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रविवार, 7 जनवरी 2018

doha gatha 2

Tuesday, December 23, 2008

दोहा गाथा २. ललित छंद दोहा अमर

[आपने पढ़ा- पाठ १, गोष्ठी १, प्रस्तुत है पाथ२, गोष्ठी २] 

ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर.
हिन्दी माँ का लाडला, इस सा छंद न और.


देववाणी संस्कृत तथा लोकभाषा प्राकृत से हिन्दी को गीति काव्य का सारस्वत कोष विरासत में मिला। दोहा विश्ववाणी हिन्दी के काव्यकोश का सर्वाधिक मूल्यवान रत्न है दोहा का उद्गम संस्कृत से ही है। नारद रचित गीत मकरंद में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ वर्तमान दोहे के निकट हैं-

शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः विनतः सूनृत्ततरः.
कलावेदी विद्वानति मृदुपदः काव्य चतुरः.
रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः सतकुलभवः.
शुभाकारश्ददं दो गुण विवेकी सच कविः.


अर्थात-

नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत.
काव्य-चतुर मृदु पद रचें, कहलायें कवि कान्त.
जो रसज्ञ-दैवज्ञ हैं, सरस हृदय सुकुलीन.
गुनी विवेकी कुशल कवि, होता यश न मलीन.


काव्य शास्त्र है पुरातन :


काव्य शास्त्र चिर पुरातन, फिर भी नित्य नवीन.
झूमे-नाचे मुदित मन, ज्यों नागिन सुन बीन.


लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ, रसमय वाक्य, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन, ध्वनि को काव्य की आत्मा, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।

दोहा उतम काव्य है :

दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय.
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय.


आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा।

दोहा छंद अनूप :

जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११

नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप.
पंचतत्व सम व्याप्त है, दोहा छंद अनूप.

दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद.
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद.

द्विपथा दोहयं दोहडा, द्विपदी दोहड़ नाम.
दुहे दोपदी दूहडा, दोहा ललित ललाम.


दोहा मुक्तक छंद है :

संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतु हिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है१२. दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३. संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।

हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।

छंद :

अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार.
छंद सुनिश्चित हो 'सलिल', सही अगर पदभार.


छंद वह सांचा या ढांचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंद कविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णों की पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्ट नियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है।

दोहा :

दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) पद में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) पद में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ) होना अनिवार्य है।

दोहा और शेर :

दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव१४। शेर बहर (उर्दू chhand) में कहे जाते हैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के 'गण' का ध्यान रखना होता है। शे'रों का वज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा में हमेशा समान पदभार होता है। शे'र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।

हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथ दोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत से होने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेर के साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक याद रखें-

भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष.
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष.

गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश.
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश.

गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान.
दोहों का नवनीत तू, पाकर बन रसखान.



सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
१०. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०,
११. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४,
१२. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७,
१३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे,
१४. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', भूमिका- जैसे, हरेराम 'समीप'.

आपके मन में कोई सवाल हो तो कमेंट (टिप्पणी) द्वारा हमें अवश्य बतायें।
सीमा सचदेव का कहना है कि - सलिल जी यह सब बातें हम भूल चुके थे ,याद कराने का बहुत-बहुत धनयवाद ,पूरा कावय-शासतर याद आ रहा है   December 23, 2008 3:13 PM
बिसर गया जो भूत मे , किया वो दोहा याद
छोटा पाठ पढाईए , है गुरु से फरियाद
दोहा और छ्न्द की महत्त्वपूर्ण जानकारी बहुत अच्छी लग रही है | बस एक निवेदन है - अगर आप एक ही बार मे इतना लम्बा पाठ पढाएँगे , तो आप के नादान शिष्य कैसे सीख पाएँगे |  December 23, 2008 3:22 PM
शोभा का कहना है कि -
बहुत अच्छी और उपयोगी जानकारी दी है। December 23, 2008 4:14 PM
दोहा ने मोहा : आचार्य संजीव 'सलिल' का कहना है कि -
दोहा ने मोहा सलिल, रुद्ध हो गयी धार.
दिल हारे दिल जीतकर, दिल जीते दिल हार.

परिवर्तन नव सृजन का, सत्य मानिये मूल.
जड़ को करता काल ख़ुद, निर्मम हो निर्मूल.

हो निशांत ऊगे नयी, उजली निर्मल भोर.
प्राची से आकर उषा, कहती खुशी अँजोर.

लाल भाल है गाल भी, हुए लाज से लाल.
प्रियतम सूरज ने किया, हाय! हाल बेहाल.

छमछम छमछम नाचती, सूर्य किरण रह मौन.
कलरव करके पूछती, गौरैया तुम कौन?

बरगद बब्बा बांचते, किसका कैसा भाग्य.
जान न पाये कब हुआ, ख़ुद को ही वैराग्य.

पनघट औ' चौपाल से, पूछ रहा खलिहान.
पायल कंगन क्यों गए शहर गाँव वीरान.

हूटर चीखा जोर से, भागे तुरत मजूर.
नागा मत काटें करें हम पर कृपा हजूर.

मालिक थे वे खेत के, पर नौकर हैं आज.
जो न किया सब कर रहे, तज मर्यादा लाज.

मुई सियासत ने किया, हर घर को बरबाद.
टूटा नाता नेह का, हो न सका आबाद.

लोभतंत्र की जीत है लोकतंत्र की हार.
प्रजा तंत्र सिर पीटता, तंत्र हुआ सरदार.

आतंकी बम फोड़ते, हम होते भयभीत.
डरना अपनी हार है, मरना उनकी जीत.

दहशतगर्दों का नहीं, किंचित करें प्रचार.
टी. वी. अनदेखा करे, अनदेखी अख़बार.

जाति धर्म के नाम पर, क्यों करिए तकरार?
खुश हो हिल-मिल मना लें क्रिसमस का त्यौहार.

हिंद और हिन्दी हुआ, युग्म बहुत मशहूर.
हर भारतवासी करे, इन पर 'सलिल' गुरूर.

चलते-चलते: December 25, 2008 12:19 AM

किस मिस को कर मिस रहे, किस मिस को किस आप.
देख मिसेस को हो गया, प्रेम पुण्य से पाप.

Saturday, December 27, 2008

दोहा गोष्ठी 2 : मैं दोहा हूँ



दोहा मित्रो,

मैं दोहा हूँ आप सब हैं मेरा परिवार.
कुण्डलिनी दोही सखी, 'सलिल' सोरठा यार.


दोहा गोष्ठी २ में उन सबका अभिनंदन जिन्होंने दोहा लेखन का प्रयास किया है। उन्हें समर्पित है एक दोहा-

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निसान.


हारिये न हिम्मत... लिखते और भेजते रहें दोहे। अब तक दोहा दरबार में सर्व श्री भूपेन्द्र राघव, दिवाकर मिश्र, मनु, तपन शर्मा, देवेन्द्र, शोभा, सुर, सीमा सचदेव, निखिल आनंद गिरी आदि ने दोहा भेज कर उपस्थति दी है, जबकि अर्श, विश्व दीपक 'तनहा', पूजा अनिल, अनिरुद्ध चौहान, साहिल आलोक सिंह, संगीता पुरी, रविकांत पाण्डेय, देवेन्द्र पाण्डेय, विवेक रंजन श्रीवास्तव आदि पत्र प्रेषित कर द्वार खटखटा रहे हैं। इस दोहा गोष्ठी में हम सब कुछ कालजयी दोहाकारों के लोकप्रिय-चर्चित दोहों का रसास्वादन कर धन्य होंगे।

दोहा है इतिहास:


दसवीं सदी में पवन कवि ने हरिवंश पुराण में 'कउवों के अंत में 'दत्ता' नामक जिस छंद का प्रयोग किया है वह दोहा ही है.

जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.


११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि (अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.

कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ.
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ


मुनि रामसिंह के 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है। एक दोहा देखें-

वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु.
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु


कहे सोरठा दुःख कथा:

सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान को पूरी मार्मिकता के साथ गाकर दोहा लोक मानस में अम्र हो गया। कथा यह कि कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया. मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारन वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ छंद) में गाते आ रहे हैं-

वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.


दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल कि अपनी भाषा होती है और आज के दोहाकार को आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें-

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.

असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.
संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय.

बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.
हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास

पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.
सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.

अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.


अंत में एक काम छात्रों के लिए- अपनी पसंद का एक दोहा लिख भेजिए, दोहाकार का नाम और आपको क्यों पसंद है जरूर बताएं। यह काम करनेवाले अपनी शंकाओं का समाधान पहले पाने के पात्र होंगे।
pooja anil का कहना है कि - 
"काल करे सो आज कर ,आज करे सो अब,
पल में परलय होएगी , बहुरि करेगा कब?"

मुझे ये दोहा बड़ा पसंद है, दोहाकार का नाम तो पता नहीं, किंतु समय की महत्ता का जो वर्णन जन सामान्य की भाषा में किया गया है, वह अति उत्तम और ग्राह्य है .

"गुरूजी ने पकड़े कान तो, बुद्दि पर हुआ प्रहार,
ज्ञान अनमोल गुरू दे रहे, यही बड़ा उपकार."   सादर वंदना,  पूजा अनिल   December 27, 2008 2:33 PM
manu का कहना है कि -
रूठे तो अच्छा किया दिखा दिया यह आज,
जो अपना होता वही अपनों से नाराज

आचार्य का ही ये दोहा है जिसके बाद मैं इस कक्षा में आज पहली बार ना ना करते भी खींचा चला आया हूँ ...
बेहद असरदार   December 27, 2008 11:47 PM
तपन शर्मा का कहना है कि -
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर...

काल करे सो आज कर... वाला दोहा भी मुझे प्रिये। सुने तो और भी होंगे.. पर यही कुछ दो-चार दोहे होते हैं जो हम बोलते रहते हैं इसलिये याद रह जाते हैं....   December 27, 2008 11:58 PM
rashmi का कहना है कि -
"rahiman dhaga prem ka mat todo chtakay,
tute to fir na jude,jude to ghanth pad jaye"

ye doha kavi rahim ka likha hua hai,ye doha rishto ki sachchai ko byan karti hai,jo tutne ke bad man ke kahi na kahi khatas chod jati hai  December 29, 2008 10:32 PM
सीमा सचदेव का कहना है कि -  मेरा प्रिय दोहा है :-
रहिमन धागा प्रेम का ,मत तोरो चटकाय
टूटे ते फिर ना जुरे , जुरे गांठ परि जाय    December 30, 2008 5:43 PM
pooja anil का कहना है कि - प्रणाम आचार्यजी ,
कृपया एक शंका का समाधान करें, सुझायें ,
दोहा, छंद, श्लोक में अन्तर क्या, बतलायें .
धन्यवाद पूजा अनिल  December 30, 2008 7:14 PM
Mirhamid का कहना है कि -  It was wondering if I could use this write-up on my other website, I will link it back to your website though.Great Thanks   downloadmyfileshere.com   April 03, 2016 9:52 AM
Jayesh Sindhi का कहना है कि -गुरू गुरू सब कोई कहे बिन गुरू मिले न ज्ञान कृपा होय गुरू देव की तो भक्ति मॉ आवे रंग.. जय गुरू देव  November 14, 2016 11:42 PM


doha gatha sanatan 1

पाठ १ : दोहा गाथा सनातन


दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.

हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगे अपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भी सीखेंगे. 

अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार. 

आप यह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे के रचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दी के स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि की जानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहे पढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे. 

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद. 

(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)

भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
दोहा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप. 

भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है. 

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द 
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.

व्याकरण ( ग्रामर ) - 

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है. 

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार. 

वर्ण / अक्षर : 

वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं. 

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.

स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं. 

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.

व्यंजन (कांसोनेंट्स) : 

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं. 

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.

शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.

अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है. शब्द के १. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि), २. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि), ३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि), ४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है. 

नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल. 

इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है -

नाहं वसामि बैकुंठे, योगिनां हृदये न च .
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद.

अर्थात-
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी उर न निवास.
नारद गायें भक्त जंह, वहीं करुँ मैं वास. 

इस पाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढिये जो लोकोक्ति की तरह जन मन में इस तरह बस गए की उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी हो तो बताएं. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहित भेजें. 

सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात. 

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल. 
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल. 

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय. 

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरी का नाम. 

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहां ले जाय. 
गुरुवार, १७ दिसंबर २००८ 
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ALOK SINGH "SAHIL"  -maja aa gaya ji,gajal ke bad,dohe!laajwab... 17.१२. 2008 10:31 AM
संगीता पुरी -बहुत सुंदर सुंदर दोहे पढाए....आभार।  December 17, 2008 11:30 AM
रविकांत पाण्डेय -
अच्छी कोशिश है। पारंपरिक दोहे जो दिये गए हैं उन्हे हमने प्रकारांतर से ऐसे सुना है-

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल. 

"जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोको फूल को फूल है, वाको है तिरसूल॥"

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय. 

"तुलसी भरोसे रामके, निरभय होके सोय।
अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होय॥"


"जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय।
बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय॥"

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहां ले जाय. 

"तुलसी जस भवितव्यता, तैसी मिले सहाय।
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहाँ ले जाय॥"  December 17, 2008 1:57 PM
devendra-वाह! बहुत कुछ सीखने को मिलेगा---अभी तो यह जाना कि जिसे मैं--अंताक्षरी--कहता था--वह अन्त्याक्षरी- है।
--देवेन्द्र पाण्डेय। December 17, 2008 6:49 PM
तपन शर्मा का कहना है कि -
कुछ ऐसी बातें सीखने को मिली जिसे हमने बचपन में पढ़ा था और अब मैं भूल चुका था... याद दिलाने के लिये शुक्रिया।
"समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरी का नाम. "

ये दोहा है.. जो हम आये दिन बोलते रहते हैं..!!! कमाल है...मुझे नहीं पत था.. :-) December 17, 2008 7:02 PM
दिवाकर मिश्र  - बहुत अच्छा प्रयास प्रारम्भ किया है । पारम्परिक छन्द में लिखना हो तो दोहे से ही प्रारम्भ करना सबसे सरल है क्योंकि दूसरे छन्द (चौपाई को छोड़कर) प्रायः कठिन हैं । दूसरे यह बात कि दोहे की लय इतनी परिचित है कि मात्रा गिने बिना भी प्रायः दोहा सही बन जाता है ।  कुछ दोहों के स्रोत तो मिल ही गए हैं । पहले दोहे का हिन्दी में स्रोत तो पता नहीं पर संस्कृत में तो यह इस प्रकार है- (सम्भवतः नीतिशतक)-
अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात् ॥  December 18, 2008 12:25 AM
विश्व दीपक ’तन्हा’ - दोहे तो हमारी दैनिक जिंदगी का हिस्सा हैं, भले हीं हम इससे अनभिज्ञ हों। ’सलिल जी’! इस आलेख की आने वाली कड़ियों का इंतज़ार रहेगा। वैसे मुझे इस आलेख का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मैं ह्र्स्व, दीर्घ, अन्तस्थ, ऊष्म से पुन: रूबरू हो पाया।इस आलेख के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया।  December 18, 2008 9:39 PM
vivek ranjan shrivastava -वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में ज्यादातर बच्चे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पा रहे है , वे किसी तरह कक्षा १० वीं तक हिन्दी को ढ़ोते हैं , ऐसे में हिन्दी व्याकरण को समझ कर दोहे जैसे छंद पर काम करना भावी पीढ़ी के लिये कठिन है , बधाई ! कि अंतरजाल पर यह सुप्रयास संजीव जी व हिन्द युग्म द्वारा किया जा रहा है . December 19, 2008 8:15 AM
pooja anil  - प्रणाम आचार्य जी, आज ही पूरा पाठ पढ़ पाई, बेहद ज्ञान वर्धक और रुचिकर अध्याय है, हिन्दी व्याकरण का ज्ञान भारत से बाहर रहकर भूल ही गयी थी, पुनः याद दिलाने के लिए बहुत बहुत आभार. कक्षा में नियमित रहने की कोशिश करुँगी .
पूजा अनिल December 22, 2008 3:27 PM
Chauhan -its a btr try but 1st to tell me that where from u collect that i really impressed.thanks to given a best thing of hindi.  anirudha  December 23, 2008 10:27 PM 

दोहा गाथा सनातन (दोहा-गोष्ठी : १)


संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.

दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.

सुनिए दोहा-पुरी में, संगीता की तान. 
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान. 

समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन रविकान्त.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा शांत.

सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
भू प्रगटे देवेन्द्र जी, करने दोहा-गान.

शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर. 
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.

दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद. 
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद. 

पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ. 

अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूंदकर, बने हुए हैं सूर. 

जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.

सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.

स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.

दोहा-प्रेमियों की रूचि और प्रतिक्रिया हेतु आभार। दोहा रचना सम्बन्धी प्रश्नों के अभाव में हम दोहा के एतिहासिक योगदान की चर्चा करेंगे। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बतादी. असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, वह कालजयी दोहा है-

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.

इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है. 

मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..

शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो. 

किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण. 

हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।

जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.

दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-

जो जिण सासण भा भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू. 

चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा. 

पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.

संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह. 

चलिए, आज की दोहा वार्ता को यहीं विश्राम दिया जाय इस निवेदन के साथ कि आपके अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोज कर रखिये, कभी उन की भी चर्चा होगी। अभ्यास के लिए दोहों को गुनगुनाइए। राम चरित मानस अधिकतर घरों में होगा, शालेय छात्रों की पाठ्य पुस्तकों में भी दोहे हैं। दोहों की पैरोडी बनाकर भी अभ्यास कर सकते हैं। कुछ चलचित्रों (फिल्मों) में भी दोहे गाये गए हैं। बार-बार गुनगुनाने से दोहा की लय, गति एवं यति को साध सकेंगे जिनके बारे में आगे पढेंगे।   शनिवार २० दिसंबर २००८ 
___________________________
manu  -आचार्य ...आश्चर्या.....???????????????? मैं नहीं बस.....!!!!!!!
" जग सारा अपना लिया , आचार्य ने आज,
क्यूं मोहे बिसरा दिया, हूँ तोसे नाराज ""
बच्चा कक्षा से डरता है तो आप उसे भुला देंगे आचार्य....?? December 20, 2008 10:54 PM
तपन शर्मा  - पिछली बार की हर टिप्पणी पर एक एके दोहा.. कमाल है गुरु जी...  हम भी कोशिश करेंगे अगली बार दोहों में ही टिप्पणी करने की... वैसे जो दोहे आपने बताये उनसे जानकारी बहुत बढी..  December 20, 2008 10:59 PM
तपन शर्मा - हा हा...
संजीव जी के दोहों में मनु रह गये बस
आचार्य जवाब देने पर हो जायेंगे विवश... December 20, 2008 11:05 PM
संजीव सलिल  -आचार्य संजीव 'सलिल', सम्पादक दिव्या नर्मदा, संजीवसलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम 
मनु को कौन भुला सका, रहा हमेशा याद.
लेकिन पत्ता तुरुप का, लेते सबके बाद. 

रूठे तो अच्छा किया, दिखा दिया यह आज. 
जो अपना होता वही, अपनों से नाराज.   December 21, 2008 12:22 AM
संजीव सलिल का कहना है कि -
रोना होता है भला. आँखें होतीं साफ़.
ठीक तरह से कर सकें, दोहे से इन्साफ.

मैं क्या जानूं सिखाना, स्वयं सीखता रोज.
मनु जैसे गुरु की करुँ, हिन्दयुग्म पर खोज.

बच्चा होता बाप का, बाप यही है सत्य.
क्षणभंगुर है 'सलिल' पर, 'मनु' अविनाशी नित्य.  December 21, 2008 1:53 AM
manu का कहना है कि - पहले रुलाते हैं फ़िर सबसे बड़ा चाकलेट थमा देते हैं.... प्रणाम. December 21, 2008 7:02 AM
devendra का कहना है कि -
अंग्रेजी के मोह में‌, हैं हिन्दी से दूर
जो वे आँखें मूंदकर, बने हुए हैं सूर

बने हुए हैं सूर, चाँद का सपन दिखाते
निज हाथों से आप, देश का दीप बुझाते

--अच्छे दोहों का हुआ आज और भी ग्यान
और एक में है लिखा मेरा भी तो नाम। -देवेन्द्र पाण्डेय।  December 21, 2008 10:39 AM
शोभा का कहना है कि -
दोहे की महिमा पढ़ी, हुआ हृदय को हर्ष।
हमें भूल जो सब गए, होगा ना उत्कर्ष।। December 21, 2008 1:03 PM
संजीव सलिल का कहना है कि -
शोभा से आरम्भ है, शोभा पर ही अंत.
गीतिकाव्य का रसकलश, दोहा रसिक- न संत.

गति यति रस लय भावमय, बेधकता रस-खान.
शोभा बिम्ब-प्रतीक की, 'सलिल' फूंकती जान  December 21, 2008 2:07 PM
शोभा का कहना है कि -
दिल गद् गद् है खुशी से, आंखें भी मुसकाएँ।
दोहा चर्चा युग्म पर, सलिल सदृश्य गति पाए।  December 21, 2008 5:35 PM
"SURE" का कहना है कि -
लिख कर दोहे आपने किया है हिंद का मान 
हर एक दोहे में छिपा है गहरा गहरा ज्ञान   December 21, 2008 11:14 PM
सीमा सचदेव का कहना है कि -
हुआ कया जो पिछड गई ,समय की सीमा आज
पिछडे हुए ही भूल गए ,बताया गुरु ने राज

बहा जा रहा सलिल यूं ,जयों दोहा की धार
भुला के हमको तोड दी हर सीमा की दीवार

बिन सीमा हो जाएगी ,धारा बेपरवाह
सीमाओं मे बहोगे तो , मिल जाएगी थाह   December 22, 2008 2:22 PM
निखिल आनन्द गिरि का कहना है कि -
देर हुई दरबार में, माफ करें महाराज....
दोहा-महफिल में हमें,शामिल कीजै आज...   December 22, 2008 8:01 PM
kavita का कहना है कि -
मन मेरा हर्षित हुआ...पढ़ कर दोहा आज...
वंदन मेरा स्वीकार करे..धन्य आप महाराज!!!!   May 31, 2009 5:19 PM

दोहा सप्तक

१. भ्रमर- २२ गुरु, ४ लघु=४८, श्रृंगार रस, 
सांसें सांसों में समा, दो हो पूरा काज,
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज?
 

२. शरभ- २० गुरु, ८ लघु=४८, शांत रस 
हँसे अंगिका-बज्जिका, बुन्देली के साथ.मिले मराठी-मालवी, उर्दू दोहा-हाथ.. 
३. मंडूक- १८ गुरु, १२ लघु, वीभत्स रस 
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध
४. करभ दोहा- १६ गुरु, १६ लघु, वात्सल्य रस 
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
५. पान- १० गुरु, २८ लघु, रौद्र रस  शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश 

६. व्याल ४ गुरु, ४० लघु, भक्ति रस 
पल-पल निशि-दिन सुमिर मन, नटवर गिरिधर नाम।
तन-मन-धन जड़ जगत यह, 'सलिल' न आते काम॥
७. विडाल- ३ गुरु, ४२ लघु, भक्ति रस 
निश-दिन शत-शत नमन कर, सुमिर-सुमिर गणराज.
चरण-कमल धरकर ह्रदय, प्रणत- सदय हो आज.
------------
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान 
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 

नवगीत संग्रह २०१६-१७

सूची: नवगीत संग्रह २०१७ 

१. लौट आया मधुमास शशि पाधा 
२. हैं जटायु से अपाहिज हम कृष्ण भारतीय 
३. मौन की झंकार संध्या सिंह 
४. धुएँ की टहनियाँ रामानुज त्रिपाठी 
५. परों को तोल शीला पांडे 
६. 
७. समय कठिन है राम चरण राग 
८. फिर उठेगा शोर एक दिन शुभम श्रीवास्तव ओम 
९. काँधों लदे तुमुल कोलाहल यतीन्द्रनाथ राही 
१०. आदमी उत्पाद की पैकिंग हुआ डॉ. मनोहर अभय 
११. भाव पंखी हंस ममता बाजपायी 
१२. किसी उत्सव या मेले में डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ 
१३. बस्ती के भीतर अवध बिहारी श्रीवास्तव 
१४. कितनी आगे बढ़ी सदी डॉ. अनिल कुमार
१५.  
१६. धूप लेकर मुट्ठियों में मनोज जैन मधुर 
१७. अक्षर की आँखों से वेदप्रकाश शर्मा वेद 
१८. दिन क्यों बीत गए धनंजय सिंह 
१९. इस हवा को क्या हुआ रमेश गौतम 
२०. मिले सवाल नये डॉ. क्षमाशंकर पाण्डेय 
२१. गीत अपने ही सुनें वीरेन्द्र आस्तिक 
२२. सयानी आहटें हैं ब्रजनाथ श्रीवास्तव 
२३. शेष रहे आलाप गीता पंडित 
२४. तड़पन बी.एल.राही 
***
सूची: नवगीत संग्रह २०१६ 
१ कुछ बेलपत्र कुछ तुलसीदल जंगबहादुर श्रीवास्तव बंधु 
२ झील अनबुझी प्यास की रामसनेहीलाल शर्मा यायावर 
३ खेतों ने खत लिखा कल्पना रामानी 
४ दहलीज के भीतर बाहर गीता पंडित
५ अम्मा रहती गाँव में प्रदीप शुक्ल
६ अप्प दीपो भव कुमार रवीन्द्र
७ जिंदगी की तलाश में श्याम श्रीवास्तव
८ काल है संक्रांति का आचार्य संजीव वर्मा सलिल
९ यादों की नागफनी श्याम श्रीवास्तव (जबलपुर)
१० गीतांबरी मधुकर गौड़
११ बोलना सख्त मना है पंकज मिश्र अटल
१२ सच कहूँ तो निर्मल शुक्ल
१३ मुखर अब मौन है मधु प्रधान
१४ संवत बदले गणेश गंभीर
१५ मनचाहा आकाश सत्येन्द्र तिवारी
१६ रिश्ते बने रहें योगेन्द्र वर्मा व्योम
१७ जब से मन की नाव चली आकुल
१८ अँजुरी भर धूप सुरेश पांडा
१९ कितनी दूर और चलने पर सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
२० बूँद बूँद गंगाजल भावना तिवारी
२१ चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं यतीन्द्रनाथ राही
२२ फटे पाँवों में महावर संजय शुक्ल
२३ उत्तरा फाल्गुनी देवेन्द्र शर्मा इंद्र
२४ किस नगर तक आ गए हम डॉ. अजय पाठक
२५ लाल टहनी पर अड़हुल शांति सुमन

२००१८ की लघुकथाएँ

२०१८ की लघुकथाएँ:
कोल्हू का बैल  
*
विवाह पश्चात माता-पिता की देख-भाल, बेटे-बेटियों की शिक्षा-नौकरी और विवाह हो जाने पर उसने चैन की साँस ली। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते-निभाते कब किशोर से प्रौढ़ हो गया पता ही न चला। 
देर आयद दुरुस्त आयद... अब कुछ मन की भी कर ली जाए, सोचकर उसने पहले पुस्तकालय की सदस्यता ली, फिर कलम थाम कर गद्य-पद्य में हाथ आजमाने लगा। कहते है हौसलेवालों की कभी हार नहीं होती। शीघ्र ही उसका लिखा सराहा जाने लगा और यत्र-तत्र प्रकाशित-पुरस्कृत भी होने लगा।  
एक रात कुछ अंतराल से बेटे-बेटी का फोन आया जिसमें उसे ताकीद की गयी कि वह पहले की तरह ठीक से घर की देख-भाल क्यों नहीं करता?, क्यों आलतू-फालतू के मित्रों और कामों में समय और धन बर्बाद करता है? उसने 'काटो तो खून नहीं' की स्थिति का अनुभव किया। मन तो हुआ था कि पूछे- 'बेटा! खेल के चक्कर में दो साल और बिटिया! नृत्य के चक्कर में एक साल, बेशकीमती धन बर्बाद करने के बारे में कभी सोचा है। इसके बाद भी कोचिंग और ट्यूशन, फिर भी कम अंकों के कारन निजी संस्थाओं में पढ़ाई पर जो समय और धन लगा उसका कसूरवार कौन है?  
किंतु व्यर्थ कड़वाहट न बढ़े  सोचकर फोन काट दिया। मुड़कर देखा तो वह बंकिम दृष्टि से देखते हुए  व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेर रही थी। उसे तत्क्षण ही प्रतीति हुई कि वह भले ही मन-प्राण से निछावर होता रहा है किंतु उसे अब समाजः गया है सिर्फ कोल्हू का बैल।
*** ७-१-२०१८ ***
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२०१८ की लघुकथाएँ: ५
गिरगिटान
*
अंतरजाल व मुख पुस्तक (इंटरनेट व फेसबुक) पर प्रकाशित रचनाओं की प्रशंसा तथा अच्छाइयाँ बताते-बताते उसने छंद सीखने की इच्छा जाहिर करते हुए मानक जानना चाहे। फिर अपनी बचकानी दोषों से लबालब रचनाएँ भेज कर परामर्श चाहा। रचनाओं में संशोधन के बाद उनका कायाकल्प हो जाने की बात कहते हुए उसने सिलसिला जरी रखा। उसके पाठक इन रचनाओं को उसकी लिखी मानकर उसे सराहते, संस्थाएँ पुरस्कृत करतीं जबकि रचनाएँ वस्तुत: उसके अकेले के द्वारा लिखी हुई नहीं थीं। 
एक कार्यक्रम के मध्य अचानक वह सामने पद गई किंतु अनदेखा कर जाने को हुई, तभी उसकी सखी ने आगंतुक को प्रणाम करते हुए कहा 'रुको! क्या इन्हें पहचान नहीं पा रही हो? मैं भी पहले कभी नहीं मिली पर चेहरे से अनुमान कर रही हूँ ये वही हैं जिनसे तुम पिछले दो साल से रचनाएँ सीखती और सुधरवाती रही हो। तुम तो दिन-रात इनकी प्रशंसा करतीं थीं।   
उसके चहरे का रंग उड़ता सा लगा किंतु खुद को सम्हाल कर तुरंत बोली- 'कभी मिली नहीं थी न, इसलिए नहीं पहचान सकी' और अनमनेपन से हाथ जोड़कर चल दी। उसकी सहेली चरण स्पर्श कर आगंतुक को आसंदी तक ले गई। उन्होंने मुड़कर देखा तो वह एक शायर से कुछ पूछती दिखी, पीछे झाड़ियों में रंग बदल रही थी गिरगिटान। 
*** ६-१-२०१८ ***
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नवगीत 
क्यों?
*
मेहनतकश को मिले 
मजूरी में गिनती के रुपये भाई 
उस पर कर है.
*
जो न करे उत्पादन कुछ भी
उस अफसर को
सौ सुविधाएँ और हजारों
भत्ते मिलते.
पदोन्नति पर उसका हक है
कभी न कोई
अवसर छिनते
पाँच अँगुलियाँ
उसकी घी में और
कढ़ैया में सिर तर है.
*
प्रतिनिधि भूखे-नंगे जन का
हर दिन पाता इतना
जिसमें बरस बिताता आम आदमी.
मुफ्त यात्रा,
गाडी, बंगला,
रियायती खाना, भत्ते भी
उस पर रिश्वत और कमीशन
गिना न जाए.
माँग- और दो
शेष कसर है.
*
पूँजीपति का हाल न पूछो
धरती, खनिज, ऊर्जा, पानी
कर्जा जितना चाहे, पाए.
दरें न्यूनतम
नहीं चुकाए.
खून-पसीना चूस श्रमिक का
खूब मुटाये.
पोल खुले हल्ला हो ज्यादा
झट विदेश
हो जाता फुर्र है.
*
अभिनेता, डॉक्टर, वकील,
जज,सेठ-खिलाड़ी
कितना पाएँ?, कौन बताए?
जनप्रियता-ईनाम आदि भी
गिने न जाएँ.
जिसको चाहें मारे-कुचलें
सजा न पाएँ.
भूल गए जड़
आसमान पर
जमी नजर है .
*
गिनी कमाईवाले कर दें
बेशुमार जो कमा रहे हैं
बचे रहें वे,
हर सत्ता की यही चाह है.
किसको परवा
करदाता भर रहा आह है
चूसो, चूसो खून मगर
मरने मत देना.
बाँट-बाँट खैरात भिखारी
बना रहे कह-
'नहीं मरेगा लोक अमर है'.
*
मेहनतकश को मिले
मजूरी में गिनती के रुपये भाई
उस पर कर है.
*****
७-१-२०१६

navgeet

नवगीत :
रार ठानते
*
कल जो कहा 
न आज मानते 
याद दिलाओ
रार ठानते
*
दायें बैठे तो कुछ कहते
बायें पैठे तो झुठलाते
सत्ता बिन कहते जनहित यह
सत्ता पा कुछ और बताते
तर्कों का शीर्षासन करते
बिना बात ही
भृकुटि तानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
मत पाने के पहले थे कुछ
मत पाने के बाद हुए कुछ
पहले कभी न तनते देखा
नहीं चाहते अब मिलना झुक
इस की टोपी उस पर धरकर
रेती में से
तेल छानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
जनसेवक मालिक बन बैठे
बाँह चढ़ाये, मूँछें ऐंठे
जितनी रोक बढ़ी सीमा पर
उतने ही ज्यादा घुसपैठे
बम भोले को भुला पटल बम
भोले बन त्रुटि
नहीं मानते
कल जो कहा
न आज मानते
*

७-१-२०१६ 

2018 ki laghukathayen

२०१८ की लघुकथाएँ: ४
दोषी
*
वे बचपन से एक-साथ खेलते-कूदते हुए बड़े हुए, संयोगवश एक ही विद्यालय में साथ ही पढ़ रहे थे। परीक्षाफल आया तो वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण था किंतु वह अनुत्तीर्ण हो गयी थी।
इसे अपनी सफलता की ख़ुशी से अधिक दुःख उसकी असफलता का था क्योंकि उसी की पुस्तकें लेकर यह साल भर पढ़ता रहा था।
शाम को उद्यान में दोनों मिले तो वह बधाई देते हुए इसके गले लग गयी। यह अवाक था यह देखकर कि कि वह अपनी असफलता से दुखी कम और इसकी सफलता से सुखी अधिक थी। इसने तय किया कि अब ऐसा नहीं होगा , वह अपने साथ-साथ इसकी तैयारी पर भी ध्यान देगा।
दोनों अपने-अपने घर लौटे।  इसने अपने घर पर कहर बरपा हुआ पाया। उसके माता-पिता इसके माता-पिता पर नाराज हो रहे थे कि इसकी संगत में वह बिगड़ गई है। इसके माता-पिता बोले कि वह बिगड़ी है, इससे दूर रहे।
इसके घर पर सन्नाटा पसरा हुआ था, माता-पिता ने लौटकर बताया कि वे क्या कर आये थे।
दोनों नासमझ नहीं समझ पा रहे थे कि जो कुछ घटा मिल-जुलकर उसे सुधारने का अवसर दें के स्थान पर उसे सुधारने के स्थान पर समझदार उन्हें क्यों ठहरा रहे हैं दोषी?   
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दोहा दुनिया

वृषभ सवारी कर हुए, शिव पशुओं के साथ।
पशुपति को जग पूजता, विनत नवाया माथ।।
*
कृषि करने में सहायक, वृषभ हुआ वरदान।
ऋषभनाथ शिव कहाए, सृजन सभ्यता महान।।
*
ऋषभ न पशु को मारते, सबसे करते प्रेम।
पंथ अहिंसक रच किया, सबका सबसे क्षेम।।
*
शिवा बाघ शिशु का बदल, हिंसक दुष्ट स्वभाव।
बना अहिंसक सवारी, करतीं नेक प्रभाव।।
*
वंशज मनुज को सभ्य कर, हर शंका कर दूर।
शिव शंकर होकर पुजे, पा श्रद्धा भरपूर।।
*
७.१.२०१८

शनिवार, 6 जनवरी 2018

2018 ki laghu katahyen 3

२०१८ की लघुकथाएँ: ३
चुपचाप
*
समाज की परंपरा और कुलाचार के अनुसार बड़ों ने तय कर दिया हमारा विवाह। निर्धारित कार्यक्रमानुसार संबंधी जुटे, बरात गयी, फेरे पड़े और 'वह' आ गई हमारे घर, मेरे कमरे में। पहले तो उसका आना अच्छा ही नहीं बहुत अच्छा लगा। उसकी असुविधा देख कुछ कहता-करता तो 'जोरू का गुलाम' विशेषण से नवाज़ा जाकर उपहास का पात्र बनता। वह मेरी सुविधा के लिए कुछ करती तो उसे शाबाशी मिलती। 
धीरे-धीरे वन सहज होती गयी और मैं असहज हो खुद में सिमटता गया। स्वजन मुझसे पहले उसका ध्यान रखते। फिर आ गए बच्चे, वह उनमें रमती गयी और मैं अन्यों से पहले ही दूर सा हो गया था, अब उससे भी दूरी हो गई तो अकेलेपन में घिरता गया। बच्चे उस पर निर्भर थे, मुझसे अपेक्षाकृत कम सहज थे।
माह में एक बार वेतन आता तो सबसे पहले बच्चों, फिर बड़ों, फिर उसकी और अंत में मेरी जरूरतों का ध्यान रखा जाता। प्राय: मेरि आवश्यकताओं का क्रम आते-आते वेतन ही समाप्त होने लगता। यह भी सच है कि उसकी आवश्यकताएँ भी कम ही पूरी हो पाती हैं किंतु उसके हिस्से में बच्चों का प्रेम, बड़ों का आशीष, संबंधियों के प्रशंसा और मेरा सहयोग पूरा-पूरा आता है, जबकि मेरे हिस्से में अन्यों की तो छोडिए उसकी प्रशंसा औए सहयोग भी पूरी तरह नहीं आ पाता क्योंकि अन्यों को संतुष्ट करते-करते ही वह चुकने लगती है तो मैं शिकायत भी कैसे करूँ? मन मसोस कर रह जाता हूँ। 
बड़े होते बच्चों के अनुसार उनके पिता को अधिक धनी होना चाहिए था कि उनकी सब जरूरतें पोरी करने के साथ मोटा जेब खर्च दे पाता, माता-पिता का उलाहना कि बचपन में और अधिक पढ़ा होता तो बड़ा फसर बन पाटा, उन्हें सुख-सुविधा, नौकर-चाकर दे पाता, वह सीधे-सीधे तो कुछ नहीं कहती पर बहुधा सुनाती है सहेलियों की सम्पन्नता के किस्से। मुझे हर दिन पल-पल लगता है कि मेरा कद बौना होता जा रहा है, मैं अपने ही घर में अजनबी होता जा रहा हूँ विडम्बना यह कि किसी से कुछ कह भी नहीं सकता, इसलिए रहा आता हूँ चुपचाप।  
६-१-२०१८ -------------------
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laghukatha

२०१८ की लघुकथाएँ: २ 
समानाधिकार
*
"माय लार्ड! मेरे मुवक्किल पर विवाहेतर अवैध संबंध बनाने के आरोप में कड़ी से कड़ी सजा की माँग की जा रही है। उसे धर्म, नैतिकता, समाज और कानून के लिए खतरा बताया जा रहा है। मेरा निवेदन है कि अवैध संबंध एक अकेला व्यक्ति कैसे बना सकता है? संबंध बनने के लिए दो व्यक्ति चाहिए, दोनों की सहभागिता, सहमति और सहयोग जरूरी है। यदि एक की सहमति के बिना दूसरे द्वारा जबरदस्ती कर सम्बन्ध बनाया गया होता तो प्रकरण बलात्कार का होता किंतु इस प्रकरण में दोनों अलग-अलग परिवारों में अपने-अपने जीवन साथियों और बच्चों के साथ रहते हुए भी बार-बार मिलते औए दैहिक सम्बन्ध बनाते रहे - ऐसा अभियोजन पक्ष का आरोप है। 
भारत का संविधान भाषा, भूषा, क्षेत्र, धर्म, जाति, व्यवसाय या लिंग किसी भी अधर पर भेद-भाव का निषेध कर समानता का अधिकार देता है। यदि पारस्परिक सहमति से विवाहेतर दैहिक संबंध बनाना अपराध है तो दोनों बराबर के अपराधी हैं, दोनों को एक सामान सजा मिलनी चाहिए अथवा दोनों को दोष मुक्त किया जाना चाहिए।अभियोजन पक्ष ने मेरे मुवक्किल के साथ विवाहेतर संबंध बनानेवाली के विरुद्ध प्रकरण दर्ज नहीं किया है, इसलिए मेरे मुवक्किल को भी सजा नहीं दी जा सकती। 

वकील की दलील पर न्यायाधीश ने कहा- "वकील साहब आपने पढ़ा ही है कि भारत का संविधान एक हाथ से जो देता है उसे दूसरे हाथ से छीन लेता है। मेरे सामने जिसे अपराधी के रूप में पेश किया गया है मुझे उसका निर्णय करना है। जो अपराधी के रूप में प्रस्तुत ही नहीं किया गया है, उसका विचारण मुझे नहीं करना है। आप अपने मुवक्किल के बचाव में तर्क दे पर संभ्रांत महिला और उसके परिवार की बदनामी न हो इसलिए उसका उल्लेख न करें।" 

अपराधी को सजा सुना दी गयी और सिर धुनता रह गया समानाधिकार।
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navgeet

नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर. 
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में 
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
*

६-१-२०१७ 

navgeet

नवगीत: 
संजीव 

उठो पाखी!
पढ़ो साखी 
.
हवाओं में शराफत है
फ़िज़ाओं में बगावत है
दिशाओं की इनायत है
अदाओं में शराफत है
अशुभ रोको
आओ खाखी
.
अलावों में लगावट है
गलावों में थकावट है
भुलावों में बनावट है
छलावों में कसावट है
वरो शुभ नित
बाँध राखी
.
खत्म करना अदावत है
बदल देना रवायत है
ज़िंदगी गर नफासत है
दीन-दुनिया सलामत है
शहद चाहे?
पाल माखी
***

६-१-२०१५