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सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

muktika

मुक्तिका-
*
चुप नाज़नीं के कीजिए नखरे सभी कुबूल
वरना हिलेगी जिंदगी की एक-एक चूल 
*
जो कह रहे, कर लो वही, क्या हर्ज़?, फर्ज़ है
आँखों में ख्वाब वस्ल का पल भर भी सके झूल
*
मुस्कान आतिशी मिले तो मान लेना मन
उनका हरेक लफ्ज़ बना जिंदगी का रूल
*
तकनीक प्यार की करो तकरार चंद पल
इज़हार हार का खिलाये धूल में भी फूल
*
हमने 'खलिश' को दिल में बसा सर लिया झुका
तुमने नजर चुरा 'सलिल' को कर लिया कबूल
*

navgeet

एक रचना-
*
दिल मरुथल सह रहा 
बिहार से प्रहार 
*
जनप्रतिनिधि अपने ही
भत्ता बढ़वाते।
खेत के पसीने को
मंडी भिजवाते।
ज्ञान - श्रम को बेच
आजीविका कमाते-
जो उन पर बढ़ा - बढ़ा
कर नित लगवाते।
थाने में सज्जन ज्यों
लूट के शिकार-
दिल मरुथल चमन हुआ
रूप को निहार
*
लाठी - गोली खाई
थाम कर तिरंगा।
जिसने वह आज फिरे
भूखा - अधनंगा।
मत ले, जन - जन को ठग
नेता मुस्काते-
संसद में शोहदों सा
करते हैं दंगा।
थाने जलवा हँसती
बेहया सियासत-
जनमत को भेज रही
हुकूमत तिहाड़
दिल मरुथल चमन हुआ
रूप को निहार
*

navgeet

एक रचना- 
*
जहाँ ढोल जितना बड़ा 
उतनी ज्यादा पोल।

हर ढपोरशंखी कहे
लीप-पोत सिंदूर।
चना-चिरौंजी चढ़ाओ
आँख मूँद, हो सूर।
गाल बजाओ जोर से
कहो शंख रस घोल
जहाँ ढोल जितना बड़ा
उतनी ज्यादा पोल।
*
झंडे-डंडे थामकर
पंडे हो दिग्भ्रांत।
शोर मचाते, अन्य से
कहें: रहो रे! शांत।
चालू-टालू बदलते
संसद का भूगोल
जहाँ ढोल जितना बड़ा
उतनी ज्यादा पोल।
*
रंग भंग में घोलकर
करें रंग में भंग।
तंग हो रहे तंग कर
देखे दुनिया दंग।
धार रहे हैं गले में
अमिय हलाहल बोल
जहाँ ढोल जितना बड़ा
उतनी ज्यादा पोल।
*

laghukatha

लघुकथा -
विक्षिप्तता की झलक
*
सड़क किनारे घूमता पागल प्राय: उसके घर के समीप आ जाता, सड़क के उस पार से बच्चे को खेलते देखता और चला जाता। उसने एक-दो बार झिड़का भी पर वह न तो कुछ बोला, न आना छोड़ा।

आज वह कार्यालय से लौटा तो सड़क पर भीड़ एकत्र थी, पूछने पर किसी ने बताया वह पागल किसी वाहन के सामने कूद पड़ा और घायल हो गया। उसका मन हुआ कि देख ले अधिक चोट तो नहीं लगी किन्तु रुकने पर किसी संभावित झंझट की कल्पना कर बचे रहने के विचार से वह घर पहुँचा तो देखा पत्नि बच्चे की मलहम पट्टी कर रही थी। उसने बिना देर किये बताया कि सड़क पार करता बच्चा कार की चपेट में आने को था किंतु वह पागल बीच में कूद पड़ा, बच्चे को दूर ढकेल कर खुद घायल हो गया। अवाक रह गया वह, अब उसे अपनी समझदारी की तुलना में बहुत अच्छी लग रही थी पागल में विक्षिप्तता की झलक
***      

laghukatha

लघुकथा -
आलिंगन का संसार 
*
अलगू और जुम्मन को दो राजनैतिक दलों ने टिकिट देकर चुनाव क्या लड़ाया उनका भाईचारा ही समाप्त हो गया। दोनों ने एक-दूसरे के आचार-विचार की ऐसी बखिया उधेड़ी कि तीसरा जीत गया पर दोनों के मन में एक-दूसरे के लिये कटुता का बीज बो गया। फलत:, मिलना-जुलना तो बंद हो ही गया, दुश्मनी भी पल गयी। 

एक दिन रात को अँधेरे में लौटते हुए अलगू का बच्चा दुर्घटनाग्रस्त हो गया, कुछ देर बाद जुम्मन वहाँ से गुजरा, भीड़ देखकर कारण पूछा, पता लगा अलगू बच्चे को लेकर अस्पताल गया है। सोचा चुपचाप सरक जाए पर मन न माना, बरबस वह भी अस्पताल पहुँच गया। कान में आवाज़ सुनायी दी बच्चा रोते-रोते भी पिता से उसे बुलाने की ज़िद कर रहा था। डॉक्टर निश्चेतक (अनिस्थीसिया) देकर बच्चे को शल्य क्रिया कक्ष में ले गया। कुछ देर बाद चढ़ाने के लिये खून की जरूरत हुई, घर के किसी व्यक्ति का खून बच्चे के खून से न मिला। जुम्मन का खून उसी रक्त समूह का था, उसने बिना देर अपना खून दे दिया।  

अलगू और लोगों को लेकर लौटा तो निगाह जुम्मन के जूतों पर पड़ी। उसे सच समझने में देर न लगी, झपट कर कमरे में घुसा और खून देकर उठ रहे जुम्मन को बाँहों में भरकर सिसक पड़ा,  आँखों से भी आँसू बह निकले और फिर आबाद हो गया आलिंगन का संसार।

***

laghukatha

लघुकथा -
वेदना का मूल 
*
तुम्हारे सबसे अधिक अंक आये हैं, तुम पीछे क्यों बैठी हो?, सबसे आगे बैठो। 

जो पढ़ने में कमजोर है या जिसका मन नहीं लगता  पीछे बैठाया जाए तो वह और कम ध्यान देगा, अधिक कमजोर हो जाएगा। कमजोर और अच्छे विद्यार्थी घुल-मिलकर बैठें तो कमजोर विद्यार्थी सुधार कर सकेगा।

तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? 

इसलिए कि हमारा संविधान सबके साथ समता और समानता  व्यवहार करने की प्रेरणा किन्तु हम जाति, धर्म, धन, ताकत, संख्या, शिक्षा, पद, रंग, रूप, बुद्धि किसी  न किसी आधार पर विभाजन करते हैं। जो पीछे कर दिया जाता है उसके मन में द्वेष पैदा होता है। यही है सारी वेदना का मूल

***

laghukatha

लघुकथा-
उलझी हुई डोर 
*
तुम झाड़ू लेकर क्यों आयी हो? विद्यालय गन्दा है तो रहें दो, तुम क्या कर लगी? इतना बड़ा भवन अकेले तो साफ़ नहीं कर सकतीं न? प्राचार्य की जिम्मेदारी है वह साफ करायें। फिर कचरा भी तुम अकेले ने तो नहीं फैलाया है। 

कचरा तो प्राचार्य अकेले ने भी नहीं फैलाया है, न ही शिक्षकों ने। कचरा सबने थोड़ा-थोड़ा फैलाया है, सब थोड़ा-थोड़ा साफ़ करें तो साफ़ हो जायेगा। मैं पूरा भवन साफ़ नहीं कर सकती पर अपनी कक्षा का एक कोना तो साफ़ कर ही सकती हूँ। झाड़ू इसलिए लायी हूँ कि हम अपनी कमरा साफ़ करेंगे तो देखकर दूसरे भी अपना-अपना कमरा साफ़ करेंगे, धीरे-धीरे पूरा विद्यालय साफ़ रहेगा तो हमें अच्छा लगेगा। उलझी हुई डोर न तो एक साथ सुलझती है, न खींचने से, एक सिरा पकड़ कर कोशिश करें तो धीरे-धीरे सुलझ ही जाती है उलझी हुई डोर
***  

laghukatha

लघुकथा -
अविश्वासी मन 
*
कल ही वेतन लाकर रखा था, कहाँ गया? अलमारी में बार-बार खोजा पर कहीं नहीं मिला। कौन ले गया? पति और बच्चों से पूछ चुकी उन्होंने लिया नहीं। जरूर बुढ़िया ने ही लिया होगा। कल पंडित से जाप कराने की बात कर रही थी। निष्कर्ष पर पहुँचते ही रात मुश्किल से कटी, सवेरा होता ही उसने आसमान सर पर उठा लिया घर में चोरों के साथ कैसे रहा जा सकता है?, बड़े चोरी करेंगे तो बच्चों पर क्या असर पड़ेगा? सास कसम खाती रही, पति और बच्चे कहते रहे कि ऐसा नहीं हो सकता पर वह नहीं मानी। जब तक पति के साथ सास को देवर के घर रवाना न कर दिया चैन की साँस न ली। इतना ही नहीं देवरानी को भी नमक-मिर्च लगाकर घटना बता दी जिससे बुढ़िया को वहाँ भी अपमान झेलना पड़े। अफ़सोस यह कि खाना-तलाशी लेने के बाद भी बुढ़िया के पास कुछ न मिला, घर से खाली हाथ ही गयी। 

वाशिंग मशीन में धोने के लिये मैले कपड़े उठाये तो उनके बीच से धम से गिरा एक लिफाफा, देखते ही बच्चे ने लपक कर उठाया और देखा तो उसमें वेतन की पूरी राशि थी उसे काटो तो खून नहीं, पता नहीं कब पति भी आ गये थे और एकटक घूरे जा रहे थे उसके हाथ में लिफ़ाफ़े को। वह कुछ कहती इसके पहले ही बच्चे ने पंडित जी के आने की सूचना दी। पंडित ने उसे प्रसाद दिया तथा माँ को पूछा, घर पर न होने की जानकारी पाकर उसे कुछ रुपये देते हुए बताया कि बहू की कुंडली के अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिये जाप आवश्यक बताने पर माँ ने अपना कड़ा बेचने के लिये दे दिया था और बचे हुए रुपये वह लौटा रहा है।  

वह गड़ी जा रही थी जमीन में, उसे काट रहा था उसका ही अविश्वासी मन
***   




laghukatha

लघुकथा-
सनसनाते हुए बाण 
*
चाहे न चाहे उसके कानों में पड ही जाते हैं बयान ''निकम्मी सरकार को तुरंत त्यागपत्र दे देना चाहिए, महिलाओं को पर्दे में रहना चाहिए, पश्चिमी संस्कृति के कारण हो रही हैं शील भंग की घटनाएँ, पुलिस व्यवस्था अक्षम है, लड़कों से जवानी के जोश में हो जाती हैं गलतियाँ, अपराधी अवयस्क है इसलिए उसे कठोर दंड नहीं दिया जा सकता, अपराधी को मृत्युदंड दिया जाना मानवाधिकार का उल्लंघन है, कानून बदला जाना चाहिए आदि आदि। एक भी बयान यह नहीं कहता कि निरपराध को मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अवसर  इसलिए वह तैयार है आजीवन संगी बनने के लिये। 

यह जानते हुए भी ये नपुंसक शब्दवीर मौका मिलने पर भिन्न आचरण नहीं करते, हर निर्भया विवश है झेलने के लिये अपनी वेदना के प्रति असंवेदनशील लोगों की जुबान से निकलते सनसनाते हुए बाण।  

                                                                               ***

लघुकथा

लघुकथा-
चिंता की अवस्था 
*
दूरदर्शन पर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हो रही थी, बहस विविध राजनैतिक दलों के प्रवक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से सरकार को कटघरे में खड़ा करने में जुटे थे यह भुलाकर कि उनके सत्तासीन रहते समय परिस्थितियाँ नियंत्रण से अधिक बाहर थीं। 

पकड़े गये आतंकवादी को न्यायालय द्वारा मौत की सजा सुनाये जाने पर मानवाधिकार की दुहाई, किसी अंचल में एक हत्या होने पर प्रधानमंत्री से त्यागपत्र की माँग, किसी संस्था में नियुक्त कुलपति का विद्यार्थियों द्वारा अकारण विरोध, आतंवादियों की धमकी के बावजूद सुरक्षा से जुडी जानकारी सबसे पहले बताने के लिये न्यूज़ चैनलों में होड़, देश के एक अंचल के लोगों को दूसरे अंचल में रोजगार मिलने का विरोध और संसद में किसी भी कीमत पर कार्यवाही न होने देने की ज़िद। क्या अब भी चिंता की अवस्था खोजने की आवश्यकता है? 
***

laghukatha

लघुकथा -
ह्रदय का रक्त
*
अब दवा से अधिक दुआ का सहारा है, डॉक्टर से यह सुनते ही उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा। किस-किस देवता की मन्नत नहीं मानी किन्तु होनी तो होकर ही रही। उनकी गोद सूनी कर चला ही गया वह। 

उसके महाप्रस्थान के पहले मन कड़ा कर उन्होंने देहदान के प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। छोटे से बच्चे का ह्रदय, किडनी, नेत्र, लीवर आदि अंग अलग-अलग रोगियों के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिये गये। उन्होंने एक ही शर्त रखी कि जहाँ तक हो सके ये अंग ऐसे रोगियों को लगाये जाएँ जो आर्थिक रूप से विपन्न हों। 

अंग प्रत्यारोपण के बाद उनके सामने जब वे रोगी आये तो उनका मन भर आया, ऐसा लगा की एक बच्चा खोकर उन्होंने पाँच बच्चे पा लिये हैं जिनकी रगों में प्रवाहित हो रहा है उनके अपने बच्चे के ह्रदय का रक्त।   

***  

laghukatha

लघुकथा-
कल का छोकरा 
*
अखबार खोलते ही चौंक पड़ीं वे, वही लग रहा है? ध्यान से देखा हाँ, वही तो है। गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति द्वारा वीरता पुरस्कार प्राप्त बच्चों में उसका चित्र? विवरण पढ़ा तो उनकी आँखें भर आयीं, याद आया पूरा वाकया।

उस दिन सवेरे धूप में बैठी थी कि वह आ गया, कुछ दूर ठिठका खड़ा अपनी बात कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। 'कुछ कहना है? बोलो' उनके पूछने पर उसने जेब से कागज़ निकाल कर उनकी ओर बढ़ा दिया, देखा तो प्रथम श्रेणी अंकों की अंकसूची थी। पूछा 'तुम्हारी है?' उसने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।

'क्या चाहते हो?' पूछा तो बोला 'सहायता'। उसने एक पल सोचा रुपये माँग रहा है, क्या पता झूठा न हो?, अंकसूची इसकी है भी या नहीं?' न जाने कैसे उसे शंका का आभास हो गया, बोला 'मुझे रुपये नहीं चाहिए, पिता की खेती की जमीन सड़क चौड़ी करने में सरकार ने ले ली, शहर आकर रिक्शा चलाते हैं. माँ कई दिनों से बीमार है, नाले के पास झोपड़ी में रहते हैं, सरकारी पाठशाला में पढ़ता है, पिता पढ़ाई का सामान नहीं दिला पा रहे कोई उसे कॉपी, पेन-पेन्सिल आदि दिला दे तो दूसरे बच्चों की किताब से वह पढ़ाई कर लेगा। उसकी आँखों की कातरता ने उन्हें मजबूर कर दिया, अगले दिन बुलाकर लिखाई-पढ़ाई की सामग्री खरीद दी। 

आज समाचार था कि बरसात में नाले में बाढ़ आने पर झोपड़पट्टी के कुछ बच्चे बहने लगे, सभी बड़े काम पर गये थे, चिल्ल्पों मच गयी। एक बच्चे ने हिम्मत कर बाँस आर-पार डाल कर, नाले में उतर कर उसके सहारे बच्चों को बचा लिया। इस प्रयास में २ बार खुद बहते-बहते बचा पर हिम्मत नहीं हांरी। मन प्रसन्न हो गया, पति को अखबार देते हुए वाकया बताकर कहा-  इतना बहादुर तो नहीं लगता था वह कल का छोकरा

*** 

laghukatha

लघुकथा-
सम्मान की दृष्टि 
*
कचरा बीनने वाले बच्चों से दूर रहा करो। वे गंदे होते हैं, पढ़ते-लिखते नहीं, चोरी भी करते हैं। उनसे बीमारी भी लग सकती है- माँ बच्चे को समझा रही थी।

तभी दरवाज़ा खटका, खोलने पर एक कचरा बीननेवाला बच्चा खड़ा था। क्या है? हिकारत से माँ ने पूछा।
माँ जी! आपके दरवाज़े के बाहर पड़े कचरे में से यह सोने की अँगूठी मिली है, आपकी तो नहीं? पूछते हुए बच्चे ने हथेली फैला दी. चमचमाती अँगूठी देखते ही माँ के मुँह से निकला अरे!यह तो मेरी ही है तो ले लीजिए कहकर बच्चा अंगूठी देकर चला गया।
रात पिता घर आये तो बच्चे ने घटना की चर्चा कर बताया की यह बच्चा समीप की सरकारी पाठशाला में पढ़ता है, कक्षा में पहला आता है, उसके पिता की सडक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी है, माँ बर्तन माँजती है। अगले दिन पिता बच्चे के साथ पाठशाला गए, प्रधानाध्यापक को घटना की जानकारी देकर बच्चे को बुलाया, उसकी पढ़ाई का पूरा खर्च खुद उठाने की जिम्मेदारी ली। कल तक उपेक्षा से देखे जा रहे बच्चे को अब मिल रही थी सम्मान की दृष्टि।
***

रविवार, 31 जनवरी 2016

samiksha

कृति चर्चा-
चार दिन फागुन के - नवगीत का बदलता रूप 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'  
[कृति विवरण- चार दिन फागुन के, रामशंकर वर्मा, गीत संग्रह, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १५९, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, नवगीतकार संपर्क टी ३/२१ वाल्मी कॉलोनी, उतरेठिया लखनऊ २२६०२९, ९४१५७५४८९२ rsverma8362@gmail.com. ] 
*
धूप-छाँव की तरह सुख-दुःख, मिलन-विरह जीवन-सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। इस सनातन सत्य से युवा गीतकार रामशंकर वर्मा सुपरिचित हैं। विवेच्य गीत-नवगीत संग्रह छार दिन फागुन के उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस से पंक्ति-पंक्ति में साक्षात करता चलता है। ग्राम्य अनुभूतियाँ, प्राकृतिक दृष्यावलियाँ,  ऋतु परिवर्तन और जीवन के ऊँच-नीच को सम्भावेन स्वीकारते  आदमी इन गीतों में रचा-बसा है। गीत को  कल्पना प्रधान और नवगीत को यथार्थ प्रधान माननेवाले वरिष्ठ नवगीत-ग़ज़लकार मधुकर अष्ठाना के अनुसार ''जब वे (वर्मा जी) गीत लिखते हैं तो भाषा दूसरी तो नवगीत में भाषा उससे पृथक दृष्टिगोचर होती है।'' यहाँ सवाल यह उठता है कि गीत नवगीत का भेद कथ्यगत है, शिल्पगत है या भाषागत है? रामशंकर जी नवगीत की उद्भवकालीन मान्यताओं के बंधन को स्वीकार नहीं करते। वे गीत-नवगीत में द्वैत को नकारकर अद्वैत के पथ पर बढ़ते हैं। उनके किस गीत को गीत कहें, किसे नवगीत या एक गीत के किस भाग को गीत कहें किसे नवगीत यह विमर्श निरर्थक है।

गीति रचनाओं में कल्पना और यथार्थ की नीर-क्षीरवत संगुफित अभेद्य उपस्थिति अधिक होती है, केवल कल्पना या केवल यथार्थ की कम। कोई रचनाकार कथ्य को कहने के लिये किसी एक को अवांछनीय मानकर  रचना करता भी नहीं है। रामशंकर जी की ये गीति रचनाएँ निर्गुण-सगुण, शाश्वतता-नश्वरता को लोकरंग में रंगकर साथ-साथ जीते चलते हैं। कुमार रविन्द्र जी ने ठीक हे आकलन किया है कि इन गीतों में व्यक्तिगत रोमांस और सामाजिक सरोकारों तथा चिंताओं से समान जुड़ाव उपस्थित हैं।

रामशंकर जी कल और आज को एक साथ लेकर अपनी बात कहते हैं-
तरु कदम्ब थे जहाँ / उगे हैं कंकरीट के जंगल
रॉकबैंड की धुन पर / गाते भक्त आरती मंगल
जींस-टॉप ने/ चटक घाघरा चोली / कर दी पैदल 
दूध-दही को छोड़ गूजरी / बेचे कोला मिनरल
शाश्वत प्रेम पड़ा बंदीगृह / नए  उच्छृंख्रल

सामयिक विसंगतियाँ उन्हें  प्रेरित करती हैं-
दड़बे में क्यों गुमसुम बैठे / बाहर आओ
बाहर पुरवाई का लहरा / जिया जुड़ाओ
ठेस लगी तो माफ़ कीजिए / रंग महल को दड़बा कहना
यदि तौहीनी / इसके ढाँचे बुनियादों में
दफन आपके स्वर्णिम सपने / इस पर भी यह तुर्रा देखो
मैं अदना सा / करूँ शान में नुक्ताचीनी

रामशंकर जी का वैशिष्ट्य दृश्यों को तीक्ष्ण भंगिमा सहित शब्दित कर सकना है -
रेनकोटों / छतरियों बरसतियों की
देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से
हाईवे तक / बज उठे / रोमांस के शत शंख
आधुनिकाएँ व्यस्त / प्रेमालाप में

इसी शहरी बरसात का एक अन्य चित्रण देखें-
खिड़कियों से फ़्लैट की / दिखते बलाहक
हों कि जैसे सुरमई रुमाल
उड़ रहा उस पर / धवल जोड़ा बलॉक
यथा रवि वर्मा / उकेरें छवि कमाल
चंद बूँदें / अफसरों के दस्तखत सी
और इतने में खड़ंजे / झुग्गियाँ जाती हैं दूब

अभिनव बिंब, मौलिक प्रतीक और अनूठी कहन की त्रिवेणी बहाते रामशंकर आधुनिक हिंदी तथा देशज हिंदी में उर्दू-अंग्रेजी शब्दों की छौंक-बघार लगाकर पाठक को आनंदित कर देते हैं। अनुप्राणित, मूर्तिमंत, वसुमति, तृषावंत, विपणकशाला, दुर्दंश, केलि, कुसुमाकर, मन्वन्तर, स्पंदन, संसृति, मृदभांड, अहर्निश जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, सगरी, महुअन, रुत, पछुआ, निगोड़ी, गैल, नदिया, मिरदंग, दादुर, घुघुरी देशज-ग्राम्य शब्द, रिश्ते, काश, खुशबू, रफ़्तार, आमद, कसीदे, बेख़ौफ़, बेफ़िक्र, मासूम, सरीखा, नूर, मंज़िल, हुक्म, मशकें आदि उर्दू शब्द तथा फ्रॉक, पिरामिड, सेक्शन, ड्यूटी, फ़ाइल, नोटिंग, फ़्लैट, ट्रेन, रेनी डे, डायरी, ट्यूशन, पिकनिक, एक्सरे, जींस-टॉप आदि अंग्रेजी शब्दों का बेहिचक प्रयोग करते हैं वर्मा जी।  

इस संकलन में शब्द युग्मों क पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जैसे- तीर-कमान, क्षत-विक्षत, लस्त-पस्त, राहु-केतु, धीर-वीर, सुख-दुःख, खुसुर-फुसुर, घाघरा-चोली, भूल-चूक, लेनी-देनी, रस-रंग, फाग-राग, टोंका-टाकी, यत्र-तत्र-सर्वत्र आदि। कुछ मुद्रण त्रुटियाँ समय का नदिया, हंसी-ठिठोली, आंच नहीं मद्विम हो, निर्वान है  हिंदी, दसानन, निसाचर, अमाँ-निशा आदि खटकती हैं। फूटते लड्डू, मिट्टी के माधो, बैठा मार कुल्हाड़ी पैरों, अब पछताये क्या होता है? आदि के प्रयोग से सरसता में वृद्धि हुई है। रात खिले जब रजनीगंधा, खुशबू में चाँदनी नहाई, सदा अनंदु रहैं यहै ट्वाला, कुसमय के शिला प्रहार, तन्वंगी दूर्वा, संदली साँसों, काल मदारी मरकत नर्तन जैसी अभिव्यक्तियाँ रामशंकर जी की भाषिक सामर्थ्य और संवेदनशील अभिव्यक्ति क्षमता की परिचायक हैं। इस प्रथम कृति में ही  कृतिकार परिपक्व रचना सामर्थ्य प्रस्तुत कर सका है  कृतियों  उत्सुकता जगाता है।
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- २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ 
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चन्द माहिया :क़िस्त 28

:1:
सौ बुत में नज़र आया
इक सा लगता है
जब दिल में उतर आया

:2:
जाना है तेरे दर तक
ढूँढ रहा हूँ मैं
इक राह तेरे घर तक

:3:
पंछी ने कब माना
मन्दिर मस्जिद का
होता है अलग दाना

:4:
किस मोड़ पे आज खड़े
क़त्ल हुआ इन्सां
मज़हब मज़ह्ब से लड़े

:5;
इक दो अंगारों से
क्या समझोगे ग़म
दरिया का ,किनारों से

-आनन्द.पाठक-
09413395592

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शनिवार, 30 जनवरी 2016

laghukatha

लघुकथा -
जनसेवा 
*
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैट्रोल-डीजल की कीमतें घटीं। मंत्रिमंडल की बैठक में वर्तमान और परिवर्तित दर से खपत का वर्ष भर में आनेवाले अंतर का आंकड़ा प्रस्तुत किया गया। बड़ी राशि को देखकर चिंतन हुआ कि जनता को इतनी राहत देने से कोई लाभ नहीं है।  पैट्रोल के दाम घटे तो अन्य वस्तुओं के दाम काम करने की माँग कर विपक्षी दल अपनी लोकप्रियता बढ़ा लेंगे। 

अत:, इस राशि का ९०% भाग नये कराधान कर सरकार के खजाने में डालकर विधायकों का वेतन-भत्ता आदि दोगुना कर दिया जाए, जनता तो नाम मात्र की राहत पाकर भी खुश हो जाएगी। विरोधी दल भी विधान सभा में भत्ते बढ़ाने का विरोध नहीं कर सकेगा। 

ऐसा ही किया गया और नेतागण दत्तचित्त होकर कर रहे हैं जनसेवा।
***

laghukatha

लघुकथा -
अँगूठा
*
शत-प्रतिशत साक्षरता के नीति बनकर शासन ने करोड़ों रुपयों के दूरदर्शन, संगणक, लेखा सामग्री, चटाई, पुस्तकें , श्याम पट आदि खरीदे। हर स्थान से अधिकारी  कर्मचारी सामग्री लेने भोपाल पहुँचे जिन्हें आवागमन हेतु यात्रा भत्ते का भुगतान किया गया। नेताओं ने जगह-जगह अध्ययन केन्द्रों का उद्घाटन किया, संवाददताओं ने दूरदर्शन और अख़बारों पर सरकार और अधिकारियों की प्रशंसा के पुल बाँध दिये। कलेक्टर ने सभी विभागों के शासकीय अधिकारियों / कर्मचारियों को अध्ययन केन्द्रों की गतिविधियों का निरीक्षण कर प्रतिवेदन देने के आदेश दिये। 

हर गाँव में एक-एक बेरोजगार शिक्षित ग्रामीण को अध्ययन केंद्र का प्रभारी बनाकर नाममात्र मानदेय देने का प्रलोभन दिया गया। नेताओं ने अपने चमचों को नियुक्ति दिला कर अहसान से लाद दिया खेतिहर तथा अन्य श्रमिकों के रात में आकर अध्ययन करना था। सवेरे जल्दी उठकर खा-पकाकर दिन भर काम कर लौटने पर फिर राँध-खा कर आनेवालों में पढ़ने की दम ही न बाकी रहती दो-चार दिन में शौकिया आनेवाले भी बंद हो गये प्रभारियों को दम दी गयी कि ८०% हाजिरी और परिणाम न होने पर मानदेय न मिलेगा। मानदेय की लालच में गलत प्रवेश और झूठी हाजिरी दिखा कर खाना पूरी की गयी। अब बारी आयी परीक्षा की

कलेक्टर ने शिक्षाधिकारी से आदेश प्रसारित कराया कि कार्यक्रम का लक्ष्य साक्षरता है, विद्वता नहीं। इसे सफल बनाने के लिये अक्षर पहचानने पर अंक दें, शब्द के सही-गलत होने को महत्व न दें। प्रभारियों ने अपने संबंधियों और मित्रों के उनके भाई-बहिनों सहित परीक्षा में बैठाया की परिणाम न बिगड़े। कमल को कमाल, कलाम और कलम लिखने पर भी पूरे अंक देकर अधिक से अधिक परिणाम घोषित किये गये। अख़बारों ने कार्यक्रम की सफलता की खबरों से कालम रंग दिये। भरी-भरकम रिपोर्ट राजधानी गयी, कलेक्टर मुख्य मंत्री स्वर्ण पदक पाकर प्रौढ़ शिक्षा की आगामी योजनाओं हेतु शासकीय व्यय पर विदेश चले गये। प्रभारी अपने मानदेय के लिये लगाते रहे कलेक्टर कार्यालय के चक्कर और श्रमिक अँगूठा 
***

doha salila

दोहा सलिला
*
दो दुमिया दोहे

*
बागड़ खाती खेत को
नदिया निगले घाट,
मुश्किल में हैं शनिश्चर
मारा धोबी-पाट।
दाँव नारी ने भारी
दिखाती अद्भुत लाघव।।
*
आह भरे दरगाह भी
देख डटीं खातून,
परंपरा के नाम पर
अधिकारों का खून।
अब नहीं होने देंगी
नहीं मिट्टी की  माधव।।
*
ममता ने ममता तजी
पा कुर्सी का संग,
गिरगिट भी बेरंग है
देख बदलते रंग।
जला-पुतवा दे थाना
सगे अपराधी नाना।।
*
केर-बेर के संग सा
दिल्ली का माहौल,
नमो-केजरी जमाते
इक दूजे को धौल।
नहीं हम-तुम बदलेंगे
प्रजा को खूब छलेंगे।।
*
टैक्स लगते नित नये
ये मामा शिवराज,
माहुल, शकुनी, कंस के
बन बैठे सरताज।
जान-जीवन दूभर हुआ
आप उड़ाते हैं पुआ।।
*
टेस्ट जीत लो यार तुम
ट्वंटी हम लें जीत,
दोनों की जयकार हो
कैसी सुन्दर रीत?
बजाये जनता ताली
जेब अपनी कर खाली।।
*
मिर्ज़ा या नेहवाल हो
नारी भारी खूब,
जड़ें रखे मजबूत यों
जैसे नन्हीं दूब।
झूलन-झंडा फहरता
ऑस्ट्रेलिया दहलता।।
***



शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

navgeet

एक रचना-
*
दिल मरुथल चमन हुआ
रूप को निहार
*
जनप्रतिनिधि अपने ही
भत्ता बढ़वाते।
खेत के पसीने को
मंडी भिजवाते।
ज्ञान - श्रम को बेच
आजीविका कमाते-
जो उन पर बढ़ा - बढ़ा
कर नित लगवाते।
थाने में सज्जन ज्यों
लूट के शिकार-
दिल मरुथल चमन हुआ
रूप को निहार
*
लाठी - गोली खाई
थाम कर तिरंगा।
जिसने वह आज फिरे
भूखा - अधनंगा।
मत ले, जन - जन को ठग
नेता मुस्काते-
संसद में शोहदों सा
करते हैं दंगा।
थाने जलवा हँसती
बेहया सियासत-
जनमत को भेज रही
हुकूमत तिहाड़
दिल मरुथल चमन हुआ
रूप को निहार
*

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

samiksha

पुस्तक सलिला- 

चलो आज मिलकर नया कल बनायें - कुछ कर गुजरने की कवितायें 
*
[कृति विवरण- चलो आज मिलकर नया कल बनायें, काव्य संग्रह, कुसुम वीर, आकार डिमाई, आवरण- बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १३४, मुल्य २००/-, प्रकाशक ज्ञान गंगा २०५ बी, चावडी बाज़ार दिल्ली ११०००६] 
*
सच्चा साहित्य सर्व कल्याण के सात्विक सनातन भाव से आपूरित होता है. कविता 'स्व' को 'सर्व' से संयुक्त कर कवि को कविर्मनीषी बनाती है. कोमलता और शौर्य का, अतीत और भविष्य का, कल्पना और यथार्थ का, विचार और अनुभूति का समन्वय होने पर कविता उपजती है. कुसुम वीर जी की रचनाएँ मांगल्य परक चिंतन से उपजी हैं. वे लिखने के लिये नहीं लिखतीं अपितु कुछ करने की चाह को अभिव्यक्त करने के लिए कागज़-कलम को माध्यम बनाती हैं. प्रौढ़ शिक्षा अधिकारी, तथा हिंदी प्रशक्षण संस्थान में निदेशक पदों पर अपने कार्यानुभवों को ४ पूर्व प्रकाशित पुस्तकों में पाठकों के साथ बाँट चुकने के पश्चात् इस कृति में कुसुम जी देश और समाज के वर्तमान से भविष्य गढ़ने के अपने सपने शब्दों के माध्यम से साकार कर सकी हैं. 

साठ सारगर्भित, सुचिंतित, लक्ष्यवाही रचनाओं का यह संग्रह भाव, रस, बिम्ब, प्रतीक और शैली से पाठक को बाँधे रखता है. 
हर नदी के पार होता है किनारा / हर अन्धेरी रात के आगे उजाला 
मन की दुर्बलता मिटाकर तुम चलो / एक दीपक प्रज्वलित कर तुम चलो 

बेहाल बच्चे, बदहवासी, कन्या नहीं अभिशाप हूँ, मैं एक बेटी, मत बाँटों इंसान को जैसी रचनाएँ वर्तमान विषमताओं और विडम्बनाओं से उपजी हैं. कवयित्री इन समस्याओं से निराश नहीं है, वह परिवर्तन का आवाहन आत्मबोध, प्रवाह, मंथन करता यह मन मेरा, जीवन ऐसे व्यर्थ नहो, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए जैसी रचनाओं के माध्यम से करती है. 

दिये के नीचे भले ही अँधेरा हो, ऊपर उजाला ही होता है. यह उजास की प्यास ही घोर तिमिर से भी सवेरा उगाती है. धूप धरा से मिलाने आयी, मधुर मिलन, वात्सल्य, पावस, तेरे आने की आहट   से, प्राण ही शब्दित हुए, मन के झरोखे से अदि रचनाएँ जीवन में माधुर्य, आशा और उल्लास के स्वरों की अभिव्यंजना करती हैं. 
कौन कहता है जगत में / प्रीति की भाषा नहीं है 
मौन के अंत: सुरों से / प्राण ही शब्दित हुए हैं 

शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी पंक्तियाँ पाठक के मन-प्राण को स्पंदित कर देती हैं. 

कुसुम जी की रचनाएँ अपने कथ्य की माँग के अनुसार छंद का प्रयोग करने या न करने का विकल्प चुनती हैं. दोनों हो प्रारूपों में उनकी अभिव्यक्ति प्रांजल और स्पष्ट है- 
उषा को साथ ले/ अरुण-रथ पर सवार होकर
कल फिर लौटेगा सूरज / रत की पोटली में 
सपनों को समेटे / पृथ्वी के प्रांगण पर
स्वर्णिम रश्मियों का उपहार बाँटने 
किसी अकिञ्चन की चाह में    

प्रसाद गुण संपन्न सरस-सहज बोधगम्य भाषा कुसुम जी की शक्ति है. वे मन से मन तक पहुँचने को कविता का गुण बना सकी हैं. डॉ. दिनेश श्रीवास्तव तथा इंद्रनाथ चौधुरी लिखित मंतव्यों ने संग्रह की गरिमा-वृद्धि की है. कुसुम जी का यह संग्रह उनकी अन्य रचनाओं को पढ़ने की प्यास जगाता है. 

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-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
९४२५१८३२४४ / salil.sanjiv@gmail.com