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सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

दोहा शतक : मञ्जूषा मन

दोहा शतक-२ 
मञ्जूषा 'मन'
*
९-९-१९७३। 
सृजन विधा- गीत, दोहा, मुक्तक, ग़ज़ल आदि।
कार्यक्रम अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन। 
बलोदा बाज़ार, छतीसगढ़। 
१.
अब हमको लगने लगे, प्यारे अपने गीत।
सपने नैनन में सजे, आप बने जो मीत।।
२.
कागज़ के टुकड़े हुए, उनके सारे नोट।
कर्मों से ज्यादा रही, क्यों नीयत में खोट।
३.
कहाँ छुपाकर हम रखें, तेरी ये तस्वीर।
भीग न जाये तू सनम, आँखों में है नीर।।
४.
ज़ख्मों पर मरहम नहीं, रखना तुम अंगार।
अनदेखी के दर्द पर, काम न आता प्यार।।
५.
दीप-शिखा बन हम जले, पाकर तेरा प्यार।
जान लुटाकर जी गए, यह जीवन का सार।।
६.
मन भीतर रखते छुपा, हमदम की तस्वीर।
बस ये ही तस्वीर है, जीने की तदबीर।।
७.
करी बागबानी बहुत, पर न खिल सके फूल।
क्या कोशिश में कमी, या कुदरत की भूल??
८.
करते शोषण मर्द तो, औरत क्यों बदनाम?
किसने मर्यादा लिखी, औरत के ही नाम??
९.
सबके अपने रंग है, अपने अपने रूप।
अपने-अपने सूर्य हैं, अपनी-अपनी धूप।।
११.
महँगाई के दौर में, सबसे सस्ती जान।
दो रोटी की चाह में, बिक जाता इंसान।।
११.
आँसू पलकों में लिए, हम बैठे चुपचाप।
मेरे दुख को भूल कर, रास रचाते आप।।
१२.
हमने तो बिन स्वार्थ के, किये सभी के काम।
हाथ न आया सुयश हम, मुफ़्त हुए बदनाम।।
१३.
मन को सींचा अश्रु से, पर मुरझाई बेल।
बहुत कठिन लगने लगा, जीवन का कटु खेल।।
१४.
बोलो कैसे निभ सके, पानी के सँग आग?
सुख सँग नाता है यही, डंसते बन कर नाग।
१५.
सूख गए आँसू सभी, आँखों में है प्यास।
बादल भी रूठे हुए, कौन बँधाए आस??
१६.
दुख-धागे चादर बुनी, पकड़े श्वांसें छोर।
सुख से कब सुलझी कहो, उलझी जीवन डोर??
१७..
हम सच बोलें तो उन्हें, क्यों आता है रोष?
अपने कर्मों का सदा, हमको देते दोष।।
१८.
अगिन शिकारी हैं छिपे, यहाँ लगाकर घात।
मन घबराता है बहुत, कौन बचाए तात??
१९.
अपने-गैरों की कहें, कैसे हो पहचान?
अपने धोखा कर रहे, मिले भले अनजान।।
२०.
ज़हर बुझे प्रिय के वचन, चुभते जैसे बाण।
इतनी पीड़ा सह हुए, हाय! प्राण निष्प्राण।।
२१.
चतुर समझता किंतु है, मन मूरख-नादान।
झूठे सारे रूप हैं, झूठी है सब शान।।
२२.
सूखे पोखर-ताल हैं, कहें किसे ये पीर?
और कहीं मिलता नहीं, आँखों में है नीर।।
२३.
फिर आएगी भोर कल, रखें जगाए आस।
बदलेंगे दिन ये कभी, बना रहे विश्वास।।
२४.
छिप न सके पंछी विवश, झरे पेड़ के पात।
निर्दय मौसम दे रहा, बड़े-बड़े आघात।।
२५.
सिर को पकड़े सोचता, बैठा एक गरीब।
कड़ी धूप से बच सकें, करे कौन तरकीब??
२६.
वसुधा तरसे नीर को, खो कर सब सिंगार।
मेघ नज़र आते नहीं, अम्बर के भी पार।।
२७.
थाम लिया पतवार खुद, चले सिंधु के पार।
मन में दृढ़ विश्वास ले, उतर गए मझधार।।
२८.
नीयत कब बदली कहो, बदले कपड़े रोज।
प्रेम हृदय में था नहीं, देखा हमने खोज।।
२९.
दुखे नहीं दिल आपसे, करी ऐसे कर्म।
कर्मों का फल भोगना, पड़ता समझो मर्म।।
३०.
दूजों को देखो नहीं, देखो अपने कर्म।
कुछ भी ऐसा मत करो, खुद पर आये शर्म।।
३१.
चंचल मन कब मानता, पल-पल उड़ता जाय।
छल से जब हो सामना, तब केवल पछताय।।
३२.
चंचलता अभिशाप है, रखना इसका ध्यान।
सोच-समझ कर चल सदा, सच को ले अनुमान।।
३३.
अब तक हमने था रखा, अपने मन पर धीर।
आँखों ने कह दी मगर, तुम से मन की पीर।।
३४.
सबके अपने दर्द हैं, कौन बँधाए धीर?
अपने-अपने दर्द हैं, अपनी-अपनी पीर।।
३५.
जाने क्या-क्या कह गया, बह नयनों से नीर।
हमने कब तुमसे कही, अपने मन की पीर।।
३६.
दिल को छलनी कर गए, कटु वचनों के तीर।
चुप रहकर हम सह गए, फिर भी सारी पीर।।
३७.
सोचा कब परिणाम को, चढ़ा प्रेम का जोश।
अपना सब कुछ खो दिया, जब तक आया होश।।
३८.
दिन भर छत पर पकड़ते, धूपों के खरगोश।
बचपन जैसा अब नहीं, बचा किसी में जोश।।
३९.
सीखो मुझसे तुम जरा, कहता है इतिहास।
अनुभव से मैं हूँ भरा, कल को कर दूँ खास।।
४०.
आनेवाला कल अगर, करना चाहो खास।
एक बार देखो पलट, तुम अपना इतिहास।।
४१.
सौंपा हमने आपको, अपने मन का साज।
मन वीणा में देखिये, सरगम बजती आज।
४२.
गली -गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कुरुक्षेत्र में अब कहो, कहाँ मिलेगी छाँव।।
४३.
युद्ध छिड़ा चारों तरफ, मचा सब तरफ क्लेश।
कुरुक्षेत्र सा दिख रहा, अपना प्यारा देश।।
४४.
मन ने चिट्ठी लिख रखी, गुपचुप अपने पास।
फिर भी हर पल कर रहा, है उत्तर की आस।।
४५.
पाती ही बाँची गई, पढ़े न मन के भाव।
बीच भँवर में डूबती, रही प्रेम की नाव।।
४६.
साथ मिला जो आपका, महक उठे जज़्बात।
होठों तक आई नहीं, लेकिन मन की बात।।
४७.
मन-पंछी नादान है, उड़ने को तैयार।
जब-जब भी कोशिश करी, पंख कटे हर बार।।
४८.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीँ चुभे हैं शूल।।
४९.
महक रहा मन-मोगरा, तन बगिया के बीच।
समय निठुर माली न क्यों, सलिल रहा है सींच??
५०.
वर्षा बरसी प्रेम की, भीगे तन-मन आज।
धीरे-धीरे आज सब, खुले प्रेम के राज।।
५१.
थाम हाथ मन का चलो, राहें हो खुशहाल।
जीवन जीना चाह लें, हम तो सालों साल।।
५२.
सूने मन में खिल रहे, आशाओं के फूल।
बीच भँवर में पात ज्यों, मिल लगते हैं कूल।।
५३.
बैठा था बहुरूपिया, डाले अपना जाल।
भोला मन समझा नहीं, उसकी गहरी चाल।
५४.
प्रेम संग मीठी लगे, सूखी रोटी-प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम ही राज।।
५५.
प्रेम सहित मीठी लगे, सूखी रोटी प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम है राज।।
५६.
गली-गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कहाँ मिले कुरुक्षेत्र में, पहले जैसी छाँव??
५७.
बहा रक्त कुरुक्षेत्र में, मचा भयंकर क्लेश।
मरघट जैसा हो गय , सारा भारत देश।।
५८.
कह दें मन की बात हम, पर समझेगा कौन?
बस इतना ही सोच कर, रह जाते हैं मौन।।
५९.
करो विदा हँस कर मुझे, जाऊँ मथुरा धाम।
राधा रूठोगी अगर, कैसे होगा काम??
६०.
कान्हा तुम छलिया बड़े, छलते हो हर बार।
भोली राधा का कभी, समझ सकोगे प्यार??
६१.
जो तुम यूँ चलते रहे, प्रेम डोर को थाम?
फिर इस जीवन में कहो, दुख का क्या है काम??
६२.
धुँआ-धुँआ सा दिख रहा, अब तो चारों ओर।
जीवन की इस राह का, दिखे न कोई छोर।
६३.
कह पाते हम किस तरह, हैं कितने हैं मजबूर?
जन्मों का है फासला, इसीलिए हैं दूर।।
६४.
चीरहरण होता यहाँ, देखा हर इक द्वार।
बहन बेटियों का सुनो, हो जाता व्यापार।।
६५.
बे-मतलब लेता यहाँ, कौन किसी का नाम।
दरवाज़े पर तब दिखे, जब पड़ता है काम।।
६६.
बोलो! कैसे सौंप दें, मन जब पाया श्राप?
मन से मन को जोड़कर, सुख पायेंगे आप??
६७.
कोई अब रखता नहीं, मन दरवाजे दीप।
गहन अँधेरा छा गया, टूटी मन की सीप।।
६८.
भूखा पेट न देखता, दिवस हुआ या रात?
आँतों को रोटी मिले, तब समझे वह बात।।
६९.
कड़वी यादें आज सब, नदिया दिये सिराय।
अच्छा-अच्छा गह चलो, यही बड़ों की राय।।
७०.
अपनी-अपनी ढपलियाँ, अपने-अपने राग।
अँधियारी दीवालियाँ, गूँगे होली-फ़ाग।
७१.
बौराया सावन फिरे, बाँट रहा सन्देश।
प्रेम लुटाता फिर रहा, धर प्रेमी का भेष।।
७२.
बूँदों की बौछार से, तन-मन जाता भीज।
कर सोलह श्रृंगार 'मन', आई सावन तीज।।
७३.
जग के छल सहते रहे, फिर भी देखे ख्वाब।
काँटों पर ही देखिये, खिलते सदा गुलाब।।
७४.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीं चुभे हैं शूल।।
७५.
जीवन विष का है असर, नीले सारे अंग।
जिन जिनको अपना कहा, निकले सभी भुजंग।।
७६.
कागज पर लिखते रहे, अंतर्मनबात।
जग जिसको कविता कहे, पीड़ा की सौगात।।
७७.
ढलती बेरा में यहाँ, कब ले कोई नाम?
उगते सूरज को रहे, करते सभी सलाम।
७८.
ढूँढें बोलो किस तरह, कहाँ मिले आनन्द?
सब ही रखते हैं यहाँ, मन के द्वारे बन्द।।
७९.
दुख अपना देता रहा, जीवन का आनन्द।
सुख छलिया ठगता रहा, आया नहीं पसन्द।।
८०.
मुरझाये से हैं सभी, साथी फूल गुलाब।
पलकों में चुभने लगे, टूटे रूठे ख्वाब।।
८१ .
मेरे ग़म का आप 'मन', सुन लें ज़रा हिसाब।
जीने को कब चाहिए, जमजम वाला आब।।
८२.
जंगल-जंगल देखिये, बहका फिरे बसन्त।
टेसू दहके आग सा, जागी चाह अनन्त।।
८३.
जागो लो फिर आ गई, प्यारी सी इक भोर।
फूला-महका मोगरा, पंछी करते शोर।।
८४.
नस-नस में बहने लगा, अब वो बनकर पीर।
होंठो पर कुछ गीत हैं, आँखों में है नीर।।
८५.
रोजी-रोटी के लिए, तज आए थे गाँव।
कहाँ छुपाकर अब रखें, छालों वाले पाँव??
८६.
छाँव नहीं पाई कहीं, ऐसे मिले पड़ाव।
बीच भँवर में डोलती, जीवन की यह नाव।।
८७.
कैसी है यह ज़िन्दगी, पल-पल बदले रूप।
पल-दो पल की छाँव है, शेष समूची धूप।।
८८.
एक जुलाहा बैठ कर, स्वप्न बुने दिन-रैन।
मन बाहर झाँके नहीं, पाए कहीं न चैन।।
८९.
मिले नहीं हम आप से, मिले नहीं हैं नैन।
जब से मन में तुम बसे, कहीं न मन को चैन।
९०.
वारेंगे हम ज़िन्दगी, तुम पर सौ-सौ बार।
तेरी खातिर जी रहे, साँसे लिए उधार।
९१.
द्वारे पर बैठे लिए, अपने मन का दीप।
यादों के मोती सजे, नैनों की है सीप।।
९२.
बुझ जाएगा देखिये, आँखों का यह नूर।
मन दीपक बुझने लगा, होकर तुमसे दूर।।
९३.
मिलकर ही रौशन हुए, दीपक-बाती तेल।
जग उजियारा कर सके, तेरा-मेरा मेल।।
९४.
मैली तन-चादर हुई, सौ-सौ मन पर दाग।
तुझको कुछ अर्पित करूँ, मिला न ऐसा भाग।।
९५.
मालाएँ फेरीं बहुत, खूब जपा था नाम।
मन-भीतर छुपकर रहे, बड़ा अजब है श्याम।।
९६.
चिंगारी बाकी न थी, खूब कुरेदी राख।
मुरझाया हर पात था, मुरझाई थी शाख।।
९७.
गरल रोककर कण्ठ में, बाँट रहे मुस्कान।
ठोकर खा सीखे बहुत, जीवन का हम ज्ञान।।
९८.
उड़ अम्बर की ओर तू, ऐ मन! पंख पसार।
बैठे से मिलता नहीं, इस जीवन का सार।
९९.
चलने से थकना नहीं, चलना अच्छी बात।
बीतेंगे तू देखना, दुख के ये हालात।
१००.
आँखों ने पाई बहुत, आँसू की बरसात।
मेघों ने भी खूब दी, पीड़ा की सौगात।।
१०१.
मन की पीड़ा को मिली, मेघों से सौगात।
आँखों से बरसी बहुत, आँसू की बरसात।।
१०२.
बहा पसीना गाइये, आशाओं के गीत।
हो जाएगी एक दिन, उजियारे की जीत।।
१०३.
वाणी भी मीठी नहीं, कहे न मीठे बोल।
कड़वे इस संसार में, रे मन! मिसरी घोल।।
१०४.
सारा दिन खटती रहे, मिले नहीं आराम।
नारी जीवन में लिखा, काम काम बस काम।।
१०५.
पत्थर को पूजा बहुत, मिले नहीं भगवान।
मन-भीतर झाँका ज़रा, प्रभु के मिले निशान।।
१०६.
भूखे किसी गरीब घर, मने नहीं त्यौहार।
और अमीरों के यहाँ, हर दिन सजे बहार।।
१०७.
तन कोमल मिट्टी रचे, मन पाषाण कठोर।
ऊपर से भोले दिखें, अंदर बैठा चोर।।
१०८.
लोग मिले जो दोगले, रखना मत कुछ आस।
जो दो-दो सूरत रखें, उनका क्या विश्वास।।
१०९.
तेरह किसको चाहिए, कब चाहें हम तीन?
अपने साहस से करें, जीवन को रंगीन।।
११०.
पाँवों के छाले कहें, हमें न देखो आप।
बाकी है लम्बी डगर, झटपट लो 'मन' नाप।।
१११.
रिश्ते-नाते दे भुला, पद-कुर्सी का प्यार।
होता पद की आड़ में, रिश्तों का व्यापार।।
-- -- -00- -- --

रविवार, 7 अक्टूबर 2018

muktak

मुक्तक
*
चुप्पियाँ बहुधा बहुत आवाज़ करती हैं
बिन बताये ही दिलों पर राज करती हैं
बनीं-बिगड़ी अगिन सरकारें कभी कोई
आम लोगों का कहो क्या काज करती हैं?
*

आमंत्रण: छ्न्दोत्सव लखनऊ

आमंत्रण:
छ्न्दोत्सव लखनऊ
============================================ 

अभिव्यक्ति विश्वम लखनऊ - विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
---------:: छ्न्दोत्सव २०१८ ::------------ 
स्थान: गुलमोहर ग्रीन स्कूल, ओमेक्स सिटी, बिजनौर मार्ग, 


शहीद पथ लखनऊ। 
रविवार २१.१०,२०१८, प्रात: ११ बजे से। पंजीयन राशि ५००/- ।
विषय: छंद क्या, क्यों कैसे? दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया के संदर्भ में
संयोजन / संचालन: पूर्णिमा बर्मन जी, लखनऊ,
वार्ताकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४,  

सहयोगी- सर्वश्री / श्रीमती / सुश्री संजीव 'तनहा' ९८७०६०२६३५ , प्रो. विश्वंभर शुक्ल, डॉ, हरि फैज़ाबादी, मेधा नारायण,
कार्यावली:
उपस्थिति पंजीयन, चाय पूर्वान्ह ११ बजे-११.३० बजे
पूर्वान्ह सत्र: पूर्वान्ह ११.३० बजे-अपरान्ह १.३० बजे
सरस्वती पूजन
परिचय
कृति लोकार्पण- दोहा शतक मञ्जूषा ३ भाग (दोहा-दोहा नर्मदा, दोहा सलिला निर्मला, दोहा दिव्य दिनेश) 
विमर्श- छंद क्या, क्यों कैसे? दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया के संदर्भ में  अपरान्ह ११.३० - १.३० बजे।  
अंतराल: भोजन - अपराह्न १:३० से २:३० तक
अपराह्न सत्र- अपराह्न २:३० से ४:३० तक
विमर्श- सोरठा, रोला और कुण्डलिया का रचना विधान।
- प्रश्नोत्तर।
- सहभागियों द्वारा दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया पाठ।
समापन- चाय।
टीप- लोकार्पित कृतियाँ ५०% रियायती मूल्य पर उपलब्ध होंगी।
पंजीयन राशि ५००/- भेजकर यथा शीघ्र पंजीकरण करा लें ताकि दोपहर भोजन व चाय व्यवस्था की जा सके। 
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर 

समन्वय अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४ 
: मात्रा गणना नियम :
१. ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है। २. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अपेक्षाकृत अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं।
३. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे ध्वनि = १ +१ =२, क्षमा १+२, गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है। इस सारस्वत अनुष्ठान में आपका स्वागत है। कोई शंका होने पर संपर्क करें। ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.co
४. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहलेवाले अक्षर के साथ गिनें। जैसे- वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
५. रेफ को आधे अक्षर की तरह उससे पहले वाले वर्ण के साथ गिनें, पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई प्रभाव नहीं होता। बर्रैया २+२+२, गर्राहट २+२+१+१ = ६, चर्रा २+२ = ४, अर्कान २+२+१ = ५ आदि।
६. अनुस्वर (बिंदी) जिस अक्षर पर हो वह लघु हो तो गुरु हो जाता है। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४, प्रियंवदा १+२+१+२ = ६, आदि। 
७. अपवाद स्वरूप उच्चारण के अनुसार कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५ आदि।
८. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २ आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
*****
: दोहा लेखन विधान :
१. दोहा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं कथ्य व लय। कथ्य को सर्वोत्तम रूप में प्रस्तुत करने के लिए ही विधा (गद्य-पद्य, छंद आदि) का चयन किया जाता है। कथ्य को 'लय' में प्रस्तुत किया जाने पर 'लय' में अन्तर्निहित उच्चार में लगी समयावधि की गणना के अनुसार छंद-निर्धारण होता है। छंद-लेखन हेतु विधान से सहायता मिलती है। रस, अलंकार, बिंब, प्रतीक, मिथक आदि लालित्यवर्धन हेतु है। कथ्य, लय व विधान से न्याय जरूरी है।
२. दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। हर पद में दो चरण होते हैं।
३. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। सामान्यत: प्रथम चरण में कथ्य का उद्भव, द्वितीय-तृतीय चरण में विस्तार तथा चतुर्थ चरण में उत्कर्ष या समाहार होता है।
४. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
५. विषम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण में कल-बाँट ३ ३ २ ३ २ तथा सम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण में कल बाँट ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों की कल-बाँट ४ ४.३ या ३३ ३ २ ३ होने पर लय सहजता से सधती है। अन्य कल बाँट वर्जित नहीं है
६. परम्परानुसार तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है। पदारंभ में 'इसीलिए' वर्जित, 'इसी लिए' मान्य। ७. विषम चरणांत में 'सरन' तथा सम चरणांत में 'जात' से लय साधना सरल होता है है किंतु अन्य गण-संयोग वर्जित नहीं हैं।
८. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथासंभव न करें। औ', ना, इक वर्जित, अरु, न, एक सही।
९. हिंदी व्याकरण तथा मात्रा गणना नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
१०. आधुनिक हिंदी / खड़ी बोली में खाय, मुस्काय, आत, भात, आब, जाब, डारि, मुस्कानि, हओ, भओ जैसे देशज / आंचलिक क्रिया-रूपों का उपयोग न करें किंतु अन्य उपयुक्त आंचलिक शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। बोलियों में दोहा रचना करते समय उस बोली का यथासंभव शुद्ध-सरल रूप व्यवहार में लाएँ।
११. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१२. श्रेष्ठ दोहे में अर्थवत्ता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता, आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता, सरलता व सरसता हो।
१३. दोहे में अनावश्यक शब्द का प्रयोग न हो। शब्द-चयन ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा अधूरा सा लगे।
१४. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६ आदि।
१५. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।
१६. दोहा सम तुकांती छंद है। सम चरण के अंत में सामान्यत: वार्णिक समान तुक होना बेहतर है। संगीत की बंदिशों, श्लोकों आदि में मात्रिक समान्त्तता भी रखी जाती रही है।
१७. पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता। लयभिन्नता स्वीकार्य है, लयभंगता नहीं।
***
- : दोहा शतक मंजूषा : -
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में समकालिक १५-१५ दोहाकारों के १००-१०० दोहे, एक पृष्ठीय टिप्पणी, एक पृष्ठ पर चित्र-परिचय व उपयोगी शोध सामग्री सहित दस-दस पृष्ठों पर संकलित-संपादित कर संकलन प्रकाशित किए जा रहे हैं। अब तक दोहा पर केन्द्रित इतना व्यवस्थित-विराट अनुष्ठान (४९८० दोहे) पहली बार हुआ है। ये संकलन दोहा के अजायबघर नहीं, दोहा शतक क्यारी, संग्रह उद्यान तथा उद्यान और संकलन-अनुष्ठान खेत की तरह हैं। अब तक ३ भाग दोहा-दोहा नर्मदा २५०/-, दोहा सलिला निर्मला २५०/- व दोहा दिव्या दिनेश ३००/- प्रकाशित किये जा चुके हैं। तीनों भाग लेने पर ५०% मूल्य पर पैकिंग-डाक व्यय की छूट सहित प्राप्त है। भाग ४ हेतु सामग्री संकलित की जा रही है। संकलन प्रकाशित होने पर समें सम्मिलित हर सहभागी को ११ प्रतियाँ निशुल्क भेंट की / भेजी जाएँगी।
सहभागिता के इच्छुक दोहाकारों से १२० दोहे ( १०० चयनित दोहे प्रकाशित होंगे), चित्र, संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्म तिथि व स्थान, माता-पिता, जीवन-साथी व काव्य गुरु के नाम, शिक्षा, लेखन विधा, प्रकाशित कृतियाँ, विशेष उपलब्धि, पूरा पता, चलभाष, ईमेल आदि) आमंत्रित हैं। दोहे स्वीकार्य होने पर हर सहभागी ३०००/- अग्रिम सहयोग राशि देना बैंक, राइट टाउन शाखा जबलपुर IFAC: BKDN ०८११११९ में संजीव वर्मा के खाता क्रमांक १११९१०००२२४७ में अथवा नकद जमा करें। संपादन वरिष्ठ दोहाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' तथा डॉ. प्रो. साधना वर्मा द्वारा किया जा रहा है। आवश्यकतानुसार संपादकीय संशोधन स्वीकार्य हों तो ही आप सादर आमंत्रित हैं। दोहे unicode में टंकित कर ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com पर चित्र-परिचय सहित भेजें, चलभाष ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४ । भारतीय बोलियों / अहिंदी भाषाओँ के दोहे देवनागरी लिपि में आंचलिक शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में देते हुए भेज सकते हैं।
दोहा शतक मञ्जूषा १ 'दोहा-दोहा नर्मदा' २५०/- : सहभागी सर्वश्री/सुश्री/श्रीमती १. आभा सक्सेना 'दूनवी' देहरादून, २. कालिपद प्रसाद हैदराबाद, ३. डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल' कोटा, ४. चंद्रकांता अग्निहोत्री पंचकूला, ५.छगनलाल गर्ग 'विज्ञ' सिरोही, ६. छाया सक्सेना 'प्रभु' जबलपुर, ७. त्रिभुवन कौल नई दिल्ली, ८. प्रेमबिहारी मिश्र नई दिल्ली, ९. मिथिलेश बड़गैया जबलपुर, १०. रामेश्वरप्रसाद सारस्वत सहारनपुर, ११. विजय बागरी कटनी, १२. विनोद जैन 'वाग्वर' सागवाड़ा, १३. श्रीधर प्रसाद द्विवेदी डाल्टनगंज, १४. श्यामल सिन्हा गुरु ग्राम, १५. सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' जबलपुर।
दोहा शतक मञ्जूषा २ 'दोहा-सलिला निर्मला' २५०/- सहभागी सर्वश्री/सुश्री/श्रीमती १. अखिलेश खरे 'अखिल' कटनी, २. अरुण शर्मा भिवंडी, ३. इंजी. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' जबलपुर, ४. ॐ प्रकाश शुक्ल नई दिल्ली, ५. जयप्रकाश श्रीवास्तव जबलपुर, ६. नीता सैनी नई दिल्ली, ७. डॉ. नीलमणि दुबे शहडोल, ८. बसंत शर्मा जबलपुर, ९. राम कुमार चतुर्वेदी सिवनी, १०. रीता सिवानी नोएडा, ११. शुचि भवि भिलाई, १२. प्रो. शोभित वर्मा जबलपुर, १३. सरस्वती कुमारी ईटानगर, १४. हरि फैजाबादी लखनऊ, १५. हिमकर श्याम रांची।
दोहा शतक मञ्जूषा ३ 'दोहा दीप्त दिनेश' ३००/-, सहभागी सर्वश्री / सुश्री / श्रीमती १. अनिल कुमार मिश्र उमरिया, २. इंजी. अरुण अर्णव खरे भोपाल, ३. अविनाश ब्योहार जबलपुर, ४. इंजी. इंद्र बहादुर श्रीवास्तव जबलपुर, ५. कांति शुक्ल 'उर्मि' भोपाल, ६. इंजी. गोपालकृष्ण चौरसिया 'मधुर' जबलपुर, ७. डॉ. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' जबलपुर, ८. डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल मुंबई, ९. मनोज कुमार शुक्ल जबलपुर, १०. महातम मिश्र अहमदाबाद, ११.राजकुमार महोबिया उमरिया, १२. रामलखन सिंह चौहान उमरिया, १३. प्रो. विश्वंभर शुक्ल लखनऊ, १४. शशि त्यागी अमरोहा, १५. संतोष नेमा जबलपुर।
दोहा शतक मञ्जूषा ४- संभावित दोहाकार: सर्वश्री / सुश्री / श्रीमती संजीव 'तनहा', लता यादव गुरुग्राम, सुमन श्रीवास्तव लखनऊ., डॉ. रमन चेन्नई, शेख शहजाद उस्मानी, मिली भटनागर मुजफ्फरपुर, शुभदा बाजपेई. रमेश विनोदी कपूरथला, सविता तिवारी मारीशस, डॉ. वसुंधरा उपाध्याय पिथोरागढ़, पूजा अनिल स्पेन आदि। 
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karya shala- doha/rola/kundaliya

कार्यशाला- दोहा / रोला / कुण्डलिया
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सलिल सिक्त दोहे सभी , अतिशय गरिमावान। नमन लेखनी को करूँ , रचना का गुणगान॥ -शंकर ठाकुर चंद्रविंदु रचना का गुणगान, करें ठाकुर जी विस्मय। ठाकुर रचनाकार, जगत के वर दें अक्षय।। शंकर कंकर बसें, चंद्र बिंदु धारे अभी। अतिशय गरिमावान, सलिल-सिक्त दोहे सभी।।-संजीव
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७.१०.२०१८

doha kisan

दोहा सलिला
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भूमिपुत्र क्यों सियासत, कर बनते हथियार।
राजनीति शोषण करे, तनिक न करती प्यार।।
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फेंक-जलाएँ फसल मत, दें गरीब को दान
कुछ मरते जी सकें तो, होगा पुण्य महान।।
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कम लागत हो अधिक यदि, फसल करें कम दाम
सीधे घर-घर बेच दें, मंडी का क्या काम?
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मरने से हल हो नहीं, कभी समस्या मान
जी-लड़कर ले न्याय तू, बन सच्चा इंसान।।
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मत शहरों से मोह कर, स्वर्ग सदृश कर गाँव
पौधों को तरु ले बना, खूब मिलेगी छाँव।।
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७.१०.२०१८

smruti geet

स्मृति-गीत
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शत-शत नमन पूज्य माँ-पापा
यह जीवन है
देन तुम्हारी.
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वसुधा-नभ तुम, सूर्य-धूप तुम
चंद्र-चाँदनी, प्राण-रूप तुम
ममता-छाया, आँचल-गोदी
कंधा-अँगुली, अन्न-सूप तुम
दीप-ज्योति तुम
'मावस हारी
*
दीपक-बाती, श्वास-आस तुम
पैर-कदम सम, 'थिर प्रयास तुम
तुमसे हारी सब बाधाएँ
श्रम-सीकर, मन का हुलास तुम
गयी देह, हैं
यादें प्यारी
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तुममें मैं था, मुझमें तुम हो
पल-पल सँग रहकर भी गुम हो
तब दीखते थे आँख खोलते
नयन मूँद अब दीखते तुम हो
वर दो, गहें
विरासत प्यारी
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रहे महकती सींचा जिसको
तुमने वह
संतति की क्यारी
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७.१०.२०१८

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

doha geet

दोहा गीत-
बंद बाँसुरी
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बंद बाँसुरी चैन की, 
आफत में है जान। 
माया-ममता घेरकर,
लिए ले रही जान।।
*
मंदिर-मस्जिद ने किया, प्रभु जी! बंटाधार
यह खुश तो नाराज वह, कैसे पाऊँ पार?
सर पर खड़ा चुनाव है,
करते तंग किसान
*
पप्पू कहकर उड़ाया, जिसका खूब मजाक
दिन-दिन जमती जा रही, उसकी भी अब धाक
रोहिंग्या गल-फाँस बन,
करते हैं हैरान
*
चंदा देते सेठ जो, चाहें ऊँचे भाव
जनता का क्या, सहेगी चुप रह सभी अभाव
पत्रकार क्रय कर लिए,
करें नित्य गुणगान
*
तिलक जनेऊ राम-शिव, की करता जयकार
चैन न लेने दे रहा, मैया! चतुर सियार
कैसे सो सकता कहें,
लंबी चादर तान?
*
गीदड़ मिलकर शेर को, देते धमकी रोज
राफेल से कैसे बचें, रहे तरीके खोज
पाँच राज्य हैं जीतना
लिया कमल ने ठान
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geet pairody

एक गीत -एक पैरोडी
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ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
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पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
*
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
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karya shala- doha / rola / kundaliya

कार्यशाला-
दोहा / रोला / कुण्डलिया
शब्द-शब्द प्रांजल हुए, अनगिन सरस श्रृंगार।
सलिल सौम्य छवि से द्रवित, अंतर की रसधार।।-अरुण शर्मा                                                                                                  अंतर की रसधार,  न सूखे स्नेह बढ़ाओ।                                                                                                                          मिले शत्रु यदि द्वार, न छोड़ो मजा चखाओ।।                                                                                                                      याद करे सौ बरस, रहकर वह बे-शब्द।                                                                                                                               टेर न पाए खुदा को, बिसरे सारे शब्द।।              - संजीव  
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शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

karyashala doha / rola / kundaliya

कार्यशाला- दोहा / रोला/ कुण्डलिया
मन का डूबा डूबता , बोझ अचिन्त्य विचार ।
चिन्तन का श्रृंगार ही , देता इसे उबार ॥         -
शंकर ठाकुर चन्द्रविन्दु                                                                                              देता इसे उबार, राग-वैराग साथ मिल।                                                                                                                                            तन सलिला में कमल, मनस का जब जाता खिल                                                                                                                    चंद्रबिंदु शिव भाल, सोहता सलिल-धार बन।                                                                                                                               उन्मन भी हो शांत, लगे जब शिव-पग में मन।  -संजीव वर्मा 'सलिल'

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५.१०.२०१८ 

PREFACE "THE SECOND THOUGHT"

PREFACE
"THE SECOND THOUGHT" - Portrait of real life 
Acharya Sanjiv Verma 'Salil'
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                       A commoner relates Poetry with imagination rather than the realities of life but in his second poetry collection titled "the Second Thought" Pro. Anil Jain contradict it by giving poems related with day to day life. He has successfully and very beautifully used the famous lines by notable western poets Becon, Wordsworth, Shelley, James Hadley Chase, Irving Washington, Irving Wallace etc. in Present Indian contexts proving that poetry is eternal and can't be imprisoned in the cages of nations, colour or creeds. 
                       
                       We are all worried about position of women in the Indian society as well as exploitation and crimes against women. According to Anil ji the reason behind this scenario is that every man wants a woman of his dreams, see her through the eyes of his imagination and try to fix her in the casing. It is really sad that in a society where women are termed goddess saying "yatra naaryastu poojyante ramante tatra devata" i.e. God live there where women are worshiped, they are suffering beyond limits. None can appreciate this. It is miserable that women are bound to say "I am ashamed of myself." This ugly  and unwanted social scenario gives birth to so called "stree vimarsh" (clash between men and women). 
                       
                       Anil ji being a profesor, is closely connected with our education system. He rightly raise finger on the system saying "You are breeding only servants / You have no enterpreneurship."

                       In another poem Anil ji describes about lives of maid servants- "She came every morning / And worked hard / From dawn to dusk / She never complained / And sing all along / While she works."But what she got in receprocation? Only hatrat and exploitation by all her husband, society ant master, Ultimately resulting in "She does / Neither work / Nor sing." This is the real picture of our society and we all have to change it. ee
                       All these poems look the life with a different angel and give a healthy thought to make it better. We are rapidly getting  alchohalic to web world and our routine is disturbed, Anil ji is worried looking the ill effects increasing day by day. He correctly warns- "We had our line crossed / While surfing / And caught in the web."

                       Sometimes we are made bound to face the so called "swadeshi" instinct when mob compel us not to use foreign made material though it is permitted by the government. Anil ji condem such activity saying- "they have stopped using electricity / For it was invented by an infidal / And living in the dark." Anil ji correctly warns us to be practical and broad minded. 

                       Acharya Chatursen a prominent Hindi novelist critisised narrow nationalism as an evil as it killed numberless people on borders. Anil ji take one step forward saying " The globe is defining itself / A new.... Nations internationalized / No discrimination of cultures." just following Vedik ideal "Vasudhaiv kutumbakam and Vishvaik needam" etc. 

                      In all the four parts titled Pal, Fantasy, Harmony and Passing away Anil ji  used the notable lines of great poets in such a way that they became indifferent and integral part of the poems. 

                      In the age when we are being divided on the name of languages by the narrow minded, power oriented politicians, it is really courageous to take a step forward in the interest of man kaind as a whole. I'm sure that the poems of "The Second tThought" wiill be admired by the readers. 
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गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

kaarya shala- srugvini / arun chhand

कार्यशाला: ४ / १० / १८
एक गीत दो छंद
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प्रस्तुत है माननीय सुधा अहलूवालिया जी द्वारा रचित एक गीत।
सुधा जी की अनुमति से इस गीत में छंद की पहचान का प्रयास किया जा रहा है।
छंद वाचिक स्रग्विणी ( सम मात्रिक ) मापनी - २१२ २१२ २१२ २१२
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है नहीं आसरा अब दिवा-कोण का। २१२ २१२ १११२ २१२
धुन्ध छाई हुई रवि-किरण मौन है। २१२ २१२ १११११ २१२
कौन जाने कहाँ जा रही ये डगर- २१२ २१२ २१२ २१११
कौन जाने किधर अब खड़ा कौन है॥ २१२ १११११ १११२ २१२
है नहीं .....
आँख पानी भरी आज तर हो गई। २१२ २१२ २१११ २१२
चुप अधर हो गए गुम डगर हो गई। १११११ २१२ १११११ २१२
घर हुए आज कैसे किसे है पता- १११२ २१२ २१२ २१२
कौन छोटा यहाँ अब बड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
आ चलें प्रिय वहीं दूर कोई न हो। २१२ १११२ २१२ २१२
जागती हो दिशा, साँझ सोई न हो। २१२ २१२ २१२ २१२ *
है विरह वेदना जो मनों में दबी- २११११ २१२ २१२ २१२
आ प्रिये बाँट लें अब अड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
मैं पवन का प्रिये शुचि सजल वेग हूँ। २१११ २१२ २१२ २१२
तू सुमन मैं प्रिये बस सरस नेग हूँ। २१११ २१२ १११११ २१२
हैं समाहित सुनों प्रिय हुए एक हम- २१२ १११२ १११२ २१११
देख शुचिता सुभग अब लड़ा कौन है २१११ २१११ १११२ २१२
है नहीं .....
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स्रग्विणी छन्द का विधान ४ x रगण अर्थात ४ (२१२) है.
तारांकित * पंक्ति के अलावा किसी भी पंक्ति में इस विधान का पूरी तरह पालन नहीं किया गया है।
स्रग्विणी का उदाहरण देखें -
अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिं.
इसकी मात्रा गणना देखें -
अच्युतं २१२ केशवं २१२ रामना २१२ रायणं२१२. कृष्ण दा २१२ मोदरं २१२ वासुदे २१२ वं हरिं २१२.
यहाँ गण-व्यवस्था का शत-प्रतिशत पालन किया गया है। स्पष्ट है कि दो लघु को गुरु या गुरु को दो लघु नहीं किया जा सकता किंतु गण का अंत या आरंभ शब्द के बीच में हो सकता है। ऐसे स्थिति में पढ़ते समय अल्प वीरान गण के संधि स्थल पर होता है।
क्या हिंदी में छंद रचते समय भी ऐसा ही नहीं किया जाना चाहिए? आइए, उक्त गीत के प्रथम पद को स्रग्विणी छंद में रूपांतरित करें-
रे! नहीं आसरा है दिवा-कोण का।
धुन्ध छाई हुई सूर्यजा मौन है।
कौन जाने कहाँ जा रही राह ये-
कौन जाने कहाँ तू खड़ा कौन है॥
यदि रचनाकार आरम्भ से ही सजग हो तो शुद्ध छंद में रचना की जा सकती है।
यह सरस गीत अरुण छंद के भी निकट है। जिन्हें रुचि हो वे अरुण और स्रग्विणी छंदों का तुलनात्मक अध्ययन (समानता और असमानता) कर सकते हैं।
इस अध्ययन हेतु अपना गीत उपलब्ध करने के लिए सुधाजी के प्रति पुन: आभार।
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कार्यशाला

​कार्यशाला- दोहा / रोला / कुण्डलिया 
रोगों से बचना अगर, पैदल चलिए रोज ।
मन में रहे प्रसन्नता, तन में रहता ओज ।। ​-कैलाश गिरि गोस्वामी ​                                           
तन में रहता ओज, समय पर खाएँ भोजन।                                                                                करें शयन से पूर्व, ईश-महिमा का गायन।।                                                                                 बस संयम-'कैलाश', बचे रहिए रोगों से।                                                                                    बनें जीव 'संजीव' रहिए रोगों से भोगों से।।​ -संजीव 'सलिल'​