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शुक्रवार, 5 मई 2017

samiksha

कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य 
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार  संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७]
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                       'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है। 

                       कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।

                       एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।

                       काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.

                       भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
                 श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है—  खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण 
                  कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को  ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है। 
                     हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं। 
                      बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त  रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है। 
                        गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें',  ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर' 
                        गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है। 
                        कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
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संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर २००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५३२४४

doha

दोहा दुनिया
सरहद पर सर काट कर, करते हैं हद पार
क्यों लातों के देव पर, हों बातों के वार?
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गोस्वामी से प्रभु कहें, गो स्वामी मार्केट
पिज्जा-बर्जर भोग में, लाओ न होना लेट
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भोग लिए ठाकुर खड़ा, करता दंड प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
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कहें अजन्मा मनाकर, जन्म दिवस क्यों लोग?
भले अमर सुर, मना लो मरण दिवस कर सोग
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ना-ना कर नाना दिए, है आकार-प्रकार
निराकार पछता रहा, कर खुद के दीदार
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मुक्तिका

छंद बहर का मूल है १२
मुक्तिका
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वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद 
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद 
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२  
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
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दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी 
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या? 
पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
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न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी 
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या? 
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५-५-२०१७
इस बह्र में कुछ प्रचलित गीत
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१. मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहां जाएं
२. मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता 
३. चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों 
४. खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर देखता होगा 
५. सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगेे 
६. कभी तन्हाइयों में भी हमारी याद आएगी
७. है अपना दिल तो अावारा न जाने किस प आएगा 
८. तेरी दुनिया में आकर के ये दीवाने कहां जाएं
९. बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
१०. सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है

गुरुवार, 4 मई 2017

samiksha

पुस्तक चर्चा:
'आँख ये धन्य है' देखनेवाला अनन्य है 
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण- आँख ये धन्य है, कविता संग्रह (काव्यानुवाद), मूल कवि नरेन्द्र मोदी, काव्यानुवादक डॉ. अंजना संधीर, ISBN ९७८-९३-८२६९५-१७-२ प्रथम संस्करण, वर्ष २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १०४, मूल्य १००/-, विकल्प प्रकाशन २२२६ बी प्रथम तल, गली ३३, पहला पुस्ता, सोनिया विहार, दिल्ली ११००९४, चलभाष ९२११५५९८८६, अनुवादक संपर्क Anjana_Sandhir@yahoo.com]
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                    'आँख ये धन्य है' एक असाधारण काव्य संग्रह है। यह असाधारणता कई अर्थों में है। वैदिक मान्यतानुसार 'ऋषय: मन्त्रदृष्टार: कवय: क्रान्तदर्शिन:' अर्थात ऋषि मन्त्रदृष्टा और कवि क्रान्तदर्शी होता है। जब सामाजिक क्रांति के स्वप्न देखनेवाला समर्पित समाजसेवी खुली आँखों से देखे हुई सपनों को शब्द देता है तो कविता लिखी नहीं जाती, कविता हो जाती है। 'आँख ये धन्य है' की काव्य रचनाएँ काव्य शास्त्र के मानकों के अनुसार लिखी गयी कविताएँ नहीं हैं, ये उससे बहुत आगे जाकर भावनाओं के साथ एकाकार हो चुके एक कर्मव्रती के मन से निकले उच्छवास हैं जो नियमों के मोहताज नहीं होते, जिनका पारायण कर नियमों की संरचना की जाती है। ऐसी रचनाओं के कथ्य इतने सहज ग्रहणीय होते हैं कि उनके आगे भाषा, क्षेत्र, वाद आदि की सीमायें बौनी हो जाती हैं।   

                    पिंगल की मान्यतानुसार कवि वह है जो भावों को रसाभिषिक्त अभिव्यक्ति देता है और सामान्य अथवा स्पष्ट के परे गहन यथार्थ का वर्णन करता है। इसीलिये कहा गया है "जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि"। आँख ये धन्य की कवितायें एक सामान्य मानव के महामानव बनने की यात्रा के विचार-पड़ावों की छवियाँ समाहित किये हैं। ये कवितायें कहीं कंकर में शंकर को देखती हैं, कहीं आत्म में परमात्म की प्रतीति कराती हैं, कभी आत्म अवलोकन करतीं है, कभी आत्मालोचन और कभी आत्मोन्नयन के सोपानों पर पग धरती, ठिठकती, रुकती, बढ़ती हुई पाठक को भी साथ ले जाती हैं। 

                    सामान्यत: काव्य, कविता या पद्य में मनोभावों की कलात्मक अभिव्यक्ति की जाती है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्य रचना या कवि की कृति, जो छंद श्रंखला अथवा पदों में आबद्ध हो। काव्य की यह परिभाषा शिल्पगत है। काव्य की कथ्यगत परिभाषा के अनुसार काव्य वह रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो। चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों की यथार्थ अनुभूति कराने में सक्षम रचना ही काव्य है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा गया है। 'अर्थ की रमणीयता' को शब्द तक सीमित करने पर काव्य में अलंकार का प्राधान्य आवश्यक कहा गया ।'अर्थ' की 'रमणीयता' के प्रतिपादकों ने काव्य में कथ्य को सर्वाधिक महत्त्व दिया। इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है। साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ के अनुसार 'रसात्मक वाक्य' रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार काव्य की आत्मा है। 'आँख ये धन्य है' का कवि इनमें से किसी मान्यता का अनुसरण नहीं करता। वह अपनी अनुभूतियों को प्रगट करने के लिए शब्द को माध्यम बनता है और उन शब्दों में लय, रस, अलंकार, बिम्ब या प्रतीकों को वहीं तक स्वीकारता है जहाँ तक वे उसके कथ्य को प्रगट करने में सहायक हैं। फलत: इन कविताओं में जो साधारणता व्याप्त हुई है वह इन्हें काव्य जगत में असाधारण बना देती है।  

                    'आँख ये धन्य है' में ६७ कवितायें काव्यात्मक भूमिका के साथ संकलित हैं।  इन कविताओं का वैशिष्ट्य इनका विविध कालखंडों, परिस्थितियों, मनस्थितियों और परिवेश में कवि-मन में अवतरित होना है।  इनका रचनाकार निष्णात साहित्यकार, पेशेवर कवि या उद्भट विद्वान् नहीं है। उसका वैशिष्ट्य उसकी कर्मठता, संवेदनशीलता, निष्कपटता तथा सरलता है।  इस रचनाओं में रचनाकार अपने विचारों को सजाता-सँवारता या निखारता नहीं है। वह अकृत्रिमता और स्वाभाविकता को वरीयता देता है। वह अपने बारे में स्वयं कहता है- 'मैं साहित्यकार अथवा कवि नहीं / अधिक से अधिक मेरी पहचान / सरस्वती के उपासक की हो सकती है।' तुलसी भी खुद को कवि, चतुर या गुणी नहीं कहते अपितु खुद को अल्पमति कहकर 'राम गुण गायन' अपने काव्य कर्म का ध्येय बताते हैं 'हौं न कवी नहिं चतुर कहाऊँ / मती अनुसार राम गुण गाऊँ' । यह कवि सत्य से साक्षात्कार ही नहीं करता उसे बिना किसी हिचक एक अभिव्यक्त भी करता है- ' मेरे कल्पनालोक की खुली / छोटी सी खिड़की में से / दुनिया को जैसा देखा, अनुभव किया / जैसा जाना, आनंद लिया / उसी पर अक्षरों से अभिषेक किया। ' कवि न तो मौलिकता का दावा करता है, न रचनाओं के दोषमुक्त होने का किंतु कहता है 'कभी-कभी कच्चे आम का स्वाद भी / अलग तरह का स्वाद दे जाता है।' अहम् से मुक्त होकर अपनी अभिव्यक्ति के प्रति इतनी ईमानदारी वही बरत सकता है जो अपने 'स्व' को 'सर्व' में समाहित कर चुका हो, जिसने अपने कर्म को धर्म मानकर न केवल किया हो अपितु जिया भी हो। जिसे अपने कर्म की दिशा, गति और परिणाम के प्रति पूर्ण आश्वस्ति हो।    

                    राज शेखर ने काव्यमीमांसा में कविचर्या का वर्णन करते हुए कवित्व के ८ स्रोत - स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, विद्वत्कथा, बहुश्रुतता, स्मृतिदृढता और राग कहे हैं ।
स्वास्थ्यं प्रतिभाभ्यासो भक्तिर्विद्वत्कथा बहुश्रुतता।
स्मृतिदाढर्यमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य॥  


                    कविताओं की चर्चा करने के पूर्व कवि के व्यक्तित्व को इस निकष पर परख लें। उम्र के छ: दशक पार करने के बाद भी कवि पूर्णत: रोगमुक्त और स्वस्थ्य है, नित्य १७-१८ घंटे कर्मरत रहता है। प्रतिभा का ऐसा भण्डार कि सारी दुनिया उसका लोहा मानती है। अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण इतना कि भारत के सभी राजनेता और दल मिलकर भी उसकी तरह जनहित नहीं कर पाते। राष्ट्र के प्रति अनन्य भक्ति से सराबोर की खुद और अपने हर साथी को लगातार देश और जनगण की सेवार्थ जुटाए रखता है।  विद्वत्कथा को नव आयाम देते हुए देश के भविष्य निर्माताओं नौनिहालों तक पहुँचाने के लिए मन की बात का आविष्कार उसने नवोन्मेषी दृष्टि की साक्षी है। बहुश्रुतता के पैमाने पर कसें तो उसके मुँह से निकलनेवाले हर शब्द पर असंख्य पत्रकारों, अनगिन नेताओं और अपरिमित देशवासियों की नजर रहती है। स्मृति दृढ़ता के दृष्टिकोण से देखें तो वह बरसों पहले जिनसे मिला या जिनके घर रुका आज सर्वोच्च पद पर पहुँचने के बाद भी उन्हें नाम से बुला लेता है, उनसे उसी आत्मीयता से जुड़ जाता है। राजशेखर की अंतिम कसौटी 'राग ' है। इस कवि के 'राग' में 'अनुराग' और 'वैराग' का अद्भुत समन्वय और सामंजस्य है। माँ, भारत माँ, गौ माँ, जनता जनार्दन और विश्व शांति के प्रति उसका 'राग' अनादि और अनंत है।  इनके लिए अहर्निश काम करते हुए भी वह नहीं थकता, अहम, अभिमान, लोभ, मोह, माया आदि के प्रति उसका विराग सर्व ज्ञात है।  वस्तुत: वह गीता में वर्णित कर्मयोगी है।  अब तो आप बिना बताये भी समझ ही गए हैं कि इन कविताओं के कवि जननायक और राजर्षि श्री नरेंद्र मोदी जी हैं।    

मम्मट ने काव्य के छः प्रयोजन बताये हैं-
काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥

                    अर्थात काव्य यश और धन के लिये होता है। इससे लोक-व्यवहार की शिक्षा मिलती है। अमंगल दूर हो जाता है। काव्य से परम शान्ति मिलती है और कविता से कान्ता के समान उपदेश ग्रहण करने का अवसर मिलता है।

                    मम्मट की कसौटी पर कवि नहीं कविता को कसा जाना है। प्रथम कसौटी काव्य से यश और धन प्राप्ति की कामना के संबंध में। ये कवितायें किसी पेशेवर कवि द्वारा पुस्तक प्रकाशन के उद्देश्य से नहीं रची गयी हैं । कवि पूरी ईमानदारी से अपनी बात में कहता है 'मैं साहित्यकार अथवा कवि नहीं / अधिक से अधिक मेरी पहचान / सरस्वती के उपासक की हो सकती है।' यह भी कि 'बहुत लम्बे समय से लिख इधर-उधर / क्षत-विक्षत पड़ा सब संकलित हो...' स्पष्ट है कि ये कवितायें विविध कालखंडों, स्थानों, परिस्थतियों और वैचारिक चिंतन की ज्मीस पर अंकुरित हुई हैं, इनकी शैल्पिक अकृत्रिमता और वैचारिक ईमानदारी इन्हें सहज बोधगम्य और स्वीकार्य बनाता है। कवि ने अपने आत्मीय गुजरात कवि श्री सुरेश दलाल के आग्रह को शिरोधार्य कर इन्हें सामने आने दिया। हम पाठकों को श्री सुरेश दलाल के प्रति आभारी होना चाहिए कि उनके निमित्त हमें भी इन रचनाओं से साक्षात का अवसर मिला है। कवि अपना मूल्यांकन स्वयं करते हुए पाठकों का आव्हान करता है- 'मेरी रचनाओं का ये नीड़ / आपको निमंत्रण देता है / पल दो पल आराम लेने पधारो / मेरे इस नीड़ में आपको भाव जगत मिलेगा / औए भावनाएं लहरायेंगी।' मम्मट की कसौटी को जाने-अनजाने नकारते हुए कवि ने स्पष्ट किया है उसका कविकर्म किसी हित साधन हेतु नहीं है। पाठक कवि के भाव जगत से आनंदित हो यही कवि का साध्य है। इस साध्य को साधने में सहायक हुई हैं डॉ. अंजना संधीर जिन्होंने गुजराती में रचित इन कविताओं को हिंदी में अनुवादित कर बड़ी पाठक-पंचायत को आनंदित और प्रेरित होने का अवसर उपलब्ध कराया है।
    
                    मम्मट की दूसरी कसौटी 'काव्य से लोक व्यवहार की शिक्षा' मिलने के संबंध में यह कहा जा सकता कि ये कवितायें इस निकष पर खरी उतरती हैं। 'मानव के मेले संह मेल ये मिलता रहा / पर दूसरों के साथ में मैं, खुद को / आतंरिक पीड़ा देता रहा।' धन्य शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ हम सबके जीवन का सत्य है। परिवार के स्तर पर हम एक-दूसरे की पीड़ा में सहभागी होते हैं किंतु समाज के स्तर पर आपदाओं-विपदाओं के समय ही हमारी संवेदना एक हो पाती है। यदि हम अपनी संवेदना का विस्तार कर सकें तो कवि के साथ कह सकेंगे 'ये सब अनन्य है / और कुछ तो अगम्य  है / धन्य, धन्य, धन्य है / पृथ्वी मेरी सुंदर है।'

                         'हम' शीर्षक रचना में कवि कहता है-  'किसी की निंदा नहीं, संकोच नहीं / हम प्यार की बहती धारा हैं / बुद्धिमान हमें पागल कहते हैं / वे सच्चे, हम गलत नहीं। / एक विशाल दरिया उछलता है / हम फूट जाएँ, ऐसे बुलबुले नहीं। / हमारा कहाँ कोई किनारा है / हम तो दरिया की मझधार हैं।'  यहाँ अपने से भिन्न विचार रखनेवाले को 'सच्चा' और खुद को 'हम गलत नहीं' बताना ऊपरी दृष्टि से अंतर्विरोध प्रतीत हो सकता है किन्तु भारतीय लोकतंत्र में संघवाद की अवधारणा को मूर्तिमंत करने के लिए यह उदारता और सहिष्णुता अपरिहार्य है। इस सत्य की प्रतीति को श्री नरेंद्र मोदी जैसे समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता, कर्मठ राजनेता और कट्टर देशभक्त से अधिक और कौन समझ और बता सकता है।

                     देश की राजनीति और सामाजिक जीवन आर्थिक गडबडियों और व्यक्तिगत स्वार्थों के चक्रव्यूह में घिरा है। नरेन्द्र भाई मोदी जी का राजनेता राजनीति के स्तर पर इन गड़बड़ियों के खिलाफ हमेशा सक्रिय रहा है किन्तु उनका कवि भी मौन नहीं है। कवि पूछता है औए पूछने के बहाने पाठक को लोक व्यवहार की शिक्षा देता है- 'आनेवाले कल में / अमर होने के लिए / बीते कल का इतना / मोह रखकर / आज को / आँखों के समक्ष धोखा देकर / जीने का कोई अर्थ है?' काश इन पंक्तियों का मर्म माल्या जैसे लोग समझ पाते।

                    'कोई पंथ नहीं, ना ही सम्प्रदाय / मानव तो है बस मानव / उजाले में क्या फरक पड़ता है / दीपक हो या लालटेन?' सीधी-सदी दिखती इन पंक्तियों में अन्तर्निहित भाव को समझें। भारत जैसे विविध मतावलंबियों, दलों, सम्प्रदायों, भाषाओँ, भूषाओं  के देश में 'मानव को केवल मानव' मानना कितना खतरनाक है? जैसे ही आप इस राह पर चलते हैं चारों ओर से संकीर्णतावादी टूट पड़ते हैं। मोदी जी ने यह खूब झेला है और उसके बाद भी मानव को मानव मानने की प्रतिबद्धता का जय घोष किया है। संसद हो या चौराहा उनकी इस सोच पर हमला करनेवालों में विरोधी तो विरोधी उनके अपने दल के कार्यकर्ता और नेता भी सम्मिलित है जिसके विरुद्ध उन्हें बार-बार चेताना पड़ रहा है। अपनी कविता के माध्यम से जन चेतना जगाने का काम वे पहले ही कर चुके हैं।

                 राजनीति काजल की कोठरी है। लोकोक्ति है -'काजल की क्कोथारी में कैसहूँ सयानो जाए / काजल का दाग तो लागिहै सो लागिहै।' मोदी जी पर राजनैतिक स्पर्धी आरोप लगायें, यह स्वाभाविक है। उनका राजनेता इनसे निबटना जानता है किन्तु उनका कवि कहता है- 'यश-कीर्ति की कोई भूख नहीं / कोई पसंद, नापसंद नहीं / रही ह्रदय में सदैव क्षमा / ह्रदय तल का राम ही रखवाला / उजाला-उजाला' किसी वीतरागी संत किसी यह अभिव्यक्ति एक शीर्षस्थ राजनेता के अंतर्मन की है। इस सत्य को सहज ही स्वीकारना कठिन है। कवी मोदी अपनी कविताओं की पंक्ति-पंक्ति से लोक को शिक्षित करते हैं कि सार्वजनिक जीवन में किन मूल्यों की उपासना करते हुए निष्काम कर्मयोगी की तरह खुद को अपने लिए कसौटी बनाना होती है। मम्मट ने काव्य की दूसरी कसौटी काव्य के माध्यम से लोक शिक्षा निर्धारित की है, इस कसौटी पर 'आँख ये धन्य है' की कवितायें सौ टके खरी हैं।

                  मम्मट के अनुसार काव्य से अमंगल दूर होना कवि की तीसरी कसौटी है। अमंगल दूर तभी हो सकता है जब 'अयं निज: परोवेत्ति गणना लघु चेतसाम। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम' का भाव मन में उदित हो। कवी नरेंद्र जी लिखते हैं- ' मैं अपने शरीर को / मन को, ह्रदय को / प्रभु का प्रसाद ही मानता हूँ, / और सम्पूर्ण विश्व मानो / मेरे आगोश में समा जाता है। 'वसुधैव कुटुम्बकम', अथवा 'विश्विक नीडम' का यह वैदिक संस्कार कवि अपने अंतर्मन के राजनेता को देता है और तब वह राजनेता विश्व संस्थाओं में मर्मस्पर्शी संबोधन कर सब देशों में संवेदना जगाकर स्वयं विश्वमान्य हो पाता है।

                       नरेंद्र भाई जी को बाह्य मान्यता और घर में चुनौती का वातावरण मिलना स्वाभाविक है। कहावत है 'घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध', या घर की मुर्गी दाल बराबर'। संसद में इस कवि-नेता के बढ़ते जनाधार से अपने अस्तित्व के लिए संकट अनुभव करते राजनेता बौखलायें न तो क्या करें। इस जननेता का कवि उसे खासुलखास होते हुए भी आम बनाए रखता है, उसकी कविता उसे जन का अमंगल दूर करने को प्रेरित करता है और तब वह मन की बात, अन्त्योदय, स्वच्छ भारत, नमामि गंगे, काले धन के अंत, नेट बैंकिंग, कैशलेस बैंकिंग जैसे लोकहितैषी कदम उठाता है। यह सत्ता पाने के बाद एकाएक नहीं हुआ, इसके बीज कविताओं में हैं। निज हित को प्रमुख माननेवाले वाली राजनीति से कवि नरेंद्र पूछते हैं- 'आनेवाले कल में / अमर होने के लिए / बीते कल का इतना / मोह रखकर / आज को / आँखों समक्ष धोखा देकर / जीने का कोई  अर्थ है?' सत्ताभिमुख नेता और दल नत मस्तक न हों तो क्या करें?

                             राजनेता मोदी जी से कोई उनके समूचे कार्यकाल में किये कार्य का सार पूछे तो उन्हें कवि नरेंद्र की पंक्तियाँ ही कहानी होंगी- 'उजाले की आस लेकर / अन्धेरा उलीचा / मैंने अन्धेरा उलीचा। / उजाले की चमक लेकर / अन्धेरा उलीचा / मैंने अन्धेरा उलीचा।' कविता से अमंगल दूर करने में जुटा यह कवि-नेता आव्हान करता है- 'ईर्ष्या-द्वेष को छोड़ / खुशबू भरी मिट्टी बनकर / उठो, जागो, दौड़ो, दौड़ो / एक दुसरे के साथ रहो / मत रहना अकेला / वसुधा की है मुश्किल बेला।' 'उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' उच्चारते युगपुरुष स्वामी विवेकानन्द का पुनरावतार ही प्रतीत होता है यहाँ।  मम्मट के लोकमंगल की कसौटी पर कवि नरेंद्र रचना मात्र नहीं करते, वे राजनेता नरेंद्र को सतत प्रेरित और आंदोलित भी करते हैं इसलिए इन कविताओं के आधार पर यह अनुमान जा सकता है कि राजनेता को अभि कविप्रेरित लोकमंगल के अनेक कदम उठाने शेष हैं।

                                काव्य से परम शांति मिलना मम्मट के अनुसार काव्य का चौथा परीक्षण है। 'आँख ये धन्य है' का कवि इस परम शांति को 'उत्सव' के रूप में मनाता है। सांसारिक प्रपंचों के मध्य भी कवि शांति और आनंद से साक्षात् करता रहता है- 'अनेक पतंगों (प्रपंचों) के बीच भी / मेरा पतंग उलझता नहीं / किसी वृक्ष की डालियों में / कहीं फँसता नहीं' इसीलिए परम शांत रहता है। संसद में होते आक्रमणों या सरहद पर उपस्थित होती विषम परिस्थितियों या चुनावी चक्रव्यूहों के बीच भी कुरुक्षेत्र के कृष्ण की तरह रहस्यमयी सरल मुस्कान बिखेरता कवि सज्जनों को अति सरल और दुर्जनों को अति जटिल प्रतीत होता है। कवि फिर कहता है- 'यह आनंद भी / अद्भुत, अनोखा / कटे हुए पतंग के पास / आकाश का अनुभव है / हवा की गति की दिशा का ज्ञान है।' सामान्यत: पतंग कटने को पतन और शोक का प्रतीक कहा जाता है किन्तु कवि नरेंद्र स्थितप्रज्ञता से इसमें भी सकारात्मकता देखते हैं तो फिर उनका काव्य परम शांति से दूर कैसे हो सकता है?

                       मम्मट के अनुसार काव्य की अंतिम कसौटी 'कविता से कांता सदृश्य उपदेश की प्राप्ति'  है। 'आँख ये धन्य है' के कवि एक सन्दर्भ में यह कसौटी विशेष महत्व रखती है। वह इसलिए कि व्यक्तिगत जीवन में माँ का आज्ञाकारी बेटा विवाह करने के बाद मातृभूमि की पुकार पर अपना जीवन रास्त्र-सेवा हितार्थ समर्पित कर देता है। आध्यात्म की राह पर पग बढ़ने पर पत्नी कहीं पीछे छूट जाती है।

                      समान्तर प्रसंग राजकुमार सिद्धार्थ और यशोधरा के जीवन में घटित हुआ था। अंतर यह कि सिद्धार्थ राजकुमार थे और वे शयनरत पत्नी-पुत्र को छोड़कर चुपचाप गए थे जबकि कवि नरेंद्र ने माँ, पत्नी और स्वजनों को अवगत कर देश सेवार्थ खुद को समर्पित किया था। पत्नी से दूर होने के वर्षों बाद रची गयी कविताओं में 'कांता सदृश्य उपदेश' है या नहीं देखना सचमुच एक असाधारण अनुभव है। इस निकष पर परखते समय 'कांता सदृश्य उपदेश' का मर्म देखना होगा। कांता के लिए उचित क्या? पति को स्वार्थ, मोह, वासना की ओर उन्मुख करना या उसे ईश्वर, सृष्टि, देश, मानवता और पर्यावरण के प्रति कर्ताव्योन्मुख करना?, 'स्व' तक सीमित रखने का परामर्श या 'सर्व' तक विकसित होने देने की प्रेरणा देना?

                     यह प्रसंग किसी पश्चिमी देश में घटित होता तो पत्नि संभवत: अपने अधिकारों और सुख को वरीयता देती किन्तु भारतीय मनीषा आत्मोन्नयन को जन का परम उद्देश्य मानती है और उसके लिए लौकिक के त्याग को दोष नहीं गुण के रूप में मूल्यांकित करती है। यही कारण है कि कवि-पत्नि ने कभी भी पति को दोष नहीं दिया अपितु उनकी साधना और उन्नति पर गर्व की अभिव्यक्ति करते हुए आवश्यकता पर साथ देने की भावना व्यक्त की। कवि की कविता में कांता-सम्मति सत्य-रक्षा हेतु चेतावनी के रूप में व्यक्त हुआ है- 'सत्य नहीं बोलें / तो कोयल की कुहुक को / मरी हुई मछली की तरह / कौआ चोंच मार कर नष्ट कर देगा।' कवि के देशनायक बनाने पर निर्मम राजनीति ने उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर आक्रमण किये किंतु कवि का मौन सब हमलों को निष्प्रभ करता रहा। कवि की कविता यह जानती है कि 'अफवाहों पर आधारित समाचार / सुबह-सवेरे उगते हैं काले सूरज की तरह' और यह भी कि 'सत्य से सत्याग्रह तक की / यात्रा में / हमें मिलते हैं / बिना पैर चलते / प्रवासियों के पदचिन्ह / केवल भीड़, टोलियाँ।' यह कांता सदृश परामर्श कवी की मानसिकता को वैयक्तिक हमले होने पर भी उनकी अनदेखी करने की मानसिकता देती रही है।

                            कवि की कविता कांता-भाव से हीन नहीं है। देखें- 'मेरे सूखे खेत में / गांठे उगाना बंद करो / किसी के मक्खन जैसे कोमल पैरों में से / ये गांठें खून चूसने लगें / उससे पहले बंद करो।' लाख जतन से बंद की गयी मुट्ठी में से झरते सिकता-कणों की तरह कहीं-कहीं यह भाव अपनी उपस्थिति दे ही देता है। 'गरबा' शीर्षक पूरी रचना ही कांता-भाव की साक्षी है। यह कांता भाव किसी विशिष्ट व्यक्तित्व या देह का मोहताज नहीं होता। कवि के अंतर्मन में उपस्थित योगी कांता भाव को उदात्त कर प्रकृति, संस्कृति, चेतना, माटी आदि से जोड़कर व्यक्त करता है और 'कांता-परामर्श' भी उदात्ततापूर्वक ग्रहण करता है। 'अपने कागज़ पर सूरज बनाता हूँ / और बनाता हूँ पूनम का चाँद / मेरे कागज़ पर लहराता वृक्ष है / और वृक्ष पर हरियाले पत्ते / स्वजन की याद जैसी छोड़ी चट्टान / उसे झरने का गीलापन जगाये' नव सृजन का यह भाव मूलत: काँता-भाव ही है। 'मुझे तो सेतु बनना है / प्रेम का हेतु बनना है' कवि को काम्य प्रेम दैहिक नहीं आत्मिक है, वैश्विक है। यह काँता-प्रेम उन्हें देश हर काँता की आँख में चुभते धुएँ की पीड़ा का अनुभव कराकर रसोई गैस पहुँचाने की प्रेरणा देता है।

                             कवि का योगी कहता है- 'काया छोडो, माया छोडो', कवि का राजनेता कहता है 'यह सूर्य मुझे पसंद है / अपने सातों घोड़ों की लगाम / हाथ में रखता है', कवि का कांता भाव कहता है- 'उसने किसी भी घोड़े को चाबुक मारा हो / ऐसा जानने में नहीं आया।' आँख ये धन्य की रचनाएँ कांता-सम्मति से संयुक्त हैं इसका साक्ष्य जगह-जगह उपलब्ध है. कोई कांता अपने कान्त को निकम्मा-निठल्ला नहीं देखना चाहती। कांता-प्रेरणा से कर्मव्रती बना कांत ही कहेगा- 'तुम मुझे मेरे काम से ही जानो / कार्य ही मेरा जीवन काव्य है।' भौतिक घटनाओं और मिलन को ही सब कुछ माननेवालों को इस योगी कवि का कांता भाव भले ही न दिखे किन्तु आत्मिक और आध्यात्मिक मूल्यों को जी रहे पता उसकी प्रतीति कर सकेंगे। 'अद्भुत है ये जिंदगी, आने-जाने के कारण / कोई आ के चला जाए और यादों में जिए /  डोरी बंधे तो टूट नहीं जाए/ तितली फिर रंगों में डूब जाए।'

                      मम्मट ने कविता के मानक तलाशते समय ना सोचा होगा की किसी कवि के मानक कर्मयोग आधृत भी हो सकते हैं। यह कवि अपने मानक आप बनाता है। वह भाग्य को चुनौती देते हुए तनिक बी नहीं हिचकिचाता- 'भाग्य को कौन पूछता है यहाँ? / मैं तो चुनौती स्वीकारनेवाला मानव हूँ / मैं तेज उधार नहीं लूँगा / मैं तो खुद ही जलता हुआ लालटेन हूँ।' कोइ अन्य कवि खुद को लालटेन नहीं सूर्य कहता किंतु कवि नरेंद्र जी की यही खूबी उन्हें अन्यों से अलग करती है कि वे काल्पनिक कविता नहीं करते, कविता में कल्पना को साकार करते हैं। वह अपने वंश और वारिस की चिंता नहीं करता- 'मैं खुद ही मेरा वंशज हूँ / मैं खुद ही मेरा वारिस हूँ।' कल और कल को आज में समेटे हुए यह कवि 'है' में जीता है 'हुआ' और 'होगा' उसके लिए साधन मात्र हैं 'साध्य' नहीं।    
               
                        एक आंग्ल विवेचक कहता है- 'Poets may describe themselves as such or be described as such by others. A poet may simply be a writer of poetry, or may perform their art to an audience.' अर्थात एक कवि को खुद को वैसा है बताना चाहिए जैसा अन्य उसे बताएँ। कवि केवल कविता-लेखक हो अथवा अपनी कला का प्रदर्शन केवल श्रोताओं हेतु करे। आशय यह की कविता में आत्मप्रदर्शन से बचे। कवि नरेंद्र कहते है 'चुप्पी रखने में मेरा विश्वास नहीं है / जल की तरह पारदर्शक और / बहने का उत्सव क्या है / वो मैं अच्छी तरह जानता हूँ।' यह भी 'अन्याय के सामने आँख उठाने / तथा न्याय के समक्ष आँख झुकाने में / मानव मात्र को / शर्म नहीं होनी चाहिए।' कवि ने अपने राजनेता को इन मूल्यों से जोड़े रखने में सफलता पाई है।

                            कवि का मूल कार्य मानव-मानव के मध्य विचार-चेतना की नर्मदा को प्रवाहित करते रहना है। 'नर्मम ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो दे आत्मानंद वही नर्मदा नदी है।' कवि नरेंद्र की कविता उन्हें ही नहीं सकल पाठक-श्रोता वर्ग को आत्मानंद में अवगाहन कराती है। यह कवि आत्म मूल्यांकन की प्रक्रिया से सतत गुजरता है। 'पर्वत की तरह अचल रहूँ / व नदी के बहाव सा निर्मल / श्रंगारित शब्द नहीं मेरे / नाभि से प्रगटी वाणी हूँ।' कवि नरेन्द्र के लिए काव्य रचना वाग्विलास नहीं जीवन का आधार है। वे कहते हैं- ' मेरा आचरण मेरे वचनानुसार / होगा नहीं बुरा कभी / नीचा देखने की बारी आये / ऐसा नहीं कहूँगा मैं कभी।' कवि को आत्म सम्भ्रम नहीं है। वह भली-भांति जनता और मानता है- 'दो किनारों के बीच सत्य को / पाने की मुझमें क्षमता है / हर बात का सत्य अलग हो सकता है / और होता ही है / मैं... मैं सिर्फ मेरे सत्य से / जुड़ा रहना चाहता हूँ।' यहाँ कुछ सवाल उठते हैं- क्या सत्य सर्वभौम नहीं होता?, क्या कवि की मनीषा भी सत्य के व्यक्ति परक मानती या यह कवि के राजनेता का स्वर है, राजनेता जो दलगत प्रणाली में एक दृष्टि विशेष रखने हेतु बाध्य है। कवि मुखर होता है तो कहता है- 'सत्य मेरे लिए सूर्य है / और... मेरा जीवन गायत्री मन्त्र बन जाए / ऐसी मेरी हर पल प्रार्थना है।

                        किसी रचनाकार के व्यक्तित्व के विविध पहलू होते हैं। किस रचना में किस पहलू का कितना शब्दांकन हुआ यह स्वयं कवि भी पूरी तरह नहीं बता सकता। 'आँख ये धन्य है' की कवितायें कविवर नरेन्द्र मोदी जी के व्यक्तित्व के विविध पहलुओं का परिचय कराती हैं। इनमें एक गर्वित देशवासी, जुझारू कार्यकर्ता, समर्पित समाजसेवी, कर्मठ राजनेता, उदात्त विश्व नेता, समर्पित ईश भक्त, मौलिक विचारक और एक सच्चे इंसान की छबि सहज ही देखी जा सकती है। इन कविताओं में बहुत कुछ नहीं भी है। वर्तमान राजनीति को आच्छादित कर रही कटुता, मलिनता, छिद्रान्वेषण, छींटाकशी, आत्ममोह, जन-प्रवंचना और असहमति को लांछित करने की प्रवृत्ति से पूरी तरह मुक्त ये रचनाएँ बताती हैं  कि इनका रचनाकार सामान्य मानव होने के साथ विशिष्ट और अतिविशिष्ट भी है। वह जीवन और जगत के द्वैत को भली-भांति समझता है। वह सत्य से आँखें मिलाते हुए कहता है- 'आनेवाले क्षण में आशा का दीप / प्रज्वलित किया जा सकता है।/ अन्धेरा भी रौशनी को चूम सकता है / बहती हुई जिंदगी का पल-पल रुक सकता है। ..... प्रत्येक सांस में सुगंध है / प्रत्येक बात में प्रेम है ... सोए हुए सपने में नई सुबह है / यंत्र जैसी जिंदगी में / पाया... सौन्दर्य का अद्भुत मंत्र।' इन कविताओं से आँखें चार करते हुए पाठक अपनी जिंदगी में सौन्दर्य के मन्त्र को तलाश सकता है। उद्देश्यपूर्ण सार्थक कविताओं के लिए कविवर नरेंद्र मोदी जी तथा अर्थवाही हिंदी अनुवाद हेतु डॉ. अंजना संधीर साधुवाद के पात्र हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४. salil.sanjiv@ gmail.com 
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बुधवार, 3 मई 2017

lekh

सामयिक लेख
विवाह, हम और समाज
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अत्यंत तेज परिवर्तनों के इस समय में विवाह हेतु सुयोग्य जीवनसाथी खोजना पहले की तुलना में अधिक कठिन होता जा रहा है. हर व्यक्ति को समय का अभाव है. कठिनाई का सबसे बड़ा कारन अपनी योग्यता से बेहतर जीवन साथी की कामना है. पहले वर और वरपक्ष को कन्या पसंद आते ही विवाह निश्चित हो जाता था. अब ऐसा नहीं है. अधिकाँश लडकियाँ सुशिक्षित और कुछ नौकरीपेशा भी हैं. शिक्षा के साथ उनमें स्वतंत्र सोच भी होती है. इसलिए अब लड़के की पसंद के समान लडकी की पसंद भी महत्वपूर्ण है.

नारी अधिकारों के समर्थक इससे प्रसन्न हो सकते हैं किन्तु वैवाहिक सम्बन्ध तय होने में इससे कठिनाई बढ़ी है, यह भी सत्य है. अब यह आवश्यक है की अनावश्यक पत्राचार और समय बचाने के लिए विवाह सम्बन्धी सभी आवश्यक सूचनाएं एक साथ दी जाएँ ताकि प्रस्ताव पर शीघ्र निर्णय लेना संभव हो.

१. जन्म- जन्म तारीख, समय और स्थान स्पष्ट लिखें, यह भी कि कुंडली में विश्वास करते हैं या नहीं? केवल उम्र लिखना पर्याप्त नहीं होता है.

२. शिक्षा- महत्वपूर्ण उपाधियाँ, डिप्लोमा, शोध, प्रशिक्षण आदि की पूर्ण विषय, शाखा, प्राप्ति का वर्ष तथा संस्था का नाम भी दें. यदि आप किसी विशेष उपाधि या विषय में शिक्षित जीवन साथ चाहते हैं तो स्पष्ट लिखें.

३. शारीरिक गठन- अपनी ऊँचाई, वजन, रंग, चश्मा लगते हैं या नहीं, रक्त समूह, कोई रोग (मधुमेह, रक्तचाप, दमा आदि) हो तो उसका नाम आदि जानकारी दें. आरम्भ में जानकारी छिपा कर विवाह के बाद सम्बन्ध खराब होने से बेहतर है पहले जानकारी देकर उसी से सम्बन्ध हो जो सत्य को स्वीकार सके.

४. आजीविका- अपने व्यवसाय या नौकरी के सम्बन्ध में पूरी जानकारी दें. कहाँ, किस तरह का कार्य है, वेतन-भत्ते आदि कुल वार्षिक आय कितनी है? कोई ऋण लिया हो और उसकी क़िस्त आदि कट रही हो तो छिपाइए मत. अचल संपत्ति, वाहन आदि वही बताइये जो वास्तव में आपका हो. सम्बन्ध स्वीकारने वाला पक्ष आपकी जानकारी को सत्य मानता है. बाद में पाता चले की आपके द्वारा बाते मकान आपका नहीं पिताजी का है, वाहन भाई का है, दूकान सांझा कई तो वह ठगा सा अनुभव करता है. इसलिए जो भी हो स्थिति हो स्पष्ट कर दें

५. पसंद- यदि जीवन साथी के समबन्ध में आपकी कोई खास पसंद हो तो बता दें ताकि अनुकूल प्रस्ताव पर ही बात आगे बढ़े.

६. दहेज- दहेज़ की माँग क़ानूनी अपराध, सामाजिक बुराई और व्यक्तिगत कमजोरी है. याद रखें दुल्हन ही सच्चा दहेज है. दहेज़ न लेने पर नए सम्बन्धियों में आपकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है. यदि आप अपनी प्रतिष्ठा गंवा कर भी पराये धन की कामना करते है तो इसका अर्थ है कि आपको खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसी स्थिति में पहले ही अपनी माँग बता दें ताकि वह सामर्थ्य होने पर ही बात बढ़े. सम्बन्ध तय होने के बाद किसी बहाने से कोई माँग करना बहुत गलत है. ऐसा हो तो समबन्ध ही नहीं करें.

७. चित्र- आजकल लडकियों के चित्र प्रस्ताव के साथ ही भेजने का चलन है. चित्र भेजते समय शालीनता का ध्यान रखें. चश्मा पहनते हैं तो पहने रहें. विग लगाते हों तो बता दें. बहुत तडक-भड़क वाली पोशाक न हो बेहतर.

८. भेंट- बात अनुकूल प्रतीत हो और दुसरे पक्ष की सहमती हो तो प्रत्यक्ष भेंट का कार्यक्रम बनाने के पूर्व दूरभाष या चलभाष पर बातचीत कर एक दुसरे के विचार जान लें. अनुकूल होने पर ही भेंट हेतु जाएँ या बुलाएँ. वैचारिक ताल-मेल के बिना जाने पर धन और समय के अपव्यय के बाद भी परिणाम अनुकूल नहीं होता.

९. आयोजन- सम्बन्ध तय हो जाने पर 'चाट मंगनी पट ब्याह' की कहावत के अनुसार 'शुभस्य शीघ्रं' दोनों परिवारों के अनुकूल गरिमापूर्ण आयोजन करें. आयोजन में अपव्यय न करें. सुरापान, मांसाहार, बंदूक दागना आदि न हो तो बेहतर. विवाह एक सामाजिक, पारिवारिक तथा धार्मिक आयोजन होता है जिससे दो व्यक्ति ही नहीं दो परिवार, कुल और खानदान भी एक होते हैं. अत: एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए आयोजन को सादगी, पवित्रता और उल्लास के वातावरण में पूर्ण करें
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मंगलवार, 2 मई 2017

kundali

एक कुंडली 
दिल्ली का यशगान ही, है इनका अस्तित्व
दिल्ली-निंदा ही हुआ, उनका सकल कृतित्व
उनका सकल कृतित्व, उडी जनगण की खिल्ली 
पीड़ा सह-सह हुई तबीयत जिसकी ढिल्ली 
संसद-दंगल देख, दंग है लल्ला-लल्ली
तोड़ रहे दम गाँव, सज रही जमकर दिल्ली
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२-५-२०१७

laghukatha

लघुकथा
अकेले
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'बिचारी को अकेले ही सारी जिंदगी गुजारनी पड़ी।' 
'हाँ री! बेचारी का दुर्भाग्य कि उसके पति ने भी साथ नहीं दिया।'
'ईश्वर ऐसा पति किसी को न दे।' 
दिवंगता के अन्तिम दर्शन कर उनके सहयोगी अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे। 
'क्यों क्या आप उनके साथ नहीं थीं? हर दिन आप सब सामाजिक गतिविधियाँ करती थीं। जबसे उनहोंने बिस्तर पकड़ा, आप लोगों ने मुड़कर नहीं देखा। 
उन्होंने स्वेच्छा से पारिवारिक जीवन पर सामाजिक कार्यक्रमों को वरीयता दी। पिता जी असहमत होते हुए भी कभी बाधक नहीं हुए, उनकी जिम्मेदारी पिताजी ने निभायी। हम बच्चों को पिता के अनुशासन के साथ-साथ माँ की ममता भी दी। तभी माँ हमारी ओर से निश्चिन्त थीं।  पिताजी बिना बताये माँ की हर गतिविधि में सहयोग करते रहेऔर आप लोग बिना सत्य जानें उनकी निंदा कर रही हैं।'  बेटे ने उग्र स्वर में कहा। 
'शांत रहो भैया! ये महिला विमर्श के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले प्यार, समर्पण और बलिदान क्या जानें? रोज कसमें खाते थे अंतिम दम तक साथ रहेंगे, संघर्ष करेंगे लेकिन जैसे ही माँ से आर्थिक मदद मिलना बंद हुई, उन्हें भुला दिया। '  
'इन्हें क्या पता कि अलग होने के बाद भी पापा के पर्स में हमेश माँ का चित्र रहा और माँ के बटुए में पापा का। अपनी गलतियों के लिए माँ लज्जित न हों इसलिए पिता जी खुद नहीं आये पर माँ की बीमारी की खबर मिलते ही हमें भेजा कि दवा-इलाज में कोइ कसर ना रहे।' बेटी ने सहयोगियों को बाहर ले जाते हुए कहा 'माँ-पिताजी पल-पल एक दूसरे के साथ थे और रहेंगे। अब गलती से भी मत कहियेगा कि माँ ने जिंदगी गुजारी अकेले। 
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२-५-२०१७ 


रविवार, 30 अप्रैल 2017

बुंदेली कहानी, सुमनलता श्रीवास्तव


बुंदेली कहानी
कचोंट 
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव 
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                         सत्तनारान तिबारीजी बराण्डा में बैठे मिसराजी के घर की तरपीं देख रअे ते और उनें कल्ल की खुसयाली सिनेमा की रील घाईं दिखा रईं तीं। मिसराजी के इंजीनियर लड़का रघबंस को ब्याओ आपीसर कालोनी के अवस्थी तैसीलदार की बिटिया के संगें तै हो गओ तो। कल्ल ओली-मुंदरी के लयं लड़का के ममआओरे-ददयाओरे सब कहुँ सें नाते-रिस्तेदारों को आबो-जाबो लगो रओ। बे ओंरें तिबारीजी खों भी आंगें करकें समद्याने लै गअे ते। लहंगा-फरिया में सजी मोड़ी पूजा पुतरिया सी लग रई ती। जी जुड़ा गओ। आज मिसराजी कें सूनर मची ती। खबास ने बंदनबार बाँदे हते, सो बेई उतरत दुफैरी की ब्यार में झरझरा रअे ते।

                         इत्ते में भरभरा कें एक मोटर-साइकल मिसराजी के घर के सामनें रुकी। मिसराजी अपनी दिल्लान में बाहर खों निकर कें आय, के, को आय ? तबई्र एक लड़किनी जीन्स-सर्ट-जूतों में उतरी और एक हांत में चाबी घुमात भई मिसराजी के पाँव-से परबे खों तनक-मनक झुकी और कहन लगी - ‘पापाजी, रघुवंश है ?’ मिसराजी तो ऐंसे हक्के-बक्के रै गअे के उनको बकइ नैं फूटो। मों बांयं, आँखें फाड़ें बिन्नो बाई खों देखत रै गये। इत्ते में रघबंस खुदई कमीज की बटनें लगात भीतर सें निकरे और बोले - ‘पापा, मैं पूजा के साथ जा रहा हूँ। हम बाहर ही खा लेंगे। लौटने में देर होगी।’ मिसराजी तो जैंसई पत्थर की मूरत से ठांड़े हते, ऊँसई ठांडे़ के ठांड़े रै गय। मोटरसाइकल हबा हो गई। तब लौं मिसराइन घुंघटा सम्हारत बाहरै आ गईं - काय, को हतो ? अब मिसराजी की सुर्त लौटी - अरे, कोउ नईं, तुम तो भीतरै चलो। कहकैं मिसराइन खों ढकेलत-से भीतरैं लोआ लै गअे। तिबारी जी चीन्ह गअे के जा तो बई कन्या हती, जीके सगुन-सात के लयं गअे हते। तिबारी जी जमाने को चलन देखकैं मनइं मन मुस्कान लगे। नांय-मांय देखो, कोउ नैं हतौ कै बतया लेते। आज की मरयादा तो देखो। कैंसी बेह्याई है ? फिर कुजाने का खेयाल आ गओ के तिलबिला-से गअे। उनकें सामनें सत्तर साल पैलें की बातें घूम गईं। आज भलेंईं तिबारीजी को भरौ-पूरौ परिबार हतो, बेटा-बेटी-नाती-पोता हते, उनईं की सूद पै चलबे बारीं गोरी-नारी तिबारन हतीं, मनां बा कचोंट आज लौं कसकत ती।

                         सत्तनारान तिबारी जी को पैलो ब्याओ हो गओ तो, जब बे हते पन्दरा साल के। दसमीं में पड़त ते। आजी की जिद्द हती, जीके मारें; मनों दद्दा ने कड़क कें कै दइ ती कै हमाये सत्तू पुरोहितयाई नैं करहैं। जब लौं बकालत की पड़ाई नैं कर लैंहैं, बहू कौ मों नैं देखहैं। आज ब्याओ भलेंईं कल्लो, मनों गौनौ हूहै, जब सही समौ आहै। सो, ब्याओ तो हो गओ। खूब ढपला बजे, खूब पंगतें भईं। मनों बहू की बिदा नैं कराई गई। सत्तू तिबारी मेटरिक करकें गंजबसौदा सें इन्दौर चले गअे और कमरा लें कें कालेज की पड़ाई में लग गअे। उनके संग के और भी हते दो चार गाँव-खेड़े के लड़का, जिनके ब्याओ हो गअे हते, कइअक तो बाप सुंदां बन गअे हते। सत्तू तो बहू की मायाजाल में नैं परे ते, मनो समजदार तो हो गय ते। कभउँ-कभउँ सोच जरूर लेबें कै कैंसो रूप-सरूप हुइये देबासबारी को, हमाय लयं का सोचत हुइये, अब तो चाय स्यानी हो गई हुइये।

                         खबर परी कै देबास बारी खूबइ बीमार है और इन्दौर की बड़ी अस्पताल में भरती है। अब जौन भी आय, चाय देबास सें, चाय गंजबसौदा सें, सत्तू केइ कमरा पै ठैरै। सत्तू सुनत रैबें के तबीअत दिन पै दिन गिरतइ जा रइ है, सेबा-सम्हार सब बिरथां जा रइ है। सत्तू फड़फड़ायं कै हमइ देख आबें, मनों कौनउ नें उनसें नईं कई, कै तुमइ चलो। दद्दा आय, कक्का आय, बड़े भैया आय मनों आहाँ। जे सकोच में रय आय और महिना-दो महिना में सुनी कै डाकटरों ने सबखां लौटार दओ। फिर महीना खाँड़ में देबास सें जा भी खबर आ गई कै दुलहन नईं रई। जे गतको-सो खाकैं रै गअे।

                         एइ बात की कचोंट आज तलक रै गई कै जीखौं अरधांगनी बनाओ, फेरे डारे, सात-पाँच बचन कहे-सुने, ऊ ब्याहता को हम मों तक नैं देख पाय। बा सुइ पति के दरसनों खों तरसत चली गई और हम पोंचे लौं नईं, नैं दो बोल बोल पाय। हम सांगरे मरयादइ पालत रै गअे। ईसें तो आजइ को जमानो अच्छो है। संग-साथ क बचन तो निभा रय। हमें तो बस, बारा-तेरा साल की बहू को हांत छूबो याद रै गओ जिन्दगी-भर के लयं, जब पानीग्रहन में देबास बारी को हाथ छुओ तो।,,,,,,और बोइ आज लौं कचोंट रओ। 
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बुंदेली कहानी, सुमनलता श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
स्वयंसिद्धा 
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव श्रीवास्तव 
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                         पंडत कपिलनरायन मिसरा कोंरजा में संसकिरित बिद्यालय के अध्यापक हते। सूदो सरल गउ सुभाव। सदा सरबदा पान की लाली सें रचौ, हँसत मुस्कात मुँह। एकइ बिटिया, निरमला, देखबे दिखाबे में और बोलचाल में बिलकुल ‘निर्मला’। मिसराजी मोड़ी के मताई-दद्दा दोइ। मिसराजी की पहली ब्याहीं तो गौना होकें आईं आईं हतीं, कै मोतीझिरा बब्बा लै गए और दूसरी निरमला की माता एक बालक खों जनम देत में ओइ के संगे सिधार गईं तीं। ईके बाद तीसरी बार हल्दी चढ़वाबे सें नाहीं कर दई मिसराजी ने।

                         निरमला ब्याह जोग भईं, तो बताबे बारे ने खजरा के पंडत अजुद्धा परसाद पुरोहित के इतै बात चलाबे की सलाय दइ। जानत ते मिसराजी उनें। अपनेइं गाँव में नईं, बीस कोस तक के गांवों में बड़ो मान हतो पुरोहिज्जी को। जे बखत तिरपुण्ड लगाएं गैल में निकर परैं, सो आबे-जाबे बारे नोहर-नोहर के ‘पाय लागौं पंडज्जी’ कहत भए किनारे ठांड़े हो जाएं। बे पंचों में भी सामिल हते। देख भर लेबें कौनउ अन्नाय, दलांक परैं। मों बन्द कर देबैं सबके। चाय कौनउ नेता आए, चाय कौनउ आफीसर, बिना पुरोहिज्जी की मत लयं बात नइं बढ़ सकै।

                         ऊँचो ग्यान हतो उनको। जित्ते पोथी-पत्तर पढ़े ते, उत्तइ बेद-पुरान। मनों, बोलत ते बुंदेली। जब मौज में आ जायं, तो खूब सैरा-तैया, ईसुरी की फागें छेड़ देबैं। कहैं कै अपनी बुंदेली में बीररस के गीत फबत हैं और सिंगार रस के भी। बुंदेली के हिज्जे में जोन ऊपर बुंदी लगी है, बइ है सिंगार के लयं। मिसराजी ने पुरोहिज्जी खों सागर जिले के ‘बुंदेलखण्डी समारोह’ में देखो हतो। मंच पै जब उनें माला-आला डर गई, तो ठांड़े होकें पैलें उनने संचालकों खोंइ दो सुना दईं। अरे, बातें बुंदेलखंड की करबे आए हो, मनों बता रय हो खड़ी बोली में। बुंदेली कौ उद्धार चाहत हो, तो बोल-चाल में लाओ। जित्ती मिठास और जित्तो अपनोपन ई बोली में मिलहै, कहुँ नें मिलहै। किताब में लिख देबै सें बोली कौ रस नइ समज में आत। हर बोली बोलबे कौ अलग ढंग होत है। अलग भांस होत है हर भासा की, अलग लटका। कब ‘अे’ कहनें है, कब ‘अै’, कब ‘ओ’ कब ‘औ’। जा बात बिना बोलें, नइंर् समजाइ जा सकत। फिर नैं कहियो के नई पीढ़ी सीख नईं रइ, अरे तुम सिखाओ तो। और नइं तो तुमाय जे सब समारोह बेकार हैं। उनके हते तीन लड़का- राधाबल्लभ, स्यामबल्लभ और रमाबल्लभ। राधाबल्लभ के ब्याह के बाद

                         स्यामबल्लभ के लयं संबंध आन लगे ते। मजे की बात एेंसी भई; कै पुरोहिज्जी खों कोंरजइ बुलाओ गऔ भागवत बांचबे। बे भागवत भी बांचत हते और रामान भी। चाए किसन भगवान को द्वारकापिरस्तान होय, चाय सीतामैया की अग्निपरिच्छा, सुनबे बारों के अंसुआ ढरकन लगें। सत्तनारान की कथा तो ऐंसी, कै लगै मानों लीलाबती कलाबती अपनी महतारी-बिटियें होयं।

                         मिसराजी प्रबचन के बाद पुरोहिज्जी खों अपने घरै लै गए। घर की देख-संभार तौ निरमलइ करत ती। घिनौची तो, बासन तो, उन्ना-लत्ता तो, सब नीचट मांज-चमका कें, धो-धोधा कैं रखत ती। छुइ की ढिग सुंदा उम्दा गोबर से लिपौ आंगन देखकें पुरोहिज्जी की आत्मा पिरसन्न हो गई। दोइ पंडत बैठकें बतयान लगे कै बालमीकी की रामान और तुलसी की रामान में का-कित्तो फरक है। मौका देखकें मिसराजी बात छेडबे की बिचारइ रय ते; कै ओइ समै निरमला छुइ-गेरु सें जगमग तुलसी-चौरा में दिया बारबे आई। दीपक के उजयारे में बिन्नाबाई को मुँह चंदा-सो दमक उठौ। पुरोहिज्जी ने ‘संध्याबन्दन’ में हांत जोरे और निरमला खों अपने घर की बहू बनाबे को निस्चै कर लओ। कुंडलीमिलान के चक्कर में सोनचिरैया सी कन्या नें हांत से निकर जाय, सो कुंडली की बातइ नइं करी और पंचांग देखकें निरमला सें स्यामबल्लभ को ब्याओ करा दओ।

                         मंजले स्यामबल्लभ खों पुरोहिज्जी ने अपनो चेला बनाकें अपनेइ पास रक्खौ हतौ। एकदम गोरौ रंग, ऊँचो माथो, घुंघरारे बाल और बड़ी-बड़ी आँखें। गोल-मटोल धरे ते, जैंसे मताइ ने खूब माखन-मिसरी खबाइ होय। जब पुरोहिज्जी भागवत सुनांय, तो स्यामबल्लभ बीच-बीच में तान छेड़ देबैं। मीठो गरो, नइ-नइ रागें।

                         हरमुनियां पै ऐंसे-ऐंसे लहरा छेड़ें कै लगै करेजौ निकर परहै। सोइ रामान में एक सें एक धुनों में चौपाइएं। जब नारज्जी बन्दर बन गए, तो अलग लै-राग-ताल, कै पेट में हँसी कुलबुलान लगै और जब राम बनबास खों निकरन लगे, तो अलग कै रुहाइ छूट जाए।

                         बड़े राधाबल्लभ ने धुप्पल में रेलबइ को फारम भर दऔ और नौकरी पा गए। अपने बाल-बच्चा समेट कें, पेटी दबाकें निकर गए भुसावल। एकाद साल बाद लौटे, तो हुलिया बदल गई हती, बोली बदल गई हती। सो कछु नईं। मनों जब पुरोहिज्जी ने सुनी के बे खात-खोआत हैं, बस बिगर गए। बात जादई बढ़ गई, पिता ने चार जनों के सामनें थुक्का-फजीहत कर दई, सो राधाबल्लभ ने घरइ आबो छोड़ दओ।

                         छोटे रमाबल्लभ की अंगरेजी की समज ठीक हती, सो उनइं खों जमीन-जायदाद, खेती-बाड़ी, ढोर-जनावर, अनाज-पानी, कोर्ट-कचैरी की जिम्मेदारी दइ गई। रमाबल्लभ भी राजी हते, कायसें के ई बहाने, कछु रुपैया-पैसा उनके हांत में रैन लगौ तो।

                         निरमला खों तो सास के दरसनइ नईं मिले। बउ तो तीनइ चार दिनां के बुखार में चट्ट-पट्ट हो गईं तीं। बड़ी बहू घर की मालकन हती। मनों, जब बे बाहरी हो गईं, तो एइ ने हुसियारी सें घर सम्हार लओ। सुघर तौ हती; ऊपर सें भगवान नैं रूप ऐंसो दओ तो कै सेंदुर भरी मांग, लाल बड़ी टिबकी, सुन्ने के झुमकी, नाक की पुंगरिया, चुड़ियों भरे हांत, पांवों में झमझमात तोड़ल-बिछिया और सूदे पल्ले को घुंघटा देखकें लगै कै बैभोलच्छमी माता की खास किरपा ऐइ पै परी है। पुरोहिज्जी ने बहुओं खों खूब चाँदी-सोना चढ़ाओ हतौ।

                         छोटे रमाबल्लभ की बहू सुसमा सो निरमला केइ पीछें-पीछें लगी रहै और छोटी बहन घाईं दबी रहै। ओकी तीसरी जचकी निरमला नेंइं संभारीं, हरीरा सें, लड़ुअन सें, घी-हल्दी सें, मालिस-सिंकाई सें, कहूं कमी नैं रैन दइ। हाली-फूली निरमला ने खुदइ चरुआ चढ़ा लओ, खुदइ छठमाता पूज लइं, खुदइ सतिया बना लय, खुदइ दस्टौन, कुआपुजाइ, मातापूजा, झूला, पसनी सब कर लओ। कच्छु नैं छोड़ो। अपने दोइ लड़कों, माधवकान्त और केसवकान्त खों बिठार दओ कै पीले और गुलाबी झिलमिल कागज के चौखुट्टे टुकड़ों में दो-दो बड़े बतासा ध्ा रत जावें और धागा बांध कें पुड़ियें बनावें। निरमला ने खूब बुलौआ करे, बतासा बांटे, न्यौछावरें करीं। ढुलकिया तो ऐंसी ठनकी के चार गांव सुनाइ दइ -‘मोरी ढोलक लाल गुलाल, चतुर गावनहारी।’ एक सें एक हंसी-मजाक कीं, खुसयाली कीं, दुनियांदारी कीं, नेग-दस्तूर कीं जच्चा, सोहर, बधाईं। दाइ-खबासन सब खुस। निरमला-सुसमा दोइ के पैले जापे तो जिठानी ने जस-तस निबटा लय ते। एक बे तो फूहड़ हतीं, दूसरें भण्डारे की चाबी धोती के छुड्डा सें छूट नै सकत ती। मनों निरमला की देखादेखी सुसमा ने भी कभउँ उनकी सिकायत नें करी। बड़ी सबर बारी कहाईं। तबइ तो पुरोहिज्जी के घर में लच्छमी बरसत ती।

                         पुरोहिज्जी निरमला खों इत्ते मुकते काम एक संगे निबटात देख कें मनइ-मन सोचन लगें कै जा बहू तो अस्टभुजाधारी दुरगामैया को औतार है - नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। गांव-बस्ती में भी खूब जस हो गओ निरमला को। कहूं सुहागलें होयं, कहूं सात सुहागलों के हातों ब्याओ के बरी-पापर बनन लगें, बर-बधू खों हल्दी-तेल चढ़न लगै, तो सगुन-सात के कामों में निरमला को हांत सबसे पहले लगवाओ जाए। एक तो बाम्हनों के घर कीं, फिर उनके गुन-ढंग लच्छमी से।

                         मनों का सब दिन एकइ से रहत हैं ? बिधि को बिधान। पुरोहिज्जी मों-अंधेरें खेतों की तरप जात हते। एक दिन लौटे नइं। निरमला खों फिकर मच गई। इत्ते बखत तक तो उनके इस्नान-ध्यान, पाठ-पूजा, आरती-परसाद सब हो जात तो, आज कितै अटक गए ? स्याम, रमा, माधव, केसव सब दौर परे। देखत का हैं के खेत की मेंड़ पे ओंधे मों डरे हैं, बदन नीलो पर गओ है, मुँह सें फसूकर निकर रओ है। तब लौं गांव के और आदमी भी उतइं पोंच गए। समज गए कै नागराज डस गए। पूरे दिन गुनिया, झरैया, फुंकैया सब लगे रहे कै नागदेवता आएं और अपनौ जहर लौटार लयं। गांव भर में चूल्हो नइं जरौ उदिना। सब हाहाकार करें, मनों आहाँं; कुजाने कौन से बिल में बिला गओ बो नांग। संझा लौं एक जनो तहसील सें डाक्टर खों बुला लै आओ, मनों ऊने आतइं इसारा कर दओ कै अब देर हो गई।

                         पुरोहिज्जी के जाबे सें अंधयारो सो छा गओ। पूजा-रचा, उपास-तिरास, जग्ग-हबन को बो आनन्द खतम हो गओ। सबने स्यामबल्लभ खोंइ समजाओ कै बेइ पुरोहताई संभारें। निरमला नें बाम्हनों के नेम-धरम और घर की मान-मर्जादा की बातें समजाईं। सो उनने बांध लई हिम्मत। अब बेइ पूजन-पुजन लगे। निरमला को नाम पर गओ, पंडतान बाई।

                         निरमला पंडतान को पूरो खेयाल ए बात पै रहत हतो कै ओके लड़का का पढ़ रय, का लिख रय, किते जात हैं, कौन के संगे खेलत-फिरत हैं, बड़ों के सांमने कैंसो आचरन करत हैं। तनक इतै उतै होयं, तो साम दाम दंड भेद सब बिध से रस्ता पे लै आय। निरमला ने अपने पिता के घर में सीखे नर्मदाष्टक, गोविन्दाष्टक, शिवताण्डवस्तोत्र, दुर्गाकवच, रामरक्षास्तोत्र, गीता के इस्लोक सबइ कछु बिल्लकुल किताब घाईं मुखाग्र करवा दय लड़कों खों। बड़े तेज हते बालक। स्यामबल्लभ ने बच्चों की कभउँ सुर्त नैं लइ। अपनी बन-ठन, तिलक-चन्दन मेंइं घंटाक निकार देबैं। नैं लड़कों खो उनसें मतलब, नैं उनें लड़कों सें। हाँ घर लौटें, सो जरूर लड़कों में आरती-दच्छना की चिल्लर गिनबे की होड़ लग जाए। निरमला भोग के फल-मिठाई संभार कें रख लेबै और सबखों परस कें ख्वा देबै। ओके मन में अपने लड़कों और सुसमा के बाल-बच्चों में भेद नैं हतो।

                         होत-होत, कहुँ सें साधुओं कौ एक दल गाँव में आ गऔ। गांवबारों नै खूब आव-भगत करी, प्रबचन सुने, दान-दच्छना दइ। खूब धूनी रमत ती। स्यामबल्लभ उनके संगे बैठें, तो बड़ो अच्छौ लगै। मंडली खों हती गांजा-चरस की लत। सो बइ लत लगा दइ स्यामबल्लभ खों। अब बे सग्गे लगन लगे और घर-संसार मोहमाया। निरमला ने ताड़ लओ, मनों स्यामबल्लभ नें घरबारी की बात नैं सुनीं। हटकत-हटकत उनइं के महन्त के सामनें भभूत लपेट कें गंगाजली उठा लइ और हो गए साधू। गाँव बारों ने खूब जैकारो करौ। धन्न-धन्न मच गई। गतकौ सो लगौ निरमला खों। कछू नैं समज परौ। तकदीर खों कोस कें रै गई। साधुओं कौ दल स्यामबल्लभानन्द महाराज खों लैकें आंगें निकर गओ। गांव में निरमला कौ मान और बढ़ गओ। जा कौ पति साधु-सन्त हो जाए, तो बा भी सन्तां से कम नइं। ठकरान, ललयान, बबयान, मिसरान सब पाँव परन लगीं। मनों निरमला के मन पै का बीत रइ हती ? लड़काबारे छोटे-छोटे, कमैया छोडकें चलौ गओ। कछू दिनां तो धरे-धराय सें काम चलत रहौ, मनों बैठ के खाओ तौ कुबेर कौ धन सुइ ओंछ जाय। एक-एक करकें चीजें-बसत बिकन लगीं। आठ-दस बासन भी निकार दय। उतै रमाकान्त ने पटवारी सें मिलीभगत करकें जमीन और घर अपने नाम करवा लओ। कोइ हतौ नइं देखबे बारौ, सो कर लइ मनमरजी। कहबै खों तो निरमला और बच्चों की मूड़ पै छत्त नैं रइ ती, मनों सुसमा अड़ गई कै जिज्जी एइ घर में रैहें, भलें तुम और जो चाहे मनमानी कर लो।

                         चलो, एक कुठरिया तौ मिल गई, मनों खरचा-पानी कैंसें चलत ? रमाबल्लभ ने पूंछो भी नइं और पूंछते तो का इत्ते छल-कपट के बाद निरमला उनको एसान लेती ? लड़का बोले, माइ! अब हम इस्कूल नैं जैहैं।

                         बस, निरमला पंडतान की इत्ते दिनों की भड़ास निकर परी - काय, तौ का बाप घाईं भभूत चुपर कें साधू बन जैहौ ? दुआर-दुआर जाकें मांगे की खैहौ ? दूसरों के दया पै पलहौ ? अरे हौ, सो तुमइं भांग में डूबे रइयो, गांजा-चरस के सुट्टा लगइयो, गैरहोस होकें परे रइयो, कै जनता समजे महात्माजी समादी में हैं। झूंठो छल, झूंठो पिरपंच। अपने आलसीपने खों, निकम्मेपने खों धरम को नाम दै दऔ; सो मुफत की खा रय और गर्रा रय।

                         सब ठठकरम, सब ढकोसला। साधुओं की जमात में भगत हैं, भगतनें हैं, कमी कौन बात की उनें ? नें बे देस के काम आ रय, नें समाज के, नें परिबार के। अपनौ पेट भर रय और जनता खों उल्लू बना रय। ऊँसइ बेअकल बे भक्त, अंधरया कें कौनउ खों भी पूजन लगत हैं। और सच्ची पूंछो तो, कइयक तो अपनी उल्टी-सूदी कमाई लुकाबे के लानें धरम को खाता खोल लेत हैं और धरमात्मा कहान लगत हैं।

                         कान खोल कें सुन लो, माधोकान्त और केसोकान्त! तुमें जनम देबै बारो तो अपनी जिम्मेबारियों सें भग गओ कै उनकी औलाद खों हम पालैं, कायसें के हमाए पेट सें निकरे हो। मनों बे हमें कम नैं समजें। अबे समै खराब है, सो चलन दो। कल्ल खों हम अपने हीरा-से लड़कों खों एैसो बना दैहें के फिर पुरोहिज्जी की इज्जत इ घर में लौट्याये। अपन मेहनत मजूरी कर लैहें, बेटा। मनों, लाल हमाय ! तुम दोइ जनें पढ़बो लिखबो नें छोड़ियो। तुम दोइ जनों खों अपने नाना की सूद पकर कें सिक्छक बनने है।’ निरमला दोइ कुल को मान बढ़ाबो चहत ती।

                         निरमला ने ठाकुरों के घरों में दोइ बखत की रोटी को काम पकर लओ। कभउँ सेठों के घरों के पापर बेल देबै। हलवाइयों के समोसा बनवा देबै। कहुँ पे बुलाओ जाय, तो तीज-त्यौहार के पकवान बनवा देबै।

                         कभउँ घरइ में गुजिया, पपरिया बनाकें बेंच देबै। कहूँ बीनबे-पीसबे, छानबे-फटकबे खों चली जाय। एक घड़ी की फुरसत नइं, आराम नइं। बस, मन में संकल्प कर लओ हतो कै लड़कों खों मास्टर बनानै है और बो भी कालेज को। गर्मियों में माधोकान्त और केसोकान्त लग जायं मालगुजार साहब खों पंखा डुलाबे के काम में। मालगुजारी तौ नें रही हती, मनों ठाठ बेइ। उनें बिजली के पंखा की हवा तेज लगत ती। अपनी बैठक की छत्त सें एक बल्ली में दो थान कपड़ा को पंखा झुलवाएं हते, ओइ खों पूरे-पूरे दिन रस्सी सें डुलाने परत हतो। जित्ते पैसा मिलें, सो माधव केसव किताब-कापियों के लानें अलग धर लेबैं। इतै-उतै की उसार कर देबैं, सो बो पैसा अलग मिल जाय। बाकी दिनों में बनिया की अनाज-गल्ले की दुकान पे लग जायं। इस्कूल के लयं सात-सात कोस को पैदल आबो-जाबो अलग। उनकी मताइ हती उनकी गुरु। जैंसी कहै, सो बे राम लछमन मानत जायं। दोइ भइयों ने महतारी की लाज रक्खी। माधव कान्त पुरोहित दसमीं के बोर्ड में और केशव कान्त पुरोहित आठमीं के बोर्ड में प्रथम स्रेनी में आ गए। मैडल मिले। कलेक्टर ने खुद बुलवा कें उनकी इस्कालरशिप बँधवा दइ। पेपरों में नाम छपो, फोटो निकरी। सब कहैं, साधु महात्मा की संतान है। काय नें नाम करहैं ?

                         स्यामबल्लभ महाराज को पुन्न-परताप है के ऐंसे नोंने लड़का भए। सुई के छेद सें निकर जायं, इत्तो साफ-सुथरौ चाल-चलन। धन्य हैं स्यामबल्लभ! निरमला जब सुनै कै पूरी बाहबाही तौ स्यामबल्लभ खों दइ जा रइ है, सो आग लग जाए ओ के बदन में। हम जो हाड़ घिसत रय, सो कछु नइं ? सीत गरमी बरसात नैं देखी, सो कछु नइं? गहना-गुरिया बेंच डारे, सो कछु नइं। दो कपड़ों में जिन्दगी काट रय, सो कछु नइं ? भूंके रह कें खरचा चलाओ हमनें, पेट काटो हमनें, लालटेन में गुजारा करौ हमनें, और नाम हो रओ उनको ! जित्तो सोचै, उत्तोइ जी कलपै। स्यामबल्लभ के नाम सें चेंहेक जाय। नफरत भर गई। का दुनियां है, औरतों की गत-गंगा होत रैहै, बोलबाला आदमियों को हूहै।

                         कहत कछु नैं हती। अपने पति की का बुराई करनै ? संस्कार इजाजत नइं देत ते। मन मार कैं रह जाय। इज्जत जित्ती ढंकी-मुंदी रहै, अच्छी। देखत-देखत लड़का कालेज पोंच गए। उतै भी अब्बल। सौ में सें सौ के लिघां नम्बर। कालेज को नाम पूरे प्रदेस में हो गओ। कालेज बारों ने सब फीसें माफ कर दइं। कालेज पधार कें मुख्यमंत्री ने घोसना कर दई कै इन होनहार छात्रों की ऊँची सें ऊँची पढ़ाई कौ खरचा सरकार उठैहै। उनने खुद निरमला पंडतान को स्वागत करौ -

                         ‘हम इन स्वयंसिद्धा महिला श्रीमती निर्मला देवी पुरोहित का अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने नाना कष्टों को उठाकर अपने पुत्रों को योग्य विद्यार्थी एवं योग्य नागरिक बनाने का संकल्प लिया है।’ अब निरमला के कानों में बेर-बेर गूँजै, ‘स्वयंसिद्धा’ और मन के तार झनझना जायं। देबीमैया के सामने हांत जोड़ै, हे भगवती! तुमाइ किरपा नै होती, तो मैं अबला का कर लेती ?

                         एंसइ में एक दिना सिपाही ने आकें खबर दइ कै ‘स्यामबल्लभानन्द खों कतल के जुर्म में फांसी होबे बारी है। नसे की झोंक में रुपैयों के ऊपर सें अपनेइ साथी से लठा-लठी कर लई हती। इनने ऐंसो घनघना कें लट्ठ हन दओ ओकी मूड़ पे, कै बो तुरतइं बिल्ट गओ। उनने अपने घर को पतो जोइ दओ है। आप औरें उनकी ल्हास लै सकत हो।’ निरमला ने आव देखो नैं ताव। दस्खत करकें चिट्ठी तो लै लइ, मनों फाड़ कें मेंक दइ और कह दइ - ‘हम नइं जानत, कौन स्यामबल्लभानन्द ?’

                         दो-तीन दिना बाद माधवकान्त ने महतारी कौ सूनो माथो देखकें टोक दओ - ‘काय माइ, आज बूंदा नइं लगाओ ?’ निरमला सकपका गई, मनो कर्री आवाज में बोली - ‘बेटा, सपरत-खोरत में निकर-निकर जात है। अब रहन तो दो। को लगाय ?’
साभार- जिजीविषा कहानी संग्रह 

-इति-
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शनिवार, 29 अप्रैल 2017

chitra kavya pataka alankar



चित्र काव्य 
पताका अलंकार  
१.
है
काष्ठ
में जान।
मत काटो
दे देगी शाप।
होगा कुल नाश।
हो या न हो विश्वास। 
जीवन हो साफ़ सुथरा 
हरी-भरो रखो वसुंधरा।
****
२.

पौधे
लगाएँ।
मरु में भी
वन उगाएँ।
अंत समय में  
पंचलकड़ियाँ दें   
सभी सगे संबंधी  
संवेदना तो जटाएँ।
***
३. 
हैं
वन
न शेष।
श्याम कैसे
बनाए बंसी ? 
रूठी हुई राधा
थकी थाम मटकी।

***
४.

बाँस
न धनु।
हैरान हैं
वन में राम।
कैसे करें युद्ध?
कैसे चलाएँ बाण ।
****
५.
है
लाठी
सहारा  
बुढ़ापे का।  
न सकें छीन
पूत, हो कपूत
मिल बाँस उगाएँ ।
***

hindi-sindhi salila

 [आमने-सामने, हिंदी-सिन्धी काव्य संग्रह, संपादन व अनुवाद देवी नागरानी
शिलालेख, ४/३२ सुभाष गली, विश्वास नगर, शाहदरा दिल्ली ११००३२. पृष्ठ १२६, २५०/-]
पृष्ठ ८४-८५















१. शब्द सिपाही १. लफ्ज़न जो सिपाही
* *
मैं हूँ अदना माँ आहियाँ अदनो
शब्द सिपाही. लफ्ज़न जो सिपाही.
अर्थ सहित दें अर्थ साणु डियन
शब्द गवाही. लफ्ज़ गवाही.
* *
२. सियासत २. सियासत
तुम्हारा हर तुंहिंजो हर हिकु सचु
सच गलत है. गलत आहे.
हमारा हर मुंहिंजो
सच गलत है हर हिकु सचु गलत आहे
यही है इहाई आहे
अब की सियासत अजु जी सियासत
दोस्त ही दोस्त ई
करते अदावत कन दुश्मनी
* *

mukatak


विश्ववाणी हिंदी भाषा-साहित्य संस्थान 
*
। हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल । 
।।'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल।।
*
। जन्म ब्याह राखी तिलक, गृहप्रवेश त्यौहार ।
।।'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।
*
मुक्तक
प्रेरणा सुंदर बहुत यह सत्य ही है 
प्रेरणा पा हो रहा हर कृत्य भी है 
शत नमन कर कोशिशें पातीं सफलता 
सकल जीवन प्रेरणा का नृत्य ही है
*
२८-४-२०१५ 
९४२५१८३२४४ salil.sanjiv@gmail.com