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बुधवार, 22 मार्च 2017

haiku geet

हाइकु गीत
*
लोकतंत्र में
मनमानी की छूट
सभी ने पाई।
*
          सबको प्यारा
          अपना दल-दल
          कहते न्यारा।
          बुरा शेष का
          तुरत ख़तम हो
          फिर पौबारा।
लाज लूटते
मिल जनगण की
कह भौजाई।
*
          जिसने लूटा
          वह कहता: 'तुम
          सबने लूटा।
          अवसर पा
          लूटता देश, हर
          नेता झूठा।
वादा करते
जुमला कहकर
जीभ चिढ़ाई।
*
          खुद अपनी
          मूरत बनवाते
          शर्म बेच दी।
          संसद ठप
          भत्ते लें, लाज न
          शेष है रही।
कर बढ़वा
मँहगाई सबने
खूब बढ़ाई।
***

dwipadi

द्विपदी
सूरज
*
सुबह उषा का पीछा करता, फिर संध्या से आँख मिला
रजनी के आँचल में छिपता, सूरज किससे करें गिला?
*

doha

दोहा पंचक
*
उसको ही रस-निधि मिले, जो होता रस-लीन। 
 पान न रस का अन्य को, करने दे रस-हीन।। 
*
सलिल साधना स्नेह की, सच्ची पूजा जान।
प्रति पल कर निष्काम तू, जीवन हो रस-खान।।
*
शब्द-शब्द अनुभूतियाँ, अक्षर-अक्षर भाव।
नाद, थाप, सुर, ताल से, मिटते सकल अभाव।।
*
रास न रस बिन हो सखे!, दरस-परस दे नित्य।
तरस रहा मन कर सरस, नीरस रुचे न सत्य।।
 *
सावन-फागुन कह रहे, लड़े न मन का मीत।
गले मिले, रच कुछ नया, बढ़े जगत में प्रीत।।
*

मंगलवार, 21 मार्च 2017

muktak-muktika

मुक्तक
मौन वह कहता जिसे आवाज कह पाती नहीं. 
क्या क्षितिज से उषा-संध्या मौन हो गाती नहीं. 
शोरगुल से शीघ्र ही मन ऊब जाता है 'सलिल'- 
निशा जो स्तब्ध हो तो क्या तुम्हें भाती नहीं?
*
मुक्तिका
*
मौन वह कहता जिसे आवाज कह पाती नहीं।
क्या क्षितिज से उषा-संध्या मौन हो गाती नहीं?

शोरगुल से शीघ्र ही मन ऊब जाता है 'सलिल'-
निशा जो स्तब्ध हो तो क्या तुम्हें भाती नहीं?

कशिश-आकर्षण न हो तो घूमता नित सूर्य क्यों?
मोह होता यदि नहीं तो धरा तरसाती नहीं।।

बँध शिखा के पाश में दे आहुति निज प्राण की।
पतंगा खुश है, लगावों में कमी आती नहीं।।

खिंचावों से दूर रहना कहो संभव है कहाँ?
भोगता जो योग को क्या वही वैरागी नहीं?


*

haiku geet

हाइकु गीत * आया वसंत इन्द्रधनुषी हुए दिशा-दिगंत.. शोभा अनंत हुए मोहित, सुर-मानव संत.. * प्रीत के गीत गुनगुनाती धूप बनालो मीत. जलाते दिए एक-दूजे के लिए कामिनी-कंत.. * पीताभी पर्ण संभावित जननी जैसे विवर्ण.. हो हरियाली मिलेगी खुशहाली होगे श्रीमंत.. * चूमता कली मधुकर गुंजार लजाती लली.. सूरज हुआ उषा पर निसार लाली अनंत.. * प्रीत की रीत जानकर न जाने नीत-अनीत. क्यों कन्यादान? 'सलिल' वरदान दें एकदंत.. ***

kundali

कुंडली
*
रूठी राधा से कहें, इठलाकर घनश्याम
मैंने अपना दिल किया, गोपी तेरे नाम
गोपी तेरे नाम, राधिका बोली जा-जा
काला दिल ले श्याम, निकट मेरे मत आ, जा
झूठा है तू ग्वाल, प्रीत भी तेरी झूठी
ठेंगा दिखा हँसें मन ही मन, राधा रूठी
*
कुंडली
कुंडल पहना कान में, कुंडलिनी ने आज
कान न देती, कान पर कुण्डलिनी लट साज
कुण्डलिनी लट साज, राज करती कुंडल पर
मौन कमंडल बैठ, भेजता हाथी को घर
पंजा-साइकिल सर धुनते, गिरते जा दलदल
खिला कमल हँस पड़ा, फन लो तीनों कुंडल
***

सोमवार, 20 मार्च 2017

lakshmi mantra

माँ लक्ष्मी के मंत्र

कलियुग की सबसे बड़ी जरूरत है ‘धन’ हजारों वर्षों पहले ही भागवत पुराण में यह भविष्यवाणी कर दी गई थी कि कलियुग में एक अच्छा कुल (परिवार) वही कहलाएगा, जिसके पास सबसे अधिक धन होगा। ऐसे ही परिवार का समाज में सम्मान होगा। धन जीवन की छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए ही नहीं, बल्कि समाज में एक सम्मानित स्थान पाने के लिए भी आवश्यक है। हर किसी के पास बेशुमार धन होना संभव नहीं। मनुष्य जीवन में सफलता दो आधार किस्मत और कर्म हैं। किस्मत में धन लिखा है तो वह व्यक्ति अवश्य धन पाएगा, साथ ही ऐसे कर्मों करेगा जिससे से उस तक पहुँच जाए। हिन्दू शास्त्रों में मनुष्य के कर्मों द्वारा उसकी मनोकामना पूर्ति वर्णित है।ऐसे कई शास्त्रीय उपाय हैं जिन्हें करने से मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में सक्षम होता है। ये शास्त्रीय उपाय मंत्र जाप, दान-पुण्य आदि हैं। धनवान बनने हेतु जातक की राशि के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी के मंत्र का जाप करें। इससे जातक के ऊपर धन की वर्षा होकर जीवन से दरिद्रता दूर होती है और वह सुखी बनता है। लक्ष्मी का आशीर्वाद जीवन में धन और खुशहाली दोनों लाते हैं।

मेष राशि के जातक मंगल ग्रह से प्रभावित होते हैं, इनमें कम साधनों में गुजारा करने का गुण नहीं होता। ये हमेशा जीवन से अधिक की अपेक्षा लगाए रहते हैं। मेष राशि के जातक को धन प्राप्ति के लिए माँ लक्ष्मी के ‘श्रीं’ मंत्र का जाप १०००८ बार करना चाहिए।  

वृषभ जाति के जातक ‘परिवार एवं जीवन के प्रति संवेदनशील भाव रखने वाले होते हैं । ये  “ॐ सर्वबाधा विर्निमुक्तो धन-धान्यसुतान्वित:। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।“ इस मंत्र का नित्य एक माला जाप करें।

मिथुन राशि के जातक दोहरे व्यक्तित्ववाले लेकिन अपने कार्य के प्रति मेहनती होते हैं । यदि ये ठान लें तो नामुमकिन को मुमकिन बना सकते हैं। इनके लिए लक्ष्मी मंत्र – “ॐ श्रीं श्रीये नम:” इस मंत्र का प्रतिदिन एक माला जाप करें।

 कर्क राशि के जातक परिवार के प्रति प्रेम और उनकी हर जरूरत का ख्याल रखना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। लक्ष्मी मंत्र – “ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ॐ॥“ इस मंत्र का प्रतिदिन एक माला जाप करें।

सिंह राशि के जातक समाज में सम्मान पाने और धन के प्रति बेहद आकर्षित होते हैं। इनके लिए लक्ष्मी मंत्र इस प्रकार है – “ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नम:” इस मंत्र का प्रतिदिन एक माला जाप करें।

कन्या राशि के जातक बेहद समझदार और सभी लोगों को साथ लेकर चलने वाले होते हैं । जीवन के पर्ति इनकी बेहद सरल सोच होती है, लेकिन फिर भी बाकी लोगों से अलग। लक्ष्मी मंत्र – “ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्मी नम:” इस मंत्र का प्रतिदिन सुबह कम से कम एक माला जाप करें।

जीवन के प्रति तुलानात्मक सोच रखने वाले, समझदार और सुलझे हुए लोग होते हैं तुला राशि के जातक। लक्ष्मी मंत्र – “ॐ श्रीं श्रीय नम:” तुला राशि के जातक इस लक्ष्मी मंत्र का प्रतिदिन एक माला या इससे अधिक जाप भी कर सकते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वृश्चिक राशि के जातक जीवन के शुरुआती पड़ाव में कई परेशानियां झेलते हैं, लेकिन 28 की उम्र पार करने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति अपने आप सुधरने लगती है। किंतु इसे और बेहतर बनाने के लिए इस लक्ष्मी मंत्र का उपयोग करें – ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीभयो नम:”

मेहनती और समझदार होते हैं मकर राशि के जातक। ये लोग कभी भी जीवन में जल्दबाजी में काम नहीं करते। हर काम को सोच-विचार कर करते हैं। लक्ष्मी मंत्र – “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ॐ ह्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्री ॐ॥“ इस मंत्र का प्रतिदिन कम से कम एक माला जाप करें।

कुंभ राशि का स्वामी शनि है, शनि कर्मानुसार फल देने वाला ग्रह है इसलिए इस राशि के जातक अपने अच्छे कर्मों पर अच्छा और बुरे कर्मों पर जल्द से जल्द बुरा फल पाते हैं। लक्ष्मी मंत्र – “ऐं ह्रीं श्रीं अष्टलक्ष्मीयै ह्रीं सिद्धये मम गृहे आगच्छागच्छ नमः स्वाहा।“ इस मंत्र का प्रतिदिन एक माला जाप करने से देवी प्रसन्न होंगी।

मीन राशि का स्वामी ग्रह है देवगुरु बृहस्पति, जो कि स्वयं धन-धान्य दिलाने वाले हैं। इनके लिए लक्ष्मी मंत्र इस प्रकार है - “ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम:” नित्य दो माला जाप करने से फल की प्राप्ति होगी।


navgeet

नवगीत: बजा बाँसुरी -
*
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
************** 

बुधवार, 15 मार्च 2017

kundali

कहे कुंडली सत्य
*
दो नंबर पर हो गयी, छप्पन इंची चोट
जला बहते भीत हो, पप्पू संचित नोट
पप्पू संचित नोट, न माया किसी काम की
लालू स्यापा करें, कमाई सब हराम की
रहे तीन के ना तेरह के, रोते अफसर
बबुआ करें विलाप, गँवाकर धन दो नंबर
*
दबे-दबे घर में रहें, बाहर हों उद्दंड
हैं शरीफ बस नाम के, बेपेंदी के गुंड
बेपेंदी के गुंड, गरजते पर न बरसते
पाल रहे आतंक, मुक्ति के हेतु तरसते
सीधा चले न सांप, मरोड़ो कई मरतबे
वश में रहता नहीं, उठे फण नहीं तब दबे
*
दिखा चुनावों ने दिया, किसका कैसा रूप?
कौन पहाड़ उखाड़ता, कौन खोदता कूप?
कौन खोदता कूप?, कौन किसका अपना है?
कौन सही कर रहा, गलत किसका नपना है?
कहता कवि संजीव, हुआ जो नहीं वह लिखा
कौन जयी हो? पत्रकार को नहीं था दिखा
*
हाथी, पंजा-साइकिल, केर-बेर सा संग
घर-आँगन में करें जो, घरवाले ही जंग
घरवाले ही जंग, सम्हालें कैसे सत्ता?
मतदाता सच जान, काटते उनका पत्ता
बड़े बोल कह हाय! चाटते धूला साथी
केर-बेर सा सँग, साइकिल-पंजा, हाथी
*
पटकी खाकर भी नहीं, सम्हले नकली शेर
ज्यादा सीटें मिलीं पर, हाय! हो गए ढेर
हाय! हो गए ढेर, नहीं सरकार बन सकी
मुँह ही काला हुआ, नहीं ठंडाई छन सकी
पिटे कोर्ट जा आप, कमल ने सत्ता झपटी
सम्हले नकली शेर नहीं खाकर भी पटकी
*** 

मंगलवार, 14 मार्च 2017

doha

दोहा-सलिला रंग भरी 
*
लहर-लहर पर कमल दल, सुरभित-प्रवहित देख 
मन-मधुकर प्रमुदित अमित, कर अविकल सुख-लेख 
*
कर वट प्रति झुक नमन झट, कर-सर मिल नत-धन्य 
बरगद तरु-तल मिल विहँस, करवट-करवट अन्य 
*
कण-कण क्षण-क्षण प्रभु बसे, मनहर मन हर शांत 
हरि-जन हरि-मन बस मगन, लग्न मिलन कर कांत 
*
मल-मल कर मलमल पहन, नित प्रति तन कर स्वच्छ 
पहन-पहन खुश हो 'सलिल', मन रह गया अस्वच्छ 
*
रख थकित अनगिनत जन, नत शिर तज विश्वास 
जनप्रतिनिधि जन-हित बिसर, स्वहित वरें हर श्वास 
*
उछल-उछल कपि हँस रहा, उपवन सकल उजाड़ 
किटकिट-किटकिट दंत कर, तरुवर विपुल उखाड़
*
सर! गम बिन सरगम सरस, सुन धुन सतत सराह
बेगम बे-गम चुप विहँस, हर पल कहतीं वाह 
*
सरहद पर सर! हद भुला, लुक-छिप गुपचुप वार 
कर-कर छिप-छिप प्रगट हों, हम सैनिक हर बार 
*
कलकल छलछल बह सलिल, करे मलिनता दूर 
अमल-विमल जल तुहिन सम, निर्मलता भरपूर 
*

रविवार, 12 मार्च 2017

holi ke chhand

: होली के रंग छंदों के संग :
संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे
हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे
हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे
मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे
0
चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में
भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में
बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको
खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में
0
करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना
पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना
सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता
बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना
0
नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में
नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में
अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी
लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में
0
ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में
लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में
मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना
रचे निर्माण हर सुख का नया संसार होली में
0
न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में
न रूठो यार लगने दो कवित-दरबार होली मे
मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में
गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में
0
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका
आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी
बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका
=========================

शनिवार, 11 मार्च 2017

doha

दोहा दुनिया
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार  
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?    
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार 
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार 
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार 
***

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

holi ke hurhure

होरी के जे हुरहुरे
संजीव 'सलिल'

होरी के जे हुरहुरे, लिये स्नेह-सौगात
कौनऊ पढ़ मुसक्या रहे, कौनऊ दिल सहलात 
कौनऊ दिल सहलात, किन्हऊ खों चढ़ि गओ पारा,
जिन खों पारा चढ़े, होय उनखों मूं कारा।   
*
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग। 
रंग कांता खों मले, सत्यजीत भई जंग।। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
बिरह-ब्यथा मिथलेस की, बिनसे सही न जाय।
छोड़ मुंगेली जबलपुर, आखें धुनी रमांय। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गायें संग प्रमोद के, विहँस कल्पना फाग।
पहन प्रेरणा घूमतीं, फूल-धतूरा पाग।। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
मुग्ध मंजरी देखकर, भूला राह बसंत।
मधु हाथों मधु पानकर, पवन बं रहे संत।। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
विनिता की महिमा 'सलिल', मो सें बरनि न जाय।
दोहा-पिचकारी चला, घर छिप धता बतांय।। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
नीला-पीला रंग सुमन, चेहरे-छाया खूब।
श्याम घटा में चाँदनी, जैसे जाए डूब।। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गूझों का आनंद लें, लुक-छिप मृदुला माँग। 
अनिल बीच में रोककरकर, अडा रहे हैं टाँग। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
लाल गाल कर उषा के, अरुण हुआ मदमस्त
सेव-पपडिया खा हुईं, मुदित सुनीता पस्त
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
काट लिए वनकोटि फिर, चाहें पुष्प पलाश।  
माया-ममता बिन 'सलिल', फगुआ हुआ हताश।। 
कि बोलो सा रा रा रा.....
*

muktak

मुक्तक 
कांता रॉय 
*
साँझ की छाया ढली, फिर याद कोई आ गया  
याद चंदन, वदन पुलकित, कौन मन पर छा गया 
छवि मनोहर आँख में प्रतिभासती मन हर रही
सुनहली यादों के घोड़े चढ़ मुझे हरषा गया 
***

बुधवार, 8 मार्च 2017

geet

एक रचना
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने  
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों के दीप बालकर
अधिकारों को नहीं भुनाया।
***

kavita

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष रचना
औरत
कुसुम वीर, दिल्ली
*
संघर्षों की पोटली को सर पर उठाये
बेटी, पत्नी और माँ की भूमिका निभाती
सुख-दुःख की परछाइयों को जीवन्तता  लाँघती
साहसी औरत
जो कभी
रहती थी चार दीवारों में
आज, बंद किवाड़ों को ढकेल बाहर आ खड़ी है

अपनों के सपनों को पल्लू में बाँधे
कल के कर्णधारों को गोदी में दुलारती
अपनी मुट्ठी में उनके भविष्य का खज़ाना बटोरती
प्रेरणाशील औरत
जो कभी छिपती थी पर्दे में
आज दूसरों को अपना पदगामी बना रही है

अपने कंधों पर पराक्रम का दोशाला ओढ़े
ज़िंदगी की ऊँची-नीची पगडंडियों पर
निर्भीकता से कदम बढ़ाती
सफलता की सीढ़ियों को नापती
सबला औरत
जो कभी थी अबला
आज
आसमान की बुलंदियाँ छूने को बेताब खड़ी है
***

मंगलवार, 7 मार्च 2017

muktika

मुक्तिका
पदभार २६ मात्रा
छंद- महाभागवत जातीय
पदांत- रगण, यति १७-९
*
स्वार्थ को परमार्थ या सर्वार्थ कहना आ गया     २६
निज हितों पर देश हित कुर्बान करना भा गया
.
मतलबी हैं हम, न कहना मतलबी हर शख्स है
जब जिसे अवसर मिला वह बिन डकारे खा गया
.
सियासत से सिया-सत की व्यर्थ क्यों उम्मीद है?
हर बशर खुदगर्ज़ है, जो वोट लेने आ गया
.
ऋण उठाकर घी पियें या कर्ज़ की हम मय पियें*
अदा करना ही नहीं है, माल्या सिखला गया
.
जानवर मारें, कुचल दें आदमी तो क्या हुआ?
गवाहों को मिटाकर बचना 'सलिल जी' भा गया
***
* ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत- चर्वाक पन्थ
    कर्ज़ की पीते थे मय - ग़ालिब


सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

लखनऊ यात्रा


samiksha



पुस्तक चर्चा


भू दर्शन संग काव्यामृत वर्षण 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- भू दर्शन, पर्यटन काव्य, आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१६, आकार २२ से. मी.  x १४.५ से.मी., सजिल्द जैकेट सहित, आवरण दोरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य १२०/-, भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/२ ज्योतिष राय मार्ग, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३।]
*
                            परम पिता परमेश्वर से साक्षात का सरल पथ प्रकृति पटल से ऑंखें चार करना है. यह रहस्य   श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हिंदीविद कविगुरु आचार्य श्यामलाल उपाध्याय से अधिक और कौन जान सकता है? शताधिक काव्यसंकलनों की अपने रचना-प्रसाद से शोभा-वृद्धि कर चुके कवि-ऋषि ८६ वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह से हिंदी मैया के रचना-कोष की श्री वृद्धि हेतु अहर्निश समर्पित रहते हैं। काव्याचार्य, विद्यावारिधि, साहित्य भास्कर, साहित्य महोपाध्याय, विद्यासागर, भारतीय भाषा रत्न, भारत गौरव, साहित्य शिरोमणि, राष्ट्रभाषा गौरव आदि विरुदों से अलंकृत किये जा चुके कविगुरु वैश्विक चेतना के पर्याय हैं।  वे कंकर-कंकर में शंकर का दर्शन करते हुए माँ भारती की सेवा में निमग्न शारदसुतों के उत्साहवर्धन का उपक्रम निरन्तर करते रहते हैं।  प्राचीन ऋषि परंपरा का अनुसरण करते हुए अवसर मिलते ही पर्यटन और देखे हुए को काव्यांकित कर अदेखे हाथों तक पहुँचाने का सारस्वत अनुष्ठान है भू-दर्शन।    

                            कृति के आरम्भ में राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व शीर्षकान्तर्गत प्रकाशित दोहे विश्व वाणी हिंदी के प्रति कविगुरु के समर्पण के साक्षी हैं।  
घर-बाहर हिंदी चले, राह-हाट-बाजार। 
गाँव नगर हिंदी चले, सात समुन्दर पार।। 

                            आचार्य उपाध्याय जी सनातन रस परंपरा के वाहक हैं।  भामह, वामन, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि संस्कृत आचार्यों से रस ग्राहिता, खुसरो, कबीर, रैदास आदि से वैराग्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ, नगेन्द्र आदि से भाषिक निष्ठा तथा पंत, निराला, महादेवी आदि से छंद साधना ग्रहण कर अपने अपनी राह आप बनाने का महत और सफल प्रयास किया है।  छंद राज दोहा कवि गुरु का सर्वाधिक प्रिय छंद है। गुरुता, सरलता, सहजता, गंभीरता तथा सारपरकता के पंच तत्व कविगुरु और उनके प्रिय छंद दोनों का वैशिष्ट्य है।  'नियति निसर्ग' शीर्षक कृति में कवि गुरु ने राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक समरसता, वैश्विक समन्वय, मानवीय सामंजस्य, आध्यात्मिक उत्कर्ष, नागरिक कर्तव्य भाव, सात्विक मूल्यों के पुनरुत्थान, सनातन परंपरा के महत्व स्थापन आदि पर सहजग्राह्य अर्थवाही दोहे कहे हैं. इन दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सारगर्भितता, अभिव्यंजना, तथा आनुभूतिक सघनता सहज दृष्टव्य है।

                            विवेच्य कृति भूदर्शन कवि गुरु के धीर-गंभीर व्यक्तित्व में सामान्यतः छिपे रहनेवाले प्रकृति प्रेमी से साक्षात् कराती है।  उनके व्यक्तित्व में अन्तर्निहित यायावर से भुज भेंटने का अवसर सुलभ कराती यह कृति व्यक्तित्व के अध्ययन की दृष्टि से महती आवश्यकता की पूर्ति करती है तथा शोध छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय ऋषि परंपरा खुद को प्रकृति पुत्र कटी रही है, कविगुरु ने बिना घोषित किये ही इस कृति के माध्यम से प्रकृति माता को शब्द-प्रणाम निवेदित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।                    

                             आत्म निवेदन (पदांत बंधन मुक्त महातैथिक जातीय छंद) तथा चरण धूलि चन्दन बन जाए (यौगिक जातीय कर्णा छंद) शीर्षक रचनाओं के माध्यम से कवि ने ईश वंदना की सनातन परंपरा को नव कलेवर प्रदान किया है। कवि के प्रति (पदांत बंधन मुक्त महा तैथिक जातीय छंद) में कवि गुरु  प्रकृति और कवि के मध्य अदृश्य अंतर्बंध को शब्द दे सके हैं। पर्यावरण शीर्षक द्विपदीयों में कवि ने पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रति चिंता व्यक्त की है। मूलत: शिक्षक होने के कारण कवि की चिंता चारित्रिक पतन और मानसिक प्रदूषण के प्रति भी है। आत्म विश्वास, नियतिचक्र, कर्तव्य बोध, कुंठा छोडो, श्रम की महिमा, दीप जलाएं दीप जैसी रचनाओं में कवि पाठकों को आत्म चेतना जाग्रति का सन्देश देता है। श्रमिक, कृषक, अध्यापक, वैज्ञानिक, रचनाकार, नेता और अभिनेता अर्थात समाज के हर वर्ग को उसके दायित्व का भान करने के पश्चात् कवि प्रभु से सर्व कल्याण की कामना करता है-
चिर आल्हाद के आँसू
धो डालें, समस्त क्लेश-विषाद
रचाएँ, एक नया इतिहास
अजेय युवक्रांति का
कुलाधिपति राष्ट्र का।

                             सप्त सोपान में भी 'भारती उतारे स्वर्ग भूमा के मन में' कहकर कवि विश्व कल्याण की कामना करता है। व्यक्ति से समष्टि की छंटन परक यात्रा में राष्ट्र से विश्व की ओर ऊर्ध्वगमन स्वाभाविक है किन्तु यह दिशा वही ग्रहण कर सकता जो आत्म से परमात्म के साक्षात् की ओर पग बढ़ा रहा हो। कविगुरु का विरुद ऐसे ही व्यक्तित्व से जुड़कर सार्थक होता है।

                                  विवेच्य कृति में अतीत से भविष्य तक की थाती को समेटने की दिशा उन रचनाओं में भी हैं जो मिथक मान लिए गए महामानवों पर केन्द्रित हैं।  ऐसी रचनाओं में कहीं देर न हो जाए, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भवानी प्रसाद मिश्र, महाव्रत कर्ण पर), तथा बुद्ध पर केन्द्रित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। तुम चिर पौरुष प्रहरी पूरण रचना में कवी भैरव, नृसिंह परशुराम के साथ प्रहलाद, भीष्म, पार्थ, कृष्ण, प्रताप. गाँधी पटेल आदि को जोड़ कर यह अभिव्यक्त करते हैं कि महामानवों की तहती वर्तमान भी ग्रहण कर रहा है। आवश्यकता है कि अतीत का गुणानुवाद करते समय वर्तमान के महत्व को भी रेखांकित किया जाए अन्यथा भावी पीढ़ी महानता को पहचान कर उसका अनुकरण नहीं कर सकेगी।

                                  इस कृति को सामान्य काव्य संग्रहों से अलग एक विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं वे रचनाएँ जो मानवीय महत्त्व के स्थानों पर केन्द्रित हैं. ऐसी रचनाओं में वाराणसी के विश्वनाथ, कलकत्ता की काली, तीर्थस्थल, दक्षिण पूर्व, मानसर, तिब्बत, पूर्वी द्वीप, पश्चिमी गोलार्ध, अरावली क्षेत्र, उत्तराखंड, नर्मदा क्षेत्र, रामेश्वरम, गंगासागर, गढ़वाल, त्रिवेणी, नैनीताल, वैटिकन, मिस्र, ईराक आदि से सम्बंधित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अंतर्निहित सनातनता, सामयिकता, पर्यावरणीय चेतना, वैश्विकता तथा मानवीय एकात्मकता की दृष्टि अनन्य है।

                                  संत वाणी, प्रीति घनेरी, भज गोविन्दम, ध्यान की महिमा, धर्म का आधार, गीता का मूल स्वरूप तथा आचार परक दोहे कवि गुरु की सनातन चिंतन संपन्न लेखन सामर्थ्य की परिचायक रचनाएँ हैं। 'जीव, ब्रम्ह एवं ईश्वर' आदि काल से मानवीय चिंतन का पर्याय रहा है। कवि गुरु ने इस गूढ़ विषय को जिस सरलता-सहजता तथा सटीकता से दोहों में अभिव्यक्त किया है, वह श्लाघनीय है-
घट अंतर जल जीव है, बाहर ब्रम्ह प्रसार  
घट फूटा अंतर मिटा, यही विषय का सार 

यह अविनाशी जीव है, बस ईश्वर का अंश 
निर्मल अमल सहज सदा, रूप राशि अवतंश 

देही स्थित जीव में, उपदृष्टा तू जान  
अनुमन्ता सम्मति रही, धारक भर्ता मान 

शुद्ध सच्चिदानन्दघन, अक्षर ब्रम्ह विशेष 
कारण वह अवतार का जन्मन रहित अशेष 
[अक्षर ब्रम्ह में श्लेष अलंकार दृष्टव्य]

यंत्र रूप आरुढ़ मैं, परमेश्वर का रूप 
अन्तर्यामी रह सदा, स्थित प्राणी स्वरूप 

                                         भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवेश में नीतिपरक दोहों का विशेष स्थान है। कविगुरु ने 'आचारपरक दोहे' शीर्षक से जन सामान्य और नव पीढ़ी के मार्गदर्शन का महत प्रयास इन दोहों में किया है। श्रीकृष्ण ने गीता में 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर चरों वर्णों के मध्य एकता और समता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कविगुरु ने स्वयं 'ब्राम्हण' होते हुए भी उसे अनुमोदित किया है-
व्यक्ति महान न जन्म से, कर्म बनाता श्रेष्ठ 
राम कृष्ण या बुद्ध हों, गुण कर्मों से ज्येष्ठ 

लगता कोई विज्ञ है, आप स्वयं गुणवान 
गुणी बताते विज्ञ है, कहीं अन्य मतिमान 

लोक जीतकर पा लिया, कहीं नाम यश चाह 
आत्म विजेता बन गया, सबके ऊपर शाह 
         
                                        विभिन्न देशों में हिंदी विषयक दोहे हिंदी की वैश्विकता प्रमाणित करते हैं. इन दोहों में मारीशस, प्रशांत, त्रिनिदाद, सूरीनाम, रोम, खाड़ी देश, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, लाहौर, नेपाल, चीन, रूस, लंका, ब्रिटेन, अमेरिका आदि में हिंदी के प्रसार का उल्लेख है। आधुनिक हिंदी के मूल में रही शौरसेनी, प्राकृत, आदि के प्रति आभार व्यक्त करना भी कविगुरु नहीं भूले।  

                                        इस कृति का वैशिष्ट्य आत्म पांडित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण कर, जन सामान्य से संबंधित प्रसंगों और विषयों को लेकर गूढ़ चिन्तन का सार तत्व सहज, सरल, सामान्य किन्तु सरस शब्दावली में अभिवयक्त किया जाना है। अतीत को स्मरण कर प्रणाम करती यह कृति वर्तमान की विसंगतियों के निराकरण के प्रति सचेत करती है किन्तु भयावहता का अतिरेकी चित्रण करने की मनोवृत्ति से मुक्त है। साथ ही भावी के प्रति सजग रहकर व्यक्तिगत, परिवारगत, समाजगत, राष्ट्र्गत और विश्वगत मानवीय आचरण के दिशा-दर्शन का महत कार्य पूर्ण करती है। इस कृति को जनसामान्य अपने दैनंदिन जीवन में आचार संहिता की तरह परायण कर प्रेरणा ग्रहण कर अपने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। ऐसी चिन्तन पूर्ण कृति, उसकी जीवंत-प्राणवंत भाषा तथा वैचारिक नवनीत सुलभ करने के लिए कविगुरु साधुवाद के पात्र हैं। आयु के इस पड़ाव पर महत की साधना में कुछ अल्प महत्व के तत्वों पर ध्यान न जाना स्वाभाविक है। महान वैज्ञानिक सर आइजेक न्यूटन बड़ी बिल्ली के लिए बनाये गए छेद से उसके बच्चे की निकल जाने का सत्य प्रथमत: ग्रहण नहीं कर सके थे। इसी तरह कविगुरु की दृष्टि से कुछ मुद्रण त्रुटियाँ छूटना अथवा दो भिन्न दोनों के पंक्तियाँ जुड़ जाने से कहीं-कहीं तुकांत भिन्नता हो जाना स्वाभाविक है। इसे चंद्रमा के दाग की तरह अनदेखा किया जाकर कृति में सर्वत्र व्याप्त विचार अमृत का पान कर जीवन को धन्य करना ही उपयुक्त है। कविगुरु के इस कृपा-प्रसाद को पाकर पाठक धन्यता अन्नुभाव करे यह स्वाभाविक है।
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-समन्वयम, विश्व वाणी हिंदी संस्थान,  ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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नवगीत: 
रंगों का नव पर्व बसंती

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

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दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):                                                            

दोहा का रंग होली के संग :

संजीव वर्मा 'सलिल'
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होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार. 
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार. 
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
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यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
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दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
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बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
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रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
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मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
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'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मानता रहे, होली का त्यौहार..
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