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सोमवार, 31 दिसंबर 2018

नया साल

एक रचना 
*
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो 
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
वही रफ़्तार बेढंगी
जो पहले थी, सो अब भी है
दिशा बदले न गति बदले
निकट हो लक्ष्य फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हरेक चेहरा है दोरंगी
न मेहनत है, न निष्ठा है
कहें कुछ और कर कुछ और
अमिय हो फिर गरल कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हुई सद्भाव की तंगी
छुरी बाजू में मुख में राम
धुआँ-हल्ला दसों दिश है
कहीं हो अमन फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
***
गीत :
*
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
सपनीली आँखों में आँसू
छेड़ें-रेपें हरदिन धाँसू
बहू कोशिशी झुलस-जल रही
बाधा दियासलाई सासू
कैरोसीन ननदिया की जय
माँग-दाँव पर
लगी हुई सह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
मालिक फटेहाल बेचारा
नौकर का है वारा-न्यारा
जीना ही दुश्वार हुआ है
विधि ने अपनों को ही मारा
नैतिकता का पल-पल है क्षय
भाँग चाशनी
पगी हुई कह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
रीत पुरातन ज्यों की त्यों है
मत पूछो कैसी है?, क्यों है?
कहीं बोलता है सन्नाटा
कहीं चुप्प बैठी चिल्ल-पों है
अँधियारे की दीवाली में
ज्योति-कालिमा
सगी हुई ढह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
हाइकु 
हो नया हर्ष 
हर नए दिन में 
नया उत्कर्ष 

प्राची के गाल 
रवि करता लाल
है नया साल
.
हाइकु लिखो
हर दिवस् एक
इरादा नेक 
.
जनगीत : 
हाँ बेटा 
संजीव 

चंबल में 
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा! 
================
एक रचना 
*
देश हमारा है 
सरकार हमारी है, 
क्यों न निभायी 
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
११-८-२०१६
===========
एक रचना
*
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
नोटा अस्त्र
थाम ले कर में-
रण-हित सज जा।।
*
देश दिनों से खड़ा हुआ है,
जो जैसा है अड़ा हुआ है,
किसे फ़िक्र जनहित का पेड़ा-
बसा रहा है, सड़ा हुआ है।
चचा-भतीजा ताल ठोंकते,
पिता-पुत्र ज्यों श्वान भौंकते,
कोई काट न ले तुझको भी-
इसीलिए
कहता हूँ-
रुक जा।
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
नोटा अस्त्र
थाम ले कर में-
रण-हित सज जा।।
*
वादे जुमले बन जाते हैं,
घपले सारे धुल जाते हैं,
लोकतंत्र के मूल्य स्वार्थ की-
दीमक खाती, घुन जाते हैं।
मौनी बाबा बोल रहे हैं
पप्पू जहँ-तहँ डोल रहे हैं
गाल बजाते जब-तब लालू
मत टकराना
बच जा झुक जा।
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
नोटा अस्त्र
थाम ले कर में-
रण-हित सज जा।।
*
एक आदमी एक न पाता,
दूजा लाख-करोड़ जुटाता,
मार रही मरते को दुनिया-
पिटता रोये, नहीं सुहाता।
हुई देर, अंधेर यहाँ है,
रही अनसुनी टेर यहाँ है,
शुद्ध दलाली, न्याय कहाँ है?
जलने से
पहले मत
बुझ जा।
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
नोटा अस्त्र
थाम ले कर में-
रण-हित सज जा।।
*****
एक रचना -
कौन?
*
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
खुशियों की खेती अनसिंचित,
सिंचित खरपतवार व्यथाएँ।
*
खेत
कारखाने-कॉलोनी
बनकर, बिना मौत मरते हैं।
असुर हुए इंसान,
न दाना-पानी खा,
दौलत चरते हैं।
वन भेजी जाती सीताएँ,
मन्दिर पुजतीं शूर्पणखाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
गौरैयों की देखभाल कर
मिली बाज को जिम्मेदारी।
अय्यारी का पाठ रटाती,
पैठ मदरसों में बटमारी।
एसिड की शिकार राधाएँ
कंस जाँच आयोग बिठाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि करें न शिक़वा,
लछमी पूजती है गणेश सँग।
'ऑनर किलिंग' कर रहे दद्दू
मूँछ ऐंठकर, जमा रहे रंग।
ठगते मोह-मान-मायाएँ
घर-घर कुरुक्षेत्र-गाथाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
हर कर्तव्य तुझे करना है,
हर अधिकार मुझे वरना है।
माँग भरो, हर माँग पूर्ण कर
वरना रपट मुझे करना है।
देह मात्र होतीं वनिताएँ
घर को होटल मात्र बनाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
दोष न देखें दल के अंदर,
और न गुण दिखते दल-बाहर।
तोड़ रहे कानून बना, सांसद,
संसद मंडी-जलसा घर।
बस में हो तो साँसों पर भी
सरकारें अब टैक्स लगाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*****
९-८-२०१६
गोरखपुर दंत चिकित्सालय
जबलपुर
*
एक रचना
कौन हैं हम?
**
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
स्नेह सलिला नर्मदा हैं।
सत्य-रक्षक वर्मदा हैं।
कोई माने या न माने
श्वास सारी धर्मदा हैं।
जान या
मत जान लेकिन
मित्र है साहस-प्रभंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
सभ्यता के सिंधु हैं हम,
भले लघुतम बिंदु हैं हम।
गरल धारे कण्ठ में पर
शीश अमृत-बिंदु हैं हम।
अमरकंटक-
सतपुड़ा हम,
विंध्य हैं सह हर विखण्डन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
ब्रम्हपुत्रा की लहर हैं,
गंग-यमुना की भँवर हैं।
गोमती-सरयू-सरस्वति
अवध-ब्रज की रज-डगर हैं।
बेतवा, शिव-
नाथ, ताप्ती,
हमीं क्षिप्रा, शिव निरंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
तुंगभद्रा पतित पावन,
कृष्णा-कावेरी सुहावन।
सुनो साबरमती हैं हम,
सोन-कोसी-हिरन भावन।
व्यास-झेलम,
लूनी-सतलज
हमीं हैं गण्डक सुपावन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
मेघ बरसे भरी गागर,
करी खाली पहुँच सागर।
शारदा, चितवन किनारे-
नागरी लिखते सुनागर।
हमीं पेनर
चारु चंबल
घाटियाँ हम, शिखर- गिरिवन
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*****
१०-९-२०१६
नवगीत
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
चलो बैठ पल दो पल कर लें 
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*****
२४-९-२०१६
एक रचना
हर दिन
*
सिया हरण को देख रहे हैं
आँखें फाड़ लोग अनगिन। 
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
'गिरि गोपाद्रि' न नाम रहा क्यों?
'सुलेमान टापू' क्यों है?
'हरि पर्वत' का 'कोह महाजन'
नाम किया किसने क्यों है?
नाम 'अनंतनाग' को क्यों हम
अब 'इस्लामाबाद' कहें?
घर में घुस परदेसी मारें
हम ज़िल्लत सह आप दहें?
बजा रहे हैं बीन सपेरे
राजनीति नाचे तिक-धिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
हम सबका 'श्रीनगर' दुलारा
क्यों हो शहरे-ख़ास कहो?
'मुख्य चौक' को 'चौक मदीना'
कहने से सब दूर रहो
नाम 'उमा नगरी' है जिसका
क्यों हो 'शेखपुरा' वह अब?
'नदी किशन गंगा' को 'दरिया-
नीलम' कह मत करो जिबह
प्यार न जिनको है भारत से
पकड़ो-मारो अब गईं-गईं
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
पण्डित वापिस जाएँ बसाए
स्वर्ग बनें फिर से कश्मीर
दहशतगर्द नहीं बच पाएं
कायम कर दो नई नज़ीर
सेना को आज़ादी दे दो
आज नया इतिहास बने
बंगला देश जाए दोहराया
रावलपिंडी समर ठने
हँस बलूच-पख्तून संग
सिंधी आज़ाद रहें हर दिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*२४-९-२०१६*
(कश्मीर में हिन्दू नामों को बदलकर योजनाबद्ध तरीके से मुस्लिम नाम रखे जानेके विरोध में)
नवगीत
समय वृक्ष है
*
समय वृक्ष है
सूखा पत्ता एक झरेगा
आँखें मूँदे.
नव पल्लव तब
एक उगेगा
आँखे खोले.
*
कहो अशुभ या
शुभ बोलो
कुछ फर्क नहीं है.
चिरजीवी होने का
कोई अर्क नहीं है.
कितने हुए?
होएँगे कितने?
कौन बताये?
किसका कितना वजन?
तराजू कोई न तोले.
ठोस दिख रहे
लेकिन हैं
भीतर से पोले.
नव पल्लव
किस तरह उगेगा
आँखें खोले?
*
वाम-अवाम
न एक साथ
मिल रह सकते हैं.
काम-अकाम
न एक साथ
खिल-दह सकते हैं.
पूरब-पश्चिम
उत्तर-दक्षिण
ऊपर-नीचे
कर परिक्रमा
नव संकल्प
अमिय नित घोले.
श्रेष्ठ वही जो
श्रम-सीकर की
जय-जय बोले.
बिन प्रयास
किस तरह कर्मफल
आँखें खोले?
*
जाग,
छेड़ दे, राग नया
चुप से क्या हासिल?
आग
न बुझने देना
तू मत होना गाफिल.
आते-जाते रहें
साल-दर-साल
नए कुछ.
कौन जानता
समय-चक्र
दे हिम या शोले ?
नोट बंद हों या जारी
नव आशा बो ले.
उसे दिखेगी उषा
जाग जो
आँखें खोले
***
३१-१२-२०१६
एक रचना
साल निराला हो
*
बहुत हो चुके
होएंगे भी 
पर यह साल निराला हो
*
सुख पीड़ा के आँसू पोंछे
हर्ष दर्द से गले मिले
जिनसे शिकवे रहे उम्र भर
उन्हें न तिल भर रहें गिले
मुखर हो सकें वही वैखरी
जिसके लब थे रहे सिले
जिनके पद तल
सत्ता उनके
उर में कंठी माला हो
बहुत हो चुके
होएंगे भी
पर यह साल निराला हो
*
पग-ठोकर में रहे मित्रता
काँटा साझा साखी हो
शाख-गगन के बीच सेतु बन
भोर-साँझ नव पाखी हो
शासक और विपक्षी के कर
संसद में अब राखी हो
अबला सबला बने
अनय जब मिले
आँख में ज्वाला हो
बहुत हो चुके
होएंगे भी
पर यह साल निराला हो
*
मानक तोड़ पुराने नव रच
जो कह चुके, न वह कह कवि बच
बाँध न रचना को नियमों में
दिल की, मन की बातें कह सच
नचा समय को हँस छिन्गुली पर
रे सत्ता! जनमत सुन कर नच
समता-सुरा
पिलानेवाली
बाला हो, मधुशाला हो
बहुत हो चुके
होएंगे भी
पर यह साल निराला हो
*
३१-१२-२०१५
एक रचना
काम न काज
*
काम न काज
जुबानी खर्चा
नये वर्ष का कोरा पर्चा
*
कल सा सूरज उगे आज भी
झूठा सच को ठगे आज भी
सरहद पर गोलीबारी है
वक्ष रक्त से सने आज भी
किन्तु सियासत कहे करेंगे
अब हम प्रेम
भाव की अर्चा
*
अपना खून खून है भैया
औरों का पानी रे दैया!
दल दलबंदी के मारे हैं
डूबे लोकतंत्र की नैया
लिये ले रहा जान प्रशासन
संसद करती
केवल चर्चा
*
मत रोओ, तस्वीर बदल दो
पैर तले दुःख-पीर मसल दो
कृत्रिम संवेदन नेता के
लौटा, थोड़ी सीख असल दो
सरकारों पर निर्भर मत हो
पायें आम से
खास अनर्चा
**३१.१२.२०१५**
गीत
सूरज उगायें
*
चलो! हम सूरज उगायें...
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....
विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलायें...
आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सुनेंगे।
नाद अनहद गूँजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...
*******२४-१२-२०१४ ********
नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
.
२३-१२-२०१४
नवगीत:
नए साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?

सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पायेगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटायी
तो क्या
घटनाक्रम होगा?
.
काशी, मथुरा, अवध
विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी
तज विद्रोह
हटेंगे क्या?
पूर्वांचल में
अमन-चैन का
क्या होगा?
.
धर्म भाव
कर्तव्य कभी
बन पायेगा?
मानवता की
मानव जय
गुंजायेगा?
मंगल छू
भू के मंगल
का क्या होगा?
*
नवगीतः
- संजीव
.
काल चक्र का 
महाकाल के भक्त
करो अगवानी
.
तपूँ , जड़ाऊँ या बरसूँ
नाखुश होंगे बहुतेरे
शोर-शांति
चाहो ना चाहो
तुम्हें रहेंगे घेरे
तुम लड़कर जय वरना
चाहे सूखा हो या पानी
बहा पसीना
मेहनत कर
करना मेरी अगवानी
.
चलो, गिरो उठ बढ़ो
शूल कितने ही आँख तरेरे
बाधा दें या
रहें सहायक
दिन-निशि, साँझ-सवेरे
कदम-हाथ गर रहे साथ
कर लेंगे धरती धानी
कलम उठाकर
करें शब्द के भक्त
मेरी अगवानी
.
शिकवे गिले शिकायत
कर हल होती नहीं समस्या
सतत साधना
से ही होती
हरदम पूर्ण तपस्या
स्वार्थ तजो, सर्वार्थ साधने
बोलो मीठी बानी
फिर जेपी-अन्ना
बनकर तुम करो
मेरी अगवानी
.
३१.१२.२०१४
नव वर्ष पर नवगीत
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
*********************
३१.१२.२०१७
नये साल का गीत
संजीव 'सलिल'
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाये फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रातभर जाग किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.
प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.
तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...
*
स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रहे
हरेक हाथ में मालपुआ...
*****
३१-१२-२०१०
नवगीत:
संजीव
.
बहुत-बहुत आभार तुम्हारा
ओ जाते मेहमान!
.
पल-पल तुमने
साथ निभाया
कभी रुलाया
कभी हँसाया
फिसल गिरे, आ तुरत उठाया
पीठ ठोंक
उत्साह बढ़ाया
दूर किया हँस कष्ट हमारा
मुरझाते मेहमान
.
भूल न तुमको
पायेंगे हम
गीत तुम्हारे
गायेंगे हम
सच्ची बोलो कभी तुम्हें भी
याद तनिक क्या
आयेंगे हम?
याद मधुर बन, बनो सहारा
मुस्काते मेहमान
.
तुम समिधा हो
काल यज्ञ की
तुम ही थाती
हो भविष्य की
तुमसे लेकर सतत प्रेरणा
मन:स्थिति गढ़
हम हविष्य की
'सलिल' करेंगे नहीं किनारा
मनभाते मेहमान
.
३१-१२-२०१४


शनिवार, 29 दिसंबर 2018

त्रिपदी, दोहा, रोला, कुंडलिया

कुछ त्रिपदियाँ
*
नोटा मन भाया है,
क्यों कमल चुनें बोलो?
अब नाथ सुहाया है।
*
तुम मंदिर का पत्ता
हो बार-बार चलते
प्रभु को भी तुम छलते।
*
छप्पन इंची छाती
बिन आमंत्रण जाकर
बेइज्जत हो आती।
*
राफेल खरीदोगे,
बिन कीमत बतलाये
करनी भी भोगोगे।
*
पंद्रह लखिया किस्सा
भूले हो कह जुमला
अब तो न चले घिस्सा।
*
वादे मत बिसराना,
तुम हारो या जीतो-
ठेंगा मत दिखलाना।
*
जनता भी सयानी है,
नेता यदि चतुर तो
यान उनकी नानी है।
*
कर सेवा का वादा,
सत्ता-खातिर लड़ते-
झूठा है हर दावा।
*
पप्पू का था ठप्पा,
कोशिश रंग लाई है-
निकला सबका बप्पा।
*
औंधे मुँह गर्व गिरा,
जुमला कह वादों को
नज़रों से आज गिरा।
*
रचना न चुराएँ हम,
लिखकर मौलिक रचना
निज नाम कमाएँ हम।
*
गागर में सागर सी,
क्षणिका लघु, अर्थ बड़े-
ब्रज के नटनागर सी।
*
मन ने मन से मिलकर
उन्मन हो कुछ न कहा-
धीरज का बाँध ढहा।
*
है किसका कौन सगा,
खुद से खुद ने पूछा?
उत्तर जो नेह-पगा।
*
तन से तन जब रूठा,
मन, मन ही मन रोया-
सुनकर झूठी-झूठा।
*
तन्मय होकर तन ने,
मन-मृण्मय जान कहा-
क्षण भंगुर है दुनिया।
*
कार्यशाला:
दोहा - कुण्डलिया
*
नवल वर्ष इतना करो, हम सब पर उपकार।
रोटी कपड़ा गेह पर, हो सबका अधिकार।।  -सरस्वती कुमारी, ईटानगर

हो सबका अधिकार, कि वः कर्तव्य कर सके।
हिंदी से कर प्यार सत्य का पंथ वर सके।।
चमड़ी देखो नहीं, गुणों से प्यार सब करो।
नवल वर्ष उपकार, हम सब पर इतना करो।। -संजीव, जबलपुर
***

वातायन उमरिया २५-१२-२०१८

साहित्य समाचार:
वातायन उमरिया का १५ वां वार्षिकोत्सव संपन्न 



उमरिया, २५.१२.२०१८। उमरिया जिले की साहित्यिक क्षेत्र की अग्रणी साहित्यिक संस्था वातायन के पंद्रहवे स्थापना दिवस के अवसर पर विभिन्न आयोजन किए गए। कार्यक्रम में जबलपुर, कटनी, शहडोल, अनूपपुर जिलों से श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकारों ने सहभागिता का आयोजन की गरिमा-वृद्धि की।

स्वागत सत्र:

कार्यक्रम के प्रथम सत्र में मुख्य अतिथि डॉ. नीलमणि दुबे (विभागाध्यक्ष हिंदी, शासकीय महाविद्यालय शहडोल) रहीं। अध्यक्ष की आसंदी को जबलपुर के मनीषी छंदाचार्य संजीव वर्मा "सलिल" (सेवानिवृत कार्यपालन अभियंता) ने सुशोभित किया। अतिथि वक्ता डॉ. राकेश सोनी, प्राध्यापक दर्शनशास्त्र, अमरकंटक विश्वविद्यालय एवं प्रसिद्ध नवगीतकार राजा अवस्थी, कटनी ने मंच की गरिमा वृद्धि की। अध्यक्ष व् अतिथियों द्वारा माँ सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन, स्तुति गायन एवं संस्था के जनक स्व. रामनरेश मिश्र के चित्र पर माल्यार्पण के साथ कार्यक्रम का का श्री गणेश हुआ। पुष्पहारों से अतिथि स्वागत पश्चात् संस्था सचिव अनिल कुमार मिश्र द्वारा संस्था की गतिविधियों, उद्देश्य आदि की जानकारी दी गई।

सम्मान सत्र:

श्रीमती विनीता श्रीवास्तव शिक्षिका-कवयित्री जबलपुर को सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण अवदान हेतु शिक्षक राजकुमार महोबिया द्वारा पिता छोटेलाल महोबिया की स्मृति में प्रदत्त "वातायन वागीश सम्मान" प्रदान किया गया। स्व. विक्रम सिंह की स्मृति में स्थापित "वातायन सौरभ सम्मान" अमरकंटक के डॉ. राकेश सोनी को रामलखन सिंह चौहान एवं उनके अग्रज ने प्रदान किया। स्व. महेश सिंह की स्मृति में उनके अनुज करन सिंह, शिक्षक द्वारा स्थापित "वातायन पीयूष सम्मान" से बल्हौड़ जिला उमरिया के विद्वान् रामनिहोर तिवारी को "कबीर" पर महत्वपूर्ण कार्य हेतु सम्मानित किया गया। वातायन के संस्थापक पं. रामनरेश मिश्र की स्मृति में वर्ष २००६ से स्थापित "वातायन सुमन सम्मान" शहडोल के वरिष्ठ गीतकार अवधप्रताप शरण सेवा निवृत्त प्राचार्य को साहित्यिक अवदान के लिए अनिल कुमार मिश्र के द्वारा प्रदान किया गया।

कृति विमोचन-लोकार्पण सत्र:

अध्यक्ष महोदय व अतिथि विद्वानों द्वारा संस्थाध्यक्ष श्री अनिल मिश्र द्वारा संपादित काव्य संकलन 'इंद्रधनुष, रामचंद्र प्रसाद कर्ण बीरसिंहपुर पाली रचित काव्य संकलन 'शब्दांजलि', कैलाश 'शिवेन्द्र' ब्यौहारी द्वारा लिखित काव्य संग्रह 'धरती के आँसू' एवं कहानी संग्रह 'सफ़र' का विमोचन किया गया। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में शांतिराज पुस्तक मालांतर्गत प्रकाशित दोहा शतक मंजूषा के ३ भागों 'दोहा-दोहा नर्मदा', 'दोहा सलिला निर्मला' तथा 'दोहा दीप्त दिनेश' तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सैलिल ले नवगीत संग्रह 'सड़क पर' का लोकार्पण किया गया।

परिचर्चा सत्र:

डॉ. राकेश सोनी ने 'स्व. रामनरेश मिश्र और उनका कविता संसार' विषय पर बोलते हुए कहा कि मिश्र जी का काव्य संसार वृहद स्वरूप ग्रहण किये हुए है इनके काव्य कौशल का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सहज सरल शब्दों में जन की बात को जन जन तक पहुँचाने में सफल दिखायी देते हैं।

नवगीतकार राजा अवस्थी ने 'कविता के बदलते स्वरूप' पर कहा की कविता की यही विशेषता है कि वह किसी कालखंड में बंधकर नहीं रहती | यह समय के अनुसार अपना रूप बदलती रहती है।जायसी, तुलसी, केसव, कबीर, रहीम, मीरा, सूर से चलती हुई कविता आज छंदमुक्त और नवगीत तक आकर और अधिक मुखर हुई है।

कार्यक्रम की मुख्य अतिथि डॉ. नीलमणि दुबे ने मानस और श्रुतिओं के साथ कविता के रस लालित्य को लोककल्याणकारिता का मुख्य कारक निरूपित किया।

अध्यक्षीय उद्बोधन में आचार्य सलिल वर्मा "सलिल" ने सम्मानित जनों के नामों को समाहित करते हुए उनके सम्मान में दोहा समर्पित किया- 'राम निहोरे विनीता, अवध-शरण राकेश। / पूर्ण इंदु सम नीलमणि, शाट वंदन सलिलेश।।' आशुकवित्व प्रतिभा का परिचय देते हुए सलिल जी ने विमोचित-लोकार्पित कृतियों को दो दोहों से सम्मानित किया- 'धरती के आँसू' लिए, 'इंद्रधनुष' के रंग। / 'सफर' 'सड़क पर' कर रहे, शब्दांजलि के संग।।' तथा 'दोहा-दोहा नर्मदा, दोहा दीप्त दिनेश। / दोहा सलिला निर्मला, आशा-किरण प्रदेश।।' विद्वान वक्ता ने 'काव्य के आवश्यक तत्व और सौंदर्य-बोध' पर प्रकाश डालते हुए जन सामान्य के मन में सत्य-शिव-सुन्दर के प्रति आस्था-दीप जलाये रखना ऐसे आयोजनों का लक्ष्य व सफलता माना। उन्होंने नर्मदांचल के साहित्यकारों द्वारा की जा रही साहित्य साधना को जन-जन तक पहुँचाने की आवश्यकता पर जोर दिया। आभार प्रदर्शन संस्था अध्यक्ष श्रीश चन्द्र भट्ट एवं सञ्चालन संतोष द्विवेदी द्वारा किया गया।

काव्य पाठ सत्र:

कार्यक्रम के अंतिम सत्र में जबलपुर से पधारे सुकवि बसंत शर्मा की अध्यक्षता, नवगीतकार विजय बागरी कटनी के मुख्यातिथ्य एवं कैलाश शिवेन्द्र ब्यौहारी के विशेष आतिथ्य में आमंत्रित कवियों संजीव वर्मा 'सलिल', राजा अवस्थी, विनीता श्रीवास्तव, अशोक अवधिया, नागेन्द्र नाथ तिवारी, रामचंद्र प्रसाद कर्ण, बसंत शर्मा, विजय बागरी, कैलाश शिवेंद्र और उमरिया प्रतिनिधि के रूप में वातायन के संरक्षक एम. ए. सिद्दीकी ने रचना पाठ किया। कार्यक्रम में अभय पांडे, गेंदन सिंह, गोपाल गुमसुम, मकसूद खान नियाजी, मृगेंद्र सिंह, पी के सिंह, बसर जी, चिम्मन लाल जी, शिवानन्द पटेल, सूर्य प्रकाश गौतम, धीरज सोनी, ओंकारनाथ अग्रवाल, श्रवण चतुर्वेदी, मकरंद प्रसाद मिश्र, शेख धीरज, नागेन्द्र मिश्र, जावेद खान, सुरेश अवधिया, पारस नाथ शर्मा, राम विशाल गुप्ता, पुष्प राज सिंह, प्रदीप रजक, शेख उस्मान, याकूब खान, शंकर प्रसाद बर्मन, सत्येन्द्र गौतन, महेश अजनबी, भूपेन्द्र त्रिपाठी आदि प्रबुद्ध नागरिकों की उपस्थिति विशेष उल्लेखनीय रही , कार्यक्रम का संचालन राजकुमार महोबिया एवं आभार प्रदर्शन शम्भू सोनी के द्वारा किया गया।

***

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

हास्य कविता

हास्य कविता:

कान बनाम नाक

संजीव 'सलिल'
*
शिक्षक खींचे छात्र के साधिकार क्यों कान?
कहा नाक ने- 'मानते क्यों अछूत श्रीमान?
क्यों अछूत श्रीमान, न क्यों कर मुझे खींचते?
क्यों कानों को लाड़-क्रोध से आप मींचते??

शिक्षक बोला- "छात्र की अगर खींच दूँ नाक,
कौन करेगा साफ़ यदि बह आयेगी नाक?
बह आयेगी नाक, नाक पर मक्खी बैठे.
ऊँची नाक हुई नीची, तो हुए फजीते..

नाक एक है कान दो, बहुमत का है राज.
जिसकी संख्या अधिक हो, सजे शीश पर ताज..
सजे शीश पर ताज, सभी संबंध भुनाते.
गधा बाप को और गधे को बाप बताते..

नाक कटे तो प्रतिष्ठा का हो जाता अंत.
कान खिंचे तो सहिष्णुता बढ़ती, बनता संत..
संत बने तो गुरु कहें सारे गुरुघंटाल.
नाक खिंचे तो बंद हो श्वास हाल-बेहाल..

कान ज्ञान को बाहर से भीतर पहुँचाते.
नाक दबा अन्दर की दम बाहर ले आते..
टाँग अड़ा या फँसा मत, खींचेगे सब टाँग.
टाँग खिंची, औंधे गिरा, बिगड़ेगा सब स्वांग..

खींच-खिंचाकर कान, हो गिन्नी बुक में नाम.
'सलिल' सीख कर यह कला, खोले तुरत दुकान..
खोले तुरत दुकान, लपक पेटेंट कराये.
एजेंसी दे-देकर भारी रकम कमाये..

हम भी खींचें जाएँ, दो हमको भी अधिकार.
केश निकालेंगे जुलुस, माँग न हो स्वीकार..
माँग न हो स्वीकार, न तब तक माँग भराएँ.
छोरा-छोरी तंग, किस तरह ब्याह रचाएँ?

साली जीजू को पकड़, खींचेगी जब बाल.
सहनशीलता सिद्ध हो, तब पायें वरमाल..
तब पायें वरमाल, न झोंटा पकड़ युद्ध हो.
बने स्नेह सम्बन्ध, संगिनी शुभ-प्रबुद्ध हो..

विश्वयुद्ध हो गृह में, बाहर खबर न जाए.
कान-केश को खींच, पराक्रम सुमुखि दिखाए..
आँख, गाल ना अधर खिंचाई सुख पा सकते.
कान खिंचाते जो लालू सम हरदम हँसते..

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बुधवार, 26 दिसंबर 2018

क्षणिका

एक क्षणिका
*
पहले दिखी 
फिर मिली-जुली
हँस कली खिली
झट साँझ ढली
कर बंद गली
'मी टू' बोली अगली।
***


हाइकु, ताँका, रेंगा, सदोका, चोका, हाइगा

विशेष लेख:
हाइकु तथा कुछ अन्य जापानी काव्य रूप 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
हाइकु सामान्यतः ३ पंक्तियों की वह लघु काव्य रचना है जिसमें सामान्यतः क्रमश: ५-७-५ ध्वनियों का प्रयोग कर एक अनुभूति या छवि की अभिव्यक्ति की जाती है। हिंदी को त्रिपदिक छंदों की विरासत संस्कृत से मिली है। वर्त्तमान में जापानी का हाइकु हिंदी साहित्य में हिंदी के संस्कार और भारतीयता का कलेवर लेकर लोकप्रिय हो रहा है। एक शताब्दी पूर्व सन् १९०० ई0 के लगभग जापानी साहित्यकार मासाओका शिकि (१८६२-१९०२) ने विशिष्ट जापानी छंद “होक्कु” को एक नया नाम हाइकु (Haiku) दिया जिसने लोकप्रियता के बड़े मानकों को प्राप्त किया। आज जापान में लाखों लोग इस छन्द में रचना करते हैं । भारत की अनेक भाषाओं के साथ -साथ हाइकु विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में लिखा और पढ़ा जा रहा है । भारतीय साहित्य की उर्वरा भूमि को यह कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जापानी तोहफा है। मात्सुओ बाशो के हाइकु गुरुदेव का माध्यम से १९१९ में बांग्ला और अज्ञेय के माध्यम से हिंदी साहित्य में (हाइकु की तरह लघु कविताएँ, अरी ओ करुणा प्रभामय, १९६०) पहुँचे। प्रो. डॉ. सत्यभूषण वर्मा ने हाइकु को हिंदी में फैलाया। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने हाइकु का एक वार्णिक छंद के रूप में प्रयोग कर हाइकु मुक्तक, हाइकु गीत, हाइकु मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल), हाइकु दोहा, हाइकु रोला, हाइकु सोरठा जैसे अनूठे प्रयोग किये हैं। 

हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती हैं। हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं। मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी।  पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता। 
हाइकु एक असमाप्त काव्य: चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है। हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है। 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है। हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है। 
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं।

हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
पारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं। अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं। समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते हैं जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं। इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर, १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है। ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढ़ाए जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ 
Abandoned परित्यक्त 
Sparrow's nest गौरैया-नीड़

२. वैचारिक सन्निकटता:
हाइकु में दो विचार सन्निकट हों: जापानी शब्द 'किरु' अर्थात 'काटना' का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी एक ध्वनि पदावली (वाक्यांश) के अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति डैश '-' से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:
how cool the feeling of a wall against the feet — siesta
कितनी शीतल दीवार की अनुभूति पैर के विरुद्ध
आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। २ सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-
fresh scent- ताज़ा सुगंध 
the lebrador's muzzle लेब्राडोर की थूथन 
deepar into snow गहरे बर्फ में.

सारतः दोनों स्थितियों में, विचार- हाइकू का दो भागों में विषयांतर कर अन्तर्निहित तुलना द्वारा रचना के आशय को ऊँचाई देता है। इस द्विभागी संरचना की प्रभावी निर्मिति से दो भागों के अंतर्संबंध तथा उनके मध्य की दूरी का परिहार हाइकु लेखन का कठिनतम भाग है।
३. विषय चयन और मार्मिकता:
पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जब आप कुछ ऐसा देखें या अनुभव करे जो आपको अन्यों को बताने के लिए प्रेरित करे तो उसे 'ध्यान से देखें', यह अनुभूति हाइकु हेतु उपयुक्त हो सकती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं आधुनिक हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं।
४. मौसमी संदर्भ:
जापान में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) हाइकु का अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलने वाले फूल, मिलनेवाले फल, मनाये जाने वाले पर्व आदि) हो सकते हैं. फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! भोर की दमक 
the well bucket-entangled, कूप - बाल्टी गठबंधन
I ask for water मैंने पानी माँगा

५. विषयांतर:
हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय के परिदृश्य को इस प्रकार बदलें कि रचना में २ भाग हो सकें। जैसे लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ें। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं. रिचर्ड राइट का यह हाइकु देखें:
A broken signboard banging टूटा साइनबोर्ड तड़का
In the April wind. अप्रैल की हवाओं में
Whitecaps on the bay. खाड़ी में झागदार लहरें

६. संवेदी भाषा-सूक्ष्म विवरण:
हाइकु गहन निरीक्षणजनित सूक्ष्म विवरणों से निर्मित और संपन्न होता है। हाइकुकार किसी घटना को साक्षीभाव (तटस्थता) से देखता है और अपनी आत्मानुभूति शब्दों में ढालकर अन्यों तक पहुँचाता है। हाइकु का विषय चयन करने के पश्चात उन विवरणों का विचार करें जिन्हें आप हाइकु में देना चाहते हैं। मस्तिष्क को विषयवस्तु पर केंद्रित कर विशिष्टताओं से जुड़े प्रश्नों का अन्वेषण करें। जैसे: अपने विषय के सम्बन्ध क्या देखा? कौन से रंग, संरचना, अंतर्विरोध, गति, दिशा, प्रवाह, मात्रा, परिमाण, गंध आदि तथा अपनी अनुभूति को आप कैसे सही-सही अभिव्यक्त कर सकते हैं?
७. वर्णनात्मक नहीं दृश्यात्मक
हाइकु-लेखन वस्तुनिष्ठ अनुभव के पलों का अभिव्यक्तिकरण है, न कि उन घटनाओं का आत्मपरक या व्यक्तिपरक विश्लेषण या व्याख्या। हाइकू लेखन के माध्यम से पाठक/श्रोता को घटित का वास्तविक साक्षात कराना अभिप्रेत है न कि यह बताना कि घटना से आपके मन में क्या भावनाएं उत्पन्न हुईं। घटना की छवि से पाठक / श्रोता को उसकी अपनी भावनाएँ अनुभव करने दें। अतिसूक्ष्म, न्यूनोक्ति (घटित को कम कर कहना) छवि का प्रयोग करें। यथा: ग्रीष्म पर केंद्रित होने के स्थान पर सूर्य के झुकाव या वायु के भारीपन पर प्रकाश डालें। घिसे-पिटे शब्दों या पंक्तियों जैसे अँधेरी तूफानी रात आदि का उपयोग न कर पाठक / श्रोता को उसकी अपनी पर्यवेक्षण उपयोग करने दें। वर्ण्य छवि के माध्यम से मौलिक, अन्वेषणात्मक भाषा / शंब्दों की तलाश कर अपना आशय सम्प्रेषित करें। इसका आशय यह नहीं है कि शब्दकोष लेकर अप्रचलित शब्द खोजकर प्रयोग करें अपितु अपने जो देखा और जो आप दिखाना चाहते हैं उसे अपनी वास्तविक भाषा में स्वाभाविकता से व्यक्त करें।
८. प्रेरित हों:
महान हाइकुकारों की परंपरा प्रेरणा हेतु भ्रमण करना है। अपने चतुर्दिक पदयात्रा करें और परिवेश से समन्वय स्थापित करें ताकि परिवेश अपनी सीमा से बाहर आकर आपसे बात करता प्रतीत हो । आज करे सो अब: कागज़-कलम अपने साथ हमेशा रखें ताकि पंक्तियाँ जैसे ही उतरें, लिख सकें। आप कभी पूर्वानुमान नहीं कर सकते कि कब जलधारा में पाषाण का कोई दृश्य, सुरंग पथ पर फुदकता चूहा या सुदूर पहाड़ी पर बादलों की टोपी आपको हाइकू लिखने के लिये प्रेरित कर देगी। 
पढ़िए-बढ़िए: अन्य हाइकुकारों के हाइकू पढ़िए। हाइकु के रूप विधान की स्वाभाविकता, सरलता, सहजता तथा सौंदर्य ने विश्व की अनेक भाषाओँ में सहस्त्रोंको लिखने की प्रेरणा दी है।अन्यों के हाइकू पढ़ने से आपके अंदर छिपी प्रतिभा स्फुरित तथा गतिशील हो सकती है।

९. अभ्यास:
किसी भी अन्य कला की तरह ही हाइकू लेखन कला भी आते-आते ही आती है। सर्वकालिक महानतम हाइकुकार बाशो के अनुसार हर हाइकु को हजारों बार जीभ पर दोहराएं, हर हाइकू को कागज लिखें, लिखें, फिर-फिर लिखें जब तक कि उसका निहितार्थ स्पष्ट न हो जाए। स्मरण रहे कि आपको ५-७-५ सिलेबल के बंधन में कैद नहीं होना है। वास्तविक साहित्यिक हाइकु में 'किगो' द्विभागी सन्निकट संरचना और प्राथमिक तौर पर संवादी छवि होती ही है।
१०. संवाद:
हाइकू के गंभीर और सच्चे अध्येता हेतु विश्व की विविध भाषाओँ के हाइकुकारों के विविध मंचों, समूहों, संस्थाओं और पत्रिकाओं से जुड़ना आवश्यक है ताकि वे अधुनातन हाइकु शिल्प और शैली के विषय में अद्यतन जानकारी पा सकें। हाइकु शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है "किरेजि"। "किरेजि" का स्पष्ट अर्थ देना कठिन है, शाब्दिक अर्थ है "काटने (अलग करने) वाला अक्षर"। इसे हिंदी में ''वाचक शब्द'' कहा जा सकता है। "किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्त्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है। 
यथा-
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि] 
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा
***
सहायक पुस्तक: जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ ५५-५६ 
***

ताँका (短歌) (शाब्दिक अर्थ लघुगीत अथवा छोटी कविता) 
यह जापानी काव्य की कई सौ साल पुरानी काव्य विधा है। इस विधा को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान काफी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।[1]
इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों की होती है। एक कवि प्रथम ५+७+५=१७ भाग की रचना करता था तो दूसरा कवि दूसरे भाग ७+७ की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था। फिर पूर्ववर्ती ७+७ को आधार बनाकर अगली शृंखला में ५+७+५ यह क्रम चलता; फिर इसके आधार पर अगली शृंखला ७+७ की रचना होती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था।यह शृंखला १०० तक भी पहुँच जाती थी। ताँका पाँच पंक्तियों और ५+७+५+७+७=३१ वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु नहीं है। इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है। लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती। साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है। अत:  को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। चर्चित ताँका संग्रह १. सात छेदवाली मैं -सुधा गुप्ता, २. झरे हरसिंगार -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ।
सदोका:
५ ७ ७ ५ ७ ७  वर्णक्रम की षट्पदिक काव्यरचना है। 
चोका (लंबी कविता): 
पहली से तेरहवीं सदी तक जापान में चोका (महाकाव्य की वर्णनात्मक कथाकथन शैली) में काव्य की रचना व गायन होता रहा। किसी एक कवि द्वारा रचित चोका का उच्च स्वर में गायन उसी तरह किया जाता था जैसे भारत में अल्हैत आल्हा का गायन करते हैं। चोका में पंक्ति-संख्या का बंधन नहीं होता, किंतु पंक्तियों का योग विषम संख्या में होता है। ५ ७ ५ ७ ५ ७ ५ ७ ५ ७ ५ ७ ५ ७ के क्रम में कथ्य पूर्ण होने पर अंत में ७ मात्रा की एक पंक्ति जोड़कर ताँका से समापन किया जाता है। चर्चित चोका कृतियाँ: ओके भर किरणें -डॉ. सुधा गुप्ता, परिंदे कब लौटे -भावना कुँवर, मिले किनारे -रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु'। 
हाइगा-
जापान की काव्य-चित्र शैली हाइगा का प्रचलन १७ वीं सदी में हुआ। हाइ = हाइकु (लघु काव्य), गा = ब्रश से बनाया गया रंगीन चित्र। 
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ई मेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४ ।

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samiksha 'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण'

पुस्तक चर्चा-
'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण' अपनी मिसाल आप 
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक विवरण- गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल', विधा- छंद शास्त्र, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य १९५/-, निरुपमा प्रकाशन ५०६/१३ शास्त्री नगर, मेरठ, ०१२१ २७०९५११, ९८३७२९२१४८, रचनाकार संपर्क- डी ११५ सूर्या पैलेस, दिल्ली मार्ग, मेरठ, ९४१००९३९४३। 
*
हिंदी-उर्दू जगत के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। वे उस्ताद शायर होने के साथ-साथ, अरूज़ के माहिर भी हैं। आज के वक्त में ज़िन्दगी जिस कशमकश में गुज़र रही है, वैसा पहले कभी नहीं था। कल से कल को जोड़े रखने कि जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लार्ड मैकाले द्वारा थोपी गयी और अब तक ढोई जा रही शिक्षा प्रणाली कि बदौलत ऐसी नस्ल तैयार हो गयी है जिसे अपनी सभ्यता और संस्कृति पिछड़ापन तथा विदेशी विचारधारा प्रगतिशीलता प्रतीत होती है। इस परिदृश्य को बदलने और अपनी जड़ों के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने में साहित्य की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसे रचनाकार जो सृजन को शौक नहीं धर्म मानकर सार्थक और स्वस्थ्य रचनाकर्म को पूजा की तरह निभाते हैं उनमें डॉ. बेदिल का भी शुमार है।

असरदार लेखन के लिए उत्तम विचारों के साथ-साथ कहने कि कला भी जरूरी है। साहित्य की विविध विधाओं के मानक नियमों की जानकारी हो तो तदनुसार कही गयी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। गजल काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय वि धाओं में से एक है। बेदिल जी, ने यह सर्वोपयोगी किताब बरसों के अनुभव और महारत हासिल करने के बाद लिखी है। यह एक शोधग्रंथ से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। शोधग्रंथ विषय के जानकारों के लिए होता है जबकि यह किताब ग़ज़ल को जाननेवालों और न जाननेवालों दोनों के लिए सामान रूप से उपयोगी है। उर्दू की काव्य विधाएँ, ग़ज़ल का सफर, रदीफ़-काफ़िया और शायरी के दोष, अरूज़(बहरें), बहरों की किस्में, मुफरद बहरें, मुरक़्क़ब बहरें तथा ग़ज़ल में मात्रा गिराने के नियम शीर्षक अष्टाध्यायी कृति नवोदित ग़ज़लकारों को कदम-दर-कदम आगे बढ़ने में सहायक है।
एक बात साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी जबान के दो रूप हैं जिनका व्याकरण और छंदशास्त्र कही-कही समान और कहीं-कहीं असमान है। कुछ काव्य विधाएँ दोनों भाषा रूपों में प्रचलित हैं जिनमें ग़ज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण है। उर्दू ग़ज़ल रुक्न और बहारों पर आधारित होती हैं जबकि हिंदी ग़ज़ल गणों के पदभार तथा वर्णों की संख्या पर। हिंदी के कुछ वर्ण उर्दू में नहीं हैं तो उर्दू के कुछ वर्ण हिंदी में नहीं है। हिंदी का 'ण' उर्दू में नहीं है तो उर्दू के 'हे' और 'हम्ज़ा' के स्थान पर हिंदी में केवल 'ह' है। इस कारण हिंदी में निर्दोष दिखने वाला तुकांत-पदांत उर्दूभाषी को गलत तथा उर्दू में मुकम्मल दिखनेवाला पदांत-तुकांत हिन्दीभाषी को दोषपूर्ण प्रतीत हो सकता है। यही स्थिति पदभार या वज़न के सिलसिले में भी हो सकती है। मेरा आशय यह नहीं है कि हमेशा ही ऐसा होता है किन्तु ऐसा हो सकता है इसलिए एक भाषारूप के नियमों का आधार लेकर अन्य भाषारूप में लिखी गयी रचना को खारिज करना ठीक नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विधा के मूल नियमों की अनदेखी हो। यह कृति गज़ल के आधारभूत तत्वों की जानकारी देने के साथ-साथ बहरों कि किस्मों, उनके उदाहरणों और नामकरण के सम्बन्ध में सकल जानकारी देती है। हिंदी-उर्दू में मात्रा न गिराने और गिराने को लेकर भी भिन्न स्थिति है। इस किताब का वैशिष्ट्य मात्रा गिराने के नियमों की सटीक जानकारी देना है। हिंदी-उर्दू की साझा शब्दावली बहुत समृद्ध और संपन्न है।
उर्दू ग़ज़ल लिखनेवालों के लिए तो यह किताब जरूरी है ही, हिंदी ग़ज़ल के रचनाकारों को इसे अवश्य पढ़ना, समझना और बरतना चाहिए इससे वे ऐसी गज़लें लिख सकेंगे जो दोनों भाषाओँ के व्याकरण-पिंगाल की कसौटी पर खरी उतरें। लब्बोलुबाब यह कि बिदिक जी ने यह किताब पूरी फराखदिली से लिखी है जिसमें नौसिखियों के लिए ही नहीं उस्तादों के लिए भी बहुत कुछ है। इया किताब का अगला संस्करण अगर अंग्रेजी ग़ज़ल, बांला ग़ज़ल, जर्मन ग़ज़ल, जापानी ग़ज़ल आदि में अपने जाने वालों नियमों की भी जानकारी जोड़ ले तो इसकी उपादेयता और स्वीकृति तो बढ़ेगी ही, गजलकारों को उन भाषाओँ को सिखने और उनकी ग़ज़लों को समझने की प्रेरणा भी मिलेगी।
डॉ. बेदिल इस पाकीज़ा काम के लिए हिंदी-उर्दू प्रेमियों की ओर से बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं। गुज़ारिश यह कि रुबाई के २४ औज़ानों को लेकर एक और किताब देकर कठिन कही जानेवाली इस विधा को सरल रूप से समझाकर रुबाई-लेखन को प्रोत्साहित करेंगे। 
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समीक्षक संपर्क- २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ 
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navgeet

एक रचना: 
*
तुमने बुलाया 
और 
हम चले आये रे!! 
*
लीक छोड़ तीनों चलें
शायर सिंह सपूत
लीक-लीक तीनों चलें
कायर कुटिल कपूत
बहुत लड़े, आओ! बने
आज शांति के दूत
दिल से लगाया
और
अंतर भुलाये रे
! 
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
!! 
*
राह दोस्ती की चलें
चलो शत्रुता भूल
हाथ मिलाएँ आज फिर
दें न भेद को तूल
मिल बिखराएँ फूल कुछ
दूर करें कुछ शूल
जग चकराया
और
हम मुस्काये रे
! 
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
!! 
*
जिन लोगों के वक्ष पर
सर्प रहे हैं लोट
उनकी नजरों में रही
सदा-सदा से खोट
अब मैं-तुम हम बन करें
आतंकों पर चोट
समय न बोले
मौके
हमने गँवाये रे!

तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
!! 
*

navgeet

जनगीत : 
हाँ बेटा 
संजीव 

चंबल में 
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा!
.

कुण्डलिया, त्रिपदी, मुक्तक, दोहे,

दो कवि एक कुंडली 
नर-नारी 
*
नारी-वसुधा का रहा, सदा एक व्यवहार 
ऊपर परतें बर्फ कि, भीतर हैं अंगार -संध्या सिंह 
भीतर हैं अंगार, सिंगार न केवल देखें
जीवन को उपहार, मूल्य समुचित अवलेखें
पूरक नर-नारी एक-दूजे के हों आभारी
नर सम, बेहतर नहीं, नहीं कमतर है नारी - संजीव
*
एक त्रिपदी
वायदे पर जो ऐतबार किया
कहा जुमला उन्होंने मुस्काकर
रह गए हैं ठगे से हम यारों
*
मुक्तक
आप अच्छी है तो कथा अच्छी
बात सच्ची है तो कथा सच्ची
कुछ तो बोलेगी दिल की बात कभी
कुछ न बोले तो है कथा बच्ची
*
खुश हुए वो, जहे-नसीब
चाँद को चाँदनी ने ज्यों घेरा
चाहकर भूल न पाए जिसको
हाय रे! आज उसने फिर टेरा
*
सदा कीचड़ में कमल खिलता है
नहीं कीचड़ में सन-फिसलता है
जिन्दगी कोठरी है काजल की
नहीं चेहरे पे कोई मलता है
***
छंद न रचता है मनुज, छंद उतरता आप
शब्द-ब्रम्ह खुद मनस में, पल में जाता व्याप
हो सचेत-संजीव मन, गह ले भाव तरंग
तत्क्षण वरना छंद भी नहीं छोड़ता छाप
*
दोहे
उसने कम्प्यूटर कहा, मुझे किया बेजान
यंत्र बताकर छीन ली मुझसे मेरी जान
*
गुमी चेतना, रह गया होकर तू निर्जीव
मिले प्रेरणा किस तरह?, अब तुझको संजीव?
***

navgeet

नवगीत: 
संजीव

सांस जब 
अविराम चलती जा रही हो 
तब कलम 
किस तरह 
चुप विश्राम कर ले?
.
शब्द-पायल की
सुनी झंकार जब-जब
अर्थ-धनु ने
की तभी टंकार तब-तब
मन गगन में 

विचारों का हंस कहिए
सो रहे किस तरह
सुबह-शाम कर ले?
.
घड़ी का क्या है
टँगी थिर, 

मगर चलती
नश्वरी दुनिया
सनातन लगे, छलती
तन सुमन में 

आत्मा की गंध कहिए
खो रहे किस तरह
नाम अनाम कर ले?
.

navgeet

नवगीत:
संजीव।

सांताक्लाज!
बड़े दिन का उपहार 
न छोटे दिलवालों को देना
.
गुल-काँटे दोनों उपवन में
मधुकर कलियाँ खोज
दिनभर चहके गुलशन में ज्यों
आयोजित वनभोज
सांताक्लाज!
कभी सुख का संसार
न खोटे मनवालों को देना
.
अपराधी संसद में बैठे
नेता बनकर आज
तोड़ रहे कानून बना खुद
आती तनिक न लाज
सांताक्लाज!
करो जान पर उपकार
न कुर्सी धनवालों को देना
.
पौंड रहे मानवता को जो
चला रहे हथियार
भू को नरक बनाने के जो
नरपशु जिम्मेदार
सांताक्लाज!
महाशक्ति का वार
व लानत गनवालों को देना
.

कवितायेँ स्व. आचार्य श्यामलाल उपाध्याय

कुछ कवितायेँ
स्व. आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, कोलकाता
*
१. कवि-मनीषी  
साधना संकल्प करने को उजागर
औ' प्रसारण मनुजता के भाव
विश्व-कायाकल्प का बन सजग प्रहरी
हरण को शिव से इतर संताप
मैं कवि-मनीषी.

अहं ईर्ष्या जल्पना के तीक्ष्ण खर-शर-विद्ध
लोक के श्रृंगार से अति दूर
बुद्धि के व्यभिचार से ले दंभ भर उर
रह गया संकुचित करतल मध्य
मैं कवि-मनीषी. 
२.  पथ-प्रदर्शक                                                            
मूल्य के आख्यानकों को कंठगत कर
'तत्त्वमसि' के ऋचा-सूत्रों को पचाया 
शुभ्र भगवा श्वेत के परिधान में
पा गया पद श्री विभूषित आर्य का
मैं पथ-प्रदर्शक.

कर्म की निरपेक्षता के स्वांग भर
विश्व के उत्पात का मैं मूल वाहक
द्वेष-ईर्ष्या-कलह के विस्फोट से
बन गया हिरोशिमा यह विश्व
मैं पथ प्रदर्शक.

पर न पाया जगत का वह सार
जिससे कर सकूँ अभिमान निज पर
लोक सम्मत संहिताओं से पराजित
पड़ा हूँ भू-व्योम मध्य त्रिशंकु सा
मैं पथ प्रदर्शक. 
***************
३.    उपेक्षा                                                                              
वसंत की तीव्र तरल
ऊर्जा के ताप से
शीत की बेड़ियों को तोड़कर
पल्लवित-पुष्पित हो रहे
अर्जुन-भीम ये पादप.

नई सृष्टि को उत्सुक,
अजस्र गरिमा को धारण किए
कर्ण औ' दधीचि बने
जोड़ते परंपरा को
सृष्टि के क्रम को
जिसकी उपेक्षा करता आ रहा
सदियों से आधुनिक मानव.
 ***************
४.        कुण्ठा
अस्पताल के पीछे                                                                    
दो दीवारों के बीच
पक्के धरातल पर
कूड़े के ढेर से झाँक रहे
कुछ हरी बोतल के टुकड़े
आधे युग की कमाई
जिस पर आम के अमोले,
बहाया और इमली
काट रहे जेल कि सजा
कुकुरमुत्तों के मध्य
यही जीवन-क्रंदन.
******************* 
५. शोध 
अनेक शोधों के अश्चत                                                                                    
शोध-मिश्रण निर्मित
मैं एक विटाप्लेक्स.
चाँदी के चमकते
चिप्पडों में बंद
केमिस्ट की शाला के
शेल्फ प् र्पदी
उत्सुक जानने को
अपनी एक्सपायरी डेट. 
***************

laghukatha

लघुकथा

एकलव्य

संजीव वर्मा 'सलिल'

*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'

- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'

- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'

-हाँ बेटा.'

- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
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रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप अनुविभागीय अधिकारी, मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं।

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शनिवार, 22 दिसंबर 2018

समीक्षा- रामचंद्र प्रसाद कर्ण

कृति चर्चा:
शब्दांजलि : गीतिकाव्यमय भावांजलि 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: शब्दांजलि, काव्य संग्रह, रामचंद्र प्रसाद 'कर्ण', प्रथम संस्करण २०१७, आई एस बी एन ९७८९३८ ७१४९२०५, आकार २१ से. x  १३.५ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १०८, मूल्य १३०/-, लोकोदय प्रकाशन लखनऊ, कवि संपर्क शासकीय महाविद्यालय के पीछे, पाली परियोजना, डाकघर बिरसिंहपुर पाली, जिला उमरिया ४८४५५१]
*
"वाणी के सौंदर्य का, शब्द रूप है काव्य / मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।।" -पद्मभूषण पद्मश्री नीरज ने कवि होने को सौभाग्य कहा है। माँ वीणापाणी के चरणों में 'शब्दाँजलि' शीर्षक काव्यांजलि लेकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं श्री रामचंद्र प्रसाद कर्ण अपने पुरुषार्थ से भाग्य को सौभाग्य में बदलकर नर्मदांचल के कवि दरबार में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। रामचंद्र की पहचान संघर्षशीलता के साथ मर्यादा पालन के लिए है। पुण्य कर्मों का फल होता है। कर्ण अपने अचूक शरसंधान तथा दानशीलता के लिए कालजयी ख्याति प्राप्त है। शब्दांजलिकार के नाम में जिन तीन शब्दों का समावेश है, कृति में उनसे जुड़े तत्वों की छवि अन्तर्निहित है। अद्यावधि संघर्ष के पश्चात् आयु के ६७ वे वर्ष में प्रथम कृति का प्रकाशन कराना उनके पौरुष का प्रमाण है। कृति के आरम्भ में श्री गणेश, भवानी-शंकर, गुरु, सीता-राम, भारत माँ, तथा हिंदी का वंदन कर पारंपरिक मर्यादा का पालन कवि ने किया है। 

कविकुल गुरु गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस के श्लोकों से वंदनारंभ के साथ-साथ कवि तुलसी द्वारा जनकनंदिनी द्वारा जगजननी की वंदना "जय-जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद चकोरी" को  अंतर्मन में स्मरण कर अपने गृहस्थ जीवन में प्रसादवद प्राप्त जीवन संगिनी  शीला जी के शील को नमन करते हुए लिखता है- 'कमलवदन मुख चंद चकोरी / मृग नयनी शुभ-गात किशोरी।' कवि कर्ण प्रणय शर से बिद्ध हो प्रणय गीत, अभिसार, मेरा प्यार, तुम कितनी सुंदर लगती हो, चाँद और कमलिनी, नख-शिख, लट घुँघराली है, मुस्कुराती रही रात भर, मधुवन, मधुर मिलन आदि रचना-शरों से अचूक लक्ष्य वेध कर द्वैत से अद्वैत की राह पर पग धरते हैं। अपने नाम में प्रयुक्त तीनों शब्दों से न्याय करता कवि मिलन और विरह दोनों स्थितियों में रस-रास विहारी को स्मरण करना नहीं भूलता। 'वृंदावन की कुञ्ज गली अब / हरि बिन कछु न सोहात' लिखता महाकवि सूरदास और भ्रमर गीत से श्रोता-पाठक का तादात्म्य स्थापित कराता है। गगन के पार जाना चाहता हूँ, बसंत, मन-मयूरी तथा पनघट  में राधा-कृष्ण से तादात्म्य स्थापित करता कवि-लीलाविहारी नंदनंदन तथा लीलेश्वरी राधिका जी का सतत स्मरण करता है 'नंद के नंद पर सब बलिहारी / मति भयी 'कर्ण की भोरी / निरखत छवियाँ छवि मोहन की, संग वृषभान किशोरी'।  

कवि कर्ण की रचनाओं का द्वितीय सर्ग सामाजिक-राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण है। राष्ट्र वंदना, उद्बोधन, भारत वर्णन, नमन देश के वीरों को, वंदे मातरम, शत-शत प्रणाम, आवाहन, कारगिल से भारतीय सैनिकों का उद्घोष, विभिन्नता में एकता, शांति सन्देश, नील गगन लहराए तिरंगा, सद्भावना के फूल, दीप ऐसा जलाएँ, अंतिम प्रणाम,  घर वापस आ जाओ तुम, सीमा के प्रहरी आदि रचनाओं में राष्ट्रीयता का ज्वार उमड़ रहा है। ींरचनाओं में वीर और करुण रास का उद्वेग है। 

जन-जन का सहयोग चाहिए, देश से भ्रष्टाचार मिटायें, श्रमिक, मानवता के दर्पण को देखो,  संकट में हर पल नारी है, देश बहकर बनेगा कौन, अम्बर में आग लगा दी है, काँप उठे हैं धरा गगन, आओ मिलकर दीप जलाएँ,  कोसी का कहर, बिहार में बाढ़ का तांडव,  वृक्ष का रुदन, किसानों की दुर्दशा, आतंकवाद का प्रवेश, कांधार विमान अपहरण काण्ड,  जनतंत्र की रानी दिल्ली, संसद संवाद, सामाजिक दुर्दशा, आज के नेता, जनता के रखवाले   जैसी कविताओं में राष्ट्र के सम्मुख खतरों से सचेत करते हुए कवि ने राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य में व्याप्त विसंगतियों से उत्पन्न हो रहे खतरों से सचेत करने के साथ जनगण को कर्तव्य बोध भी कराया है। 

नयी दिशा की ओर चलो, शौर्य गाथा, स्वच्छता अभियान, स्वच्छता का अश्वमेध साक्षी हैं की कवी चुनातियों और विसंगतियों से निराश नहीं है। वह यथार्थ की आँख में आँख डालकर देश के जनगण पर पूर्ण विश्वास रखकर राष्ट्रनिर्माण के प्रति सजग, सतर्क और सचेत है। कवि कर्ण अपने सारस्वत अनुष्ठान में कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। वे भावनाओं के कवि हैं। उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द सम्पदा यथेष्ट है। वे प्रांजल हिंदी, दैनिक जीवन में प्रयुक्त हो रही भाषा तथा ग्राम्यांचलों में प्रयुक्त देशज भाषा तीनों का व्यवहार समान कुशलता के साथ कर पाते हैं। कहावतें जीवन का सत्य कहती हैं। 'घर की मुर्गी दाल बराबर', 'घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध' आदि का निहितार्थ यही है कि अत्यंत समीप की वस्तु की अपेक्षा दूर की वास्तु अधिक ध्यानाकर्षित करती है। कवि कर्ण कोयला खदान परियोजना में सेवा करते हुए जीवन गुजारा है।कोयला खदान परियोजनाएं अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं। वनों-पहाड़ों का क्षरण, अंधाधुंध खुदाई, श्रमिकों की सुरक्षा और आजीविका के संकट, पर्यावरण प्रदूषण, दुर्घटनाएँ आदि अनेक बार राष्ट्रीय चिंता का विषय बने हैं किंतु एक भी रचना में इन्हें स्थान नहीं मिला है। कवि की चिंता उन क्षेत्रों के प्रति अधिक है जहाँ वह कभी नहीं गया। 

कृति का आवरण आकर्षक है। अलंकारों, बिंबों, प्रतीकों और कहीं-कहीं मिथकों का प्रयोग पठनीयता में वृद्धि करता है। कुछ त्रुटियाँ खीर में कंकर की तरह हैं। 'गंधर्व' के स्थान पर 'गंर्धव', 'द्वंद' के स्थान पर 'दवंदव', खड़ी बोली की पंक्तियों में देशज क्रिया रूप, 'लघु सूर्य सा बिंदी सजाया' में लिंग दोष आदि से बचा जा सकता था। चन्द्रमा के दाग की तरह इन त्रुटियों की और ध्यान न दें तो कवि कर्ण की कविताएँ पठनीय, माननीय, विचारणीय और स्मरणीय भी हैं। इन रचनाओं से प्रेरित होकर किशोर और तरुण ही नहीं युवा और प्रौढ़ भी अपने कर्तव्य की अनुभूति कर, दायित्व निर्वहन के पथ पर पग बढ़ा सकते हैं। कवि और कविता युग साक्षी और युग निर्माता कहे गए हैं। शब्दांजलि की रचनाएँ इन दोनों भूमिकाओं में देखी जा सकती हैं। कवि की चेतना उनसे और अधिक परिपक्व कृतियों की प्राप्ति के प्रति आश्वस्ति भाव जगाती है। शब्दांजलि और शब्दांजलिकार कवि कर्ण की लोकप्रियता में अभिवृद्धि  हेतु मंगलकामनाएँ हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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