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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015

upma alankar

: अलंकार चर्चा १८ :



















उपमा अलंकार * जब दो शब्दों में मिले, गुण या धर्म समान. 'उपमा' इंगित कर उसे, बन जाता रस-खान.. जो वर्णन का विषय हो, जिसको कहें सच जान. 'सलिल' वही 'उपमेय' है, निसंदेह लें मान.. जिसके सदृश बता रहे, वह प्रसिद्ध 'उपमान' जोड़े 'वाचक शब्द' औ', 'धर्म' हुआ गुण-गान.. 'उपमा' होता 'पूर्ण' जब, दिखते चारों अंग. होता वह 'लुप्तोपमा', जब न दिखे जो अंग.. आरोपित 'उपमेय' में होता जब 'उपमान'. 'वाचक शब्द' न 'धर्म' हो, तब 'रूपक' अनुमान.. साम्य सेतु उपमा रचे, गुण बनता आधार. साम्य बिना दुष्कर 'सलिल', जीवन का व्यापार.. उपमा इकटक हेरता, टेर रहा उपमान. न्यून नहीं हूँ किसी से, मैं भी तो श्रीमान.. इस गुहार की अनसुनी न कर हम उपमा से ही साक्षात् करते हैं. जब किन्हीं दो भिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं में किसी गुण या वृत्ति के आधार पर समानता स्थापित होती है तो वहाँ उपमा अलंकार होता है. उपमा के ४ अंग होते हैं. १. उपमेय: वर्णन का विषय या जिसके सम्बन्ध में बात की जाए या जिसे किसी अन्य के समान बताया जाए वह 'उपमेय' है. 2. उपमान: उपमेय की समानता जिस वस्तु से की जाए या उपमेय को जिसके समान बताया जाये वह उपमान होता है. ३. वाचक शब्द: उपमेय और उपमान के बीच जिस शब्द के द्वारा समानता बताई जाती है, उसे वाचक शब्द कहते हैं. ४. साधारण धर्म: उपमेय और उपमान दोनों में पाया जानेवाला गुण जो समानता का कारक हो, उसे साधारण धर्म कहते हैं. उदाहरण: शब्द बचे रहें जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते - मंगेश डबराल, साहित्य शिल्पी में इस छंदमुक्त कविता में 'शब्द' उपमेय, 'चिडियों' उपमान, 'तरह' वाचक शब्द तथा 'पकड़ में नहीं आते' साधारण धर्म है. उपमा अलंकार के प्रकार: उपमा के उक्त चारों अंग कभी स्पष्ट दिखते हैं, कभी अदृश्य रहते हैं. १. पूर्णोपमा- जहाँ उपमेय, उपमान, वाचक शब्द व साधारण धर्म इन चारों अंगों का उल्लेख हो. उदाहरण: १. सागर सा गंभीर ह्रदय हो, गिरि सा ऊँचा हो जिसका मन ध्रुव सा जिसका अटल लक्ष्य हो, दिनकर सा हो नियमित जीवन उपमेय- ह्रदय, मन,लक्ष्य, जीवन उपमान- सागर, गिरि, ध्रुव, दिनकर साधारण धर्म- गंभीर, ऊँचा, अटल, नियमित वाचक शब्द- सा २. घिर रहे थे घुँघराले बाल, अंस अवलंबित मुख के पास नीलघन शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास उपमेय- घुँघराले बाल उपमान- नीलघन शावक साधारण धर्म- सुकुमार वाचक शब्द- से २. लुप्तोपमा- जहाँ उक्त चार अंगों में से किसी या किन्हीं का उल्लेख न हो अर्थात वह लुप्त हो तो वहाँ 'लुप्तोपमा अलंकार' होता है. लुप्तोपमा के ४ भेद: उक्त में से जो अंग लुप्त होता है उसके नाम सहित लुप्तोपमा को पहचाना जाता है. (१) उपमेय लुप्तोपमा: जब उपमेय का उल्लेख न हो, यथा: पड़ी थी बिजली सी विकराल, घन जैसे बाल कौन छेड़े ये काले साँप?, अवधपति उठे अचानक काँप (२) उपमान लुप्तोपमा: जब उपमान का उल्लेख न हो, यथा: तीन लोक झाँकी ऐसी दूसरी न बाँकी जैसी झाँकी झाँकी बाँकी जुगलकिशोर की (३) धर्म लुप्तोपमा: जब धर्म का उल्लेख न हो यथा: प्रति दिन जिसको मैं अंक में साथ ले के निज सकल कुअंकों की क्रिया कीलती की अतिप्रिय जिसका है वस्त्र पीला निराला वह किसलय के अंग वाला कहाँ है? (४) वाचक लुप्तोपमा: जब वाचक शब्द का उल्लेख न हो, यथा: नील सरोरुह श्याम, तरुन अरुन वारिज नयन करहु सो मम उर धाम, सदा क्षीर सागर सयन यथा: १. 'माँगते हैं मत भिखारी के समान' - यहाँ भिखारी उपमान, समान वाचक शब्द, माँगना साधारण धर्म हैं किन्तु मत कौन माँगता है, इसका उल्लेख नहीं है. अतः, उपमेय न होने से यहाँ उपमेय लुप्तोपमा है. २. 'भारत सा निर्वाचन कहीं नहीं है'- उपमेय 'भारत', वाचक शब्द 'सा', साधारण धर्म 'निर्वाचन' है किन्तु भारत की तुलना किस से की जा रही है?, यह उल्लेख न होने से यहाँ उपमान लुप्तोपमा है. ३. 'जनता को अफसर खटमल सा'- यहाँ अफसर उपमेय, खटमल उपमान, सा वाचक शब्द है किन्तु खून चूसने के गुण का उल्लेख नहीं है. अतः, धर्म लुप्तोपमा है. ४. 'नव शासन छवि स्वच्छ गगन'- उपमेय नव शासन, उपमान गगन, साधारण धर्म स्वच्छ है किन्तु वाचक शब्द न होने से 'वाचक लुप्तोपमा' है. *********** उदाहरण : १. और किसी दुर्जय बैरी से, लेना हो तुमको प्रतिशोध तो आज्ञा दो, उसे जला दे दावानल सा मेरा क्रोध - मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी २. यहीं कहीं पर बिखर गयी वह, भग्न विजय माला सी. उनके फूल यहाँ संचित हैं, यह स्मृति शाला सी. ३. सुनि सुरसरि सम पावन बानी. - तुलसीदास, रामचरित मानस ४. अति रमणीय मूर्ति राधा की. ५. नव उज्जवल जल-धार हार हीरक सी सोहित. ६. भोगी कुसुमायुध योगी सा बना दृष्टिगत होता है.- मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी ७. नव अम्बुज अम्बर छवि नीकी. - तुलसीदास, रामचरित मानस ८. मुख मयंक सम मंजु मनोहर. ९. सागर गरजे मस्ताना सा. १०. वह नागिन सी फुफकार गिरी. ११. राधा-वदन चन्द्र सौं सुन्दर. १२. नवल सुन्दर श्याम शरीर की. सजल नीरद सी कल कांति थी. १३. कुंद इंदु सम देह. - तुलसीदास, रामचरित मानस १४. पडी थी बिजली सी विकराल, लपेटे थे घन जैसे बाल. १५. जीते हुए भी मृतक सम रहकर न केवल दिन भरो. १६. मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ. १७. छत्र सा सर पर उठा था प्राणपति का हाथ. १८. लज संकोच विकल भये मीना, विविध कुटुम्बी जिमि धन हीना. १९. सहे वार पर वार अंत तक लड़ी वीर बाला सी. २०.माँ कबीर की साखी जैसी, तुलसी की चौपाई सी. माँ मीरा की पदावली सी माँ है ललित रुबाई सी. माँ धरती के धैर्य सरीखी, माँ ममता की खान है. माँ की उपमा केवल माँ है, माँ सचमुच भगवान है.- जगदीश व्योम, साहित्य शिल्पी में. २१. मंजुल हिमाद्रि का मुकुट शीर्ष राज रहा पद में कमल सा- खिला प्रसन्न लंका है -बृजेश सिंह, आहुति महाकाव्य २२.पूजा की जैसी हर माँ की ममता है माँ की लोरी में मुरली सा जादू है - प्राण शर्मा, साहित्य शिल्पी में २३. रिश्ता दुनियाँ में जैसे व्यापार हो गया - श्यामल सुमन, साहित्य शिल्पी में २४. चहकते हुए पंछियों की सदाएं, ठुमकती हुई हिरणियों की अदाएं! - धीरज आमेटा, साहित्य शिल्पी में ===========================

navgeet

नवगीत :

समय के संतूर पर 
सरगम सुहानी 
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*

सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे न कह
पाये कि कैसी
धज रही?
*

विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*

पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही. 

navgeet

नवगीत:
किस पण्डे की जय बोलें 
किस डंडे को रोयें, 
हर चुनाव में आश्वासन की 
खेती होती है.
बेबस जनता
पाँच साल तक
बरबस रोती है.
*
केंद्र, राज्य, पंचायत, मंडी,
कॉलेज या स्कूल.
जब भी होता कहीं इलेक्शन
हिल जाती है चूल.
ताड़ बना देते तिनके को
नाहक देकर तूल.
धोखा देते एक-दूजे को
नाता-रिश्ता भूल.
अनदेखी करते तूफां की
झोंक आँख में धूल.
किस झंडे की जय बोलें
किस गुंडे को रोयें,
हर चुनाव में फटा चीर, चुप
कृष्णा खोती है.
हर घुमाव है
भूल-भुलैयाँ
फँस मति खोती है.
बेबस जनता
पाँच साल तक
बरबस रोती है.
*
गिद्ध, बाज, भेड़िया खड़े हैं
ले पैने नाखून.
तनिक विरोध किया तो होगा
गौरैयों का खून.
देश-विदेश मटकता फिरता
नेता अफ़लातून.
सुत, जमाई,साले खाते
नैतिकता-मुर्गा भून.
सुरा-सुंदरी की बहार है
गली-गली रंगून.
किस फंदे की जय बोलें
किस चंदे को रोयें,
हर चुनाव में खूं -आँसू पी
भूखी सोती है.
घिर अभाव में
बेच रही मत
काँटे बोती है.
बेबस जनता
पाँच साल तक
बरबस रोती है.
*

geet-pratigeet

रचना - प्रति रचना: 
गीत:
घुल गए परछाइयों में चित्र थे जितने

प्रार्थना में उंगलियाँ जुडती रहीं
आस की पौधें उगी तुड्ती रहीं
नैन छोड़े हीरकनियाँ स्वप्न की
जुगनुओं सी सामने उड़ती रहीं 

उंगलियाँ गिनने न पाईं  दर्द थे कितने

फिर हथेली एक फ़ैली रह गई
आ कपोलों पर नदी इक बह गई
टिक नहीं पाते घरोंदे रेत  के
इक लहर आकर दुबारा कह गई

थे विमुख पल प्राप्ति के सब,रुष्ट थे इतने

इक अपेक्षा फिर उपेक्षित हो गई
भोर में ही दोपहर थी सो गई
सावनों को लिख रखे सन्देश को
मरुथली अंगड़ाई आई धो गई 

फिर अभावों में लगे संचित दिवस बंटने 

राकेश खंडेलवाल
५ अक्तूबर २०१५
------------------
प्रतिगीत:

[माननीय राकेश खण्डेलवाल जी को समर्पित]
*
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने
शेष हैं अवशेष मात्र 
पवित्र थे जितने.
क्षितिज पर भास्कर-उषा सँग 
मिला थामे हाथ. 
तुहिन कण ने नवाया फिर 
मौन धारे माथ.
किया वंदन कली ने 
नतशिर हुआ था फूल-
हाय! डाली पवन ने 
मृदु भावना पर धूल. 
दुपहरी तपती रही 
चुभते रहे हँस शूल. 
खो गये अमराइयों में 
मित्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने.
 
साँझ मोहक बाँझ 
चाहे सूर्य को ले बाँध. 
तोड़कर भुजपाश  
थामे वह निशा का काँध 
जला चूल्हा  धुएँ से नभ 
श्याम, तम का राज्य. 
चाँद तारे चाँदनी 
मन-प्राण ज्यों अविभाज्य. 
स्नेह को संदेह हरदम 
ही रहा है त्याज्य.
श्वास-प्रश्वासों में घुलते 
इत्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने.
 
हवा लोरी सुनाती 
दिक् शांत निद्रा लीन.
नर्मदा से नेह पाकर 
झूम उठती मींन.
घाट पर गौरी विराजी 
गौर का धर ध्यान.
सावनों  में, फागुनों में 
गा सृजन का गान.
विंध्य मेकल सतपुड़ा  
श्रम का सुनाते गान.
'सलिल' संजीवित सपन  
विचित्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने.
==========

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

व्यंग्य लेख:

Sanjeev Persai की प्रोफाइल फोटोगउमाता मेरे सपने में !!!

संजीव परसाई
*

आजकल गउमाता का जमाना है। अचानक रातों रात गउमाता महत्वपूर्ण हो चली हैं। हर कोई गउमाता को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे पहले व्यक्त करने को आमादा है। सड़क से लेकर संसद तक गउमाता की ही चर्चा हो रही है। गाय छाप नेता, गाय छाप राजनीति करने में अपने आप को भली प्रकार व्यस्त रखे हैं।

एक दिन मेरे सपने में गउमाता आई। लगीं डांटने मुझे, कहने लगीं - तुम लोग मुझे मां का दर्जा देते हो। नालायकों जानते भी हो कि मां होती क्या हैमेरे दूध से लेकर सींग खुर तक का सौदा तुम लोगों ने पहले से ही कर रखा है इसिलिए मुझे कामधेनु का नाम दे दिया। हालत यह है कि मेरा जीवन सिर्फ इस बात से उपयोगी या अनुपयोगी मानते हो कि मैं दूध देती हूँ या नहीं। दूधवाला ज्यादा दूध के लिए इंजेक्शन लगाता है। उसे एक आध लीटर दूध जरूर ज्यादा मिल जाता हैलेकिन मेरा तो जीवन ही नर्क हो जाता है।  डेयरी में या मुझे पालने वाले मेरी सेवा भी तभी तक करते हैं जब तक कि मैं दुधारू होती हूँ। उसके बाद मेरा कोई भी नहीं है।

मैंने कहा मातेसरकार आपके लिए गौशाला बनाती हैजहां आप अपना जीवन गुजार सकती हैं। गउमाता बोलीं - तुम यह पढ़ी या सुनी हुई बातें कह रहे हो। अगर हकीकत जानना हो तो कभी जाकर इन गउशालाओं की हालत देखना कि जिसे तुम मां कहते हो उसकी वहां आकर क्या हालत हो जाती है। अधिकांशा गौपालक दूध बंद होने या मेरी उम्र निकल जाने पर मुझे सड़क का जूठनकचरा और पन्नी खाने के लिए छोड़ देते हैं। मेरे नाम पर राजनीति तो करते हो पर मेरी समस्याओं का समाधान नहीं खोजते। जिसे तुम माँ कहते हो उसके सुखमय जीवन के लिए है कोई योजना तुम्हारे पास? मैं तुम्हें आदेश देती हूं कि तुम कल तक मेरी समस्याओं का जवाब लाओनहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगी।


गउमाता की गुर्राहट से मेरी नींद खुल गयी। लेकिन सपने की वास्तविकता ने मुझे व्यथित कर दिया। गउमाता के सवाल रह-रहकर मुझे परेशान करने लगे। मैं आम आदमी भला क्या करता। सो पशुपालन विभाग के मंत्री के पास दौड़ गया। बंगले पर पता लगा कि मंत्री जी अभी सो रहे हैं। आप आफिस पहुंचो वहीं मुलाकात होगी। मैं समय पर आफिस पहुंच गया, चारों ओर सन्नाटा देखकर हैरान था। लेकिन पीए ने बताया कि ये तो रोज का मामला है। ये तो वैसे भी लूपलाइन का विभाग है। घंटेभर के इंतजार के बाद मंत्रीजी डोलते डोलते पहुंचे। चैबर में पहुंचे तो उनके पीछे पीछे चाय का केतली लेकर प्यादा भी पहुँच गया। आधा घंटा बाद (शायद चाय पीने के बाद) उन्हें बताया गया कि कोई आपसे मिलना चाहता है। गउमाता के बारे में बात करना चाहता है। मुझे बुलावा आया।


मैंने नमस्कार करके उन्हें सपने वाली बात बताईसाथ ही गउमाता की धमकी वाली बात भी सुनाई और समस्याओं का समाधान चाहा। पहले तो वे ठठाकर हंसे,फिर कहने लगे - उन्हें कहिएगा, हम मां को क्यों नहीं पहचानेंगे। हमने तो अभी अपनी अम्मा के मोतिया का आपरेशन कराया है। मां देवी होती है वैसे ही गउमाता भी देवी है। हमने उनके मंदिर भी बनवाए हैंहमारे देवताओं के साथ उनकी पूजा भी तो करते हैं। हम चाहते हैं कि गउमाता का पूरा ख्याल रखा जाए। हमारी सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है। हम जागरूकता लाएंगे। हमने बजट में गउमाता की संरक्षा के लिए विषेष प्रावधान किए हैं। वे पन्नी न खाएं इसिलिए हमने पन्नी पर ही रोक लगवा दी। उनके स्वच्छंद विचरण के लिए हमने हमने पक्की सड़कें बना रखीं हैं भले ही शहरों का ट्रेफिक ही क्यों प्रभावित न हो। हम इनके लिए जल्द ही कोई ठोस उपाय करने वाले हैं। ठीक है अभी मुझे निकलना है आप उन्हें बताइएगा।

मैं भी वापस हो लिया, रास्ते भर सोचता रहा कि इन्होंने यह सब किया है तो गउमाता की हालत इतनी खराब क्यों हैफिर सोचने लगा कि मुझे क्या मैं तो यही जवाब दे दूंगा। पर क्या वो मानेगीवो गउमाता हैमेरी माता थोड़ी जो झूठ को भी सच मान लेती है। मेरा शाप तो पक्का है....

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रविवार, 4 अक्टूबर 2015

arthalankar

: अलंकार चर्चा १६ :

अर्थालंकार :  
*
रूपायित हो अर्थ से, वस्तु चरित या भाव 
तब अर्थालंकार से, बढ़ता काव्य-प्रभाव 

कारण-कार्य विरोध या, साम्य बने आधार 
तर्क श्रृंखला से 'सलिल', अर्थ दिखे साकार

जब वस्तु, भाव, विचार एवं चरित्र का रूप-निर्धारण शब्दों के चमत्कार के स्थान पर शब्दों के अर्थ से किया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार होता है. अर्थालंकार के निरूपण की प्रक्रिया का माध्यम सादृश्य, वैषम्य, साम्य, विरोध, तर्क, कार्य-कारण संबंध आदि होते हैं.  
अर्थालंकार के प्रकार-  
अर्थालंकार मुख्यत: ७ प्रकार के हैं 
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार
६. लोकनयायमूलक अर्थालंकार
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार:
इस अलंकार का आधार किसी न किसी प्रकार (व्यक्ति, वस्तु, भाव,विचार आदिकी समानता होती है. सबसे अधिक व्यापक आधार युक्त सादृश्य मूलक अलंकार का उद्भव किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का निरूपण करने के लिये समान गुण-धर्म युक्त अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि से तुलना अथवा समानता बताने से होता है. प्रमुख साधर्म्यमूलक अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, पटटीप, भ्रान्ति, संदेह, स्मरण, अपन्हुति, व्यतिरेक, दृष्टान्त, निदर्शना, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि हैं. किसी वस्तु की प्रतीति कराने के लिये प्राय: उसके समान किसी अन्य वस्तु का वर्णन किया जाता है. किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का वर्णन करने से इष्ट अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का चित्र स्पष्ट कराया जाता है. यह प्रक्रिया २ वर्गों में विभाजित की जा सकती है.  
अ. गुणसाम्यता के आधार पर  

आ. क्रिया साम्यता के आधार पर तथा 
इनके विस्तार अनेक प्रभेद सदृश्यमूलक अलंकारों में देखे जा सकते हैं. गुण साम्यता के आधार पर २ रूप देखे जा सकते हैं: 
१. सम साम्य-वैषम्य मूलक- समानता-असमानता की बराबरी हो. जैसे उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, संदेह, प्रतीप आदि अलंकारों में.  
२. साम्य प्रधान - अत्यधिक समानता के कारण भेदहीनता।  यह भेद हीनता आरोप मूलक तथा समाहार मूलक दो तरह की होती है.

इनके २ उप वर्ग क. आरोपमूलक व ख समाहार या अध्यवसाय मूलक हैं.

क. आरोपमूलक अलंकारों में प्रस्तुत (उपमेय) के अंदर अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप किया जाता है. जैसे रूपक, परिणाम, भ्रांतिमान, उल्लेख अपन्हुति आदि में.
समाहार या अध्यवसाय मूलक अलंकारों में उपमेय या प्रस्तुत में उपमान या अप्रस्तुत का ध्यवसान हो जाता है. जैसे: उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि.  

ख. क्रिया साम्यता पर आधारित अलंकारों में साम्य या सादृश्य की चर्चा न होकर व्यापारगत साम्य या सादृश्य की चर्चा होती है. तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, शक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप आदि अलंकार इस वर्गान्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं. इन अलंकारों में सादृश्य या साम्य का स्वरुप क्रिया व्यापार के रूप में प्रगट होता है. इनमें औपम्य चमत्कार की उपस्थिति के कारण इन्हें औपम्यगर्भ भी कहा जाता है. 

२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार- 

इन अलंकारों का आधार दो व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का अंतर्विरोध होता है. वस्तु और वास्तु का, गुण और गुण का, क्रिया और क्रिया का कारण और कार्य का अथवा उद्देश्य और कार्य का  या परिणाम का विरोध ही वैशान्य मूलक अलंकारों का मूल है. प्रमुख वैषम्यमूलक अलंकार विरोधाभास, असंगति, विभावना, विशेषोक्ति, विषम, व्याघात, अल्प, अधिक आदि हैं. 

३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार- 

इन अलंकारों का मूल आधार क्रमबद्धता है. एकावली, करणमाला, मालदीपक, सार आदि अलंकार इस वर्ग में रखे जाते हैं. 

४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार- 

इन अलंकारों का उत्स तर्कप्रवणता में अंतर्निहित होती है. काव्यलिंग तथा अनुमान अलंकार इस वग में प्रमुख है. 

५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार-

इस वर्ग में परिसंख्या, यथा संख्य, तथा समुच्चय अलंकार आते हैं. 

६. लोकन्यायमूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों की प्रतीति में लोक मान्यताओं का योगदान होता है. जैसे तद्गुण, अतद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य ततः विशेषक अलंकार आदि.


७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार- किसी कथ्य के पीछे छिपे अन्य कथ्य की प्रतीति करने वाले इस अलंकार में प्रमुख सूक्षम, व्याजोक्ति तथा वक्रोक्ति हैं. 

==================================================  निरंतर १७. 


doha

आज का दोहा:
*
दुखी हुआ ताजिंदगी, सुनी न कांता-राय
सुखी हुआ जब स्नेह का, खोल लिया अध्याय
*

doha-muktak

आज का दोहा-मुक्तक :

पूजा कृष्णा को तनिक, कृष्ण हो गये रुष्ट

कोई कहे कैसे करें, हम सब को संतुष्ट?

माखन-मिसरी भूलकर, पिज्जा-बर्गर ठूँस

चाहें जसुदा कन्हैया, हों पहले से पुष्ट। 

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

मुकतक

मुक्तक :
सज्जित कर दे रत्न मणि, हिंदी मंदिर आज 
'सलिल' निरंतर सृजन कर, हो हिंदी-सर ताज
सरकारों ने कब किया भाषा का उत्थान?
जनवाणी जनतंत्र में, कब कर पाई राज??

alankar

: अलंकार चर्चा १५ :
शब्दालंकार : तुलना और अंतर
*
शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार
यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग
साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत
शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.
अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:
समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
*
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)
आ. लाटानुप्रास और यमक:
समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
*
ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)
इ. यमक और श्लेष:
समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
*
चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)
*
ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:
समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
कहा 'पहन लो चूड़ियाँ', तो हो क्यों नाराज?
कहा सुहागिन से गलत, तुम्हें न आती लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
***

navgeet

नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर. 
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में 
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
*

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

punruktwadabhas alankar

: अलंकार चर्चा १४ :
पुनरुक्तवदाभास अलंकार
*
जब प्रतीत हो, हो नहीं, काव्य-अर्थ-पुनरुक्ति
वदाभास पुनरुक्त कह, अलंकार कर युक्ति

जहँ पर्याय न मूल पर, अन्य अर्थ आभास.
तहँ पुनरुक्त वदाभास्, करता 'सलिल' उजास..

शब्द प्रयोग जहाँ 'सलिल', ना पर्याय- न मूल.
वदाभास पुनरुक्त है, अलंकार ज्यों फूल..

काव्य में जहाँ पर शब्दों का प्रयोग इस प्रकार हो कि वे पर्याय या पुनरुक्त न होने पर भी पर्याय प्रतीत हों पर अर्थ अन्य दें, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है.

किसी काव्यांश में अर्थ की पुनरुक्ति होती हुई प्रतीत हो, किन्तु वास्तव  में अर्थ की पुनरुक्ति न हो तब पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।

उदाहरण:

१. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
    जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
    अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।

२.
आतप-बरखा सह 'सलिल', नहीं शीश पर हाथ.
नाथ अनाथों का कहाँ?, तात न तेरे साथ..

यहाँ 'आतप-बरखा' का अर्थ गर्मी तथा बरसात नहीं दुःख-सुख, 'शीश पर हाथ' का अर्थ आशीर्वाद, 'तात' का अर्थ स्वामी नहीं पिता है.

३.
वे बरगद के पेड़ थे, पंछी पाते ठौर.
छाँह घनी देते रहे, उन सा कोई न और..

यहाँ 'बरगद के पेड़' से आशय मजबूत व्यक्ति, 'पंछी पाते ठौर' से आशय संबंधी आश्रय पाते, छाँह घनी का मतलब 'आश्रय' तथा और का अर्थ 'अन्य' है.

४.
धूप-छाँव सम भाव से, सही न खोया धीर.
नहीं रहे बेपीर वे, बने रहे वे पीर..

यहाँ धूप-छाँव का अर्थ सुख-दुःख, 'बेपीर' का अर्थ गुरुहीन तथा 'पीर' का अर्थ वीतराग होना है.

५.
पद-चिन्हों पर चल 'सलिल', लेकर उनका नाम.
जिनने हँस हरदम किया, तेरा काम तमाम..

यहाँ पद-चिन्हों का अर्थ परंपरा, 'नाम' का अर्थ याद तथा 'काम तमाम' का अर्थ समस्त कार्य है.

६. . देखो नीप कदंब खिला मन को हरता है
     यहाँ नीप और कदंब में में एक ही अर्थ की प्रतीति होने का भ्रम होता है  किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ नीप का अर्थ है कदंब जबकि कदंब का अर्थ है वृक्षों का समूह।

७. जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
    यहाँ कनक और सुवर्ण में अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है किन्तु है नहीं। कनक का अर्थ है सोना और सुवर्ण का आशय है अच्छे वर्ण का।

८. दुल्हा बना बसंत, बनी दुल्हिन मन भायी
    दुल्हा और बना (बन्ना) तथा दुल्हिन और बनी (बन्नी) में पुनरुक्ति का आभास  भले ही हो किन्तु दुल्हा = वर और बना = सज्जित हुआ, दुल्हिन = वधु और बनी - सजी हुई. अटल दिखने पर भी पुनरुक्ति नहीं है।

९. सुमन फूल खिल उठे, लखो मानस में, मन में ।
    सुमन = फूल, फूल = प्रसन्नता, मानस = मान सरोवर, मन = अंतर्मन।

१० . निर्मल कीरति जगत जहान।
    जगत = जागृत, जहां = दुनिया में।

११. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
    जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
    अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।

kundalini

कुण्डलिनी:
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
श्रम कर हों गुणवान बनेंगे मोदी जैसे
बौने हो जायेंगे सुख सुविधाएँ पैसे
करें अनुसरण जग में प्रेरित मानव लाखों
श्रम से जय कर जग मुस्कायें आँखों-आँखों

चित्र पर कविता:

चित्र पर कविता








*
हाथों में प्याला रखता हूँ

दिल हिम्मतवाला रखता हूँ.
*
हिंदी सा उजला तन लिखें

इंग्लिश-मन काला रखता हूँ.
*
माटी हो, माटी को घुरूँ

माटी में हाला रखता हूँ.
*
छप्पन इंची सीने के सँग

दिल-दिमाग आला रखता हूँ
*
अलगू-जुम्मन को फुसलाने

क्यों बोलूँ खाला रखता हूँ.
*
दिखे मंच पर सिर्फ सचाई

पीछे घोटाला रखता हूँ
*
नफरत की पैनी नोकों पर

'सलिल' स्नेह-छाला रखता हूँ
*
सत्ता की मधुशाला में भी

जनमत गौशाला रखता हूँ.
*** 

बुधवार, 30 सितंबर 2015

chitra alankar

: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार
काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.
कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं.
चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं.
शोध लेख:
चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य
हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो.
चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं. इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ.
चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना, २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से परखा जा सकता है.
१. भाव व्यंजना:
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है.
२. वास्तु - विचार निरूपण:
निराकार तथा जटिल-विशाल आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं. विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं.
३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:
चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है.
मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं.
४. नव प्रयोग:
जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों ने चित्र काव्य को नये आयाम कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर, चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम) का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय दृश्येन्द्रित का प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है.
चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है. अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है. चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है.
इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं. श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों रचा, समझ, सराहा जाए.
यहाँ हमारा उद्देश्य काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है. कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं:
उदाहरण:
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र १.
मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम
ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम









२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र २. 
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है.
की नी रा न न रा नी की.
सो है स दा दास है सो.
मो हैं को न न को हैं मो.
ती खे न चै चै न खे ती.
______________
I की I नी I रा I न I
______________
I सो I है I स I दा I
______________
I मो I हैं I को I न I
______________
I ती I खे I न I चै I
______________
३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र ३.
भोर हुई किरण, झाँक थपकति द्वार
पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
चलो हम ध्वज फहरा दें.
संग जय हिन्द गुँजा दें.
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
४. चित्र: देखें संलग्न चित्र ४.
हिंदी जन-मन में बसी, जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं घूर
हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर

हिंदी
जन-मन में बसी
जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित संतूर
ज कै
ग सा
वा अ
णी ॐ द
प भु
र त
छा नू
रहा र।
अंग्रेजी - प्रेमी कुढ़ें , देख रहे हैं घूर
हिंदी जग - भाषा बने , विधि को है मंजूर
हिंदी - प्रेमी हो रहे , 'सलिल' हर्ष से चूर
५. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है.
देखें संलग्न चित्र ५.
मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
मुखरित अभिनन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और
शिवना की जलधाराओं से
प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा-
आदि नगरियों के जन-जन से
प्रतिपल अभिवन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
*
जय
शंकर,
प्रलयंकर,
महादेव, अभ्यंकर,
गंगाधर शिव,
तुम्हारी जय हो!
जय
हो,
तुम्हरी
जय
हो!
*
गले
व्याल
मुण्डमाल,
बाघम्बर है कराल,
गाते जय
सब जय
दे जय
त्रिता महाका
ल.
चंद्रचूड़, नीलकंठ, मदनशत्रु, वृषारूढ़
डमरूधर शिव, तुम्हारी जय हो!
जय हो! तुम्हारी जय हो !

सिर
पर है
जटा भार,
जटा बीच गंग - धार ,
चंद्र बिल्व
मौलि पत्र
का अर्क
श्रृंगा हा
र .
आशुतोष, चंद्रभाल, भूतेश्वर, मृत्युंजय
पन्नगधर शिव, तुम्हारी जय हो!
जय हो! तुम्हारी जय हो !
शैल
सुता
वाम अंग,
अंग - अंग में अनंग ,
बाजे नाचे
डफ सब
ढोल भूत
चं सं
ग.
उमाकांत, काशीपति, विश्वेश्वर, व्योमकेश
हिमकरधर, शिव तुम्हारी जय हो!
जय हो! तुम्हारी जय हो !
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