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शनिवार, 22 दिसंबर 2018

muktak

मुक्तक:
*
दे रहे सब कौन सुनता है सदा?
कौन किसका कहें होता है सदा?
लकीरों को पढ़ो या कोशिश करो-
वही होता जो है किस्मत में बदा।
*
ठोकर खाएँ लाख नहीं हम हार मानते।
कारण बिना न कभी किसी से रार ठानते।।
अपनी कुटिया का छप्पर भी प्यारा लगता-
संगमर्मरी ताजमहल को हम न जानते।।
*
तम तो पहले भी होता था, ​अब भी होता है।
यह मनु पहले भी रोता था, अब रोता है।।
पहले थे परिवार, मित्र, संबंधी उसके साथ-
आज न साया संग इसलिए धीरज खोता है।।
*
२२.१२.२०१८
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एक रचना :
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो 
*
तुम ही नहीं सयाने जग में 
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिल रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घटक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बतायें
खून और का व्यर्थ बहायें
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
२२.१२.२०१७ 
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मुक्तक
*
जब बुढ़ापा हो जगाता रात भर
याद के मत साथ जोड़ो मन इसे.
प्रेरणा, जब थी जवानी ली नहीं-
मूढ़ मन भरमा रहा अब तू किसे?
*
२२.१२.२०१६ 
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मुक्तिका:
नए साल का अभिनन्दन
अर्पित है अक्षत-चन्दन
तम हरने दीपक जलता
कब कहता है लगी अगन
कोशिश हार न मानेगी
मरु को कर दे नंदन वन
लक्ष्य वही वर पाता है
जो प्रयास में रहे मगन
बाधाओं को विजय करे
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
गिर मत रुक, उठ आगे बढ़
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
बंदूकों से 'सलिल' न डर
जीता भय पर सदा अमन
*
धूप -छाँव:
गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया। किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है।धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है। आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएँ कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।
हेमा अंजुली
इतनी शिद्दत से तो उसने नफ़रत भी नहीं की ....
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
.
सलिल:
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी
हेम पिघला फिसल बूँद पल में गयी
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गयी
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
.
सलिल
और तुम्हारी याद
बरसात की बदरी की तरह
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है।
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूँगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊँगी।
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊँगी।।
.
सलिल
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे
राह पर जब भी गिरोगे
तुम्हें उठाऊँगी।।
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरों का वजूद।
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं.
सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे ।
रूह में झाँक के देखो कि आग बाकी है 
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आईना सूरत रहा है देख
*
मुक्तक:
मन-वीणा जब करे ओम झंकार
गीत हुलास कर खटकाते हैं द्वार
करे संगणक स्वागत टंकण यंत्र-
सरस्वती मैया की जय-जयकार
२२.१२.२०१४ 
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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

नवगीत

नवगीत:
कैसे पाएँ थाह?
*
ठाकुर हों या
ठकुराइन हम
दौंदापेली चाह।
बात नहीं सुनते औरों की
कैसे पाएँ थाह?
*
तीसमार खाँ मानें खुदको
दिखा और के दोष।
खुद में हैं दस गुना, न देखें
बने दोष का कोष।।
अपनी गलती छिपा अन्य की
खींच रहे हैं टाँग।
गर्दभ होकर, खाल ओढ़ ली
धरें शेर की स्वांग।।
चीपों-चीपों बोले ज्यों ही
मिली न कहीं पनाह।
*
कानी टेंट न देखे अपनी,
मठाधीश बन भौंके।
टाँग खींचती है जिस-तिस की
शारद-पिंगल चौंके।
गीत विसंगति के गाते हैं
विडंबना आराध्य।
टूट-फूट के नकली किस्से
दर्द हुआ क्यों साध्य?
ठूँस पेट भर,
गीत दर्द के
गाते पाले डाह।
*
नवगीतों में स्यापा ठूँसा,
व्यंग्य लेख रूदाली।
शोकांजलि लघुकथा बताते
विघटन खाम-खयाली।।
टूट रहे परिवार, न रिश्ते-
नातों की है खैर।
कदाचार कर पाल रहे हैं,
खुद से खुद ही बैर।।
आग लगा मानव-मूल्यों में
कहें मिटा दाह।
***
19.12.2018

दण्डक छंद सलिला 
जिस काव्य रचना की प्रत्येक पंक्ति में २६ से अधिक अर्थात २७ या अधिक वर्ण, सामान्य गणों के साथ हों उन्हें दण्डक छंद कहते हैं। दण्डक छंद की प्रत्येक पंक्ति सस्वर पढ़ते समय सांस भर जाती है। दंडक छंदों के २ प्रकार साधारण दण्डक (गणबद्ध) और मुक्तक दंडक (गण-बंधन मुक्त, लघु-गुरु विधान सहित) हैं।  

साधारण दण्डक के ८ पारंपरिक प्रकार चंडवृष्टिप्रपात (२ नगण + ७ रगण), मत्तमातंगलीलाकर (९ या अधिक रगण), कुसुमस्तावक (९ या अधिक सगण), सिंहविक्रीड़ (९ या अधिक यगण), शालू (तगण + ८ नगण + लघु-गुरु), त्रिभंगी ( ६ नगण + २ सगण + भगण + मगण + सगण + गुरु ),  अशोक पुष्प मंजरी (नीलचक्र ३०, सुधानिधि ३२ गुरु-लघु वर्ण), तथा अनंगशेखर (महीधर २८ लघु-गुरु वर्ण) हैं। 

मुक्तक दण्डक के ९ पारंपरिक प्रकार  (अ. ३१ वर्णीय) मनहरण, जनहरण, कलाधर (आ. ३२ वर्णीय) रूप घनाक्षरी, जलहरण, डमरू, कृपाण, विजया तथा (इ. ३३ वर्णीय) देव घनाक्षरी हैं। 
चंडवृष्टिप्रपात छंद 
जाति: २७ वर्णीय दण्डक जातीय।    
गण सूत्र: २ नगण + ७ रगण = ननसतर। 
आंकिक सूत्र: १११ १११ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ = २७ वर्ण। 
छंद लक्षण: प्रति पंक्ति २७ वर्ण, २ (१११) + ७ (२१२)। सामान्यत: ४ पंक्तियाँ, पदांत २-२ पंक्तियों में सम पदांत।
लक्षण छंद: 
नन सतर न भूलना रे!, बनें चण्ड वर्षा तभी, छंद गाओ सदा झूम के। 
कम न अधिक तौलना रे!, करें काम पूरा अभी, प्रीत पाओ प्रिया चूम के।।
धरणि-गगन हैं सँगाती, रहें साथ ही साथ वे, हेरते हैं सदा दूर से। 
धरम-करम है सहारा, करें काम हो नाम भी, जो न मानें जिएं सूर से।।    
उदाहरण: 
१. सरस सरल गीत गा रे!, सुनें लोग ताली बजा, गीत तेरा करें याद वे। 
    सहज सुखद बोल बोले, गुनें नित्य बातें सदा, भोर तेरी करें याद वे।। 
    अजर अमर कौन होता, सभी जन्म लें जो मरें, देवता भी धरा से गए।
    'सलिल' अमिय भूल जा रे!,गले धार ले जो मिले, जो मरे हैं वही तो जिए।।
=============
प्रचित छंद 
'ननसतर' वृत्त में एक या अधिक 'रगण' जोड़ने से अनेक छंद बनते हैं जिन्हें प्रचित छंद कहा जाता है। छंदप्रभाकरकार ने सात प्रचित छंद अर्ण (२ नगण + ८ रगण), अर्णव (२ नगण + ९ रगण), ब्याल (२ नगण + १० रगण), जीमूत (२ नगण + ११ रगण), लीलाकर (२ नगण + १२ रगण), उद्दाम (२ नगण + १३ रगण) तथा शंख (२ नगण + १४ रगण) का उल्लेख किया है। 
सिंहविक्रांत छंद 
२ नगण एवं  ७ या अधिक यगण के मेल से बने दण्डक छंदों को 'सिंहविक्रांत' छंद कहा गया है। 

   

यमकीय दोहे

यमकीय दोहे  : 
'माँग भरें' वर माँगकर, गौरी हुईं प्रसन्न 
वर बन बौरा माँग भर, हुए अधीन- न खिन्न 
*
तिल-तिल कर जलता रहा, तिल भर किया न त्याग 
तिल-घृत की चिंताग्नि की, सहे सुयोधन आग
*
चमक कैमरे ले रहे, जहाँ-तहाँ तस्वीर
दुर्घटना में कै मरे,जानो कर तदबीर
*
घट ना फूटे सम्हल जा, घट ना जाए मूल 
घटना यदि घट जाए तो, व्यर्थ नहीं दें तूल
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर
थे फकीर कहला रहे, पुरखे रहे अमीर
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल 
न मन न तन हो समन्वित, तो चुभता है शूल
*
ठाकुर जी सिर झुकाकर, करते नम्र प्रणाम 
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
गए दवाखाना तभी, पाया यह संदेश 
भूल दवा खाना गए, खा लें था निर्देश
*
मन उन्मन मत हो पुलक, चल चिलमन के गाँव
चिलम न भर चिल रह 'सलिल', तभी मिले सुख-छाँव
*
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग 
ना ज्यादा अनुराग रख, ना हो अधिक विराग
*

नवगीत

एक रचना 
भीड़ में
*
नाम के रिश्ते कई हैं
काम का कोई नहीं
भोर के चाहक अनेकों
शाम का कोई नहीं
पुरातन है
हर नवेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गलत को कहते सही
पर सही है कोई नहीं
कौन सी है आँख जो
मिल-बिछुड़कर कोई नहीं
पालता फिर भी
झमेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
जागती है आँख जो
केवल वही सोई नहीं
उगाती फसलें सपन की
जो कभी बोईं नहीं
कौन सा संकट
न झेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

व्यंग्य विधा

लेख: 
विधा में व्यंग्य या व्यंग में विधा 
संजीव 
व्यंग्य का जन्म समकालिक विद्रूपताओं से जन्मे असंतोष से होता है। व्यंग्य एक अलग विधा है या वह किसी भी विधा के भीतर सार या प्रवृत्ति (स्पिरिट) के रूप में उपस्थित रहता है, या विमर्श का विषय है। व्यंग्य के माध्यम से व्यंग्यकार जीवन की विसंगतियों, खोखलेपन और पाखंड को उद्घाटित कर उन पर प्रहार करता है। जान सामान्य उन विसंगतियों से परिचित होते हुए भी उन्हें मिटाने की कोशिश न कर, विद्रूपताओं-विसंगतियों से समझौता कर जीते जाते हैं। व्यंग्य रचनाओं के पात्र और स्थितियाँ इन अवांछित स्थितियों के प्रति पाठकों को सचेत करती हैं। ‘व्यंग्य’ में सामाजिक विसंगतियों का चित्रण सीधे-सीधे (अभिधा में) न होकर परोक्ष रूप से (व्यंजना या कटूक्ति) से होता है। इसीलिए व्यंग्य में मारक क्षमता अधिक होती है। 

व्यंग्य का हास्य से क्या संबंध है? वह एक स्वतंत्र विधा है या सकल विधाओं में व्याप्त रहने वाली भावना या रस? वह मूलतः गद्यात्मक है या पद्यात्मक? वह समय बिताऊ लेखन है या गंभीर वैचारिक कर्म? क्या व्यंग्यकार के लिए प्रतिबद्धता अनिवार्य है? प्रतिबद्धता क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर पाठकों और समीक्षकों को ही नहीं, व्यंग्यकारों को भी स्पष्ट नहीं हैं।  हरिशंकर परसाई व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। रवींद्रनाथ त्यागी पहले व्यंग्य को विधा मानते थे, बाद में मुकर गए। शरद जोशी व्यंग्य को विधा मानते हुए भी कहने में हिचकते थे। नरेंद्र कोहली व्यंग्य को विधा मानते हैं और कहते भी हैं। कुछ व्यंग्यकार हास्य को व्यंग्य के लिए आवश्यक नहीं मानते, कुछ हास्य के बिना व्यंग्य का अस्तित्व नहीं मानते। 

हिंदी में कबीर व्यंग्य के आदि प्रणेता मान्य हैं। उन्होंने मध्यकाल की सामाजिक विसंगतियों (जाति-भेद, धर्माडंबर, गरीबी-अमीरी, रूढ़िवादिता आदि) पर व्यंग्यपूर्ण शैली में मारक प्रहार किए। 'मूँद मुड़ाए हरी मिले, सब कोउ ले मुड़ाय / बार-बार के मूड़ते, भेद न बैकुंठ जाय, कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय / ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय, पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूज पहार / ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार'आदि अनेक उद्धरण कबीर की बेधक व्यंग्य-क्षमता के प्रमाण हैं। उत्तर-मध्यकालीन सामंती समाज ने निहित स्वार्थों के कारण कबीर जैसे संतों के समाज-बोध को नकार दिया। फलत:, रीतिकाल में व्यंग्य रचनाओं की उपस्थिति नगण्य रही। 

कबीर के बाद भारतेंदु ने सामाजिक विषमताओं के संकेतन हेतु व्यंग्य को हथियार बनाया। 'हाय! मनुष्य क्यों भये, हम गुलाम वे भूप।' में औपनिवेशिक भारत की मूल समस्या गुलामी पर प्रहार है। ‘अंधेर नगरी’ और ‘मुकरियों’ में गुलाम भारत की विडंबनापूर्ण परिस्थितियों, अंग्रेजी साम्राज्यवादजनित शोषण के प्रति आक्रोश केंद्र में है। भारतेंदु के समकालिक व्यंग्यकार प्रेमघन की कृति ‘हास्यबिंदु’ और प्रतापनारायण मिश्र के निबंधों में व्यंग्य सहायक प्रवृत्ति के रूप में है। व्यंग्य का पूर्ण उन्मेष पश्चातवर्ती व्यंग्य रचनाकार बालमुकुंद गुप्त की रचनाओं 'शिवशंभू का चिट्ठा' आदि में है। राजनीति और तत्कालीन शासन-व्यवस्था से टकराव इन व्यंग्य रचनाओं के मूल में हैं। यूरोप में दांते की लैटिन में लिखी किताब डिवाइन कॉमेडी मध्यकालीन व्यंग्य का उदाहरण है, जिसमें तत्कालीन व्यवस्था का मज़ाक उड़ाया गया था। व्यंग को मुहावरे मे व्यंग्यबाण कहा गया है।
आज व्यंग्य-लेखन आवश्यक माध्यम के रूप में उभरा है, रचनात्मक-संवेदनात्मक स्तर पर व्यंग्य की लोकप्रियता और माँग चरम पर है, किंतु अधिक मात्रा और अल्पसूचना (शॉर्ट नोटिस) पर लिखे जाने के कारण उसकी गुणवत्ता प्रभावित होने का भारी खतरा है। व्यंग्य का विवेकसंगत प्रयोग आवश्यक है। हर जगह इसका उपयोग नहीं किया जा सकता। व्यंग्य किसी के पक्ष में होता है तो किसी के विरुद्ध। व्यंग्य विचार से पैदा होता है और विचार को पैदा भी करता है। इस वैचारिकता से दिशा ग्रहणकर मानवता के हित में व्यंग्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष सुनिश्चित करना आज व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कर्तव्य और उसके समक्ष उपस्थित गंभीर चुनौती भी है। युगीन समस्याओं पर व्यंग्य करने की प्रवृत्ति प्रेमचंद की कहानियों व उपन्यासों में आम आदमी और कृषक वर्ग की दैनंदिन कठिनाइयों पर करारे व्यंग्य के रूप में है। निराला की ‘कुकुरमुत्ता’ आदि रचनाओं में व्यंग्य की अभिव्यक्ति विद्रूपता फैलानेवाले समाज के खिलाफ चुनौती के रूप में है। स्वतंत्रता-पूर्व के रचनाकारों में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और रांगेय राघव के व्यंग्य में धार नहीं है। 
स्वतंत्र होकर सामान्य जन खुशहाली के सपने देखने लगा किंतु विपरीत परिस्थितियों और राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण भारत में समाज, राजनीति, धर्म, शिक्षा, आदि सभी क्षेत्रों में असंगतियाँ बढ़ी हैं। सामाजिक-नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है। आम आदमी के लिए शांतिपूर्वक जीवन जीने के अवसर कम हुए हैं। सत्य, सदाचरण, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा आदि शाश्वत मूल्य समाप्त प्राय हैं। आजादी पूर्व के स्वप्न बीसवीं शताब्दी के छठे दशक तक खण्डित हो गए। शोषण व अत्याचार आजादी के बाद घटने के बजाय बढ़ गया। वैयक्तिक और सामाजिक अंतर्विरोध बढ़े, व्यक्ति निजी स्वार्थ तक सीमित रह गया। ये विसंगतियाँ और जटिलताएँ व्यंग्य की आधार-भूमि बनीं, करुणापूर्ण व्यंग्य लेखन की परंपरा बनीं। इस परंपरा के प्रतिनिधि रचनाकार हरिशंकर परसाई की स्वतंत्र भारत में पनपी विसंगतियों के प्रामाणिक शब्द-चित्र हैं। इनका आकलन समकालिक भारत की यथार्थ स्थितियों के संदर्भ में ही संभव है। परसाई ने सामाजिक स्थितियों को  वैचारिक चिंतन से पुष्ट कर प्रस्तुत किया। स्वतंत्र भारत के सकारात्मक-नकारात्मक सभी पहलुओं की बखूबी पड़ताल करती परसाई की रचनाओं में शोषकों के तिलिस्म में कैद-पीड़ित भारत की छटपटाहट अनुभव की जा सकती है। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सतर्क वैज्ञानिक दृष्टि के कारण परसाई छद्म के उन रूपों को आसानी से पहचानते हैं जिन तक सामान्यतः रूढ़िवादी दृष्टि नहीं पहुँच पाती। निजी अनुभूतियों की निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति उनके व्यंग्य लेखन की विशेषता है। वे निम्नवर्गीय सामान्य आदमी से बहुराष्ट्रीय समस्याओं तक को अपने भीतर समेटकर व्यंग्य के माध्यम से सृजन व संहार एक साथ करते हैं। परसाई का व्यंग्य जब शोषक वर्ग के प्रति घृणा और आक्रोश तथा व्यंग्य अभावग्रस्त व्यक्ति के प्रति करुणा पैदा करता है। परसाई के व्यंग्य की भाषा सप्रयास नहीं है। उनके अनुसार समाज में रहने के कारण वह हमें अनुभव देता है और विषयानुरूप नई भाषा सिखाता है। परसाई की भाषा उनके कथ्य का अनुसरण करती हैं।
शरद जोशी एक अलग भाषाई तेवर के साथ, शिल्प के प्रति सजग रहकर, भाषिक-वक्रता व शब्दों-विशेषणों के विशिष्ट संयोजन से समृद्ध व्यंग्य लिखते हैं। श्रीलाल शुक्ल के व्यंग उपन्यास ‘रागदरबारी’ में मोहभंग की स्थितियोन का सच सजीव हुआ है। रवींद्रनाथ त्यागी का हास्य-व्यंग्य मिश्रित आत्मपरक लेखनन सिर्फ पाठक को प्रफुल्लित करता है बल्कि उसे सोचने के लिए बाध्य भी करता है लतीफ घोंघी के व्यंग्य में राजनीतिक व सामाजिक यथार्थ, उर्दू मिश्रित भाषा, कथ्य की व्यापकता  व मारकता की कमी है। वे नारी-शोषण, कालाबाज़ारी, भुखमरी, शैक्षिक-साहित्यिक गड़बड़ियों तथा आमजन की दैनिक परेशानियों पर लिखते हैं।  
सामाजिक मूल्यों के विघटन को केंद्र में रखकर समकालीन साहित्यिक परिदृष्य में व्यंग्य का लगातार सृजन हो रहा है। भाषा के विकास के साथ ही व्यंग्य का जन्म हुआ। रोजमर्रा के जीवन में बात करते समय व्यंग्य ‘किया’ जाता है, ‘कसा’ जाता है, ‘मारा’ जाता है, व्यंग्य-बाण चलाया’जाता है। व्यंग्य बोलचाल की भाषा में होते हुए भी साहित्य से बहुत बाद में जुड़ा। सबका हित समाहित करते साहित्य और विरोधाभासों का उपहास कर, पाखण्ड पर चोट करते व्यंग्य की प्रवृत्तियाँ परस्पर विरोधी हैं। साहित्यकार समाज में व्याप्त विसंगतियों, विद्रूपों, पाखंड का सामाजिक दवाबों या राजनैतिक कारणों से विरोध न कर सके तो उन्हें व्यंग्य के माध्यम से साहित्य में व्यक्त करता है। व्यंग्य में व्यंजना आवश्यक है। व्यंग्य कहकर भी नहीं कहता तथा बिना कहे ही कह देता है। व्यंग्य की इसी शक्ति का फ़ायदा उठाकर श्रीलाल शुक्ल, सरकारी सेवा में रहते हुए भी “राग-दरबारी” लिख सके। व्यंग्य वैचारिक स्वतंत्रता का पर्याय है। वैचारिक स्वतंत्रता न हो तो साहित्यिकता की रक्षा करते हुए साहित्यकार व्यंग्य परोसता है किंतु वैचारिक स्वतंत्रता सुलभ होने पर साहित्यकार सेअच्छन्द हो, व्यंग्य का दुरुपयोग कर गाली-गलौज पर उतर आता है। वह भूल जाता है कि समाज के विद्रूप की आलोचना के लिए व्यंग किया जाता है, न कि प्रश्रय देने के लिए। व्यंग्य के साथ 'हास्य' और 'विनोद' मिलकर 'व्यंग्य-विनोद' और 'हास्य-व्यंग्य' के रूप में  कटुता को दूर भी करता है। 
***

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

chutaki geet, doha geet

चुटकी गीत
*
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
बरस इस बरस मेघ आ!
नमन करे संसार।
न मन अगर तो नम न हो,
तज मिथ्या आचार।।
एक राह पर चलाचल
कदम न होना भ्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
कह - मत कह आ रात तू ,
खुद आ जाती रात।
बिना निकाले निकलती
सपनों की बारात।।
क्रांति-क्रांति चिल्ला रहे,
खुद भय से आक्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
छंद: दोहा
****
१९-१२-२०१८

समग्र सू चना

विश्ववाणी हिंदी संस्थान
अभियान, समन्वय प्रकाशन जबलपुर
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१ ८३२४४ ​/ ७९९९५५९६१८
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शांति-राज स्व-पुस्तकालय योजना

विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव वृद्धि हेतु सत्साहित्य पठन को प्रत्साहित करने के लिए पारिवारिक पुस्तकालय योजना आरम्भ की गई है। इसके अंतर्गत निम्न में से ५००/- से अधिक की पुस्तकें मँगाने पर मूल्य में २०% छूट, पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा उपलब्ध है। राशि अग्रिम पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में अथवा बैंक ऑफ़ इण्डिया, राइट टाउन शाखा जबलपुर IFSC- BKDN ०८११११९, लेखा क्रमांक १११९१०००२२४७ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करें। इस योजना में पुस्तक सम्मिलित करने हेतु salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर संपर्क करें।

पुस्तक सूची
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' २५०/-
०४. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०५. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
०६. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
०७. Off And On -English Gazals -Dr. Anil Jain ८०/-
०८. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट
०९.Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
१०. महामात्य महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
११. कालजयी महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
१२. सूतपुत्र महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
१३. अंतर संवाद कहानियाँ -रजनी सक्सेना २००/-
१४. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१६. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१७. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
१८.The Second Thought - English Poetry - Dr .Anil Jain​ १५०/-
१९. मुक्तक मकरंद स. प्रकाश चंद्र फुलोरिआ ५००/
२०. यावत स्थास्ययंति महीतले - डॉ. एम.एल.खरे ५५०/-
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर - ​इकाई स्थापना आमंत्रण
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान एक स्वैच्छिक, अव्यावसायिक, अपंजीकृत समूह है जो ​भारतीय संस्कृति और साहित्य के प्रचार-प्रसार तथा विकास हेतु समर्पित है। संस्था पीढ़ियों के अंतर को पाटने और नई पीढ़ी को साहित्यिक-सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने के लिए निस्वार्थ सेवाभावी रचनात्मक प्रवृत्ति संपन्न महानुभावों तथा संसाधनों को एकत्र कर विविध कार्यक्रम न लाभ न हानि के आधार पर संचालित करती है। इकाई स्थापना, पुस्तक प्रकाशन, लेखन कला सीखने, भूमिका-समीक्षा लिखवाने, विमोचन-लोकार्पण-संगोष्ठी-परिचर्चा अथवा स्व पुस्तकालय स्थापित करने हेतु संपर्क करें: salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ ​/ ७९९९५५९६१८। इकाई स्थापना हेतु न्यूनतम एक आजीवन, दो स्थायी तथा ९ वार्षिक सदस्य होना आवश्यक है। ईकाइयोंको केंद्रीय कार्यालय से गतिविधि सञ्चालन हेतु मार्गदर्शन दिया जाएगा।
पाठक पंचायत
प्रत्येक इकाई को हर माह संस्थान द्वारा चयनित एक पुस्तक निशुल्क (अधिक प्रतियाँ रियायती दर पर, निशुल्क डाक सुविधा सहित) भेजी जाएगी। संस्थान के सदस्य इन पर चर्चा करेंगे तथा प्रतिवेदन / समीक्षा केंद्रीय कार्यालय को भेजेंगे।

दोहा शतक मंजूषा
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान तथा आचार्य संजीव 'सलिल' व डॉ. साधना वर्मा के संपादन में दोहा शतक मंजूषा के ३ भाग दोहा-दोहा नर्मदा, दोहा सलिला निर्मला तथा दोहा दीप्त दिनेश का प्रकाशन कर सहयोगियों को भेजा जा चुका है। ८००/- मूल्य की ३ पुस्तकें (५००० से अधिक दोहे, दोहा-लेखन विधान, २५ भाषाओँ में दोहे तथा बहुमूल्य शोध-सामग्री) ५०% छूट पर पैकिंग-डाक व्यय निशुल्क सहित उपलब्ध हैं। इस कड़ी के भाग ४ "दोहा है आशा-किरण" में सहभागिता हेतु यथोचित संपादन हेतु सहमत दोहाकारों से १२० दोहे (चयनित १०० दोहे छपेंगे), चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक आदि) ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com पर आमंत्रित हैं। सहभागिता निधि ३०००/- उक्तानुसार भेजें। प्रत्येक सहभागी को गत ३ संकलनों की एक-एक प्रति तथा भाग ४ की ८ प्रतियाँ अथवा भाग ४ की
११ प्रतियाँ दी जाएँगी। भाग ४ हेतु चयनित सहभागी- सर्व श्री/श्रीमती संतोष शुक्ल, इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार, इंजी. देवेंद्र गोंटिया, हरिहर सहाय पांडेय, वीणा तवंर, विनोद वाग्वर, श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, संतोष नेमा, रामेश्वर प्रसाद सारस्वत। केवल ६ स्थान रिक्त।
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प्रतिनिधि नवगीत : २०२०
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'प्रतिनिधि नवगीत २०२०' शीर्षक से प्रकाशनाधीन संकलन हेतु इच्छुक नवगीतकारों से एक पृष्ठीय ९ नवगीत चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) सहभागिता निधि ४०००/- सहित आमंत्रित है। इच्छुक सहभागी ४०००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में अथवा बैंक ऑफ़ इण्डिया, राइट टाउन शाखा जबलपुर IFSC- BKDN ०८११११९, लेखा क्रमांक १११९१०००२२४७ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करें। । प्रत्येक सहभागी को १५ प्रतियाँ निशुल्क उपलब्ध कराई जाएँगी जिनका विक्रय या अन्य उपयोग करने हेतु वे स्वतंत्र होंगे। ग्रन्थ में नवगीत विषयक शोधपरक उपयोगी सूचनाएँ और सामग्री संकलित की जाएगी। देशज बोलिओं व हिंदीतर भारतीय भाषाओँ के नवगीत हिंदी अनुवाद सहित भेजें।
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------------------------- 'सार्थक लघुकथाएँ' २०२० -----------------------
चयनित लघुकथाकारों की ९ प्रतिनिधि लघु कथाएँ चित्र, परिचय पते ((जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक आदि)) सहित सहयोगाधार पर प्रकाशित की जा रही हैं। संकलन पेपरबैक होगा। मुद्रण स्तरीय होगा। सहभागिता के इच्छुक लघुकथाकार सहभागिता निधि ४०००/- बैंक ऑफ़ इण्डिया, राइट टाउन शाखा जबलपुर IFSC- BKDN ०८११११९, लेखा क्रमांक १११९१०००२२४७ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करें। चयन सुविधा हेतु १२ लघुकथाएँ, चित्र, पता, चलभाष, ईमेल व सहमति ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com या वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर अविलंब भेजें। हर सहभागी को १५ प्रतियाँ निशुल्क तथा अतिरिक्त प्रतियाँ ५०% रियायत पर डाक व्यय निशुल्क सुविधा सहित मिलेंगी। पूर्ण घोषित संकलनों में निधि भेजनेवाले सहभागियों की राशि इस योजना में समायोजित कर ली जाएगी।
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मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

laghukatha

लघुकथा:
ठण्ड 
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संजीव 
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया। 
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया। 
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएं-बाएं देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड। 
१८-१२-२०१८
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navgeet

नवगीत:
संजीव 'सलिल'
मैं लड़ूँगा....
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लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
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खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
१८-१२-२०१४
समन्वयम,
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
९४२५१ ८३२४४, ०७६१ २४१११३१

navgeet

नवगीत:
पेशावर के नरपिशाच 
धिक्कार तुम्हें

दिल के टुकड़ों से खेली खूनी होली 
शर्मिंदा है शैतानों की भी टोली
बना न सकते हो मस्तिष्क एक भी तुम
मस्तिष्कों पर मारी क्यों तुमने गोली?
लानत जिसने भेज
किया लाचार तुम्हें
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दहशतगर्दों! जिसने पैदा किया तुम्हें
पाला-पोसा देखे थे सुख के सपने
सोचो तुमने क़र्ज़ कौन सा अदा किया
फ़र्ज़ निभाया क्यों न पूछते हैं अपने?
कहो खुदा को क्या जवाब दोगे जाकर
खला नहीं क्यों करना
अत्याचार तुम्हें?
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धिक्-धिक् तुमने भू की कोख लजाई है
पैगंबर मजहब रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर
तुमको जननेवाली माँ पछताई है
क्यों भाया है बोलो
हाहाकार तुम्हें?
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१८-१२-२०१४ 

navgeet

नवगीत: 
बस्ते घर से गए पर 
लौट न पाये आज 
बसने से पहले हुईं 
नष्ट बस्तियाँ आज 
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है दहशत का राज
नदी खून की बह गयी
लज्जा को भी लाज
इस वहशत से आ गयी
गया न लौटेगा कभी
किसको था अंदाज़?
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लिख पाती बंदूक
कब सुख का इतिहास?
थामें रहें उलूक
पा-देते हैं त्रास
रहा चरागों के तले
अन्धकार का राज
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ऊपरवाले! कर रहम
नफरत का अब नाश हो
दफ़्न करें आतंक हम
नष्ट घृणा का पाश हो
मज़हब कहता प्यार दे
ठुकरा तख्तो-ताज़ 


१८-१२-२०१४