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बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

नवगीत:

नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2020

राजस्थानी साहित्य : एक झलक

रासो

आदिकाल के रासो' ग्रन्थों में वर्णित वीर गाथायें प्रमुख हैं। "रास' या "रासक' का अर्थ लास्य है जो नृत्य का एक भेद है। इसी अर्थ भेद के आधार पर गीत-नृत्यपरक रचनायें "रास' कही जाती हैं।  "रासो' या "रासउ' में विभिन्न प्रकार के अडिल्ल, ढूसा, छप्पर, कुण्डलियां, पद्धटिका आदि छन्द प्रयुक्त होते हैं। इस कारण ऐसी रचनायें "रासो' के नाम से जानी जाती हैं। विद्वानों ने "रासो' की व्युत्पत्ति "रहस्य' शब्द के "रसह' या "रहस्य' का प्राकृत रूप मालूम से मानी जाती है। श्री रामनारायण दूगड लिखते हैं- "रासो' या रासो शब्द "रहस' या "रहस्य' का प्राकृत रुप मालूम पड़ता है। इसका अर्थ गुप्त बात या भेद है। जैसे कि शिव रहस्य, देवी रहस्य आदि ग्रन्थों के नाम हैं, वैसे शुद्ध नाम पृथ्वीराज रहस्य है जोकि प्राकृत में पृथ्वीराज रास, रासा या रासो हो गया।

डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल और कविराज श्यामदास के अनुसार "रहस्य' पद का प्राकृत रूप रहस्सो बनता है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रुपान्तर रासो बन गया है। रहस्य रहस्सो रअस्सो रासो इसका विकास क्रम है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल "रासो' की व्युत्पत्ति "रसायण' से मानते हैं। डॉ. उदयनारायण तिवारी "रासक शब्द से रासो' का उदभव मानते हैं।

वीसलदेव रासो में "रास' और "रासायण' शब्द का प्रयोग काव्य हेतु है। ""नाल्ह रसायण आरंभई'', एवं "रास रसायण सुणै सब कोई'' आदि।
रस को उत्पन्न करने वाला काव्य रसायन है। वीसलदेव रासो में प्रयुक्त "रसायन' एवं "रसिय' शब्दों से "रासो' शब्द बना।

प्रो. ललिता प्रसाद सुकुल रसायण को रस की निष्पत्ति का आधार मानते हैं।

मुंशी देवी प्रसार के अनुसार-""रासो के मायने कथा के हैं, वह रूढ़ शब्द है। एक वचन "रास' और बहुवचन "रासा' हैं। मेवाड, ढूढाड और मारवाड में झगड़ने को भी रासा कहते हैं। जैसे यदि कई आदमी झगड़ रहे हों, या वाद-विवाद कर रहे हों, तो तीसरा आकर पूछेगा "कांई रासो है' के? लम्बी-चौडी वार्ता को भी रासो और रसायण कहते हैं। बकवाद को भी रासा और रामायण ढूंढाण में बोलते हैं। कांई रामायण है? क्या बकवाद है? यह एक मुहावरा है। ऐसे ही रासो भी इस विषय में बोला जाता है, कांई रासो है?''

महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्री-"राजस्थान के भाट चारण आदि रासा (क्रीडा या झगड़ा) शब्द से रासो का विकास बतलाते हैं।''

गार्सा-द तासी ने रासो शब्द राजसूय से निकला बतलाया है।

डॉ. ग्रियर्सन "रासो' का रूप रासा अथवा रासो मानते हैं तथा उसकी निष्पत्ति "राजादेश' से हुई बतलाते हैं। इनके अनुसार-"इस रासो शब्द की निष्पत्ति "राजादेश' से हुई है, क्योंकि आदेश का रूपान्तर आयसु है।''

महामहोपाध्याय डॉ गौरीशंकर हीराचन्द ओझा हिन्दी के "रासा' शब्द को संस्कृत के "रास' शब्द से अनुस्यूत कहते हैं। उनके मतानुसार-"" मैं रासा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के रास शब्द से मानता हँ। रास शब्द का अर्थ विलास भी होता है (शब्द कल्पदुम चतुर्थ काण्ड) और विलास शब्द चरित, इतिहास आदि के अर्थ में प्रचलित है।''

डॉ. ओझा जी ने अपने उपर्युक्त मत में रासा का अर्थ विलास बतलाया है जबकि श्री डी. आर. मंकड "रास' शब्द की उत्पत्ति तो संस्कृत की "रास' धातु से बतलाते हैं, पर इसका अर्थ उन्होंने जोर से चिल्लाना लिया है, विलास के अर्थ में नहीं।

डॉ. दशरथ शर्मा एवं डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि "रास' परम्परा की गीत नृत्य परक रचनायें ही आगे चलकर वीर रस के पद्यात्मक इति वृत्तों में परिणत हो गई। "रासो प्रधानतः गानयुक्त नृत्य विशेष से क्रमशः विकसित होते-होते उपरूपक और किंफर उपरूपक से वीर रस के पद्यात्मक प्रबन्धों में परिणत हो गया।''

इस गेय नाट्यों का गीत भाग कालान्तर में क्रमशः स्वतन्त्र श्रव्य अथवा पाठ्य काव्य हो गया और इनके चरित नायकों के अनुसार इसमें युद्ध वर्णन का समावेश हुआ।'

पं. विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी रासो शब्द को "राजयश' शब्द से विनिश्रत हुआ मानते हैं।

साहित्याचार्य मथुरा प्रसाद दीक्षित रासो पद का जन्म राज से बतलाते हैं।

कुछ ऐसी उक्तियों से रासो शब्द के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है, जैसे ""होन लगे सास बहू के राछरे''। यह "राछरा' शब्द रासो से ही सम्बन्धित है। सास बहू के बीच होने वाले वाक्युद्ध को प्रकट करने वाला यह "राछरा' शब्द बड़ी स्वाभाविकता से रायसा या रासो के शाब्दिक महत्व को प्रगट करता है। वीर काव्य परम्परा में यह रासो शब्द युद्ध सम्बन्धी कविता के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसका बुन्देलखण्डी रूप "राछरौ' है।

सार्ट: रासो ऐसा काव्य है जिसमें राजाओं का यश वर्णन किया जाता है और यश वर्णन में युद्ध वर्णन स्वतः समाहित होता है।

परम्परा

रासो काव्य परम्परा हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट काव्यधारा रही है, जो वीरगाथा काल में उत्पन्न होकर मध्य युग तक चली आई। कहना यों चाहिए कि आदि काल में जन्म लेने वाली इस विधा को मध्यकाल में विशेष पोषण मिला। पृथ्वीराज रासो' से प्रारम्भ होने वाली यह काव्य विधा देशी राज्यों में भी मिलती है। तत्कालीन कविगण अपने आश्रयदाताओं को युद्ध की प्रेरणा देने के लिए उनके बल पौरुष आदि का अतिरंजित वर्णन इन रासो काव्यों में करते रहे हैं। रासो काव्य परम्परा में सर्वप्रथम ग्रन्थ "पृथ्वीराज रासो' माना जाता है। संस्कृत, जैन और बौद्ध साहित्य में "रास', "रासक' नाम की अनेक रचनायें लिखी गईं। गुर्जर एवं राजस्थानी साहित्य में तो इसकी एक लम्बी परम्परा पाई जाती है।

संस्कृत काव्य ग्रन्थों में वीर रस पूर्ण वर्णनों की कमी नहीं है। ॠगवेद में तथा शतपथ ब्राह्मण में युद्ध एवं वीरता सम्बन्धी सूक्त हैं। महाभारत तो वीर काव्य ही है। यहीं से सूत, मागध आदि द्वारा राजाओं की प्रशंसा का सूत्रपात हुआ जो आगे चलकर भाट, चारण, ढुलियों आदि द्वारा अतिरंजित रूप को प्राप्त कर सका। वीर काव्य की दृष्टि से "रामायण' में भी युद्ध के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन हैं। "किरातार्जुनीय, में वीरोक्तियों द्वारा वीर रस की सृष्टि बड़ी स्वाभाविक है। "उत्तर रामचरित' में जहाँ "एको रसः करुण एव' का प्रतिपादन है वहीं चन्द्रकेतु और लव के वीर रस से भरे वाद विवाद भी हैं। भ नारायण कृत "वेणी संहार' में वीर रस का अत्यन्त सुन्दर परिपाक हुआ है। हिन्दी की वीर काव्य प्रवृति संस्कृत से ही विनिश्रित हुई है। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने "वीर काव्य' में हिन्दी की वीर काव्यधारा का उद्गम संस्कृत की वीर रस रचनाओं से माना है।

रासो परम्परा दो रूपों में मिलती है- प्रबन्ध काव्य और वीरगीत। प्रबन्ध काव्य में "पृथ्वी राज रासो' तथा वीर गीत के रूप में "वीसलदेव रासो' जैसी रचनायें हैं। जगनिक का रासो अपने मूल रूप में तो अप्राप्त है किन्तु, आल्ह खण्ड' नाम की वीर रस रचना उसी का परिवर्तित रूप है। आल्हा, ऊदल एवं पृथ्वीराज की लड़ाइयों से सम्बन्धित वीर गीतों की यह रचना हिन्दी भाषा क्षेत्र के जनमानस में अब भी गूँज रही है।

आदि काल की प्रमुख रचनायें पृथ्वीराज रासो, खुमान ख्रासो एवं वीसलदेव रासो हैं। हिन्दी साहित्य के प्रारम्भ काल की ये रचनायें वीर रस एवं श्रृंगार रस का मिला-जुला रुप प्रस्तुत करती हैं।

जैन साहित्य में "रास' एवं "रासक' नम से अभिहित अनेक रचनायें हैं जिनमें सन्देश रासक, भरतेश्वर बाहुबलि रास, कच्छूलिरास आदि प्रतिनिधि हैं।
आदि काल की अनेक रचनायें अनुपलब्ध हैं। संकेत सूत्रों के आधार पर सूचना मात्र मिलती है।  काल क्रमानुसार कुछ रचनाओं का रूप ऐसा परिवर्तित हो गया है कि उनके मूल रूप का अनुमान कठिन है। "पृथ्वीराज रासो' जैसी वृहदाकार रचनाओं की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। उसकी तिथियों, घटनाओं आदि के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। पृथ्वीराज रासो एवं वीसलदेव रासो को कुछ विद्वान सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त इन्हें १३ वीं १४ वीं शताब्दी का मानते हैं।

अपभ्रंश में "मुंजरास' तथा "सन्देश रासक' दो रचनायें हैं। इनमें से मुंजरास अनुपलब्ध है। केवल हेमचन्द्र के "सिद्ध हेम' व्याकरण ग्रन्थ में तथा मेरु तुंग के प्रबन्ध् चिन्तामणि में इसके कुछ छन्द उद्धृत किए गये हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त "मुंजरास' की रचना काल १०५४ वि. और ११९७ वी. के बीच मानते हैं, क्योंकि मुंज का समय १००७ वि. से १०५४ वि. का है। "संदेश रासक' को विद्वानों ने १२०७ वि. की रचना माना है। पृथ्वीराज रासो की तरह "मुंजरास' एवं "संदेश रास भी प्रबन्ध रचनायें हैं। पृथ्वीराज रासो दुखान्त रचना है। वीसलदेव रासो सुखान्त रचना है एवं इसी तरह "संदेश रासकद्' सुखान्त एवं "मुंजरास' दुखान्त रचनायें हैं।

अपभ्रंश काल की एक और रचना जिन्दत्त सूरि का "उपदेश रसायन रास' है। यह भक्ति परक धार्मिक रचना है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त जिनदत्त सूरि का स्वर्गवास सं. १२९५ वि. में मानते हैं। अतः रचना सं. १२९५ वि. के कुछ पूर्व की ही होनी चाहिए। अपभ्रशं की उपर्युक्त रचनायें रासो काव्य की मुख्य प्रवृत्तियों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं करतीा

यह रासो परम्परा हिन्दी के जन्म से पूर्व अपभ्रंश में वर्तमान थी तथा हिन्दी की उत्पत्ति के साथ'साथ गुर्जर साहित्य में।गुर्जर साहित्य में लिखी रासो रचनायें आकार में छोटी हैं। इनके रचयिता जैन कवि थे और उन्होंने इनकी रचना जैन धर्म सिद्धान्तों के अनुसार की।
सर्वप्रथम "शालिभ्रद सूरि' की "भरतेश्वर बाहुबलि रास' एवं "वद्धि रास' रचनायें उपलब्ध होती है। "भरतेश्वर बाहुबलि रास' राजसत्ता के लिए हुआ भरतेश्वर एवं बाहुबलि का संघर्ष है जो जैन तीथर्ंकर स्वामी ॠषभदेव के पुत्र थे। इसकी रचना वीर रस में हुई है। "बुद्धि रास' शान्त रस में लिखा गया उपदेश परक ग्रन्थ है।
***

राजस्थानी काव्य पीड़ पच्चीसी राजेंद्र स्वर्णकार

राजस्थानी काव्य
पीड़ पच्चीसी
राजेंद्र स्वर्णकार
*
रजथानी रै राज में, गुणियां रो ओ मोल!
हंस डुसड़का भर मरै, कागा करै किलोळ!!

रजथानी रै खेत नैं, चरै बजारू सांड!
खेत धणी पच पच मरै, मौज करै सठ भांड!!

कांसो किण रो… कुण भखै; ज़बर मची रे लूंट!
चूंग रहया रजथान री गाय; सांडिया ऊंठ!!

महल किणी रो घुस गया कित सूं आ'य लठैत ?
घर आळां पर घौरकां धमलां सागै बैंत!!

शरण जकां नैं दी; हुया बै छाती असवार!
हक़ मांगां अब भीख ज्यूं? रजथानी लाचार!?

रजथानी गढ आंगणां, रै'गी कैड़ी थोथ?
राजा परजा सूरमां थकां मांद क्यूं जोत!?

भणिया गुणिया मोकळा बेटां री है भीड़!
सिमरथ ऐड़ो एक नीं ? मेटे मा री पीड़!!

पूत करोड़ूं सूरमा राजा गुणी कुबेर!
रजथानी खातर किंयां ओज्यूं सून अंधेर?!

माता नऊ करोड़ री रो रो ' करै पुकार!
निवड़या पूत कपूत का भुजां हुई मुड़दार?!

समदर उफ़णै काळजै, सींव तोड़ियां काळ!
सुरसत रा बेटां! करो मा री अबै संभाळ!!

निज भाषा, मा, भोम रो,जका नीं करै माण!
उण कापुरुषां रो जलम दुरभागां री खाण!!

जायोड़ा जाणै नहीं जे जननी री झाळ !
उण घर रो रैवै नहीं रामैयो रिछपाळ!!

निज भाषा रो गीरबो करतां क्यां री लाज?
मात भोम, भाषा 'र मा सिरजै सुघड़ समाज!!

मिसरी सूं मीठी जकी…राजस्थानी नांव !
व्हाला भायां, ल्यो अबै निज भाषा री छांव!!

माता नैं मत त्यागजो, त्याग दईजो प्राण!
मा आगै सब धू्ड़ है…धन जोबन अर माण!!

अरे सपूतां! सीखल्यो माता रो सन्मान!
मा नैं पूज्यां' पूजसी थांनैं जगत जहान!!

नव निध मा रै नांव में , राखीजो विशवास!
मत बणजो माता थकां और किणी रा दास!!

माता रै चरणां धरो, बेटां! हस हस शीश!
खूटै सगळा धन, अखी माता री आशीष!!

मा मूंढै सूं कद करै आवभगत री मांग?
आदर तो मन सूं हुवै, बाकी ढोंग 'र स्वांग!!

करम वचन मन सूं करो माता रा जस गान!
रजथानी अपणो धरम, रजथानी ईमान!!

गूंजै कसबां तालुकां ढाण्यां शहर 'र गांव!
भाषा राजस्थान री… राजस्थानी नांव!!

वाणी राजस्थान री जिण री कोनी होड!
होठ उचारै; काळजां मोद हरख अर कोड!!

उपजै हिवड़ै हेत; थे बोलो तो इक बार!
राजस्थानी ऊचरयां' बरसै इमरत धार!!

इमरत रो समदर भरयो, पीवो भर भर बूक!
रजथानी है प्रीत री औषध असल अचूक!!

पैलां मा नैं मा गिणां आपां हुय' दाठीक!
मरुवाणी नैं मानसी ओ जग जेज इतीक!!

***

राजस्थानी काव्य हास्य

राजस्थानी काव्य 
हास्य
प्रदीप चावला  
*
दूध दही ने चाय चाटगी, फूट चाटगी भायाँ ने ।।
इंटरनेट डाक ने चरगी, भैंस्या चरगी गायाँ ने ।।
टेलीफोन मोबाईल चरग्या, नरसां चरगी दायाँ ने ।।
देखो मर्दों फैसन फटको, चरग्यो लोग लुगायाँ ने ।।
साड़ी ने सल्वारां खायगी, धोतीने पतलून खायगी ।।
धर्मशाल ने होटल खायगी, नायाँ ने सैलून खायगी ।।
ऑफिस ने कम्प्यूटर खाग्या, 'मेगी' चावल चून खायगी ॥
राग रागनी फिल्मा खागी, 'सीडी' खागी गाणा ने ॥
टेलीविज़न सबने खाग्यो, गाणे ओर बजाणे ने ॥
गोबर खाद यूरिया खागी, गैस खायगी छाणा ने ॥
पुरसगारा ने बेटर खाग्या, 'चटपटो खाग्यो खाणे ने ॥
चिलम तमाखू ने हुक्को खाग्यो, जरदो खाग्यो बीड़ी ने ॥
बच्या खुच्यां ने पुड़िया खाग्यी, अमल-डोडा खाग्या मुखिया ने ॥
गोरमिंट चोआनी खागी, हाथी खाग्यो कीड़ी ने ॥
राजनीती घर घर ने खागी, नेता चरगया रूपया ने ॥
हिंदी ने अंग्रेजी खागी, भरग्या भ्रष्ट ठिकाणो में ॥
नदी नीर ने कचरो खाग्यो, रेत गई रेठाणे में ॥
धरती ने धिंगान्या खाग्या, पुलिस खायरी थाणे ने ॥
दिल्ली में झाड़ू सी फिरगी, सार नहीं समझाणे में ॥
मंहगाई सगळां ने खागी, देख्या सुण्या नेताओ ने ॥
अहंकार अपणायत खागी, बेटा खाग्या मावां ने ॥
भावुक बन कविताई खागी, 'भावुक' थारा भावां ने ॥
*

राजस्थानी देशभक्ति गीत

राजस्थानी देशभक्ति गीत 
*
धोराँ आळा देस जाग रे, ऊँटाँ आळा देस जाग।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे, धोराँ आळा देस जाग ।।
धोराँ आळा देस जाग रे….

उठ खोल उनींदी आँखड़ल्यां, नैणाँ री मीठी नींद तोड़
रे रात नहीं अब दिन ऊग्यो, सपनाँ रो कू़डो मोह छोड़

थारी आँख्याँ में नाच रह्या, जंजाळ सुहाणी रातां रा
तूं कोट बणावै उण जूनोड़ै, जुग री बोदी बातां रा

रे बीत गयो सो गयो बीत, तूं उणरी कू़डी आस त्याग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोराँ आळा देश जाग रे 
ऊँटा आळा देश जाग

खगाँ रै लाग्यो आज काट, खूँटी पर टँगिया धनुष-तीर
रे लोग मरै भूखाँ मरता, फोगाँ में रुळता फिरै वीर

रे उठो किसानाँ-मजदूराँ, थे ऊँटाँ कसल्यो आज जीण
ईं नफाखोर अन्याय नै, करद्यो कोडी रो तीन-तीन

फण किचर काळियै साँपाँ रो, आज मिटा दे जहर-झाग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोराँ आळा देश जाग रे 
ऊँटा आळा देश जाग

रे देख मिनख मुरझाय रह्यो, मरणै सूँ मुसकल है जीणो
ऐ खड़ी हवेल्याँ हँसै आज, पण झूँपड़ल्याँ रो दुख दूणो

ऐ धनआळा थारी काया रा, भक्षक बणता जावै है
रे जाग खेत रा रखवाळा, आ बाड़ खेत नै खावै है

ऐ जका उजाड़ै झूँपड़ल्याँ, उण महलाँ रै लगा आग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोराँ आळा देश जाग 
रे ऊँटा आळा देश जाग

ऐ इन्कलाब रा अंगारा, सिलगावै दिल री दुखी हाय
पण छाँटा छिड़क्याँ नहीं बुझैली, डूँगर लागी आज लाय

अब दिन आवैल एक इस्यो, धोराँ री धरती धूजैला
ऐ सदां पत्थरां रा सेवक, वै आज मिनख नै पूजैला

ईं सदा सुरंगै मुरधर रा, सूतोडा जाग्या आज भाग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोराँ आल़ा देश जाग रे 
ऊँटा आल़ा देश जाग
(संकलित)

राजस्थानी मुक्तिका पीर पराई

राजस्थानी मुक्तिका 
पीर पराई
संजीव 
*
देख न देखी पीर पराई.
मोटो वेतन चाट मलाई..

इंगरेजी मां गिटपिट करल्यै.
हिंदी कोनी करै पढ़ाई..

बेसी धन स्यूं मन भरमायो.
सूझी कोनी और कमाई..

कंसराज नै पटक पछाड्यो.
करयो सुदामा सँग मिताई..

भेंट नहीं जो भारी ल्यायो.
बाके नहीं गुपाल गुसाईं..

उजले कपड़े मैले मन ल्ये.
भवसागर रो पार न पाई..

लडै हरावल वोटां खातर.
लोकतंत्र नै कर नेताई..

जा आतंकी मार भगा तूं.
ज्यों राघव ने लंका ढाई..

***


सरस्वती वंदना बृज नरेंद्र कुमार शर्मा गोपाल

सरस्वती वंदना बृज 
नरेंद्र कुमार शर्मा गोपाल
सिहांवलोकन छंद
*
सारदे ऐसौ जासे सार मिलै जन जन कों
जीवन की बगिया में नूतन बहार दे।
बहार दे हर मन में प्रेम भावना के बीज
तीज-त्यौहार रंग घर घर पसार दे।।
पसार दे देशभक्ति राष्ट्र हित सर्वोपरि
सब मन ते स्वार्थ की भावना निकार दे।
निकार दे अपने पराये के भेद सिगरे
बिगरै ना कोऊ ऐसौ सार दे सारदे।।
शीश कों नवाऊं गुन तेरे ही गाऊं आज
मन ही मन सिहाऊं बात हिय में समानी है।
तेरे ही सूरत की मूरत हिरदै में धारि
राखूं ना उधार रचना नगद करजानी में
भनत गुपाल नित्य है रहयौ कमाल अब
मच रहयौ धमाल चर्चा सिगरे जग जानी में।
लोग कहें ऐते गुन कहां ते पाये भईया
हौं तौ नादान किरपा सारदे भवानी में।।

सरस्वती द्वादश नाम जप

माँ सरस्वती द्वादश नाम जप 
संजीव 
*
माँ सरस्वती के स्तोत्र, मन्त्र, श्लोक का ज्ञान न हो तो श्रद्धा सहित इन १२ नामों का १२ बार जप करना पर्याप्त है-
हंसवाहिनी बुद्धिदायिनी भारती।
गायत्री शारदा सरस्वती तारती।।
ब्रह्मचारिणी वागीश्वरी! भुवनेश्वरी!
चंद्रकांति जगती कुमुदी लो आरती।।
***

नवदुर्गा - कालरात्रि

सप्तम् स्वरूप कालरात्रि
रेखा ताम्रकार 'राज'
*
सब को मारे उस काल की बन गई रात्रि
तब ही माता का नाम पड़ गया कालरत्रि
चार भुजा वाली ये माता है त्रिनेत्र धारी
दुष्टों को भय देती करे गर्दभ की सवारी
भयंकर रूप धर भवानी रण में विचरती
असुरों का नाश कर देवों की रक्षा करती
साधक जो माँ का ध्यान करें जै-जै बोले
उनके सब सिद्धियों के पल में द्वार खोले
शुभ फल दायिनी माता की करलो पूजा
मनोरथ पूर्ण हो नही है साधन कोई दूजा
सप्तम् नवरात्रे में कालरात्रि को मनाओ
प्रियजन व अपना जीवन सफल बनाओ
*

नवगीत

नवगीत
*
महरी पर गड़ती
गृद्ध-दृष्टि सा
हो रहा पर्यावरण
*
दोष अपना और पर मढ़
सभी परिभाषा गलत पढ़
जिस तरह हो सीढ़ियाँ चढ़
देहरी के दूर
मिट्टी गंदगी सा
कर रहे हैं आचरण
*
हवस के बनकर पुजारी
आरती तन की उतारी
दियति अपनी खुद बिगाड़ी
चीयर डाला
असुर बनकर
माँ धरा का आवरण
***

गीत

गीत  
*
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
छायद तरु
नर बना कुल्हाड़ी
खोद रहा अरमान-पहाड़ी
हुआ बस्तियों में जल-प्लावन
मनु! तूने ही बात बिगाड़ी।
अनगिन काटे जंगल तूने
अब तो पौधा नया लगा
*
टेर; नहीं
गौरैया आती
पवन न गाती पुलक प्रभाती
धुआँ; धूल; कोलाहल बेहद
सौंप रहे जहरीली थाती
अय्याशी कचरे की जननी
नाता एक न नेह पगा
*
रिश्तों की
रजाई थी दादी
बब्बा मोटी धूसर खादी
नाना-नानी खेत-तलैया
लगन-परिश्रम से की शादी
सुविधा; भोग-विलास मिले जब
संयम से तब किया दगा
*
रखा काम से
काम काम ने
छोड़ दिया तब सिया-राम ने
रिश्ते रिसती झोपड़िया से
बेच-खरीदी करी दाम ने
नाम हुआ पद; नाम न कोई
संग रहा न हुआ सगा
*
दोष तर्जनी
सबको देती
करती मोह-द्रोह की खेती
संयम; त्याग; योग अंगुलियाँ
कहें; न भूलो चिंतन खेती
भौंरा बना नचाती दुनिया
मन ने तन को 'सलिल' ठगा
***

सरस्वती वंदना देवानंद साहा

...........जोय माँ सरस्वती............
देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"
*
जोय माँ सरोस्वती,आमरा तोमार सन्तान।
तोमार पूजोर नियमें,आमरा ओज्ञान ।
अंधकारे आछी आमरा,नेई कोनो ज्ञान।
तोमारी कृपाय होबे,आमादेर कोल्याण।
तोमार विनार आवाज़,केड़े नेय ध्यान।
तोमार हातेर बोय,बाडाय आमादेर ज्ञान।
हांस तोमार बाहोन,श्वेत बोस्त्रो पोरिधान।
आमरा चाई तोमार काछे,बुद्धि,विद्यादान।
पद्मासने शोभितो,दाउ एमोन बोरदान।
जीवन काटुक"आनंद"ए,कोरी तोमार गुणोगान।
*

मुक्तक

मुक्तक
काव्य कामिनी मोहती धीरे-धीरे मीत
धीरे-धीरे ही बढ़े मानव मन में प्रीत
यथा समय आते अरुण तारागण रजनीश
धीरे-धीरे श्वास ही बन जाती है गीत।।
*
मित्रों से पाया, दिया मित्रों को उपहार।
'सलिल' नर्मदा जल बना, यह जीवन त्यौहार।।
पाकर संग ब्रजेश को, लगता हुआ नरेंद्र
नव प्रभात संतोष दे, अकलुष हो ब्यौहार।।
*
साथ है रजनीश तो फिर छू सकें आकाश मुमकिन।
बाँधते जो तोड़ पाएँ हम सभी वे पाश मुमकिन।।
'सलिल' हो संजीव आओ! प्रदूषण से हम बचाएँ-
दीन हितकारी बने सरकार प्रभु हो काश मुमकिन।।
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मेघ आकर बरसते हैं, अरुण लगता लापता है।
फिक्र क्यों?, करना समय पर क्या कहाँ उसको पता है?
नित्य उगता है, ढले भी पर नहीं शिकवा करे-
नर्म दिल वह, हम कहें कठोर क्या उसकी खता है।।
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पुष्प सम पुष्पा हमेशा मुस्कुराए
मन मिलन के, वन सृजन के गीत गाए
बहारें आ राह में स्वागत करें नित-
लक्ष्य पग छू कर खुदी को धन्य पाए
*

गीत: नदी मर रही है

गीत:
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
नदी माँ हमारी, भुलाया है हमने
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
*
नदी भावना की, बहे हर-हराकर
नदी कामना की, सुखद हो दुआ कर
नदी वासना की, बदल राह, गुम हो
नदी कोशिशों की, हँसें हम बहाकर
नदी देश की, विश्व बन फल रही है
नदी मर रही है

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प्रभाती जागिए गणराज

प्रभाती
जागिए गणराज
संजीव 
*
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
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सरस्वती वंदना अंजुमन 'आरज़ू'

सरस्वती वंदना
अंजुमन 'आरज़ू'
आधार छंद,-पीयूष वर्ष छंद
मापनी 2122 2122 212
*
शारदे यश विद्या बुद्धि ज्ञान दे ।
पर तनिक भी मत हमें अभिमान दे ॥
श्री कलाधारा सुनासा वरप्रदा ।
शारदा ब्राह्मी सुभद्रा श्रीप्रदा ।
भारती त्रिगुणा शिवा वागीश्वरी ।
गोमती कांता परा भुवनेश्वरी ॥1॥
पुण्य इस भारत धरा पर ध्यान दे ॥
शारदे यश विद्या बुद्धि ज्ञान दे ।
पर तनिक भी मत हमें अभिमान दे ॥
ज्ञानमुद्रा पीत विमला मालिनी ।
वैष्णवी भामा रमा सौदामिनी ॥
विंध्यवासा धूम्रलोचनमर्दना।चित्रमान्यविभूषिता पद्मासना ॥2॥
लोकहित आलोक अंशुमान दे ॥
शारदे यश विद्या बुद्धि ज्ञान दे ।
पर तनिक भी मत हमें अभिमान दे ॥
चंद्रवदना चंद्रलेखविभूषिता ।
ज्ञानमुद्रा अंबिका सुरपूजिता ।
ब्रह्मजाया कालरात्रि स्वरात्मिका ।
चंद्रकांता ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका ॥3॥
ज्ञान कितना है न इसका ज्ञान दे ॥
शारदे यश विद्या बुद्धि ज्ञान दे ।
पर तनिक भी मत हमें अभिमान दे ॥
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मां सरस्वती के १०८नामों में से ४० नाम यहाँ हैं

सरस्वती वन्दना ममता बनर्जी "मंजरी"

सरस्वती वन्दना 
ममता बनर्जी "मंजरी"
*
बस जाओ तुम मेरे उर में , हंसवाहिनी हे माता।
विद्या धन से झोली भर कर ,आज निभाओ तुम नाता।
आस लगाए द्वार खड़ी मैं, आज कृपा मुझ पे कर दो।
चले लेखनी मेरी निसदिन,विद्या से झोली भर दो।
भरती जाऊं रचनाओं से ,दिन प्रतिदिन मैं खाता।।
बस जाओ तुम उर में मेरे..........।
विद्या के बल पर मैं चमकूँ नाम जगत में हो अपना।
पूरी हो जीवन की आशा,पूरे हो हर इक सपना।
लाज रखो हे मइया मेरी,कृपा करो विद्या दाता।।
बस जाओ तुम उर में मेरे.........।
*ममता बनर्जी "मंजरी"

सरस्वती वंदना पंकज भूषण पाठक"प्रियम्

सरस्वती वंदना 
वर दे
पंकज भूषण पाठक"प्रियम्
*
वर दे! माँ भारती तू वर दे
अहम-द्वेष तिमिर मन हर
शील स्नेह सम्मान भर दे।
वर दे! माँ शारदे तू वर दे।
बाल अबोध सुलभ मन
अविवेक अज्ञान सब हर ले
जड़ मूढ़ अबूझ सरल मन
बुद्धि विवेक विज्ञान कर् दे।
अनगढ़ अनजान अनल मन
सत्य असत्य का ज्ञान भर दे।
नव संचार विचार नव नव मन
नव प्रकाश नव विहान कर दे।
वर दे! माँ भारती तू वर दे।
*

सरस्वती वंदना रागिनी गर्ग

सरस्वती वंदना
रागिनी गर्ग रामपुर यूपी
*
हे शारदे! माँ तार दे,
अपना बना, कर प्यार दे।
मेरी सफल, हो साधना,
करती रहूँ, आराधना।
मेरी कलम,को धार दे।
हे शारदे! माँ तार दे ।।
सातों स्वरों,का ज्ञान हो,
शिक्षा मिले,वरदान दो।
हँसता हुआ, संसार दे,
हे शारदे!माँ तार दे ।।
माता सुनो! ये प्रार्थना,
पूरी करो ,हर कामना।
अब जीत दे, मत हार दे।
हे शारदे! माँ तार दे।।
तुझको जपूँ, तुझको भजूँ,
हर काम में,सुमिरन करूँ।
जीवन तरे, उपहार दे।
हे शारदे! माँ तार दे ।।
नवगीत का, नव छन्द का,
अभ्यास हो, लयबद्ध का।
सब कुछ लिखूँ ,संचार दे।
हे शारदे, माँ तार दे।।
*

शारद वंदना

शारद वंदना 
ममता बनर्जी "मंजरी" 
*
हंसवाहिनी शारदे, तुम्हें नमन शतबार।
विद्या के आलोक से,कर दो जग उजियार।।
विद्यादाता तू कहलाती।
अज्ञानी को पथ दिखलाती।।
तेरे दर पर जो भी आए।
वापस खाली हाथ न जाए।।
दासी तेरे द्वार की,करती विनती आज।
हे माते ममतामयी,रख लो मेरी लाज।।
शरण पड़े हम तेरे द्वारे।
झोली भर दो आज हमारे।।
कृपा करो अब मुझपर मैया।
पार लगा दो मेरी नैया।।
सुन लो माते प्रार्थना,सुन लो करुण पुकार।
रोती बिटिया मंजरी,करो आज उद्धार।।
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