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गुरुवार, 28 जनवरी 2016

chaupayee chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा १४
​​


दोहा, आल्हा, सार ताटंक,रूपमाला (मदन), छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए चौपाई से.
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो. रामचरित मानस में मुख्य छंद चौपाई ही है.
​ 
शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है.
रचना विधान-
​                ​
चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपायी नाम मिला है. यह एक 
सम 
मात्रिक 
द्विपदिक
​चतुश्चरणिक
छंद है. इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान १६ - १६ रहती हैं. प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु या दोनों में गुरु) होती हैं. चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएँ होती हैं. चौपायी के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है. चौपायी के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर पंक्ति अपने में स्वतंत्र होता है. चौपायी के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं.  अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए. चौपायी के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं. चरण के अंत में जगण (ISI) एवं तगण (SSI) नहीं होने चाहिए
​ अर्थात अपन्क्ति का अंत गुरु लघु से न हो ​
​ चौपाई के चरणान्त में गुरु गुरु, लघु लघु गुरु, गुरु लघु लघु या लघु लघु लघु लघु ही होता है. 

मात्रा बाँट - चौपाई में चार चौकल हों तो उसे पादाकुलक कहा जाता है. द्विक्ल या चौकल के बाद सम मात्रिक ​कल द्विपद या चौकल रखा जाता है. विषम मात्रिक कल त्रिकल आदि होने पर पुन: विषम मात्रिक कल लेकर उन्हें सममात्रिक कर लिया जाता है. विषम कल के तुरंत बाद सम कल नहीं रखा जाता।  

उदाहरण:
​ ​
१. जय गिरिजापति दीनदयाला |  -प्रथम चरण 
    १ १  १ १  २ १ १  २ १ १ २ २  = १६ मात्राएँ    
 
सदा करत संतत प्रतिपाला ||    -द्वितीय चरण
    १ २ १ १ १  २ १ १ १ १ २ २    = १६
​ 
 मात्राएँ  
    भाल चंद्रमा सोहत नीके |        - तृतीय चरण
    २ १  २ १ २ २ १ १  २ २       = १६ मात्राएँ  
    कानन कुंडल नाक फनीके ||     -चतुर्थ चरण       -
शिव चालीसा 
​                                                              ​ 
​ 
 
​         ​
१ 
​  ​
​ १  ​
२ १ १  २ १  १ २ २   = १६ मात्राएँ
​२. ​
ज१ य१ ह१ नु१ मा२ न१ ज्ञा२ न१ गु१ न१ सा२ ग१ र१ = १६ मात्रा


​ ​
ज१ य१ क१ पी२ स१ ति१ हुं१ लो२ क१ उ१ जा२ ग१ र१ = १६ मात्रा

​ ​
रा२ म१ दू२ त१ अ१ तु१ लि१ त१ ब१ ल१ धा२ मा२ = १६ मात्रा
​ ​
अं२ ज१ नि१ पु२ त्र१ प१ व१ न१ सु१ त१ ना२ मा२ = १६ मात्रा

​ ३. ​
कितने अच्छे लगते हो तुम | 
​         ​
बिना जगाये जगते हो तुम || 


​         
नहीं किसी को ठगते हो तुम | 
​         
सदा प्रेम में पगते हो तुम || 

​         
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम | 
​         
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम || 

​         
आलस कैसे तजते हो तुम?
​         
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?

​         
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम | 
​         
बिल्ली से डर बचते हो तुम || 

​         
क्या माला भी जपते हो तुम?
​         
शीत लगे तो कँपते हो तुम?

​         
सुना न मैंने हँसते हो तुम | 
​         
चूजे भाई! रुचते हो तुम ||
​     (
चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) 
​में बाल गीत)
  • ४ 
    भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
    ​ ​
    मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
    ​      ​
    सुबह-सुबह जब जगते हो तुम|
    ​ ​
    कितने अच्छे लगते हो तुम।।
    ​ 
    ​-
    रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
  • हर युग के इतिहास ने कहा| भारत का ध्वज उच्च ही रहा|
    ​     ​
    सोने की चिड़िया कहलाया| सदा लुटेरों के मन भाया।।
    ​ -
    छोटू भाई चतुर्वेदी
     
  • मुझको जग में लाने वाले |
    दुनिया अजब दिखने वाले |
    ​     ​
    उँगली थाम चलाने वाले |
    ​ ​
    अच्छा बुरा बताने वाले ||
    ​ -
    शेखर चतुर्वेदी
     
  • श्याम वर्ण, माथे पर टोपी|
    ​ ​
    नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी|
    हरित वस्त्र आभूषण पूरा|
    ​ ​
    ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा||
    ​  -
    मृत्युंजय
  • निर्निमेष तुमको निहारती|
    ​ ​
    विरह –निशा तुमको पुकारती|
    मेरी प्रणय –कथा है कोरी|
    ​ ​
    तुम चन्दा, मैं एक चकोरी||
    ​  -
    मयंक अवस्थी
     
  • .मौसम के हाथों दुत्कारे|
    ​ ​
    पतझड़ के कष्टों के मारे|
    सुमन हृदय के जब मुरझाये|
    ​ ​
    तुम वसंत बनकर प्रिय आये||
    ​ -
    रविकांत पाण्डे
  • १०
    जितना मुझको तरसाओगे| उतना निकट मुझे पाओगे|
    तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो| मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो||
    ​ 
    राणा प्रताप सिंह
  • ११
    . एक दिवस आँगन में मेरे | 
    उतरे दो कलहंस सबेरे|
    कितने सुन्दर कितने भोले | सारे आँगन में वो डोले ||
    ​  -
    शेषधर तिवारी
  • ​२
    . नन्हें मुन्हें हाथों से जब । 
    छूते हो मेरा तन मन तब॥
    मुझको बेसुध करते हो तुम। कितने अच्छे लगते हो तुम ||
    ​ -
    धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
  • *******************

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बुधवार, 27 जनवरी 2016

laghukatha

लघुकथा-
तिरंगा
*
माँ इसे फेंकने को क्यों कह रही हो? बताओ न इसे कहाँ रखूँ? शिक्षक कह रहे थे इसे सबसे ऊपर रखना होता है। तुम न तो पूजा में रखने दे रही हो, न बैठक में, न खाने की मेज पर, न ड्रेसिंग टेबल पर फिर कहाँ रखूँ?
बच्चा बार-बार पूछकर झुंझला रहा था.… इतने में कर्कश आवाज़ आयी 'कह तो दिया फेंक दे, सुनाता है कि लगाऊँ दो तमाचे?'
अवाक् बच्चा सुबकते हुए बोला 'तुम बड़े लोग गंदे हो। सही बात बताते नहीं और डाँटते हो, तुमसे बात नहीं करूंगा'। सुबकते-सुबकते कब आँख लगी पता ही नहीं चला उसके सीने से अब भी लगा था तिरंगा।
***

laghukatha

लघुकथा - 
अपनों की गुलामी 
*
इस स्वतंत्र देश से तो गुलाम भारत ही ठीक था। हम-तुम एक साथ तो रह पाते थे। तब मेरे लिये तुम लाठी-गोली भी हँसकर खा लेते थे। तुम्हारे साथ खेत, खलिहान, जंगल, पहाड़, महल, झोपड़ी हर जगह मैं रह पाता था। बच्चे, बूढ़े, महिला सभी का सान्निन्ध्य पाकर मेरा सर गर्व से ऊँचा हो जाता था।

देश आज़ाद होने के पहले जो अफसर मेरे साये से भी डरकर मुझसे नफरत करते थे उन्हीं ने मुझे नियम-कायदों में कैद कर अपना गुलाम बना लिया। तुम आज़ाद हो गये, मैं गुलाम हो गया।

अब तुम मुझे अपने घर, खेत, वाहन में फहरा नहीं पाते, गलती से उल्टा लगा लो तो तुम्हें सजा हो जाती है। मजबूरी में तम्हें अपने वस्त्रों और सामानों पर विदेशों के झंडे लगाये देखता हूँ तो मेरा मन रोता है, ऐसी कैसी स्वतंत्रता कि स्वतंत्र नागरिक को अपना झंडा फहराने में भी डरना पड़े।

काश! कोई मुझे दिला दे मुक्ति अपनों की गुलामी से।
***

एक ग़ज़ल : उन्हें हाल अपना सुनाते भी क्या.....

एक ग़ज़ल : उन्हें हाल अपना सुनाते भी क्या...


उन्हें हाल अपना सुनाते भी क्या
भला सुन के वो मान जाते भी क्या

अँधेरे  उन्हें रास आने  लगे
चिराग़-ए-ख़ुदी वो जलाते भी क्या

अभी ख़ुद परस्ती में है मुब्तिला
उसे हक़ शनासी बताते भी क्या

नए दौर की  है नई रोशनी
पुरानी हैं रस्में ,निभाते भी क्या

जहाँ भी गया मैं  गुनह साथ थे
नदामत जदा,पास आते भी क्या

उन्हें ख़ुद सिताई से फ़ुरसत नहीं
वो सुनते भी क्या और सुनाते भी क्या

दम-ए-आख़िरी जब कि निकला था दम

पता था उन्हें, पर वो आते  भी क्या

जहाँ दिल से दिल की न गाँठें खुले
वहाँ हाथ ’आनन’ मिलाते भी क्या

-आनन्द.पाठक-
09413395592

शब्दार्थ;-
ख़ुदपरस्ती =अपने आप को ही सब कुछ समझने का भाव
मुब्तिला = ग्रस्त ,जकड़ा हुआ
हक़शनासी =सत्य व यथार्थ को पहचानना
नदामत जदा = लज्जित /शर्मिन्दा
खुदसिताई =अपने मुँह से अपनी ही प्रशंसा करना

सोमवार, 25 जनवरी 2016

samiksha

पुस्तक सलिला-

नवगीतों के घाट पर कागज़ की नाव  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: कागज़ की नाव, नवगीत संग्रह, राजेंद्र वर्मा, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, बहुरंगी, पृष्ठ ८०, मूल्य १५० रु., उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२, दूरभाष ९८३९८२५०६२, नवगीतकार संपर्क ३/१९ विकास नगर लखनऊ २२६०२२, चलभाष ८००९६६००९६।]
*
'साम्प्रतिक मानव समाज से सम्बद्ध संवेदना के वे सारे आयाम, विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ तथा संबंधों का वह खुरदुरापन जिन्हें भोगने-जीने को हम-आप अभिशप्त हैं, इन सारी परिस्थितियों को नवगीतकार राजेंद्र वर्मा ने अपने कविता के कैनवास पर बड़ी विश्वसनीयता के साथ उकेरा है। सामाजिक यथार्थ को आस्वाद्य बना देना उनकी कला है। अनुभूति की गहनता और अभिव्यक्ति की सहजता के दो पाटों के बीच खड़ा आम पाठक अपने को संवेदनात्मक स्तर पर समृद्ध समझने लगता है, यह समीकरण राजेंद्र वर्मा के नवगीतों से होकर गुजरने का एक आत्मीय अनुभव है।' वरिष्ठ नवगीतकार श्री निर्मल शुक्ल ने 'कागज़ की नाव' में अंतर्निहित नवगीतों का सटीक आकलन किया है। 

राजेंद्र वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार हैं. दोहे, गीत, व्यंग्य लेख, लघुकथा, ग़ज़ल, हाइकु, आलोचना, कविता, कहानी आदि विधाओं में उनकी १५ पुस्तकें प्रकाशित हैं। वे सिर्फ लिखने के लिये नहीं लिखते। राजेंद्र जी के लिये लेखन केवल शौक नहीं अपितु आत्माभिव्यक्ति और समाज सुधार का माध्यम है। वे किसी भी विधा में लिखें उनकी दृष्टि चतुर्दिक हो रही गड़बड़ियों को सुधारकर सत-शिव-सुन्दर की स्थापना हेतु सक्रिय रही है। नवगीत विधा को आत्मसात करते हुए राजेंद्र जी लकीर के फ़कीर नहीं बनते। वे अपने चिंतन, अवलोकन, और आकलन के आधार पर वैषम्य को इन्गित कर उसके उन्मूलन की दिशा दिखाते हैं। उनके नवगीत उपदेश या समाधान को नहीं संकेत को लक्ष्य बनाते हैं क्योंकि उन्हें अपने पाठकों के विवेक और सामर्थ्य पर भरोसा है। 

आम आदमी की आवाज़ न सुनी जाए तो विषमता समाप्त नहीं हो सकती। राजेंद्र जी सर्वोच्च व्यवस्थापक और प्रशासक को सुनने की प्रेरणा देते हैं - 
तेरी कथा हमेशा से सुनते आये हैं, 
सत्य नरायन! तू भी तो सुन 
                               कथा हमारी। 
समय कुभाग लिये  
आगे-आगे चलता है 
सपनों में भी अब तो 
केवल डर पलता है 
घायल पंखों से 
                      उड़ने की है लाचारी। 

यह लाचारी व्यक्ति की हो या समष्टि की, समाज की राजेंद्र जी को प्रतिकार की प्रेरणा देती है और वे कलम को हथियार की तरह उपयोग करते हैं। 

सच की अवहेलना उन्हें सहन नहीं होती। न्याय व्यवस्था की विकलांगता उनकी चिंता का विषय है-
कौआरोर मची पंचों में 
सच की कौन सुने? 
बेटे को खतरा था 
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली 
अम्मा दौड़ीं बहुत 
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली 
कुलदीपक बुझ गया 
न्याय की देवी शीश धुनें।

'पुरस्कार दिलवाओ' शीर्षक नवगीत में राजेन्द्र जी पुरस्कारों के क्रय-विक्रय की अपसंस्कृति के प्रसार पर वार करते हैं- 
कब तक माला पहनाओगे?
पुरस्कार दिलवाओ।
पद्म पुरस्कारों का देखो / लगा हुआ है मेला 
कुछ तो करो / घटित हो मुझ पर 
शुभ मुहूर्त की बेला 
पैसे ले लो, पर मोमेंटो / सर्टिफिकेट दिलाओ। 

आलोचकों द्वारा गुटबंदी और चीन्ह-चीन्ह कर प्रशंसा की मनोवृत्ति उनसे अदेखी नहीं है- 
बीती जाती एक ज़िंदगी / सर्जन करते-करते 
आलोचकगण आपस में बस / आँख मार कर हँसते।
मेरिट से क्या काम बनेगा सिफारिशें भिजवाओ।

मौलिक प्रतीक, अप्रचलित बिम्ब, सटीक उपमाएँ राजेंद्र जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य है। वे अपने कथन से पाठक को चमत्कृत नहीं करते अपितु नैकट्य स्थापित कर अपनी बात को पाठक के मन में स्थापित कर देते हैं। परिवारों के विघटन पर 'विलग साये' नवगीत देखें-
बँट गयी दुनिया मगर / हम कुछ न कर पाये।
घाट बँटा दीवार खिंचकर/ बँट गये खपरैल-छप्पर 
मेड़ छाती ठोंक निकली / बाग़ में खेतों के भीतर 
हम किसी भी एक के / हिस्से नहीं आये  
कुछ इधर हैं, कुछ उधर हैं / आत्म से भी बेखबर हैं 
बात कैसी भी कहें हम / छिड़ रहा जैसे समर है 
बह गयी कैसी हवा / खुद से विलग साये 

आत्म से बेखबर होना और खुद से साये का भी अलग होना समाज के विघटन के प्रति कवि की पीड़ा और चिंता को अभिव्यक्त करता है। 

राजेंद्र जी राजनैतिक अराजकता, प्रशासनिक जड़ता और अखबारी निस्सारता के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिये कलम न उठायें, यह कैसे संभव है- 
राजा बहरा, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार 
कलियुग ने भी मानी जैसे / वर्तमान से हार 
चार दिनों से राम दीन की  बिटिया गायब है
थानेदार जनता, लेकिन सिले हुए लब हैं 
उड़ती हुई खबर है, लेकिन फैलाना मत यार!
घटना में शामिल है खुद ही / मंत्री  जी की कार  
कॉलेज के चरसी को भी कुछ-कुछ मालुम है 
लेकिन घटना-वाले दिन से  गुमसुम-गुमसुम है 
टी. व्ही. वालों ने भी अब तक शुरू न की तकरार 
सोमवार से आज हो गया / है देखो इतवार 
प्रथम सूचना दर्ज़ कराने में छक्के छूटे 
किन्तु नामजद रपट कराने में हिम्मत टूटे 
थाने का थाना बैठा है जैसे खाये  खार
बेटी के चरित्र पर उँगली / रक्खे बारम्बार 

यह नवगीत घटना का उल्लेख मात्र नहीं करता अपितु पूरे परिवेश को शब्द चित्र की तरह साकार कर पाता है। 

राजेंद्र जी का भाषिक संस्कार और शब्द वैभव असाधारण है। वे हिंदी, उर्दू, अवधी, अंग्रेजी के साथ अवधी के देशज शब्दों का पूरी सहजता से उपयोग कर पाते हैं। कागज़, मस्तूल, दुश्मन, पाबंदी, रिश्ते, तासीर, इज्जत, गुलदस्ता, हालत, हसरत, फ़क़त, रौशनी, बयान, लब, तकरार, खर, फनकार, बेखबर, वक़्त, असलहे, बेरहम, जाम, हाकिम, खातिर, मुनादी, सकून, तारी, क़र्ज़, बागी, सवाल, मुसाफिर, शातिर, जागीर, गर्क, सिफारिश जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरे अपनेपन सहित इंगिति, अभिजन, समीरण, मृदुल, संप्रेषण, प्रक्षेपण, आत्मरूप, स्मृति, परिवाद, सात्विक, जलद, निस्पृह, निराश्रित, रूपंकर, हृदवर, आत्म, एकांत, शीर्षासन, निर्मिति, क्षिप्र, परिवर्तित, अभिशापित, विस्मरण, विकल्प, निर्वासित जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों से गलबहियाँ डाले हैं तो करमजली, कौआरोर, नथुने, जिनगी, माड़ा, टटके, ललछौंह, हमीं, बँसवट, लरिकौरी, नेवारी, मेड़, छप्पर, हुद्दा, कनफ़ोड़ू, ठाड़े, गमका, डांडा, काठ, पुरवा जैसे देशज शब्द उनके कंधे पर झूल रहे हैं। इनके साथ ही शब्द दरबार में शब्द युग्मों की अच्छी-खासी उपस्थिति दर्ज़ हुई है- मान-सम्मान, धूल-धूसरित, आकुल-व्याकुल, वाद-विवाद, दान-दक्षिणा, धरा-गगन, साथ-संग, रात-दिवस, राहु-केतु, आनन-फानन, छप्पर-छानी, धन-बल, ठीकै-ठाक, झुग्गी-झोपड़िया, मौज-मस्ती, टोने-टुटके, रास-रंग आदि दृष्टव्य हैं। 

मन-पाखी, मत्स्य-न्याय, सत्यनरायन, गोडसे, घीसू-माधो, मन-विहंग आदि शब्दों का प्रयोग स्थूल अर्थ में नहीं हुआ है। वे प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होकर अर्थ के साथ-साथ भाव विशेष की भी अभिव्यंजना करते हैं। राजेंद्र जी मुहावरेदार भाषा के धनी हैं। छोटे-बड़े सभी ने मिल छाती पर मूँग दली, रिश्ते हुए परास्त, स्वार्थ ने बाजी मारी, शीश उठाया तो माली ने की हालत पतली, किन्तु गरीबी ने घर भर का / फ़क़त एक सपना भी छीना, समय पड़े तो / प्राण निछावर / करने का आश्वासन है, मुँह फेरे हैं देखो / कब से हवा और ये बादल, ठण्ड खा गया दिन, खेत हुआ गेहूँ, गन्ने का मन भर आया, किन्तु वे सिर पर खड़े / साधे हुए हम, प्रथम सूचना दर्ज करने में छक्के छूटे, भादों में ही जैसे / फूल उठा कांस, मेंड़ छाती ठोंक निकली, बात का बनता बतंगड़ जैसी भाषा पाठक-मन  को बाँधती है। 

राजेंद्र जी नवगीत को कथ्य के नयेपन, भाषा शैली में नवीनता, बिम्ब-प्रतीकों के नयेपन के निकष पर रचते हैं। क्षिप्र मानचित्र शीर्षक नवगीत ग़ज़ल या मुक्तिका के शिल्प पर रचित होने के साथ-साथ अभिनव कथ्य को प्रस्तुत करता है-
क्या से क्या चरित्र हो गया / आदमी विचित्र हो गया 
पुण्यता अधर में रह रही / नित नवीन चोट सह रही 
स्नान कर प्रभुत्व-गंग में / पातकी पवित्र हो गया 
मित्रता में विष मिला दिया / शत्रुता को मधु पिला दिया 
स्वार्थ-पूर्ति का हुआ चलन / शत्रु ही सुमित्र हो गया 
द्रव्य के समीकरण बने / न्य झुका अनय के सामने 
वीरता के सूर्य को ग्रहण / क्षिप्र मानचित्र हो गया 

राजेन्द्र जी की छंदों पर पकड़ है। निर्विकार बैठे शीर्षक नवगीत का मुखड़ा महाभागवत जातीय विष्णुपद छंद में तथा अन्तरा लाक्षणिक जातीय पद्मावती छंद में है। दोनों छंदों को उन्होंने भली-भाँति साधा है-
नये- नये महराजे / घूम रहे ऐंठे।
लोकतंत्र के अभिजन हैं ये / देवों से भी पावन हैं ये  
सेवक कहलाते-कहलाते / स्वामी बन ऐंठे 
लाज-शरम पी गये घोलकर / आत्मा बेची तोल-तोलकर 
लाख-करोड़ नहीं कुछ इनको / अरबों में पैठे 
नयी सदी के नायक हैं ये / छद्मराग के गायक हैं ये 
लोक जले तो जले, किन्तु ये / निर्विकार बैठे 

मुखड़े और अँतरे में एक ही छंद का प्रयोग करने में भी उन्हें महारत हासिल है। देखिये महाभागवत जातीय विष्णुपद में रचित कागज़ की नाव शीर्षक नवगीत की पंक्तियाँ  -
बारह अभावों की / आयी है / डूबी गली-गली 
डीएम साढ़े / हम देख रहे / काग़ज़ की नाव चली 
माँझी के हाथों में है / पतवार / आँकड़ों की 
है मस्तूल उधर ही / इंगिति / जिधर धाकड़ों की
लंगर जैसे / जमे हुए हैं / नामी बाहुबली 

ऊपर उद्धृत 'सत्यनरायन' शीर्षक नवगीत अवतारी तथा दिगपाल छंदों में है। राजेन्द्र जी का वैशिष्ट्य छंदों के विधान को पूरी तरह अपनाना है। वे प्रयोग के नाम पर छंदों को तोड़ते-मरोड़ते नहीं। भाषा तथा भाव को कथ्य का सहचर बना पाने में वे दक्ष हैं। 'जाने कितने / सूर्य निकल आये' में तथ्य दोष है। कहीं-कहीं मुद्रण त्रुटियाँ हैं। जैसे ग्रहन, सन्यासिनि, उर्जा आदि। 

अव्यवस्था और कुव्यवस्था पर तीक्ष्ण प्रहार कर राजेंद्र जी ने नवगीत को शास्त्र की तरह प्रयोग किया है- राज अभृ, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार, अच्छे दिन आनेवाले थे / किन्तु नहीं आये, नए-नए राजे-महराज / घूम रहे ऐंठे, कौआरोर मची पँचों में / सच की कौन सुने?, ऐसा मायाजाल बिछा है / कोई निकले भी तो कैसे?, जन-जन का है / जन के हेतु /  जनों द्वारा / पर, निरुपाय हुआ जाता / जनतंत्र हमारा आदि अभिव्यक्तियाँ  आम आदमी की बात सामने लाती हैं। राजेन्द्र जी आम आदमी को अभषा में उसकी बात कहते हैं। कागज़ की नाव का पाठक इसे पूरी तरह पढ़े बिना छोड़ नहीं पाता यह नवगीतकार के नाते राजेंद्र जी की सफलता है।  

***
- २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ / ९४२५१८३२४४

दोहा

दोहा सलिला-
*
एक हाथ से दे रहा, दूजे से ले छीन
संविधान ही छल-कथा, रचता नित्य नवीन
*
रोड़ा लाया कहीं से, ईंट कहीं से माँग
संविधान ने अड़ा दी, लोकतंत्र में टाँग
*
नाग साँप बिच्छू खड़े, जिसको चुनिए आप
विष उगलेगा नित वही, देश सहेगा शाप
*
इतने संशोधन हुए, फिर भी हुआ न ठीक
संविधान ने कभी भी, सही नहीं की लीक
*
अंधे के हाथी हुए, संविधान जी आप
दुर्योधन-धृतराष्ट्र मिल, करें आपका जाप
*
जो हो होने दीजिए, बैठें मूँदे नैन
संविधान जी मूक हैं, कभी न बोलें बैन
*

रविवार, 24 जनवरी 2016

एक ग़ज़ल : वो जो राह-ए-हक़ चला है....



वो जो राह-ए-हक़ चला है उम्र भर
साँस ले ले कर मरा है  उम्र भर

जुर्म इतना है ख़रा सच बोलता 
कठघरे में जो खड़ा है  उम्र भर

सहज था विश्वास करता रह गया
अपने लोगों  ने छला है उम्र भर

पात केले सी मिली संवेदना
उफ़् , बबूलों पर टँगा है उम्र भर

मुख्य धारा से अलग धारा रही
खुद का खुद से सामना है उम्र भर

घाव दिल के जो दिखा पाता ,अगर
स्वयं से कितना  लड़ा  है उम्र भर

राग दरबारी नहीं है गा सका
इसलिए सूली चढ़ा  है उम्र भर

झूट की महफ़िल सजी ’आनन’ सदा
सत्य ने पाई सज़ा  है उम्र भर

-आनन्द पाठक-
09413395592

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नवगीत और देश 
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
विश्व की पुरातनतम संस्कृति, मानव सभ्यता के उत्कृष्टतम मानव मूल्यों, समृद्धतम जनमानस, श्रेष्ठतम साहित्य तथा उदात्ततम दर्शन के धनी देश भारत वर्तमान में संक्रमणकाल से गुजर रहा है।पुरातन श्रेष्ठता, विगत पराधीनता, स्वतंत्रता पश्चात संघर्ष और विकास के चरण, सामयिक भूमंडलीकरण, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, बाजारवाद, दिशाहीन मीडिया के वर्चस्व, विदेशों के प्रभाव, सत्तोन्मुख दलवादी राजनैतिक टकराव, आतंकी गतिविधियों, प्रदूषित होते पर्यावरण, विरूपित होते लोकतंत्र, प्रशासनिक विफलताओं तथा घटती आस्थाओं के इस दौर में साहित्य भी सतत परिवर्तित हुआ।छायावाद के अंतिम चरण के साथ ही साम्यवाद-समाजवाद प्रणीत नयी कविता ने पारम्परिक गीत के समक्ष जो चुनौती प्रस्तुत की उसका मुकाबला करते हुए गीत ने खुद को कलेवर और शिल्प में समुचित परिवर्तन कर नवगीत के रूप में ढालकर जनता जनार्दन की आवाज़ बनकर खुद को सार्थक किया । 

किसी देश को उसकी सभ्यता, संस्कृति, लोकमूल्यों, धन-धान्य, जनसामान्य, शिक्षा स्तर, आर्थिक ढाँचे, सैन्यशक्ति, धार्मिक-राजनैतिक-सामाजिक संरचना से जाना जाता है। अपने उद्भव से ही नवगीत ने सामयिक समस्याओं से दो-चार होते हुए, आम आदमी के दर्द, संघर्ष, हौसले और संकल्पों को वाणी दी। कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर नवगीत ने वैशिष्ट्य पर सामान्यता को वरीयता देते हुए खुद को साग्रह जमीन से जोड़े रखा प्रेम, सौंदर्य, श्रृंगार, ममता, करुणा, सामाजिक टकराव, चेतना, दलित-नारी विमर्श, सांप्रदायिक सद्भाव, राजनैतिक सामंजस्य, पीढ़ी के अंतर, राजनैतिक विसंगति, प्रशासनिक अन्याय आदि सब कुछ को समेटते हुइ नवगीत ने नयी पीढ़ी के लिये आशा, आस्था, विश्वास और सपने सुरक्षित रखने में सफलता पायी है। 

पुरातन विरासत:
किसी देश की नींव उसके अतीत में होती है। नवगीत ने भारत के वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक काल से लेकर अधिक समय तक के कालक्रम, घटना चक्र और मिथकों को अपनी ताकत बनाये रखा है। वर्तमान परिस्थितियों और विसंगतियों का विश्लेषण और समाधान करता नवगीत पुरातन चरित्रों और मिथकों का उपयोग करते नहीं हिचकता। (जागकर करेंगे हम क्या? / सोना भी हो गया हराम / रावण  को सौंपकर सिया / जपता मारीच राम-राम - मधुकर अष्ठाना, वक़्त आदमखोर), अंधों के आदेश / रात-दिन ढोता राजमहल / मिला हस्तिनापुर को / जाने किस करनी का फल (जय चक्रवर्ती, थोड़ा लिखा समझना ज्यादा) में देश की पुरातन विरासत पर गर्वित नवगीत सहज दृष्टव्य है।

संवैधानिक अधिकार:
भारत का संविधान देश के नागरिकों को अधिकार देता है किन्तु यथार्थ इसके विपरीत है- मौलिक अधिकारों से वंचित है / भारत यह स्वतंत्र नागरिक / वैचारिक क्रांति अगर आये तो / ढल सकती दोपहरी कारुणिक (आनंद तिवारी, धरती तपती है),  क्यों व्यवस्था / अनसुना करते हुए यों  / एकलव्यों को / नहीं अपना रही है? (जगदीश पंकज, सुनो मुझे भी), तंत्र घुमाता लाठियाँ / जन खाता है मार / उजियारे की हो रही अन्धकार से हार / सरहद पर बम फट रहे / सैनिक हैं निरुपाय / रण जीतें तो सियासत / हारें, भूल बताँय / बाँट रहे हैं रेवाड़ी / अंधे तनिक न गम / क्या सचमुच स्वाधीन हम? (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सड़क पर) आदि में नवगीत देश के आम नागरिक के प्रति चिंतित है।

गणतंत्र:
देश के संविधान, ध्वज  हर नागरिक के लिये बहुमूल्य हैं। गणतंत्र की महिमा गायन कर हर नागरिक का सर गर्व से उठ जाता है - गणतंत्र हर तूफ़ान से गुजर हुआ है / पर प्यार से फहरा हुआ है ताल दो मिलकर / की कलियुग में / नया भारत बनाना है (पूर्णिमा बर्मन, चोंच में आकाश)। नवगीत केवक विसंकटी और विडम्बना का चित्रण नहीं है, वह देश के प्रति गर्वानुभूति भी करता है - पेट से बटुए तलक का / सफर तय करते मुसाफिर / बात तू माने न माने / देश पर अभिमान करने / के अभी लाखों बहाने (रामशंकर वर्मा, चार दिन फागुन के), मुक्ति-गान गूँजे, जब / मातृ-चरण पूजें जब / मुक्त धरा-अम्बर से / चिर कृतज्ञ अंतर से / बरबस हिल्लोल उठें / भावाकुल बोल उठें / स्वतंत्रता- संगरो नमन / हुंकृत मन्वन्तरों नमन (जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', तमसा के दिन करो नमन) आदि में देश के गणतंत्र और शहीदों को नमन कर रहा है नवगीत।   

वर्ग संघर्ष-शोषण:
कोई देश जब परिवर्तन और विकास की राह पर चलता है तो वर्ग संघर्ष होना स्वाभाविक है. नवगीत ने इस टकराव को मुखर होकर बयान किया है- हम हैं खर-पतवार / सड़कर खाद बनते हैं / हम जले / ईंटे पकाने / महल तनते हैं (आचार्य भगवत दुबे, हिरन सुगंधों के), धूप का रथ / दूर आगे बढ़ गया / सिर्फ पहियों की / लकीरें रह गयीं (प्रो. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र'), सड़क-दर-सड़क / भटक रहे तुम / लोग चकित हैं / सधे हुए जो अस्त्र-शास्त्र / वे अभिमंत्रित हैं (कुमार रवीन्द्र), व्यर्थ निष्फल / तीर और कमान / राजा रामजी / क्या करे लक्षमण बड़ा हैरान / राजा राम जी (स्व. डॉ. विष्णु विराट) आदि में नवगीत देश में स्थापित होते दो वर्गों का स्पष्ट संकेत करता है। 

विकासशील देश में बदलते जीवन मूल्य शोषण के विविध आयामों को जन्म देता है. स्त्री शोषण के लिए सहज-सुलभ है. नवगीत इस शोषण के विरुद्ध बार-बार खड़ा होता है- विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी / जेठ-ससुर की मैली नजरें / अब टूटीं, तब टूटीं (राजा अवस्थी, जिस जगह यह नाव है),  कहीं खड़ी चौराहे कोई / कृष्ण नहीं आया / बनी अहल्या लेकिन कोई राम नहीं पाया / कहीं मांडवी थी लाचार घुटने टेक पड़ी (गीता पंडित, अब और नहीं बस), होरी दिन भर बोझ ढोता / एक तगाड़ी से / पत्नी भूखी, बच्चे भूखे / जब सो जाते हैं / पत्थर की दुनिया में आँसू तक खो जाते हैं (जगदीश श्रीवास्तव) कहते हुए नवगीत देश में बढ़ रहे शोषण के प्रति सचेत करता है।  

परिवर्तन-विस्थापन:
देश के नवनिर्माण की कीमत विस्थापित को चुकानी पड़ती है. विकास के साथ सुरसाकार होते शहर गाँवों को निगलते जाते हैं- खेतों को मुखिया ने लूटा / काका लुटे कचहरी में / चौका सूना भूखी गैया / प्यासी खड़ी दुपहरी में (राधेश्याम /बंधु', एक गुमसुम धूप), सन्नाटों में गाँव / छिपी-छिपी सी छाँव / तपते सारे खेत / भट्टी बनी है रेत / नदियां हैं बेहाल / लू-लपटों के जाल (अशोक गीते, धुप है मुंडेर की), अंतहीन जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती / मन  भीतर जलप्रपात है / धुआँधार की मोहक वादी / सलिल कणों में दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी (रामकिशोर दाहिया, अल्लाखोह मची), प्रतिद्वंदी हो रहे शहर के / आसपास के गाँव / गाये गीत गये ठूंठों के / जीत गये कंटक / ज़हर नदी अपना उद्भव / कह रही अमरकंटक / मुझे नर्मदा कहो कह रहा / एक सूखा तालाब (गिरिमोहन गुरु, मुझे नर्मदा कहो), बने बाँध / नदियों पर / उजड़े हैं गाँव / विस्थापित हुए / और मिट्टी से कटे / बच रहे तन / पर अभागे मन बँटे / पथरीली राहों पर / फिसले हैं पाँव (जयप्रकाश श्रीवास्तव, परिंदे संवेदना के) आदि भाव मुद्राओं में देश विकास के की कीमत चुकाते वर्ग को व्यथा-कथा शब्दित कर उनके साथ खड़ा है नवगीत।   

पर्यावरण प्रदूषण:
देश के विकास साथ-साथ  की समस्या सिर उठाने लगाती है। नवगीत ने पर्यावरण असंतुलन को अपना कथ्य बनाने से गुरेज नहीं किया- इस पृथ्वी ने पहन लिए क्यों / विष डूबे परिधान? / धुआँ मंत्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राणवायु का राग /  रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान (निर्मल शुक्ल, एक  और अरण्य काल),  पेड़ कब से तक रहा / पंछी घरों को लौट आएं / और फिर / अपनी उड़ानों की खबर / हमको सुनाएँ / अनकहे से शब्द में / फिर कर रही आगाह / क्या सारी दिशाएँ (रोहित रूसिया, नदी की धार सी संवेदनाएँ) कहते हुए नवगीत देश ही नहीं विश्व के लिए खतरा बन रहे पर्यावरण प्रदूषण  को काम करने के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करता है।     

भ्रष्टाचार:
देश में पदों और अधिकारों का का दुरुपयोग करनेवाले काम नहीं हैं। नवगीत उनकी पोल खोलने में पीछे नहीं रहता- लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार / अपना काम पड़े तो देना / टेबिल के नीचे से लेना (ओमप्रकाश तिवारी, खिड़कियाँ खोलो) स्वर्णाक्षर सम्मान पत्र / नकली गुलदस्ते हैं / चतुराई के मोल ख़रीदे / कितने सस्ते हैं (महेश अनघ), आत्माएँ गिरवी रख / सुविधाएँ ले आये / लोथड़ा कलेजे का, वनबिलाव चीलों में / गंगा की गोदी में या की ताल-झीलों में / क्वाँरी माँ जैसे, अपना बच्चा दे आये (नईम), अंधी नगरी चौपट राजा / शासन सिक्के का / हर बाज़ी पर कब्जा दिखता / जालिम इक्के का (शीलेन्द्र सिंह चौहान) आदि में नवगीत देश में शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार को उद्घाटित कर समाप्ति हेतु प्रेरणा देता है।

उन्नति और विकास:
नवगीत विसंगति और विडम्बनाओं तक सीमित नहीं रहता, वह आशा-विश्वास और विकास की गाथा भी कहता है- देखते ही देखते बिटिया / सयानी हो गयी / उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह नौकरी करने चली / कल तलक थी साथ में / अब कर्म पथ वरने चली (ब्रजेश श्रीवास्तव, बाँसों के झुरमुट से), मुश्किलों को मीत मानो / जीत तय होगी / हौसलों के पंख हों तो।/ चिर विजय होगी (कल्पना रामानी, हौसलों के पंख) कहते हुए नवगीत देश की युवा पीढ़ी को आश्वस्त करता है की विसंगतियों और विडम्बनाओं की काली रात के बाद उन्नति और विकास का स्वर्णिम विहान निकट है। 

प्यार :
किसी देश का निर्माण सहयोग, सद्भाव और प्यार से हो होता है. टकराव से सिर्फ बिखराव होता है. नवगीत ने प्यार की महत्ता को भी स्वर दिया है- प्यार है / तो ज़िंदगी महका / हुआ एक फूल है / अन्यथा हर क्षण / ह्रदय में / तीव्र चुभता शूल है / ज़िंदगी में / प्यार से दुष्कर / कहीं कुछ भी नहीं (महेंद्र भटनागर, दृष्टि और सृष्टि),  रातरानी से मधुर / उन्वान हम / फिर से लिखेंगे / बस चलो उस और सँग तुम / प्रीत बंधन है जहाँ (सीमा अग्रवाल, खुशबू सीली गलियों की) में नवगीत जीवन में प्यार और श्रृंगार की महक बिखेरता है।

आव्हान :
सपनों से नाता जोड़ो पर / जाग्रति से नाता मत तोड़ो तथा यह जीवन / कितना सुन्दर है / जी कर देखो... शिव समान / संसार हेतु / विष पीकर देखो (राजेंद्र वर्मा, कागज़ की नाव), सबके हाथ / बराबर रोटी बाँटो मेरे भाई (जयकृष्ण तुषार), गूंज रहा मेरे अंतर में / ऋषियों का यह गान / अपनी धरती, अपना अम्बर / अपना देश महान (मधु प्रसाद, साँस-साँस वृन्दावन) आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत के अंतर में देश के नव निर्माण की आकुलता की अभव्यक्ति करते हुई आश्वस्त करती हैं की देश का भविष्य उज्जवल है और युवाओं को विषमता का अंत कर समता-ममता के बीज बोने होंगे।

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शनिवार, 23 जनवरी 2016

laghukatha

लघुकथा-
सफ़ेद झूठ
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गाँधी जयंती की सुबह दूरदर्शन पर बज रहा था गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल', अचानक बेटे ने उठकर टीवी बंद कर दिया।

कारण पूछने पर बोला- '१८५७ से लेकर १९४६ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अज्ञातवास में जाने तक क्रांतिकारियों ने आत्म-बलिदान की अनवरत श्रंखला की अनदेखी कर ब्रिटेन संसद सदस्यों से में प्रश्न उठवानेवालों को शत-प्रतिशत श्रेय देना सत्य से परे है।

सत्यवादिता के दावेदार के जन्म दिन पर कैसे सहन किया जा सकता है सफ़ेद झूठ?

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laghukatha

लघु कथा -
जैसे को तैसा

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कत्ल के अपराध में आजीवन कारावास पाये अपराधी ने न्यायाधीश के सामने ही अपने पिता पर घातक हमला कर दिया। 

न्यायाधीश ने कारण पूछा तो उसने नाट्य की उसके अपराधी बनने के मूल में पिता का अंधा प्यार ही था। बचपन में मामा की शादी में उसने पिता के एक साथी की पिस्तौलसे ११ गोलियाँ चला दी थीं। 

पिता ने उसे डाँटने के स्थान पर जाँच करने आये पुलिस निरीक्षक को राजनैतिक पहुँच से रुकवा दिया तथा झूठा बयान दिलवा दिया की उसने खिलौनेवाली पिस्तौल चलायी थी। 

पहली गलती पर सजा मिल गयी होती तो वह बात-बात पर पिस्तौल का उपयोग करना नहीं सीखता और आज आजीवन कारावास नहीं पाता। 

पिता उसका अपराधी है जिसे दुनिया की कोई अदालत या कानून दोषी नहीं मानेगा इसलिए वह अपने अपराधी को दंडित कर संतुष्ट है, अदालत उसे एक जन्म के स्थान पर दो जन्म का कारावास दे दे तो भी उसे स्वीकार है।


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बुधवार, 20 जनवरी 2016

navgeet

नवगीत
चीनी जैसा नुक्ता
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चीनी जैसा नुक्ता है या
नुक्ता जैसी चीनी है?
नुक़्ती के लड्डू में खुश्बू
नेह-प्रेम की भीनी है.... 
*
तकलीफों दरी बिछाई
ढाई आखर की चादर।
मसनद मुसीबतों के रखकर
बैठी कोशिश मुस्काकर।
जरूरतों की दाल गल सके
मिल हर अड़चन बीनी है।
चीनी जैसा नुक्ता है या
नुक्ता जैसी चीनी है?
*
गम ढोलक पर थाप ख़ुशी की
कोकिल-कंठों में कजरी।
मर्यादा की चूड़ी खनकी
उठ उमंग बनरी सज री!
 पीस हिया हिना रचायी
अँखियाँ गीली कीनी है।
चीनी जैसा नुक्ता है या
नुक्ता जैसी चीनी है?
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घोडा चुनौतियों का बाँका
सपना नौशा थामे रास।
आम आदमी भी बाराती
बनकर हो जाता है ख़ास।
ऐ नसीब! मत आँख दिखा
मेहनत ने खुशियाँ दीनी है
चीनी जैसा नुक्ता है या
नुक्ता जैसी चीनी है?
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२०-१-२०१६


मंगलवार, 19 जनवरी 2016

navgeet

नवगीत:
बाहर बाज, बहेलिया
*
बाहर बाज, बहेलिया
बैठे पहरेदार
*
जन-मन गौरैया विवश
कैसे भरे उड़ान?
सत्ता सूरज के लिये
हर पल नया विहान
स्वार्थ सियासत बन गयी
देश-काल पर भार
बाहर बाज, बहेलिया
बैठे पहरेदार
*
आम आदमी परेशां
जीना है दुश्वार
असहनीय है करों का
दिन-दिन बढ़ता भार
नेह हुआ नीलाम क्यों
बिका टकों में प्यार?
बाहर बाज, बहेलिया
बैठे पहरेदार
*
बंदरबाँट मची हुई
सभी चाहते श्रेय
अँधा बाँटे रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर देय
सागर में शक्कर घुली
मिला शहद में खार
बाहर बाज, बहेलिया
बैठे पहरेदार
*

navgeet

नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़कर बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गारे राई,सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें न लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोडा-थोडा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मर कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
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laghukatha

लघुकथा-
भारतीय
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- तुम कौन?
_ मैं भाजपाई / कॉंग्रेसी / बसपाई / सपाई / साम्यवादी... तुम?

= मैं? भारतीय।
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laghukatha-

लघुकथा-
चैन की साँस 
*
- हे भगवान! पानी बरसा दे, खेती सूख रही है।
= हे भगवान! पानी क्यों बरसा दिया? काम रुक गया।
- हे भगवान! रेलगाड़ी जल्दी भेज दे समय पर कार्यालय पहुँच जाऊँ।
= हे भगवान! रेलगाड़ी देर से आये, स्टेशन तो पहुँच जाऊँ।
- हे भगवान पास कर दे, लड्डू चढ़ाऊँगा।
= हे भगवान रिश्वतखोरों का नाश कर दे।

    _ हे इंसान! मेरा पिंड छोड़ तो चैन की साँस ले सकूँ।

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samwad katha

रोचक संवाद कथा-
ताना-बाना
*
- ताना ताना?
= ताना पर टूट गया।
- अधिक क्यों ताना?, और बाना?
= पहन लिया।
- ताना क्यों नहीं?
= ताना ताना
- बाना क्यों नहीं ताना?
= ताना ताना, बाना ताना।
- ताना, ताना है तो बाना कैसे हो सकता है?
= इसको ताना, उसको ताना, ये है ताना वो है बाना
- ताना मारा, बाना नहीं मारा क्यों?
दोनों चुप्प. 
*