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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

aalha chhand

​​रसानंद दे छंद नर्मदा : १०   
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छंद ओज बलिदान का आल्हा रचें सुजान  
*
छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान 
 
सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान
मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान

MAHOBA,%20U.P.%20-%20udal.jpgविषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ट
गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ  

जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान
आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन लड़ें जवान 

छंद विधान:

आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। 
आल्हा भी दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर वीर छंद में १६-१५ पर यति होती है 
दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता हैवीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है
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बुंदेलखंड-बघेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन समय में युद्धों के समय दरबारों में तथा सेनाओं के साथ अल्हैत होते थे जो अपने राज्य या सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश ताता जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी

इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं अतिश्योक्ति पूर्ण अभिव्यंजनाएँ इस छंद का मौलिक गुण हो जाता है।आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं 
                                                                               

    आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य   
गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य

    अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़    
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।  -
सौरभ पाण्डेय
 महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

    पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ
    आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ
    ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
    बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय
    जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय
                        
        *
   
4292918593_a1f9f7d02d.jpg    टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार
    आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार
   ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
    कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल
    ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
    बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल
*
    अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात
    चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात
*
    एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान
('एक' का उच्चारण 'इक')
    नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार
    महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय
    राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार
बरिस अठारह छत्री जीयें,  आगे जीवन को धिक्कार
                                                                         

बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल

अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय

फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय
*
सामान्यतः  आल्हा छंद की रचनाएँ वीर रस और अतिशयोक्ति अलंकार से युक्त होती हैं। उक्त रचना में आल्हा छंद में हास्य रस वर्षा का प्रयास है।
 
उदाहरण:

१. संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट
    गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट 
सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं   

२. तिमिर निराशा मिटे ह्रदय से, आशा-किरण चमक छितराय
    पवनपुत्र को ध्यान धरे जो, उससे महाकाल घबराय 
    भूत-प्रेत कीका दे भागें, चंडालिन-चुडैल चिचयाय
    मुष्टक भक्तों की रक्षा को, उठै दुष्ट फिर हा-हा खाँय

३. कर में गह करवाल घूमती, रानी बनी शक्ति साकार
    सिंहवाहिनी, शत्रुघातिनी सी करती थी आरी संहार
    अश्ववाहिनी बाँध पीठ पै, पुत्र दौड़ती चारों ओर 
    अंग्रेजों के छक्के छूटे, दुश्मन का कुछ, चला न जोर 

४. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज
चित्र परिचय: आल्हा ऊदल मंदिर मैहर, वीरवर उदल, वीरवर आल्हा, आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

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facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

रविवार, 20 दिसंबर 2015

navgeet

एक रचना-
एक दिन ही नया
*
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
मन सनातन सत्य
निश-दिन गुनगुनाना।
*
समय कब रुकता?
निरंतर चला करता।
स्वर्ण मृग
संयम सिया को
छला करता।
लक्ष्मण-रेखा कहे
मत पार जाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
निठुर है बाज़ार
क्रय-विक्रय न भूले।
गाल पिचका
आम के
हैं ख़ास फूले।
रोकड़़ा पाए अधिक जो
वह सयाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
सबल की मनमानियाँ
वैश्वीकरण है।
विवश जन को
दे नहीं
सत्ता शरण है।
तंत्र शोषक साधता
जन पर निशाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
२०. १२.२०१५

नवगीत :

एक रचना -
भीड़ में
*
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
नाम के रिश्ते कई हैं
काम का कोई नहीं
भोर के चाहक अनेकों
शाम का कोई नहीं
पुरातन है
हर नवेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गलत को कहते सही
पर सही है कोई नहीं
कौन सी है आँख जो
मिल-बिछुड़कर कोई नहीं
पालता फिर भी
झमेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
जागती है आँख जो
केवल वही सोई नहीं
उगाती फसलें सपन की
जो कभी बोईं नहीं
कौन सा संकट
न झेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

navgeet

नवगीत -
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती 
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है 
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है  
हाथ तोड़ पग
कर मलता है 
***
१८. १२. ०१५ 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

navgeet

नवगीत:
परीक्षा
*
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
यह सोचे मैं पढ़कर आया
वह कहता है गलत बताया
दोनों हैं पुस्तक के कैदी
क्या जानें क्या खोया-पाया?
उसका ही जीवन है सार्थक
बिन माँगे भी
जो कुछ देता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?

*
सोच रहा यह नित कुछ देता
लेकिन क्या वह सचमुच लेता?
कौन बताएं?, किससे पूछें??
सुप्त रहा क्यों मनस न चेता?
तज पतवारें
नौका खेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
मिलता अक्षर ज्ञान लपक लो
समझ न लेकिन उसे समझ लो
जो नासमझ रहा है अब तक
रहो न चिपके, नहीं विलग हो
सच न विजित हो 
और न जेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*

navgeet

नवगीत:
अपनी ढपली
*
अपनी ढपली
अपना राग
*
ये दो दूनी तीन बतायें
पाँच कहें वे बाँह चढ़ायें
चार न मानें ये, वे कोई
पार किसी से कैसे पायें?
कोयल प्रबंधित हारी है
कागा गाये
बेसुर फाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
अचल न पर्वत, सचल हुआ है
तजे न पिंजरा, अचल सुआ है
समता रही विषमता बोती
खेलें कहकर व्यर्थ जुंआ है
पाल रहे
बाँहों में नाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
चाहें खा लें बिना उगाये
सत्य न मानें हैं बौराये
पाल रहे तम कर उजियारा
बनते दाता, कर फैलाये
खुद सो जग से
कहते जाग
अपनी ढपली
अपना राग
*

navgeet

नवगीत-
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
अपनी-अपनी
चाल चल रहे
खुद को खुद ही
अरे! छल रहे
जो सोये ही नहीं
जान लो
उन नयनों में
स्वप्न पल रहे
सच वह ही
जो हमें सुहाये 
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
हिम-पर्वत ही
आज जल रहे
अग्नि-पुंज
आहत पिघल रहे
जो नितांत
अपने हैं वे ही
छाती-बैठे 
दाल दल रहे
ले जाओ वह
जो थे लाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
नित उगना था
मगर ढल रहे
हुए विकल पर
चाह कल रहे
कल होता जाता
क्यों मानव?
चाह आज की
कल भी कल रहे
अंधे दौड़े
गूँगे गाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*

navgeet

नवगीत  -
भूमि मन में बसी 
*
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे 
*
पाँच माताएँ हैं
एक पैदा करे
दूसरी भूमि पर
पैर मैंने धरे
दूध गौ का पिया
पुष्ट तन तब वरे
बोल भाषा बढ़े
मूल्य गहकर खरे
वंदना भारती माँ
न ओझल करे
धन्य सन्तान
शीश पर कर वरद यदि रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
माँ नदी है न भूलें
बुझा प्यास दे
माँ बने बुद्धि तो
नित नयी आस दे
माँ जो सपना बने
होंठ को हास दे
भाभी-बहिना बने
स्नेह-परिहास दे
हो सखी-संगिनी
साथ तब खास दे
मान उपकार
मन !क्यों करद तू रहे?
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
भूमि भावों की
रस घोलती है सदा
भूमि चाहों की
बनती नयी ही अदा
धन्य वह भूमि पर
जो हुआ हो फ़िदा
भूमि कुरुक्षेत्र में
हो धनुष औ' गदा
भूमि कहती
झुके वृक्ष फल से लदा
रह सहज-स्वच्छ
सबको सहायक रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
***

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

चन्द माहिया : क़िस्त 25


:1:
टूटा जो खिलौना है
ये तो होना था
किस बात का रोना है

:2:
नाशाद है खिल कर भी
प्यासी है नदिया
सागर से मिल कर भी

:3:
कुछ दर्द दबा रखना
आँसू हैं मोती
पलको में छुपा रखना

:4:
इतना तो बता देते
क्या थी ख़ता मेरी
फिर चाहे सजा देते

:5:
बस हाथ मिलाते हो
आसाँ है ,लेकिन
रिश्ता न निभाते हो

-आनन्द.पाठक-
09413395592

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

udaharan alankar

अलंकार सलिला ४१
उदाहरण अलंकार
*
















जब दृष्टांत उदाहरण में ज्यों, त्यों, जैसे, वैसे आदि शब्द जुड़ जाते हैं तब उदाहरण अलंकार होता है।

जब उपमेय और उपमान दोनों वाक्य सामान्य या दोनों वाक्य विशेष हों और उनमें ज्यों-त्यों जैसे शब्द जुड़े हों तो उदाहरण अलंकार समझना चाहिए।

उदाहरण:

१. ज्यों दिन ढलते संध्या विहग, प्रति पल नीडाकुल होते
   वैसे ही तुम बिन चंचल, ये प्राण तृषातुर होते

२. ज्यों कनक हो कनक धारे
    त्यों अलंकृत हुई गोरी

३. जिस तरह
    गूँजा मधुर स्वर
    मुग्ध थे जन
    सोच कोयल कूक
    पाती उस तरह?

४. जैसे बिजली गिरे
    उस तरह क्रोधित रानी

५. सरसों फूली पीत हो
    जैसे तरुणी पर चढ़ी
    हल्दी पीली पुलककर 

*****

muktika

 एक मुक्तिका:
*
शब्द का अक्षरों से निवेदन है
काव्य है कर्म दूरी के विलय का
*
महक अन्याय की है न्याय लाया
तपिश हो खूब ज्यों हिस्सा मलय का
*
राज रोकर न, रुलाकर करें जो
राज क्या बोलिए उनकी विजय का?
*
सभ्य ऐसा हुआ है देश सारा
करे वन्दन सतत मिलकर अनय का
*
बाढ़ तूफ़ान पर्वत धँस रहे हैं
सामना किस तरह करिए प्रलय का?
***

shodhlekh - kalpana ramani

नवगीत परिसंवाद-२०१५ में पढ़ा गया शोध-पत्र
कुमार रवीन्द्र के नवगीत संग्रह 'पंख बिखरे रेत परमें 

धूप की विभिन्न छवियाँ
- कल्पना रामानी


यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रकृति साहित्य के हर काल और हर वाद में हर विधा की कविताओं का विशेष अंग रही है, इसे नवगीत में भी देखा और महसूस किया जा सकता है। आदरणीय कुमार रवीन्द्र जी के नवगीत-संग्रह 'पंख बिखरे रेत पर' में इस तथ्य को पर्याप्त विस्तार मिला है।

उन्होंने अपने नवगीतों में धूप की विभिन्न छवियों को व्यापक अर्थों में विस्तार से व्यक्त किया है। कहीं धूप उत्साह है, कहीं गति तो कहीं आशा। कहीं वह उजाला है, कहीं प्राण तो कहीं नवता। धूप केवल धूप नहीं, सम्पूर्ण जीवन दर्शन है। अनेकानेक बिम्बों और उपमाओं द्वारा इसे जीवन की अनेक गतिविधियों में पिरोया गया है।

संग्रह के पन्ने खुलते ही हमारे सामने हर पृष्ठ के साथ धूप की विभिन्न छबियों के चित्र खुलते चले जाते हैं।


'धूप की हथेली पर मेहंदी रेखाएँ!
आओ इन्हें सीपी के जल से नहलाएँ' (पृष्ठ १३)

ये पंक्तियाँ अपने बिंब के कारण आकर्षित करती हैं जिनमें धूप का मानवीयकरण हुआ है। लहरों वाली किसी जलराशि के किनारे बैठे हुए धूप के किसी टुकड़े पर, जिस पर वृक्ष आदि की गहरी छाया हो जो मेंहदी की तरह सुंदर दिखाई देती हो... जहाँ सीपियाँ हों और जहाँ सूर्य जल में प्रतिबिंबित हो रहा हो- ऐसे दृश्य की कल्पना सहज ही मन में हो जाती है। लेकिन इसमें एक निहितार्थ भी है। युवावस्था में जब जीवन के रंगमंच का पर्दा धीरे धीरे खुल रहा होता है, जब तेजी से आगे बढ़ने के दिन होते हैं, जब सफलता की ओर कदम रखने का भरपूर समय साहस और उत्साह होता है तब धूप जैसे उजले खुशनुमा सफर में कभी कभी अँधेरे और निराशा के दर्शन भी हो जाते हैं लेकिन हम सहज ही उन कठिनाइयों को सुलझाते हैं जैसे सीप के जल से मेंहदी को नहला रहे हों।
-दिन ‘सोनल हंस की उड़ान’ शीर्षक गीत में दिन सोनल हंस की उड़ान हैं, कहकर वे धूप के सुनहरे रंग की सुंदरता से दिन को भरते हुए कहते हैं-

“दोपहरी अमराई में लेटी हुई छाँव है
भुने हुए होलों की खुशबू के ठाँव हैं” (पृष्ठ १४, १५)

-एक अन्य गीत ‘खूब हँसती हैं शिलाएँ’ में हंस जोड़ों को धूप लेकर अमराइयों में उड़ने की बात कही गई है। इंसान के सुख के दिन इतनी तेज़ी से गुज़र जाते हैं जैसे कोई सोनल-हंस बिना थके उड़ता चला जा रहा हो। उमंगें इतनी होती हैं कि थकान का पता ही नहीं चलता और जब दोपहर भी किसी अमराई की छाँव में भुने हुए होलों की खुशबू के साथ व्यतीत हो तो सुख कई गुना बढ़ जाता है। राह में बहती हुईं बिल्लौरी हवाएँ, खुशबुएँ, साथ चलती नदी, नदी के जल में सूरज और धूप, किरणों की शरारत, गुज़रते हुए हंस जोड़े मिलकर एक उत्सव का वातावरण निर्मित कर देते हैं।

-संग्रह के अगले ही गीत में धूप-नदियों की बात की गई है।

“आँच दिन की बड़ी नाज़ुक
सह रही हैं धूप नदियाँ” (पृष्ठ १६)


यह एक उत्सवी गीत है जिसमें सुबह की अंतर्कथाएँ, नाचती हुईं सोन-परियाँ, मछलियों के जलसे, रोशनी की शरारत और मोती जड़ी घटा के सुंदर बिंब हैं।


-अगले ही गीत -'धूप एक लड़की है' में (पृष्ठ १७)

धूप, पार-जंगल के राजा की लड़की है। एक ऐसी राजकुमारी, जो अपनी इच्छा से दिन भर कहीं भी आ-जा सकती है, उसे अपने राज्य में सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं। भोर में परियों के समान सुगन्धित हवाओं के साथ आकर झील के पानी से खेलती है और नदी तट पर नहाती है खुलकर हँसती है, उसके मन में कोई डर नहीं होता लेकिन रात होते ही अँधेरे से डर कर दुबक जाती है।

-‘खुशबू है जी भर’ शीर्षक गीत में कुमार रवीन्द्र जी कहते हैं-
'नन्हीं सी धूप घुसी चुपके’  (पृष्ठ १८)

गीत की इन पंक्तियों में गौरैया के माध्यम से नए साल के आगमन का सुन्दर बिम्ब दृश्यमान हुआ है। कमरे की खिड़की खुलते ही गौरैया का नज़र आना, नन्हीं यानी प्रातः कालीन शीतल धूप का चुपके से अन्दर प्रवेश करना, कुर्सी पर बैठना, दर्पण को छेड़ना और छाँव का मेज के पीछे छिप जाना, सूरज की छुवन से नए कैलेण्डर का सिहरना, बाहर उजालों की चुप्पी यानी सन्नाटा और आँगन में बेला का खिलना और बच्चों के खेलने की आहट, चौखट पर लिखे हुए सन्देश आदि बिम्ब सर्दी का मौसम शुरू होने का संकेत दे रहे हैं।

इस संग्रह की लगभग हर रचना में धूप की बात है।

-अगली रचना पन्ने पुरानी डायरी के में वे कहते हैं-
“छतों से ऊपर उड़ीं नीली पतंगें
धूप की या खुशबुओं की हैं उमंगें” (पृष्ठ १९)

इस नवगीत में ‘पुरानी डायरी के पन्ने’ खुलना और नेह के रिश्तों का याद आना धूप और उसकी खुशबू के साथ जुड़ा हुआ है। कच्ची गरी का मौसम, छतों से उड़ती हुई पतंगें देखकर मन भूली बिसरी स्मृतियों में डोलने लगता है। यह धूप ही तो जन-मन की आस है, जिसकी कामना में कवि ने पूरी गीतावली रच दी है।

-अगले नवगीत ‘साथ हैं फिर’ में एक पंक्ति है-

“धूप की पग-डंडियाँ
नीलाभ सपनों की ऋचाएँ
साथ हैं फिर” (पृष्ठ २०)

गीत का भाव यही है कि अगर इंसान के साथ असीम पुलक से भरे पल बाँटते हुए सपने साथ हैं तो लक्ष्य प्राप्ति में बाधा क्योंकर आएगी। उजालों से भरपूर पहाड़, जंगल की हवाएँ, जीवन पथ पर नदी, झरने, चट्टानें, ऋषि-तपोवन, अप्सराएँ आदि बिम्ब इसी बात का संकेत कर रहे हैं


-अगली रचना ‘सुनहरा चाँद पिघला’ में दो पंक्तियाँ हैं...
“धूप लौटी देखकर खुश हो रहे जल
पास बैठी हँस रही चट्टान निश्छल” (पृष्ठ २१)

सुबह की आस में नदी, उसके घाट, नावें रात भर जागे हैं और जैसे ही भोर की धूप नई उम्मीद के साथ लौटती है, लगता है जैसे सुनहरा चाँद पिघल रहा है।
गीत में प्रयुक्त दिन को छूने और अँधेरे को उजाले में बदलने का आह्वान करते हुए शब्द, रेत पर पड़ी शंखी, जल पाखियों के नए जोड़े आदि मन में स्फूर्ति भर देते हैं। उजाले देखकर चट्टान जैसे मजबूत चेहरों पर भी मासूम हास्य प्रस्फुटित होने लगता है।


-अगली रचना ‘दिन नदी गीत फिर’ में कवि कहते हैं-
‘आओ धूप नदी में तैरें’।  (पृष्ठ २२-२३)

यह धूप की नदी उमंगों का पर्याय है, उस पार से दिन बुला रहे हैं तो उनके साथ ही नीली हवा भी धूप के सुर में खुशबुएँ यानी उमंगें बाँट रही है, आम और चीड़ के पेड़ों से बाँसुरी की धुन मन मोह रही है। कवि जन-मन को संबोधित करते हुए कहते हैं, टापू तक सूरज की छाँव, चन्दन की घाटी, नीले जलहंस, रूप की कथाएँ सुनाती हुई किरणें, इन सबके रूप में कितना सुख बिखरा हुआ है, फिर क्यों न इन सबका जी भर आनंद उठाएँ।

-‘नदी के जल में उतर कर’ शीर्षक रचना में धूप नदी के जल में उतर कर साँझ से बात करती है तो ‘गर्म आहट खुशबुओं की’ में वह दबे पाँव कमरे में घुसती है। ‘छाँव के सिलसिले हों’ में कवि खुशबुओं के शहर से गुज़रते हुए धूप की घाटियों में उतरते हैं  (पृष्ठ २७

कुल मिलाकर सार यह कि जीवन में अगर सफलता प्राप्त करनी हो तो साधन होते हुए भी पूरे सब्र और लगन के साथ कर्म-पथ पर चलना होगा साथ ही दिनचर्या में मधुरता और मन के विचारों को हरा-भरा यानी परिष्कृत रखना भी आवश्यक है तभी आसानी से जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

धूप के विभिन चित्रों में कहीं धूप की यादें हैं कहीं सूरज के घर हैं और कहीं गीली हवाओं वाली धूप है। कभी रचनाकार सूरज के पंख हिलते हुए देखता है तो कभी स्वयं को हवा के द्वीप पर बैठा हुआ सूरज अनुभव करता है।
     

“मैं हवा के द्वीप पर बैठा हुआ हूँ
कभी सूरज हूँ, कभी कड़वा धुआँ हूँ” (पृष्ठ ३०)

एक और बिंब देखें-

“कमरे में दिन है, धूप है, भोला टापू है
जिस पर हैं यादें और सूरज के घर”  (पृष्ठ ३१)

एक उदासी वाले गीत में वे कहते हैं-
“सिर्फ आधी मोमबत्ती और धूप की यादें!
पंख टूटे सोचते हैं किस जगह सूरज उतारें” (पृष्ठ ३२-३३)

ये पंक्तियाँ आधा जीवन गुज़र जाने का संकेत देती प्रतीत होती हैं, जब थकान भरे क्षणों में उमंगें दम तोड़ने लगती हैं सिर्फ पुरानी यादें ही उजालों के रूप में विद्यमान होती हैं। तब मन सोचता है काश! वे दिन फिर से लौट आएँ लेकिन जीवन रूपी धूप को विदा होना ही है तो इसी क्षीण होते उजाले में ही यादों रूपी ख़त बाँचते हुए दिन गुज़ारने पड़ते हैं।

अम्मा के व्रत उपवास शीर्षक रचना में धूप का एक नया रूपक सामने आता है-
“पीपल के आसपास, धूप की कनातें
पता नहीं कब की हैं बातें” (पृष्ठ-४०)

शहरों की भीड़ में इंसान जब बहुत कुछ खो चुकता है तो उसके मन को गाँव के पुराने दिनों की यादें अक्सर पीड़ा पहुँचाती रहती हैं। त्यौहारों पर पीपल की परिक्रमा करती हुईं महिलाएँ, माँ के व्रत-उपवास, त्यौहारों की सौगातें, तुलसी की दिया-बाती, नेह की मिठास से भरा भोजन आदि यादें एक चलचित्र के समान गुज़रती हैं।

“तचे तट पर धूप नंगे पाँव लौटी
परी घर में प्रेतवन की छाँव लौटी (पृष्ठ ४४)

निराशा को प्रतिबिंबित करती ये पंक्तियाँ गीत को नया अर्थ दे रही हैं। जब सपनों की नदी सूख जाती है, तो मन उदासी की गर्त में उतरता चला जाता है। ज्यों सूखी रेत पर बिखरे हुए शंख-सीपियाँ व्यथा कथा कह रहे हों और उनकी सुनने वाला कोई नहीं।

‘धूप नंगे पाँव लौटी’ में आखिरी धूप का क्षण आशा की अंतिम किरण के रूप में वर्णित हुआ है।
“खुशबुओं का महल काँप कर रह गया
आखिरी धूप क्षण झील में बह गया” (पृष्ठ ४६)

जिस तरह व्यापार के लिए मोतियों की तलाश में निकले हुए सिंदबाद की नावें किनारों से टकरा-टकरा कर खो जाती हैं, उसी तरह इंसान जब उल्लास रूपी धूप के साथ कुछ पाने की चाह में घर से निकलता है और उसे राह में आँख होते हुए अंधे और संकुचित विचारों वाले लोग मिलते हैं और वांछित फल न मिलने की स्थिति में आशाएँ धूमिल हो जाती हैं, तो वह यहाँ वहाँ भटकता हुआ निराश लौट आता है
आगे-
“फूल भोले क्या करें अंधे शहर में
एक काली झील में डूबे रहे दिन
खुशबुओं की बात से ऊबे रहे दिन
आँख मूँदे धूप लौटी दोपहर में”  (पृष्ठ ४९)

जहाँ शासक ही अंधे, यानी जनता पर होने वाले अत्याचार से बेखबर हों वहाँ फूलों जैसे भोले-भाले मन के लोग क्या कर सकते हैं? अच्छे दिनों की सिर्फ बातें सुनकर वे ऊबने लगते हैं और आशा रूपी उजाले, सीढ़ियों की धूप जैसे ठोकर खाए हुए और टूटे हुए चौखट की तरह खंडहर में बदलते नज़र आते हैं ऐसे में निराश मन गीत कैसे गुनगुना सकता है।

“धूप के पुतले, खड़े हैं छाँव ओढ़े
दिन हठीले, अक्स धुँधले, हुए पोढ़े
शहर गूँजों का यहाँ चुपचाप रहिये
इन्हें सहिये”  (पृष्ठ ५१)

यहाँ धूप के पुतले ऐसे शासकों या सरकारों के प्रतीक हैं जो कपड़े तो उजले पहने हैं लेकिन कर कुछ नहीं सकते। इसलिये चुपचाप अंधेर सहन करना ही जनता की नियति है।

“क्या गज़ब है, छाँव ओढ़े
सो रहे हैं घर
धूप सिर पर चढ़ी
बस्तियों में आग के जलसे हुए हैं
नए सूरज पर चढ़े गहरे धुएँ हैं” (पृष्ठ ५२)

जहाँ धूप के सिर पर चढ़ जाने तक जनता छाँव ओढ़कर सो रही हो वहाँ बेहतर भविष्य की कल्पना करना संभव ही नहीं है। बस्तियों में तबाही मची हुई है और नए सूरज रूपी शासक की आँखों पर धुआँ छाया हुआ है। यहाँ धूप सिर पर चढ़ना मुहावरे का प्रयोग किया गया है।

-“मुँह छिपाए धूप लौटी काँच की बारादरी से
हाल सड़कें पूछती हैं भोर की घायल परी से” (पृष्ठ ५८)

धूप का काँच की बारादरी से लौटना एक रोचक प्रयोग है। जनता न्याय की आस में समर्थों के द्वार पर लगातार गुहार लगाती तो है लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती, उनकी आवाजें दीवारों से सिर फोड़कर इस तरह लौट आती हैं जैसे सुबह की सुखद धूप काँच की बारादरी से टकराकर अन्दर जाने का रास्ता न पाकर वापस चली जाती है।

कुछ नवगीतों में धूप परी है, राजकुमारी है, सोने के महल वाली है, कहीं वह लोगों की मुट्ठी में बंद है, कहीं वह हाँफ रही है और कहीं चतुर बाजीगर धूप के सपने बेच रहे हैं।

-“बाहर से चुस्त चतुर बाजीगर आए हैं
धूप के सपने वे लाए हैं
रेती पर नाव के चलाने का खेल है
बड़ा गज़ब सूरज का सपनों से मेल है”(पृष्ठ ६९)

बाहर से आए चतुर बाजीगर धूप से चमकीले उत्पाद विदेशी कंपनियों के वे आकर्षण हैं जिसमें हम सब फंसते जा रहे हैं।
-“ज़हर पिए दिन लेकर लौटे
जादुई सँपेरे हैं
धूप में अँधेरे हैं”

ये पंक्तियाँ एक ऐसे राज्य का हाल बयाँ कर रही हैं जहाँ नाम को तो मीनारें, गुम्बज आदि रूपी सुख सुविधाएँ मौजूद हैं लेकिन शासक स्वयं इनको निगलकर इस तरह व्यवहार कर रहे हैं जैसे किसी सँपेरे ने उजले दिनों को विष पिलाकर अँधेरे में बदल दिया हो।

-“धूप ऊपर और नीचे छाँव’  (पृष्ठ ७२)
ये पंक्तियाँ सुविधा संपन्न शासकों और असुविधाजनक जीवन जीते जन साधारण की ओर इशारा करती हैं। एक स्थान पर वे पदच्युत राजनयिक के बारे में बात करते हुए कहते हैं –

-“काँच घरों की चौहद्दी में, कैद हुए सूरज
जश्न धूप के ज़िन्दा कैसे, यही बड़ा अचरज” (पृष्ठ ७५)

यहाँ यह स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि पद पर रहते समय ही कुछ लोग इतना संग्रह कर लेते हैं कि पद छिन जाने के बाद भी उनके ऐशो आराम में कोई कमी नहीं आती।

अगली रचना में धूप एक बच्चा है जो दिन के मसौदे अपने हाथ में पकड़े हुए है। एक नवगीत में धूपघर की छावनी है लेकिन फिर भी गहरा अँधेरा हर ओर बिखरा है। कहीं रचनाकार धूप लेकर ऐसे शहर में आने की बात करता है’ जहां सूरज मुँह ढँक कर सोए हुए हैं, तो कहीं लोग घने सायों से घिरे धूप से ऊबे हुए हैं। एक गीत में धूप एक बूढ़ी किताब है और एक अन्य गीत में धूप की हथेली पर राख के दिठौने लगे हैं।

-“धूप में छाँव में
जल रहीं पत्तियाँ
हर गली-गाँव में”  (पृष्ठ ८७)

जैसे पतझर में पेड़-पौधों की पत्तियों पर धूप या छाँव का कोई असर नहीं होता और वे सूखकर या जलकर गिर जाती हैं, इसी तरह अब लोगों पर अच्छी या बुरी किसी भी बात का कोई असर नहीं होता।

कुमार रवीन्द्र जी के इस संग्रह में ७५ गीत संकलित हैं। सुगठित शिल्प, सटीक बिम्ब, सुन्दर उपमाओं और सार्थक भावों के साथ धूप की विभिन्न छबियाँ प्रतिबिंबित करते हुए ये गीत-पंख किसी मनोरंजक उपन्यास के अनेक पात्रों की तरह पाठक के मन के साथ चलते हुए जीवन जीने के नए रास्ते तलाश करने की जिज्ञासा पैदा कर, पाठक को जीवन का सार सौंपकर विदा लेते हैं।

ये न केवल कल्पना की आकर्षक छवियाँ बुनते हैं बल्कि समकालीन शासक वर्ग, समाज, संस्कृति, निराशा, उदासी और उत्साह की विभिन्न समस्याओं को भी ईमानदारी से अपने शब्द देते हैं।

यह जीवन प्रकृति का एक अनमोल उपहार है, उजाले हमें विरासत में मिले हैं। इनसे ही जीवन में उर्जा है, संगीत है, पर्व हैं, ओज है, मौज है, जहाँ उजालों की रवानी होगी वहीं ज़िन्दगी में जवानी भी होगी। कुल मिलाकर यह कि इस संग्रह में नवगीतकार कुमार रवीन्द्र द्वारा रचित धूप की अनंत छवियाँ हमें प्रेरित करती है, सचेत करती हैं और आशान्वित भी करती है। हम सब इस उजली धूप के गुणों को, उसकी खुश्बू को पहचानें, अपने जीवन में उतारें और उम्मीदों के नए पंख पहनकर संभावनाओं के अनंत आकाश में उड़ान भरें, इन पंखों को टूटने या बिखरने न दें।


१५ दिसंबर २०१५

navgeet -

एक रचना :
लोग कहेंगे क्या?
*
लोग कहेंगे क्या?
नहीं, इसकी कुछ परवाह
*
जो निचला
उसको गलत
कहते ऊपर बैठ
आम आदमी की
रहे रोक
न्याय में पैठ
जिसने मारा
मुक्त वह
झुठला दिये प्रमाण
आरोपी को हितु बन
दे संकट से त्राण
डरिये!
ढहा न दे महल
लग गरीब की आह
*
दोष-
शयन फुटपाथ पर
दण्ड
कुचल दे कार
मदहोशी में
हो तुरत 
चालक छली फरार
साक्ष्य सभी
झूठे मगर
सच्चा है इंकार
अँधा तौले
न्याय, है
दस दिश हाहाकार
आम आदमी
विवश है 
मौज मनाते शाह
***

navgeet

एक रचना -
*
बंदर मामा 
चीन्ह -चीन्ह कर 
न्याय करे 
*
जो सियार वह भोगे दण्ड
शेर हुआ है अति उद्दण्ड
अपना & तेरा मनमानी
ओह निष्पक्ष रचे पाखण्ड
जय जय जय
करता समर्थ की
वाह करे
*
जो दुर्बल वह पिटना है
सच न तनिक भी पचना है
पाटों बीच फँसे घुन को
गेहूं के सँग पिसना है
सत्य पिट रहा
सुने न कोई
हाय करे
*
निर्धन का धन राम हुआ
अँधा गिरता खोद कुँआ
दोष छिपा लेता है धन
सच पिंजरे में कैद सुआ
करते आप
गुनाह रहे, भरता कोई
विवश मरे
***
१२.१२. १५

navgeet

एक रचना
अंधे पीसें
*
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
शीर्षासन कर सच को परखें
आँख मूँद दुनिया को निरखें
मनमानी व्याख्या-टीकाएँ
सोते - सोते
ज्यों बर्राएँ
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
आँखों पर बाँधे हैं पट्टी
न्याय तौलते पीकर घुट्टी
तिल को ताड़, ताड़ को तिल कर
सारे जग को
मूर्ख बनायें
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
तुम जिंदा हो?, कुछ प्रमाण दो
देख न मानें] भले प्राण दो
आँखन आँधर नाम नैनसुख
सच खों झूठ
बता हरषाएं
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
***
१२ - १२- १५

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

navgeet

एक रचना  - 

समय के संतूर पर  
सरगम सुहानी 
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*

सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे न कह
पाये कि कैसी
धज रही?
*

विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*

पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही. 

drushtant alankar -sanjiv

अलंकार सलिला ४०

दृष्टान्त अलंकार

अलंकार दृष्टान्त को जानें, लें आनंद
*



















*
अलंकार दृष्टान्त को, जानें-लें आनंद| भाव बिम्ब-प्रतिबिम्ब का, पा सार्थक हो छंद|| जब पहले एक बात कहकर फिर उससे मिलती-जुलती दूसरी बात, पहली बात पहली बात के उदाहरण के रूप में कही जाये अथवा दो वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो तब वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है|
जहाँ उपमेय और उपमान दोनों ही सामान्य या दोनों ही विशेष वाक्य होते हैं और उनमें बिम्ब - प्रतिबिम्ब भाव हो तो दृष्टांत अलंकार होता है|
दृष्टान्त में दो वाक्य होते हैं, एक उपमेय वाक्य, दूसरा उपमान वाक्यदोनों का धर्म एक नहीं होता पर एक समान होता है|
उदाहरण: १. सिव औरंगहि जिति सकै, और न राजा-राव| हत्थी-मत्थ पर सिंह बिनु, आन न घालै घाव|| यहाँ पहले एक बात कही गयी है कि शिवाजी ही औरंगजेब को जीत सकते हैं अन्य राजा - राव नहीं| फिर उदाहरण के रूप में पहली बात से मिलती-जुलती दूसरी बात कही गयी है कि सिंह के अतिरिक्त और कोई हाथी के माथे पर घाव नहीं कर सकता|
२. सुख-दुःख के मधुर मिलन से, यह जीवन हो परिपूरन| फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि में ओझल हो घन|| ३. पगीं प्रेम नन्द लाल के, हमें न भावत भोग| मधुप राजपद पाइ कै, भीख न माँगत लोग|| ४. निरखि रूप नन्दलाल को, दृगनि रुचे नहीं आन| तज पीयूख कोऊ करत, कटु औषधि को पान|| ५. भरतहिं होय न राजमद, विधि-हरि-हर पद पाइ| कबहुँ कि काँजी-सीकरनि, छीर-सिन्धु बिलगाइ|| ६. कन-कन जोरे मन जुरै, खाबत निबरै रोग| बूँद-बूँद तें घट भरे, टपकत रीतो होय|| ७. जपत एक हरि नाम के, पातक कोटि बिलाहिं| लघु चिंगारी एक तें, घास-ढेर जरि जाहिं|| ८. सठ सुधरहिं सत संगति पाई| पारस परसि कु-धातु सुहाई|| ९. धनी गेह में श्री जाती है, कभी न जाती निर्धन-घर में| सागर में गंगा मिलती है, कभी न मिलती सूखे सर में||

१०. स्नेह - 'सलिल' में स्नान कर, मिटता द्वेष - कलेश|
सत्संगति में कब रही, किंचित दुविधा शेष||

११. तिमिर मिटा / भास्कर मुस्कुराया / बिन उजाला / चाँद सँग चाँदनी / को करार न आया| - ताँका
टिप्पणी: १. दृष्टान्त में अर्थान्तरन्यास की तरह सामान्य बात का विशेष बात द्वारा या विशेष बात का सामान्य बात द्वारा समर्थन नहीं होता| इसमें एक बात सामान्य और दूसरी बात विशेष न होकर दोनों बातें विशेष होती हैं| २. दृष्टान्त में प्रतिवस्तूपमा की भाँति दोनों बातों का धर्म एक नहीं होता अपितु मिलता-जुलता होने पर भी भिन्न-भिन्न होता है|

***

नवगीत -

एक रचना -
ठेंगे पर कानून
*
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
जनगण - मन ने जिन्हें चुना
उनको न करें स्वीकार
कैसी सहनशीलता इनकी?
जनता दे दुत्कार
न्यायालय पर अविश्वास कर
बढ़ा रहे तकरार
चाह यही है सजा रहे
कैसे भी हो दरबार
जिसने चुना, न चिंता उसकी
जो भूखा दो जून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
सरहद पर ही नहीं
सडक पर भी फैला आतंक
ले चरखे की आड़
सँपोले मार रहे हैं डंक
जूते उठवाते औरों से
फिर भी हैं निश्शंक
भरें तिजोरी निज,जमाई की
करें देश को रंक
स्वार्थों की भट्टी में पल - पल
रहे लोक को भून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
परदेशी से करें प्रार्थना
आ, बदलो सरकार
नेताजी को बिना मौत ही
दें कागज़ पर मार
संविधान को मान द्रौपदी
चाहें चीर उतार
दु:शासन - दुर्योधन की फिर
हो अंधी सरकार
मृग मरीचिका में जीते
जैसे इन बिन सब सून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

laghukatha

लघुकथा -
गुलामी का अनुबंध
*
संसद में सरकार पर असहनशीलता और तानाशाही का आरोप लगाकर लगातार कार्यवाही ठप करनेवालों की सहनशीलता का नमूना यह कि उनके एक नेता पडोसी देश के प्रधान मंत्री से अपने देश की सरकार बदलने का अनुरोध करते हैं, वे जनता द्वारा ५ साल के लिये चुनी गयी सरकार एक पल सहन करने को तैयार नहीं है और उनके एक वरिष्ठ और उम्रदराज नेता दल की यव उपाध्यक्ष के पैरों में अपने हाथ से खुले-आम जूते पहनाते हैं, इससे अधिक तानाशाही और क्या हो सकती है?

इसमें नया भी कुछ नहीं है. उनके चचाजान ने भी अपने पिता की उम्र के नेता के हाथों जूते पहने थे. गुलामी के सबसे बड़ा अनुबंध उनकी दादी ने आपातकाल लगाकर किया था. युवराज अपने पुरखों के नक़्शे-कदम पर चलें तो परिणाम भी याद रखें।
*

चन्द माहिया : क़िस्त 24

माहिया :  क़िस्त 24

:1:

ये इश्क़,ये कूच-ए-दिल
दिखने में आसाँ
जीना ही बहुत मुश्किल

:2:

दिल क्या चाहे जानो
मैं न बुरा मानू
तुम भी न बुरा मानो

  :3:
सच कितना हसीं हो तुम
चाँद किधर देखूं
ख़ुद माहजबीं हो तुम

:4:
जाड़े की धूप सी तुम
मखमली छुवन सी
लगती हो रूपसी तुम

:5:
फिर लौट गया बादल
बिन बरसे घर से
भींगा न मिरा आंचल

-आनन्द पाठक
09413395592