्त दिखे देख फिर-फिर
*
किस्से दिल में न रखें किससे कहें यह सोचें
गर न किस्से कहे तो ख्वाब भी मुरझाएंगे
*
अजय हैं न जय कर सके कोई हमको 
विजय को पराजय को सम देखते हैं
*
हम हैं काँटे न हमको तुम छूना
जब तलक हो न जाओ गुलाब मियाँ
*

शुक्रवार, 15 मई 2015

एक ग़ज़ल : औरों की तरह ....

...

औरों की तरह "हाँ’ में कभी "हाँ’ नहीं किया
शायद इसीलिए  मुझे   पागल समझ लिया

जो कुछ दिया है आप ने एहसान आप  का
उन हादिसात का कभी  शिकवा  नहीं किया

उलफ़त न हो ज़लील , मुहब्बत की शान में
वो ज़हर भी दिया तो मैने ज़हर भी  पिया

दो-चार बात तुम से भी करनी थी .ज़िन्दगी !
लेकिन ग़म-ए-हयात ने मोहलत नहीं  दिया

आदिल बिके हुए हैं जो क़ातिल के हाथ  में
साहिब ! तिरे निज़ाम का सौ  बार  शुक्रिया

क़ानून भी वही है ,सज़ायाफ़्ता  वही
मुजरिम को देखने का नज़रिया बदल लिया

’आनन’ तुम्हारे दौर का इन्साफ़ क्या यही !
पैसे की ज़ोर पे वो जमानत है ले लिया 

-आनन्द.पाठक-
09413395592