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शुक्रवार, 11 जून 2021

समीक्षा सुरेश चन्द्र सर्वहारा

पुस्तक सलिला-
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- ढलती हुई धूप, कविता संग्रह, ISBN ९७८-९३-८४९७९-८०-५, सुरेश चन्द्र सर्वहारा, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८९८७। कवि संपर्क ३ ऍफ़ २२ विज्ञान नगर, कोटा ३२४००५, ९९२८५३९४४६]
***
अनुभूति की अभिव्यक्ति गद्य और पद्य दो शैलियों में की जाती है। पद्य को विविध विधाओं में वर्गीकृत किया गया है। कविता सामान्यतः छंदहीन अतुकांत रचनाओं को कहा जाता है जबकि गीत लय, गति-यति को साधते हुए छंदबद्ध होता है। इन्हें झरने और नदी के प्रवाह की तरह समझा जा सकता है। अनुभूति और अभिव्यक्ति किसी बंधन की मुहताज नहीं होती। रचनाकार कथ्य के भाव के अनुरूप शैली और शिल्प चुनता है, कभी-कभी तो कथ्य इतना प्रबल होता है कि रचनाकार भी उपकरण ही हो जाता है, रचना खुद को व्यक्त करा लेती है। कुछ पद्य रचनाऐँ दो विधाओं की सीमारेखा पर होती हैं अर्थात उनमें एकाधिक विधाओं के लक्षण होते है। इन्हें दोनों विधाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है। कवि - गीतकार सुरेशचंद्र सर्वहारा की कृति 'ढलती हुई धूप' कविता के निकट नवगीतों और नवगीत के निकट कविताओं का संग्रह है। विवेच्य कृति की रचनाओं को दो भागों 'नवगीत' और 'कविता' में वर्गीकृत भी किया जा सकता था किन्तु सम्भवतः पाठक को दोनों विधाओं की गंगो-जमुनी प्रतीति करने के उद्देश्य से उन्हें घुला-मिला कर रख आगया है।
कविता की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, न हो सकती है। गीत की समसामयिक विसंगति और विषमता से जुडी भावमुद्रा नव छन्दों को समाहित कर नवगीत बन जाती है जबकि छंद आंशिक हो या न हो तो वह कविता हो जाती है। 'ढलती हुई धूप' के मुखपृष्ठ पर अंकित चन्द्र का भ्रम उत्पन्न करता अस्ताचलगामी सूर्य इन रचनाओं के मिजाज की प्रतीति बिना पढ़े ही करा देता है। कवि के शब्दों में- ''आज जबकि संवेदना और रसात्मकता चुकती जा रही है फिर भी इस धुँधले परिदृश्य में कविता मानव ह्रदय के निकट है।''
प्रथम रचना 'शाम के साये' में ६ पंक्तियों के मुखड़े के बाद ५ पंक्तियों का अंतरा तथा मुखड़े के सम भार और तुकांत की ३-३ पंक्तियाँ फिर ६ पंक्तियों का अन्तरा है। दोनों अंतरों के बीच की ६ में से ३ पंक्तियाँ अंत में रख दी जाएँ तो यह नवगीत है। सम्भवत: नवगीत होने या न होने को लेकर जो तू-तू मैं-मैं समीक्षकों ने मचा रखी है उससे बचने के लिए नवगीतों को कविता रूप में प्रस्तुत किया गया है।
दिन डूबा / उत्तरी धरती पर / धीरे-धीरे शाम
चिट्ठी यादों की / ज्यों कोेेई / लाई मेरे नाम।
लगे उभरने पीड़ाओं के / कितने-कितने दंश
दीख रहे कुछ धुँधलाए से / अपनेपन के अंश।
सिमट गए / सायों जैसे ही / जीवन के आयाम
लगा दृश्य पर / अंधियारों का / अब तो पूर्ण विराम।
पुती कालिमा / दूर क्षितिज पर / सब कुछ हुआ उदास
पंछी बन / उड़ गए सभी तो / कोेेई न मेरे पास
खुशियों की तलाश, जाड़े की शाम, धुँधली शाम, पत्ते, चिड़िया, दुःख के आँसू, ज़िंदगी, उतरती शाम, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, बासंती हवा, यादों के बादल, याद तुम्हारी, दर्द की नदी, कविता और लड़की, झुलसते पाँव, फूल बैंगनी, जाड़े की धूप, माँ का आँचल, रिश्ते, समय शकुनि, लल्लू, उषा सुंदरी आदि रचनाएँ शिल्प की दृष्टि से नवगीत के समीप है जबकि पहली बारिश, धुंध में, कागज़ की नाव, ढलती हुई धूप, सीमित ज़िंदगी, सृजन, मेघदर्शन, बंजर मन, पेड़ और मैं, याद की परछाइयाँ, सूखी नदी, फूल खिलते हैं, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध, वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, एक बुजुर्ग का जाना, नव वर्ष, विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम आदि कविता के निकट हैं।
सर्वहारा जी के मत में ''साहित्य का सामाजिक सरोकार भी होना चाहिए जो सामाजिक बुराइयों का बहिष्कार कर सामाजिक परिवर्तन का शंखनाद करे।'' इसीलिए विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम,वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध जैसी कवितायें लिखकर वे पीड़ितों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त करते हैं। ''युद्ध का ही / दूसरा नाम है बर्बरता / जो कर लेती है हरण / आँखों की नमी के साथ / धरती की उर्वरता'', और ''खुश नहीं / रह पाते / जीतनेवाले भी / अपराध बोध से / रहते हैं छीजते / हिमालय में गल जाते हैं'' लिखकर कवि संतुष्ट नहीं होता, शायद उसे पाठकीय समझ पर संदेह है, इसलिए इतना पर्याप्त हों पर भी वह स्पष्ट करता है ''पांडवों के शरीर / जो जैसे-तैसे कर / महाभारत हैं जीतते''।
पर्यावरण की चिंता सूखी नदी, फूल खिलते हैं, पेड़ और मैं, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, दर्द की नदी आदि रचनाओं में व्यक्त होती है। फूलों और खुशियों का रिश्ता अटूट है-
''रह-रह कर / झर रहे / फूल हरसिंगार के।
भीनी-भीनी / खुशबू से / भीग गया मन
साँसों को / बाँध रहा / नेह का बंधन
लौट रहे / दिन फिर से / प्यार और दुलार के।
थिरक उठा / मस्ती से / आँगन का पोर - पोर
नच उठा / खुशियों से / घर-भर का / ओर - छोर
गए रहा ही / गीत कौन / मान और मनुहार के।
रातों को / खिलते थे / जीवन में झूमते
प्रातः को / हँस - हँस अब / मौत को हैं चूमते
अर्थ सारे / खो गए हैं / जीत और हार के''
इस नवगीत में फूल और मानव जीवन के साम्य को भी इंगित किया गया है।
सर्वहारा जी हिंदी - उर्दू की साँझा शब्द सम्पदा के हिमायती हैं। गीतों के कथ्य आम जन को सहजता से ग्राह्य हो सकने योग्य हैं। उनका 'गुलमोहर' नटखट बच्चों की क्रीड़ा का साथी है '' दूर - दूर तक / फैले सन्नाटों / औे लू के थपेड़ों को / अनदेखा कर / घरवालों की / आँख चुराकर / छाँव तले आए / नटखट बच्चों संग / खेलता गुलमोहर'' तो टेसू आश - विश्वास के रंग बिखेरता है - '' बिखर गए / रंग कई / आशा - विश्वास के / निखर गए / ढंग नए / जीवन उल्लास के / फागुन के फाग से / भा गए टेसू के फूल।''
गाँव से शहरों की पलायन की समस्या 'लल्लू' में मुखरित है-
लल्लू! / कितने साल हो गए / तुमको शहर गए
खेतों में / पसरा सन्नाटा / सूखे हैं खलिहान / साँय - साँय / करते घर - आँगन / सिसक रहे दालान।
भला कौन/ ऐसे में सुख से / खाये और पिए।
शब्द - सम्पदा और अभिव्यक्ति - सामर्थ्य के धनी सुरेश जी के स्त्री विमर्श विषयक गीत मार्मिकता से सराबोर हैं। इनमें पीड़ा और दर्द का होना स्वाभाविक है किन्तु आशा की किरण भी है-
देखते ही देखते / बह चली / रोशनी की नदी / उसके पथ में आज
कई काली रातों के बाद / फैला है उजाला / सुनहरी भोर का
एक नए / है यह आगाज।
सुरेश जी विराम चिन्हों को अनावश्यक समझने के काल में उनके महत्त्व से न केवल परिचित हैं अपितु विराम चिन्हों का निस्संकोच प्रयोग भी करते हैं। अल्प विराम, पूर्ण विराम, संयोजक चिन्ह आदि का उपयोग पाठक को रुचता है। इन गीतों की कहन सहज प्रवाहमयी, भाषा सरस और अर्थपूर्ण तथा कथ्य सम - सामयिक है। बिम्ब और प्रतीक प्रायः पारम्परिक हैं। पंक्तयांत के अनुप्रास में वे कुछ छूट लेते हुए चिड़िया, बुढ़िया, गडरिया, गगरिया जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग बेहिचक करते हैं।
सारतः, इन नवगीतों में नवगीत जैसी ताजगी, ग़ज़लों जैसी नफासत, गीतों की सी सरसता, मुकतक की सी चपलता, छांदस संतुलन और मौलिकता है जी पाठकों को केवल आकृष्ट करती है अपितु बाँधकर भी रखती है। यह पठनीय कृति लोकप्रिय भी होगी।
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समीक्षक- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

समीक्षा काल है संक्रांति का - डॉ. रोहिताश्व अस्थाना

 

   
समीक्षा 
काल है संक्रांति का - डॉ. रोहिताश्व अस्थाना 
ह्रदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अनुभूतियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवादी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं एवं टटके बिम्बों के सहारे दुनिया - जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप से विद्रोह कर नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का पुनः प्रचलन आरंभ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुतः यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक गीत में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- '' काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग / मनुज करनी देखकर है / खुद नियति भी दंग।'' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत भी उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है- ''तकदीर से मत हों गिले / तदबीर से जय हों किले / मरुभूभि से जल भी मिले / तन ही नहीं, मन भी खिले / करना सदा वह जो सही। ''
इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है - ''मिली दिहाड़ी / चल बाजार / चावल - दाल किलो भर ले ले / दस रुपये की भाजी / घासलेट का तेल लिटर भर / धनिया - मिर्ची ताज़ी। ''सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवाले इस लघु मानव की दशा अति दयनीय है।
इसी विषय पर 'राम बचाए' शीर्षक नवगीत की ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं - ''राम - रहीम बीनते कूड़ा / रज़िया - रधिया झाड़ू थामे / सड़क किनारे बैठे लोटे / बतलाते कितने विपन्न हम। ''
हमारी नई पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कवि के शब्दों में - ''हाथों में मोबाइल थामे गीध-दृष्टि पगडंडी भूली / भटक न जाए / राजमार्ग पर जाम लगा है / कूचे - गली हुए हैं सूने / ओवन - पिज्जा का युग निर्दय / भटा कौन चूल्हे में भूने ?'' सचमुच आज की व्यवस्था ही चरमरा गई है। ''
सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनितिक प्रदुषण के चित्र खींचने का कमाल भी किया है। देखें - 'लोकतंत्र का पंछी बेबस / नेता पहले दाना डालें / फिर लेते पर नोंच / अफसर रिश्वत गोली मारें / करें न किंचित सोच। '' अथवा बातें बड़ी - बड़ी करते हैं / मनमानी का पथ वरते हैं / बना - तोड़ते संविधान खुद / दोष दूसरों पर मढ़ते हैं। '' इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी - छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- ''वह खासों में ख़ास है / रुपया जिसके पास है।'', ''तुम बंदूक चलाओ तो / हम मिलकर कलम चलाएँगे।'', ''लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है।'', वेश संत का / मन शैतान।'', ''अंध-श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है।'', ''खुशियों की मछली को / चिंता का बगुला / खा जाता है।'', ''कब होंगे आज़ाद / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?'' आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन -हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- ''उम्मीदों की फ़सल / उगाना बाकी है / अच्छे दिन नारों - वादों से कब आते हैं? / कहें बुरे दिन / मुनादियों से कब जाते हैं?'' इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है- ''खों - खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी / पछुआ अम्मा बड़बड़ करतीं / डाँट लगतीं तगड़ी।''
निष्कर्षतः, कृति के सभी गीत - नवगीत एक से बढ़कर एक सुन्दर, सरस, भावप्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छंदों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर खरी उतरनेवाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरण वहीं गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आईना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिंतनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से और अधिक सार्थक कृतियों की अपेक्षा की जा सकती है।
११-६-२०१६ 
***
पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, ISBN ८१७७६१०००-७ , गीत-नवगीत, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२०११ म.प्र., दूरभाष-०७६१ २४१११३१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४, प्रथम संस्करण २०१६, मूल्य २००/- पेपरबैक संस्करण, ३००/- सजिल्द संस्करण।
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, एकन्तिका, निकट बावन चुंगी चौक, हरदोई २४१००१ उ. प्र., दूरभाष- ०५८५२ २३२३९२।
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मुक्तक, दोहा

मुक्तक
खिलखिलाते रहें, गुनगुनाते रहें
पंछियों की तरह चहचहाते रहें
हाथ में हाथ लेकर रहें साथ हम-
ज़िंदगी भर मधुर गीत गाते रहें
११-६-२०१४ 
दोहा 
स्लोगन, प्रॉमिस, लेक्चर, लोकतंत्र के नाम
मनी, करप्शन, धाँधली, बिक जाओ बेदाम
११-६-२०१६
षट्पदी
नारी पर नर मर मिटे, है जीवन का सत्य
मरता हो तो जी उठा, यह भी नहीं असत्य
यह भी नहीं असत्य, जान पर जान लुटाता
जान जान को सात जन्म तक जान न पाता
कहे सलिल कविराय, मानिये माया आरी
छाया दे या धूप, उसी की मर्जी सारी
११-६-२०१७

नवगीत

नवगीत
क्यों??...
- संजीव सलिल
*
*
कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...
*
सबमें तेरा
अंश समाया,
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब-
खोते हैं क्यों?
जब खोते
तब पाते पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...
*
नीचे-ऊपर,
ऊपर-नीचे।
झूलें सब
तू डोरी खींचे,
कोई डरता,
कोई हँसता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...
*
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता
चुप सर धुनता।
तू परखे,
दे संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...


***

नवगीत क्यों??...

नवगीत
क्यों??...
- संजीव सलिल
*
*
कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...
*
सबमें तेरा
अंश समाया,
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब-
खोते हैं क्यों?
जब खोते
तब पाते पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...
*
नीचे-ऊपर,
ऊपर-नीचे।
झूलें सब
तू डोरी खींचे,
कोई डरता,
कोई हँसता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...
*
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता
चुप सर धुनता।
तू परखे,
दे संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
***

गीता अध्याय ६ ध्यान (आत्मसंयम) योग यथारूप हिंदी रूपांतरण


गीता अध्याय ६ ध्यान (आत्मसंयम) योग
यथारूप हिंदी रूपांतरण - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्रभु बोले- "आश्रित न कर्मफल पर, जो सतत कर्म करता।
वह सन्यासी योगी, वह नहिं जो पावक व क्रिया तजता।।१।।
*
जो सन्यास कहा जाता वह, है परब्रह्म युक्त होना।
पांडव बिन संकल्प तजे ही, योगी कोई नहिं होता।।२।।
*
नव आरंभ किया जिसने मुनि, योग कर्म-कारण पाता।
योग-सिद्ध के लिए कर्म को, तजना कारण कहलाता।।३।।
*
जब भी इन्द्रिय तृप्ति-हित नहीं, कर्म निरत वह रहता है।
सब संकल्पों को तज योगी, योग-सिद्ध तब होता है।।४।।
*
कर उद्धार आप ही अपना, खुद का पतन न होने दे।
खुद निश्चय खुद का शुभचिंतक, खुद ही खुद का शत्रु रहे।।५।।
*
बांधव आत्मा हो आत्मा की, यदि आत्मा को जीत सके।
हैं न आत्म तो शत्रु बने वह, कार्य करे दुश्मनवत ही।।६।।
*
आत्म जीत जो शांत रह सके, परमेश्वर पाया उसने।
सर्दी-गर्मी हो, सुख-दुख हो, मान-अपमान समान उसे।।७।।
*
तृप्त ज्ञान-विजान से हुई, आत्मा अचल जितेन्द्रिय हो।
युक्त वही समदर्शी योगी, पत्थर-स्वर्ण समान जिसे।।८।।
*
सुहृद मित्र अरि तटस्थ जन या, द्वेषी पंच बंधुओं को।
साधुपुरुष या पापी प्रति भी, रख समभाव श्रेष्ठजन वो।।९।।
*
योगी दिव्य चेतना में ही, केंद्रित सतत स्वयं होता।
एकाकी मन में सचेत रह, अनाकृष्ट परिग्रह खेता।।१०।।
*
शुद्ध भूमि पर करे प्रतिष्ठित, अपना आसन अचल रखे।
अधिक न ऊँचा-नीचा उस पर, कुश मृगछाला वसन बिछे।।११।।
*
उस पर एकचित्त चित करके, मन-इंद्रिय-क्रिय कर वश में।
बैठ सतत अभ्यास योग का, आत्मशुद्धि के लिए करे।।१२।।
*
सीधा तन सिर गर्दन रखकर, अचल शांत मन बैठ रहे।
देख नासिका-अग्रभाग निज, और कहीं भी में देखे।।१३।।
*
शांत आत्म जो गत भय बिन हो, ब्रह्मचर्य व्रत को पाले।
मन संयम से मुझ में केंद्रित, कर योगी मुझमें पैठे।।१४।।
*
कर अभ्यास इस तरह नित प्रति, योगात्मा संयमयुत हो।
शांत चित्त, भवसागर तज, मम धाम प्राप्त कर लेता है।।१५।।
*
कभी नहीं अतिभोजी योगी, नहिं एकांत-अभोजी ही।
नहिं अति सोने-जगने वाला, हो सकता है हे अर्जुन!।।१६।।
*
नियमित भोजन-मन-रंजन कर, नियमित जीवन-कर्म करे।
नियमित शयन-जागरण करता, योगी निज दुख दूर करे।।१७।।
*
जब अनुशासित चित्त आत्म में, निश्चय ही रम जाता है।
तब निस्पृह ऐन्द्रिक चाहों से हो, योगी कहलाता है।।१८।।
*
जैसे दीपक वायु के बिना, नहीं काँपता उपमा है।
योगी की जिसका मन वश में, सतत ध्यान में लीन रहे।।१९।।
*
जिस सुख से हो चित्त रुद्ध वह, अनुभव सदा योग से हो।
जिसमें आत्मा विशुद्ध मन से, अपने में संतुष्ट रहे।।२०।।
*
सुख आत्यंतिक बुद्धि गहे जो, दिव्य अतींद्रिय वह जानो।
जिसमें कभी नहीं निश्चय ही, वह हटती है सत्पथ से।।२१।।
*
जिसे प्राप्त कर अन्य लाभ को, माने अधिक नहीं उससे।
जिसमें रहते हुए न किंचित, अति दुख से विचलित होता।।२२।।
*
उसको जानो सांसारिक दुख, नाशक योग कहाता है।
दृढ़ विश्वास सहित अभ्यासे योग, न विचलित कभी रहे।।२३।।
*
संकल्पजनित भौतिक इच्छा, तजकर पूरी तरह सभी।
मन से निज इन्द्रियसमूह को, वश में कर ही ले पूरी।।२४।।
*
धीरे-धीरे निवृत्त बुद्धि से, हो विश्वासपूर्वक ही।
समाधि में मन लीन रखे नित, नहीं अन्य कुछ भी सोचे।।२५।।
*
जहाँ-जहाँ भी विचलित होता मन चंचल अस्थिर, टोंकें।
वहाँ वहाँ पर करें नियंत्रण, अपने वश में ले रोकें।।२६।।
*
है प्रशांत मन जिसका वह ही योगी, सच्चा सुख पाए।
शांत रजोगुण हो, ईश्वर से पापमुक्त हो मिल पाए।।२७।।*
योग प्रवृत्त सदा आत्मा को मुक्त कल्मषों से रखता।
दिव्य सुखद परब्रह्म संग पा, उत्तम सुख पाता रहता।।२८।।
*
सब भूतों में परमात्मा को, भूतों में आत्मा को।
देखे योगयुक्त आत्मा ही, जगह समभावी हो।।२९।।
*
जो मुझको सब जगह देखते, मुझमें ही सब कुछ देखे।
उसके लिए न मैं अदृश्य हूँ, मेरे लिए अदृश्य न वे।।३०।।
*
सब जीवों के ह्रदय बसा जो एक मुझी में बसते हैं।
सब प्रकार से वर्तमान में भी वह मुझमें रहते हैं।।३१।।
*
अपनी तरह हर जगह सबको देखा करता अर्जुन! जो।
सुख हो या दुख हो वह योगी, परम पूर्ण ही होता है।।३२।।
*
अर्जुन बोला- 'यह पद्धति जो योग कही माधव तुमने।
मैं न देख पाता, चंचल मन, मन का गुण है अचल सदा।।३३।।
*
चंचल है निश्चय मन माधव!, विचलित करता हठी-बली।
उसका अहं नियंत्रित करना, कठिन पवन की तरह लगे।।३४।।
*
भगवन बोले- 'बेशक भुजबली!, चंचल मन-निग्रह दुष्कर।
पर अभ्यास-विराग पृथासुत! इसको वश में कर ।।३५।।
*
मन-संयम बिन योग कठिन है, इस प्रकार मेरा मत है।
वशीभूत मन को कर कोशिश, तब उपाय यह संभव है।।३६।।
*
अर्जुन पूछे- 'असफल योगी, श्रद्धा से विचलित मन का।
प्राप्त न करके योग-सिद्धि को, क्या पाता दें कृष्ण! बता।।३७ ।।
*
क्या न उभय से विचलित बिखरे बादल सदृश नष्ट होता?
बिना प्रतिष्ठा महाबाहु हे!, मोहित ब्रह्म-प्राप्ति पथ पा।।३८।।
*
यह मेरा संदेह कृष्ण हे! करें दूर प्रार्थना यही।
दूजा कोई इस संशय का समाधान कर सके नहीं'।।३९।।
*
प्रभु बोले- 'हे पार्थ! विश्व या नए जन्म में नाश न हो।
नहीं कार्य शुभ करता कोई, पतित तात! सकता है।।४०।।
*
मिले पुण्यकर्मी लोकों में, शुभ निवास बहु काल उसे।
पुण्यात्मा संपन्न ग्रहों में, योगभ्रष्ट जन्मा करते।।४१।।
*
या योगी निश्चय ही कुल में, लेता जन्म मतिमयों के।
अति दुर्लभ है इस दुनिया में, लेना जन्म इस तरह से।।४२।।
*
वहाँ चेतना की जागृति वह, पूर्वजन्म से है पाता।
कोशिश करता है तब ही वह, सिद्धि हेतु कुंतीनंदन!।।४३।।
*
गत-आदत से ही आकर्षित होता अवश आप ही वो।
उत्सुक योग व शब्द ब्रह्म में, परे चला जाता है वो।।४४।।
*
कर अभ्यास-प्रयास कठिन वह, योगी पाप शुद्ध होता।
बहु वर्षों के बाद सिद्धियाँ, और परमपद पा लेता।।४५।।
*
तापस से बढ़कर है योगी, ज्ञानी से भी श्रेष्ठ अधिक।
कर्मी से भी उत्तम योगी, योगी ही बन हे अर्जुन!।।४६।।
*
योगी सारे मुझको सोचें जो अंतर्मन में पाते।
श्रद्धावान भजें मुझको जो, योगी परम मानता मैं।।४७।।
***
अध्याय ६ पर विमर्श के मध्य रचित दोहे 
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
मन को साध सके अगर, साँसें हों संगीत
*
आम जनों को ख़ास है, गीता का उपहार
कहे सदा सम्यक रखें, निज आहार-विहार
*
रामसनेही कृष्ण का, करा रहे हैं दर्श
यायावर जी पधारे, सार्थक हुआ विमर्श
*
है आसक्ति विनाश का, कारण संयम साध
एकहि साधे सब सधे, लक्ष्य मिले निर्बाध
*
धर्म बनता मनुज को, अन्य जीव से श्रेष्ठ
करो वही जो चाहते, तजो समूचे नेष्ठ
*
पशु प्रकृति के समांतर, मनुज लंबवत देख
यात्रा उन्नति हेतु हो, करो न दूजा लेख
*
सन्यासी के जन्म का, अंत बने सन्यास
हो गृहस्थ उद्धार जब, जाय पितर के पास
*
विजय कामना जीत कर, दिग्विजयी हों आप
जीत मिली तो हारकर, भोग रहे हैं शाप
*
काम करे निष्काम हो, रहे ध्यान में लीन
कर्मफली आसक्ति सब, होती तभी विलीन
*
आत्म देह से मुक्त हो, जब पा लेता ज्ञान
होता पंथ प्रशस्त तब, मिल पाए भगवान
*
कैद आत्म अवसाद में, करिए इसको मुक्त
सद्गुरु ही करवा सके, ईश्वर से संयुक्त
*
सद्गुरु ब्रह्मस्वरूप है, गुरु साखी है ईश
गुरु ने फेरा मुँह अगर, मिल न सके जगदीश
*
सब यज्ञों में श्रेष्ठ जप, करे नित्य जब आत्म
तब इच्छा से मुक्त हो, पा सकता परमात्म
*
तो कर्म में लीन हो, न हो कर्म से दूर
फल चाहे बिन कर्म कर, जो न वही नर सूर
*
लक्ष्य जानकर कीजिए, साधन का उपयोग
समता रखिए दृष्टि में, मिटा विषमता रोग
*
अर्जुन द्विविधा ग्रस्त मन, वंश-कर्म गत जान
मन चंचलता रोकिए, प्रभु को अपना मान
*
अर्जुन द्विविधा ग्रस्त है, वंश-कर्म गत जान
मन चंचलता रोकिए, प्रभु को अपना मान
१९-६-२०२१ 
***

गुरुवार, 10 जून 2021

छंद सलिला: कार्यशाला १

छंद सलिला: कार्यशाला १
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पूर्वाभास
छंद रचना की यात्रा आरंभ करने के पहले निम्न जानकारियाँ होना आवश्यक है।

छंद का उद्भव आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। कथा है कि मैथुनरत क्रौंच पक्षी युग्म के नर पक्षी को बहेलिये द्वारा तीर मार दिये जाने पर उसकी मादा संगिनी के मुँह से नि:सृत  आर्तनाद को सुनकर महर्षि के मुख से यह पंक्ति निकल पड़ी: 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं गम: शाश्वती समा: यत्क्रौंच मिथुनादेकम अवधि: काममोहितं'। यह प्रथम काव्य पंक्ति करुण रस से आप्लावित है जिसे कालांतर में अनुष्टुप छंद संज्ञा प्राप्त हुई। वाल्मीकि रामायण में इस छंद का प्रचुर प्रयोग हुआ है।

एक अन्य कथानुसार छंदशास्त्र के आदि आविष्कर्ता भगवान् आदि शेष हैं। एक बार पक्षिराज गरुड़ ने नागराज शेष को पकड़ लिया। शेष ने गरुड़ से कहा कि उनके पास एक दुर्लभ विद्या है। इसे सीखने के पश्चात गरुण उनका भक्षण करें तो विद्या नष्ट होने से बच जाएगी। गरुड़ के सहमत होने पर शेष ने विविध छंदों के रचना-नियम बताते हुए अंत में 'भुजंगप्रयाति छंद' का नियम बताया और गरुड़ द्वारा नियम ग्रहण करते ही अतिशीघ्रता से समुद्र में प्रवेश कर गये। गरुड़ ने शेष पर छल करने का आरोप लगाया तो शेष ने उत्तर दिया कि आपने मुझसे छंद शास्त्र की विद्या ग्रहण की है, गुरु अभक्ष्य और पूज्य होता है। अत:, आप मुझे भोजन नहीं बना सकते। मैंने आपको भुजङ्ग प्रयात छंद का सूत्र 'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति' अर्थात चार गणों से भुजंग प्रयात छंद बनता है, दे दिया है। स्पष्ट है कि छंदशास्त्र दैवीय दिव्य विद्या है।

किंवदंती है कि मानव सभ्यता का विकास होने पर शेष ने आचार्य पिंगल के रूप में अवतार लेकर सूत्रशैली में 'छंदसूत्र' ग्रन्थ की रचना की। इसकी अनेक टीकाएँ तथा व्याख्याएँ हो चुकी हैं। छंदशास्त्र के विद्वानों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वे आचार्य जो छंदशास्त्र का शास्त्रीय निरूपण तथा नव छंदों का अन्वेषण करते हैं और द्वितीय वे कवि श्रेणी जो छंदशास्त्र में वर्णित विधानानुसार छंद-रचना करते हैं। कालांतर में छंद समीक्षकों की तीसरी श्रेणी विकसित हुई जो रचे गए छंद-काव्यों का पिंगलीय विधानों के आधार पर परीक्षण करते हैं। छंदशास्त्र में मुख्य विवेच्य विषय दो हैं -

१. छंदों की रचनाविधि व सृजन तथा 
२. छंद संबंधी गणना (प्रस्तार, पताका, उद्दिष्ट, नेष्ट) आदि। इनकी सहायता से किसी निश्चित संख्यात्मक वर्गों और मात्राओं के छंदों की पूर्ण संख्यादि का बोध सरलता से हो जाता है।

छंद को वेदों का 'पैर' कहा गया है। जिस तरह किसी विद्वान की कृपा-दृष्टि, आशीष पाने के लिये उसके चरण-स्पर्श करना होते हैं वैसे ही वेदों को पढ़ने-समझने के लिये छंदों को जानना आवश्यक है। बिना पैरों का उपयोग किए किसी देवस्थान तक पहुंचकर देवदर्शन मिलाना संभव नहीं, उसी प्रकार छंद पढ़े बिना वेद भगवन से साक्षात नहीं हो सकता। गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है।

छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है। छंद शब्द के दो अर्थ आल्हादित (प्रसन्न) करना तथा 'आच्छादित करना' (ढाँक लेना) हैं। यह आल्हाद वर्णों, मात्राओं अथवा ध्वनियों की नियमित आवृत्तियों (दुहराव) से उत्पन्न होता है तथा रचयिता, पाठक या श्रोता को हर्ष और सुख में निमग्न कर आच्छादित कर लेता है। छन्द का अन्य नाम वृत्त भी है। वृत्त का अर्थ है घेरना । विशिष्ट वर्ण या मात्रा कर्म की अनेक आवृत्तियाँ ध्वनियों का एक घेरा सा बनाकर पाठक / श्रोता के मस्तिष्क को घेर कर अपने रंग (आनंद) में रंग लेती हैं। छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। आचार्य पिंगल द्वारा रचित 'छंद: सूत्रम्' प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। उन्हीं के नाम पर इस शास्त्र को पिङ्गलशास्त्र भी कहा जाता है। गद्य का नियामक व्याकरण है तो पद्य का नियंता पिंगल है।

कविता या गीत में वर्णों की संख्या, विराम के स्थान, पंक्ति परिवर्तन, लघु-गुरु मात्रा बाँट आदि से सम्बंधित नियमों को छंद-शास्त्र या पिंगल तथा इनके अनुरूप रचित लयबद्ध सरस तथा जन-मन-रंजक पद्य को छंद कहा जाता है। किन्हीं विशिष्ट मात्रा बाँट, गण नियम आदि के अनुरूप रचित पद्य को विशिष्ट नाम से पहचाना जाता है जैसे दोहा, चौपाई, आदि।विश्व की अन्य भाषाओँ में भी पद्य रचनाओं के लिए विशिष्ट नियम हैं तथा छंदमुक्त पद्य रचना भी की जाती है। संस्कृत में भरत - नाट्यशास्त्र अध्याय १४-१५, ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर, अग्निपुराण अध्याय १, वराह मिहिर - वृहत्संहिता, कालिदास - श्रुतबोध, जयकीर्ति - छ्न्दानुशासन, आचार्य क्षेमेन्द्र - सुवृत्ततिलक, केदारभट्ट - वृत्त रत्नाकर, हेमचन्द्र - छन्दाsनुशासन, केदार भट्ट - वृत्त रत्नाकर, विरहांक - वृत्तजात समुच्चय, गंगादास - छन्दोमञ्जरी, भट्ट हलायुध - छंदशास्त्र, दामोदर मित्र - वाणीभूषण आदि ने छंदशास्त्र के विकास में महती भूमिका निभायी है। छंदोरत्न मंजूषा, कविदर्पण, वृत्तदीपका, छंदसार, छांदोग्योपनिषद, छंदार्णव आदि छंदशास्त्र के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। हिंदी में भूषण कवि (भूषणचन्द्रिका), जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' (छंद प्रभाकर), डॉ. रत्नाकर (घनाक्षरी नियम रत्नाकर), पुत्तूलाल शुक्ल (आधुनिक हिंदी काव्य में छंद योजना), रघुनंदन शास्त्री (हिंदी छंद प्रकाश), डॉ. भगीरथ मिश्र (काव्य मनीषा), ओमप्रकाश बरसैयाँ ओंकार (छंद क्षीरधि), नारायण दास (हिंदी छंदोलक्षण), रामदेवलाल विभोर (छंद विधान), बृजेश सिंह (छंद रत्नाकर), डॉ. संसारचंद्र (हिंदी छंद अलंकार एक विवेचन), सौरभ पाण्डे (छंद मंजरी), राजेंद्र वर्मा (रस अलंकार और काव्य विधाएँ),  केवलप्रसाद सत्यम (छंद माला के काव्य सौष्ठव) , ईश्वरी प्रसाद यादव आदि ने छंदशास्त्र पर महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है।

प्रयोग के अनुसार छंद के २ प्रकार वैदिक ( गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप व जगती) तथा लौकिक (सोरठा, घनाक्षरी आदि) हैं। वैदिक छंदों में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है। वैदिक छंद अपौरुषेय माने जाते हैं। लौकिक छंदों का का प्रयोग लोक तथा साहित्य में किया जाता हैं। ये छंद ताल और लय पर आधारित रहते हैं, इसलिये इनकी रचना सामान्य अशिक्षित जन भी अभ्यास से कर लेते हैं। लौकिक छंदों की रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है। लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गये हैं उसे 'छंदशास्त्र' 'या पिंगल' कहते हैं।

छंद शब्द बहुअर्थी है। 'छंदस' वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यत: वर्णों, मात्राओं तथा विरामस्थलों के पूर्व निर्धारित नियमों के अनुसार रची गयी पद्य रचना को 'छंद' कहा जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। छंदशास्त्र अत्यंत पुष्ट शास्त्र है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुत: देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदों को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया।

वर्ण या अक्षर: एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ। ह्रस्व स्वर वाला वर्ण लघु और दीर्घ स्वर वाला वर्ण गुरु कहलाता है। वह सूक्ष्म अविभाज्य ध्वनि जिससे मिलकर शब्द बनते हैं वर्ण तथा वर्णों का क्रमबद्ध समूह वर्णमाला कहलाता है। हिंदी में कुल ४९ वर्ण हैं जिनमें ११ स्वर, ३३ व्यंजन, ३ अयोगवाह वर्ण तथा ३ संयुक्ताक्षर हैं। वर्ण वह सबसे छोटी मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। वर्ण भाषा की लघुतम इकाई है।वर्ण २ प्रकार के होते हैं- १. स्वर तथा २. व्यञ्जन। हिंदी में उच्चारण के आधार पर ११+२ = १३ वर्ण तथा ३३ +३ = ३६ व्यञ्जन हैं। जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर - कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता । वर्ण २ प्रकार के होते हैं-

ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ आदि ।
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण): आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, के, कै, को, कौ, कं, क: आदि ।

स्वर: स्वतंत्र रूप से उच्चारित की जा सकने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है। इन्हें बोलने में किसी अन्य ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। स्वर अपने आप बोले जाते हैं और उनकी मात्राएँ होती हैं। स्वरों की मात्राओं का प्रयोग व्यञ्जनों को बोलने में होता है। स्वर की मात्र को जोड़े बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं किया जा सकता। उदहारण: क् + अ = क, क् का स्वतंत्र उच्चारण सम्भव नहीं है।
स्वर के ३ वर्ग हैं।


 

१. हृस्व: अ, इ, उ, ऋ।
२. दीर्घ: आ, ई, ऊ।
३. संयुक्त: ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:।

व्यञ्जन: व्यंजन स्वतंत्र ध्वनियाँ नहीं हैं। व्यञ्जन का उच्चारण स्वर के सहयोग से किया जाता है। क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व्, श, ष , स, ह व्यंजन हैं।अनुनासिक अर्धचंद्र बिंदु, अनुस्वार बिंदु तथा विसर्ग : की गणना व्यञ्जनों में की जाती है। व्यञ्जन के २ भेद स्वतंत्र व्यञ्जन तथा संयुक्त व्यञ्जन हैं।

१. स्वतंत्र व्यञ्जन स्वरों की सहायत से बोले जाने वाले व्यञ्जन स्वतंत्र या सामान्य व्यञ्जन कहलाते हैं। जैसे: क्, ख्, ग् , घ्, ज्, त् आदि।
२.संयुक्त व्यञ्जन: स्वर की सहायता से बोली जा सकने वाली एक से अधिक ध्वनियों या वर्णों को व्यञ्जन कहते हैं। जैसे: क् + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ ।

मात्रा: ह्रस्व या लघु वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। उदाहरणार्थ अ, क, चि, तु, ऋ में से किसी एक को बोलने में लगा समय एक मात्रा है।

अनुस्वार: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली बिंदी को अनुस्वार कहते हैं। इसका उच्चारण पश्चात्वर्ती वर्ण के वर्ग के पञ्चमाक्षर के अनुसार होता है। जैसे: अंब में ब प वर्ग का सदस्य है जिसका पञ्चमाक्षर 'म' है. अत:, अंब = अम्ब, संत = सन्त, अंग = अङ्ग, पंच = पञ्च आदि।

अनुनासिक: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली अर्धचन्द्र बिंदी को अनुनासिक कहते हैं। अनुनासिक युक्त वर्ण का उच्चारण कोमल (आधा) होता है। जैसे: हँसी, अँगूठी, बाँस, काँच, साँस आदि। अर्धचंद्र-बिंदी युक्त स्वर अथवा व्यंजन १ मात्रिक माने जाते हैं। जैसे: हँस = १ + १ = २, कँप = १ + १ =२ आदि।

विसर्ग: वर्ण के बाद लगाई जाने वाली दो बिंदियाँ : विसर्ग कहलाती हैं, इसका उच्चारण आधे ह 'ह्' जैसा होता है । जैसे दुःख, पुनः, प्रातः, मनःकामना, पयःपान आदि। विसर्ग युक्त स्वर-व्यंजन दीर्घ होते है। जैसे: अंब = अम्ब = २ + १ =३, हंस = हन्स = २ + १ = ३, प्रायः = २ + २ = ४ आदि।

हलंत: उच्चारण के लिये स्वररहित वर्ण की स्थिति इंगित करने के लिए हलन्त् (हल की फाल) चिन्ह का प्रयोग किया जाता है जैसा हलन्त् के त, वाक् के क, मान्य के न साथ संयुक्त है ।

वर्ण-प्रकार और मात्रा गणना :
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं। ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है। इस प्रकार मात्रा दो प्रकार की होती हैं-

एक मात्रो भवेद ह्रस्वः, द्विमात्रो दीर्घ उच्यते
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो, व्यंजनंचार्द्ध मात्रकम्

लघु (एक मात्रिक): हृस्व (लघु अक्षर) के उच्चारण में लगनेवाले समय को इकाई माना जाता है। अ, इ, उ, ऋ, सभी स्वतंत्र व्यंजन तथा अर्धचन्द्र बिन्दुवाले वर्ण जैसे जैसे हँ (हँसी) आदि। इन्हें खड़ी डंडी रेखा (।) से दर्शाया जाता है। इनका मात्रा भार १ गिना जाता है। पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पड़ने पर गुरु गिन सकते है। स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती। मात्रा को कला भी कहा जाता है।

अ, इ, उ, ऋ, क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष , स, ह मात्रिक हैं। व्यंजन में इ, उ स्वर जुड़ने पर भी अक्षर १ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: कि, कु आदि।

गुरु या दीर्घ (दो मात्रिक): दीर्घ मात्रा युक्त वर्ण आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्रा युक्त व्यंजन का, ची, टू, ते, पै, यो, सौ, हं आदि गुरु हैं। क से ह तक किसी व्यंजन में आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः स्वर जुड जाये तो भी अक्षर २ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: ज व्यंजन में स्वर जुडने पर - जा जी जू जे जै जो जौ जं जः २ मात्रिक हैं। इन्हें वर्तुल रेखा या सर्पाकार चिन्ह (s) से इंगित किया जाता है। इनका मात्रा भार २ गिना जाता है। जब किसी वर्ण के उच्चारण में हस्व वर्ण के उच्चारण से दो गुना समय लगता है तो उसे दीर्घ या गुरु वर्ण मानते हैं तथा दो मात्रा गिनते हैं। जैसे - आ, पी, रू, से, को, जौ, वं, यः आदि।

प्लुत: यह हिंदी में मान्य नहीं है। अ, उ तथा म की त्रिध्वनियों के संयुक्त उच्चारण वाला वर्ण ॐ, ग्वं आदि इसके उदाहरण हैं। इसका मात्रा भार ३ होता है।

संयुक्ताक्षर: सामान्यत:संयुक्ताक्षरों क्ष, त्र, ज्ञ की मात्राओं का निर्णय उच्चारण के आधार पर होता है। संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर गुरु हो तो अर्धाक्षर से कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे: आराध्य = २+२+ १ = ५।

शब्दारंभ में संयुक्ताक्षर हो तो उसका मात्रा भार पर कोई प्रभाव नहीं होता। जैसे: क्षमा = १ + २ =३, प्रभा = ३।

शब्द: अक्षरों (वर्णों) के मेल से बनने वाले अर्थ पूर्ण समुच्चय (समूह) को शब्द कहते हैं। शब्द-निर्माण हेतु अक्षरों का योग ४ प्रकार से हो सकता ।


१. स्वर + स्वर जैसे: आई।
२. स्वर + व्यंजन जैसे: आम।
३. व्यञ्जन + स्वर जैसे: बुआ।
४. व्यञ्जन + व्यञ्जन जैसे: कम।

यदि हम स्वर तथा व्यंजन की मात्रा को जानें तो -

अर्धाक्षर: अर्धाक्षर का उच्चारण उसके पहले आये वर्ण के साथ होता है, ऐसी स्थिति में पूर्व का लघु अक्षर गुरु माना जाता है। जैसे: शिक्षा = शिक् + शा = २ + २ = ४, विज्ञ = विग् + य = २ + १ = ३।

अर्ध व्यंजन: अर्ध व्यंजन को एक मात्रिक माना जाता है परन्तु यह स्वतंत्र लघु नहीं होता यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर होता है तो उसके साथ जुड कर और दोनों मिल कर दीर्घ मात्रिक हो जाते हैं।
उदाहरण - सत्य सत् - १+१ = २ य१ या सत्य = २१, कर्म - २१, हत्या - २२, मृत्यु २१, अनुचित्य - ११२१।
यदि पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो लघु की मात्रा लुप्त हो जाती है
आत्मा - आत् / मा २२, महात्मा - म / हात् / मा १२२।
जब अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है तो भी यही नियम पालन होता है अर्थात अर्ध व्यंजन की मात्रा लुप्त हो जाती हैं | उदाहरण - स्नान - २१ । एक ही शब्द में दोनों प्रकार देखें - धर्मात्मा - धर् / मात् / मा २२२।

अपवाद - जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्घ नहीं होता।

उदाहरण - कन्हैया - १२२ में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है। ऐसे शब्दों को बोल कर देखे क + न्है + या = १ + २ + २ = ५, धन्यता = धन् + य + ता = २ + १ + २ = ५।
संयुक्ताक्षर (क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि) दो व्यंजन के योग से बने हैं, अत: दीर्घ मात्रिक हैं किंतु मात्रा गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं।

उदाहरण: पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१, गोत्र = २१, मूत्र = २१।
शब्द संयुक्ताक्षर से प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं। जैसे: त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२।
संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं।

उदाहरण = प्रज्ञा = २२ राजाज्ञा = २२२ आदि।

ये नियम न तो मनमाने हैं, न किताबी। आदि मानव ने पशु-पक्षियों की बोली सुनकर उसकी नकल कर बोलना सीखा। मधुर वाणी से सुख, प्रसन्नता और कर्कश ध्वनि से दुःख, पीड़ा व्यक्त करना सीखा। मात्रा गणना नियमों के मूल में भी यही पृष्ठभूमि है।

चाषश्चैकांवदेन्मात्रां द्विमात्रं वायसो वदेत
त्रिमात्रंतु शिखी ब्रूते नकुलश्चार्द्धमात्रकम्

अर्थात नीलकंठ की बोली जैसी ध्वनि हेतु एक मात्रा, कौए की बोली सदृश्य ध्वनि के लिये २ मात्रा, मोर के समान आवाज़ के लिये ३ मात्रा तथा नेवले सदृश्य ध्वनि के लिये अर्ध मात्रा निर्धारित की गयी है।

छंद: मात्रा, वर्ण की रचना, विराम गति का नियम और चरणान्त में समता युक्त कविता को छन्द कहते हैं।



छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
छंद में स्थायित्व होता है।
छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
छंद लय बद्धता के कारण सुगमता से कण्ठस्थ हो जाते हैं।
पद : छंद की पंक्ति को पद कहते हैं । जैसे: दोहा द्विपदिक अर्थात दो पंक्तियों का छंद है। सामान्य भाषा में पद से आशय पूरी रचना से होता है। जैसे: सूर का पद अर्थात सूरदास द्वारा लिखी गयी एक रचना।

अर्धाली : पंक्ति के आधे भाग को अर्धाली कहते हैं।

चरण अथवा पाद: पाद या चरण का अर्थ है चतुर्थांश। सामान्यत: छन्द के चार चरण या पाद होते हैं । कुछ छंदों में चार चरण दो पंक्तियों में ही लिखे जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा,चौपाई आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को पद या दल कहते हैं। कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।

सम और विषमपाद: पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।

गण: तीन वर्णों के पूर्व निश्चित समूह को गण कहा जाता है। ८ गण यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण तथा सगण हैं। गणों को स्मरण रखने सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है। अंतिम २ वर्णों को छोड़कर सूत्र के हर वर्ण अपने पश्चातवर्ती २ वर्णों के साथ मिलकर गण में लघु-गुरु मात्राओं को इंगित करता है। अंतिम २ वर्ण लघु गुरु का संकेत करते हैं।



य = यगण = यमाता = । s s = सितारा = ५ मात्रा
मा = मगण = मातारा = s s s = श्रीदेवी = ६ मात्रा
ता = तगण = ताराज = s s । = संजीव = ५ मात्रा
रा = रगण = राजभा = s । s = साधना = ५ मात्रा
ज = जगण = जभान = । s । = महान = ४ मात्रा
भा = भगण = भानस = s । । = आनन = ४ मात्रा
न = नगण = नसल = । । । = किरण = ३ मात्रा

स = सगण = सलगा = । । s = तुहिना = ४ मात्रा
कुछ क्रृतियों में यगण, मगण, भगण, नगण को शुभ तथा तगण, रगण, जगण, सगण को अशुभ कहा गया है किन्तु इस वर्गीकरण का औचित्य संदिग्ध है।

गति: छंद पठन के प्रवाह या लय को गति कहते हैं। गति का महत्व वर्णिक छंदों की तुलना में मात्रिक छंदों में अधिक होता है। वर्णिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित होता है जबकि मात्रिक छंदों में अनिश्चित, इस कारण चरण अथवा पद (पंक्ति) में समान मात्राएँ होने पर भी क्रम भिन्नता से लय भिन्नता हो जाती है। अनिल अनल भू नभ सलिल में 'भू' का स्थान बदल कर भू अनिल अनल नभ सलिल, अनिल भू अनल नभ सलिल, अनिल अनल नभ भू सलिल, अनिल अनल नभ सलिल भू पढ़ें भिन्न तो हर बार भिन्न लय मिलेगी।
दोहा, सोरठा तथा रोल में २४-२४ मात्रा की पंक्तियाँ होते हुए भी उनकी लय अलग-अलग होती है। अत:, मात्रिक छंदों के निर्दोष लयबद्ध प्रयोग हेतु गति माँ समुचित ज्ञान व् अभ्यास आवश्यक है।

यति: छंद पढ़ते या गाते समय नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिये रूकना पड़ता है, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त तथा बीच-बीच में भी यति का स्थान निश्चित होता है। हर छन्द के यति-नियम भिन्न किन्तु निश्चित होते हैं। छटे छंदों में विराम पंक्ति के अंत में होता है। बड़े छंदों में पंक्ति के बीच में भी एक (दोहा रोला सोरठा आदि) या अधिक (हरिगीतिका, मालिनी, घनाक्षरी, सवैया आदि) विराम स्थल होते हैं।

मात्रा बाँट: मात्रिक छंदों में समुचित लय के लिये लघु-गुरु मंत्रों की निर्धारित संख्या के विविध समुच्चयों को मात्रा बाँट कहते हैं। किसी छंद की पूर्व परीक्षित मात्रा बाँट का अनुसरण कर की गयी छंद रचना निर्दोष होती है।

तुक: तुक का अर्थ अंतिम वर्णों की आवृत्ति है। छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं। चरण के अंत में तुकबन्दी के लिये समानोच्चारित शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे: राम, श्याम, दाम, काम, वाम, नाम, घाम, चाम आदि। यदि छंद में वर्णों एवं मात्राओं का सही ढंग से प्रयोग प्रत्येक चरण में हो तो उसकी ' गति ' स्वयमेव सही हो जाती है।

तुकांत / अतुकांत: जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। अतुकान्त छंद को अंग्रेज़ी में ब्लैंक वर्स कहते हैं।

घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।



पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है।
छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है।

मात्रिक छंद: जिन छन्दों की रचना मात्रा-गणना के अनुसार की जाती है, उन्हें 'मात्रिक' छन्द कहते हैं। मात्रा-गणना पर आधारित मात्रिक छंद गणबद्ध नहीं होते। मात्रिक छंद में लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है। मात्रिक छन्द के ३ प्रकार सम मात्रिक छन्द, अर्ध सम मात्रिक छन्द तथा विषम मात्रिक छन्द हैं। सम, विषम, अर्धसम छंदों का विभाजन मात्राओं और वर्णों की चरण-भेद-संबंधी विभिन्न संख्याओं पर आधारित है। मात्रिक छन्द के अन्तर्गत प्रत्येक चरण अथवा प्रत्येक पद में मात्रा ३२ तक होती है।

सम मात्रिक छन्द: जिस द्विपदी के चारों चरणों की वर्ण-स्वर संख्या या मात्राएँ समान हों, उन्हें सम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख सम मात्रिक छंद अहीर (११मात्रा), तोमर (१२ मात्रा), मानव (१४ मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी १६ मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों १९ मात्रा), राधिका (२२ मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी २४ मात्रा), गीतिका (२६ मात्रा), सरसी (२७ मात्रा), सार , हरिगीतिका (२८ मात्रा), तांटक (३० मात्रा), वीर या आल्हा (३१ मात्रा) हैं।

अर्ध सम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद बरवै (विषम चरण १२ मात्रा, सम चरण ७ मात्रा), दोहा (विषम १३, सम ११), सोरठा (दोहा का उल्टा विषम ११, सम १३), उल्लाला (विषम - १५, सम - १३) हैं ।

विषम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में चारों चरणों अथवा चतुष्पदी में चारों पदों की मात्रा असमान (अलग-अलग) होती है उसे विषम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख विषम मात्रिक छंद कुण्डलिनी (दोहा १३-११ + रोला ११-१३), छप्पय (रोला ११-१३ + उल्लाला १५ -१३ ) हैं

दण्डक छंद: वर्णों और मात्राओं की संख्या ३२ से अधिक हो तो बहुसंख्यक वर्णों और स्वरों से युक्त छंद दण्डक कहे जाते है। इनकी संख्या बहुत अधिक है।

वर्णिक छंद: वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है। प्रमुख वर्णिक छंद : प्रमाणिका (८ वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी ११ वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी१२ वर्ण); वसंततिलका (१४ वर्ण); मालिनी (१५ वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी १६ वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी १७ वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (१९ वर्ण), स्त्रग्धरा (२१ वर्ण), सवैया (२२ से २६ वर्ण), घनाक्षरी (३१ वर्ण) रूपघनाक्षरी (३२ वर्ण), देवघनाक्षरी (३३वर्ण), कवित्त / मनहरण (३१-३३ वर्ण) हैं। वर्णिक छन्द वृत्तों के दो प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।
वर्ण वृत्त: सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी आदि।

गणात्मक वर्णिक छंद: इन्हें वर्ण वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु-दीर्घ वर्णों से बने ८ गणों के आधार पर होती है। इनमें भ, न, म, य शुभ और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद में देवतावाची या मंगलवाची शब्द से आरंभ करने पर गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है।

दण्डकछंद: जिस वार्णिक छंद में २६ से अधिक वर्णों वाले चरण होते हैं उसे दण्डक कहा जाता है। दण्डक छंद के लम्बे चरण की रचना और याद रखना दण्डक वन की पगडण्डी पर चलने की तरह कठिन और सस्वर वाचन करना दण्ड की तरह प्रतीत होने के कारण इसे दण्डक नाम दिया गया है। उदाहरण: घनाक्षरी ३१ वर्ण।

अगणात्मक वर्णिक वृत्त: वे छंद हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।
स्वतंत्र छंद और मिश्रित छंद: यह छंद के वर्गीकरण का एक अन्य आधार है।

स्वतंत्र छंद: जो छंद किन्हीं विशेष नियमों के आधार पर रचे जाते हैं उन्हें स्वतंत्र छंद कहा जाता है।

मिश्रित छंद: मिश्रित छंद दो प्रकार के होते है:

(१) जिनमें दो छंदों के चरण एक दूसरे से मिला दिये जाते हैं। प्राय: ये अलग-अलग जान पड़ते हैं किंतु कभी-कभी नहीं भी जान पड़ते।

(२) जिनमें दो स्वतंत्र छंद स्थान-स्थान पर रखे जाते है और कभी उनके मिलाने का प्रयत्न किया जाता है, जैसे कुंडलिया छंद एक दोहा और चार पद रोला के मिलाने से बनता है।

दोहा और रोला के मिलाने से दोहे के चतुर्थ चरण की आवृत्ति रोला के प्रथम चरण के आदि में की जाती है और दोहे के प्रारंभिक कुछ शब्द रोला के अंत में रखे जाते हैं। दूसरे प्रकार का मिश्रित छंद है "छप्पय" जिसमें चार चरण रोला के देकर दो उल्लाला के दिए जाते हैं। इसीलिये इसे षट्पदी अथवा छप्पय (छप्पद) कहा जाता है।

इनके देखने से यह ज्ञात होता है कि छंदों का विकास न केवल प्रस्तार के आधार पर ही हुआ है वरन् कवियों के द्वारा छंद-मिश्रण-विधि के आधार पर भी हुआ है। इसी प्रकार कुछ छंद किसी एक छंद के विलोम रूप के भाव से आए हैं जैसे दोहे का विलोम सोरठा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवियों ने बहुधा इसी एक छंद में दो एक वर्ण अथवा मात्रा बढ़ा घटाकर भी छंद में रूपांतर कर नया छंद बनाया है। यह छंद प्रस्तार के अंतर्गत आ सकता है।

यति के विचार से छन्द- वर्गीकरण

बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, तब यति (रुकने का स्थान) निर्धारित किया जाता है। यति के विचार से छंद दो प्रकार के होते हैं-

(१) यत्यात्मक: जिनमें कुछ निश्चित वर्णों या मात्राओं पर यति रखी जाती है। यह छंद प्राय: दीर्घाकारी होते हैं जैसे दोहा, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि।

(२) अयत्यात्मक: इन छंदों में चौपाई, द्रुत, विलंबित जैसे छंद आते हैं। यति का विचार करते हुए गणात्मक वृत्तों में गणों के बीच में भी यति रखी गई है जैसे मालिनी छंद में संगीत तत्व द्वारा लालित्य का पूरा विचार रखा गया है। प्राय: सभी छंद किसी न किसी रूप में गेय हो जाते हैं। राग और रागिनी वाले सभी पद छंदों में नहीं कहे जा सकते। इसी लिये "गीति" नाम से कतिपय पद रचे जाते हैं। प्राय: संगीतात्मक पदों में स्वर के आरोह तथा अवरोह में बहुधा लघु वर्ण को दीर्घ, दीर्घ को लघु और अल्प लघु भी कर लिया जाता है। कभी-कभी हिंदी के छंदों में दीर्घ ए और ओ जैसे स्वरों के लघु रूपों का प्रयोग किया जाता है।

पदाधार पर छंद-वर्गीकरण:

छंदों को पद (पंक्ति) बद्ध कर रचा जाता है। पंक्ति संख्या के आधार पर भी छंदों को वर्गीकृत किया जाता है।

द्विपदिक छंद: ऐसे छंद दो पंक्तियों में पूर्ण हो जाते हैं। अपने आप में पूर्ण तथा अन्य से मुक्त (असम्बद्ध) होने के कारण इन्हें मुक्तक छंद भी कहा जाता है। दोहा, सोरठा, चौपाई, आदि द्विपदिक छंद हैं जिनमें मात्रा बंधन तथा यति स्थान निर्धारित हैं जबकि उर्दू का शे'र तथा अंग्रेजी का कप्लेट ऐसे द्विपदिक छंद हैं जिसमें मात्रा या यति का बंधन नहीं है।

त्रिपदिक छंद: ३ पंक्तियों में पूर्ण होने वाले छंदों की संस्कृत काव्य में चिरकालिक परंपरा है। हिंदी ने विदेशी भाषाओँ से भी ऐसे छंद ग्रहण किये हैं। जैसे: संस्कृत छंद ककुप्, गायत्री, पंजाबी छंद माहिया, उर्दू छंद तसलीस, जापानी छंद हाइकु आदि। इनमें से हाइकु वर्णिक छंद है जबकि शेष मात्रिक हैं।

चतुष्पदिक छंद: ४ पंक्तियों के छंदों को हिंदी में मुक्तक, चौपदे आदि कहा जाता है। इनमें मात्रा भार तथा यति का बंधन नहीं होता किन्तु सभी पदों में समान मात्रा होना आवश्यक होता है। उर्दू छंद रुबाई भी चतुष्पदिक छंद है जिसे निर्धारित २४ औज़ान (मानक लयखण्ड) में से किसी एक में लिखा जाता है।

पंचपदिक छंद: जापानी छंद ताँका हिंदी में प्रचार पा रहा है। ताँका संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। ताँका मूलत: जापानी छंद है जिसमें ५ पंक्तियाँ होती है।

षटपदिक छंद: ६ पंक्तियों के पदों में कुण्डलिनी सर्वाधिक लोकप्रिय है। कुण्डलिनी की प्रथम २ पंक्तियाँ शेष ४ पंक्तियाँ रोला छंद में होती हैं।

चौदह पदिक छंद: अंग्रेजी छंद सोनेट की हिंदी में व्यापक पृष्ठभूमि अथवा गहराई नहीं है किन्तु नागार्जुन, भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' आदि कई कवियों ने सॉनेट लिखे हैं। कुछ सॉनेट मैंने भी लिखे हैं।

अनिश्चित पदिक छंद: अनेक छंद ऐसे हैं जिनका पदभार तथा यति निर्धारित है किन्तु पंक्ति संख्या अनिश्चित है। कवि अपनी सुविधानुसार पद के २ चरणों में, अथवा हर २ पंक्तियों में या कथ्य अपनी सुविधानुसार पदांत में टूक बदलता रहता है। चौपाई, आल्हा, मराठी छंद लावणी आदि में कवियों ने छूट बहुधा ली है। उर्दू की ग़ज़ल में भी ३ शे'रों से लेकर सहस्त्रधिक शे'रों का प्रयोग किया गया है। गीतों कजरी, राई, बम्बुलिया आदि में भी पद या पंक्ति बंधन नहीं होता है।

मुक्त छंद: जिस छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो, न मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है । मुक्त छंद तुकांत भी हो सकते हैं और अतुकांत भी। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं।
अगले लेख से छंद रचना की ओर बढ़ेंगे और द्विपदिक छंद दोहा की रचना प्रक्रिया की चर्चा करेंगे।
१९-१०-२०१५

भारत में उर्दू

विशेष लेख-
भारत में उर्दू :
संजीव 'सलिल'
*
भारत विभिन्न भाषाओँ / बोलिओं का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है। मुग़ल फौजों द्वारा भारत पर विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों को कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें। यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता। पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों ने अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही विद्वान नहीं लड़ाके थे, वे शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा के साथ मिलावट कर बोला। उनके गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा। इस तरह लश्करों (सैन्य शिविरों) में विदेशी जुबानों और सीमान्त प्रदेशों की भाषाओँ की खिचड़ी पकी जिसे लश्करी कहा गया। लश्करी से रेख़्ता का विकास हुआ। क्रमश: मुग़ल सत्ता स्थाई होने पर दैनंदिन जीवन और बाजार की जरूरतों के मुताबिक रोजमर्रा के शब्दों को मिलकर जो भाषा प्रचलित हुई उसे उर्दू (तुर्की में उर्दू का अर्थ बाजार है) अर्थात बाजार की भाषा (बाजारू भाषा) कहा गया। मुगल शासक और सेनापति खुद अरबी-फारसी के विद्वान नहीं थे, भारतीय भाषा वे अपना नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने उर्दू को सरकारी काम-काज की भाषा बना दिया। फलत:, राज कृपा पाने के आकांक्षी जन उर्दू सीखने, लिखने और पढ़ने लगे। स्पष्ट है कि उर्दू भारत में जन्मी, पूरी तरह भारतीय भाषा है जी कई भाषाओँ के शब्दों के सम्मिश्रण से बनी है। इसीलिए उर्दू की अपनी वर्णमाला, व्याकरण, लिपि या शब्द कोष नहीं है, न हो सकता है। वह आरंभ में अरबी-फारसी वर्णमाला, व्याकरण और पिंगल अपनाती रही किन्तु शब्द मिले-जुले उपयोग किए जाते रहे। भारत में पैदा मुग़ल बच्चों के बाद क्रमश: अरबी-फारसी प्रभाव घटता गया, और भारतीय भाषाओँ का असर उर्दू पर बढ़ता गया। खुसरो से लेकर बशीर अहमद 'मयूख' और गुलज़ार तक बदलती उर्दू में यह साफ-साफ़ देखा जा सकता है। उर्दू के तीन रूपों देहलवी, लखनवी और हैदराबादी में स्थानीय भारतीय भाषाओँ का असर ही अंतर का कारक है। निर्विवाद है कि उर्दू भारत का अपना भाषा रूप है, लिपि का फर्क न रहे तो उर्दू हिंदी का ही एक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी उच्चार के अनुसार बोला और लिखा जाता है। उच्चार का यह अंतर देश के हर अंचल में है किन्तु कहीं भी उच्चार के अंतर से भाषा का नाम नहीं बदलता।

भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है। न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह प्रमाणित करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है। याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित समयावधि में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया है, न किया जाने की संभावना है। भारत में जिस तरह अंग्रेजी प्रेमी अफसरशाही और नेता हिंदी को राष्ट्रीय भाषा नहीं बनने देना चाहते वैसे पाकिस्तान में उर्दू को वहाँ की अंग्रेजी प्रेमी अफसरशाही और नेता उर्दू को राष्ट्रीय भाषा नहीं बनने देना चाहते।

हरकादास वासन, लीड्स अमेरिका के अनुसार-- ''उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए। वासन ने उर्दू को अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप माना तथा कहा कि उर्दू ने व्यावहारिक रूप से हिन्दी की शब्दवाली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को। उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है। '' उर्दू की एक खास नजरिये से की जा रही इस पैरवी के पीछे छिपी भावना छिपाए नहीं छिपती। हिन्दी को कमतर और उर्दू को बेहतर बताने का ऐसा दुष्प्रयास उर्दूदां अक्सर करते रहे हैं। वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि हिन्दी भाषा ही एक रूप है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है। भाषा विज्ञान के अनुसार उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं। फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है। किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है। इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी। उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है। व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि प्रचार माध्यम तथा प्रशासन न चाहें।

उर्दू का सौन्दर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है। ८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि मुसलमानों में भी)में अपनी जड़ नहीं जमा सकी। अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएँ हिन्दी ही बोलती रहीं। यहाँ तक कि केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते हैं। मुसलमानों की मातृभाषा बांगला देश में बंगाली, केरल में मलयालम, तमिलनाडु में तमिल आदि हैं। यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है। आरम्भ में मुस्लिम लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था। मुस्लिम काल में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा थी इसलिए सरकारी काम-काज से प्रमुखतः जुड़े कायस्थों, ब्राम्हणों और क्षत्रियों को इसका प्रयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ा। जो गरीब हिन्दू बलात मुसलमान बनाये गए वे किसान-सिपाही थे जिन्हें भाषिक विकास से कोई सीधा सरोकार नहीं था।उर्दू के विकास में सर्वाधिक प्रभावी भूमिका दिमाग से तेज और सरकारी बन्दोबस्त से जुड़े कायस्थों ने निभाई जिसका लाभ उन्हें राजस्व से जुड़े महकमों में मिला। उर्दू संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी तथा स्थानीय बोलिओं के शब्दों का सम्मिश्रण अर्थात चूँ-चूँ का मुरब्बा हो गई। उर्दू को अपना चुके कायस्थ जनों को उर्दू प्रभाव घटने के कारण नौकरियाँ और प्रतिष्ठा गँवानी पड़ीं।

उर्दू का छंद शास्त्र यद्यपि अरबी-फारसी से उधार लिया गया किन्तु मूलतः वहाँ भी यह संस्कृत से ही गया था, इसलिए उर्दू के रुक्न और बहरें संस्कृत छंदों पर ही आधारित मिलती हैं। फारस और अरब की भौगोलिक परिस्थितियों और निवासियों को कुछ शब्दों के उच्चारण में अनुभूत कठिनाई के कारण वही प्रभाव उर्दू में आया।कवियों ने बहरों में कई जगहों पर भारतीय भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग में बाहर के अनुकूल नहीं पाया। फल यह हुआ कि शब्दों को तोड़-मरोड़कर या उसका कोई अक्षर अनदेखा -अन उच्चारित कर (हर्फ़ गिराकर) उपयोग करना और उसे सही साबित करने के लिये उसके अनुसार नियम बनाये गए। और के स्थान पर औ', मंदिर के स्थान पर मंदर, जान के स्थान पर जां, मकान के स्थान पर मकां आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। इनसे कई जगह अर्थ के अनर्थ हो गए। मंदिर को मंदर करने पर उसका अर्थ देवालय से बदल कर गुफा हो गया। साहित्य में उर्दू के दो रूप प्रचलन में हैं एक में पारंपरिक अरबी-फारसी व्याकरण का अंधानुकरण है, दूसरी में हिंदी व्याकरण को अपनाकर समय के साथ बदलने का प्रयास।

हिंदी ने निरंतर सृजन, अनुवाद, भाषांतरण, नव शब्द सृजन आदि द्वारा अपना इतना विकास किया है कि अब वह विश्व की समुन्नत और सशक्त भाषा बन गई है। आज हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषाओँ में से एक है। वास्तव में हिंदी विश्ववाणी बन चुकी है जबकि उर्दू सिमटती जा रही है। भाषाविदों के अनुसार चित्रात्मक लिपि वाली भाषाएँ तथा दाएँ से बाएँ लिखी जा रही भाषाएँ लुप्त होने का खतरा झेल रही हैं। हिंदी इस खतरे से मुक्त है।

स्वतंत्रता के बाद अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिये उर्दू प्रेमियों ने उर्दू को हिन्दी से अधिक प्राचीन और बेहतर बताने की जी तोड़ कोशिश की किन्तु आम भारतवासियों को अरबी-फ़ारसी शब्दों से बोझिल भाषा स्वीकार न हुई। फलतः, उर्दू के श्रेष्ठ कहे जा रहे शायरों का वह कलाम जिसे उन्होंने श्रेष्ठ माना जनता के दिल में घर नहीं कर सका और जिसे उन्होंने चलते-फिरते लिखा गया या सतही माना था वह लोकप्रिय हुआ। मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी जिन पद्य रचनाओं को पूरी विद्वता से फारसी में लिखा वे आज किसे याद हैं?, जबकि जिस गजल को 'तंग रास्ता' और 'कोल्हू का बैल' कहा गया था उसने उन्हें अमर कर दिया। ऐसा ही अन्यों के साथ हुआ। दाल न गलती देख मजबूरी में उर्दू लिपि के स्थान पर देवनागरी को अपनाकर हिन्दी के बाज़ार से लाभ कमाने की कोशिश की गई जो सफल भी हुई।

उदार हिन्दीभाषियों ने उर्दू को गले लगाने में कोई कसर न छोड़ी किन्तु उर्दू दां हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को नकारने के दुष्प्रयास में जुट गए और मुँह की खाई। हिन्दी गजलों को खारिज करने का कोई अधिकार न होने पर भी उर्दूदां ऐसा करते रहे जबकि उर्दू में समालोचना शास्त्र का हिन्दी की तुलना में बहुत कम विकास हो सका। उर्दू गजल को इश्क-मुश्क की कैद से आज़ाद कर आम अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ने का काम हिन्दी ने ही किया। उर्दू को आक्रान्ता मुसलमानों की भाषा से जन सामान्य की भाषा का रूप तभी मिला जब वह हिन्दी से गले मिली किन्तु हिन्दी की पीठ में छुरा भोंकने से उर्दूदां बाज़ न आए। वे हिन्दी के सर्वमान्य दुष्यंत कुमार की सर्वाधिक लोकप्रिय ग़ज़लों को भी खारिज करार देते रहे। आज भी हिन्दी कवि सम्मेलनों में उर्दू की रचनाओं को पूरी तरह न समझने के बावजूद सराहा ही जाता है किन्तु उर्दू के मुशायरों में हिन्दी कवि या तो बुलाए ही नहीं जाते या उन्हें दाद न देकर अपमानित किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि इस बेहूदा हरकत में उर्दू भाषा का कोई दोष नहीं है किन्तु उर्दूभाषियों को हिन्दी को अपमानित करने की मनोवृत्ति तो उजागर होती ही है।

भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है। भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने में संकोच नहीं किया। भारत के हिन्दी विश्व विद्यालयों में उर्दू के पठन-पाठन की व्यवस्था है किन्तु हिन्दी भाषियों के करों से हिन्दी भाषी सरकार द्वारा स्थापित किये गए उर्दू मदरसों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण की समुचित उन्नत व्यवस्था बहुत कम है।

बांग्ला देश ने उर्दू के घातक सामाजिक दुष्प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया।यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचोंऔर पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है। अमेरिका, जापान, रूस, या चीन कहीं भी उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है पर भारत में उर्दू पर यह ठप्पा लगाया जाता रहा है। क्या आपने किसी मौलवी, मौलाना को हिन्दी में बोलते सुना है? राम कथा और कृष्ण कथा के प्रवचनकार या हिन्दीभाषी राजनेता पूरी उदारता से संस्कृत और हिन्दी के उद्धरण होते हुई भी उर्दू के शे'र कहने में कोई संकोच नहीं करते किन्तु मजहबी या सियासी तकरीरों में आपको संस्कृत, हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा के उद्धरण नहीं मिलते। अपनी इस संकीर्णता के लिये शर्मिंदा होने और सुधारने / बदलने की बजाय उर्दूदां इसे अपनी जीत और उर्दू की ताकत बताते हैं। उर्दू के पीछे छिपी इस संकीर्ण, आक्रामक और बहुत हद तक सांप्रदायिक मनोवृत्ति ने उर्दू का बहुत नुक्सान भी किया है।

भारत में जन्म लेने औरपोसी जाने के बाद भी उर्दू अवधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये पराई भाषा है बावजूद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाए जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है। वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही समाहित होने दिया जाना चाहिए अन्यथा व्यावसायिक तथा तकनीकी बाध्यताओं के तहत अंग्रेजीभाषी बनती जा रही नई पीढ़ी इससे पूरी तरह दूर हो जाएगी। आज मैं अपने पूर्वजों के पुराने कागज़ नहीं पढ़ पाता चुकी वे उर्दू लिपि में लिखे गए हैं। उर्दू जाननेवालों से पढवाए तो उनमें इस्तेमाल किए गए शब्द ही समझ में नहीं आए, काल बाह्य हो चुके हैं।

तकनीकी कामों में रोजगार पाए नवयुवक गैर अंग्रेजी बहुत कम और सिर्फ मनोरंजन के लिए पढ़ते हैं... उनके बच्चों और परिवारजनों की भी यही स्थिति है। दिन-ब-दिन इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। इन्हें भारतीयता से जोड़े रखने में सिर्फ हिन्दी ही समर्थ है। इस वर्ग में विविध प्रान्तों के रहवासियों जिनकी मूल भाषाएँ अलग-अलग हैं, विवाह कर रहे हैं... इनकी भाषा क्या हो? एक प्रान्त की भाषा दूसरे को नहीं आती... विकल्प मात्र यह कि वे अंग्रेजी बोलें या हिन्दी। वे बच्चों को भारतीयता से जोड़े रखना चाहते हैं। भोजपुरी पति की तमिल पत्नि भोजपुरी बोल सकेगी क्या? बंगाली पति अपनी अवधी पत्नि की भाषा समझ सकेगा क्या? पश्तो, डोगरी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, बुन्देली, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मालवी, निमाड़ी, हल्बी, गोंडी, कैथी, कोरकू, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि हर भाषा पूज्य है किन्तु अपने मूल रूप में सभी उसे अपना नहीं सकते। एक सीमा तक अंग्रेजी या हिन्दी ने अन्य भाषाओँ से अधिक अपनी पहुँच बनाई है। अंग्रेजी के विदेशी मूल तथा भारतीय सामान्य जनों से दूरी के कारण हिन्दी एकमात्र भाषा है जो आम भारतीयों, अनिवासी भारतीयों, आप्रवासी भारतीयों तथा विदेशियों को एक सूत्र में जोड़कर संवाद का माध्यम बन सकती है।

हमें सत्य से साक्षात करन ही होगा अन्यथा हम अपने ही वंशजों से दूर हो जाएँगे या वे ही हमें समझ नहीं सकेंगे। उर्दूभाषियों तथा उर्दूप्रेमियों को भी इस परिदृश्य में अपनी संकीर्ण भावना छोड़कर हिन्दी के साथ गंगा-यमुना की तरह मिलना होगा अन्यथा हिन्दीभाषी भले ही मौन रहें समय हिन्दी से गैरियत और दूरी रखने की मानसिकता को उसके अंजाम तक पहुँचा ही देगा।
***

बुंदेली लोकगीत नौनी दुलहनिया

बुंदेली लोकगीत
*
कोऊ इतै आओ री!, कोऊ उतै जाओ री!!
नौनी दुलहनिया ए समझाओ री!!
*
संझा परै से जा तो सोबे खों जुटी
सूरज निकर आओ, अबै नें उठी
तन्नक सों कोई टेर आओ री!
कोई संगे लाओ री!
नौनी दुलहनिया ए समझाओ री!!
*
जैसें-तैसें तो अब सो के जा उठी
काम-धंधा छोर कै खाबै खों जुटी
जो कछु रसोई में परोस आओ री!
कोई जल लाओ री!
नौनी दुलहनिया ए समझाओ री!!
*
चूल्हे पे धर के जा तो बैठ गई पटा
घर भर को ख्वा दै जाने अलौने भटा
चौके सें कौनउ नौन लाओ री!
तुरतई जाओ री!
नौनी दुलहनिया ए समझाओ री!!
*
झींक-झींक बैठी बनाबै खों दार
खीर में लगा दओ जाने हींग खों बघार
काम-काज तन्नक सिखा जाओ री!!
कोई संगे आओ री!
नौनी दुलहनिया ए समझाओ री!!
*

मैं भारत हूँ कोटा

मैं भारत हूँ : कोटा
*
रेवा तट से जबलपुर, स्वागत करे सहर्ष
चंबल तट कोटा बसा, पाए नव उत्कर्ष 

जहाँ कृष्ण गोविन्द हैं, वहीं विजय विश्वास
गीता शोभा देश की, आशा इससे खास
*
मैं भारत  कहती निशा, उषा कहे सत्य 
करतल ध्वनि कर दुपहरी, रजनी सह खुश नित्य 
*
मैं भारत हूँ किले का, परकोटा मजबूत 
विजय ध्वजा फहरा सलिल, कोशिश करें अकूत
गाँधी की आँधी उठे, तो मिटता अंधेर
मैं भारत हूँ मिल कहे, जनगण करे न देर 
मधु वाणी सारिका की, सुन हो विश्व अशोक 
मैं भारत हूँ घोष कर, बदल सकें हम लोक 
*
वेद प्रकाश हरे तिमिर, सपना हो साकार 
नयन प्रकाश विनीत हो, हो भारत गलहार 
जनगण-मन है लोकमणि, ममता मन में खूब
मैं भारत हर जन कहे, नित्य ख़ुशी में डूब 
ललित छटा घनश्याम की, कानबिहारी देख 
'मैं भारत हूँ' कह हँसे, समय करेगा लेख 
*  
पुष्पा देख सरोज को, अरुण करे जयघोष 
मैं भारत था हूँ रहूँ, मिले तभी संतोष 
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ९४२५१८३२४४ 

मुक्तक

मुक्तक 
ले लेती है जिंदों की भी अनजाने ही जान मोहब्बत।
दे देती हैं मुर्दों को भी अनजाने ही जान मोहब्बत।।
मरुथल में भी फूल खिलाती, पत्थर फोड़ बहाती झरना-
यही जीव संजीव बनाती, करे प्राण संप्राण मोहब्बत।।
*

बुधवार, 9 जून 2021

तेवरी / मुक्तिका

तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
संजीव 'सलिल'
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
९-६-२०१७ 
***

नवगीत

नवगीत:
जो नहीं हासिल...
संजीव 'सलिल'
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
***
९-६-२०१२

मुक्तिका

मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
***
९-६-२०१६
[संस्कारी जातीय छंद ]

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
९-६-२०१५ 
***

द्विपदियाँ (शे'र)

द्विपदियाँ (शे'र)
संजीव
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
*
९-६-२०१५

दोहा का रंग आँसू के संग

दोहा सलिला
*
दोहा का रंग आँसू के संग
संजीव
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर


मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
*
९-६-२०१५ 

शहतूत

शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है

बिरसा मुंडा



क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा आदिवासियों के 'भगवान' : अग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में सभाली थी कमान
रांची. 28 अगस्त 1998 को देश की सर्वोच्च संस्था संसद भवन के परिसर में बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में बिरसा मुंडा को आदिवासी अधिकारों के आरंभिक प्रवर्तक संरक्षक तथा विदेशी सत्ता और दासता के आगे कभी न झुकने वाले योद्धा के रूप में याद करते हुए एक असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी थी। 16 अक्टूबर, 1989 इसी संसद भवन के केंद्रीय हॉल में बिरसा मुंडा की भव्य तस्वीर को स्थापित कर देश के राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी में बिरसा मुंडा को प्रथम आदिवासी नेता को महत्ता दी गई।
इस अवसर पर वक्ताओं ने बिरसा मुंडा को एक महान समाज सुधारक, रचनात्मक प्रतिभा के धनी और सबसे अधिक उत्साही राष्ट्रवादी बताते हुए ऐसा महान स्वतंत्रता सेनानी कहा जिसने जीवन पर्यंत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 15 नवंबर, 1989 को बिरसा मुंडा पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया। गौरतलब है कि 19-20 मार्च 1940 में रामगढ़ में आयोजित कांग्रेस के महाधिवेशन स्थल का मुख्य द्वार बिरसा मुंडा के नाम पर रखा गया था।
बिरसा मुंडा के संदर्भ में विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने दर्शाया कि देश में चल रहे अन्य राष्ट्रीयता स्वाधीनता संग्राम की भांति ही बिरसा का उलगुलान (आंदोलन) ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी था। बिरसा संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे। ऐसी स्वतंत्रता जो राजनीतिक और धार्मिक हो। जिसके लिए पूर्व में छेड़े गए सरदार आंदोलन की सीमाओं से आगे बढ़कर 22 दिसंबर, 1889 की सर्द रात में अपने चुने हुए साथियों की उपस्थिति में संपूर्ण उलगुलान की घोषणा की। अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए दुराग्रही इतिहास और दर्शन अभी भी लोगों के मानस पटल से नहीं हटाया जा सका है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासकार व मानव शास्त्री कुमार सुरेश जैसे कई अन्य वरिष्ठ मनीषियों ने गांव-गांव घूमकर गहन अध्ययन विश्लेषण से बिरसा मुंडा अन्य आदिवासी नायकों व उनके आंदोलनों पर तथ्य व तर्कसंगत विवेचन प्रस्तुत कर नई विचार दृष्टि प्रदान की।
यह उलगुलान था तत्कालीन देशी-विदेशी शोषणकारी सत्ता और शक्तियों से शोषित-वंचित आदिवासी समुदाय को सम्मान-स्वतंत्रता और अधिकार दिलाने के लिए। जिनकी अन्यायकारी शासन व्यवस्था ने पूरे ग्रामीण के साथ-साथ जनजातीय अर्थव्यवस्था के भयावह विघटन तथा आदिवासी समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक बिखराव की कगार पर पहुंचा दिया था। इस उलगुलान के कई महत्वपूर्ण आयाम थे। सामाजिक कूरीतियों के प्रती किया जागरुक
एक ओर जमीन तथा जंगलों से अन्य ग्रामीण व आदिवासी समुदाय को जबरन बेदखल कर जमीन, फसल तथा प्राकृतिक संसाधनों पर फौजी संगीनों के बल पर कायम साम्राज्य का जोरदार प्रतिरोध था तो दूसरी ओर आदिवासी समाज में जड़ जमाई नशाखोरी, अंधविश्वास, कुरीतियों व ओझागीरी इत्यादि गलत प्रवृत्तियों व आदतों के खिलाफ जबरदस्त सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण। यह पूरा का पूरा आंदोलन अनुकरणात्मक से अधिक प्रतिरोधात्मक था।
बिचौलिया के खिलाफ आंदोलन
सरदार आंदोलन जो मुख्य रूप से बिचौलिया एवं दिकुओं के खिलाफ था। बिरसा द्वारा छेड़े गए उलगुलान ने समस्त आदिवासी एवं अन्य देशज समुदायों पर भी गहरा असर डालकर उनमें जागरूकता लाने में अभूतपूर्व योगदान दिया। जो उस समय बाहरी आक्रमणों के साथ-साथ अपने समुदाय की भीतर की आंतरिक कमजोरियों से लगातार टूटते और बिखरते जा रहे थे। इसका ही ऐतिहासिक दुष्परिणाम हुआ कि अंग्रेज शासकों द्वारा पुरस्कार के प्रलोभन दिए जाने पर बंदगांव के कुछ लोगों ने विश्वासघात कर धोखे से बिरसा को पकड़वाने का कृत्य कर डाला।कहा था मैं लौट कर आउंगा
आज बिरसा मुंडा के बलिदान दिवस से लेकर उनके जन्मदिवस पर बड़े-बड़े कार्यक्रम के आयोजन से लेकर उनके नाम पर संस्था, स्थान, सड़क व चौराहों इत्यादि के नामकरण की होड़-सी मची हुई है। लेकिन बिरसा के विचारों और मूल्य-दर्शन को स्वयं के अंदर तथा समाज में विस्थापित करने वाले कितने ईमानदार लोग खड़े हैं बिरसा मुंडा भी जानते थे कि यह लड़ाई आखिरी नहीं है। इसीलिए उन्होंने कहा भी कि-मैं लौट कर आऊंगा! क्योंकि उलगुलान का अभी अंत नहीं हुआ है, उलगुलान जारी है...अबुआ दिसुम, अबुआ राज का सफर जारी है!