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बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:

आओ रे!
मतदान करो

भारत भाग्य विधाता हो
तुम शासन-निर्माता हो
संसद-सांसद-त्राता हो

हमें चुनो
फिर जियो-मरो
कैसे भी
मतदान करो

तूफां-बाढ़-अकाल सहो
सीने पर गोलियाँ गहो 
भूकंपों में घिरो-ढहो

मेलों में
दे जान तरो
लेकिन तुम
मतदान करो

लालटेन, हाथी, पंजा
साड़ी, दाढ़ी या गंजा
कान, भेंगा या कंजा

नेता करनी
आप भरो
लुटो-पिटो
मतदान करो

पाँच साल क्यों देखो राह
जब चाहो हो जाओ तबाह
बर्बादी को मिले पनाह

दल-दलदल में
फँसो-घिरो
रुपये लो
मतदान करो

नाग, साँप, बिच्छू कर जोड़
गुंडे-ठग आये घर छोड़
केर-बेर में है गठजोड़

मत सुधार की
आस धरो
टैक्स भरो
मतदान करो 

***
(कश्मीर तथा अन्य राज्यों में चुनाव की खबर पर )






Indian black money inabroad

विदेशों में भारतीय धन :

कालाधन मामले में सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने तीन सीलबंद लिफाफे सौंपे। पहले में विदेशी खाताधारकों के नाम थे। दूसरे में दूसरे देशों के साथ हुई संधि के कागजात थे और तीसरे में जांच की स्टेटस रिपोर्ट थी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इसमें साल 2006 तक की एंट्री है। इसकी वजह यह है कि स्विस अधिकारियों ने इस बारे में जानकारी देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि ये इनपुट्स चोरी की जानकारी के आधार पर हासिल किए गए हैं।
 
अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने बताया कि खाताधारकों के नामों के साथ इन लोगों के खिलाफ अब तक हुई जांच की स्टेटस रिपोर्ट भी दाखिल की जा रही है। सूत्रों का कहना है कि लिस्ट में एचएसबीसी बैंक के जिनेवा ब्रांच में खाता रखने वाले भारतीयों के नाम हैं, जो भारत सरकार को फ्रांस सरकार की ओर से मिले थे।
 
कालाधन के मामले में 150 देशों की लिस्‍ट में भारत आठवें नंबर पर (2001 से 2010 के बीच)
देश
कालाधन (बिलियन डॉलर में)
(स्रोत: ग्‍लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी)
चीन
 
मैक्सिको
 
मलेशिया
 
साउदी अरेबिया
 
रूस
 
फिलिपीन्स
 
नाइजीरिया
 
भारत
 
इंडोनेशिया
 
यूएई(संयुक्त अरब अमीरात)
2,740
 
476
 
285
 
210
 
152
 
138
 
129
 
123
 
109
 
107
 
स्विस बैंक में किस साल कितना पहुंचा भारतीयों का कालाधन
(स्रोत: स्विस नेशनल बैंक )
साल2006  2007 2008  2009  2010 201120122013
रकम (करोड़ रुपए में)414002750015400126001245014000900014000
 
जब्त किया गया कालाधन (स्रोत: मई 2012 में जारी श्वेतपत्र)
साल नगदी जूलरीअन्य संपत्तिकुल (करोड़ रुपए में)
2006-07187.4899.19 77.96 364.64
2007-08 206.35128.0793.39427.82
2008-09339.86 122.1888.19  550.23 
2009-10300.97132.2 530.33963.50
2010-11440.28184.15 150.55774.98
2011-12499.91 271.40   134.30 905.61 

navgeet:

नवगीत:

ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता

वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता

सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता 

रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता

*** 

navgeet:

नवगीत:

सुख-सुविधा में
मेरा-तेरा
दुःख सबका
साझा समान है

पद-अधिकार
करते झगड़े
अहंकार के
मिटें न लफ़ड़े 
धन-संपदा
शत्रु हैं तगड़े
परेशान सब
अगड़े-पिछड़े

मान-मनौअल
समाधान है

मिल-जुलकर जो
मेहनत करते
गिरते-उठते
आगे बढ़ते
पग-पग चलते
सीढ़ी चढ़ते 
तार और को
खुद भी तरते

पगतल भू
करतल वितान है

***

navgeet:

नवगीत:

देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे

राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं

अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे

भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते

हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे

मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है 

पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे

***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर 

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

kavita:

कविता:
सफाई 

मैंने देखा सपना एक 
उठा तुरत आलस को फेंक 
बीजेपी ने कांग्रेस के 
दरवाज़े पर करी सफाई 
नीतीश ने भगवा कपड़ों का 
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए 
मुलायम की राहों से बीनें काँटे 
और मुलायम ममतामय हो 
लगा रहे फतवों को चाँटे 
जयललिता की देख दुर्दशा 
करुणा-भर करूणानिधि रोयें 
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की  
अवध पहुँच कर खेती बोयें 
गज़ब! सोनिया ने 
मनमोहन को 
मन मंदिर में बैठाया 
जन्म अष्टमी पर 
गिरिधर का सोहर 
सबको झूम सुनाया 
स्वामी जी को गिरिजाघर में 
प्रेयर करते हमने देखा 
और शंकराचार्य मिले 
मस्जिद में करते सबकी सेवा 
मिले सिक्ख भाई कृपाण से 
खापों के फैसले मिटाते 
बम्बइया निर्देशक देखे 
यौवन को कपडे पहनाते 
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस 
काम जल्दी निबटाते 
न्यायाधीश एक पेशी में 
केसों का फैसला सुनाते 
थानेदार सड़क पर  मंत्री जी का 
था चालान कर रहा 
बिना जेब के कपड़े पहने 
टी. सी.बर्थें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा 
बिना दलाल के सच्ची मानो
अगर देखना ऐसा सपना 
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो 
***  

lekh: hindi ko lekar uthate sawal -dr. kuldeep chand agnihotri

हिन्दी को लेकर उठते सवाल

डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री  
 
image यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी 15 पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्‍बत सहयोग मंच के राष्‍ट्रीय संयोजक के नाते तिब्‍बत समस्‍या का गंभीर अध्‍ययन,कुछ  दैनिक जनसत्‍ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्‍थान समाचार से जुडे हुए हैं।
 
हिन्दी दिवस एक बार आकर फिर दहलीज़ पर खड़ा है । सितम्बर की चौदह तारीख़ इसके आने के लिये सरकारी तौर पर निर्धारित है । इस कारण इसे आना ही पड़ेगा । सरकारी आदेश है । हुकुम अदूली कैसे की जा सकती है? सरकारी दफ़्तरों में महीना भर मिसल गतिशील हो जाती है । हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को हमारे दफ़्तर में भी आयेगा , इसलिये उसके स्वागत के लिये इतनी धनराशि मंज़ूर करने की कृपा की जाये । मिसल आदेश के लिये प्रस्तुत है । अब सरकारी मेहमान के आने पर स्वागत तो होगा ही । इसलिये धनराशि मंज़ूर की जाती है और इस प्रकार हिन्दी दिवस का सरकारी दफ़्तरों में विधिवत स्वागत कार्यक्रम शुरु हो जाते हैं । यह हिन्दी दिवस का सरकारी पक्ष है ।

इसे षड्यन्त्र नहीं बल्कि संयोग ही कहना चाहिये कि हिन्दी दिवस का आगमन पितृ-पक्ष या श्राद्ध पक्ष के दिनों में ही आता है । श्राद्ध पक्ष में पितरों को याद किया जाता है और उनका मान सम्मान किया जाता है और पक्ष के बीत जाने पर उनको भुला दिया जाता है । उसी प्रकार हिन्दी की स्थिति है । उसका पितृ पक्ष बीत जाता है और हिन्दी के बारे में भी , रात गई बात गई , की कहानी बन जाती है ।

हिन्दी इस देश की सम्पर्क भाषा है । केवल भारत की ही नहीं बल्कि भारत , पाकिस्तान , बंगलादेश , और नेपाल तक की सम्पर्क भाषा हिन्दी है । लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इसने अपनी यह हैसियत २६ जनवरी १९५० को लागू हुये संघीय संविधान की बजह से हासिल की है ? हिन्दी ने यह हैसियत तो पिछली अनेक शताब्दियों से अपने बलबूते ही हासिल की हुई है । मध्य काल का भक्ति आन्दोलन , जिसकी जड़ें पूरे देश में फैली हुईं थीं , क्या इसका प्रमाण नहीं है ? साधु सन्त पूरे देश में घूमते रहते हैं, आख़िर वे सम्पर्क के लिये शताब्दियों से किस भाषा का प्रयोग करते आ रहे हैं ? यह टूटी फूटी या साबुत हिन्दी ही है जो उनको आम जनता से जोड़े रहती है । गुरु नानक देव जी ने तो अपने जीवन काल में देश का चप्पा चप्पा छान मारा था । अपने साथियों को साथ लेकर आम लोगों से कथा वार्ता करते थे । वे किस भाषा में करते रहे होंगे? यक़ीनन हिन्दी ही थी । मध्यकालीन दश गुरु परम्परा के पाँचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी ने प्रथम पाँच गुरुओं और देश के अन्य सन्तों व भक्तों की वाणी को एकत्रित और सम्पादित करने का जो भागीरथ अभियान चलाया था , वह इस भाषा की सम्पर्क शक्ति का भी तो प्रमाण है । असम के शंकर देव से लेकर पंजाब के श्री गुरु नानक देव जी तक जो संदेश दिया जा रहा था , वह इसी सम्पर्क भाषा में तो था । लेकिन हिन्दी को अपनी इस स्थिति की घोषणा के लिये किसी सरकारी अधिसूचना की जरुरत नहीं पडी । वह उसकी अपनी उर्जा थी जिसने उसे इतना व्यापक बनाया ।

विदेशी मुग़लों की सत्ता समाप्त हो जाने और अंग्रेज़ों के इस देश से चले जाने के बाद जो नई सांविधानिक व्यवस्था स्थापित हुई , उसने विधिवत हिन्दी को इस देश की सम्पर्क भाषा घोषित कर दिया । इसकी व्याख्या कैसे की जानी चाहिये ? क्योंकि आख़िर हिन्दी सम्पर्क भाषा है , यह संविधान का अनुच्छेद भी है । इसलिये उसकी क़ानूनी व्याख्या होना भी जरुरी है । देश की जनता आपस में सम्पर्क के लिये किस भाषा का प्रयोग करे , इसके लिये जनता को किसी सांविधानिक व्यवस्था या सांविधानिक अनुमति की जरुरत तो नहीं ही है । फिर संविधान में इसे दर्ज करने की व्याख्या कैसे की जाये ? इसका उद्देश्य क्या रहा होगा ? शायद इसका अर्थ यह है कि सरकार आपसी कामकाज में और सभी प्रान्तों से सरकारी पत्र व्यवहार में हिन्दी भाषा का प्रयोग करेगी । सरकार का यह संकल्प निश्चय ही सराहनीय कहा जायेगा । इसका अर्थ यह है कि देश की जनता व्यवहारिक स्तर पर जो काम शताब्दियों से करती आई है , सरकार ने उसको केवल मान्य ही नहीं किया बल्कि जनता को यह  आश्वासन दिया कि भविष्य में सरकार भी विभिन्न प्रान्तों से अन्तर्संवाद में हिन्दी भाषा का प्रयोग करेगी ।

 दुर्भाग्य से सरकार सम्पर्क भाषा के तौर पर हिन्दी को सरकारी कामकाज में विकसित करने का अपना यह सांविधानिक दायित्व निभा नहीं सकी । इसमें उसकी इच्छा शक्ति नहीं है ।  इतना ही नहीं उसने कुछ स्तरों पर तो इस सांविधानिक दायित्व का विरोध ही करना शुरु कर दिया । कुछ चतुर सुजान इससे भी आगे बढ़े । उन्होंने हिन्दी को भारत की अन्य भाषाओं से लड़ाने के लिये हिन्दी को सम्पर्क भाषा के स्थान पर राष्ट्रीय भाषा ही चिल्लाना शुरु कर दिया । ज़ाहिर है उनकी इस चिल्लाहट से भारत की दूसरी भाषाएँ बोलने वाले लोगों के कान खड़े होते । उन्होंने प्रति प्रश्न किया कि यदि हिन्दी राष्ट्र भाषा है तो भारत की अन्य भाषाएँ क्या अराष्ट्रीय हैं ? तुरन्त उत्तर मिला , नहीं , क्षेत्रीय भाषाएँ हैं । तब तो मामला साफ़ है ।

 भारत की सब भाषाएँ क्षेत्रीय हैं । अन्तर इतना ही है कि किसी का क्षेत्र छोटा है और किसी का बड़ा । भारतीय भाषाओं की संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार संवाद समिति को पुनर्जीवित करने वाले श्रीकान्त जोशी जी कहा करते थे कि भारत की सब भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं और एक दूसरे की पूरक हैं । इसलिये हिन्दुस्थान समाचार १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस की बजाये भारतीय भाषा दिवस मनाता है । सरकारी कामकाज में हिन्दी को सम्पर्क भाषा के तौर पर न विकसित हो पाने के कारण विभिन्न प्रदेशों में भी सरकारी कामकाज की भाषा वहाँ की भाषाएँ नहीं बन पाईं और अंग्रेज़ी का वर्चस्व बरक़रार रहा । हिन्दी को और अन्य भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा कर अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों के चले जाने के साठ साल बाद भी अपदस्थ नहीं हो सकी , इसे अंग्रेज़ों की प्रशासनिक व मनोवैज्ञानिक दक्षता का प्रमाण ही मानना होगा । हिन्दी दिवस के मौक़े पर भारतीय भाषाओं के ख़िलाफ़ रचे गये इस षड्यंत्र को क्या हम बेध पायेंगे ? यह सब से बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर सरकार को भी और भारतीय भाषाओं के समर्थकों को भी देना होगा ।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

navgeet

नवगीत:

ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?

मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा

अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया

धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा

अपनों को ही
किया पराया

धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम

तजी सफाई
किया सफाया

***



doha salila:

दोहा सलिला :

कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान
    पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण















मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ 
    हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ











हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर 
मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.





मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स 
वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स

जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार 
    छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार

 माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार
   माटी माटी से मिले, माटी ले आकार

    मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम 
मैना - कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम 
चित्र आभार : पिंकी जैन 

रविवार, 26 अक्टूबर 2014

nav kundaliya

नव कुण्डलिया 

रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही 
प्रात ला रही, गीत गा रही 
गीत गा रही, मीत भा रही  
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही 

गुप-चुप डोलो, राज न खोलो   
राज न खोलो, सच मत तोलो 
सच मत तोलो,मन तुम सो लो 
मन तुम सो लो, नव रस घोलो 
नव रस घोलो, घर जा सो लो 
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो


nav geet:

नवगीत:

चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं

गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं 
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं

बिन समझे
हल बूझ रहे हैं

कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ 
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ

खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं

पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार

हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं

***







muktak:

मुकतक

संवेदना का जन्मदिवस नित्य ही मने
दिल से दिल के तार जुड़ें, स्वर्ग भू बने
वेदना तभी मिटे, सौहार्द्र-स्नेह हो-
शांति का वितान दस दिशा रहा तने
*
श्याम घटा बीच चाँद लिये चाँदनी
लालिमा से, नीलिमा से सजी चाँदनी
सुमन गुच्छ से भी अधिक लिए ताजगी-
बिजलियाँ गिरा रही है विहँस चाँदनी
*
उषा की नमी दे रही दुनिया को ज़िंदगी
डिहाइड्रेशन से गयी क्यों अस्पताल में?
सूरज अधिक तपा या चाँदनी हुई कुपित
धरती से आसमान तक चर्चे है आज ये.
*
जग का सारा तिमिर ले, उसे बना आधार
रख दे आशा दीप में, कोशिश-बाती प्यार
तेल हौसले, योजना-तीली बाले ज्योति-
रमा-राज में हो सके ज्योतित सब संसार
*
रूपया हुआ अज़ीज़ अब, रुपया ही है प्यार
रुपये से इरशाद कह, रूपया पा हो शाद
रुपये की दीवानगी  हद से अधिक न होय
रुपये ही आबाद कर, कर देता बर्बाद
*
कुछ मुट्ठी भर चेहरे, बासी सोच- विचार
नव पीढ़ी हित व्यर्थ हैं, जिनके सब आचार
चित्र-खबर में छप सकें, बस इतना उद्देश्य-
परिवर्तन की कोशिशें कर देते बेकार.
*
कतरा-कतरा तिमिर पी, ऊषा ले अरुणाई
'जाग' सूर्य से कह रही, 'चल कर लें कुड़माई'
'धत' कह लहना सिंह हुआ, भास्कर तपकर लाल
नेह नर्मदा तीर पर, कलकल पडी सुनाई
*
पंकज को आ गया है सुन सोना पर प्यार
देख लक्ष्मी को चढ़ा पल में तेज बुखार
कहा विष्णु से लीजिये गहने सभी समेट-
वित्तमंत्री चेता रहे भाव करें हद पार
*

bhasha setu: marathi-hindi

भाषा-सेतु 
दिलीप चित्रे की कविता .
." अर्धसत्य" 
अनुवाद: चन्द्रकांत देवताले का
चक्रव्यूह में धँसने के पहले
कौन और कैसा था मैं
यह मुझे याद ही नहीं आएगा
चक्रव्यूह में धँसने के बाद
मेरे और चक्रव्यूह के बीच
केवल जानलेवा निकटता थी
यह मैं जान ही नहीं पाऊंगा
चक्रव्यूह से बाहर निकल
मुक्त हो जाऊँ मैं चाहे फिर भी
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा इससे चक्रव्यूह की रचना में
मर जाऊँ या मार डालूँ
ख़त्म कर दिया जाऊँ या ख़ात्मा कर दूँ जान से
असम्भव है इसका निर्णय
सोया हुआ आदमी
जब शुरू करता है चलना नींद में से उठकर
तब वह देख ही नहीं पाऐगा दुबारा
सपनों का संसार
उस निर्णायक रोशनी में
सब कुछ एक जैसा होगा क्या?
एक पलड़े में नपुंसकता
दूसरे पलड़े में पौरुष
और तराजू के काँटे पर बीचों-बीच
अर्धसत्य।
abhar: sharad kokas


शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

doha:

दोहा:

कुछ अनुशासन बरतकर, क्यों न मने त्यौहार?
मिटे मलिनता देश से,  कोई न हो बीमार

धन-सम्पति जो दीन ने, विपदा हित ली जोड़
नष्ट मत करे- पटाखे क्रय कर पल में फोड़

चित्र गुप्त जो ज्ञान का, शिक्षा से लें जान
मूर्ति पूज मत सत्य का, करें आप अपमान

मृण्मय मानव को लिया, परम पिता संग जोड़
चित्रगुप्त को पूजना, दिया अन्य ने छोड़

गूढ़ सत्य अन्तर्निहित, समझें पहले आप
कहें कथाओं को तभी, वरना हो संताप

soratha:

सोरठा :

कचरा दिया बिखेर, साफ़-सफाई खूब कर
नदी कर रहे पार, जैसे खुद ही डूब कर

रूपए करोड़ों फूँक, फोड़ पटाखे हम रहे
क्यों न दवाई बाँट, रोग गऱीबों के हरें

रूपया-रूपया जोड़, गुल्लक अपनी कुछ भरी
दीवाली पर फोड़, रकम सेठ-गल्ले धरी
*


shatpadee:

षट्पदी

कचरा पीछे छोड़कर, गुजर गया है पर्व
शर्म हमें इस पर बहुत, कैसे कर लें गर्व
कैसे कर लें गर्व, न कचरा बिना हमने
पूछें: गंदा जग क्यों व्यर्थ बनाया प्रभु ने?
क्यों न मनाएं पर्व, परम्पराएँ तोड़कर
गुजर न जाए पर्व कचरा पीछे छोड़कर
*


kundalini:

कुंडली :

उन्मन मन हैं शांत ज्यों, गुजर गया तूफ़ान
तिनका सिकता का रहा, आँधी से अनजान
आँधी से अनजान, दूब मुस्काकर बोली
पीपल-बरगद उखड़े, कर-कर हँसी-ठिठोली
नम जाते जो उनका बच जाता है जीवन
जिन्हें न नमना भाता वे रहते हैं उन्मन
*

धुआं धूम्र कचरा किया, खूब मना त्यौहार
रसायनों से हो रहे, खुद ही हम बीमार
खुद ही हम बीमार, दोष कुदरत को देते
छप्पर हर मुश्किल का शासन पर धर देते
कहे यही संजीव खोद रहे हम खुद कुआं
अमन-शांति, सुख-चैन करते हमीं धुआं-धुआं
*


muktak:

मुक्तक:

हो रहा है आज खुद से खिन्न मन
दिख रहा है नित्य से क्यों भिन्न मन?
अजब ऊहापोह में है घिर गया -
ख़ुशी से खुश हो हुआ विच्छिन्न मन
*


chiitragupt aur kayasth

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ?


विजय माथुर पुत्र स्वर्गीय ताज राजबली माथुर,मूल रूप से दरियाबाद
 (बाराबंकी) के रहनेवाले हैं.१९६१ तक लखनऊ में थे . पिता जी के ट्रांसफर
 के कारण बरेली,शाहजहांपुर,सिलीगुड़ी,शाहजहांपुर,मेरठ,आगरा ( १९७८ 
में अपना मकान बना कर बस गए) अब  अक्टूबर २००९ से पुनः लखनऊ में  बस गए
 हैं. १९७३ से मेरठ में स्थानीय साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपने प्रारंभ हुए.आगरा में
 भी साप्ताहिक पत्रों,त्रैमासिक मैगजीन और फिर यहाँ लखनऊ के भी एक साप्ताहिक
 पत्र में आपके लेख छप चुके है.अब 'क्रन्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' दो ब्लाग 
लिख रहे हैं तथा 'कलम और कुदाल' ब्लाग में पुराने छपे लेखों की स्कैन कापियां  दे 
रहे हैं .ज्योतिष आपका व्यवसाय है और लेखन तथा राजनीति शौक है. 
*

प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर

कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ 
बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा 
कर प्रसन्न होते हैं परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह 
रहा है। आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों में  
स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश 
चंद्र कुलश्रेष्ठ ने सहमति व्यक्त की थी। आज उनके शब्द आपको भेंट करता हूँ। 



प्रत्येक प्राणी के शरीर में 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। 

यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म 
शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल 
जाये। इस सूक्ष्म शरीर में 'चित्त'(मन) पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म 
एवं अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के 
अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' में  अंकन के आधार 
पर ही मिलता है। अतः, यह  पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य 
से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन में दी जाती थीं। 



आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने में भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय 

समझना ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत 
को जान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो 
लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया  है। इस पर्व 
को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
  
पौराणिक पोंगापंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं 
के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 

'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म में अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।  



आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव अपने वर्तमान स्वरूप में आया तो ज्ञान-विज्ञान 

का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप 
शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे 
उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  
अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल में आज भी जनरल मेडिसिन
विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही मिलेगा। उस समय 
आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण ज्ञान-
जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु 
अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी 
जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-



1. जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके

 द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था
 वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने
 के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको
 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी
 को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा
 से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 
 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित
 किये जाते थे जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य मान्य थे । 

4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता
था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता
था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने व  इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य मान्य थे। 



ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी

योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी
 योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,
क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों
 वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था।
 ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया
 गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ
 समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता
 और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि
-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक
 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको
 शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण
 ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को
 ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया।
 खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही
 मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य'
 वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर
 रहा है। यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के
 प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क
 जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते
 हुए  भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता
 आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

muktak:

मुकतक:

मेरी आभा ले हरते हैं, दीपक जग से सघन अँधेरा
सूर्य उगा करता है मेरी ड्योढ़ी का कर-कर पगफेरा
आतप-बरखा, धूप-छाँव, सुख-दुःख, खेलें संग आँख मिचौली
पीर-गरल लूँ कंठ धार, धर अधरों पर मुस्कान सवेरा
*
अपना सपना नपना जग में कोई न अब बेमेल रहे
कचरा-तिमिर जला दूँ सारा, जब तक बाती-तेल रहे
गुब्बारों जैसे संसाधन, आसमान सी आशाएं
मेरे लिये ज़िंदगी पूजा, और समझते खेल रहे
*
पूजें लक्ष्मी जी गणेश संग, यहाँ विष्णु बम फोड़ रहे
साथी बदले ऋद्धि-सिद्धि क्या?, क्या ऐसी भी होड़ रहे??
चक्र सुदर्शन चकरी बनकर चकराया है धरती पर
परम्पराएँ, रीति-नीतियाँ बना-बनाकर तोड़ रहे.
*
उड़े पखेरू, दुबके कूकुर, इन्सां क्यों पगलाया है
इन सा नादां कोई दूसरा कहाँ कभी मिल पाया है
भौंक, दहाड़ें, गुर्राते हम तो हमको जंगली कहें
नहीं जंगली इनके जैसा जंगल में भी पाया है
*
 
भैया दूज मनाती हूँ मैं, तुम भी बहिना दूज मनाओ
मैं तुमको पकवान खिलाऊँ, तुम मुझको मिष्ठान खिलाओ
मुझे बचाना तुम विपदा से, मैं संकट से तुम्हें बचाऊँ
आजीवन सम्बन्ध न टूटे, समरसता से इसे निभाओ
*