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बुधवार, 2 दिसंबर 2020

कार्यशाला- एक मुक्तक

कार्यशाला-
एक मुक्तक
*
तुम एक सुरीला मधुर गीत, मैं अनगढ़ लोकगीत सा हूँ
तुम कुशल कलात्मक अभिव्यंजन, मैं अटपट बातचीत सा हूँ - फौजी
तुम वादों को जुमला कहतीं, मैं जी भर उन्हें निभाता हूँ
तुम नेताओं सी अदामयी, मैं निश्छल बाल मीत सा हूँ . - सलिल
****
२-१२-२०१६ 

कुण्डलिया प्रश्नोत्तर

कुण्डलिया 
प्रश्नोत्तर 
*
लिखते-पढ़ते थक गया, बैठ गया हो मौन।  
पूछ रहा चलभाष से, बोलो मैं हूँ कौन? 
बोलो मैं हूँ कौन, मिला तब मुझको उत्तर 
पाए खुद को जान, न क्यों अब तक घनचक्कर?
तुम तुम हो; तुम नहीं, अन्य खुद जैसे दिखते 
मन भटकाए बिना, न क्यों तुम कविता लिखते।
*
२९-११-२०१५ 

बृज मुक्तिका

बृज मुक्तिका 
संजीव 
*
जी भरिकै जुमलेबाजी कर 
नेता बनि कै लफ्फाजी कर 
*
दूध-मलाई गटक; सटक लै 
मुट्ठी में मुल्ला-काजी कर 
*
जनता कूँ आपस में लड़वा 
टी वी पै भाषणबाजी कर 
*
अंडा शाकाहारी बतला 
मुर्ग-मुसल्लम को भाजी कर 
*
सौ चूहे खा हज करने जा 
जो शरीफ उसको पाजी कर 
*
२-१२-२०२० 




तुम तौ खाओ दूध - मलाई जी भरिकै
हमकों खाय रई महँगाई जी भरिकै
कल कूँ सिगरे सिंथेटिक ही पीओगे  
गैया काटें रोज कसाई जी भरिकै
नेता - अफसर लूटि रए हैं जनता कूँ
चोर-चोर मौसेरे भाई, जी भरिकै
होय न सत्यानास जब तलक भारत कौ
हिन्दू-मुस्लिम करौ लड़ाई जी भरिकै
जे छिछोरगर्दी तुमकूँ लै ही डूबी
चौराहे पै भई पिटाई जी भरिकै
वो आरक्षन पायकेँ अफसर बनि बैठे
'अंजुम' तुमनें करी पढ़ाई जी भरिकै

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर

स्मरण: 
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर 
(२६ दिसंबर १८२० - २९ जुलाई १८९१)
*



ईश्वरचंद्र विद्यासागर बांग्ला साहित्य के समर्पित रचनाकार तथा श्रेष्ठ शिक्षाविद रहे हैं। आपका जन्म २६ दिसंबर १८२० को अति निर्धन परिवार में हुआ था। पिताश्री ठाकुरदास तथा माता श्रीमती भगवती देवी से संस्कृति, समाज तथा साहित्य के प्रति लगाव ही विरासत में मिला। गाँव में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर आप १८२८ में पिता के साथ पैदल को कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचे तथा संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन आरम्भ किया। अत्यधिक आर्थिक अभाव, निरंतर शारीरिक व्याधियाँ, पुस्तकें न खरीद पाना तथा सकल गृह कार्य हाथ से करना जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने हर परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 
सन १८४१ में आपको फोर्ट विलियम कोलेज में ५०/- मासिक पर मुख्य पंडित के पद पर नियुक्ति मिली। आपके पांडित्य को देखते हुए आपको 'विद्यासागर' की उपाधि से विभूषित किया गया। १८५५ में आपने कोलेज में उपसचिव की आसंदी को सुशोभित कर उसकी गरिमा वृद्धि की। १८५५ में ५००/- मासिक वेतन पर आप विशेष निरीक्षक (स्पेशल इंस्पेक्टर) नियुक्त किये गये।
अपने विद्यार्थी काल से अंत समय तक आपने निरंतर सैंकड़ों विद्यार्थिओं, निर्धनों तथा विधवाओं को अर्थ संकट से बिना किसी स्वार्थ के बचाया। आपके व्यक्तित्व की अद्वितीय उदारता तथा लोकोपकारक वृत्ति के कारण आपको दयानिधि, दानवीर सागर जैसे संबोधन मिले। 
आपने ५३ पुस्तकों की रचना की जिनमें से १७ संकृत में,५ अंग्रेजी में तथा शेष मातृभाषा बांगला में हैं। बेताल पंचविंशति कथा संग्रह, शकुन्तला उपाख्यान, विधवा विवाह (निबन्ध संग्रह), सीता वनवास (कहानी संग्रह), आख्यान मंजरी (बांगला कोष), भ्रान्ति विलास (हास्य कथा संग्रह) तथा भूगोल-खगोल वर्णनं आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं। 
दृढ़ प्रतिज्ञ, असाधारण मेधा के धनी, दानवीर, परोपकारी, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर ७० वर्ष की आयु में २९ जुलाई १८९१ को इहलोक छोड़कर परलोक सिधारे। आपका उदात्त व्यक्तित्व मानव मात्र के लिए अनुकरणीय है।

पैरोडी

ई मित्रता पर पैरोडी:
संजीव 'सलिल'
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
३०-११-२०१२ 
Sanjiv Verma 'salil'
salil.sanjiv@gmail.com


मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

कार्य शाला

कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***

१.१२.२०१८ 

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
*
कथ्य भाव लय छंद रस, पंच तत्व आधार.
मुरली-धुन सा कवित रच, पा पाठक से प्यार
*
दोहा सलिला निर्मला, सारस्वत सौगात।
नेह नर्मदा सनातन, अवगाहें नित भ्रात
*
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द-शब्द सौगात।
चरण-चरण में सार है, पद-पद है अवदात।।
*
दोहा दिव्य दिनेश दे, तम हर नवल प्रभात।
भाषा-भूषा सुरुचिमय, ज्यों पंकज जलजात।।
*
भाव, कहन, रस, बिंब, लय, अलंकार सज गात।
दोहा वनिता कथ्य है, अजर- अम्र अहिवात।।
*
दोहा कम में अधिक कह, दे संदेशा तात।
गागर में सागर भरे, व्यर्थ न करता बात।।
*
संजीव
१.१२.२०१८

मुक्तक

मुक्तक
नमन तुमको कर रहा सोया हुआ ही मैं
राह दिखाता रहा, खोया हुआ ही मैं
आँख बंद की तो हुआ सच से सामना
जाना कि नहीं दूध का धोया हुआ हूं मैं
*
मत जगाओ, जागकर अन्याय करेगा
आदमी से आदमी भी जाग डरेगा
बाँटकर जुमले ठगेगा आदमी खुद को
छीन-झपट, आग लगा आप मरेगा
*
उषा-स्वागत कर रही है चहक गौरैया
सूर्य-वंदन पवन करता नाच ता-थैया
बैठका मुंडेर कागा दे रहा संदेश-
तानकर रजाई मनुज सो रहा भैया
*
१-१२-२०१७ 

नवगीत

नवगीत
संजीव 
*
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी 
आदमी ने जब से 
मन पर रख लिए पत्थर 
देवता को दे दिया है 
पत्थरों का घर 
रिक्त मन मंदिर हुआ 
याद आ रही नानी 
नाक हो जब बहुत ऊँची 
बैठती मक्खी 
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति 
अहं ने ठानी
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख 
खुद से यार 
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार 
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी 
चीर हरकर माँ धरा का 
नष्टकर पोखर 
पी रहे जल बोतलों का 
हाय! हम जोकर 
बावली है बावली 
पानी लिए धानी 
१-१२-२०१४ 

सोमवार, 30 नवंबर 2020

अक्षर गीत

अक्षर गीत 
संजीव   
*
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गाएँ  अक्षर गीत। 
माँ शारद को नमस्कार कर 
शुभाशीष पा हँसिए मीत। 
स्वर : 
'अ' से अनुपम; अवनि; अमर; अब,   
'आ' से आ; आई; आबाद।
'इ' से इरा; इला; इमली; इस,    
'ई' ईश्वरी; ईख; ईजाद।   
'उ' से उषा; उजाला; उगना,  
'ऊ' से ऊर्जा; ऊष्मा; ऊन।  
'ए' से एड़ी; एक; एकता, 
'ऐ' ऐश्वर्या; ऐनक; ऐन। 
'ओ' से ओम; ओढ़नी; ओला,   
'औ' औरत; औषधि; औलाद। 
'अं' से अंक; अंग, अंगारा, 
'अ': खेल-हँस हो फौलाद।   
*
व्यंजन 
'क' से कमल; कलम; कर; करवट,
'ख' खजूर; खटिया; खरगोश।    
'ग' से गणपति; गज; गिरि; गठरी, 
'घ' से घट; घर; घाटी; घोष।  
'ङ' शामिल है वाङ्मय में 
पंचम ध्वनि है सार्थक रीत। 
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गायें अक्षर गीत। 
*
'च' से चका; चटकनी; चमचम, 
'छ' छप्पर; छतरी; छकड़ा। 
'ज' जनेऊ; जसुमति; जग; जड़; जल,   
'झ' झबला; झमझम, झरना।   
'ञ' हँस व्यञ्जन में आ बैठा, 
व्यर्थ न लड़ना; करना प्रीत। 
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गायें अक्षर गीत। 

'ट'  टमटम; टब; टका; टमाटर,  
'ठ' ठग; ठसक; ठहाका; ठुमरी।  
'ड' डमरू; डग; डगर; डाल; डफ, 
'ढ' ढक्कन; ढोलक; ढल; ढिबरी।
'ण' कण; प्राण; घ्राण; तृण में है  
मन लो जीत; तभी है जीत।  
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गायें अक्षर गीत। 
*    
'त'  तकिया; तबला; तसला; तट,
'थ' से थपकी; थप्पड़; थान।  
'द' दरवाजा; दवा, दशहरा, 
'ध' धन; धरा; धनुष; धनवान।   
'न' नटवर; नटराज; नगाड़ा,  
गिर न हार; उठ जय पा मीत।  
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गायें अक्षर गीत। 
'प' पथ; पग; पगड़ी; पहाड़; पट, 
'फ' फल; फसल; फलित; फलवान।  
'ब' बकरी; बरतन, बबूल; बस, 
'भ' से भवन; भक्त; भगवान। 
'म' मइया; मछली; मणि; मसनद,
आगे बढ़; मत भुला अतीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गायें अक्षर गीत। 
'य' से यज्ञ; यमी-यम; यंत्री, 
'र' से रथ; रस्सी; रस, रास। 
'ल' लकीर; लब; लड़का-लड़की; 
'व' से वन; वसंत; वनवास।  
'श' से शतक; शरीफा; शरबत,  
मीठा बोलो; अच्छी नीत। 
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गायें अक्षर गीत। 
'ष' से षट; षटकोण; षट्भुजी,
'स' से सबक; सदन; सरगम।    
'ह' से हल; हलधर; हलवाई, 
'क्ष' क्षमता; क्षत्रिय; क्षय; क्षम। 
'त्र' से त्रय, त्रिभुवन; त्रिलोचनी,
'ज्ञ' से ज्ञानी; ज्ञाता; ज्ञान।    
'ऋ' से ऋषि, ऋतु, ऋण, ऋतंभरा, 
जानो पढ़ो; नहीं हो भीत
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख 
आओ! गायें अक्षर गीत। 
*   
२९-३० नवंबर २०२० 

घनाक्षरी

 घनाक्षरी

*
चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,
उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।
रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,
बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।
गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,
थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।
न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,
न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।
***
संजीव ३०.११.२०१८

विजया घनाक्षरी

विजया घनाक्षरी

*
राम कहे राम-राम, सिया कैसे कहें राम?,
होंठ रहे मौन थाम, नैना बात कर रहे।
मौन बोलता है आज, न अधूरा रहे काज,
लाल गाल लिए लाज, नैना घात कर रहे।।
हेर उर्मिला-लखन, देख द्वंद है सघन,
राम-सिया सिया-राम, बोल प्रात कर रहे।
श्रुतिकीर्ति-शत्रुघन, मांडवी भरत हँस,
जय-जय सिया-राम मात-तात कर रहे।।
***
संजीव
३०.११.२०१८

नवगीत

नवगीत:
संजीव 
*
नयन झुकाये बैठे हैं तो
मत सोचो पथ हेर रहे हैं
*
चहचह करते पंछी गाते झूम तराना
पौ फटते ही, नहीं ठण्ड का करें बहाना
सलिल-लहरियों में ऊषा का बिम्ब निराला
देख तृप्त मन डूबा खुद में बन बेगाना
सुन पाती हूँ चूजे जगकर
कहाँ चिरैया? टेर रहे हैं
*
मोरपंख को थाम हाथ में आँखें देखें
दृश्य अदेखे या अतीत को फिर-फिर लेखें
रीती गगरी, सूना पनघट,सखी-सहेली
पगडंडी पर कदम तुम्हारे जा अवरेखें
श्याम लटों में पवन देव बन
श्याम उँगलियाँ फेर रहे हैं
*
नील-गुलाबी वसन या कि है झाँइ तुम्हारी
जाकर भी तुम गए न मन से क्यों बनवारी?
नेताओं जैसा आश्वासन दिया न झूठा-
दोषी कैसे कहें तुम्हें रणछोड़ मुरारी?
ज्ञानी ऊधौ कैसे समझें
याद-मेघ मिल घेर रहे हैं?
*
३०-११-२०१७

क्षणिका / मुक्तक

क्षणिका / मुक्तक 
संजीव 
*
घर-घर में गान्धारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
करती न रफ़ू आरियाँ हैं,
कोई क्या करे?
कुन्ती, विदुर न धर्मराज
शेष रहे हैं-
शकुनी-अशेष पारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
*
उस्ताद अखाड़ा नहीं,
दंगल हुआ?, हुआ.
बाकी ने वृक्ष एक भी,
जंगल हुआ? हुआ.
दस्तूरी जमाने का अजब,
गजब ढा रहा-
हाय-हाय कर कहे
मंगल हुआ? हुआ.
*
शिकवों-शिकायतो ने कहा
हाले-दिल सनम.
लब सिर्फ़ मुस्कुराते रहे,
आँख थी न नम.
कानों में लगी रुई ने किया
काम ही तमाम-
हम ही से चूक हो गई
फ़ोड़ा नहीं जो बम.
*
३०-११-२०१७

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
नयन झुकाये बैठे हैं तो
मत सोचो पथ हेर रहे हैं
*
चहचह करते पंछी गाते झूम तराना
पौ फटते ही, नहीं ठण्ड का करें बहाना
सलिल-लहरियों में ऊषा का बिम्ब निराला
देख तृप्त मन डूबा खुद में बन बेगाना
सुन पाती हूँ चूजे जगकर
कहाँ चिरैया? टेर रहे हैं
*
मोरपंख को थाम हाथ में आँखें देखें
दृश्य अदेखे या अतीत को फिर-फिर लेखें
रीती गगरी, सूना पनघट,सखी-सहेली
पगडंडी पर कदम तुम्हारे जा अवरेखें
श्याम लटों में पवन देव बन
श्याम उँगलियाँ फेर रहे हैं
*
नील-गुलाबी वसन या कि है झाँइ तुम्हारी
जाकर भी तुम गए न मन से क्यों बनवारी?
नेताओं जैसा आश्वासन दिया न झूठा-
दोषी कैसे कहें तुम्हें रणछोड़ मुरारी?
ज्ञानी ऊधौ कैसे समझें
याद-मेघ मिल घेर रहे हैं?
*
३०-११-२०१४

नवगीत

नवगीत:
संजीव 
*
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
*** 
३०-११-२०१४ 

गीत

गीत:
हर सड़क के किनारे
संजीव 'सलिल'
*
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
कुछ जवां, कुछ हसीं, हँस मटकते हुए,
नाज़नीनों के नखरे लचकते हुए।
कहकहे गूँजते, पीर-दुःख भूलते-
दिलफरेबी लटें, पग थिरकते हुए।।
बेतहाशा खुशी, मुक्त मति चंचला,
गति नियंत्रित नहीं, दिग्भ्रमित मनचला।
कीमती थे वसन किन्तु चिथड़े हुए-
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
चाह की रैलियाँ, ध्वज उठाती मिलीं,
डाह की थैलियाँ, खनखनाती मिलीं।
आह की राह परवाह करती नहीं-
वाह की थाह नजरें भुलातीं मिलीं।।
दृष्टि थी लक्ष्य पर पंथ-पग भूलकर,
स्वप्न सत्ता के, सुख के ठगें झूलकर।
साध्य-साधन मलिन, मंजु मुखड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
ज़िन्दगी बन्दगी बन न पायी कभी,
प्यास की रास हाथों न आयी कभी।
श्वास ने आस से नेह जोड़ा नहीं-
हास-परिहास कुलिया न भायी कभी।।
जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का ।
साध्य-साधन मलिन, मंजु उजड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
३०-११-२०१२ 

रविवार, 29 नवंबर 2020

गोष्ठी आचार्य संजीव वर्मा सलिल के गीत

आचार्य संजीव सलिल के गीत, सुनिए ७.३० बजे

दोहा सलिला


दोहा सलिला 
*
मुकुल हुआ मिथलेश मन, सीता सुता सहर्ष 
रघुवर को पा द्वार पर, वरे नवल उत्कर्ष 
*
भाव भावना शुद्ध हो, शब्द सुमन अविनाश
छाया मिले बसंत में,  सपना छू आकाश  
*
बिना मंजरी श्याम कब, कर संतोष प्रसन्न 
सरला भाषा वर सलिल, भक्ति भाव आसन्न
*
 
 

मुक्तक

एक मुक्तक
*
हमारा टर्न तो हरदम नवीन हो जाता
तुम्हारा टर्न गया वक्त जो नहीं आता
न फिक्र और की करना हमें सुहाता है
हमारा टर्म द्रौपदी का चीर हो जाता
*
खींचकर चीर, चीर सका नहीं दु:शासन 
आम जन की न पीर दूर करे कुशासन 
धीर चुक गया है किसान का सम्हल जाओ-
मूका बहरा न बने; चेत जा जरा शासन 
*