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मंगलवार, 15 नवंबर 2016

भाषा गीत

हिंदी वंदना 
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की 
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की 
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम 
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की 
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू 
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली 
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 

ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली, 
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, 
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 

शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी 
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी, 
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका, 
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़ 
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़ 
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर 
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़ 
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
**** 
गीत में ५ पद ६६ (२२+२३+२१) भाषाएँ / बोलियाँ हैं। १,२ तथा ३ अंतरे लघुरूप में पढ़े जा सकते हैं। पहले दो अंतरे पढ़ें तो भी संविधान में मान्य भाषाओँ की वन्दना हो जाएगी।

गीत

समस्यापूर्ति 
'बादलों की कूचियों पर'
*
बादलों की कूचियों पर 
गीत रचो पंछियों पर 
भूमि बीज जड़ पींड़ पर
छंद कहो डालियों पर
झूम रही टहनियों पर
नाच रही पत्तियों पर
मंत्रमुग्ध कलियों पर
क्यारियों-मालियों पर
गीत रचो बिजलियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
श्वेत-श्याम रंग मिले
लाल-नील-पीत खिले
रंग मिलते हैं गले
भोर हो या साँझ ढले
बरखा भिगा दे भले
सर्दियों में हाड़ गले
गर्मियों में गात जले
ख्वाब नयनों में पले
लट्टुओं की फिरकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
अब न नफरत हो कहीं
हो अदावत भी नहीं
श्रम का शोषण भी नहीं
लोभ-लालच भी नहीं
रहे बरकत ही यहीं
हो सखावत ही यहीं
प्रेम-पोषण ही यहीं
हो लगावट ही यहीं
ज़िंदगी की झलकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*

सोमवार, 14 नवंबर 2016

baal geet

बाल रचना
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
***

रविवार, 13 नवंबर 2016

geet

एक रचना
*
पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

navgeet

देव उठानी एकादशी पर नव गीत सोये बहुत देव अब जागो * सोये बहुत देव! अब जागो... तम ने निगला है उजास को। गम ने मारा है हुलास को। बाधाएँ छलती प्रयास को। कोशिश को जी भर अनुरागो... रवि-शशि को छलती है संध्या। अधरा धरा न हो हरि! वन्ध्या। बहुत झुका अब झुके न विन्ध्या। ऋषि अगस्त दक्षिण मत भागो... पलता दीपक तले अँधेरा । हो निशांत फ़िर नया सवेरा। टूटे स्वप्न न मिटे बसेरा। कथनी-करनी संग-संग पागो... **************

doha , muktak

दोहा दुनिया 
दिन-दिन बेहतर हो सृजन, धीरज है अनिवार्य
सधते-सधते ही सधें, जीवन में सब कार्य *
तन मिथिला मिथलेश मन, बिंब सिया सुकुमार राम कथ्य संजीव हो, भाव करे भाव-पार *
काव्य-कामिनी-कांति को, कवि निरखे हो मुग्ध
श्यामल दिलवाले भ्रमर, हुए द्वेष से दग्ध 
*
कमी न हो यदि शब्द की, तो भी खर्चें सोच 
दृढ़ता का मतलब नहीं, गँवा दीजिए लोच 
*
शब्द-शब्द में निहित हो, शुभ-सार्थक संदेश


मुक्तक 
*
जय शारदा मनाऊँ आपको?
छंद-प्रसाद चढ़ाऊँ आपको 
करूँ कल्पना, मिले प्रेरणा 
नयनारती सुनाऊँ आपको।।

*
बाल मुक्तक
जगा रही आ सुबह चिरैया
फुदक-फुदक कर ता-ता-थैया
नहला, करा कलेवा भेजे 
सदा समय पर शाला मैया
*
मुक्तक 
मुक्त हुआ मन बंधन  तजकर मुक्त हुआ 
युक्त हुआ मन छंदों से संयुक्त हुआ 
दूर-दूर तन रहे, न देखा नयनों ने 
धन्य हुआ मैं हिंदी हेतु प्रयुक्त हुआ 
*
सपने में भी फेसबुक दिखती सारी रात 
चलो, कार्य शाला चलो नाहक करो न बात 
इसको मुक्तक सीखना, उसे पूछना छंद 
मात्रा गिनते जागकर ज्यों निशिचर की जात
*
षट्पदी 
*
नत मस्तक है है हर कवि लेता बिम्ब उधार 
बिना कल्पना कब हुआ कवियों का उद्धार?
कवियों का उद्धार, कल्पना पार लगाती 
जिससे हो नाराज उसे ठेंगा दिखलाती
रहे 'सलिल' पर सदय, तभी कविता दे दस्तक
धन्य कल्पना होता है हर कवि नतमस्तक
*

navgeet

देव उठनी एकादशी (गन्ना ग्यारस) पर नवगीत:
* देव सोये तो सोये रहें हम मानव जागेंगे राक्षस अति संचय करते हैं दानव अमन-शांति हरते हैं असुर क्रूर कोलाहल करते दनुज निबल की जां हरते हैं अनाचार का शीश पकड़ हम मानव काटेंगे भोग-विलास देवता करते बिन श्रम सुर हर सुविधा वरते ईश्वर पाप गैर सर धरते प्रभु अधिकार और का हरते हर अधिकार विशेष चीन हम मानव वारेंगे मेहनत अपना दीन-धर्म है सच्चा साथी सिर्फ कर्म है धर्म-मर्म संकोच-शर्म है पीड़ित के आँसू पोछेंगे मिलकर तारेंगे

शनिवार, 5 नवंबर 2016

samiksha

पुस्तक सलिला –
‘मुक्ति और अन्य कहानियाँ’ सामाजिक जुड़ाव की विरासत 

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मुक्ति और अन्य कहानियाँ, राजेंद्र वर्मा, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण २०१४, ISBN ९७८-८१-७७७९-४६२-५, आकार २१ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १५२, मूल्य १००/-, साहित्य भंडार प्रकाशन, ५० चाहचन्द, जीरो रोड इलाहबाद २११००३, दूरभाष ०५३२२४००७८७, २४०२०७२, कहानीकार सम्पर्क ३/२९ विकास नगर, लखनऊ २२६०२२, चलभाष ८००९६६००९६rajendrapverma]

*
               शहरे-लखनऊ की तासीर में नजाकत-नफासत और बगावत इन्द्रधनुष के रंगों की तरह घुली हुई है. अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा और यशपाल जैसे कालजयी रचनाकारों की धरती पर चलनेवाली कलमें सामाजिकता की विरासत को हर विधा में रोपती रहें यह स्वाभाविक है. अपनी तरुणाई में नागर जी के सीधे संपर्क में आये भाई राजेंद्र वर्मा को नागर जी की अमर रचना ‘नाच्यों बहुत गुपाल’ सुनकर उसकी पांडुलिपि का लेखन करने का सौभाग्य मिला. ‘कम लिखो, अच्छा लिखो, जो लिखो सच्चा लिखो’ के पक्षधर राजेन्द्र, प्रेमचंद और उक्त त्रिमूर्ति के कथा साहित्य को पढ़कर ‘कहानी’ के आशिक बने लेकिन गत ३४ साल में १७ कहानियाँ लिखने का पराक्रम कर संतुष्ट इसलिए हैं कि व्यंग्य लेख, नवगीत, कवितायेँ, हाइकु आदि अनेक विधाओं में जी भरकर लिखा, छपे और चर्चित हुए. अविरल मंथन के संपादक के रूप में इन विधाओं के सारगर्भित विशेषांक निकालने की प्रक्रिया ने उन्हें बहुविधाविद बना दिया. सीखना-सिखाना उनका शौक ही नहीं व्यसन भी है. समाज के शोषित-दलित वर्ग के दर्द को समझने-कहने को लेखन का ध्येय और धर्म माननेवाली जिजीविषा के लिए कलम शस्त्र और शास्त्र दोनों होती है.
               ‘मुक्ति’ कहानी में गाँव-गाँव, गली-गली, घर-घर और व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँच चुके जहरीली राजनीति के दंश से नष्ट होते संबंधों का जीवंत शब्दांकन है. ‘कल्पवास’ में बैंक में नौकरी की आस में जिस-तिसकी बेदाम गुलामी करते हंसा की व्यथा-कथा मर्मस्पर्शी है. ‘नौकरी चीज ही ऐसी होती है, शुरु में स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने पर कष्ट होता है लेकिन कष्ट के बदले जब हर महीने बँधी-बँधाई रकम मिलने लगती है तो स्वाभिमान को तिल-तिल मारना तथा दूसरों का शोषण करना जीवन का अभीष्ट बना जाता है. कैसी विडंबना है- लक्ष्मी ही हमसे मनुष्यता छिनती है, फिर भी हम लक्ष्मी की कृपा पाने को क्या-क्या नहीं करते?’ इस सत्य को हर नौकरीपेश व्यक्ति जब-तब जीता ही है.’ 
               अभिभावक अपने अधूरे सपने अपनी संतान द्वारा पूरे किये जाते देखना चाहें यह तो ठीक है किन्तु इन सपनों का बोझ उठाने में अशक्त हुए कंधे टूट ही न जाएँ इसका ध्यान रखा जाना आवश्यक है, अन्यथा त्रासदी होते देर नहीं लगती. ‘सॉरी पापा’ कहानी इसी पर केन्द्रित है. कांस्टेबल रंजीत अपने बेटे अमित को कस्बे से शहर, हिंदी माध्यम से अंग्रेजी माध्यम में भेजता है जहाँ अमित कभी उपहास, कभी गलत संगत, कभी बीमारी का शिकार होता है. माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने पर अंतत: आत्महत्या कर लेता है. 
               कहानी ‘क्षमा’ शहरीकरण के दबाव में दम तोड़ते पारिवारिक रिश्तों पर केन्द्रित है. नायक सुरेन्द्र और उसका छोटा भाई भिन्न शिक्षा, रूचि और नौकरी के चलते अपने और परिवारों के बीच समन्वय नहीं बैठा पाते, फलत: उनके पति-बच्चे और माता-पिता भी बिखरकर रह जाते हैं. ’पूत’ कहानी का शनिचरा जन्म के पूर्व पिता और जन्म के समय माँ को खो चुकता है. गाँव की स्त्रियाँ उसे पाल-पोस बड़ा करती है. अपने आश्रयदाता के पुत्र सजीवन को कुसंगति से बचाने के प्रयास में शनिचरा मारा जाता है. ग्रामीण समाज के पारंपरिक मूल्यों पर आधारित यह कहानी आँखें गीली करने की सामर्थ्य रखती है. 
               ‘दंश’ एक युवा विधवा करीमन को शराफत का दिखावा करते हबीब मियाँ द्वारा छले जाने और अपने बेटे के लिए लौटकर जीवन संघर्ष करने की कहानी है. विडम्बना यह कि वह अपने बच्चे के सवालों का जवाब भी नहीं दे पाती. ‘काँटा’ कहानी में अपने मामा के आश्रय में पलती अनाथ नासमझ रनिया मामा के भाई और अन्यों की हवस का शिकार हो जाती है. विवाह किये जाने पर ३ माह के गर्भ का पता लगते ही ससुराल से निकाल दी जाती है. प्रसव पश्चात् बच्चे के न रहने पर पुन: पति के पास लौटती है. ‘बेबसी’ साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित कहानी है. साम्प्रदायिकता और राजनीति के अंतर्संबंध को कहानीकार ने बेलाग तरीके से उद्घाटित किया है. ‘रौशनीवाला’ दो बाल मित्रों की कहानी है. होशियार कन्हैया दूसरा औसत. कमजोर अजय की मदद करता है. समय का फेर कन्हैया जिस बरात में रौशनी उठाता है वह संपन्न व्यापारी हो चुके अजय की है. मित्र से मिले या न मिले की उहापोह में फंसा कन्हैया बारातियों द्वारा धकिया कर निकल दिया जाता है. सवेरे अपनी पत्नी को मायके भेजकर लौटते समय कन्हैया की साइकिल से एक कार टकरा जाती है. ड्राइवर से गुत्थमगुत्था कन्हैया को पहचान अजय उसे अपनी पत्नी से मिलवाता है. सच्ची मित्रता अमीरी-गरीबी से परे होती है का संदेश देती है यह कहानी. 
               विधुर पिता के सेवानिवृत्त होने पर उसके जमाधन और पेंशन पर नजर गड़ाए पुत्रों-पुत्रवधुओं को समेटे है कहानी ‘नवारम्भ’. संपन्न बेटे-बहू धन लेकर वापिस करने की नियत नहीं रखते. अपनी उपेक्षा से खिन्न वृद्ध पिता मकान पर ऋण लेकर वृद्धाश्रम चले जाते हैं और अपने मित्र के साथ मिलकर अपनी साहित्यिक रूचि के अनुकूल पत्रिका प्रकशन और पुस्तक लेखन में व्यस्त हो जाते हैं. मकान पर कर्ज़ का पता चलने पर बीटा-बहु उभें ले जाने आते हैं पर पिता अपने कार्य में निमग्न मुस्कुराते हैं. यह कहानी स्वार्थी संतानों पर तीखा व्यंग्य है. सूरज उगता है शहरी चमक-दमक में निहित भ्रष्टाचार और ग्रामीण जीवन की सरलता के परिप्रेक्ष्य में संदेश देती है कि गाँव के शिक्षित नवयुवक शासकीय योजनाओं का लाभ लेकर ग्रामोन्नयन करें. ‘मोहनदास’ अपना समस्त धन विद्यालय निर्माण में लगा देते हैं. उनके अनुसार जिसे खुद पर विश्वास नहीं होता वही देवी-देवताओं का आश्रय गहता है. कर्मवाद का संदेश देती है यह कहानी. ‘श्रद्धांजलि’ कहानी संबंधों के पीछे छिपी धन लोलुपता की प्रवृत्ति पर प्रहार करती है. 
               संस्मरणात्मक व्यंग्यकथा ‘राम नगरिया’ में राजेन्द्र जी का व्यंग्यकार यत्र-तत्र मीठी चुटकियाँ लेता है. ‘कल्पवास के अलग-अलग कारण हैं. पापी लोग पाप धोने के लिए कल्पवास करते हैं तो कामी लोग अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए. गंगा मैया हर डुबकी लगनेवाले का काम करती हैं.पापियों के पाप धो देती हैं और उनका लोक-परलोक सुधारकर स्वर्ग में रिजर्वेशन करा देती हैं. बच्चे न होनेवाली महिलाओं के बच्चे होना शुरू हो जाते हैं. नौकरी न मिलनेवाले बेटे का पिता जब कल्पवास करता है तो सरकार तुरंत ही एक नौकरी की व्यवस्था कर देती है, रुके हुए विवाह फटाफट तय हो जाते हैं, धेज्लोभु श्वसुर बाहें जलाने के बावजूद जेल जाने से बच जाते हैं...’ 
               राजेन्द्र जी का व्यंग्यकार ‘सीनियर सिटिजन कवि’ में और उभर कर सामने आता है.वे भ्रष्टाचार पर प्रहार कर साहित्यिक जगत में हो रहे कदाचार पर चुटकियाँ लेते है- ‘इंटरनेट के ज़माने में कविता हर किसी की लुगाई है. गद्य-कविता ने जब से अँगड़ाई ली है, प्रत्येक हिंदी साहित्य का प्रत्येक स्नातक उसका आशिक हो गया. परास्नातक तो विशेषज्ञ है. पी.एच-डी.वाला कवि-अलिच्क दोनों है. स्नातक की बेरोजगारी जब पहली वर्ष्गांठ मानती है तो किसी-न-किसी कविता का जन्म अवश्य होता है.’ 
               ‘मोनालिसा की मुस्कान’ में राजेंद्र जी ने संपादक-काल के मजेदार अनुभवों को इस्तेमाल किया है. जगह-जगह उनका प्रखर व्यंग्यकार मुखर हो उठता है. ‘...जल्दी ही सीख मिली कि हिंदी का बड़ा साहित्यकार बनने के लिए अंग्रेजी के कम से कम दो अखबार पढ़ना जरूरी है...’, ‘मुझे एक बात बहुत परेशान कर रही थी कि इतना बड़ा साहित्यकार जो बाल-शोषण और नारी-शोषण के विरुद्ध प्रगतिशील साहित्य लिख रहा है वह भला बाल-नौकर क्यों रखेगा? मैं उनके बाल-नौकर रखने पर मन-ही-मन नाराजगी जता ही रहा था कि शीघ्र ही मेरी धारणा टूटी. उनहोंने स्वयं ही बताया कि यह लड़का उनका भतीजा है. एक एक्सीडेंट में अनाथ हो गया है...’, ‘गद्य कविता मुझे बोर करती है और खास तौर पर वह जो अमिधा में लिखी गयी हो. कारण वह सीधे-सीधे समझ में आ जाती है और कवि की कलई खोल देती है, पाठकको तत्काल निराश कर देती है, हाँ, उसमें बिम्बों की जटिलता, प्रतीकों की असाध्यता अथवा अर्थ की दुरूहता हो तो सर खपाने में ‘टाइम-पास’ हो जाता है. अर्थ खोलने के लिए कविता को आलोचक की दरकार होती है. अब चाहे अर्थ खुलना हो या अनर्थ, क्या हर कविता को आलोचक मिल सकता है? अगर मिल ही जाए, तो क्या पाठक कविता को समझने के लिए तब तक इंतजार करे जब तक कि आलोचक महोदय की मेहरबानी न हो जाए.’ ऐसे सवाल उठाना और पाठक को सोचने-समझने के लिए प्रेरित करना राजेंद्र जी की कहानी-कला का वैशिष्ट्य है. इससे उनकी कहानी पाठक के मस्तिष्क में पढ़ने के बाद भी लंबे समय तक उपस्थित रहती है. 
               संग्रह की अंतिम कहानी’ लक्ष्मी से अनबन’ में उनकी सोच विचित्र किन्तु सत्य न होकर सत्य किन्तु शोचनीय है. ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे... जहाँ लक्ष्मी की पूजा होगी वहाँ भ्रष्टाचार अपने आप पूज जायेगा, आप पूजें या न पूजें.’ 
‘नए नए प्रयोगों के कारण आज कहानी का जो शिल्प विकसित हुआ है, वह विविधवर्णी है. प्रत्येक वर्ण का अपना आकर्षण है. वह चाहे नैरेटिव (वर्णनात्मक)हो, डायरी, पत्र या संवाद शैली में हो– उसमें अलग प्रकार की कला की प्रतिष्ठा हुई है.” राजेंद्र जी यह कहते ही नहीं हैं अपितु अपनी हर कहानी में शैल्पिक नवता को अपनाते भी हैं. 
               कहानीकार की वैचारिक प्रतिबद्धता कहानियों में व्यक्त होना स्वाभाविक है.धर्मिक-पाखंड पर प्रहार करते हुए वे ठीक ही कहते हैं- “इस पूजा से क्या होंगा? यह तो सारी दुनिया करती है. तो क्या लक्ष्मी सारी दुनिया को धनवान बना दें?” अपंगों के प्रति उपहास और तिरस्कार की सामाजिक प्रवृत्ति पर ‘मुक्ति’ कहानी में सार्थक और सटीक तंज किया गया है. राजेंद्र जी का कहानी लेखन न तो सतही है, न वे भावनाओं को उभाड़ते हैं. वे पत्रों के चरित्र चित्रण और घटनाओं के क्रम को श्रंखलाबद्ध कर पाठक की सोच वहाँ ले जा पाते हैं, जहाँ चाहते हैं. इस प्रक्रिया के कारन पाठक को कहानी अन्य द्वारा थोपी हुई नहीं, स्वयं के अंतर्मन से निसृत प्रतीत होती है. राजेंद्र जी कहानी नहीं कहते, वे समाज में व्याप्त विसगतियों के नासूर की शाब्दिक शल्यक्रिया के लिए कहानी को औजार बनाते हैं. कथ्य को आरोपित न कर, कथानक के अन्दर से उभरने देना, सहज बोधगम्य भाषा शैली, शब्दों का सम्यक चयन, यत्र-तत्र तत्सम-तद्भव शब्दोब, मुहावरोंयुक्त अभिव्यक्ति, लोकोक्तियों, जन-मान्यताओं का प्रयोग, सिमित किन्तु सार्थक संवाद उनकी कहानी कला का वैशिष्ट्य है. सारत:, विवेच्य संग्रह की कहानियाँ पाठक को अगले संग्रह को प्रतीक्षा हेतु प्रेरित करने के साथ अगली सत्रह कहानियों के लिए चौंतीस वर्ष प्रतीक्षा न कराने का दायित्व भी कहानीकार पर डाल देती है. 
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com
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शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

गीत

नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:                      
गीत  
संजीव 'सलिल'
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..

अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..

था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..

बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..

राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..

नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..

'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..

'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..

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गुरुवार, 3 नवंबर 2016

समीक्षा

पुस्तक सलिला –
‘मेरी प्रिय कथाएँ’ पारिवारिक विघटन की व्यथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मेरी प्रिय कथाएँ, स्वाति तिवारी, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण २०१४, ISBN९७८-८३-८२००९-४९-८, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १३२, मूल्य २४९/-, ज्योतिपर्व प्रकाशन, ९९ ज्ञान खंड ३, इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद २०१०१२, दूरभाष९८११७२११४७, कहानीकार सम्पर्क ई एन १ / ९ चार इमली भोपाल, चलभाष ९४२४०११३३४ stswatitiwari@gmail.com ]
*
स्वाति तिवारी लिखित २० सामयिक कहानियों का संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएँ’ की कहानियाँ प्रथम दृष्टया ‘स्त्री विमर्शात्मक’ प्रतीत होने पर भी वस्तुत: पारिवारिक विघटन की व्यथा कथाएँ हैं. परिवार का केंद्र सामान्यत: ‘स्त्री’ और परिधि ‘पुरुष’ होते हैं जिन्हें ‘गृह स्वामिनी’ और गृह स्वामी’ अथवा ‘लाज और ‘मर्यादा कहा जाता है. कहानी किसी केन्द्रीय घटना या विचार पर आधृत होती है इसलिए बहुधा नारी पात्र और उनके साथ हुई घटनाओं का वर्णन इन्हें स्त्रीप्रधान बनाता है. स्वाति बढ़ाई की पात्र इसलिए हैं कि ये कहानियाँ ‘स्त्री’ को केंद्र में रखकर उसकी समस्याओं का विचारण करते हुए भी कहीं एकांगी, अश्लील या वीभत्स नहीं हैं, पीड़ा की गहनता शब्दित करने के लिए उन्हें पुरुष को नाहक कटघरे में खड़ा करने की जरूरत नहीं होती. वे सहज भाव से जहाँ-जितना उपयुक्त है उतना ही उल्लेख करती हैं. इन कहानियों का वैशिष्ट्य संश्लिष्ट कथासूत्रता है.
अत्याधुनिकता के व्याल-जाल से पाठकों को सचेष्ट करती ये कहानियाँ परिवार की इकाई को परोक्षत: अपरिहार्य मानती-कहती ही सामाजिककता और वैयक्तिकता को एक-दूसरे का पर्याय पति हैं. यह सनातन सत्य है की समग्रत: न तो पुरुष आततायी है, न स्त्री कुलटा है. दोनों में व्यक्ति विशेष अथवा प्रसंग विशेष में व्यक्ति कदाचरण का निमित्त या दोषी होता है. घटनाओं का सामान्यीकरण बहुधा विवेचना को एकांगी बना देता है. स्वाति इससे बच सकी हैं. वे स्त्री की पैरोकारी करते हुए पुरुष को लांछित नहीं करतीं.
प्रथम कहानी ‘स्त्री मुक्ति का यूटोपिया’ की नायिका के माध्यम से तथाकथित स्त्री-मुक्ति अवधारणा की दिशाहीनता को प्रश्नित करती कहानीकार ‘स्त्री मुक्ति को दैहिक संबंधों की आज़ादी मानने की कुधारणा’ पर प्रश्न चिन्ह लगाती है.
‘रिश्तों के कई रंग’ में ‘लिव इन’ में पनपती अवसरवादिता और दमित होता प्रेम, ‘मृगतृष्णा’ में संबंध टूटने के बाद का मन-मंथन, ‘आजकल’ में अविवाहित दाहिक सम्बन्ध और उससे उत्पन्न सन्तति को सामाजिक स्वीकृति, ‘बंद मुट्ठी’ में आत्मसम्मान के प्रति सचेष्ट माँ और अनुत्तरदायी पुत्र, ‘एक फलसफा जिंदगी’ में सुभद्रा के बहाने पैसे के लिए विवाह को माध्यम बनाने की दुष्प्रवृत्ति, ‘बूँद गुलाब जल की’ में पारिवारिक शोषण की शिकार विमला पाठकों के लिए कई प्रश्न छोड़ जाती हैं. विधवा विमला में बलात गर्भवती कर बेटा ले लेनेवाले परिवार के प्रति विरोधभाव का न होना और सुभद्रा और शीरीन में अति व्यक्तिवाद नारी जीवन की दो अतिरेकी किन्तु यथार्थ प्रवृत्तियाँ हैं.
‘अस्तित्व के लिए’ संग्रह की मार्मिक कथा है जिसमें पुत्रमोह की कुप्रथा को कटघरे में लाया गया है. मृत जन्मी बेटी की तुलना अभिमन्यु से किया जाना अप्रासंगिक प्रतीत होता है ‘गुलाबी ओढ़नी’ की बुआ का सती बनने से बचने के लिए ससुराल छोड़ना, विधवा सुंदर नन्द को समाज से बहाने के लिए भाभी का कठोर होना और फिर अपनी पुत्री का कन्यादान करना परिवार की महत्ता दर्शाती सार्थक कहानी है.
‘सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है- हम एक खबर की तरह हो गए हैं’, एक ताज़ा खबर कहानी का यह संवाद कैंसरग्रस्त पत्नी से मुक्तिचाहते स्वार्थी पति के माध्यम से समाज को सचेत करती है. ‘अचार’ कहानी दो पिरियों के बीच भावनात्मक जुड़ाव का सरस आख्यान है. ‘आजकल मैं बिलकुल अम्मा जैसी होती जा रही हूँ. उम्र का एक दौर ऐसा भी आता है जब हम ‘हम’ नहीं रहते, अपने माता-पिता की तरह लगने लगते हैं, वैसा ही सोचने लगते हैं’. यह अनुभव हर पाठक का है जिसे स्वाति जी का कहानीकार बयां करता है.
‘ऋतुचक्र’ कहानी पुत्र के प्रति माँ के अंध मोह पर केन्द्रित है. ‘उत्तराधिकारी’ का नाटकीय घटनाक्रम ठाकुर की मौत के बाद, नौकर की पत्नी से बलात-अवैध संबंध कर उत्पन्न पुत्र को विधवा ठकुरानी द्वारा अपनाने पर समाप्त होता है किन्तु कई अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है. ‘बैंगनी फूलोंवाला पेड़’ प्रेम की सनातनता पर केन्द्रित है. ‘सदियों से एक ही लड़का है, एक ही लड़की है, एक ही पेड़ है. दोनों वहीं मिलते हैं, बस नाम बदल जाते हैं और फूलों के रंग भी. कहानी वही होती है. किस्से वही होते हैं.’ साधारण प्रतीत होता यह संवाद कहानी में गुंथकर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है. यही स्वाति की कलम का जादू है.
ना ‘मुट्ठी में बंद चाकलेट’ पीटीआई के प्रति समर्पित किन्तु प्रेमी की स्मृतियों से जुडी नायिका के मानसिक अंतर्द्वंद को विश्लेषित करती है. ‘मलय और शेखर मेरे जीवन के दो किनारे बनकर रह गए और मैं दोनों के बीच नदी की तरह बहती रही जो किसी भी किनारे को छोड़े तो उसे स्वयं सिमटना होगा. अपने अस्तित्व को मिटाकर, क्या नदी किसी एक किनारे में सिमट कर नदी रह पाई है.’ भाषिक और वैचारिक संयम की तनिक सी चूक इस कहानी का सौन्दर्य नाश कर सकती है किन्तु कहानीकार ऐसे खतरे लेने और सफल होने में कुशल है. ‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ में नारी के के प्रेम को निजी स्वार्थवश नारी ही असफल बनाती है. ‘स्वयं से किया गया वादा’ में बहु के आने पर बेटे के जीवन में अपने स्थान को लेकर संशयग्रस्त माँ की मन:स्थिति का वर्णन है. ‘चेंज यानी बदलाव’ की नायिका पति द्वारा विवाहेतर संबंध बनने पर उसे छोड़ खुद पैरों पर खड़ा हो दूसरा विवाह कर सब सुख पति है जबकि पति का जीवन बिखर कर रह जाता है. ‘भाग्यवती’ कैशौर्य के प्रेमी को माँ के प्रति कर्तव्य की याद दिलानेवाली नायिका की बोधकथा है. ‘नौटंकीवाली’ की नायिका किशोरावस्था के आकर्षण में भटककर जिंदगीभर की पीड़ा भोगती है किन्तु अंत तक अपने स्वजनों की चिंता करती है. कहानी के अंत का संवाद ‘सुनो, गाँव जाओ तो किसी से मत कहना’ अमर कथाकार सुदर्शन के बाबा भारती की याद दिलाता है जब वे दस्यु द्वारा छलपूर्वक घोडा हथियाने पर किसी से न कहने का आग्रह करते हैं.
स्वाति संवेदनशील कहानीकार है. उनकी कहानियों को पढ़ने-समझने के लिए पाठक का सजग और संवेदशील होना आवश्यक है. वे शब्दों का अपव्यय नहीं करती. जितना और जिस तरह कहना जरूरी है उतना और उसी तरह कह पाती न. उनके पात्र न तो परंपरा के आगे सर झुकाते हैं, न लक्ष्यहीन विद्रोह करते हैं. वे सामान्य बुद्धिमान मनुष्य की तरह आचरण करते हुए जीवन का सामना करते हैं. ये कहानियों पाठक के साथ नवोदित कहानिकारें के सम्मुख भी एक प्रादर्श की तरह उपस्थित होती हैं. स्वाति सूत्रबद्ध लेखन में नहीं उन्मुक्त शब्दांकन में विश्वास रखती है. उनका समग्रतापरक चिंतन कहानियों को सहज ग्राह्य बनाता है. पाठक उनके अगले कहानी संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे ही.


संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com

बुधवार, 2 नवंबर 2016

doha

दोहा दुनिया
खुद से खुद मुँह मोड़कर, क्यों बैठी हैं आप? 
नयन नयन से मिलाएँ, हँसी सके तब व्याप
*

doha

दोहा दुनिया
खुद से खुद मुँह मोड़कर, क्यों बैठी हैं आप? 
नयन नयन से मिलाएँ, हँसी सके तब व्याप
*

doha

दोहा दुनिया
खुद से खुद मुँह मोड़कर, क्यों बैठी हैं आप? 
नयन नयन से मिलाएँ, हँसी सके तब व्याप
*

गीत

कार्यशाला-
गीत-प्रतिगीत
राकेश खण्डेलवाल-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गह​​न निशा में तम की चाहे जितनी घनी घटाएं उमड़े
पथ को आलोकित करने को प्राण दीप मेरा जलता है
पावस के अंधियारों ने कब अपनी हार कहो तो मानी
हर युग ने दुहराई ये ही घिसी पिटी सी एक कहानी
क्षणिक विजय के उन्मादों ने भ्रमित कर दिया है मानस को
पलक झुकाकर तनिक उठाने पर दिखती फिर से वीरानी
लेकिन अब ज्योतिर्मय नूतन परिवर्तन की अगन जगाने
निष्ठा मे विश्वास लिए यह प्राण दीप मेरा जलता है
खो्टे सिक्के सा लौटा है जितनी बार गया दुत्कारा
ओढ़े हुए दुशाला मोटी बेशर्मी की ,यह अँधियारा
इसीलिए अब छोड़ बौद्धता अपनानी चाणक्य नीतियां
उपक्रम कर समूल ही अबके जाए तम का शिविर उखाड़ा
छुपी पंथ से दूर, शरण कुछ देती हुई कंदराएँ जो
उनमें ज्योतिकलश छलकाने प्राण दीप मे​रा जलता है
दीप पर्व इस बार नया इक ​संदेसा लेकर है आया
सीखा नहीं तनिक भी तुमने तम को जितना पाठ पढ़ाया
अब इस विषधर की फ़ुंकारों का मर्दन अनिवार्य हो गया
दीपक ने अंगड़ाई लेकर उजियारे का बिगुल बजाया
फ़ैली हुई हथेली अपनी में सूरज की किरणें भर कर
तिमिरांचल की आहुति देने प्राण दीप मेरा जलता है
३१ अक्टूबर २०१६
गीतसम्राट अग्रजवत राकेश खंडेलवाल को सादर समर्पित
​​
प्रति गीत
*
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
श्वास न रास आस की सकती थाम, तुम्हारे बिना निमिष भर
*
पावस के अँधियारे में बन विद्युत्छ्टा राह दिखलातीं
बौछारों में साथ भीगकर तन-मन एकाकार बनातीं
पलक झुकी उठ नयन मिले, दिल पर बिजली तत्काल गिर गयी
झुलस न हुलसी नव आशाएँ, प्यासों की हर प्यास जिलातीं
मेरा आत्म अवश मिलता है, विरति-सुरति में सद्गति बनकर,
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
खरा हो गया खोटा सिक्का, पारस परस पुलकता पाया
रोम-रोम ने सिहर-सिहर कर, सपनों का संतूर बजाया
अपनों के नपनों को बिसरा, दोहा-पंक्ति बन गए मैं-तुम
मुखड़ा मुखड़ा हुआ ह्रदय ही हुआ अंतरा, गीत रचाया
मेरा काय-कुसुम खिलता है, कोकिल-कूक तुम्हारी सुनकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
दीप-पर्व हर रात जगमगा, रंग-पर्व हर दिन झूमा सा
तम बेदम प्रेयसि-छाया बन, पग-वंदन कर है भूमा सा
नीलकंठ बन गरल-अमिय कर, अर्ध नारि-नर द्वैत भुलाकर
एक हुए ज्यों दूर क्षितिज पर नभ ने
मेरा मन मुकुलित होता है, तेरे मणिमय मन से मिलकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
टीप- भूमा = धरती, विशाल, ऐश्वर्य, प्राणी।
२.११.२०१६ जबलपुर
***

doha

दोहा सलिला 
*
आशा जिसके साथ हो, होता वही अशोक 
स्वर्ग-सदृश सुख भोगता, स्वर्ग बने भू लोक
*
तिमिर अमावस का हरे, शुक्ल करे रह मौन 
दीप वंद्य है जगत में, कहें दूसरा कौन?
*
श्याम अमावस शुक्ल हो, थाम कांति का हाथ 
प्रतिबिंबित ज्योतित सलिल', नमन  झुकाकर माथ 
*
खुशहाली बिटिया शुभा, फैलाती मांगल्य 
बेटा जीवन-दीप का, होता है सांकल्य
*
दीप-वर्तिका इंदिरा, पल में हरती शोक
सकल जगत उजियार कर, स्वर्ग करे भूलोक
*
दीप-लता ने हर लिया, जग का तिमिर तमाम
उषा-दीप्ति पा हँस पड़ी, दीवाली की शाम
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचत्त्वमय सृष्टि
तिमिर हरे बन दीप यदि, ईश करें शुभ-वृष्टि
*
राँगोली मन-कामना, बाती शुभ संकल्प 
चित्रा प्रभु की प्रकृति / कोई नहीं विकल्प
*
दीप जले साहित्य का, दमके ज्योति प्रचंड 
'सलिल' पहुँच जा गहमरी, भुज भर भेंट अखंड
*
जय-जय कर राजीव की, 'सलिल' हुआ है धन्य 
स्नेह-भेंट के पलों की, स्मृति सुखद अनन्य
*
प्रभु दयालु हों तो मिले, श्री वास्तव में बंधु 
सलिल-बिंदु भी बन सके, पल में सुख का सिंधु
*
शक-सेना को जीत ले, जिसका दृढ़ विश्वास 
उसकी आभा अपरिमित, जग में भरे उजास
*
खुद से आँख मिला सके, जो वह है रणवीर 
तम को आँख दिखा सके, हो दीपक सम धीर
*
यथातथ्य बतला सके, संजय जैसी दृष्टि 
कर सच को स्वीकार-बढ़, तब हो सुख की वृष्टि
*
शशि तम हर उजियार दे, भू को रहकर मौन 
कर्मव्रती ऐसा कहाँ, अन्य बताये कौन?
*
अमन-चैन रख सलामत, निभा रहे कुछ फर्ज़  
शेष तोड़ते हैं नियम, लाइलाज यह मर्ज़
*
लागू कर पायें नियम, भेदभाव बिन मित्र! 
तब यह निश्चय मानिए, बदल सकेगा चित्र
*
हो परेड की तरह ही, अनुशासित अभ्यास 
काव्य पंक्तियाँ कलम से, उतर करें तब हास
*
दूरभाष चलभाष हो, या सम्मुख संवाद 
भाष सुभाष सदा करे, स्नेह-जगत आबाद
*
मंजु मूर्ति श्री लक्ष्मी, महिमावान गणेश 
सदा सदय हों नित मिले, कीर्ति -समृद्धि अशेष
*
बहिना का आशीष ही, भाई की तकदीर 
शुभाशीष पा बहिन का, भाई होता वीर
*
दीप-आभा से प्रकाशित, निशा ऊषा सम हुलस
हँस पड़ी यह देख द्वेषित, नभ-घटा रोई झुलस 

श्री वास्तव में इंद्र सम, गहें बहादुर मीत 
गुण पूजन की बढ़ सके, मित्र! जगत में रीत
*

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

samiksha

पुस्तक सलिला –
‘मैं सागर में एक बूँद सही’ प्रकृति से जुड़ी कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मैं सागर में एक बूँद सही, बीनू भटनागर, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-७४०८-९२५-०, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ २१५, मूल्य ४५०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नई दिल्ली , दूरभाष २६६४५८१२, ९८१८९८८६१३, कवयित्री सम्पर्क binubhatnagar@gmail.com ]
*
कविता की जाती है या हो जाती है? यह प्रश्न मुर्गी पहले हुई या अंडा की तरह सनातन है. मनुष्य का वैशिष्ट्य अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अधिक अभिव्यक्तिक्षम होना है. ‘स्व’ के साथ-साथ ‘सर्व’ को अनुभूत करने की कामना वश मनुष्य अज्ञात को ज्ञात करता है तथा ‘स्व’ को ‘पर’ के स्थान पर कल्पित कर तदनुकूल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर उसे ‘साहित्य’ अर्थात सबके हित हेतु किया कर्म मानता है. प्रश्न हो सकता है कि किसी एक की अनुभूति वह भी कल्पित सबके लिए हितकारी कैसे हो सकती है? उत्तर यह कि रचनाकार अपनी रचना का ब्रम्हा होता है. वह विषय के स्थान पर ‘स्व’ को रखकर ‘आत्म’ का परकाया प्रवेश कर ‘पर’ हो जाता है. इस स्थिति में की गयी अनुभूति ‘पर’ की होती है किन्तु तटस्थ विवेक-बुद्धि ‘पर’ के अर्थ/हित’ की दृष्टि से चिंतन न कर ‘सर्व-हित’ की दृष्टि से चिंतन करता है. ‘स्व’ और ‘पर’ का दृष्टिकोण मिलकर ‘सर्वानुकूल’ सत्य की प्रतीति कर पाता है. ‘सर्व’ का ‘सनातन’ अथवा सामयिक होना रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर होता है.
इस पृष्ठभूमि में बीनू भटनागर की काव्यकृति ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ की रचनाओं से गुजरना प्रकृति से दूर हो चुकी महानगरीय चेतना को पृकृति का सानिंध्य पाने का एक अवसर उपलब्ध कराती है. प्रस्तावना में श्री गिरीश पंकज इन कविताओं में ‘परंपरा से लगाव, प्रकृति के प्रति झुकाव और जीवन के प्रति गहरा चाव’ देखते हैं. ‘अवर स्वीटेस्ट सोंग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थौट’ कहें या ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ यह निर्विवाद है कि कविता का जन्म ‘पीड़ा’से होता है. मिथुनरत क्रौन्च युग्म को देख, व्याध द्वारा नर का वध किये जाने पर क्रौंची के विलाप से द्रवित महर्षि वाल्मीकि द्वारा प्रथम काव्य रचना हो, या हिरनी के शावक का वध होने पर मातृ-ह्रदय के चीत्कार से निसृत प्रथम गजल दोनों दृष्टांत पीड़ा और कविता का साथ चोली दामन का सा बताती हैं. बीनू जी की कवितओं में यही ‘पीड़ा’ पिंजरे के रूप में है.
कोई रचनाकार अपने समय को जीता हुआ अतीत की थाती ग्रहण कर भविष्य के लिए रचना करता है. बीनू जी की रचनाएँ समय के द्वन्द को शब्द देते हुए पाठक के साथ संवाद कर लेती हैं. सामयिक विसंगतियों का इंगित करते समय सकारात्मक सोच रख पाना इन कविताओं की उपादेयता बढ़ाता है. सामान्य मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग चिंतन, स्व, पर, सर्व, अनुराग, विराग, द्वेष, उल्लास, रुदन, हास्य आदि उपादानों के साथ गूँथी हुई अभिव्यक्तियों की सहज ग्राह्य प्रस्तुति पाठक को जोड़ने में सक्षम है. तर्क –सम्मतता संपन्न कवितायेँ ‘लय’ को गौड़ मानती है किन्तु रस की शून्यता न होने से रचनाएँ सरस रह सकी हैं. दर्शन और अध्यात्म, पीड़ा, प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन, ऋतु-चक्र, हास्य और व्यंग्य, समाचारों की प्रतिक्रिया में, प्रेम, त्यौहार, हौसला, राजनीति, विविधा १-२ तथा हाइकु शीर्षक चौदह अध्यायों में विभक्त रचनाएँ जीवन से जुड़े प्रश्नों पर चिंतन करने के साथ-साथ बहिर्जगत से तादात्म्य स्थापित कर पाती हैं.
संस्कृत काव्य परंपरा का अनुसरण करती बीनू जी देव-वन्दना सूर्यदेव के स्वागत से कर लेती हैं. ‘अहसास तुम्हारे आने का / पाने से ज्यादा सुंदर है’ से याद आती हैं पंक्तियाँ ‘जो मज़ा इन्तिज़ार में है वो विसाले-यार में नहीं’. एक ही अनुभूति को दो रचनाकारों की कहन कैसे व्यक्त करती है? ‘सारी नकारात्मकता को / कविता की नदी में बहाकर / शांत औत शीतल हो जाती हूँ’ कहती बीनू जी ‘छत की मुंडेर पर चहकती / गौरैया कहीं गुम हो गयी है’ की चिंता करती हैं. ‘धूप बेचारी / तरस रही है / हम तक आने को’, ‘धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे / ये पेड़ देवदार के’, ‘प्रथम आरुषि सूर्य की / कंचनजंघा पर नजर पड़ी तो / चाँदी के पर्वत को / सोने का कर गयी’ जैसी सहज अभिव्यक्ति कर पाठक मन को बाँध लेती हैं.
छंद मुक्त कविता जैसी स्वतंत्रता छांदस कविता में नहीं होती. राजनैतिक दोहे शीर्षकांतर्गत पंक्तियों में दोहे के रचना विधान का पालन नहीं किया गया है. दोहा १३-११ मात्राओं की दो पंक्तियों से बनता है जिनमें पदांत गुरु-लघु होना अनिवार्य है. दी गयी पंक्तियों के सम चरणों में अंत में दो गुरु का पदांत साम्य है. दोहा शीर्षक देना पूरी तरह गलत है.
चार राग के अंतर्गत भैरवी, रिषभ, मालकौंस और यमन का परिचय मुक्तक छंद में दिया गया है. अंतिम अध्याय में जापानी त्रिपदिक छंद (५-७-५ ध्वनि) का समावेश कृति में एक और आयाम जोड़ता है. भीगी चुनरी / घनी रे बदरिया / ओ संवरिया!, सावन आये / रिमझिम फुहार / मेघ गरजे, तपती धरा / जेठ का है महीना / जलते पाँव, पूस की सर्दी / ठंडी बहे बयार / कंपकंपाये, मन-मयूर / मतवाला नाचता / सांझ-सकारे, कडवे बोल / करेला नीम चढ़ा / आदत छोड़ आदि में प्रकृति चित्रण बढ़िया है. तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी-उर्दू शब्दों का बेहिचक प्रयोग भाषा को रवानगी देता है.
बीनू जी की यह प्रथम काव्य कृति है. पाठ्य अशुद्धि से मुक्त न होने पर भी रचनाओं का कथ्य आम पाठक को रुचेगा. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती रचनाएँ बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकार अदि का यथास्थान प्रयोग किये जाने से सरस बन सकी हैं. आगामी संकलनों में बीनू जी का कवि मन अधिक ऊँची उड़ान भरेगा.
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com

geet

एक रचना 
हस्ती 
*
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी 
*
थर्मोडायनामिक्स बताता 
ऊर्जा बना न सकता कोई 
बनी हुई जो ऊर्जा उसको 
कभी सकेगा मिटा न कोई 
ऊर्जा है चैतन्य, बदलती 
रूप निरंतर पराप्रकृति में 
ऊर्जा को कैदी कर जड़ता 
भर सकता है कभी न कोई 
शब्द मनुज गढ़ता अपने हित 
ऊर्जा करे न जल्दी-देरी 
​​
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी 
*
तू-मैं, यह-वह, हम सब आये 
ऊर्जा लेकर परमशक्ति से 
निभा भूमिका रंगमंच पर 
वरते करतल-ध्वनि विभक्ति से 
जा नैपथ्य बदलते भूषा 
दर्शक तब भी करें स्मरण 
या सराहते अन्य पात्र को 
अनुभव करते हम विरक्ति से 
श्वास गली में आस लगाती 
रोज सवेरे आकर फेरी 
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी 
*
साँझ अस्त होता जो सूरज
भोर उषा-संग फिर उगता है 
रख अनुराग-विराग पूर्ण हो 
बुझता नहीं सतत जलता है 
पूर्ण अंश हम, मिलें पूर्ण में 
किंचित कहीं न कुछ बढ़ता है 
अलग पूर्ण से हुए अगर तो 
नहीं पूर्ण से कुछ घटता है 
आना-जाना महज बहाना 
नियति हुई कब किसकी चेरी 
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी 
*