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बुधवार, 29 नवंबर 2017

गीत, नवगीत और छंद

आलेख:
गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता
आचार्य ​
संजीव
​ वर्मा​
'सलिल'
*
भूमिका: ध्वनि और भाषा
​आ
ध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व
​सामान्य
को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा। आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनी
​ ​
अनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।
कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली। भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्र
​ ​
गुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।
निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से
​स्था
यित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता
​का ​
सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का ले
​खा
रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी
​,
सहचरों
​आदि ​
से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त
​होता रहा जबकि ब्राम्हण वर्ग शिक्षा प्रदाय हेतु जिम्मेदार था
। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का
​शास्त्र
विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।
रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। बर्फ, ठंड और नमी वाले क्षेत्रों में रोमन लिपि का विकास हुआ। चित्र अंकन करने की रूचि ने चित्रात्मक लिपि
​यों​
के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह
​ वातावरण तथा ​
खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला, बृज, अव
​धी
भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से
व्याध द्वारा
नर का
वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है
​​
​हो इस प्रसंग से प्रेरित होकर​
​ ​
हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति
​जैसी
मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति
​-
पर्यावरण का योगदान इंगित करते हैं
व्याकरण और पिंगल का विकास-
भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका
इसलिये भारत में कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञान के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही
​ छंद शास्त्र
के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर
​मात्रा ​
के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये। छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।
गीति काव्य में छंद-
गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है।इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है। संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गयी। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पचास छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।
वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।
अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-
लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।
दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी को शोधोपाधियां प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा से हीं प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में जीवित रहा। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर में करते हैं।
उर्दू काव्य विधाओं में छंद-
भारत के विविध भागों में विविध भाषाएँ तथा हिंदी के विविध रूप (शैलियाँ) प्रचलित हैं। उर्दू हिंदी का वह भाषिक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों के साथ-साथ मात्र गणना की पद्धति (तक़्ती) का प्रयोग किया जाता है जो अरबी लोगों द्वारा शब्द उच्चारण के समय पर आधारित हैं। पंक्ति भार गणना की भिन्न पद्धतियाँ, नुक्ते का प्रयोग, काफ़िया-रदीफ़ संबंधी नियम आदि ही हिंदी-उर्दू रचनाओं को वर्गीकृत करते हैं। हिंदी में मात्रिक छंद-लेखन को व्यवस्थित करने के लिये प्रयुक्त गण के समान, उर्दू बहर में रुक्न का प्रयोग किया जाता है। उर्दू गीतिकाव्य की विधा ग़ज़ल की ७ मुफ़र्रद (शुद्ध) तथा १२ मुरक्कब (मिश्रित) कुल १९ बहरें मूलत: २ पंच हर्फ़ी (फ़ऊलुन = यगण यमाता तथा फ़ाइलुन = रगण राजभा ) + ५ सात हर्फ़ी (मुस्तफ़इलुन = भगणनगण = भानसनसल, मफ़ाईलुन = जगणनगण = जभानसलगा, फ़ाइलातुन = भगणनगण = भानसनसल, मुतफ़ाइलुन = सगणनगण = सलगानसल तथा मफऊलात = नगणजगण = नसलजभान) कुल ७ रुक्न (बहुवचन इरकॉन) पर ही आधारित हैं जो गण का ही भिन्न रूप है। दृष्टव्य है कि हिंदी के गण त्रिअक्षरी होने के कारण उनका अधिकतम मात्र भार ६ है जबकि सप्तमात्रिक रुक्न दो गानों का योग कर बनाये गये हैं। संधिस्थल के दो लघु मिलाकर दीर्घ अक्षर लिखा जाता है। इसे गण का विकास कहा जा सकता है।
वर्णिक छंद मुनिशेखर - २० वर्ण = सगण जगण जगण भगण रगण सगण लघु गुरु
चल आज हम करते सुलह मिल बैर भाव भुला सकें
बहरे कामिल - मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
पसे मर्ग मेरे मज़ार परजो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम से ही बुझा दिया
उक्त वर्णित मुनिशेखर वर्णिक छंद और बहरे कामिल वस्तुत: एक ही हैं।
अट्ठाईस मात्रिक यौगिक जातीय विधाता (शुद्धगा) छंद में पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु तथा पंक्त्यांत में गुरु रखने का विधान है।
कहें हिंदी, लिखें हिंदी, पढ़ें हिंदी, गुनें हिंदी
न भूले थे, न भूलें हैं, न भूलेंगे, कभी हिंदी
हमारी थी, हमारी है, हमारी हो, सदा हिंदी
कभी सोहर, कभी गारी, बहुत प्यारी, लगे हिंदी - सलिल
*
हमें अपने वतन में आजकल अच्छा नहीं लगता
हमारा देश जैसा था हमें वैसा नहीं लगता
दिया विश्वास ने धोखा, भरोसा घात कर बैठा
हमारा खून भी 'सागर', हमने अपना नहीं लगता -रसूल अहमद 'सागर'
अरकान मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन से बनी उर्दू बहर हज़ज मुसम्मन सालिम, विधाता छंद ही है। इसी तरह अन्य बहरें भी मूलत: छंद पर ही आधारित हैं।
रुबाई के २४ औज़ान जिन ४ मूल औज़ानों (१. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़अल, २. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़अल, ३. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़ऊल तथा ४. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़ऊल) से बने हैं उनमें ५ लय खण्डों (मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाइलुन् , फ़अल तथा फ़ऊल) के विविध समायोजन हैं जो क्रमश: सगण लघु, यगण लघु, जगण २ लघु / जगण गुरु, नगण तथा जगण ही हैं। रुक्न और औज़ान का मूल आधार गण हैं जिनसे मात्रिक छंद बने हैं तो इनमें यत्किंचित परिवर्तन कर बनाये गये (रुक्नों) अरकान से निर्मित बहर और औज़ान छंदहीन कैसे हो सकती हैं?
औज़ान- मफ़ऊलु मफ़ाईलुन् मफ़ऊलु फ़अल
सगण लघु जगण २ लघु सगण लघु नगण
सलगा ल जभान ल ल सलगा ल नसल
इंसान बने मनुज भगवान नहीं
भगवान बने मनुज शैवान नहीं
धरती न करे मना, पाले सबको-
दूषित न करो बनो हैवान नहीं -सलिल
गीत / नवगीत का शिल्प, कथ्य और छंद-
गीत और नवगीत शैल्पिक संरचना की दृष्टि से समगोत्रीय है। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी गीत और दोनों नवगीत रचे जाते रहे आज भी रहे जा रहे हैं और भविष्य में भी रचे जाते रहेंगे। अनेक गीति रचनाओं में गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। इन्हें किसी वर्ग विशेष में रखे जाने या न रखे जाने संबंधी समीक्षकीय विवेचना बेसिर पैर की कवायद कही जा सकती है। इससे पाचनकाए या समीक्षक विशेष के अहं की तुष्टि भले हो विधा या भाषा का भला नहीं होता।
गीत - नवगीत दोनों में मुखड़े (स्थाई) और अंतरे का समायोजन होता है, दोनों को पढ़ा, गुनगुनाया और गाया जा सकता है। मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा यह क्रम सामान्यत: चलता है। गीत में अंतरों की संख्या प्राय: विषम यदा-कदा सम भी होती है । अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं। बहुधा मुखड़ा दोहराने के पूर्व अंतरे के अंत में मुखड़े के समतुल्य मात्रिक / वर्णिक भार की पंक्ति, पंक्तियाँ या पंक्त्यांश रखा जाता है। अंतरा और मुखड़ा में प्रयुक्त छंद समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित गृह का सा आभास कराते हैं। प्रयोगधर्मी रचनाकार इनमें एकाधिक छंदों, मुक्तक छंदों अथवा हिंदीतर भाषाओँ के छंदों का प्रयोग करते रहे हैं।गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है। नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है। दोहा, सोरठा, रोला, उल्लाला, त्रिभंगी, आल्हा, सखी, मानव, नरेंद्र छंद (फाग), जनक छंद, लावणी, हाइकु आदि का प्रयोग गीत-नवगीत में किया जाता रहा है।
गीत - नवगीत दोनों में कथ्य के अनुसार रस, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं। गेयता या लयबद्धता दोनों में होती है। गीत में शिल्प को वरीयता प्राप्त होती है जबकि नवगीत में कथ्य प्रधान होता है। गीत में कथ्य वर्णन के लिये प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करने की सरचनात्मक प्रयास कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता।
                                                                                
​ 
(संजीव वर्मा 'सलिल')
                                                        
​       ​
 
​  ​
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samasyapurti: naak

समस्या पूर्ति: 
नाक   
*
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है 
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है 
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ राह निकालें
नाक नकेल भी डाल सखे हो, न कटे जंजाल तो बाँह चढ़ा लें

*

doha- nar-naree ke

दोहा सलिला
.
नारी के दो-दो जगत,
वह दोनों की शान. 
पाती है वरदान वह,
जब हो कन्यादान.
.
नारी को माँगे बिना,
मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में,
सहता जग-उपहास.
.
दल-बल सह जा दान ले,
भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी,
बजा चैन से बीन.
.
चीन्ह-चीन्ह आदेश दे,
हक लेती है छीन. 
समता कर सकता न नर,
कोशिश नाहक कीन.
.
दो-दो मात्रा अधिक है,
नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी,
बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है,
वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है,
इसमें उसकी जान.
...
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मंगलवार, 28 नवंबर 2017

navgeet

नवगीत:
गीत पुराने छायावादी
मरे नहीं
अब भी जीवित हैं.
तब अमूर्त
अब मूर्त हुई हैं
संकल्पना अल्पनाओं की
कोमल-रेशम सी रचना की
छुअन अनसजी वनिताओं सी
गेहूँ, आटा, रोटी है परिवर्तन यात्रा
लेकिन सच भी
संभावनाऐं शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
बिम्ब-प्रतीक 
वसन बदले हैं
अलंकार भी बदल गए हैं.
लय, रस, भाव अभी भी जीवित 
रचनाएँ हैं कविताओं सी
लज्जा, हया, शर्म की मात्रा 
घटी भले ही
संभावनाऐं प्रणय-मिलन की  
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
कहे कुंडली 
गृह नौ के नौ 
किन्तु दशाएँ वही नहीं हैं 
इस पर उसकी दृष्टि जब पडी 
मुदित मग्न कामना अनछुई 
कौन कहे है कितनी पात्रा  
याकि अपात्रा?
मर्यादाएँ शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
***

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

navgeet

नवगीत
.
बसर ज़िन्दगी हो रही है
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर
.

बुधवार, 22 नवंबर 2017

kundaliya

कार्यशाला- विधा - कुण्डलिया छंद
कवि- भाऊ राव महंत ०१ सड़कों पर हो हादसे, जितने वाहन तेज उन सबको तब शीघ्र ही, मिले मौत की सेज। मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता जीवन का तब वेग, हमेशा थम ही जाता। कह महंत कविराय, आजकल के लड़कों पर चढ़ा हुआ है भूत, तेज चलते सड़कों पर।।
१. जितने वाहन तेज होते हैं सबके हादसे नहीं होते, यह तथ्य दोष है. 'हो' एक वचन, हादसे बहुवचन, वचन दोष. 'हों' का उपयोग कर वचन दोष दूर किया जा सकता है।
२. तब के साथ जब का प्रयोग उपयुक्त होता है, सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज।
३. सबको मौत की सेज नहीं मिलती, यह भी तथ्य दोष है। हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज
४. मौत की सेज मिलने के बाद यम का बुलावा या यम का बुलावा आने पर मौत की सेज?
५. जीवन का वेग थमता है या जीवन (साँसों) की गति थमती है?
६. आजकल के लड़कों पर अर्थात पहले के लड़कों पर नहीं था,
७. चढ़ा हुआ है भूत... किसका भूत चढ़ा है?
सुझाव
सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज। मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता जीवन का रथचक्र, अचानक थम सा जाता। कह महंत कविराय, चढ़ा करता लड़कों पर जब भी गति का भूत, भागते तब सड़कों पर।।
०२ बन जाता है हादसा, थोड़ी-सी भी चूक जीवन की गाड़ी सदा, हो जाती है मूक। हो जाती है मूक, मौत आती है उनको सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको। कह महंत कविराय, सुरक्षित रखिए जीवन चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत बन।।
१. हादसा होता है, बनता नहीं। चूक पहले होती है, हादसा बाद में क्रम दोष
२. सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको- अभिव्यक्ति दोष
३. रखिए, मत बन संबोधन में एकरूपता नहीं
हो जाता है हादसा, यदि हो थोड़ी चूक जीवन की गाड़ी कभी, हो जाती है मूक। हो जाती है मूक, मौत आती है उनको सड़कों पर देखा चलते इतराकर जिनको। कह महंत कवि धीरे चल जीवन रक्षित हो चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत हो। *

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

doha-yamak

गले मिले दोहा यमक
.
बिल्ली जाती राह निज, वह न काटती राह
होते हैं गुमराह हम, छोड़ तर्क की थाह
.
जो जगमग-जगमग करे, उसे न सोना जान 
जो जग मग का तम हरे, छिड़क उसी पर जान
.
किस मिस किस मिस को किया, किस बतलाए कौन?
तिल-तिल कर तिल जल रहा, बैठ अधर पर मौन
.
समय सूचिका का करे, जो निर्माण-सुधार 
समय न अपना वह सका, किंचित कभी सुधार
.
वह बोली आदाब पर, वह समझा आ दाब 
लपक-सरकने में गए, रौंदे सुर्ख गुलाब
गले मिले दोहा-यमक, गले बर्फ मतभेद 
इतनी देरी क्यों करी?, दोनों को है खेद 
>>>

hindi sahitya men hasya ras

हिंदी साहित्य में हास्य रस
मेघना राठी, भोपाल  
*
हास्य यानि नवरस में से एक। डॉ गणेश दत्त सारस्वत के अनुसार , " हास्य जीवन की वह शैली है, जिससे मनुष्य के मन के भावों की सुंदरता झलक उठती है।" हास्य वास्तव में निच्छल मन से निकला, मानव मन का वह कवच है जो उद्दात्त भावों को नियंत्रण कर हमें पृथ्वी पर रहने योग्य बनाता है।
श्रंगार रस के द्वारा हास्य का जन्म कई लेखको और विचारको द्वारा माना जाता है। लेकिन हास्य रस का विस्तार मात्र श्रंगार रस तक नहीं है अपितु अनेक रसों के परिपाक में इसकी उपयोगिता को महत्व दिया गया है।
आचार्य भरत मुनि के अनुसार केवल आठ रस ही माने गए हैं, जिसमे हास्य रस का एक विशेष स्थान है।
विश्वप्रसिद्ध लेखक "वाल्तेयर" ने साहित्यकारों की एक सभा में कहा था," जो हँसता नहीं वो लेखक नहीं हो सकता।"
हिंदी साहित्य में हास्य रस की परम्परा पुरातन काल से समृद्ध रूप में देखी जा सकती है। भारितीय आख्यायिकाएं , नाटक, गीत, महाकाव्य, पंचतंत्र, जातक कथाएँ, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि इस बात का प्रमाण हैं कि हिंदी साहित्य में हास्य आरम्भ से ही विद्यमान रहा है।
सूरदास जी द्वारा रचित बाललीलाओ में शुद्ध हास्य के बहुत सुन्दर उदाहरण देखने को मिल जायेगें।
हिंदी साहित्य में वीरगाथा काल में ओजपूर्ण रचनाएं ज्यादा लिखी गईं पर पूर्णतः हास्यविहीन काल नहीं था। पृथ्वीराज रासो में चंदरबरदाई और जयचंद की वार्ता हास्य व्यंग्य का अच्छा उदाहरण है।
भक्तिकाल में भी कुछ संतों के द्वारा जब विभिन्न धर्मानुयायियों के ढोंग को प्रदर्शित किया गया तब अनायास ही चरित्रगत विद्रूपता से उत्पन्न हास्य उतपन्न होता दीखता है।
आधुनिक हिंदी साहित्य की बात करें तो ' भारतेंदु हरिश्चंद' द्वारा ' अंधेर नगरी'और ' ताजीराते शौहर' जैसे प्रसिद्ध हास्य व्यंग्य ग्रन्थ लिखे गए। इसी समय ' प्रताप नारायण मिश्र' और ' बालमुकुंद गुप्त' द्वारा भी कई हास्य व्यंग्य लिखे गए।
बालकृष्ण भट्ट, शिवपूजनसहाय, विश्वभरनाथ शर्मा 'कौशिक', बाबू गुलाबराय ने हिंदी साहित्य को श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य रचनाएं दीं।
मुंशी प्रेमचन्द की रचनाओं में भी हास्य भरपूर है। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी ने हास्य व्यंग्य की श्रेष्ठ रचनाओं के द्वारा हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया।
हिंदी पत्रकारिता ने भी हास्य- व्यंग्य विधा को स्थापित करने में भरपूर योगदान दिया। कवि वचनसुधा, ब्राह्मण ये समाचारपत्र हास्य - व्यंग्य से भरपूर थे। प्रयाग समाचारपत्र में 'गोपालराम गहमरी ' हास्य - व्यंग्य का नियमित कॉलम लिखते थे। आज भी कई प्रसिद्ध समाचारपत्र हास्य- व्यंग्य के कॉलम को नियमित स्थान देते हैं।
" मार्क ट्वेन" के शब्दों में," समाज की सही तस्वीर उतारने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी व्यंगकार पर ही है"।
एक व्यंगकार हँसते- हँसते सब कुछ कह जाता है और सुनने वाले भी बिना बुरा माने हँसते- हँसते सुनते हैं और फिर सोचने के लिए बाध्य भी होते हैं कि हम खुद की कारस्तानियों , खुद के द्वारा उत्पन्न की हुई परिस्थिति पर स्वयं ही हँस रहे हैं।
वास्तव में जो बात क्रोध से, शांति से कहने में समझ नहीं आती वो इंसान हँसी -हँसी में समझ लेता है। कारण यहाँ उसका " अहं" आहात नहीं होता है। यही कारण है कि सामान्यजन द्वारा हास्य- व्यंग्य आधारित विधाएँ ज्यादा लोकप्रिय होती हैं।
काका हाथरसी के कुण्डलियाँ छंद हो या सुरेन्द्र शर्मा का चार लाइना, अशोक चक्रधर की कवितायेँ, इन सभी में एक बात सामान है, वह है " हास्य रस का प्रवाह"।
आज साहित्यकारों का एक वर्ग " हास्य" को सहित्यानुरूप नहीं मानता। हास्य से उन्हें साहित्य का स्तर हल्का होता हुआ लगता है।
ये सही है कि आज हास्य के नाम ओअर फूहड़ता परोसी जा रही है पर मात्र इस आधार पर हास्य को साहित्य से विलग करना सही नहीं है। सुधि पाठकजन , श्रोतागण समझते हैं शुद्ध हास्य और फूहड़ता के फर्क को।
हास्य को साहित्य की धारा से अलग मानने वाले लोगों को साहित्य के इतिहास में मील का पत्थर माने जाने वाले हास्य व्यंगकारों को अवश्य ही ध्यान में रखते हुए हास्य व्यंग्य में लिख रहे रचनाकारों का उत्साहवर्धन करना चाहिए, जिससे सहित्यकोष अच्छी हास्य व्यंग्य रचनाओं से समृद्ध हो सके साथ ही नई पीढ़ी भी शुद्ध हास्य से परिचित हो सके।
हास्य आदिकाल से ही मानव से जुदा है और हँसने हँसाने की ये विशेषता केवल मनुष्य को ही मिली है। साहित्य मानव स्वभाव को ही परिलक्षित करता है। इसलिए साहित्य की धारा से हास्य न कभी अलग हुआ है और न ही कभी होगा। केवल जरुरत है सही व सार्थक दिशा में लिखने- पढ़ने और साथ ही प्रोत्साहन की।

kshanika

क्षणिकाएँ
१. क्षितिज
.
क्षितिज
यदि  हाथ आता तो
बनाते हम तवा उसको
जला सूरज का नित चूल्हा
बनाते समय की रोटी
मिटाते भूख दुनिया की,
क्षितिज
यदि  हाथ आता तो
*
२. हुकुम
.
हुकुम
देना अगर होता
विधाता को हुकुम देते
मिटा दे भूख दुनिया से,
न बाकी स्वार्थ ही छोड़े.
भले पूजे न कोई भी
उसे तब,
हम तभी पूजें.
*
३.

doha

दोहा द्विपदी ही नहीं-
दोहा द्विपदी ही नहीं, चरण न केवल चार
गौ-भाषा दुह अर्थ दे सम्यक, विविध प्रकार
*
तेरह-ग्यारह विषम-सम, चरण पदी हो एक
दो पद मिल दोहा बने, रचते कवि सविवेक
*
गुरु-लघु रखें पदांत में, जग पदादि न मीत
लय रस भाव प्रतीक मिल, गढ़ते दोहा रीत
*
कहे बात संक्षेप में, दोहा तज विस्तार
गागर में सागर भरे, ज्यों असार में सार
*
तनिक नहीं अस्पष्टता, दोहे को स्वीकार्य
एक शब्द बहु अर्थ दे, दोहे का औदार्य
*
मर्म बेध दोहा कहे, दिल को छूती बात
पाठक-श्रोता सराहे, दोहा-कवि विख्यात
*
अमिधा मन भाती इसे, रुचे लक्षणा खूब
शक्ति व्यंजना सहेली, मुक्ता गहती डूब
*
आधा सम मात्रिक बना, है दोहे का रूप
छंदों के दरबार में, दोहा भूप अनूप
*
गति-यति दोहा-श्वास है, रस बिन तन बेजान
अलंकार सज्जित करें, पड़े जान में जान
*
बिंब प्रतीक मिथक हुए, दोहा का गणवेश
रहें कथ्य-अनुकूल तो, हों जीवंत हमेश
*
कहन-कथन का मेल हो, शब्द-भाव अनुकूल
तो दोहा हो फूल सम, अगर नहीं हो शूल
***

रविवार, 19 नवंबर 2017

chanchareek

स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
   आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'   
*
ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि 
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि


कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश 
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएँ मथुरेश

महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना का सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन, मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खाँटी राजस्थानी बोली, छरहरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक रहे जिनकी पहचान और मूल्यांकन समय नहीं कर सका। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है।  वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।

ब्रम्ह आप ही प्रगट हो, करते रचना कर्म  
चंचरीक प्रभु-भक्ति को, पाते जीवन-मर्म 


सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। लीलाविहारी आनंदकंद गोवर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शुक्ल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया।  
सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप 
शाकुंतल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप
*
'चंचरीक' प्रभु चरण के, दैव कृपा के पात्र 
काव्य सृजन सामर्थ्य के, नित्य-सनातन पात्र 
*
'नारायण' सा 'रूप' पा, 'जगमोहन' शुभ नाम 
कर्म कुशल कायस्थ हो, हरि को हुए प्रणाम
*
'नारायण' ने 'सूर्य' हो, प्रगटाया निज अंश 
कुक्षि 'वासुदेवी' विमल, प्रमुदित पा अवतंश 
*
सात नवंबर का दिवस, उन्निस-तेइस वर्ष 
पुत्र-रुदन का स्वर सुना, खूब मनाया हर्ष 
*
जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चंद्र-बुध-शनि की युति ने नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दिया जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक  मिलता रहा।

बैठे चौथे भाव में, रवि शशि बुध शनि साथ 
भक्ति-सृजन पथ-पथिक से, कहें न नत हो माथ 
*
रवि उजास, शशि विमलता, बुध दे भक्ति प्रणम्य 
शनि बाधा-संकट हरे, लक्ष्य न रहे अगम्य 
*
'विष्णु-प्रकाश-स्वरूप' से, अनुज हो गए धन्य 
राखी बाँधें 'बसंती', तुलसी' स्नेह अनन्य  
*
बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। 

विद्या गुरु भवदत्त से, मिली एक ही सीख 
कीचड़ में भी कमलवत, निर्मल ही तू दीख 
*
रथखाना में प्राथमिक, शिक्षा के पढ़ पाठ 
दरबार हाइ स्कूल में, पढ़े हो सकें ठाठ 
*
भक्तरत्न 'मथुरा' मुदित, पाया पुत्र विनीत 
भक्ति-भाव स्वाध्याय में, लीन निभाई रीत
*
'मंदिर डिग्गी कल्याण' में, जमकर बँटा प्रसाद 
भोज सहस्त्रों ने किया, पा श्री फल उपहार 
*
'गोविंदी' विधवा बहिन, भुला सकें निज शोक 
'जगमोहन' ने भक्ति का, फैलाया आलोक 
*
पाठक सोहनलाल से, ली दीक्षा सविवेक 
धीरज से संकट सहो, तजना मूल्य न नेक 
*
चित्र गुप्त है ईश का, निराकार सच मान 
हो साकार जगत रचे, निर्विकार ले जान 
*
काया स्थित ब्रम्ह ही, है कायस्थ सुजान 
माया की छाया गहे, लेकिन नहीं अजान 
*
पूज किसी भी रूप में, परमशक्ति है एक 
भक्ति-भाव, व्रत-कथाएँ, कहें राह चल नेक 
*
१९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा पर चल पड़े जगमोहन। युवा जगमोहन का विवाह रामकिशोरी के साथ हुआ किंतु वे एक कन्या रत्न  को जन्म देकर इहलोक से प्रस्थान कर गईं।         

'रामकिशोरी' चंद दिन, ही दे पाईं साथ 
दे पुत्री इहलोक से, गईं थामकर हाथ 
*
महाराज कॉलेज से, इंटर-बी. ए. पास 
किया, मिले आजीविका, पूरी हो हर आस 
*
धर्म-पिता भव त्याग कर, चले गए सुर लोक 
धैर्य-मूर्ति बन दुःख सहा, कोई सका न टोंक 
*
रचा पिता की याद में, 'मथुरेश जीवनी' ग्रंथ 
'गोविंदी' ने साथ दे, गहा सृजन का पंथ 
*
'विद्यावती' सुसंगिनी, दो सुत पुत्री एक 
दे, असमय सुरपुर गयीं, खोया नहीं विवेक 
*
महाराजा कॉलेज से, एल-एल. बी. उत्तीर्ण 
कर आभा करने लगे, अपनी आप विकीर्ण 
*
मिली नौकरी किंतु वह, तनिक न आयी रास 
जुड़े वकालत से किये, अनथक सतत प्रयास 
*
प्रगटीं माता शारदा, स्वप्न दिखाया एक 
करो काव्य रचना सतत, कर्म यही है नेक 
*
'एकादशी महात्म्य' रच, किया पत्नि को याद 
व्यथा-कथा मन में राखी, भंग न हो मर्याद 
*
रच कर 'माधव-माधवी', 'रुक्मिणी मंगल' काव्य 
बता दिया था कलम ने, क्या भावी संभाव्य 
*
जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये।

संतानों-हित तीसरा, करना पड़ा विवाह 
संस्कार शुभ दे सकें, निज दायित्व निबाह 
*
पा 'शकुंतला' हो गया, घर ममता-भंडार 
पाँच सुताएँ चार सुत, जुड़े हँसा परिवार 
*
सावित्री सी सुता पा, पितृ-ह्रदय था मुग्ध 
पाप-ताप सब हो गए, अगले पल ही दग्ध 
*
अधिवक्ता के रूप में, अपराधी का साथ 
नहीं दिया, सच्चाई हित, लड़े उठाकर माथ 
*
दर्शन 'गलता तीर्थ' के, कर भूले निज राह 
'पयहारी' ने हो प्रगट, राह दिखाई चाह 
*
महाकाव्य त्रयी का सृजन:
चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य 
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य

राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन 
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन
चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३ दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। 
'संतदास'-संपर्क से, पा आध्यात्म रुझान 
मन वृंदावन हो चला, भरकर भक्ति-उड़ान 
*
'पुरुषोत्तम श्री राम चरित', रामायण-अनुवाद 
कर 'श्री कृष्ण चरित' रचा, सुना अनाहद नाद 
*
'कल्कि विष्णु के चरित' को, किया कलम ने व्यक्त 
पुलकित थे मन-प्राण-चित, आत्मोल्लास अव्यक्त 
*
प्रथम कृति में कथा विकास सहायक पदों तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। 
सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष 
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष

राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ) के आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा) में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि ( अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।

चंचरीक मधुरेश थे, मंजुल मृदुल मराल 
शंकर सम अमृत लुटा, पिया गरल विकराल 
*
मोहन सोहन विमल या, वृन्दावन रत्नेश 
मधुकर सरस उमेश या , थे मुचुकुंद उमेश 
*
प्रेमी गुरु प्रणयी वही, अंबु सुनहरी लाल 
थे भगवती प्रसाद वे, भगवद्भक्त रसाल
*
सत्ताईस तारीख थी, और दिसंबर माह 
दो हजार तेरह बरस, त्यागा श्वास-प्रवाह 
*
चंचरीक भू लोक तज, चित्रगुप्त के धाम 
जा बैठे दे विरासत, अभिनव ललित ललाम 
*
उनमें प्रभु संजीव थे, भक्ति-सलिल में डूब 
सफल साधना कर तजा, जग दे रचना खूब 
*
निर्मल तुहिना दूब पर, मुक्तामणि सी देख 
मन्वन्तर कर कल्पना, करे आपका लेख 
*
जगमोहन काया नहीं, हैं हरि के वरदान 
कलम और कवि धन्य हो, करें कीर्ति का गान  
देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएँ चंचरीक सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में संपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक जी की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य सौभाग्य मिला।
कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़ 
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज

सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब 

चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब

चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान को देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को आपके व्यक्तित्व-कृतित्व पर समग्र ग्रंथ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए। भारत सरकार को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में चंचरीक जी पर पीठ स्थापित की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए। चंचरीक जी की सभी संतानें प्रभु-कृपा से समर्थ और सम्पन्न हैं। पितृ ऋण चुकाना संतान का कर्तव्य है। सभी संतानें मिलकर एकमुश्त राशि बैंक में जमाकर उसके ब्याज से प्रति वर्ष ''चंचरीक अलंकरण'' किसी श्रेष्ठ साहित्यकार अथवा कृति को देने की व्यवस्था कर सकते हैं। चंचरीक जि जिस मंदिर में ईशाराधना करते थे, वहाँ कृष्ण लीला गायन प्रतिस्पर्धा का आयोजन कर श्रेष्ठ स्पर्धियों को पुरस्कृत कर स्वस्थ परंपरा स्थापित की जा सकती है।                    
चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत 
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत


दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम


चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य 
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य


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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी शोध-साहित्य संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८, www.divyanarmada.in  

pad

एक पद-
अभी न दिन उठने के आये 
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब उठना है 
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित ही धरना है 
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर ले 
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर ले
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाए
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाए
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये

doha

एक दोहा 
शब्द-सुमन शत गूंथिए, ले भावों की डोर 
गीत माल तब ही बने, जब जुड़ जाएँ छोर

kundlini

एक कुण्डलिनी 
मन मनमानी करे यदि, कस संकल्प नकेल 
मन को वश में कीजिए, खेल-खिलाएँ खेल 
खेल-खिलाएँ खेल, मेल बेमेल न करिए 
व्यर्थ न भरिए तेल, वर्तिका पहले धरिए 
तभी जलेगा दीप, भरेगा तम भी पानी
कसी नकेल न अगर, करेगा मन मनमानी

doha

दोहा दुनिया 
ज्योति बिना चलता नहीं, कभी किसी का काम
प्राण-ज्योति बिन शिव हुए, शव फिर काम तमाम 
*
बहिर्ज्योति जग दिखाती, ठोकर लगे न एक 
अंतर्ज्योति जगे 'सलिल', मिलता बुद्धि-विवेक
*
आत्मज्योति जगती अगर, मिल जाते परमात्म
दीप-ज्योति तम-नाशकर, करे प्रकाशित आत्म
*
फूटे तेरे भाग यदि, हुई ज्योति नाराज
हो प्रसन्न तो समझ ले, 'सलिल' मिल गया राज
*
स्वर्णप्रभा सी ज्योति में, रहे रमा का वास
श्वेत-शारदा, श्याम में काली करें प्रवास
*
रक्त-नयन हों ज्योति के, तो हो क्रांति-विनाश
लपलप करती जिव्हा से, काटे भव के पाश
*
ज्योति कल्पना-प्रेरणा, कांता, सखी समान
भगिनी, जननी, सुता भी, आखिर मिले मसान
*
नमन ज्योति को कीजिए, ज्योतित हो दिन-रात
नमन ज्योति से लीजिए, संध्या और प्रभात
*
कहें किस समय था नहीं, दिव्य ज्योति का राज?
शामत उसकी ज्योति से, होता जो नाराज
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काव्य वार्ता 
नाम से, काम से प्यार कीजै सदा 
प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई? -संजीव 
*
बन्दगी कब हुई प्यार बिन जिंदगी 
दिल्लगी बन गई आज दिल की लगी
रंग तितली के जब रँग गयीं बेटियाँ
जा छुपी शर्म से आड़ में सादगी -मिथलेश
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छोड़ घर मंडियों में गयी सादगी
भेड़िये मिल गए तो सिसकने लगी
याद कर शक्ति निज जब लगी जूझने
भीड़ तब दुम दबाकर खिसकने लगी -संजीव
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