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मंगलवार, 8 मई 2018

दोहांतरण

आज की कार्य शाला:
कविता का दोहांतरण  
निःशब्द आहट (कविता )
















वीणा विज 'उदित'
लाहौर में जन्मी वीना मैनी, प्रारम्भिक शिक्षा कटनी मध्यप्रदेश, स्नाकोत्तर शिक्षा जबलपुर विश्वविद्यालय से ,।एम् एड में विश्व विद्यालीय स्वर्ण -पदक। भरत-नाट्यम नृत्य व नाटकों में गहन अभिरुचि, अनेक ईनाम। नैशनल कैडेट कोर में सीनियर मोस्ट अंडर आफीसर, मध्य प्रदेश का प्रतिनिधित्व, श्रेष्ठ कैडेट। विवाहोपरांत वीना विज, १९८३ दूरदर्शन व आकाशवाणी जालंधर से जुडी। कटनी में बाड्सले स्कूल एवं जालंधर में एपीजे स्कूल में अध्यापन।सन् २००० तक ढेरों नाटकों टेली–फिल्मों, धारावाहिकों व कई पंजाबी फिल्मों में अभिनय। स्टार-प्लस व लिश्कारा चैनलों पर भी स्टार बेस्ट सैलर और ५२ किश्तों का धारावाहिक ‘वापसी’ किया, लेखन भी। आकाशवाणी जालंधर से कविता-पाठ। सन् २००३ ह्यूस्टन टेक्सास (यूं एस) कवि-सम्मेलन में वाहवाही।
*
शैवालों से घिरा हृदय ऊहापोह में
नैराश्य के भँवर में डोल रहा
संवेदनाएं संघर्षरत उभरने को
अन्तर् -आंदोलित मथित छटपटाहट -।
आते हैं चले जाते हैं भाव-ज्वार
हालात नहीं कलम उठा करूँ अभिव्यक्त
कब मिला आसमां ज़मीं को मेरी
अव्यक्त रहने की बोझिल उकताहट -।
बो दिए हैं दरीचों में रिसते ख्वाब
पढ़ेगा कौन शब्द ,होकर आत्मसात
दरारों में छिपी व्यथा- गाथा ज़मीं की
विह्वल हो उठी लख बेचैन अकुलाहट -।
हर दीवार इक अक्स छाप देती
इक इबारत हर सूँ नज़र आती
शरद वरद हस्त उड़ेलता शब्द विन्यास
ज्यूं कमल में भ्रमर की उद्वेलित झटपटाहट-।
रह जातीं त्वरित भाव-व्यंजनाएँ अधूरी
मौलिक विचारों की निर्वात कविताएं नहीं पूरी
अन्तस की गहन अनुभूतियाँ हो मुखर
सुनतीं हृदय व्यथा कथा की निःशब्द आहट-।।
*७.५.२०१८*
दोहांतरण












दोहांतरणकर्ता: संजीव 
*
उहापोह में घिर ह्रदय, शैवालों के बीच। 
डोल निराशा भँवर में, रहा आस नव सीच।।
संघर्षित संवेदना, चाहे पुन: उभार।
अंतर आंदोलित-मथित, रहा छटपटा ज्वार।। 
पा न सकी मन की जमीं, नभ; ऐसी अभिशप्त?
कलम उठा कैसे करे, मनोभाव अभिव्यक्त?
रह अव्यक्त उकता रही, बैठ दरीचा खोल। 
आत्मसात कर पढ़ेगा, शब्द कौन? कुछ बोल।।
व्यथा-कथा चुप जमीं की, विव्हल-अकुला खीझ।    
देख रही दीवार हर, अक्स छापती रीझ।। 
हर सूं आती है नज़र, एक इबारत ख़ास। 
शरद वरद कर उड़ेले, रचे शब्द-विन्यास।। 

उद्वेलित छटपटाता, भ्रमर कमल में कैद।  
भाव-व्यंजना अधूरी, त्वरित रहीं नापैद।।
मौलिक चिंतन बिन हुईं, कविताएँ निर्वात। 
अंतर की अनुभूतियाँ, गहन मुखर जज्बात।।
व्यथा-कथा सुन ह्रदय की, बिन आहात हैं मौन। 
वीणा गुंजित तार बिन, संजीवित सुर कौन?
*८.५.२०१८*  

सोमवार, 7 मई 2018

दोहा सलिला


प्रीतम की छवि देखकर, निशि दिन बरसें नैन।।
*
कल की फिर-फिर कल्पना, कर न कलपना व्यर्थ।
मन में छवि साकार कर, अर्पित कर कुछ अर्ध्य।।
*
जब तक जीवन-श्वास है, तब तक कर्म सुवास।
आस धर्म का मर्म है, करें; न तजें प्रयास।।
*
मोह दुखों का हेतु है, काम करें निष्काम।
रहें नहीं बेकाम हम, चाहें रहें अ-काम।।
*
खुद न करें निज कद्र गर, कद्र करेगा कौन?
खुद को कभी सराहिए, व्यर्थ न रहिए मौन.
*
प्रभु ने जैसा भी गढ़ा, वही श्रेष्ठ लें मान।
जो न सराहे; वही है, खुद अपूर्ण-नादान।।
*
लता कल्पना की बढ़े, खिलें सुमन अनमोल।
तूफां आ झकझोर दे, समझ न पाए मोल।।
*
क्रोध न छूटे अंत तक, रखें काम से काम।
गीता में कहते किशन, मत होना बेकाम।।
*
जिस पर बीते जानता, वही; बात है सत्य।
देख समझ लेता मनुज, यह भी नहीं असत्य।।
*
भिन्न न सत्य-असत्य हैं, कॉइन के दो फेस।
घोडा और सवार हो, अलग न जीतें रेस।।
***
७.५.२०१८
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८

रविवार, 6 मई 2018

भारत विभाजन: सत्य ?

भारत के विभाजन का सत्य:
दो देशों का सिद्धांत: प्रतिपादक सावरकर, समर्थक हिन्दू महासभा,
पाकिस्तान बनाने पर क्रमश: सहमत हुए: सरदार पटेल, नेहरू, राजगोपालाचारी. इनके बाद जिन्ना,
अंत तक असहमत गांधी जी, लोहिया जी, खान अब्दुल गफ्फार खान,
लाहौर से ढाका तक एक राज्य बनाने तक अन्न-लवण न खाने का व्रत लेने और निभानेवाले स्वामी रामचंद्र शर्मा 'वीर' (आचार्य धर्मेन्द्र के स्वर्गवासी पिता).
इतिहास पढ़ें, सचाई जानें।

शनिवार, 5 मई 2018

ओशो चिंतन: दोहा मंथन १

ओशो चिंतन: दोहा मंथन १. 
लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।   
रीति का मजा खूब लो 
*
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ। 
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।  
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप। 
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल। 
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल। 
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र। 
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम। 
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम। 
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष। 
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास। 
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त? 
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।   
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात। 
मोर नाचता पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन। 
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद। 
मानव ले तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग। 
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक। 
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखी इसको ताक।।
पंख मोर के किंतु है, मादा पंख-विहीन। 
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार। 
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश। 
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।' 
मुनि कठोर पाबन्द हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम। 
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।  
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल। 
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
५-५-२०१८ 

शुक्रवार, 4 मई 2018

दोहा शतक: २ छाया सक्सेना

दोहा शतक: २ छाया सक्सेना

*
जय जय जय माँ शारदे!, कमलासनी कृपाल।
वेद-ज्ञान वरदायिनी, वर दे करो निहाल।।
*
रोजी-रोटी ने किया, तन-मन से मजबूत।
नित श्रम कर हम बन गए,  ईश्वर के नव दूत।।
*
मंगल ही मंगल करे, मंगल जन्मे आन।
परम भक्त  सिय-राम के, श्री बलवंत सुजान।।
*
सीखा जब  भी जतन से, हुआ बहुत  उपहास।
सहज हास-परिहास कर, जीत गया अहसास।।
*
शारद के वरदान ही,  मिटा सके अज्ञान।
सच; अभिमंत्रित मंत्र हैं, वेदपाठ  अभि ज्ञान।।
*
हरियाली पाकर धरा, हुई धन्य-धनवान।
मुस्काता नित खेत में, हो किसान बलवान।।
*
रमीं रमा हरि सहित ही, प्रमुदित जगत सदैव।
कंचन-कोष कुबेर का, धारण करते दैव।।
*
गुलशन-गुलशन गुल खिले, कर गुलशन गुलज़ार ।
अतिथि आगमन भ्रमर का, करे कली सत्कार।।
*
चैत महीना बौर का, बासंती  वरदान।
नव कोंपल पुलकित हुईं, पीत वसन परिधान।।
*
पवन सुगंधित बौर से, सुरभित श्यामल शाम।
बागों की रौनक बना, फल का राजा आम।।
*
हरे-भरे वन-वृक्ष हों, वसुधा पर भरपूर।
गर्मी के अहसास से, होंगे तब सब दूर।।
*
अपनों कि अनुभूति तब, होती सबसे खास।
हो जाते जब दूर वे, लगते तब ही पास।।
*
कोयल कूकी बाग में, जाग गया विश्वास।
आम-पना से न्यून हो, गर्मी का आभास।।
*
गुणवानों का सभी जन, करें सदा सम्मान।
नेक कर्म-ईमान से, लें सज्जन-पहचान।।
*
बादल बरसे झूमकर, ओले नाचे साथ।
बिन मौसम बरसात से, पंछी हुए अनाथ।।
*
दर्द लेखनी में दिखा, आँखों में कुछ और।
मन की भाषा पढ़ सकें, काश छंद के ठौर।।
*
चाँद -चाँदनी मिल गले, बना रहे इतिहास।
तारों के भुज-हार से, हो पूरी मन-आस।।
*
दीवारों के कान हैं,  सोच -समझ कर  बोल।
मृदु वाणी वरदान है, जीवन में रस घोल।।
*
भुत बात कर; कर रहे, अच्छे दिन बेकार।
काम-काज को गति मिले, तब होगा उद्धार।।
*
किससे कैसे कब कहूँ, क्यों मन बोझिल-खिन्न।
समझ नहीं प्रिय पा रहे, काँव-कूक क्यों भिन्न।।
*
धरती माँ की गोद में, सीता हुईं विलुप्त।
अवधपुरी का भाग्य 'प्रभु', तुरत हो गया सुप्त।।
*
हरियाली होती अगर, धरती पर चहुँ ओर।
मुस्काते मानव सभी, स्वर्णिम  होती भोर।।
*
धरा धरा ने धैर्य 'प्रभु', है अधीर निरुपाय।
त्याग कीटनाशक मनुज, प्रकृति न हो असहाय।।
*
क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, प्रचुर रसायन खाद।
डाल धरित्री को करें, धरा-पुत्र बरबाद।।
*
धरती सूखी सूखता, नयनों का भी नीर।
बिन मौसम बरसात से, नहीं मिटेगी पीर।।
*
धरती से आकाश तक, फैली तन चहुँ ओर।
बड़ी-बड़ी अट्टालिका, डरती-रुकती भोर।।
*
तारे धरती पर उतर, करें नई शुरुआत।
बिन माँगे मोती मिले, तब तो कुछ है बात।।
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राधे- राधे रट रहे, मोहन कृष्ण मुरारि।
राधा जप; बाधा  मिटे, कहते पालनहारि।।
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राहें होती हैं कई, मंजिल केवल एक।
विद्या-बुद्धि-प्रयास से, वरें सफलता नेक।।
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कड़वा सच मत बोलिए, कहें मधुरता घोल।
बिन वृक्ष जी सकेगी,  धरा न; पीटें ढोल।।
*
क्या सच है; क्या झूठ है?, भला बताए कौन?
जनगण-मन बेचैन क्यों?, नेता हैं क्यों मौन??
*
किसने किससे क्या कहा, सुन ले आज सुजान!
भले-बुरे को 'प्रभु' परख, करा सत्य का भान।।
समझाते हैं लोग सब, दीवारों के कान।
बात अगर है भेद की, मत बनिए अनजान।।  ०
*
राम-सिया जिस उर बसे, वह कब हुआ अधीर?
भक्ति करो हनुमत सदृश, पवनपुत्र बलवीर।।
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नारी ही नारायणी, सृजन-जगत आधार।
प्रेम-भाव धीरज धरे, चला रही परिवार।।
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अभिशापित हो जी रहे, देखो कैसे लोग।
सच्चाई से दूर हो, सतत बढ़ाते रोग।।
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अहं, मान-सम्मान से, बड़ा जगत में प्यार।
स्वार्थ-भाव को त्यागिए, व्यर्थ जीत या हार।।
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ज्ञानवान बनकर कभी, करें नहीं अभिमान।
प्रेम-भाव जग जीतते, तब बढ़ जाता मान।।
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जीते जी सत्कर्म कर, मानव बने महान।
जीता जो सबके लिए, पूजे उसे जहान।।
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मन में धीरज धारते, बनते बिगड़े कर्म।
नेक भाव मन में रखें,  यह सच्चा है मर्म।।
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जनगण अब जल का करे, सीमित ही उपयोग।
स्वच्छ रहें जल स्त्रोत यदि, गंदा करें न लोग।।
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जल को जीवन जानिए, जल के बिना न जीव।
धरती-जल जब सूखता, कैसे जिएँ सजीव।।
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मानव-मन की थाह को, जान सका है कौन?
काम क्रोध मद लोभ से, पीड़ित जग रो मौन।।
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बच्चों में रच-बस गया, एक सुखद संसार ।
अधिक न माता-पिता से, कोई करता प्यार।।
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कोयल कूक न पा रही, कागा करे न काँव।
गाँव, शहर जैसे हुए, कहाँ मिले अब छाँव।।
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स्नेह, आस-विश्वास की, पूँजी जिसके पास।
वही जगत में आपका, होता सबसे खास।।
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सदाचार-सत्कर्म से, बढ़ता बुद्धि-विवेक।
यदि विचार उत्तम नहीं, कैसे हों हम नेक।।
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छल से छल-छल छलकता, छलिया बनता वीर।
छला गया छलकर अबस, छल के हाथ अधीर।।
*
मन के मनके जोड़कर, माला गूँथी एक।
तन-तन मन-मन के हुए, चरों तं-मन नेक।।
*
भूल करो मत भूल से, भुला न देना भूल।
भूल अगर हो जाए तो, तनिक न देना तूल।।
*
करने को कुछ खास जब, नहीं हमारे पास।
कथ्य-दृश्य; ब्रश-भाव हो, छंद बने कनवास।।
*

साहित्य त्रिवेणी २ : बीनू भटनागर

आलेख:


२. छंद, छंद से मुक्ति और संगीत
बीनू भटनागर

परिचय: जन्म: १४.९.१९४७, बुलंदशहर (उ.प्र), शिक्षा: ऐम.ए. मनोविज्ञान, प्रकाशन: मैं सागर में एक बूँद सही (कविता संग्रह), झूठ बोले कौवा काटे (व्यंग्य संग्रह), I do not live in dreams( A poem collection), गागर में सागर(दोहा संग्रह), Meaning of your happiness, मैं, मैं हूँ, मैं, ही रहूँगी (कविता संग्रह), संप्रति स्वतंत्र लेखन।

संपर्क: binu.bhatnagar@gmail.com
*
हिंदी में आदिकाल से ही काव्य छंद में लिखने की प्रथा रही है। छंद के बाहर जाकर लिखना पद्य की श्रेणी में ही नहीं माना गया। हिंदी में पिंगल छंद शास्त्र सबसे पुराना ग्रंथ है। छंदों के नियम-बंधन से काव्य में लय और रंजकता की वृद्धि होती है किंतु छंद शास्त्र का विधिवत अध्ययन करना काव्य रचना हेतु अनिवार्य नहीं है। कबीर सदृश्य अधिकांश भक्तिकालीन कवि पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनकी पद्य रचनाएँ नियमों पर खरी हैं क्योंकि उनके मन में सुन-सुनकर लय बसी होती थी जिसमें वे शब्द पिरो देते थे। ऐसा भी नहीं है कि छंद-लेखन की जन्मना स्वाभाविक प्रतिभा न हो तो कोई छंद लिख ही न सके। गुरु के मार्गदर्शन में अभ्यास करने से छंद विधा में लिखना सीखा जा सकता है।
आदि काल (वीरगाथा काल) की अधिकतर रचनायें दोहों में हैं। ये दोहे कवियों ने अधिकतर अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा मे लिखे थे। भक्तिकाल में निर्गुण धारा के प्रमुख कवियों दादू, कबीर आदि ने सिखाने के लिए साखी (दोहों) का प्रयोग किया। गुरु नानक ने जिस 'सबद' के माध्यम से सिक्खी धर्म का प्रचार किया, वह दोहा ही है। सगुण भक्तिशाखा के कवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में दोहे-चौपाई के साथ कवित्त, छप्पय, सोरठा और कुण्डलिया छंद का भी प्रयोग किया। कृष्ण भक्त सूरदास, मीरा आदि ने पद-रचना की। रीति कालीन कवियों ने मुक्तक, कवित्त दोहे कुण्डलिया इत्यादि छंदों में श्रृंगार रस की रचनायें की।
पश्चिमी साहित्य के प्रभाव में धीरे-धीरे हिंदी जगत में भी छंद-बंधन खुलने लगे। महाप्राण निराला और महाकवि पंत ने पारंपरिक छंदों से हटकर प्रयोग किए। छंद की रूढ़ियों से मुक्त होकर भी इनके काव्य में प्रवाह बना रहा, इन कविताओं ने पाठकों को चमत्कृत भी किया। अनायास ही कहीं तुक मिलना, कहीं तुक न मिलना, छंद मुक्त काव्य की विशेषता मानी गई। यहाँ पूर्व प्रचलित नियम नहीं है; फिर भी कविता का प्रवाह नहीं रुकता। कहीं न कहीं यह छंदमुक्त काव्य छंद के आधार पर ही लिखे गए थे। छायावादी युग के छंदमुक्त काव्य का आधार रोला और घनाक्षरी माना जाता है। प्रयोगवादी युग मे सवैया तथा अन्य पुराने छंदों को रूढ़िमुक्त करके लिखा गया। कविता अनायास छंदमुक्त नहीं हुई, समाज ने रुढ़ियों को तोड़ा तो कवियों ने छंद-विधान को तोड़ा, यद्यपि विरोध हुआ पर कविता छंदों की जकड़न से मुक्त होने लगी। निराला जी की एक कविता 'मौन' प्रस्तुत है, इसमें लय भी है, प्रवाह भी है और कोई गुणी संगीतकार इसे संगीतबद्ध भी कर सकता है-
मौन बैठ लें कुछ देर, १३ आओ,एक पथ के पथिक-से १६
प्रिय, अंत और अनंत के, १४ तम-गहन-जीवन घेर। १२ मौन मधु हो जाए ११ भाषा मूकता की आड़ में, १६ मन सरलता की बाढ़ में, १४ जल-बिंदु सा बह जाए। १३ सरल अति स्वच्छंद १० जीवन, प्रात के लघुपात से, १६
उत्थान-पतनाघात से १४ रह जाए चुप, निर्द्वंद।. १२ निराला और सुमित्रानंदन पंत की काव्य शैलियाँ भिन्न थीं फिर भी दोनों ने पारंपरिक छंद से बाहर निकल कर लिखा, विरोध हुआ पर अंत मे छंद मुक्त काव्य को मान्यता मिली। पंत जी की एक प्रसिद्ध कविता का अंश प्रस्तुत है- चींटी वह चींटी को देखा आज? १५ वह सरल विरल काली रेखा १५ तम के तागे सी जो हिल-डुल १६ चलती लघु पद मिल-जुल, मिल-जुल १६ यह है पिपीलिका पाँति! देखो न किस भाँति। २३ काम करती वह सतत, कन-कन चुनके चुनती अविरत। २८ इस कड़ी में जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह 'दिनकर' का नाम भी जुड़ता है। छंद-बंधन शिथिल हुए तो कुछ लोगों को लगा कि कविता लिखना बहुत आसान है। मन में जो भी भाव उठ रहे हैं या विचार आ रहे हैं; उन्हें लिखते चलो, बस बन गई कविता किंतु वे गलत सिद्ध हुए। छंदमुक्त कविता में भी लय, यति और गति होती है। प्रारंभ में छंदमुक्त कविताओं में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का ही प्रयोग होता रहा फिर धीरे-धीरे हिंदीतर शब्द कविता में जगह बनाने लगे और आज के कवि तो भाषा की सब सीमाएँ तोड़कर; अंग्रेजी शब्द ही नहीं, वाक्यांश तक प्रयोग करने लगे हैं। हिंदी-उर्दू सहचरी भाषाएँ हैं; इसलिये इनका सम्मिश्रण भाषा-सौंदर्य को कम नहीं करता। अंग्रेजी भी हिंदी में घुलने-मिलने लगी है; इसलियें यदा-कदा यदि हिंदी में समुचित शब्द ज्ञात या उपलब्ध न हो तो अंग्रेजी शब्द का भी प्रयोग आपद्धर्म की तरह किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि छंद के साथ भाषा की रूढ़ियाँ भी टूटने लगीं। रूढ़ियों का टूटना एक हद तक सही हो सकता है पर एक मशहूर कवि की एक कविता में 'बाइ द वे' (by the way) जैसा वाक्यांश मुझे निराश करता है। शायद; मैं विषय से भटक रही हूँ क्योंकि इस लेख का मकसद अन्य भाषाओं के शब्दों का कविता में समाहित होना नहीं बल्कि छंद युक्त और छंद मुक्त काव्य की तुलना कर संगीत में उन्हें ढालने के प्रयोगों को समझना है।
सामान्य धारणा है कि छंदबद्ध काव्य संगीतबद्ध किया जा सकता है, छंदमुक्त काव्य संगीत में नहीं ढाला जा सकता। गीत-नवगीत विधा पूरी तरह छंदबद्ध न होने पर भी गायन के लिये ही बने हैं। इनमें 'मुखड़ा' और 'अंतरे' होते हैं। 'मुखड़े' को शास्त्रीय संगीत में 'स्थाई' कहते हैं। मुखड़े की अंतिम पंक्ति और स्थाई की अंतिम पंक्ति तुकांत होती है, इससे अंतरे के बाद मुखड़े पर आना सहज होता है। यहाँ स्थाई और अंतरे का मात्रा-साम्य आवश्यक नहीं होता। छंद में भी लय होती है और संगीत में भी किंतु गौर से देखा जाय तो 'लय' शब्द के अर्थ दोनों में भिन्न है। छंद में 'लय' से तात्पर्य 'प्रवाह' से है कि बिना अटके उसको पढ़ा जा सके। संगीत में 'लय' का अर्थ 'गति' है, कितनी तीव्र या कितनी मंद गति से गायन या वादन हो रहा है। 'विलंबित लय' और 'द्रुत लय' गायन-वादन की गति को इंगित करते हैं। 'स्वर' शब्द का भी संगीत और भाषा में भिन्न अर्थ है। अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ हिंदी भाषा के स्वर (वौवल्स) है। संगीत के स्वर षडज, रिषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हैं जिन्हें हम 'सा रे ग म प ध नी' या 'सरगम' के नाम से जानते हैं। इन्हें इंगलिश मे नोट्स (do re me fa so la ti) कहते हैं। संगीत में 'ताल' का भी बहुत महत्व है। 'ताल' में छंद की तरह मात्रायें गिनी जाती हैं पर 'मात्रा' गिनने का तरीका एकदम अलग होता है। यहाँ एक मात्रा में दो वर्ण भी बिठाये जा सकते हैं और एक वर्ण को दो या तीन मात्राओं में आकार के साथ बढ़ाया जा सकता है। ताल के एक चक्र में गति के अनुसार मात्राएँ निर्धारित होती हैं; न कि वर्ण और स्वर की गिनती के अनुसार। शास्त्रीय संगीत की बंदिशों को ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा कि वे कहीं भी छंद-बद्ध नहीं हैं। राग जोग की बंदिश देखें:
स्थाई- साजन मोरे घर आए (स्थाई) १४ मात्राएँ मंगल गावो चौक पुरावो,(अंतरा) १६ मात्राएँ अंतरा- दरस पिया हम पाए १२ मात्राएँ अब मालकौस की एक बंदिश पर ध्यान देते हैं- स्थाई- मुख मोर-मोर मुसकात जात, १६ मात्राएँ ऐसी छबीली नार चली कर सिंगार २१ मात्राएँ अंतरा- काहू की अँखियाँ रसीली मन भाईं, २१ मात्राएँ चली जात सब सखियाँ साथ १५ मात्राएँ (अंतरा)

इन दोनों बंदिशों में कोई छंद नहीं है। संगीत में इन दोनों बंदिशों को सैकड़ों सालों से तीन ताल में गाया जा रहा है। तीन ताल में सोलह मात्राएँ चार खंडों में विभाजित रहती हैं- 'धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा ना तिं तिं ना धा धिं धिं धा'
इसी तरह लोकगीत भी छंदबद्ध नहीं होते पर कहरवा ताल में गाए जाते हैं। ये ताल ढोलक पर भी सजती है किंतु शास्त्रीय संगीत के लिये उपयुक्त नहीं मानी जाती। कहरवा के बोल इस प्रकार हैं- धा गे ना ति न क धि न स्पष्ट है कि संगीत-बद्ध होने के लिये रचना का छंद-बद्ध होना ज़रूरी नहीं है। गुणी संगीतकार के पास वाद्य यंत्र होते हैं, कोरस हो सकता है जिससे यदि ज़रूरी हो तो वो उन्हीं शब्दों के साथ मात्राओं को घटा-बढ़ा सकता है। ग़ज़ल संस्कृत के द्विपदिक श्लोकों से नि:सृत, फारसी से उर्दू में आई शायरी (कविता) की विधा है जिसे हिंदी तथा अन्य भाषाओं ने अपना लिया है। ग़ज़ल गायिकी एक भिन्न प्रकार की विधा बन चुकी है। ग़ज़ल लेखन में बहुत पाबंदियाँ है इन्हें अलग-अलग रागों में बाँधकर गाया जाता है। इसमें गायक को भावों की अभिव्यक्ति सही तरह निभाने के साथ स्वर और ताल में बँधकर गाना होता है पर शुद्ध शास्त्रीय संगीत की शैली से ग़ज़ल गायन की शैली अलग होती है यहाँ ताने लेने या मुरकियाँ लेने की जगह भावों और शब्दों का उच्चारण अधिक महत्वपूर्ण होता है इसलिये ग़ज़ल गायकी को उप शास्त्रीय संगीत की श्रेणी में रखा जाता है। ग़ज़ल की बहर (मीटर) छोटी-बड़ी हो सकती है पर ग़ज़ल के लिये संगीतकार अधिकतर ताल दादरा का प्रयोग करते हैं। तीन ताल, झपताल व कुछ अन्य तालों में भी ग़ज़ल बाँधी जाती है। दादरा, तीनताल और झपताल में क्रमश: ६, १६ और १० मात्राएँ होती हैं।
एक समय था जब ग़ज़ल को गायक के नाम से पहचाना जाता था, यह मंहदी हसन की ग़ज़ल है, यह ग़ुलाम अली की और यह जगजीत सिंह की। जगजीत सिंह, पंकज उधास और ग़ुलाम अली के बाद कोई महान ग़ज़ल गायक उभरकर नहीं आया। कुछ होनहार ग़ज़ल गायक रंजीत रजवाड़ा, जैस्मिन शर्मा आदि अधिकतर ग़ुलाम अली या किसी प्रतिष्ठित गायक की ग़ज़ल ही गाकर रह गए, कुछ नया नहीं किया या उन्हें मौक़ा नहीं मिला। ग़ज़ल गायकों का अभाव है पर ग़ज़ल लिखनेवालों की कोई कमी नहीं है। सर्वश्री प्राण शर्मा, अशोक रावत, नीरज गोस्वामी, दीक्षित दनकौरी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी आदि के अलावा और बहुत से लोग ग़ज़ल लिख रहे हैं पर गायिकी में ग़ज़ल के क्षेत्र में प्रतिभा का अभाव है, फिल्मों में भी आजकल ग़ज़ल गायिकी की गुंजाइश नहीं रह गई है। संगीतकार क्यों इस विधा से दूर हो रहे हैं? यह जानने की ज़रूरत है। हम सिर्फ श्रोता को दोष नहीं दे सकते, जब ग़ज़ल सुनने को नहीं मिलेगी; तो श्रोता क्या करेगा। ग़ज़ल पढ़नेवाले भी बहुत तो नहीं हैं पर फिर भी गज़लें लिखी जा रही हैं। अब छंदमुक्त काव्य और संगीत की बात करते हैं। फिल्म 'हक़ीकत' के एक गाने ने सबको बहुत भावुक कर दिया था।, “मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था” यह पूरी तरह मुक्त था इसमें मुखड़ा और अंतरा भी नहीं था, न तुकांत पंक्तियाँ। कैफ़ी आज़मी, मोहम्मद रफ़ी और मदनमोहन ने इसे जो रूप दिया अनोखा था, असरदार था! यहाँ मेरा नाम जोकर के गीत “ए भाई! ज़रा देख के चलो” का जिक्र करना भी अप्रासांगिक नहीं होगा। नीरज, शंकर-जयकिशन और मन्ना डे ने इसे कभी न भुला पाने वाले गीतों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। छंदमुक्त कविता की तरह ही जावेद अख्तर साहब का एक गीत '1942 ए लवस्टोरी' में था जिसको पहली बार सुनते ही मुझे लगा "वाह! क्या गीत है। क्या संगीत है। ' इसमें तो सारे बंधन ही टूट चुके थे न अंतरा था न मुखड़ा बस.....’ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ....... “ से हर पंक्ति शुरू हुई और फिर एक से एक सुंदर उपमाओं का सिलसिला शुरू हो गया, भले ही यहाँ मुखड़े और अंतरे न हों, सभी उपमाएँ दो-दो के जोड़े में तुकांत थीं, लघु पर समाप्त होती थीं, अंतिम उपमा दीर्घ पर समाप्त हुईं। जावेद अख्तर साहब के बोल आर.डी.बर्मन का संगीत और कुमार शानू की आवाज का ये जादू बहुत चला– एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा २२ जैसे खिलता गुलाsब, १३
जैसे शायर का ख़्वाब १३ जैसे उजली किरण, ११ जैसे बन में हिरन ११ जैसे चाँदनी राsत, १३ जैसे नगमों की बात १३ जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया २२
(प्रथम-अंतिम पंक्ति २२ मात्रिक महारौद्रजातीय, सुखदा छंद, प्रथम-अंतिम द्विपदी भागवतजातीय छंद, मध्य द्विपदी रौद्र जातीय शिव छंद - सं.) इस सिलसिले में जगजीत सिंह की गाई एक लोकप्रिय नज़्म भी याद आ रही है-“बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी’’. नज़्म काफ़ी हद तक छंदमुक्त कविता जैसी ही होती है। जगजीत सिंह की लोकप्रियता इसी नज़्म से आरंभ हुई थी। गुलज़ार साहब तो शायरी में 'दिन ख़ाली-ख़ाली बर्तन हैं' जैसी पंक्तियाँ लिखकर चकित करते रहे हैं पर उनका इजाज़त फिल्म का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है.....' इसमें न कोई पंक्ति तुकांत थी न कोई दीर्घ-लघु पर अंत होने का बँधा हुआ सिलसिला। इस गाने में तो हर पंक्ति के मीटर में भी बहुत अंतर था। जब गुलज़ार साहब ने आर. डी. बर्मन को यह पूर्ण रूप से छंदमुक्त कविता दिखाई तो उन्होंने गुलज़ार साहब से कहा 'कल तुम 'टाइम्ज़ आफ इण्डिया' ले आओगे और कहोगे कि इसकी धुन बनाओ' किंतु आर. डी. बर्मन ने चुनौती स्वीकार की और ये गाना कितना मधुर बना और लोकप्रिय हुआ; हम सभी जानते हैं।
आजकल नए प्रयोग करने का ज़माना है कुछ अच्छे लगते हैं, कुछ अच्छे नहीं लगते। कवि-लेखक बंधन-मुक्त होकर लिख रहे हैं, इससे छंद का महत्व कम नहीं हो सकता। संगीतकार पूरे विश्व से संगीत लाकर, उससे कुछ नया कुछ अच्छा संगीत दे रहे हैं । एक ही गीत में कभी राग बदल जाता है, कभी ताल, कभी वैस्टर्न बीट पर ड्रम बजने लगते हैं।इस्माइल दरबार ने 'हम दिल दे चुके सनम' में पूरी तरह शास्त्रीय संगीत में बद्ध गीत जिसमें ताने भी थीं, मुरकियाँ भी थी ‘’अलबेला सजन आयो री’’ में ताल-वाद्य को बहुत गौण कर दिया। ताल-वाद्य की आवाज गायिकी के नीचे दब गई जबकि आम तौर पर शास्त्रीय संगीत में तबला या पखावज का रूप निखरकर आता है। यह बंदिश राग अहीर भैरव में उस्ताद सुल्तान खाँ ने गाई थी और आदि ताल में बद्ध थी जिसमें ८ मात्रायें होती है। इस्माइल दरबार ने इसे लगभग मूल रूप में रखा पर एक गायिका और एक गायक की आवाज़ फिल्म के किरदारों के हिसाब से जोड़ दी। कुछ समय पहले संजय लीला भंसाली ने इसी बंदिश को बाजीराव मस्तानी के लिये बिलकुल नए कलेवर में कई गायक और गायिकाऔं की आवाज़ मे पेश किया। यह राग भोपाली और राग देशकर का मिला-जुला रूप था इसमें ताल कहरवा का थोड़ा परिवर्तित रूप अपनाया गया। ताल कहरवा में भी ८ ही मात्रायें होती है। राग और ताल बदलने से बंदिश का स्वरूप बदल गया, गंभीरता की जगह ख़ुशी का माहौल बना दिया गया। ‘’हम दिल दे चुके सनम’’ में यह बंदिश शास्त्रीय संगीत लगी और बाजीराव मस्तानी मे लोकसंगीत की छटा दिखी परंतु इन प्रयोगों से शास्त्रीय संगीत की नियम प्रणालियों की गरिमा नष्ट होने का भी कोई सवाल नहीं हैं, क्योंकि जिस प्रकार काव्य का आधार छंद हैं, छंद हैं तो ही छंद मुक्त है। इसी तरह संगीत का आधार भी शास्त्रीय संगीत है और वही सात स्वर हैं पूरे विश्व के संगीत में।
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बुधवार, 2 मई 2018

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
*
वे पत्थरबाजी  करें, हम देते हैं फूल। 
काश! फूल को फूल दें, और शूल को शूल।।
*
वैसी ही पूजा करें, जैसा देखें दैव। 
लतखोरों को लाट ही, भाती 'सलिल' सदैव।।
*
चंद्र-भानु को साथ ही, देख गगन है मौन। 
किसकी सुषमा अधिक है, बता सकेगा कौन?
*
सेंक रही रोटी सतत, राजनीति दिन-रात।
हुई कोयला सुलगकर, जन से करती घात।।
*
देख चुनावी मेघ को, दादुर करते शोर। 
कहे भोर को रात यह, वह दोपहरी भोर।।
*
कथ्य, भाव, लय, बिंब, रस, भाव, सार सोपान। ले समेट दोहा भरे, मन-नभ जीत उड़ान।। 
*
सजन दूर मन खिन्न है, लिखना लगता त्रास
सजन निकट कैसे लिखूँ, दोहा हुआ उदास
*

मंगलवार, 1 मई 2018

shri shri chintan: doha gunjan 6


श्री श्री चिंतन दोहा गुंजन: ६
इच्छाएँ
*
६.३.१९९६, आश्रम बेंगलुरु 
खुशी हेतु इच्छा करें, इच्छाएँ हों लक्ष।
पहुँचा  देंगी लक्ष्य तक, इच्छा यदि तुम दक्ष।।
*
इच्छाओं की प्रकृति क्या, करिए कभी विचार।
इच्छा कल; आनंद है, अब में निहित अपार।।
*
तुम हो यदि आनंदमय, इच्छाएँ हों दूर।
इच्छा मन में; तो न हो आनंदित भरपूर।।
*
७.४.२०००, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश
इच्छा से आनंद का, होता है आभास।
मिल न सके आनंद, है 'माया'  यह अहसास।।
*
यादें या अनुभव सुखद, हैं इच्छा का मूल।
मिलना, सुन्ना, देखना, दे इच्छा को तूल।।
*
निश्चित घटना या नियति, से इच्छाएँ जाग।
प्रेरित करतीं; कार्यरत हो लेते तुम भाग।।
*
भूखे को भोजन दिला, करो किसी से बात।
काम किया कोइ कभी, इच्छावश हो तात।।
***
१४.४.२०१८ 

सोमवार, 30 अप्रैल 2018

श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन ५, shri shri chintan doha gunjan 5

श्री श्री  चिंतन: दोहा गुंजन ५
इच्छाएँ
(७.१.१९९८, मिलानो, इटली)
*
इन्द्रिय सुख इच्छा क्षणिक, विद्युत् जैसी जान।
विषय वस्तु की ओर बढ़, खो प्रभाव बेजान।।
*
निज सत्ता के केंद्र-प्रति, इच्छाएँ लो मोड़।
हो रोमांचित; चिरंतन, सुख पा तजकर होड़।।
*
अपने अन्दर मिलेगा, तुम्हें नया आयाम।
प्रेम सनातन शाश्वत, परमानन्द अनाम।।
*
लोभ ईर्ष्या वासना, ऊर्जा सबल अपार।
स्रोत तुम्हीं; कर शुद्ध दे, निष्ठा-भक्ति सुधार।।
*
सुख की विद्युत्-धार हो, तुम्हीं समझ लो आप।
घटे लालसा, शांति आ, जाती जीवन-व्याप।।
*
मृत्यु सुनिश्चित याद रख, जिओ आज में आज।
राग-द्वेष से मुक्त हो, प्रभु-अर्पित कर काज।।
*
२६.४.२०००, आश्रम बेंगलुरु
इच्छाओं का लक्ष्य हैं, खुशियाँ; यदि हों नष्ट।
मन में झाँको देख लो, खुशियाँ करें अनिष्ट।।
*
इच्छा करते ख़ुशी की, दुःख की किंचित चाह।
कभी न थी; होगी नहीं, मन रह बेपरवाह।।
*
भाग-भाग जब क्लांत हो, नन्हा मन तब आप।
इच्छाएँ छीनें खुशी, सच महसूसे आप।।
***
१४.४.२०१८

रविवार, 29 अप्रैल 2018

साहित्य त्रिवेणी छंद विशेषांक/ sahitya triveni chhand visheshank



साहित्य त्रिवेणी 
छंद विशेषांक अप्रैल-जून २०१८ 
*
अतिथि संपादक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०२ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष: ७९९९५५९६१८, ईमेल: salil.sanjiv@ gmail.com
संपादक: डॉ. कुंवर वीर सिंह 'मार्तंड'  
कार्यालय मार्तंड भवन, डी १, ९४ / ए, पश्चिम पुट खाली, मंडलपाड़ा, 
डाक. दौलतपुर, द्वारा विवेकानंदपल्ली, कोलकाता ७००१३९ 
चलभाष:  ९८३१०६२३६२, ईमेल:  sahityatriveni@gmail.com  
*
विश्व वाणी हिंदी में गत पंद्रह वर्षों से कोलकाता से प्रकाशित ख्यातिलब्ध साहित्यिक पत्रिका साहित्य त्रिवेणी का आगामी अंक छंद विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया जाना है। इस अंक के अतिथि संपादक विश्व वाणी हिंदी संस्थान के संयोजक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार-समीक्षक-छंद शिल्पी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हैं।
अंक में प्रकाशनार्थ विविध आंचलिक भाषाओँ के साहित्य-सृजन में छंद की भूमिका, छंद के प्रकार, शिल्प, कथ्य, प्रभाव, प्रसार, उपादेयता,  साहित्य सृजन में योगदान, नव छंदों के सृजन, वैशिष्ट्य, वाक् परंपरा, लोक परंपरा, नाट्य परंपरा, छंद की सम सामयिकता उपयोगिता, छंद के भविष्य, भारतीय आंचलिक भाषाओँ में प्रचलित वाचिक छंद आदि से संबंधित सारगर्भित शोधपरक मौलिक आलेख सादर आमंत्रित हैं। लेख लिखने के पूर्व अतिथि संपादक से चर्चा कर शीर्षक तथा अंतर्वस्तु की स्वीकृति प्राप्त कर लें। लगभग ३००० शब्दीय (३-४ पृष्ठीय)  लेख १५ मई तक यूनीकोड में टंकित कर salil.sanjiv@ gmail.com पर अपने चित्र तथा संक्षिप्त परिचय ( जन्म तिथि/स्थान, माता-पिता, साहित्य गुरु के नाम, शिक्षा, प्रकाशित कृतियाँ, विशेष उपलब्धि,  डाक का पता, चलभाष, ईमेल आदि) सहित भेजें। लेख प्रकाशित होने पर पत्रिका निशुल्क भेजी जाएगी। पारिश्रमिक का प्रावधान नहीं है। पत्रिका में प्रकाशित सामग्री तथा स्थानाभाव या विलम्ब से प्राप्त सामग्री wwwdivyanarmada.in पर प्रकाशित की जाएगी। लेख विशुद्ध साहित्यिक हों, राजनैतिक / वैचारिक प्रतिबद्धतापरक, विवादस्पद सामग्री अस्वीकृत कर दी जाएगी।   
आमंत्रित साहित्यकार: सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हरदोई, डॉ. इला घोष जबलपुर, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर फीरोजाबाद,  डॉ. जगदीश व्योम नोएडा, योगराज प्रभाकर पटियाला, हरिश्चंद्र शाक्य मैनपुरी, डॉ. ब्रम्ह्जीत गौतम गाजियाबाद, प्रो. विशम्भर दयाल शुक्ल लखनऊ, आचार्य प्रकाश चंद्र फुलोरिया फरीदाबाद, डॉ. नीलमणि दुबे शहडोल, ॐ नीरव लखनऊ, उमाशंकर शुक्ल लखनऊ, चंद्रकांता शर्मा पंचकूला, अरुण निगम दुर्ग, सौरभ पाण्डे इलाहाबाद,  रघुविंदर यादव नारनौल, राहुल शिवाय बेगूसराय, विवेकरंजन 'विनम्र' जबलपुर, सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' जबलपुर, संजीव तिवारी दुर्ग, बलदाऊ राम साहू दुर्ग, डॉ. हरि फैजाबादी लखनऊ, विजय बागरी कटनी, राजा अवस्थी कटनी, डॉ. स्मृति शुक्ल जबलपुर, डॉ. नीना उपाध्याय जबलपुर, डॉ. कौशल दुबे जबलपुर, डॉ. भावना शुक्ल नई दिल्ली, कुमार गौरव अजितेंदु पटना,  सुरेन्द्र सिंह पवार जबलपुर, बसंत शर्मा जबलपुर, उपासना उपाध्याय जबलपुर, आभा सक्सेना देहरादून, छाया सक्सेना जबलपुर आदि।    
                                                                                      ***

श्री श्री चिंतन ४: आदतें दुर्गुण shri shri chintan 4 adaten durgun

श्री श्री चिंतन: ४
आदतें- दुर्गुण
३.४.१९९७, ऋषिकेश
*
दुर्गुण हटा न सको तो, जाओ उनको भूल।
क्रोध; कामना; अहं; दुख, मद को मत दो तूल।।
*
तुच्छ कारणों पर कहो, क्यों होते नाराज?
ब्रम्ह; इष्ट; रब; गुरु; खुदा, से हो रुष्ट सकाज।।
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अहंकार से तुम अगर, हो न पा रहे मुक्त।
परमेश्वर हैं तुम्हारे, सोच रहो मद-युक्त।।
*
मोह और आसक्ति को अगर न पाते छोड़।
सत के प्रति आसक्त हो, तब आएगा मोड़।।
*
ईर्ष्या-सेवा के लिए, करो द्वेष से द्वेष।
दिव्य हेतु मदहोश हो, गुरु से राग अशेष।।
*
१४.४.२०१८
७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com
*

शनिवार, 28 अप्रैल 2018

ॐ दोहा शतक: डॉ. नीलमणि दुबे


दोहा शतक:
मन के पंथ हजार
डॉ. नीलमणि दुबे
*



जन्म: १.७.१९५९, सोहागपुर, शहडोल
आत्मजा: श्रीमती मिथलेश-श्री रघुनाथ प्रसाद तिवारी
जीवनसाथी: डॉ. राजेश दुबे
काव्य गुरु: माँ सरस्वती
शिक्षा: एम्. ए., एलएल. बी., पीएच. डी.।
लेखन विधा: दोहा, गीत, कुण्डलिया, ग़ज़ल, समीक्षा, समालोचक, शोध लेख आदि
प्रकाशित: खंडकाव्य- कृष्णार्जुन संवाद, स्मृति, काव्य- चेतना के फूल, विविध, दीवाने-आम और ग्यारह दिन आदि
उपलब्धि: स्वर्णपदक, अनेक सम्मान
संप्रति:प्राध्यापक हिंदी, शंभुनाथ सिंह महाविद्यालय शहडोल
सपर्क: मोदी नगर, रीवा मार्ग, शहडोल ४८४००१, चलभाष: ९४०७३२४६५०,  
*
           डॉ. नीलमणि दुबे हिंदी वांग्मय और हिंदी शिक्षण दोनों की सीध्हस्त हस्ताक्षर हैं। त्रासदियों से आँख मिलाते हुए भी, चुनौतियों से जूझते हुए भी, सारस्वत साधना हेतु सतत समर्पित रहनेवाली नीलमणि जी 'नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज नयन' से 'करहु सो मम उर धाम' कहते हुए सृजन अनुष्ठान में समिधा समर्पित करती रहती हैं। विंध्याटवी का अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य किसे नहीं मोहता? शहरों में अंधाधुंध उस-बढ़ रहे कोंक्रीती जंगलों में लगी आग से एक सीमा तक बचे विन्ध्य में मौसम के अनुबंध आज भी अपनी छटा बिखेरते हैं-
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
           नीलमणि जी की कहन गरार में सागर समाहित करने की तरह है। दोहा में एक भी अनावश्यक शब्द न रखना या दोहा के शब्द-शब्द को निहितार्थ सहित प्रयोग करना उनका वैशिष्ट्य है- 
विद्युत्-वल्ली कौंधती, रह-रह घन के बीच।
प्रगट ज्ञान की प्रभा ज्यों, छिपी लोक को सींच।। 
           देश में संसद से लेकर सड़क कर किसी न किसी बहाने अपने कर्तव्य का पालन न कर अन्यों को आरोपित करने की कला विज्ञान का रूप लेती जा रही है। नीलमणि जी ने विरोध दर्ज कराने का मौलिक और सार्थक सुझाव दिया है - 
करना है यदि बंद तो, बंद करें विश्राम।
दर्ज करें प्ररोध निज, कर-कर शत-गुण काम।।    
           दोहे के कथ्य के अनुरूप तत्सम-तद्भव शब्दावली, अथवा देशज शब्दावली का प्रयोग करने में वे निष्णात हैं-
अरुणा-प्राची में उदित, नव शशिकला अमंद।
लय अनुसारिणी अथच ज्यों, प्रथम अनुष्टुप छंद।। 
           अपनी माटी और जड़ों से जुडी नीलमणि जी ने जन्म और कर्मस्थली शहडोल की लोकभाषा बघेली के उन्नयन हेतु भी कार्य किया है। वे सत्य हे एकहाती हैं कि काव्य-सृजन की लक्ष्मी बड़भागी को ही मिलती है-
गोली सगलै दुःख हरै, कबौ न करे हरास।
या कविता के लच्छमी, होय न सबके पास।।
             नीलमणि काविषम पारिवारिक स्थितियों के बावजूद अल्प समय में इस अनुष्ठान में सहभागी होना हिंदी के सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाता है . 
*
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
*
सपने भी अपने नहीं, घर को रहे नबेर।
होली हो ली इस तरह, आए दिन के फेर।।
*
खुशियाँ भटकी फिर रहीं, पीकर नौ मन भंग।
जाने इतने अनमने, क्यों होलीके रंग?
*
कुमंत्रणा की होलिका, जली सुखी प्रह्लाद।
इसी तरह सबको सदा, मिले नया आल्हाद।।
*
शतवर्णी धरती हुई, ऐसा मचा धमाल।
अंबर के मुख पर मला, ढेरों-ढेर गुलाल।।
*
मन माहौरी, लाल मुँह,  आँखिन भरा गुलाल।
टसुआ पिचकारी चलैं, होरी आई काल।।
*
मरु में नखलिस्तान है, नेह भरा व्यापार।
जीवन में वरदान सा, भ्रातृ-भगिनि सा प्यार।।
*
सुप्रभात सुंदर-सुखद, शुभयुत आठों याम।
मंगलमय कल्याणप्रद, हो जीवन अभिराम।।
*
प्रकृति की अनुपम छटा, देती नवल समृद्धि।
नित नूतन हो दिव्यता, नित्य नई श्रीवृद्धि।।
*
आम्र-मंजरी मिस मधुर, देते अमृत घोल।
हिय में गहरे उतरते, पिक के मीठे बोल।।
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सरसों सकुचाई खड़ी, खिला-खिला कचनार।
कर सिंगार सँकुचा गई, हरसिंगार की डार।।
*
अलि के मिस गुंजारता, जैसे कोई संत।
केसरिया टेसू रँगा, झूमे मस्त बसंत।।   ०
*
सियाराम जू सकल सुख, दायक शुभ-आगार।
मातु-पिता, भरता-सखा, गुरु हितु, बंधु उदार।।          ?
*
शतरंगीं हो कल्पना, चटकीले नवचित्र।
रंगपंचमी आपको, सुखमय हो प्रिय मित्र!!                  ?
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सर सरोज प्रात:-प्रभा, विकसित; गत तम-रैन।
करुना पूरित ह्रदय हों, शील-सनेही नैन।।
*
श्रीगोवर्धन की कृपा, कालिंदी- बृजधाम।
सानुकूल सब पर रहें, अनुदिन राधेश्याम।।
*
बुद्धि चित्त विकृत भ्रमित, मन के पंथ हजार।
भटक-भटक थक गया, मन के मत संसार।।
*
कड़ी धूप संसार की, करती दाहक घाव।
प्रभु-पद प्रीति प्रतीति की, देती शीतल छाँव।।
*
यदि मन में उत्साह है, कठिन कौन सा काम?
समय साध लेता वही, जिसके हाथ लगाम।।
*
माँ भगिनि बेटी वधू, पत्नी प्रिय अनूप।
धरा-रूप तू प्रेरणा, ज्योतिमयी अपरूप।।
*
एक कश्मकश जिंदगी, अक्सर लेती मोड़।
प्राण-स्फुरित बीज में, कर लेती है होड़।।
*
सूरज से सपने उठें, चढ़ें नित्य परवान।
प्रखर तेज का विश्व को, मिले पूर्ण अवदान।।
*
कृपा शीतला की रहे, शीतलतम सद्भाव।
प्रकृति चाँदनी सदृश हो, चंदन सदय सुभाव।।
*
सृष्टि-रूप जीवन सुरभि, नारी सृष्टि महान।
सर्जन-पालन कर विमल, दीप्त आत्म-सम्मान।।
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पेड़ी तक दिखती नहीं, बस ऊपर छतनार।
आम्रवल्लिका-मूल सा, फैला भ्रष्टाचार।।
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लील सड़क पुल इमारत, भरा न पापी पेट।
सब विकास की योजना, कीं उदरस्थ समेट।।
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इस भौतिक परिवेश ने, बदले बहुत विचार।
पला व्यवस्था में सघन, जड़ से भ्रष्टाचार।।
*
उत्सव मधुर मरंद का, दो दिन खिला वसंत।
आना-जाना सतत है, आएँगे फिर कंत।।
*
सुमन खिला सौरभ लुटा, सुरभित हुआ दिगंत।
बीज बना मुरझा गया, जीवन सतत अनंत।।
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विद्या; नारी; अवनि; लत; लतिका बिना विलंब।
आश्याय मिलता जो सहज, ले लेतीं अविलंब।।
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माता की अनुदिन कृपा, शुभप्रद नवल रसाल।
नव संवत्सर सुखद प्रिय, हो उद्देश्य विशाल।।
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चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, वासंतिक नवरात।
मंगलदायक; विध सुयश, वर्धित; जग-विख्यात।।
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शिव प्रमोददा अंबिके, महागौरि शुभ रूप।
श्वेत वृषभ आरूढ़ शुचि, श्वेतांबरी स्वरूप।।
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शैलसुते! करुणा-कृपा, ममता तव विख्यात। 
तपस्विनी हे भगवती!, दया रूप साक्षात।।
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ब्रम्ह्चारिणी जगजननि!, महिमा अमित-अपार।
दृष्टि-क्षेप से माँ करें, भव-वारिधि निस्तार।।
*
खट्टी-मीठी मन बसी, बचपन तेरी याद।
हाय! खो गई जिंदगी, कहाँ करें फरियाद??
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चंद्रहासवदनी सुमुखि, वर शार्दुल सवाल।
शुभदात्री, कात्यायनी, कर दानव संहार।।
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श्री राघव पद-कमल-रज, भक्त-प्राण; सुख-मूल।
मिले अहर्निशि, युगल प्रिय, सदा रहें अनुकूल।।
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कदम-कदम पर दर्द है, गम भी मिले तमाम।
नाहा, मगर मन लगा मत, यह संसार हमाम।।
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सुबह बहुत लगती भली, दिन भी है अभिराम।
हँस सूरज ढल जाएगा, जब आएगी शाम।।
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टर्र-टर्र करते बहुत, उचक रहे हैं भेक।
अज्ञों के ज्यों विविध मत, चलते पंथ अनेक।।
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मेघों ने झाँपा-ढँका,  कुम्हलाया है अर्क।
सूखा ज्ञान, विवेक को, संवृत किए कुतर्क।।
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शस्य-श्यामला धरा ने, पहने नव परिधान।
सर-सरि, क्यारी-खेत रस, गूंजे मंगल गान।। 
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सन्मति के सम्मान में, है जग का भी मान।
गदराई बरसात जब, हरियाई है धान।।
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तापित मन को सींचती, अरमानों की धार।
आसमान का धरा पर, बरस रहा है प्यार।।
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सिझा-सिंका जीवन बहुत, पीड़ा की लौछार।
तन-मन शीतल कर रही, अब अमृत-बौछार।।
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झुके मेघ नव हर्षयुत, नाच रहा मन-मोर।
कल-कल करती सरि चली, क्यों सागर की ओर?
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विरह-सँदेशा यक्ष की, पीड़ा पकड़ अछोर।
नभ में घन फिर गरजते, जाते हैं किस ओर।।
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धार पनीली या हुई, दुबली नदिया पीन।
व्याकुल सागर को चली, छिप डबरे की मीन।।
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विद्युत्-वल्ली कौंधती, रह-रह घन के बीच।
प्रगट ज्ञान की प्रभा ज्यों, छिपी लोक को सींच।। 
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छप्पर-छानी चू रहे, चैन नहीं दिन-रैन।
सावन-भादों की घटा, बरस रहे हैं नैन।।
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सर पर है छाया नहीं, बसा नहीं घर-द्वार।
वर्षा से फुटपाथ का, उजड़ गया संसार।।
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 प्राणिमात्र को सींचती, बही सुधा की धार।
हर्षित प्रकृति गा उठी, सहसा मेघ मल्हार।।
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रस संग्रह कर मत रखो, बाँटो सदय विशेष।
वर्षा के मिस प्रकृति ने, दिया यही संदेश।। 
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मूलों को रस, फूल-फल, पत्तों को गुण-संग।
मधुप! बाँटकर मैं चली, कल-कली-कली को रंग।।
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कृमि-कीटों के लिए है, वर्षा प्रलय-प्रहार।
आँसू में बह जाएगा, यह नश्वर संसार।।
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मीन-पुंज तिरते सुखी, उड़ते मुदित विहंग।
प्रफुलित हुए प्रसून-कुल, मदिर डोलते भृंग।।
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बिखर-बिखर कर कह रहा, बुद-बुद जगत असार।
मस्ती में मन मत्त क्यों, रहना है दिन चार।।
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छिटक फुहारें मारता, पिए हुए ज्यों भंग।
आश्विन लगते मेघ के, बदल गए यों ढंग।।
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पचरंगी पोशाक में डाली-डाली डोल।
सुमन-हास पर बिक गया, तितली मन अनमोल।।
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रस्सी पूरी जल गई, गयी न अब तक ऐंठ।
जिव्हा अक्सर फिसलती, मंच-मंच घुस-पैठ।।
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गाँव-गाँव पीड़ा बसी, गली-गली संत्रास।
शहर-शहर आतंक है, नयन-नयन में प्यास।।
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भाषण के बाज़ार में, आश्वासन का माल।
कटुक करेला चढ़ गया, हरी नीम के डाल।।
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सबकी गति है एक सी, चलते एक लकीर।
चाहे हों कितने बड़े, रजा रंक फ़कीर।। 
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पीस रही है चक्रिका, प्रतिपल सब संसार।
कभी बाँधता जग ह्रदय, लगता कभी असार।।
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सत बँधा; बेबस पड़ा, सहता है अपमान।
चौराहे पर खड़ा हो. अनृत बघारे ज्ञान।।
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खेतों में जगता कृषक, सीमा जगे जवान।
पुलिस जागती रात-दिन, तब जगता ईमान।।
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धन्य वही जीवन-जगत, धन्य वही विश्वास। 
निष्ठां वेदी में सतत, हवन कर रहा श्वास।।
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पल-पल सेवा समर्पण, बंधा कर्म के पाश।
तत्पर जो कर्तव्य में, उसे कहाँ अवकाश?
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कितने कारण ढूँढ नित, भारत करते बंद।
सुगति-प्रगति-सन्मति रूँधी नए-नए छल-छंद।।
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करना है यदि बंद तो, बंद करें विश्राम।
दर्ज करें प्ररोध निज, कर-कर शत-गुण काम।।    
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 मानवता सुखदा जननि, बेटी कला नवीन।
सुरुचि; सुसंस्कृति; सभ्यता, सकल कला आधीन।।
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बढ़ा प्रदुषण निगलता, जीवन छोर-अछोर।
आसमान धुँधला हुआ, दुपहर लगती भोर।।
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धरती धरणि वसुंधरा, नित्य नवल श्रृंगार।
धरा नाम सार्थक करे, धर जीवन का भार।।
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ज्ञानीजन कहते यही, स्वप्न मात्र संसार।
मिट जाएगा एक दिन, रहना बस दिन चार।।
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झरना या विगलित बहा, धरणी-ह्रदय अमर्ष।
भावों का उत्कर्ष या, निर्झर झरता हर्ष।।
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चंदा है अंगार सा, त्रासद यमुना-नीर।
मधुवन-विषधर डँसे सखी, पीर हुई बेपीर।।
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बुनते जीवन में सुघर, पल-छीन अनगिन रंग।
रंग श्याम है यदि नहीं, सभी रंग बेरंग।।
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राखी बहिना भेजती, बिरना कर मनुहार।
नेही रक्षासूत्र घन!, वचन; नहीं उपहार।।
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फूलों का सत्संग पा, व्यस्त मधुप आसक्त।
गुन-गुन की धुन में मगन, रस-पराग अनुरक्त।।
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कितना सुंदर है भला, बचपन का संसार।
नानी-दादी की कथा, कुट्टी-मिट्ठी प्यार।।
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रवि तनया स्मृति नवल, सुख-दुःख दोनों तीर।
वेणु-क्रिया; वट-धैर्य; मन, कान्हा जीवन-नीर।।
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दाँव; जुआँ; फल; जिंदगी, वर; बंधन; छल; घात।
आतप; वर्षा; बुलबुला; तारा; बूँद; प्रभात।।
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संकटमोचन महाप्रभु, शास्वत; चेतन-रूप।
सहज ज्ञान-विज्ञानमय, हनुमत! अम्ल; अनूप।।
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अरुणा-प्राची में उदित, नव शशिकला अमंद।
लय अनुसारिणी अथच ज्यों, प्रथम अनुष्टुप छंद।। 
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ज्यों मधु-सरि में कमलिनी, बिंबित मुख-मुस्कान।
विद्रूप-सीपी में अलस, उषा-रश्मि अम्लान।।
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श्वास और प्रश्वास का, जब तक है व्यापार।
गत-आगत सब कुछ करो, स्वीकृत जगदाधार।।
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नदी; घाट; नद-तट हुआ, जीवन का उद्घोष।
कूल; कछारों; कुञ्ज में, लुटे ज्ञान के कोष।।
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गाते-हँसते चल पड़ा, जीवन नदिया-तीर।
सरिते! सरस-सुरम्य हर, पीर समीर अधीर।।
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बम की भाषा बोलते, आतंकी गद्दार।
लोहू पीने के लिए, राक्षस हैं तैयार।। 
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कीट-पतंगे खा करे, गौरैया निस्तार।
चूँ-चूँ करती चहकती, घर-आँगन गुलजार।।
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बर्बरता लज्जित करें, नवयुग के नव हूण। 
जन्म-पूर्व ही गर्भ में, मार डालते भ्रूण।।
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धक्के जनता खा रही, प्रतिनिधि जाते भूल।
बहुधा वादों पर पडी, देखी नौ मन धूल।।
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बघेली दोहे
गोली सगलै दुःख हरै, कबौ न करे हरास।
या कविता के लच्छमी, होय न सबके पास।।
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जात ऊँच ता होय का, करैं घिनउहाँ काम।
मूँड़ उचाये चलि रहें, गली-खोर बदनाम।।
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उमिर चार दिन के हियाँ, रेन बसेरा आय।
चिरई जब उड़ि जाए ता, धरा हिमैं रहि जाय।।
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बीछी सें ही सौ गुना, जीभ बिक्ख के आय।
कोहू का जो छूऐं ईं, अइंठ-अइंठ रहि जाय।।
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मुँह बिचकामैं देखि के, कइके इरखा-द्वेस।
पामैं बड़मनसी कहूँ, इनका होम कलेस।।
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सत्ता के सतरंज मा, राजनीति के गोट।
अँधरै आँधर खेलि के, खूब बटोरें नोट।।
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कनिहाँ टूटै देत माँ, लेत नहीं परहेज।
फइला कोढ़ समाज के, घिनहाँ बहुत सहेज।।
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