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गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

बुंदेली कथा

बुंदेली कथा ४
बाप भलो नें भैया
*
एक जागीर खों जागीरदार भौतई परतापी, बहादुर, धर्मात्मा और दयालु हतो।
बा धन-दौलत-जायदाद की देख-रेख जा समज कें करता हतो के जे सब जनता के काजे है।
रोज सकारे उठ खें नहाबे-धोबे, पूजा-पाठ करबे और खेतें में जा खें काम-काज करबे में लगो रैत तो।
बा की घरवाली सोई सती-सावित्री हती।
दोउ जनें सुद्ध सात्विक भोजन कर खें, एक-दूसरे के सुख-सुबिधा को ध्यान धरत ते।
बिनकी परजा सोई उनैं माई-बाप घाई समजत ती।
सगरी परजा बिनके एक इसारे पे जान देबे खों तैयार हो जात ती ।
बे दोउ सोई परजा के हर सुख-दुख में बराबरी से सामिल होत ते।
धीरे-धीरे समै निकरत जा रओ हतो।
बे दोउ जनें चात हते के घर में किलकारी गूँजे।
मनो अपने मन कछु और है, करता के कछु और।
दोउ प्रानी बिधना खें बिधान खों स्वीकार खें अपनी परजा पर संतान घाई लाड़ बरसात ते।
कैत हैं सब दिन जात नें एक समान।
समै पे घूरे के दिन सोई बदलत है, फिर बे दोऊ तो भले मानुस हते।
भगवान् के घरे देर भले हैं अंधेर नईया।
एक दिना ठकुरानी के पैर भारी भए।
ठाकुर जा खबर सुन खें खूबई खुस भए।
नौकर-चाकरन खों मूं माँगा ईनाम दौ।
सबई जनें भगबान सें मनात रए के ठकुराइन मोंड़ा खें जनम दे।
खानदान को चराग जरत रए, जा जरूरी हतो।
ओई समै ठाकुर साब के गुरु महाराज पधारे।
उनई खों खुसखबरी मिली तो बे पोथा-पत्रा लै खें बैठ गए।
दिन भरे कागज कारे कर खें संझा खें उठे तो माथे पे चिंता की लकीरें हतीं।
ठाकुर सांब नें खूब पूछी मनो बे इत्त्तई बोले प्रभु सब भलो करहे।
ठकुराइन नें समै पर एक फूल जैसे कुँवर खों जनम दओ।
ठाकुर साब और परजा जनों नें खूबई स्वागत करो।
मनो गुरुदेव आशीर्बाद देबे नई पधारे।
ठकुराइन नें पतासाजी की तो बताओ गओ के बे तो आश्रम चले गै हैं।
दोऊ जनें दुखी भए कि कुँवर खों गुरुदेव खों आसिरबाद नै मिलो।
धीरे-धीरे बच्चा बड़ो होत गओ।
संगे-सँग ठाकुर खों बदन सिथिल पडत गओ।
ठकुराइन नें मन-प्राण सें खूब सबा करी, मनो अकारथ।
एक दिना ठाकुर साब की हालत अब जांय के तब जांय की सी भई।
ठकुअराइन नें कारिन्दा गुरुदेव लिंगे दौड़ा दओ।
कारिन्दा के संगे गुरु महाराज पधारे मनो ठैरे नईं।
ठकुराइन खों समझाइस दई के घबरइयो नै।
जा तुमरी कठिन परिच्छा की घरी है।
जो कछू होनी है, बाहे कौउ नई रोक सकहे।
कैत आंय धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परखहहिं चारी।
हम जानत हैं, तुम अगनी परिच्छा सें खरो कुंदन घाईं तप खें निकरहो।
ठाकुर साब की तबियत बिगरत गई।
एक दिना ठकुराइन खों रोता-बिलखता छोर के वे चल दए ऊ राह पे, जितै सें कोऊ लौटत नईया।
ठाकुर के जाबे के बाद ठकुराइन बेसुध से हतीं।
कुँवर के सर पे से ठाकुर की छाया हट गई।
ठकुराइन को अपनोंई होस नई हतो।
दो दोस्त चार दुसमन तो सबई कोइ के होत आंय।
ठाकुर के दुसमनन नें औसर पाओ।
'मत चूके चौहान' की मिसल याद कर खें बे औरें कुँवर साब के कानें झूठी दिलासा देबे के बहाने जुट गए।
कुँवर सही-गलत का समझें? जैसी कई ऊँसई करत गए।
हबेली के वफादारों ने रोकबे-टोकबे की कोसिस की।
मनो कुँवर नें कछू ध्यान नें दऔ।
ठकुराइन दुःख में इत्ती डूब गई के खुदई के खाबे-पीबे को होस नई रओ।
मूं लगी दाई मन-पुटिया के कछू खबा दे ती।
ऊ नें पानी नाक सें ऊपर जात देखो तो हिम्मत जुटाई।
एक दिना ठकुराइन सें कई की कुँवर साब के पाँव गलत दिसा में मुड़ रए हैं।
ठकुराइन नें भरोसा नई करो, डपट दओ।
हवन करत हाथ जरन लगे तो बा सोई चुप्पी लगा गई।
कुँवर की सोहबत बिगरत गई।
बे जान, सराब और कोठन को सौक फरमान लगे।
दाई सें चुप रैत नई बनो।
बाने एक रात ठकुराइन खों अपने मूड की सौगंध दै दी।
ठकुराइन नें देर रात लौ जागकर नसे की हालत में लौटते कुंवर जू खें देखो।
बिन्खों काटो तो खून नई की सी हालत भई।
बे तो तुरतई कुँवर जू की खबर लओ चाहत तीं मनो दाई ने बरज दऔ।
जवान-जहान लरका आय, सबखें सामनू कछू कहबो ठीक नईया।
दाई नें जा बी कई सीधूं-सीधूं नें टोकियो।
जो कैनें होय, इशारों-इशारों में कै दइयो ।
मनो सांप सोई मर जाए औ लाठी सोई नै टूटे।
उन्हें सयानी दाई की बात ठीकई लगी।
सो कुँवर के सो जाबै खें बाद चुप्पै-चाप कमरे माँ जा खें पर रईं।
नींद मनो रात भरे नै आई।
पौ फटे पे तनक झपकी लगी तो ठाकुर साब ठांड़े दिखाई दए।
बिन्सें कैत ते, "ठकुराइन! हम सब जानत आंय।
तुमई सम्हार सकत हो, हार नें मानियो।"
कछू देर माँ आँख खुल गई तो बे बिस्तर छोड़ खें चल पडीं।
सपरबे खें बाद पूजा-पाठ करो और दाई खों भेज खें कुँवर साब को कलेवा करबे खों बुला लओ।
कुँवर जू जैसे-तैसे उठे, दाई ने ठकुराइन को संदेस कह दौ।
बे समझत ते ठकुराइन खों कच्छू नें मालुम ।
चाहत हते कच्छू मालून ने परे सो दाई सें कई अब्बई रा रए।
और झटपट तैयार को खें नीचे पोंच गई, मनो रात की खुमारी बाकी हती।
बे समझत हते सच छिपा लओ, ठकुराइन जान-बूझ खें अनजान बनीं हतीं।
कलेवा के बाद ठकुराइन नें रियासत की समस्याओं की चर्चा कर कुँवर जू की राय मंगी।
बे कछू जानत ना हते तो का कैते? मनो कई आप जैसो कैहो ऊँसई हो जैहे।
ठकुराइन नें कई तीन-चार काम तुरतई करन परहें।
नई तें भौतई ज्यादा नुक्सान हो जैहे। 
कौनौ एक आदमी तो सब कुछ कर नई सकें।
तुमाए दोस्त तो भौत काबिल आंय, का बे दोस्ती नई निबाहें?
कुँवर जू टेस में आ खें बोले काय न निबाहें, जो कछु काम दैहें जी-जान सें करहें।
ठकुराइन नें झट से २-३ काम बता दए।
कुँवर जू नें दस दिन खों समै चाओ, सो बाकी हामी भर दई।
ठाकुर साब के भरोसे के आदमियां खों बाकी के २-३ काम की जिम्मेवारी सौंप दई गई। 
ठकुराइन ने एक काम और करो ।
कुँवर जू सें कई ठाकुर साब की आत्मा की सांति खें काजे अनुष्ठान करबो जरूरी है।
सो बे कुँवर जू खों के खें गुरु जी के लिंगे चल परीं और दस दिन बाद वापिस भईं।
जा बे खें पैले जा सुनिस्चित कर लाओ हतो के ठाकुर साब के आदमियों को दए काम पूरे हो जाएँ।
जा ब्यबस्था सोई कर दई हती के कुँवर जु के दोस्त मौज-मस्ती में रए आयें और काम ने कर पाएँ।
बापिस आबे के एक दिन बाद ठकुराइन नें कुँवर जू सें कई बेटा! टमें जो का दए थे उनखों का भओ? 
जा बीच कुँवर जू नसा-पत्ती सें दूर रए हते।
गुरु जी नें उनैं कथा-कहानियां और बार्ताओं में लगा खें भौत-कछू समझा दौ हतो।
अब उनके यार चाहत थे के कुंअर जू फिर से रा-रंग में लग जाएं।
कुँवर जू कें संगे उनके सोई मजे हो जात ते।
हर्रा लगे ने फिटकरी रंग सोई चोखो आय।
ठकुराइन जानत हतीं के का होने है?
सो उन्ने बात सीधू सीधू नें कै। 
कुँवर कू सें कई तुमाए साथ ओरें ने तो काम कर लए हूहें।
ठाकुर साब के कारिंदे निकम्मे हैं, बे काम नें कर पायें हुइहें।
पैले उनसें सब काम करा लइयो, तब इते-उते जइओ। 
कुंवर मना नें कर सकत ते काये कि सब कारिंदे सुन रए ते।
सो बे तुरतई कारिंदों संगे चले गए। 
कारिंदे उनें कछू नें कछू बहनों बनाखें देर करा देत ते।
कुँवर जू के यार-दोस्तों खें लौतबे खें बाद कारिंदे उनें सब कागजात दिखात ते।
कुँवर जू यारों के संगे जाबे खों मन होत भए भी जा नें पात ते।
काम पूरो हो जाबे के कारन कारिंदों से कछू कै सोई नें सकत ते।
दबी आवाज़ में थकुराइअन सें सिकायत जरूर की।
ठकुराइन नें समझाइस दे दई, अब ठाकुर साब हैं नईंया।
हम मेहरारू जा सब काम जानत नई।
तुमै सोई धीरे-धीरे समझने-सीखने में समै चाने।
देर-अबेर होत बी है तो का भई?, काम तो भओ जा रओ है। 
तुमें और कौन सो काम करने है? 
कुंअर जू मन मसोस खें रए जात हते।
अब ठकुराइन सें तो नई कए सकत ते की दोस्तन के सात का-का करने है?
दो-तीन दिना ऐंसई निकर गए। 
एक दिना ठकुराइन नें कई तुमाए दोस्तन ने काम करई लए हूहें।
मनो कागजात लें खें बस्ता में धार दइयो।
कुँवर नें सोची साँझा खों दोस्त आहें तो कागज़ ले लैहें और फिर मौज करहें।
सो कुँवर जू नें झट सें हामी भर दई।
संझा को दोस्त हवेली में आये तो कुँवर जू नें काम के बारे में पूछो।
कौनऊ नें कछू करो होय ते बताए?
बे एक-दूसरे को मूं ताकत भए, बगलें झांकन लगे।
एक नें झूठोबहानों बनाओ के अफसर नई आओ हतो।
मनो एक कारिंदे ने तुरतई बता दओ के ओ दिना तो बा अफसर बैठो हतो।
कुँवर जू सारी बात कोऊ के बताए बिना समझ गै।
करिन्दन के सामने दोस्तन सें तो कछू नें कई।
मनो बदमजगी के मारे उन औरों के संगे बी नई गै।
ठकुरानी नें दोस्तों के लानें एकऊ बात नें बोली।
जाईकई कौनौ बात नईयाँ बचो काम तुम खुदई कर सकत हो।
कौनऊ मुस्किल होय तो कारिंदे मदद करहें। 
कुँवर समझ गए हते के दोस्त मतलब के यार हते। 
धीरे-धीरे बिन नें दोस्तन की तरफ धान देना बंद कर दौ।
ठकुराइन नें चैन की सांस लई।
***

दोहा

दोहा 
*
गौ माता है, महिष है असुर, न एक समान
नित महिषासुर मर्दिनी का पूजन यश-गान

करते हम चिरकाल से, देख सके तो देख
मिटा पुरानी रेख मत, कहीं नई निज रेख
*

रुद्ध द्वार पर दीजिए दस्तक, इतनी बार 
जो हो भीतर खोल दे, खुद ही हर जिद हार
*
अपने राम जहाँ रहें, वहीं रामपुर धाम 
शब्द ब्रम्ह हो साथ तो, क्या नगरी क्या ग्राम ?
*

कार्यशाला 
दोहा वार्ता 
*
छाया शुक्ला 
सम्बन्धों के मूल्य का, कौन करे भावार्थ ।
अब बनते हैं मित्र भी, लेकर मन मे स्वार्थ ।।
*
संजीव
बिना स्वार्थ तृष्णा हरे, सदा सलिल की धार
बिना मोह छाया करे, तरु सर पर हर बार
संबंधों का मोल कब, लें धरती-आकाश
पवन-वन्हि की मित्रता, बिना स्वार्थ साकार
*

कुण्डलिया

कुण्डलिया  
*
रूठी राधा से कहें, इठलाकर घनश्याम 
मैंने अपना दिल किया, गोपी तेरे नाम 
गोपी तेरे नाम, राधिका बोली जा-जा 
काला दिल ले श्याम, निकट मेरे मत आ, जा
झूठा है तू ग्वाल, प्रीत भी तेरी झूठी
ठेंगा दिखा हँसें मन ही मन, राधा रूठी
*
कुंडली
कुंडल पहना कान में, कुंडलिनी ने आज
कान न देती, कान पर कुण्डलिनी लट साज
कुण्डलिनी लट साज, राज करती कुंडल पर
मौन कमंडल बैठ, भेजता हाथी को घर
पंजा-साइकिल सर धुनते, गिरते जा दलदल
खिला कमल हँस पड़ा, पहन लो तीनों कुंडल
***

नव गीत

:नव गीत
संजीव 'सलिल'
*
पीढ़ियाँ
अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*

छोड़ निज
जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों
सी चढ़ रही हैं.
चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की
कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी
घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये..
तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट
से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत
जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?
जिस्म की
कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
**********************
२५-४-२०१०

मुक्तिका

प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
संजीव 'सलिल'
*
जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..
उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..
हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..
बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा.
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..
हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना भी होता था..
नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..
न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..
हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना भी होता था..
****
२५-४-२०११

गीत

गीत  
.
कह रहे सपने कथाएँ
.
सुन सको तो सुनो इनको
गुन सको तो गुनो इनको
पुराने हों तो न फेंको
बुन सको तो बुनो इनको
छोड़ दोगे तो लगेंगी
हाथ कुछ घायल व्यथाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कर परिश्रम वरो फिर फिर
डूबना मत, लौट तिर तिर
साफ होगा आसमां फिर
मेघ छाएँ भले घिर घिर
बिजलियाँ लाखों गिरें
हम नशेमन फिर भी बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कभी खुद को मारना मत
अँधेरों से हारना मत
दिशा लय बिन गति न वरना
प्रथा पुरखे तारना मत
गतागत को साथ लेकर
आज को सार्थक बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.................

मुक्तिका

मुक्तिका 
*
हँस इबादत करो
मत अदावत करो
मौन बैठें न हम
कुछ शरारत करो
सो लिए हैं बहुत
जग बगावत करो
फिर न फेरो नजर
मिल इनायत करो
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
फेंक चलभाष हँस
खत किताबत करो
मन को मंदिर कहो
दिल अदालत करो
मुझसे मत प्रेम की
तुम वकालत करो
बेहतरी का कदम
हर रवायत करो
२५-४-२०१७
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चंद्रायण छंद

छंद सलिला:
चंद्रायण छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), ६ वीं से १० वीं मात्रा रगण, ८ वीं से ११ वीं मात्रा जगण, यति ११-१०।
लक्षण छंद:
मंजुतिलका छंद रचिए हों न भ्रांत
बीस मात्री हर चरण हो दिव्यकांत
जगण से चरणान्त कर रच 'सलिल' छंद
सत्य ही द्युतिमान होता है न मंद
लक्ष्य पाता विराट
उदाहरण:
१. अनवरत राम राम, भक्तजन बोलते
जो जपें श्याम श्याम, प्राण-रस घोलते
एक हैं राम-श्याम, मतिमान मानते
भक्तगण मोह छोड़, कर्तव्य जानते
२. सत्य ही बोल यार!, झूठ मत बोलना
सोच ले मोह पाल, पाप मत ओढ़ना
धर्म है त्याग राग, वासना जीतना
पालना द्वेष को न, क्रोध को छोड़ना

३. आपका वंश-नाम!, है न कुछ आपका
मीत-प्रीत काम-धाम, था न कल आपका
आप हैं अंश ईश, के इसे जान लें
ज़िंदगी देन देव, से मिली मान लें

*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

दोहा / घनाक्षरी

एक दोहा
संजीव
*
मैं-तुम बिसरायें कहें, हम सम हैं बस एक.
एक प्रशासक है वही, जिसमें परम विवेक..
*
एक घनाक्षरी
पारस मिश्र, शहडोल..
*
फूली-फूली राई, फिर तीसी गदराई. बऊराई अमराई रंग फागुन का ले लिया.
मंद-पाटली समीर, संग-संग राँझा-हीर, ऊँघती चमेली संग फूँकता डहेलिया..
थरथरा रहे पलाश, काँप उठे अमलतास, धीरे-धीरे बीन सी बजाये कालबेलिया.
आँखिन में हीरकनी, आँचल में नागफनी, जाने कब रोप गया प्यार का बहेलिया..
******************

व्यंग लेख

हाय-हाय ये मजबूरी
*
अभी २२ अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस मनाया गया और आज आ धमका है विश्व मलेरिया दिवस। जो समझदार हो खुद-ब-खुद समझ ले कि पृथ्वी पर मलेरिया का राज्य था, है और रहेगा। फेंकू हो या पप्पू, दीदी हों या बुआ, साध्वी हों या अभिनेत्री अदना से दिखनेवाले मच्छर से पार नहीं पा सकतीं। लाख भुनभुनाएँ या गुनगुनाएँ, परमाणु बम बनाएँ या अंतरिक्ष में जाएँ, पहलवानी दाँव आजमाएँ या छप्पन इंची छाती का लोहा मनवाएँ मच्छर को कोई फर्क नहीं पड़ता।

मच्छर पक्का सिद्धांतवादी है। वह जानता है कि पूँजीवादी हो या समाजवादी, हिंदुत्वप्रेमी हो या मुस्लिमपरस्त,  अल्प संख्यक हो या बहुसंख्यक, पुरुष पीड़िता हो या स्त्री पीड़ित, भगवा हो या हरा उनमें कोई अंतर नहीं होता। सबका खून एक जैसा लाल होता है, सब सत्ता सुंदरी के दीवाने होते हैं, सब जनहित के नाम पर निज हित साधते हैं, सब स्वार्थपूर्ति न होने पर मेंढक को मात देते हुए यहाँ से वहाँ कूद जाते हैं, सब बंदर को पीछे छोड़ते हुए फलप्रद शाख की ओर छलाँग लगा लेते हैं, सब गिरगिट को चारों खाने चित्त करते हुए टोपी, झंडों और गमछों के  रंग बदल लेते हैं।

मच्छर तत्ववेत्ता है उसे भली-भाँति ग्यात है कि भारतवासी हर दिन भौं-भौं करें या में-में, काँव-काँव करें या टें-टें आतंकवादियों को कब्र में पहुँचाने के लिए एक हो जाते हैं। इतिहासविद मच्छर यह भी जानता है कि धर्म की अफीम की आदी ताकतवर भारतीय फौजों को गौओं के एक झुंड की आड़ लेकर बढ़ते मुट्ठी भर आक्रांताओं ने रौंद दिया था। इसलिए मच्छर मंत्रोच्चार करते हुए हमला करता है। प्रेमिका की तरह 'मधुर-मधुर मेरे दीपक जल, प्रियतम का पथ आलोकित कर' कहते हुए निकट आता है और फेरे पड़ते ही चंद्रमुखी से सूर्यमुखी होते हुए ज्वालामुखी होने के सनातन सत्य को जानते हुए चुंबन लेने की आड़ में डंक मार देता है। सनातनधर्मी मच्छर जन्म-जन्मांंतर तक संबंध निभाने में विश्वास करता है। वह 'बार-बार देखो हजार बार देखो, ये देखने की चीज है  हमारा दिलरुबा डार्लिंग हो' गाते हुए आता है और 'जागो सोनेवालों' की धुन गुनगुनाते हुए जगा जाता है।

मैं अग्येय होता तो साँप नहीं मच्छर का गैरराजनैतिक साक्षात्कार कर पूछता 'मच्छर!  तुम नेता तो हुए नहीं, चुनाव लड़ना तुम्हें नहीं भाया, एक बात पूछूँ?, उत्तर दोगे?, खून चूसना कहाँ से सीखा, डंक कहाँ से पाया?'

मच्छर टी.आर.पी. बढ़ाने के चक्कर में गुप्त जानकारी प्रकट करनेवाला टी.वी. एंकर तो है नहीं जो हर रहस्य बता तो देता है पर पचा या छिपा नहीं पाता और 'हम-तुम एक कमरे में बंद हों, और चाबी खो जाए' गुनगुनाते हुए परिक्रमा लगाना आरंभ कर देता है। मच्छर यह जानता है कि छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर कटता खरबूजा ही है, वे पति के साथ मार्केटिंग करें या पति उनके साथ बटुआ पति का ही खाली होता है,  आपको निशुल्क संगीत सुनाता है और आप उसे कर-पल्लवों को बीच में लेकर ताली बजा पाएँ इसके पहले ही फुर्र हो  जाता है।

मच्छर परोपकारी है। उसे भली-भाँति विदित है कि हम मानव 'देख न सकहिं पराई विभूती' के सच्चे वारिस हैं। इसलिए मौका मिलते ही घर के बँटवारा,  भाषा के प्रश्न, धर्म के सवाल, देश की सीमा,  विचारधारा आदि बहानों से खून बहाकर बलिदानी बनने के आदी हैं। हमें अपने आपका खून बहाने से रोकने के लिए बेचारा मच्छर हमारा खून चूसकर धन्यवाद की प्रत्याशा किए बिना 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की वि रासत को ज़िंदा रखता है। यह हम कवियों की अहसान फ़रामोशी है कि हमने अब तक मच्छर नारायण की कथा, मच्छर चालीसा, मच्छर आरती आदि की रचना नहीं की।

कृतघ्नता की हद यह कि नारियाँ मच्छर एकादशी का व्रत तक नहीं करतीं। इस पाप से बचने का एकमात्र उपाय मच्छर जयंती पर शासकीय अवकाश और विश्व मच्छर दिवस मनाना ही है। आगामी आम चुनाव में किसी राजनैतिक दल द्वारा मच्छर हितों की रक्षा करने की घोषणा न करने के कारण नोटा का बटन दबाकर मच्छर हित संरक्षण करें। बोलिए मच्छर महाराज की जय।
****
संवस
२२५-४-२०१९
७९९९५५९६१८

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

लघुकथा रहस्य


लघुकथा
रहस्य
*
एकदा भारत वर्षे न भूतो न भविष्यति देवराज से अधिक शक्तिशाली व्यक्तित्व के नेतृत्व में त्रिलोक की सर्वोत्तम सरकार शासन करती भई।
नारद मुनि ने सरकार की सुकीर्ति सुनी तो निकल पड़े सुरेंद्र से अधिक प्रतापी नरेंद्र की मानवंदना करने। मार्ग में भक्तों ने बताया कि महाप्रतापी शासन के पाँच वर्षों में पाँच कल्पों से अधिक विकास हुआ है। अब अगले सभी चुनावों में यही सरकार चुनी जाना है। विपक्ष मुक्त भारत बनाना ही कोटि-कोटि जनगण का लक्ष्य है।

जब यही सरकार हमेशा चुनी जाना है तो चुनाव ही क्यों कराना? देवराज की तरह हमेशा के लिए एक बार में ही सत्ता सूत्र क्यों ग्रहण न कर लेना चाहिए? नारद जी ने पूछा।

आप भी न पूरे बौड़मनाथ हैं, कुछ नहीं समझते, यह लोकतंत्र है। जो महिमा लोक से चुने जाने की है वह स्वयंभू बने रहने की नहीं है। स्वयंभू बने रहने पर पाकिस्तान की तरह सत्ताधीश उखाड़ फेंके जाते हैं जबकि लोकतंत्र में बार-बार चुने जाने से सत्ता सुरक्षित बनी रहती है। देवराज को युद्ध लड़ने पड़ते थे न, राक्षस मारते सो अलग। जान बचाने के लिए कभी ब्रम्हा, कभी विष्णु ,कभी महेश, कभी दुर्गा की शरण लेनी पड़ती थी। लोकतंत्र में लड़ती सेना है, यश सत्तासीन का बढ़ता है। सफलता अपनी, असफलता औरों की।

लेकिन

लेकिन वेकिन कुछ नहीं, अपन मतदाता पत्र बनवा लो और कमल की जयजयकार करो अन्यथा देश में घुसपैठ करने के आरोप में धर लिए जाओगे। नारद जी ने भक्त की बात मानने में ही भलाई समझी। देवेंद्र को कई युद्धों में असुरों से लड़ते देखे था, पराजय से बचने में मदद भी की थी किन्तु नरेंद्र की इस अद्भुत युद्धकला को नहीं समझ प् रहे थे मदद कैसे करें? भक्त ने उनकी दुविधा समझी और ले गया एक मतदान केंद्र में। नारद जी की एक अंगुली में काली स्याही लगा दी गयी और उन्होंने बताये अनुसार एक यंत्र की एक कुंजी दबा दी। जब तक कुछ समझ पाते बेचारे बाहर निकल दिए गए। भक्त ने कहा ली जिए आपने अब तक देवेंद्र को सहायता की थी, अब नरेंद्र की भी सहायता कर दी। बहुत धन्यवाद, मैं बाकी मतदाताओं की खबर लेता हूँ।

नारद के रोक पाने के पहले ही भक्त हो गया नौ दो ग्यारह और नारद जी एंटीना की तरह खड़ी चोटी को सहलाते हुए कोशिश करने पर भी नहीं समझ पा रहे हैं लोकतंत्री युद्ध के दाँव-पेंच और विजयी होने का रहस्य।
***
संवस
२३.४.२०१०


गीत

गीत
*
देहरी बैठे दीप लिए दो
तन-मन अकुलाए.
संदेहों की बिजली चमकी,
नैना भर आए.
*
मस्तक तिलक लगाकर भेजा, सीमा पर तुमको.
गए न जाकर भी, साँसों में बसे हुए तुम तो.
प्यासों का क्या, सिसक-सिसककर चुप रह, रो लेंगी.
आसों ने हठ ठाना देहरी-द्वार न छोड़ेंगी.
दीपशिखा स्थिर आलापों सी,
मुखड़ा चमकाए.
मुखड़ा बिना अन्तरा कैसे
कौन गुनगुनाए?
*
मौन व्रती हैं पायल-चूड़ी, ऋषि श्रृंगारी सी.
चित्त वृत्तियाँ आहुति देती, हो अग्यारी सी.
रमा हुआ मन उसी एक में जिस बिन सार नहीं.
दुर्वासा ले आ, शकुंतला का झट प्यार यहीं.
माथे की बिंदी रवि सी
नथ शशि पर बलि जाए.
*
नीरव में आहट की चाहत, मौन अधर पाले.
गजरा ले आ जा निर्मोही, कजरा यश गा ले.
अधर अधर पर धर, न अधर में आशाएँ झूलें.
प्रणय पखेरू भर उड़ान, झट नील गगन छू लें.
ओ मनबसिया! वीर सिपहिया!!
याद बहुत आए.
घर-सरहद पर वामा
यामा कुलदीपक लाए.
*

षट्पदी बुक डे

एक षट्पदी 
*
'बुक डे' 
राह रोक कर हैं खड़े, 'बुक' ले पुलिस जवान 
वाहन रोकें 'बुक' करें, छोड़ें ले चालान 
छोड़ें ले चालान, कहें 'बुक' पूरी भरना
छूट न पाए एक, न नरमी तनिक बरतना
कारण पूछा- कहें, आज 'बुक डे' है भैया
अगर हो सके रोज, नचें कर ता-ता थैया
***

सखी / गंग छंद

ॐ 
छंद बहर का मूल है: १० 
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SSI SS / SISS SISS
सूत्र: रतगग।
आठ वार्णिक अनुष्टुप जातीय छंद।
चौदह मात्रिक मानव जातीय सखी छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़ाइलातुं ।
*
आप बोलें या न बोलें
सत्य खोलें या न खोलें
*
फैसला है आपका ही
प्यार के हो लें, न हो लें
*
कीजिए भी काम थोड़ा
नौकरी पा के, न डोलें
*
दूर हो विद्वेष सारा
स्नेह थोड़ा आप घोलें
*
तोड़ दें बंदूक-फेंकें
नैं आँसू से भिगो लें
*
बंद हो रस्मे-हलाला
औरतें भी सांस ले लें
*
काट डाले वृक्ष लाखों
हाथ पौधा एक ले लें
***
२३.४.२०१७
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छंद बहर का मूल है: ११
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SS
सूत्र: रगग।
पाँच वार्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय छंद।
नौ मात्रिक आंक जातीय गंग छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़े ।
*
भावनाएँ हैं
कामनाएँ हैं
*
आदमी है तो
वासनाएँ हैं
*
हों हरे वीरां
योजनाएँ हैं
*
त्याग की बेला
दाएँ-बाएँ हैं
*
आप ही पालीं
आपदाएँ हैं
*
आदमी जिंदा
वज्ह माएँ हैं
*
औरतें ही तो
वंदिताएँ हैं
***
२३.४.२०१७
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नवगीत बाँस

नवगीत 
बाँस 
संजीव

अलस्सुबह बाँस बना 
ताज़ा अखबार.
.
फाँसी लगा किसान ने
खबर बनाई खूब.
पत्रकार-नेता गये
चर्चाओं में डूब.
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज.
ले किसान से सेठ को
दे जमीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय.
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय.
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार.
'ससुरों की ठठरी बँधे'
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
**
२३-४-२०१५

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव 
.
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार 
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार 
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
२३-४-२०१५

कविता

कविता:
अपनी बात:
संजीव 
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है 
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ हमको तो मुस्काना है
*
२३-४-२०१५