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शुक्रवार, 4 मार्च 2016

lok kathayen

विशेष लेख-
लोककथा उद्भव और विकास 
लोक कथाएं क्या हैं?

लोककथाएँ मनुष्य जीवन के अनुभवों और विचारों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने के आख्यानात्मक संवाद, बोलचाल या कथ्य हैं, जो मौखिक या वाचिक परंपरा के माध्यम से विकसित हुए हैं। जैसे आदिवासियों की लोककथाएँ, प्रलय संबंधी लोक कथाएँ, खेती की लोक कथाएँ, पर्वों संबंधी लोक कथाएँ, व्यक्ति (देव,असुर,राजा, नायक) परक लोक कथाएँ।

कुछ लोककथाएँ चिरकाल तक कही-सुनी जाने के पश्चात पुस्तकाकार रूप में प्रचलित हुई। जैसे सिंहासन बत्तीसी, वेताल पच्चीसी, पंचतंत्र, दस्ताने अलिफ़ लैला, किस्सा हातिम ताई, अली बाबा चालीस चोर, सिंदबाद की कहानी आदि।

लोक कथाओं का उत्स ऋग्वेद में कथोपकथन के माध्यम से कहे गए "संवाद-सूक्त", ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषदों हैं किंतु इन सबसे पूर्व कोई कथा-कहानी थी ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पंचतंत्र की कई कथाएँ लोक-कथाओं के रूप में जनजीवन में प्रचलित हैं। जितनी कथाएँ लोकजीवन में मिलती हैं उतनी पुस्तकों भी नहीं मिलतीं। विष्णु शर्मा ने लोकजीवन में प्रचलित कुछ कथाओं को व्यवस्थित रूप से लिखकर पंचतंत्र रचा होगा। हितोपदेश, बृहदश्लोक संग्रह, बृहत्कथा मंजरी, कथा बेताल पंचविंशति आदि का मूल लोकजीवन है। अत्यधिक प्राचीन जातक कथाओं की संख्या ५५० के लगभग है किंतु लोककथाएँ असंख्य हैं। प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रंथ हैं। पैशाची में लिखित "बहुकहा" के बाद कथा सरित्सागर, बृहत्कथा आदि का विकास हुआ। उसकी कुछ कथाएँ संस्कृत में रूपांतरित हुई। अपभ्रंश के "पउम चरिअ" और "भवियत्त कहा"तथा लिखित रूप में वैदिक संवाद सूक्तों में कथाधारा निरंतर प्रवाहित है किंतु इन सबका योग भी लोकजीवन में प्रचलित कहानियों तक नहीं पहुँच सकता।

हिन्दी में लोककथाएँ-

मनुष्य चिरकाल से अमरत्व,सुख-समृद्धि तथा भोग है। सुख के दो प्रकार लौकिक व पारलौकिक हैं। भारतीय परंपरा लौकिक से पारलौकिक को श्रेष्ठ मानती है। "अंत भला तो सब भला" के अनुसार हमारी लोककथाएँ प्राय: सुखांत होती है। इस प्रभाव चलचित्रों (फिल्मों) तथा धारावाहिकों में भी देखा जा सकता है। इसलिए लोककथाओं के नायक व अन्य पात्र अनेक साहसिक एवं रोमांचकारी कारनामे कर सुख-सफलता पाते हैं। संस्कृत नाटकों का भी अंत संयोग में ही होता है। 

लोककथाओं का उद्देश्य-

लोककथाएँ मूलत: मांगल्य भाव तथा कल्याण कामना से कही-सुनीं गयीं। लोककथा कहनेवाले कथांत में मंगल वचन कहते हैं। जैसे - "जिस प्रकार उनके (कथानायक के) दिन फिरे वैसे ही सब श्रोताओं-भक्तों के दिन फिरें।" दैविक एवं प्राकृतिक प्रकोपों का भय दिखाकर श्रोताओं को धर्म तथा कर्तव्यपालन के पथ पर लाना भी लोककथाओं का लक्ष्य होता है। सारी सृष्टि उस समय एक धरातल पर उतर आती है जब सभी जीव-जंतुओं की भाषा एक हो जाती है। मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, धरती, आकाश, अग्नि, पानी, हवा, सूरज, चाँद, तारे आदि एक-दूसरे से बात करते हैं,एक दूसरे के दु:ख-सुख में सम्मिलित होते हैं।

लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ अंचलों की बात तो जाने दीजिए ये कथाएँ देशों और महाद्वीपों की सीमाएँ भी नहीं मानतीं। ये मानव जीवन के सभी पहलुओं से जुड़ती हैं। इधर लोककथा संग्रहों में बहुत ही थोड़ी कथाएँ एकत्र की जा सकी हैं। अपनी विशेषताओं के कारण श्रुति एवं स्मृति के आधार पर लोक कथाएँ युगों से प्रचलित तथा परिवर्तित होती रही हैं। लोककथाएँ मुख्य रूप से तीन शैलियों में कही जाती हैं। 

लोककथाओं का वर्गीकरण- 

(अ) शैली के आधार पर:

क. गद्य शैली- पूरी कथा सरल एवं आंचलिक बोली में गद्य में हो,  
ख. गद्य-पद्य मय कथाएँ - ये चंपू शैली में होती हैं। इनमें प्राय: संवेदनापूर्ण घटनाएँ पद्य में कही जाती हैं। 
ग. पद्य शैली - इस शैली की लोक कात्यायन पद्य (काव्य) में कही जाती हैं।
घ. संवाद शैली - संवादों में पद्य-गद्य के स्थान पर भाषिक प्रवाह होता है जो श्रोताओं को मोहता है, पर गेयता कम होती है। जैसे- जात रहे डाँड़े डाँड़े, / एक ठे पावा कौड़ी / ऊ कौड़ी गंगा के दिहा / गंगा वेचारी बालू दिहिनि / ऊ बालू मइँ भुँजवा के दिहा
/ भुँजवा बेचारा दाना दिहेसि - इत्यादि

कहानी कहनेवाला व्यक्ति कथा के प्रमुख पात्र (नायक) को पहले वाक्य में ही प्रस्तुत कर देता है; जैसे - "एक रहे राजा" या "एक रहा दानव" आदि। इस विशेषता के कारण लोककथाओं का श्रोता विशेष उलझन में नहीं पड़ता। लोकजीवन में कथा कहने के साथ ही उसे सुनने की शैली भी निर्धारित कर दी गई है। सुननेवालों में से कोई व्यक्ति, जब तक हुंकारी नहीं भरता तब तक कथा कहने वाले को आनंद ही नहीं आता। हुंकारी सुनने से कहनेवाला अँधेरे में भी समझता रहता है कि श्रोता कहानी को ध्यानपूर्वक सुन रहा है।

(आ) कथ्य (अंतर्वस्तु) के आधार पर

च. उपदेशात्मक/शिक्षात्मक लोककथाएँ - ऐसी कथाएँ प्राय: परोक्ष रूप से शिक्षा देती हैं। इनके माध्यम से गृहकलह एवं सामाजिक बुराइयों से बचने की प्रेरणा मिलती हैं। कहीं कर्कशा नारियों के कारण परिवार को कष्ट भोगना पड़ा है, कहीं विमाता या सौतों के षड्यंत्र हैं, कहीं मायावी स्त्रियाँ पर पुरुषों पर डोरे डालती या जादू-टोना करती हैं जिससे कथा के नायक तथा उससे संबंध रखनेवालों को विभिन्न संकटों का शिकार होना पड़ता है कहीं पुत्र को पिता की आज्ञा न मानने पर कष्ट उठान पड़ता है। ऐसी कथाएँ अंत में सुखद संयोग पर समाप्त होती हैं। कथा समाप्त होने तक पात्रों और मुख्य रूप से नायकों को इतनी भयानक घटनाओं में फँसा देखा जाता है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है। कुछ श्रोता कथा कहनेवाले तथा अन्य श्रोताओं की परवाह किये बिना खलनायक को कोसने लगते हैं।

(छ) सामाजिक लोककथाएँ - इनमें गृहकलह (सास-बहू एवं ननद-भावज, भाई-भाई के झगड़े), दुश्चरित्र और लंपट साधु-संतों के दुष्कर्म, अयोग्य राजा के कारण प्रजा को दुख, बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह, विजातीय व प्रेम विवाह, दहेज, ऊँच-नीच, छूआ-छूत, जाति प्रथा, भ्रष्टाचार, पर्यावरण प्रदूषण, भ्रष्टाचार, देश-द्रोह आदि की निंदा व् दुष्परिणाम इन कथाओं में कहे जाते हैं। सामाजिक कहानियों के दो उपवर्ग नायक प्रधान और नायिका प्रधान हैं।  बहुधा अतिशयोक्ति परक कथ्य इनकी विशेषता है। जैसे सच्चरित्र नारी जब तप्त तैल के कड़ाहे में हाथ डालकर अपने सतीत्व की परीक्षा देतो कड़ाहे का तप्त तेल शीतल होता है, पतिव्रता स्त्री सूर्य के रथ को रोक देती है या यमराज से अपने पति के प्राण वापिस ले आती है, उसके भय से भयानक दैत्य दानव, डाइनें भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि पास नहीं फटकते। इसी तरह चरित्रवान् नायक भी असंभव विकट परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं। इनका उद्देश्य समाज को सदाचरण का संदेश देना होता है।

(ज) धार्मिक लोककथाएँ - इनमें जप तप, व्रत-उपवास एवं उनसे प्राप्त उपलब्धियाँ बताईं जाती हैं। सुख-समृद्धि हेतु कही गयी इन लोककथाओं से उपदेश ग्रहण कर संबद्ध पर्वों के अवसरों पर स्त्रियाँ व्रत-पूजन आदि करती हैं। पति, पुत्र, भाइयों की कुशलता तथा संपत्ति प्राप्ति इनका लक्ष्य होता है। ऐसी लोककथाओं के दो उप वर्ग व्यक्तिपरक (देवी-देवता : गणेश, चित्रगुप्त, ब्रम्हा, सरस्वती, विष्णु, लक्ष्मी, शिव, पार्वती, कृष्ण, राधा आदि सतियों : "बहुरा" (बेहुला), जिउतिया या जीवित्पुत्रिका आदि नदियों : नर्मदा, गंगा, यमुना आदि पर्वतों : हिमालय, सतपुड़ा, विंध्याचल, अमरकंटक आदि) तथा तिथि परक (करवा चौथ, अहोईअष्टमी, गनगौर आदि) हैं।

(झ) संबंधपरक प्रेमप्रधान लोककथाएँ - ऐसी लोककथाएँ सबंधों (पति-पत्नि, माँ-बेटे, पिता-पुत्र, भाई-बहिन, देश-नागरिक, मित्र आदि) में प्रेम, शुचिता, स्थायित्व तथा उत्सर्ग रची जाती हैं। इनमें वर्णित प्रेम कर्तव्य एवं निष्ठा पर आधारित होता हैं। कुछ कथाओं में जन्म-जन्मात्तर का प्रेम पल्लवित होत है। सदावृज-सारंगा की कथा पूर्व जन्मों के प्रेम पर ही आधारित हैं। शीत वसंत की कहानी में विमाता का दुर्व्यवहार तथा भाई-भाई का प्रेम चरम सीमा पर है। कई कथाओं में कुलीन एवं पतिपरायण स्त्रियाँ कुपात्र तथा घृणित रोगों से ग्रस्त पतियों को अपनी सेवा, श्रद्धा और भक्ति के बल पर बचा लेती हैं।  कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से अगहन शुक्ल प्रतिपदा तक(पिड़िया) का व्रत कुमारी बालिकाओं द्वारा भाइयों की कुशलता हेतु किया जाता है। गोधन व्रत कथा भी कहते हैं। जीवित्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत पुत्र के जन्म व् दीर्घायु हेतु किया जाता है। किसी समय चील्ह तथा स्यारिन ने यह व्रत किया परंतु भूख की ज्वाला न सह सकने के कारण स्यारिन ने चुपके से खाद्य ग्रहण कर लियातो उसके सभी बच्चे मर गये जबकि व्रत पूर्ण करने वाली चील्ह के बच्चे दीर्घ जीवी हुए। इस पर्व के बाद पुत्र-प्राप्ति हो तो उसका नाम "जीउत" रखा जाता है। पौराणिक कतहनुसार जीमूतवाहन ने नार्गों की रक्षा के लिए अपनी देह का त्याग किया था। जिउतिया-कथा का उद्देश्य परोपकार व आत्मोत्सर्ग है। करवा चौथ कथा उस राजा-रानी की कहानी हैं जो दूसरों के बालकों से घृणा करते थे। इसीलिए उन्हें पुत्र नहीं हुआ। अंत में पश्चाताप तथा सूर्य की उपासना करने पर उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई।

(ट) मनोरंजन संबंधी लोककथाएँ - इनका मूल उद्देश्य श्रोताओं के दिल-बहलाव की सामग्री प्रस्तुत करना होता है। ये कथाएँ प्राय: छोटी हुआ करती हैं। पशु-पक्षियों (कुत्ता, बंदर, बिल्ली, गीदड़, नेवला, शेर, भालू, कौवा, चील, तोता, मैना आदि) पेड़-पौधों (नीम, बरगद, तुलसी, आँवला, सदासुहागन आदि) से संबंध रखनेवाली ये कहानियाँ बालकों का मनोरंजन करती हैं। इनमें वर्णित विषय गंभीर भी होते हैं किंतु प्राथमिकता हल्की-फुल्की बातों को दी जाती हैं। यथा- ढेले और पत्ते में मित्रता हुई। ढेले ने पत्ते से कहा, आँधी आने पर मैं तुम्हारे ऊपर बैठ जाऊँगा तो तुम उड़ोगे नहीं। पत्ते ने कहा पानी आने पर मैं तुम्हारे ऊपर हो जाऊँगा तो तुम गलोगे नहीं। संयोग की बात कि आँधी-पानी का आगमन साथ ही हुआ। पत्ता उड़ गया और ढेला गल गया। विभिन्न हास्य कथाएँ भी इसी प्रकार के अंतर्गत आती हैं।

(ठ) जातीय लोककथाएँ - ऐसी कथाएँ विविध जातियों, वर्णों, समूहों, वंशों (ब्राह्यणों, कायस्थों, वैश्यों, शूद्रों, आदिवासियों, अहीरों, धोबियों, नाइयों, मल्लाहों, चमारों, गोंडों, कोलों, भीलों, ढीमरों, किरातों, दुसाधों, रघुवंश, यादवकुल आदि) की उत्पत्ति, कुलदेवता के चयन, वरदान प्राप्ति से जुडी होती हैं।

(ड) अन्य लोककथाएँ - देशभक्ति, पर्यावरण संरक्षण, जीवन मूल्य, कृषि, नीति, इतिहास आदि विविध विषयों से सम्बंधित लोककथाएँ भी चिर काल से कही-सुनी जाती हैं। लोकगीत (कजरी, बम्बुलिया, फाग, रास, राई आदि) तथा लोक काव्य (आल्हा, बटोही आदि), नौटंकी लोक कथाओं के संरक्षण और प्रसार में सहायक हैं।
*****

navgeet

नवगीत -
याद 
*
याद आ रही 
याद पुरानी
*
फेरे साथ साथ ले हमने 
जीवन पथ पर कदम धरे हैं 
धूप-छाँव, सुख-दुःख पा हमको  
नेह नर्मदा नहा तरे हैं 
मैं-तुम हम हैं 
श्वास-आस सम
लेखनी-लिपि ने 
लिखी कहानी 
याद आ रही 
याद पुरानी
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े 
जीवन पथ पर दौड़े जुत रथ 
मिल लगाम थामे हाथों में 
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ 
अपनेपन की 
पुरवाई सँग  
पछुआ आयी 
हुलस सुहानी 
*
कोयल कूकी, बुरा अमुआ 
चहकी चिड़िया, महका महुआ 
चूल्हा-चौके, बर्तन-भाँडे 
देवर-ननदी, दद्दा-बऊआ 
बीत गयी 
पल में ज़िंदगानी 
कहते-सुनते 
राम कहानी 
***

navgeet

नवगीत 
तू 
*
पल-दिन, 
माह-बरस बीते पर
तू न 
पुरानी लगी कभी 
पहली बार 
लगी चिर-परिचित 
अब लगती  
है निपट नई 
*
खुद को नहीं समझ पाया पर 
लगता तुझे जानता हूँ  
अपने मन की कम सुनता पर 
तेरी अधिक मानता हूँ 
मन को मन से 
प्रीति पली जो 
कम न 
सुहानी हुई कभी 
*
कनखी-चितवन 
मुस्कानों ने 
कब-कब 
क्या संदेश दिए? 
प्राण प्रवासी 
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि  
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र 
जीवन का 
सच, न 
कहानी हुई कभी 
***

गुरुवार, 3 मार्च 2016

बरवै छंद

 
​​
​​
रसानंद दे छंद नर्मदा १८
​​
:-

दोहा, 
​सोरठा, रोला,  ​
आल्हा, सार
​,​
 ताटंक,रूपमाला (मदन), चौपाई
​, 
हरिगीतिका,  
उल्लाला
​, 
 ​
​​
गीतिका
छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए
​ बरवै 
से.

 बरवै (नंदा दोहा) 
बरवै अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके विषम चरण (प्रथम, तृतीय) में बारह तथा सम चरण ( द्वितीय, चतुर्थ) में सात मात्राएँ रखने का विधान है सम चरणों के अन्त में जगण (जभान = लघु गुरु लघु)  या तगण (ताराज = गुरु गुरु लघु) होने से बरवै की मिठास बढ़ जाती है। 

बरवै छंद के प्रणेता अकबर के नवरत्नों में से एक महाकवि अब्दुर्रहीम खानखाना 'रहीम' कहे जाते हैं किंवदन्ती है कि रहीम का कोई सेवक अवकाश लेकर विवाह करने गया वापिस आते समय उसकी विरहाकुल नवोढा पत्नी ने उसके मन में अपनी स्मृति बनाये रखने के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर दीं रहीम का साहित्य-प्रेम सर्व विदित था सो सेवक ने वे पंक्तियाँ रहीम को सुनायींसुनते ही रहीम चकित रह गये पंक्तियों में उन्हें ज्ञात छंदों से अलग गति-यति का समायोजन था सेवक को ईनाम देने के बाद रहीम ने पंक्ति पर गौर किया और मात्रा गणना कर उसे 'बरवै' नाम दिया मूल पंक्ति में प्रथम चरण के अंत 'बिरवा' शब्द का प्रयोग होने से रहीम ने इसे बरवै कहा। रहीम के लगभग २२५ तथा तुलसी के ७० बरवै हैं विषम चरण की बारह (भोजपुरी में बरवै) मात्रायें भी बरवै नाम का कारण कही जाती है सम चरण के अंत में गुरु लघु (ताल या नन्द) होने से इसे 'नंदा' और दोहा की तरह दो पंक्ति और चार चरण होने से नंदा दोहा कहा गया। पहले बरवै की मूल पंक्तियाँ इस प्रकार है: 

प्रेम-प्रीति कौ बिरवा, चले लगाइ
   सींचन की सुधि लीज्यौ, मुरझि न जाइ।।  

रहीम ने इस छंद का प्रयोग कर 'बरवै नायिका भेद' नामक ग्रन्थ की रचना की। गोस्वामी तुलसीदास की कृति 'बरवै रामायण में इसी का प्रयोग किया गया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा जगन्नाथ प्रसाद 'रत्नाकर' आदि ने भी इसे अपनाया। उस समय बरवै रचना साहित्यिक कुशलता और प्रतिष्ठा का पर्याय था दोहा की ही तरह दो पद, चार चरण तथा लय के लिए विख्यात छंद नंदा दोहा या बरवै लोक काव्य में प्रयुक्त होता रहा है। ( सन्दर्भ: डॉ. सुमन शर्मा, मेकलसुता, अंक ११, पृष्ठ २३२) 

रहीम ने फ़ारसी में भी इस छंद का प्रयोग किया-

मीं गुज़रद ईं दिलरा, बेदिलदार
   इक-इक साअत हमचो, साल हज़ार  

इस दिल पर यूँ बीती, हृदयविहीन!
    पल-पल वर्ष सहस्त्र, हुई मैं दीन     

बरवै को 'ध्रुव' तथा' कुरंग' नाम भी मिले ( छ्न्दाचार्य ओमप्रकाश बरसैंया 'ओंकार', छंद-क्षीरधि' पृष्ठ ८८)

मात्रा बाँट-

बरवै के चरणों की मात्रा बाँट ८+४ तथा ४+३ है। छन्दार्णवकार भिखारीदास के अनुसार-

पहिलहि बारह कल करु, बहरहुँ सत्त
यही बिधि छंद ध्रुवा रचु, उनीस मत्त

पहले बारह मात्रा, बाहर सात
इस विधि छंद ध्रुवा रच, उन्निस मात्र 

उदाहरण-
०१. वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार । 
    SI  SI   II   SII    IS  ISI
    सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ॥ 
    III    ISII  S   II   III   ISI

०२. चंपक हरवा अँग मिलि, अधिक सुहाय।
    जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हलाय।।

०३. गरब करहु रघुनन्दन, जनि मन मांह।    
    देखहु अपनी मूरति, सिय की छांह।। -तुलसीदास 

०४. मन-मतंग वश रह जब, बिगड़ न काज
    बिन अंकुश विचलत जब, कुचल समाज।। -ओमप्रकाश बरसैंया 'ओंकार' 

०५. 'सलिल' लगाये चन्दन, भज हरि नाम
    पण्डे ठगें जगत को, नित बेदाम।।

०६. हाय!, हलो!! अभिवादन, तनिक न नेह
    भटक शहर में भूले, अपना गेह।।

०७. पाँव पड़ें अफसर के, भूले बाप 
     रोज पुण्य कह करते, छिपकर पाप।।


शन्नो अग्रवाल -
०८. उथल पुथल करे पेट, न पचे बात
     मंत्री को पचे नोट, बन सौगात

०९. चश्में बदले फिर भी, नहीं सुझात
     मन के चक्षु खोल तो, बनती बात

१०. गरीब के पेट नहीं, मारो लात 
     कम पैसे से बिगड़े, हैं हालात

११. पैसे ठूंसे फिर भी, भरी न जेब
    हर दिन करते मंत्री, नये फरेब

१२. मैं हूँ छोटा सा कण, नश्वर गात
    परम ब्रह्म के आगे, नहीं बिसात

१३. महुए के फूलों का, पा आभास
    कागा उड़-उड़ आये, उनके पास

१४. अकल के खोले पाट, जो थे बंद
     आया तभी समझ में, बरवै छंद

अजित गुप्ता-
१५. बारह मात्रा पहले, फिर लिख सात
     कठिन बहुत है लिख ले, मिलती मात

१६.  कैसे पकडूँ इनको, भागे छात्र
     रचना आवे जिनको, रहते मात्र

****************

muktika

मुक्तिका:
*
जब भी होती है हव्वा बेघर 
आदम रोता है मेरे भीतर
*
आरक्षण की फाँस बनी बंदूक
जले घोंसले, मरे विवश तीतर 
*
बगुले तालाबों को दे धाढ़स  
मार रहे मछली घुसकर भीतर 
*
नहीं चेतना-चिंतन संसद में 
बजट निचोड़े खूं थोपे जब कर 
*
खुद के हाथ तमाचा गालों पर 
मार रहे जनतंत्र अश्रु से तर 
*
पीड़ा-लाश सियासत का औज़ार 
शांति-कपोतों के कतरें नित पर 
*
भक्षक के पहरे पर रक्षक दीन 
तक्षक कुंडली मार बना अफसर 
***

बुधवार, 2 मार्च 2016

muktika

मुक्तिका:
*
तुम कैसे जादू कर देती हो 
भवन-मकां में आ, घर देती हो 
*
रिश्तों के वीराने मरुथल को 
मंदिर होने का वर देती हो 
*
चीख-पुकार-शोर से आहत मन 
मरहम, संतूरी सुर देती हो 
*
खुद भूखी रह, अपनी भी रोटी 
मेरी थाली में धर देती हो 
*
जब खंडित होते देखा विश्वास  
नव आशा निशि-वासर देती हो 
*
नहीं जानतीं गीत, ग़ज़ल, नवगीत 
किन्तु भाव को आखर देती हो 
*
'सलिल'-साधना सफल तुम्हीं से है 
पत्थर पल को निर्झर देती हो 
***

navgeet

नवगीत
तुम सोईं
*












*
तुम सोईं तो
मुँदे नयन-कोटर में सपने
लगे खेलने।
*
अधरों पर छा
मंद-मंद मुस्कान कह रही
भोर हो गयी,
सूरज ऊगा।
पुरवैया के झोंके के संग
श्याम लटा झुक
लगी झूलने।
*
थिर पलकों के
पीछे, चंचल चितवन सोई
गिरी यवनिका,
छिपी नायिका।
भाव, छंद, रस, कथ्य समेटे
मुग्ध शायिका
लगी झूमने।
*
करवट बदली,
काल-पृष्ठ ही बदल गया ज्यों।
मिटा इबारत,
सबक आज का
नव लिखने, ले कोरा पन्ना
तजकर आलस
लगीं पलटने।
*
ले अँगड़ाई
उठ-बैठी हो, जमुहाई को
परे ठेलकर,
दृष्टि मिली, हो
सदा सुहागन, कली मोगरा
मगरमस्त लख
लगी महकने।
*
बिखरे गेसू
कर एकत्र, गोल जूड़ा धर
सर पर, आँचल
लिया ढाँक तो
गृहस्वामिन वन में महुआ सी
खिल-फूली फिर
लगी गमकने।
*
मृगनयनी को
गजगामिनी होते देखा तो
मकां बन गया
पल भर में घर।
सारे सपने, बनकर अपने
किलकारी कर
लगे खेलने।
*****







मंगलवार, 1 मार्च 2016

navgeet

नवगीत 
आ गयीं तुम 
*
आ गयीं तुम 
संग लेकर 
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*
परिंदे शत चहचहाते 
कर रहे स्वागत।
हँस रहा लख वास्तु 
है गृह-लक्ष्मी आगत।
छा गयी हैं 
रख अलंकृत 
दुपहरी-संध्या, चरण शत।
*
हीड़ते चूजे, चुपे पा 
चौंच में दाना।
चाँद-तारे छा गगन पर 
छेड़ते गाना।
भा गयी है 
श्याम रजनी 
कर रही निद्रा वरण शत।
*
बंद नयनों ने बसाये 
शस्त्रों सपने।
सांस में घुल सांस ही 
रचती नए सपने।
गा रहे मन-
प्राण नगमे 
वर रहे युग्मित तरुण शत।
*
आ गयीं तुम 
संग लेकर 
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*

samiksha

पुस्तक सलिला:
'नहीं कुछ भी असम्भव' कथ्य है नवगीत के लिये
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण- नहीं कुछ भी असंभव, नवगीत, निर्मल शुक्ल, वर्ष २०१३, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, कपडे की बंधाई, सिलाई गुरजबंदी, पृष्ठ ८०, मूल्य २९५/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ सेक्टर के, आशियाना कॉलोनी लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ९८३९८२५०१२ / ९८३९१७१६६१]
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'नहीं कुछ भी असंभव' विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार-समीक्षक निर्मल शुक्ल का पंचम नवगीत संग्रह है। इसके पूर्व अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्य काल तथा नील वनों के पार में नवगीत प्रेमी शुक्ल जी  के विषय वैविध्य, साधारण में असाधारणता को देख सकने की दृष्टि, असाधारण में अन्तर्निहित साधारणता को देख-दिखा सकने की सामर्थ्य, अचाक्षुष बिम्बों की अनुभूति कर शब्दित कर सकने की सामर्थ्य, मारक शैली, सटीक शब्द-चयन आदि से परिचित हो चुके हैं। शुक्ल जी सक्षम नवगीतकार ही नहीं समर्थ समीक्षक, सुधी पाठक और सजग प्रकाशक भी हैं भाषा के व्याकरण, पिंगल और नवगीत के उत्स, विकास, परिवर्तन और सामयिकता की जानकारी उन्हें उस अनुभूति और कहन से संपन्न करती है जो किसी अन्य के लिये सहज नहीं। 

शुक्ल जी के अनुसार ''कविता रचनाकार की सर्वप्रथम अपने से की जानेवाली बातचीत का लयबद्ध स्वरूप है जो अवरोधों से अप्रभावित रहते हुए गतिमान रहती है, शाश्वत है ......कविता पर समय काल की गति-स्थिति से आवश्यकतानुसार धारा-परिवर्तन होता रहता है जो उसे समय-काल का वैशिष्ट्य प्रदान करता है। ....समय चक्र में कविता जागृत हुई है, चेतना मुखरित हुई है और मुखरित हुई है एक नव-स्फूर्ति..... शनैः -शनैः दृष्टिगोचर हुआ काव्य का अपराजित उत्कर्ष 'गीत'। .....गीत और उसके अधुनातन संस्करण नवगीत की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए अनिवार्य है काव्य के गेयात्मक तत्व का रेखांकन। इस अनुपमेय आत्म बोध के पवित्र कलेवर, सर्वांगीण उपस्थिति एवं औचित्य पर मोह निद्रावश किसी साहित्यानुरागी द्वारा आडंबरों में निर्लिप्त पूर्वाग्रहों के चढ़ाये खोल को विदीर्ण कर उतार फेंकना ही होगा, तोडना ही होगा उन सड़ी-गली चितकबरी विडंबनाओं का अमांगलिक पिंजरा, प्रदान करना होगा स्वच्छंद गीत को उसका इंद्र धनुषी उन्मुक्त ललित आकाश।'' 'उपसर्ग' का यह सारांश शुक्ल जी के नवगीत लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। वे नवगीत को विडम्बनाओं, पीड़ाओं, शोषण, चीत्कार और प्रकारांतर से साम्यवादी नई कविता का गेय संस्करण बनाने के जड़ विधान तो खंडित करते हुए गीतीय मांगकी भाव से अभिषिक्त कर समूचे जीवन का पर्याय बनते हुए देखना चाहते हैं।  उन नये-पुराने  गीतकारों-नवगीतकारों के लिए यह दृष्टि बोध अनिवार्य है जो नवगीत के विधान, मान्यताओं और स्वरूप को लेकर अपनी रचना के गीत या नवगीत होने को लेकर भ्रमित होते हैं

विवेच्य संग्रह में ३० नवगीत सम्मिलित हैं। प्रत्येक गीत बारम्बार पढ़े जाने योग्य है। पाठक को हर बार एक नए भावलोक की प्रतीति होती है। नवगीत के वरिष्ठतम हस्ताक्षर प्रो। देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' के शब्दों में "कविता (नवगीत) में व्यक्ति एक होकर भी अनेक के साथ जुड़ जाता है- यही है 'एकोsहं बहुस्याम' की भावना। इस भावना को आत्मविस्तार भी कहा जा सकता है। आत्म का यह विस्तार ही साहित्य अथवा काव्य में साधारणीकरण की दिशा में उसे ले जाता है। इस साधारणीकरण के अभाव में रस निष्पत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं होता। शुक्ल जी का रचनाकार इस तथ्य से अपरिचित नहीं है तभी तो वे लिखते हैं 
तुम हमारे गाँव के हो / हम तुम्हारे गाँव के 
एक टुकड़ा धुप का जो / बो गये तुम खेत में 
अचकचाकर / जम गये हैं / कई सूरज रेत में 
अब यहाँ आकाश हैं, तो / बस सुनहरी छाँव के" 

इस काल में पल-पल उन्नति पहाड़ा पढ़ता मानव वास्तव में अपने आदिम स्वरूप की तुलना में बदतर होता जा रहा है। चतुर्दिक घट रही घटनाएं मानव के मानवीय कदाचरण की साक्षी हैं। इस सर्वजनीन अनुभूति की अभिव्यक्ति शुक्ल जी भी करते हैं पर उनका अंदाज़े-बयां औरों से भिन्न है- 
राम कहानी / तुम्हें तुम्हारी     
उसकी तो है हवा-हवाई         
ईसा से पहले के पहले / उसको आदिम नाम मिला था 
इसके हिस्सेवाला सूरज / तब सबसे बेहतर निकला था 
अब तो बस / सादा कागज़ है 
भोर सुहानी / तुम्हें तुम्हारी 
उसकी तो है पीर-पराई 
पैर पसारे तो कपड़ों से / नंगेपन का डर लगता है 
एक सुनहरे दिन का सपना / केवल मुट्ठी भर लगता है 
देह थकी है / ओस चाटते 
रात सयानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है दुआ-दवाई 
एक भरोसा खुली हवा का / टिका नहीं बेजान हो गया 
राजावाली चिकनी सूरत / लुटा हुआ सामान हो गया 
आगे सदी / बहुत बाकी है 
अदा हुनर की / तुम्हें तुम्हारी 
उसकी हाँफ चुकी चतुराई 

निर्मल शुक्ल जी हिंदी, उर्दू, अवधी का मिश्रित प्रयोग करनेवाले लखनऊ से हैं, संस्कृत और अंग्रेजी उनके लिये सहज साध्य हैं शब्दों के सटीक चयन में वे सिद्धहस्त हैं। कम शब्दों में अधिक कहना, मौलिक बिम्ब और प्रतीक प्रयोग करना, वर्तमान की विसंगतियों की अतीत के परिप्रेक्ष्य में तुलना कर भविष्य के लिये वैचारिक पीठिका तैयार करने की सामर्थ्य इन नवगीतों में है। 

निर्मल जी का वैशिष्ट्य लक्षणा और व्यंजना के पथ पर पग रखते हुए भाषिक सौष्ठव और संतुलित भावाभिव्यक्ति है। वे अतिरेक से सर्वथा दूर रहते हैं। रेत के टीले को विदा होती पीढ़ी अथवा बुजुर्ग के रूप में देखते हुए कवि उसके संघर्ष और जीवट को व्यक्त किया है
मेरे घर के आगे ऊँचा / रेत का टीला है         १६-११ 
इक्का-दुक्का / झाड़ी-झंखड़                       ८-८ 
यहाँ-वहाँ दिखते हैं                                    १२ 
मरुथल के मरुथल / होने की                     १०-६ 
कुल गाथा लिखते हैं                                 १२ 
जलता है ऊपर-ऊपर / पर, भीतर गीला है  १४-१२ 
जहाँ हवा का / झोंका कोई                         ८-८ 
सीधा आता है                                          १० 
अक्सर रेत कणों से / सारा                       १२-४ 
घर घिर जाता है                                      १० 
बाबा का कालीन / अभी तक पूरा पीला है  ११-१५ 
पल में तोला / पल में माशा                     ८-८ 
इधर-उधर उड़ता है                                १२ 
बाबा कहते / अब भी                              १२ 
काली आँधी से लड़ता है                         १६ 
टूट चुका है कण-कण में                         १४ 
पर अभी हठीला है                                 १२ 

शुक्ल जी की छंदों पर पूरी पकड़ है वे कहीं छूट लेते हैं तो इस तरह की लय-भंग न हो।  'राम कहानी तुम्हें तुम्हारी' नवगीत सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद में है। 'तब सबसे बेहतर निकला था' में १७ मात्र होने पर भी लय बनी हुई है। उक्त दूसरे गीत में संस्कारी तथा आदित्य जातीय छंदों की एक-एक पंक्ति का प्रयोग दूसरे-तीसरे पद में है जबकि द्वितीय पद में संस्कारी तथा दैशिक छंद का प्रयोग है। ऐसा प्रयोग सिद्धस्तता के उपरान्त ही करना संभव होता है। उल्लेख्य है कि छंद वैविध्य के बावजूद तीनों पदों की गेयता पर विपरीत प्रभाव नहीं है। 

नगरीय जीवन की सीमाओं, त्रासदियों, संघर्षों, आघातों, प्रतिकारों और पीछे छूट चुके गाँव की स्मृतियों के शब्द चित्र कई गीतों की कई पंक्तियों में दृष्टव्य हैं। नगरों के अधिकाँश निवासी आगे-पीछे ग्राम्य अंचलों से ही आये होते हैं अत:, ऐसी अनुभूति व्यक्तिपरक न रहकर समष्टिगत हो जाती है और रचना से पाठक / श्रोता को जोड़ती है। गुलमोहर की छाया में रिश्तों की पहुनाई (ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल), पुरखों से डाँट-डपट की चाह (ऊँचे स्वर के संबोधन), रेत का टीला और झाड़ी-झंखड़ (रेत का टीला), छप्पर और सरकंडे (छोटा है आकाश), सनातन परंपराओं के प्रति श्रद्धा (गंगारथ),  मोहताजी और उगाही (पीढ़ी-पीढ़ी चले उगाही), पोखर-पंछी (रूठ गए मेहमान), सावन-दूब ढोर नौबत-नगाड़े (तुम जानो हम जाने) में गाँव-नगर के संपर्क सेतु सहज देखे जा सकते हैं। 

निर्मल शुक्ल जी भाषिक सौष्ठव, कथ्य की सुगढ़ता, अभिव्यक्ति के अनूठेपन, मौलिक बिम्ब-प्रतीकों तथा चिंतन की नवता के लिये जाने जाते हैं। 'नहीं कुछ भी असंभव' के नवगीत इस मत के साक्ष्य हैं। उनकी मान्यता है कि समयाभाव तथा अभिरुचि ह्रास के इस काल में पाठक समयाभाव से ग्रस्त है इसलिए संकलन में रचनाएँ कम रखी जाएँ ताकि उन्हें पर्याप्त समय देकर पढ़ा, समझा और गुना जा सके। संकलन का मुद्रण, प्रस्तुतीकरण, कागज़, बंधाई, आवरण, पाठ्य शुद्धि आदि स्तरीय है। सामान्य पाठक, विद्वज्जन तथा समीक्षक शुक्ल जी अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे। 

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नवगीत:
तुम रूठीं 
*
तुम रूठीं तो 
मन-मंदिर में 
घंटी नहीं बजी।
रहीं वन्दना,
भजन, प्रार्थना
सारी बिना सुनी।
*
घर-आँगन में
ऊषा-किरणें
बिन नाचे उतरीं।
ना चहके-
फुदके गौरैया
क्या खुद से झगड़ी?
गौ न रँभायी
श्वान न भौंका
बिजली गोल हुई।
कविताओं की
गति-यति-लय भी
अनजाने बिगड़ी।
सुड़की चाय
न लेकिन तन ने
सुस्ती तनिक तजी।
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
दफ्तर में
अफसर से नाहक
ठानी ठनाठनी ।
बहक चके-
यां के वां घूमे
गाड़ी फिसल भिड़ी.
राह काट गई
करिया बिल्ली
तनिक न रुकी मुई।
जेब कटी तो
अर्थव्यवस्था
लडखडाई तगड़ी।
बहुत हुआ
अनबोला अब तो
लो पुकार ओ जी!
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
१-३-२०१६

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एक रचना- 
लौट घर आओ 
*
लौट घर आओ. 
मिल स्वजन से 
सुख सहित पुनि
लौट घर आओ.
*
सुता को लख
बिलासा उमगी बहुत होगी
रतनपुर में
आशिषें माँ से मिली होंगी
शंख-ध्वनि सँग
आरती, घंटी बजी होगी
विद्यानगर में ख़ुशी की
महफ़िल सजी होगी
लौट घर आओ.
*
हवाओं में फिजाओं में
बस उदासी है.
पायलों के नूपुरों की
गूँज खासी है
कंगनों की खनक सुनने
आस प्यासी है
नर्मदा में बैठ आतीं
सुन हुलासी है
लौट घर आओ.
*
गुनगुनाहट धूप में मिल
खूब निखरेगी
चहचहाहट पंछियों की
मंत्र पढ़ देगी
लैम्ब्रेटा महाकौशल
पहुँच सिहरेगी
तुहिन-मन्वन्तर मिले तो
श्वास हँस देगी
लौट घर आओ.
*
२९-२-२०१६