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गुरुवार, 11 जुलाई 2013

doha salila : pratinidhi dohe 7 -saaz jabalpuri

pratinidhi doha kosh 7 - 

साज जबलपुरी , जबलपुर 


प्रतिनिधि दोहा कोष ७ : 

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती,  डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', अर्चना मलैया तथा सोहन परोहा 'सलिल'के दोहे। आज अवगाहन कीजिए स्व. साज़ जबलपुरी रचित दोहा सलिला में :

*



संकलन - संजीव
*
मूल नाम:  चोखेलाल चराडिया
जन्म: १-४-१९४५, जबलपुर। निधन: १८-५-२०१३, जबलपुर।
आत्मज: स्व. मन्ना देवी-स्व. गणेश प्रसाद।
शिक्षा: स्नातक।
कृतियाँ: मिजराब (गज़ल संग्रह), शर्म इनको मगर नहीं आती (व्यंग्य लेख संग्रह)
*
०१. अक्षर की महिमा समझ, अक्षर को पहचान
      अक्षर ही गुरु मन्त्र है, अक्षर ही भगवान
*
०२ . अपनी-अपनी भूमिका, औ' अपने संवाद

      जग में आ भूले सभी, रहा नहीं कुछ याद
*
०३. लिखा-पढ़ी को मानिए, इस जीवन का सार
      अक्षर बिन होता नहीं जीवन का उद्धार
*
०४. उजियारों की चाह में, अँधियारों का खेल
      संसद है दीपक बनी, वोट हो रहे तेल
*
०५. इस सारे ब्रम्हांड के, कण-कण मेंहैं श्याम
      बस राधा के  भाग में,नहीं रहे घनश्याम
*
०६. चंदा-सूरज यार की, आभा पर कुर्बान     
      उद्गम है वो नूर का, वही नूर की खान  
*
०७. अपना सब कुछ कर दिया, अर्पण तेरे नाम
      मैं तेरी मीरा भई, तू मेरा घनश्याम
*
०८. जब मेरे अन्दर बसा, फिर कैसा इंकार
      रुख से अब पर्दा उठा, दे दे तू दीदार
*
०९. ऊधो अपना ज्ञान धन, रख लो अपने पास
      हम नेर्धन अब जी रहीं, लोए प्रेम की आस
*
१०. तेरे हाथों बिक गए, बिना बाँट बिन तौल
      'साज़' तभी से हो गए, हम जग में अनमोल
*
११. सूरज से मिल जाए जब, दीपक का उजियार
      तब तुम होगे साज़ जी, भवसागर से पार
*
१२. जीवन की इस नाव में, संशय की पतवार
      तुम्हीं बताओ राम जी, कैसे हों हम पार
*
१३. जीवन के इस  छोर से,जीवन के उस छोर
      जोगी तेरे इश्क की, कितनी छोटी डोर
*
१४. यादें तेरी आ रहीं, बदल बदल कर वेश
      कभी गात सी प्रात है, कभी श्यान घन केश 
*
१५. दर्पण पूछे बिम्ब से, कैसी तेरी पीर
      व्याकुल है रांझा इधर उधर रो रही हीर
*
१६. वीरबहूटी की तरह, बिंदिया माथे बीच
      मेरे आवारा नयन, बरबस लेती खींच
*
१७. घूँघट में भी हो रहा, झिलमल गोरा रंग
       दर्पण पर लगता नहीं, लोहेवाला जंग
*
१८. केश घनेरे घन घने, छोटी मस्त भुजंग
      परिसीमित परिवेश में, विवश अंग-प्रत्यंग
*
१९. झिलमिल झिलमिल कर रहा, यूं घूंघट से रूप
      बादल से हो झाँकती, ज्यों सावन की धूप
*
२०. सबकी बातें सुन रहे, दीवारों के कान
       लेकिन इन दीवार की, होती नहीं जुबान
*
२१. पर्दा टांगा टाट का, जुम्मन जी ने द्वार
      जो कुछ भी उस पार है, दीखता है इस पार
*
२२. नातिन सँग नानी करे, जब पैदा औलाद
      कौन बचाए कौम को, होने से बर्बाद
*
२३. नाली बदबू गंदगी, ये कूड़े का ढेर
      इसी जगह पर रह रहा, पढ़ा लिखा शमशेर
*
२४. सब कहिं नैनन नैन हैं, मैं कहुँ नैनन बान
      उन नैनन को का कहूं, जिननें ले लै प्रान
*
२५. यारों मेरे कत्ल को, मत देना अब तूल
      मैं खुद ही कातिल मिरा, मैं खुद ही मक़तूल
       *
२६. इक दिल इक इंसान है, उस पर फिक्र हज़ार
      चार दिनों की जिंदगी, फिर जीना दुश्वार
       *
२७. धरती को है बाँटती, यही खेत की मेड़ 
      देखो आये लालची, ये बबूल के पेड़
      *
२८. मेरी अब हर इक दुआ, है इनसे मनसूब
      पहले रब्बुल आलमीं, फिर उसका महबूब
*
२९. रब से जाकर बोलना, ऐ माहे रमजान
      मुश्किल सारे जन्म की, कर देना आसान
*
३०. पत्थर पत्थर पर बना, काम काव्य का पन्थ 
      अंग अंग यूं लग रहा चार्वाक का ग्रन्थ       
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Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

बुधवार, 10 जुलाई 2013

muktika: smaran sanjiv

Sanjiv Verma Salil
मुक्तिका:
स्मरण
संजीव 'सलिल"
*
मोटा कांच सुनहरा चश्मा, मानस-पोथी माता जी।
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
*
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
*
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, थम-चल पापा-माताजी।।
*
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया एक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
*
माँ का जाना- मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न ले जाती क्यों, संग तुम्हारी माताजी।।'
*
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न संग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
*
यादों की दे गए धरोहर, सांस-सांस में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com/
salil.sanjiv@gmail.com

अखिल विश्व हिन्दी समिति Akhil Vishva Hindi Samiti

ॐ 
अखिल विश्व हिन्दी समिति Akhil Vishva Hindi Samiti 
www.AkhilVishvaHindiSamiti.com Phone: 416 505 8873, info@AkhilVishvaHindiSamiti.com
44 Barford Road, Toronto, On., M9W 4H4, Canada
*
शनिवार, २९ जूनए २०१३ टोरोंटो। अखिल विश्व हि्दी समितिए  टोरोंटो का चतुर्थ वार्षिक सम्मलेन व विश्व हिंदी सम्मलेन  को टोरोंटो पब्लिक लाइब्रेरी की बारबरा फ्राम शाखा के  सभागार में भारत से आये अखिल विश्व हिंदी समिति के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष  डॉ. दाऊजी गुप्त  की अध्यक्षता, श्री सागर पंडित की सह. अध्यक्षता व  श्री श्याम त्रिपाठी के सञ्चालन व  श्री गोपाल बघेल मधु के आतिथेय अध्यक्ष  की उपस्थिति में दोपहर १२  से सायं  ५  बजे तक आयोजित किया गया । अंतरराष्ट्रीय हिंदी समितिए न्यूजर्सी सं. रा. अमरीका के श्री रामबाबू गौतम व भारतीय दूतावास के  उप राजदूत श्री रणजीत सिंह विशिष्ट अतिथि थे।  सम्मेलन का आरम्भ श्रीमती विनीता सेठ व श्री गोपाल बघेल द्वारा  या कुंदेंदु तुषार हार धवला व आद. परिनिर्वाणानंद व  श्री गोपाल बघेल द्वारा संगच्छध्वंसंबध्वं वन्दनाओं से हुआ। 
 
तत्पश्चात  सर्वश्री दाऊ जी गुप्त, सागर पंडित,  रामबाबू गौतम, श्याम त्रिपाठी, भारतेंदु त्रिपाठी,  डॉ. देवेंद्र मिश्र, आचार्य संदीप त्यागी, सरन घई, गोपाल बघेल मधु, हरजिंदर सिंह भसीन, सुरेन्द्र पाठक, पाराशर गौड़, स. स. सूरी, राज माहेश्वरो,  ललित पसरीचा, परिपूर्णानंद,  योगेश मामगेन गेन ने अपनी मार्मिक व मन्त्र मुग्ध करने वाली रचनाएँ सुनाकर श्रोताओं का हृदय तरंगित किया। श्री परिनिर्वाणानन्द ने श्री श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा रचित प्रभात संगीत में से  'मुसाफिर आगे बढ़ते जाना'  प्रस्तुत कर आध्यात्मिक तरंग बिखेरी।। भारतीय दूतावास के उप राजदूत श्री रणजीत सिंह ने सभा को संबोधित कर भारतीय संस्कृतिक केंद्र की संस्थापना विषयक जानकारी दी। डा. दाऊजी गुप्त ने कनाडा की अपनी ४० वर्ष पूर्व की गयी यात्रा और हिंदी के विकास की चर्चा की। इस अवसर पर अखिल विश्व हिंदी समिति द्वारा प्रकाशित, श्री गोपाल बघेल द्वारा सम्पादित अखिल विश्व ई पत्रिका के अंक का उद्घाटन सर्वश्री दाऊ जी गुप्त, सागर पंडित, भारतेंदु त्रिपाठी व डॉ. मिश्र ने किया ।
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दोहा सलिला :6 सोहन परोहा 'सलिल'

doha salila

pratinidhi doha kosh 6- 

Soahn Paroha 'Salil', jabalpur  


प्रतिनिधि दोहा कोष ६: 

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती,  डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' तथा अर्चना मलैया के दोहे। आज अवगाहन कीजिए श्री सोहन परोहा 'सलिल' रचित दोहा सलिला में :


*
जन्म: 8 नवम्बर 1975 जबलपुर  मध्य प्रदेश आत्मज: ।
जीवन संगी: श्रीमति शिवानी परोहा 'कौमुदी'।
शिक्षा: ।
सृजन विधा: कविता, लघुकथा आदि. 
संपर्क : परोहा डेवलपर्स, गोविन्द भवन, सिविल लाइन्स जबलपुर। चलभाष : ०९८२७३९६९१४।  सोहन परोहा 'सलिल'
*
कागा अब मत बोलियो, मत ठगियो विश्वास
जानेवाले कब फिरें, करें कौन की आस
*
सारे रंग बेरंग हैं, सारी खुशियाँ चूर
होली के त्यौहार में, सांवरिया हैं दूर
*
बिरहा की इस आग में, जरत जिया दिन रैन
तिस पर ये कोयल मुई, बोले मीठे बैन
*
मन व्याकुल है शाम से, अब घिर आई रात
झींगुर का कोमल रुदन, करे और आघात
*
सलिल तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास
तन है माया जाल में, मन में है सन्यास 
*
निष्ठुर  है यह जग सलिल, करता है उपहास
तुम निस्पृह होकर जियो, करो न रोदन हास
*
पंख खुले होते अगर, छू लेते आकाश
पिंजरा है ये जगत का, कैसे आऊँ पास
*
तन के पंच प्रदीप हैं, जलते हैं अविराम
जीवन भर जो काल से, करते हैं संग्राम
*
आये थे  संसार में, लेकर जीवन-ज्योत
समय हुआ तो उड़ चले, देखो प्राण कपोत
*
है शब्दों के रूप में, जीवन का संगीत
करुणा का आवेग है, लिखता है जो गीत
*
इन गीतों में ही सलिल, अंकित हैं उदगार
युग युग से हैं जो सदा, कविता के आधार
*****


doha salila :5 archana malaiya

doha salila

pratinidhi doha kosh 5  -  

अर्चना मलैया  


प्रतिनिधि दोहा कोष:५ 

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती तथा डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' के दोहे। आज अवगाहन कीजिए श्रीमती अर्चना मलैया रचित दोहा सलिला में :
जन्म: १८ जून १९५८, सागर मध्य प्रदेश 
आत्मजा: श्रीमती राजकुमारी - श्री देव कुमार रांधेलिया कटनी।
जीवन संगी: श्री प्रकाश मलैया।
शिक्षा: एम.ए. हिंदी।
सृजन विधा: कविता, कहानी, नाटक, लेख, लघुकथा आदि. 
संपर्क : चन्द्रिका टावर्स,  मोडल रोड, शास्त्री पुल, जबलपुर ४८२००१ दूरभाष : ०७६१४००६७२३ / चल भाष: ९९७७२५०३४१*

०१ . प्रकृति सुंदरी खोलती, अपने सुरभित केश
      अखिल सृष्टि को मोहता, सम्मोहित परिवेश
       *
०२. नयनों ने न्यौता दिया, दहके प्रीती पलाश
      तन की फरकन समोती, मुट्ठी में आकाश
       *
०३. वासंती ने पहिनकर, पीत रंग परिधान
      जानेक्यों अधरों रची, मदमाती मुस्कान
       *
०४. अरुणारे खंजन नयन, चपल दामिनी देह
      वासंती राधा लगे, अनुपम निस्संदेह
      *
०५. वासंती के रूप में राधा का ही गान
       युग बदले पर मन नहीं, गुंजित वंशी तान
      *
०६. सावन सावन सा नहीं, मन में नहीं उमंग
       बादल बैरी से लगें, पिया नहीं जब संग
      *
०७. संबंधों की नींव का, बस इतना इतिहास
       सूली पर संदेह की, टँगा रहा विश्वास
      *
०८. घेरों में अपने बँधे, मनुज धर्म औ' देश
       दृष्टि संकुचित प्रदूषित, करती है परिवेश
      *
०९. चांद लुटाता चांदनी, सूरज झरे प्रकाश
       सरहद में कब बंध सके, नीर पीर आकाश
      *
१०. भीगी भीगी दृष्टि से, झंकृत होती देह
      ज्यों पहली बरसात में, महमह धरती मेह
      *
११. हाथ थामकर हम चलें, एहसासों के गाँव
      मधुवंती चौपाल हो, सपनीली हो छाँव
       *
१२. अहसासों ने बुन लिए, सपने कुछ अनजान
      कौन सहेजेगा इन्हें, आँख अभी नादान
       *
१३. किसके हिस्से पुण्य है, किसके हिस्से पाप
      कर्मों के अनुबंध कब, जान सके हैं आप
       *
१४. भरी भरी सी मैं लगूं, तुम होते जब पास
      मीत प्रीत की जोत से, चरों ओर उजास
      *
१५. दृष्टि तुम्हारी सौंपती, नेह भरे अनुबंध
       मन प्राणों ने समो ली, भीनी भीनी गंध
      *
१६. दुर्दिन को मत कोसिए, मत खो संयम रत्न
       नियति नटी के सामने, बौने रहें प्रयत्न
       *
१७.  साँसों की लय में बसे, मन को मिले न चैन
       शीतलता तब मिलेगी, छवि देखें जब नैन
      *
१८. बस बातों ही बात में, बीते दिन औ' रात
       बातों बातों में कही, मन ने असली बात
      *
१९. इतना मत इतराइये, जैसे कोई ख्वाब
       नैनन दरस न दीजिए, मन में बसे जनाब
      *
२०. एक अकेला क्या करे, मिले न जब तक साथ
       ताली भी तब ही बजे, मिले हाथ से हाथ
      *
२१. तनिक न साधे से सधे, मन का अद्भुत खेल
       इसको बंदी कर सके, बनी न ऐसी जेल
      *
२२. हाथ पैर हैं, नयन हैं, तन है स्वर्ण समान
       काया दे सब कुछ दिया, प्रभु तुम कृपा निधान
      *
२३. जग चलता व्यवहार से, होकर चतुर सुजान
       मन के गहरे भाव का, कौन करे अनुमान
      *
२४. जाति धर्म में बँट गयी, मानव की सन्तान
       कब आयेगा दिवस वह, होंसे सभी समान
      *
२५. पत्तों शाखों पर लिखे, जाति धर्म के नाम
       जड़ को ही भूले अगर, क्या होगा परिणाम
      *
२६. चलो उतारें गगन से, जीवनदायी नीर
       मुरझाये विश्वास की, कम तो होगी पीर
      *
२७. प्राण प्रिया रटते फिरें, भरें प्रेम की पींग
       बीच बीच में झलकते, घरवाली के सींग
      *
२८. घर बाहर दोनों सधे, हर्रा लगे न हींग
       दोनों के दुश्चक्र में, गुमी आँख से नींद
      *
२९. नयना लोचन क्या कहूँ, छीने मन का चैन
       आँखों का क्या दोष है, मन ही है बेचैन
      *
३०. नैना बाजीगर बने, करतब अजब दिखाय
       बोली ऐसी बोलते, सुन पड़ता कुछ नांय
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doha salila 4: SUMITRA

doha salila

pratinidhi doha kosh 4 -  

rajkumar tiwari sumitra, jabalpur  


प्रतिनिधि दोहा कोष:४ 

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती के दोहे। आज अवगाहन कीजिए डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र दोहा सलिला में :

*
 जन्म: २५ अक्टूबर १९३८
आत्मज: स्व. ब्रम्हदत्त तिवारी
शिक्षा: एम.ए. हिंदी, पीएच. डी., डिप्लोमा शिक्षण, डिप्लोमा पत्रकारिता।
कृतियाँ: काव्य- संभावना की फसल, यादों के नागपाश, बढ़त जात उजियारो (बुन्देली), आंबे कहूं जगदंबे कहूं (देवी गीत), साईं नाम सलोना (साई गीत), स्वरुप चन्दन काव्य, चारू चिंतन (निबन्ध), बतकहाव (व्यंग्य), कभी सोचें (चिंतन कण), खूंटे से बंधी गाय (व्यंग्य), गीतों की रेलगाड़ी (बालगीत), पांच स्वतंत्रता संग्राम सेनानी (बालोपयोगी)
संपर्क: ११२ सराफा, जबलपुर ४८२००२। दूरभाष: ०७६१ २६५२०२७, चलभाष: ९३००१२१७०२।
ई मेल: drrajkumar_sumitra90@yahoo.in
*
०१. हंसारूढ़ा शारदे, प्रज्ञा प्रभा निकेत
      कालिदास का कथाक्रम, तेरा ही संकेत 
*
०३. शब्द ब्रम्ह आराधना, सुरभित सुफलित नाद
      उसकी ही सामर्थ्य है, जिसको मिले प्रसाद
*
०४. वाणी की वरदायिनी, दात्री विमल विवेक
      सुमन अश्रु अक्षर करें, दिव्योपम अभिषेक
*
०५. तेरी अन्तःप्रेरणा, अक्षर का अभियान
      इंगित  से होता चले, अर्थों का संधान
*
० ६. कवि साधक कुछ भी नहीं, याचक अबुध अजान
      तेरी दर्शन दीप्ति से, लोग रहे पहचान
*
०७. बाँच सको तो बाँच लो , आँखों का अखबार
      प्रथम पृष्ठ से अंत तक, लिखा प्यार ही प्यार
*
०८. लगुन शगुन तिथि महूरत, सब साधेंगे राम
      हम तो घर से चल पड़े, लेकर तेरा नाम
*
०९. फूल अधर पर खिल गये, लिया तुम्हारा नाम
      मन मीरा सा हो गया, आँख हुई घनश्याम
*
१०. सब कुछ तुमको मानकर, तोड़े सभी उसूल
      या पर्वत हो जायेंगे, या धरती की धूल
*
११. तुम बिन दिन पतझर लगे, दर्शन है मधुमास
      एक झलक में टूटता, आँखों में उपवास
*
१२. आँखों के आकाश में, घूमें सोच-विचार
       अन्तःपुर आँसू बसें, पलकें पहरेदार
*
१३. नयन देखकर आपके, हुआ मुझे अहसास
       जैसे ठंडी आग में, झुलस रही हो प्यास
*
१४. नयन तुम्हारे वेद सम, चितवन है श्लोक
       पा लेता हूँ यज्ञ फल, पलक पूरण विलोक
*
१५. याद हमारी आ गयी, या कुछ किया प्रयास
       अपना तो ये हाल है यादें बनीं लिबास
*
१६. यादों की कंदील ने, इतना दिया उजास
      भूलों के भूगोल ने, बांच लिया इतिहास
*
१७. सफर सफर के बीच में, या फिर उसके बाद
       तुम तक पहुँची या नहीं, मेरी पैदल याद
*
१८. अधरों पर रख बाँसुरी, और बाँध भुजपाश
      नदी आग की पी गया, लेकिन बुझी न प्यास
*
१९. ह्रदय विकल है तो रहे, इसमें किसका दोष
      भिखमंगों के वास्ते, क्या राजा का कोष
*
२०. पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामे पीठ
       कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ
*
२१. बालों में हैं अंगुलियाँ, अधर अधर के पास
      सब कुछ ठहरा है मगर, मन का चले प्रवास
*
२२. पंछी होता मन अगर, गाता बैठ मुंडेर
       देख नहीं पाता तुम्हें, कितनी कितनी देर
*
२३. गिरकर उनकी नजर से, हमको आया चेत
       डूब गए मँझधार में, अपनी नाव समेत
*
२४. एक गुलाबी गात ने, पहिन गुलाबी चीर
      फूलों के इतिहास को, दे दी एक नजीर
*
२५. क्या मेरा संबल भला, बस तेरा अनुराग
       मन मगहर को कर दिया, तूने पुण्य प्रयाग
*
२६. सांस सदा सुमिरन करे, आँखें रहीं अगोर
       आह, प्रतीक्षा हो गयी, द्रौपदि वस्त्र अछोर
*
२७. साँसों में हो तुम रचे, बचे कहाँ हम शेष
      अहम् समर्पित कर दिया, और करें आदेश
*
२८. दूरी से संशय उगे, जगे निकट से प्रीत
       हम साधारण शब्द हैं, गाओगे तो गीत
*
२९. शब्दों के सम्बन्ध का ज्ञात किसे इतिहास
      तृष्णा कैसे दृग बनी, दृग कैसे आकाश
*
३०. मानव मन यदि खुद सके, मिलें बहुत अवशेष
       दरस परस छवि भंगिमा, रहती सदा अशेष
***


kriti charcha: kabhee sochen -sanjiv

कृति चर्चा:
कभी सोचें -  तलस्पर्शी चिंतन सलिला

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

कृति विवरणः कभी सोचें, चिंतनपरक लेख संग्रह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी-पेपरबैक, पृष्ठ 143, मूल्य 180 रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर

सुदर्शन व्यक्तित्व, सूक्ष्मदृष्टि तथा उन्मुक्त चिंतन-सामर्थ्य संपन्न वरिष्ठ साहित्यकार पत्रकार डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ को तत्व-प्रेम विरासत में प्राप्त है। पत्रकारिता काल के संघर्ष ने उन्हें मूल-शोधक दृष्टि, व्यापक धरातल, सुधारोन्मुखी चिंतन तथा समन्वयपरक सृजनशील लेखन की ओर उन्मुख किया है। सतत सृजनकर्म की साधना ने उन्हें शिखर स्पर्श की पात्रता दी है। सनातन जीवनमूल्यों की समझ और सटीक पारिस्थितिक विश्लेषण की सामर्थ्य ने उन्हें सर्वहितकारी निष्कर्षपरक आकलन-क्षमता से संपन्न किया है। विवेच्य कृति ‘कभी सोचें’ सुमित्र जी द्वारा लिखित 98 चिंतनपरक लेखों का संकलन है।

चिंतन जीवनानुभवों के गिरि शिखर से नि:सृत निर्झरिणी के निर्मल सलिल की फुहारों की तरह झंकृत-तरंगित-स्फुरित करने में समर्थ हैं। सामान्य से हटकर इन लेखों में दार्शनिक बोझिलता, क्लिष्ट शब्दचयन, परदोष-दर्शन तथा परोपदेशन मात्र नहीं है। ये लेख आत्मावलोकन के दधि को आत्मोन्नति की अरणि से मथकर आत्मोन्नति का नवनीत पाने-देने की प्रक्रिया से व्युत्पन्न है। सामाजिक वैषम्य, पारिस्थितिक विडंबनाओं तथ दैविक-अबूझ आपदाओं की त्रासदी को सुलझाते सुमित्र जी शब्दों का प्रयोग पीडित की पीठ सहलाते हाथ की तरह इस प्रकार करते हैं कि पाठक को हर लेख अपने आपसे जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।

अपने तारुण्य में कविर्मनीषी रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘उंट बिलहरीवी’ तथा सरस गीतकार नर्मदाप्रसाद खरे का स्नेहाशीष पाये सुमित्र सतत प्रयासजनित प्रगति के जीवंत पर्याय हैं। वे इन लेखों में वैयक्तिक उत्तरदायित्व को सामाजिक असंतोष की निवृत्ति का उपकरण बनाने की परोक्ष प्रेरणा दे सके है। प्राप्त का आदर करो, सामर्थ्यवान हैं आप, सच्चा समर्पण, अहं के पहाड़, स्वतंत्रता का अर्थ, दुख का स्याहीसोख, स्वागत का औचित्य, भाषा की शक्ति, भाव का अभाव, भय से अभय की ओर, शब्दों का प्रभाव, अप्राप्ति की भूमिका है, हम हिंदीवाले, जो दिल खोजा आपना, यादों का बसेरा, लघुता और प्रभुता, सत्य का स्वरूप, पशु-पक्षियों से बदतर, मन का लावा, आज सब अकेले हैं, विसर्जन बोध आदि चिंतन-लेखों में सुमित्र जी की मित्र-दृष्टि विद्रूपता के गरल को नीलकण्ठ की तरह कण्ठसात् कर अमिय वर्षण की प्रेरणा सहज ही दे पाते हैं। एक बानगी देखें-   
      
‘‘सामर्थ्यवान हैं आप

विभिन्न क्षेत्रों में सफलता और श्रेय की सीढि़याँ चढ़ते लोगों को देख सामान्य व्यक्ति को लगता है कि यह सब सामर्थ्य का प्रतिफल है और इतनी सामर्थ्य उसमें है नहीं।

अपने में छिपी सामर्थ्य को जानने, प्रगट करने का एक मार्ग है अध्यात्म। ‘सोहम्’ अर्थात् मैं आत्मा हूँ। अपने को आत्मा मानने से विशिष्ट ज्ञान उपलब्ध होता है। अंधकार में प्रकाश की किरण फूटती है।

आध्यात्मिक दृष्टि मनुप्य को आचरण से ऊपर उठने में मदद करती है। जब उस पर रजस और तमस का वेग आता है जब भी वह भयभीत, चिंतित या हताश नहीं होता। उसके भीतर से उसे शक्ति मिलती रहती है।

हममें सत्य, प्रेम, न्याय, शांति, अहिंसा की दिव्य शक्तियाँ स्थित हैं। इन दिव्य शक्तियों को जानने और उनके जागरण का सतत प्रयत्न होना चाहिए।

इनका विकास ही हमें पशुओं और सामान्य मनुष्य से ऊपर उठा सकता है। विश्वास करें कि आप सामर्थ्यवान हैं। आपका सामर्थ्य आपके भीतर है। दृष्टि परिवर्तित करें और सामर्थ्य पायें। ’’

सुमित्र जी अध्यात्म पथ की दुप्करता से परिचित होते हुए भी सांसारिक बाधाओं और वैयक्तिक सीमाओं के मद्देनजर कबीरी वीतरागिता असाध्य होने पर भी सामान्य जन को उसके स्तर से ऊपर उठकर सोचने-करने की प्रेरणा दे पाते हैं। यही उनके चिंतन और लेखन की उपलब्धि है। अधिकांश लेख ‘कभी सोचें’ या ‘सोचकर तो देखें’ जैसे आव्हान के साथ पूर्ण होते हैं और पूर्ण होने के पूर्व पाठक को सोचने की राह पर ले आते हैं। ये लेख मूलतः दैनिक जयलोक जबलपुर में दैनिक स्तंभ के रूप में प्रकाशित-चर्चित हो चुके हैं। आरंभ में डॉ. हरिशंकर दुबे लिखित गुरु-गंभीर पुरोवाक् सुमित्र की लेखन कला की सम्यक्-सटीक विवेचना कर कृति की गरिमा वृद्वि करता है।  
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salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in

short story WHO KNOWS

WHO KNOWS
*
Good luck, bad luck, who knows?

A father and his son owned a farm. They did not have many animals, but they did own a horse. The horse pulled the plow, guided by the farmer’s son. One day the horse ran away.

“How terrible, what bad luck,” said the neighbours.

“Good luck, bad luck, who knows?” replied the farmer.

Several weeks later the horse returned, bringing with him four wild horses.

“What marvellous luck,” said the neighbours.

“Good luck, bad luck, who knows?” replied the farmer.

The son began to train the wild horses, but one day he was thrown and broke his leg.

“What bad luck,” said the neighbours.

“Good luck, bad luck, who knows?” replied the farmer.

The next week the army came to the village to take all the young men to war. The farmer’s son was still disabled with his broken leg, so he was excused.
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मंगलवार, 9 जुलाई 2013

kriti salila: vyangya ka lok hitaishee pravah batkahaav ---sanjiv

कृति  सलिला :
व्यंग्य का लोकहितैषी प्रवाह : "बतकहाव"
चर्चाकार : आचार्य संजीव 'वर्मा सलिल' 
[कृति विवरण: बातकहाव, व्यंग्य लेख संग्रह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
*
भारत के स्वातंत्र्योत्तर कला में सतत बढ़ाती सामाजिक विद्रूपता, राजनैतिक मूल्यहीनता, वैयक्तिक पाखंडों तथा आर्थिक प्रलोभनों ने व्यंग्य को वामन से विराट बनाने में महती भूमिका अदा की है। फिसलन की डगर पर सहारों की प्रासंगिकता ही नहीं उपादेयता भी होती है। वर्तमान परिदृश्य और परिवेश में व्याप्त विसंगतियों और विडम्बनाओं में किसी भी मूल्यधर्मी रचनाकार के लिए व्यन्य-लेखन अनिवार्य सा हो गया है। गद्य-पद्य की सभी विधाओं में व्यंग्य की लोकप्रियता का आलम यह है कि कोई पत्र-पत्रिका व्यंग्य की रचनाओं को हाशिये पर नहीं रख पा रही है। संस्कारधानी जबलपुर में हिंदी व्यंग्य लेखन के शिखर पुरुष हरिशंकर परसाई की प्रेरणा से व्यंग्य लेखन की परंपरा सतत पुष्ट हुई और डॉ. श्री राम ठाकुर 'दादा', डॉ. सुमुत्र आदि ने व्यंग्य को नए आयाम दिए। 

साहित्य-सृजन तथा पत्रकारिता लोकहित साधना के सार्वजनिक प्रभावी औजार होने के बावजूद इनके माध्यम से परिवर्तन का प्रयास सहज नहीं है। सुमित्र जी दैनिक जयलोक में कभी सोचें, बतकहाव तथा चारू-चिंतन आदि स्तंभों में इस दिशा में सतत सक्रिय रहे हैं। इन स्तंभों के चयनित लेखों का पुस्तकाकार में प्रकाशित होना इन्हें नए और वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँचा सकेगा। सुमित्र जी के व्यंग्य लेखों का वैशिष्ट्य इनका लघ्वाकारी होना है। दैनिक अखबार के व्यंग्य स्तम्भ के सीमित कलेवर में स्थानीय और वैयक्तिक विसंगतियों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं तक, वैयक्तिक पाखंडों से लेकर समजिन कुरीतियों तक की किसी कुशल शल्यज्ञ  की तरह चीरफाड़ करने में सुमित्र जी शब्दों के पैनेपन को चिकोटी काटने से उपजी मीठी चुभन तक नियंत्रित रखते हैं, दिल को चुभनेवाली-तिलमिला देनेवाली पीड़ा तक नहीं ले जाते। अपने कथ्य को लोकग्राह्य बनाने के लिए तथा निस्संगता और तटस्थता से कहने के लिए सुमित्र जी ने भरोसे लाल नामक काल्पनिक पात्र गढ़ लिया है। यह भरोसेलाल गरजते-बरसते, मिमियाते-हिनहिनाते अंततः निरुत्तर होने पर ''भैया की बातें'' कहकर चुप्पी लगा लेने में माहिर हैं।

बतकहाव के व्यंग्य लेखों का शिल्प अपनी मिसाल आप है। बाबू भरोसेलाल किसी   प्रसंग में कुछ कहते हैं और फिर  उनमें तथा भैया जी में हुई बातचीत विसंगति पर कटाक्ष कर बतरस की ओर मुड़ जाती है। कटाक्ष की च्भन और बतरस की मिठास पाठक को बचपन में खाई खटमिट्ठी गोली की तरह देर तक आनंदित करती है जबकि भरोसेलाल भैया जी के सामने निरुत्तर होकर अपना तकिया कलाम दुहराते हुए मौन साधना में लीन हो जाते हैं। जयलोक के प्रधान संपादक अजित वर्मा के अनुसार ''सुमित्र जी का अपना रचना संसार है जिसमें प्रचुर वैविध्य और विराटत्व है। उनका अन्तरंग और बहिरंग एकाकार है। हिंदी साहित्य के इतिहास, उसकी धाराओं के प्रवाह और अंतर्प्रवाह, अवरोध और प्रतिरोध के वे अध्येता हैं। गद्य - पद्य की विविध विधाओं और शैलियों के विकास क्रम, विचलन, खंडन - मंडन की सूक्ष्म अनुभूतियाँ उनकी धारणाओं, अवधारणाओं और चिंतन को इतना विकसित करती हैं की वे साधिकार आलोचना-समालोचना करते हैं। अध्यवसाय और अनुशीलन ने उन्हेंशोध परक सृजन की क्षमता से संपन्न बनाया है। 

सहिष्णुता और सात्विकता की पारिवारिक विरासत, व्यंग्य कवि-समीक्षक रामानुजलाल श्रीवास्तव तथा मधुर गीतकार नर्मदा प्रसाद खरे का नैकट्य, सोचने की आदत, पढ़ने का शौक और लिखने का पेशा इन चार संयोगों ने 'संभावनाओं की फसल' उगा रहे तरुण सुमित्र को एक दर्जन से अधिक कृतियों के गंभीर चिन्तक - सर्जक के रूप में सहज ही प्रतिष्ठित कर दिया है। सुमित्र जी के अखबारी स्तम्भ अपनी सामयिकता, चुटीलेपन, सरसता सहजता, देशजता तथा व्यापकता के लिए कॉफ़ी हाउस की मेजों से लेकर नुक्कड़ पर पान के टपरों तक, विद्वानों की बैठकों से लेकर श्रमजीवियों तक बरसों-बरस पढ़े और सराहे जाते रहे हैं। सुमित्र जी बड़ी से बड़ी गंभीर से गंभीर बात बेइन्तिहा सादगी से कह जाते हैं। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे की उक्ति इन लेखों के के सन्दर्भ में खरी उतरती है। प्रसिद्द व्यंग्यकार डॉ. श्रीरामठाकुर 'दादा' इन रचनाओं को सामाजिक, कार्यालयीन तथा राजनैतिक इन तीन वर्गों में विभक्त करते हुए उनका वैशिष्ट्य क्रमशः सामाजिक स्थितियों का उद्घाटन, चरमराती व्यवस्था से उपजा आक्रोश तथा विडम्बनाओं पर व्यंग्य मानते हैं किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इन सभी व्यंग्य लेखों का उत्स सुमित्र जी की सामाजिक सहभागिता तथा सांस्कृतिक साहचर्य से उपजी सहकारिता है।

विख्यात  हिंदीविद डॉ. कांतिकुमार जैन सुमित्र जी के सृजन को साहित्य और पत्रकारिता के मध्य सेतु मानते हैं। सुमित्र जी किसी प्रसंग पर कलम उठाते समय आम आदमी के नजरिये से यथसंभव तटस्थ-निरपेक्ष भाव से विक्रम -बैताल की तर्ज़ पर संवाद-शैली में घटित का संकेत, अन्तर्निहित विसंगति को इंगित करती फैंटेसी तथा नत में समाधान या प्रेरणा के रूप में कथन-समापन करते हैं किन्तु तब तक वे प्रायः पाठक को अपने रंग में रंग चुके होते हैं। 
 
हम  भारतीयों में जाने-अनजाने सलाह-मशविरा देने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने की आदत है। कभी बल्ला न पकड़ने पर भी सचिन की बल्लेबाजी पर टिप्पणी, यांत्रिकी न जानने पर भी निर्माणों और योजनाओं को ख़ारिज करना, अर्थशास्त्र न जानने पर भी बजट के प्रावधानों का उपहास करते हमें पल भर भी नहीं लगता। सुमित्र अपने व्यंग्य लेखों की जमीन इसी मानसिकता के बीच तलाशते हैं। घतुर्दिक घटती घटनाओं की सूक्ष्मता से अवलोकन करता उनका मन, माथे पर पड़े बल और पल भर को मुंदी ऑंखें उनकी सोच को धार देती हैं, मुंह में पान धर जेब से कलम निकलता हाथ चल पड़ता है न्यूनतम समय में, लघुत्तम कलेवर में महत्तम को अभिव्यक्त करने के शारदेय हवं में समिधा समर्पण के लिए और उसे पूर्ण कर चैन की सांस ले फिर अपने सामने बैठे किसी भरोसे लाल से गप्पाष्टक में जुट जाता है।

सारतः, बतकहाव में भारतीय संस्कृति, बुन्देलखंडी परिवेश, नर्मदाई अपनत्व, 'सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है' को जीते बाबू  भरोसे लाल और उनकी लात्रानियों पर मुस्कुराते, चुटकी लेते, मिठास के साथ तंज करते, सकल चर्चा को पुराण न बनाकर निष्कर्ष तक ले जाते भैया जी आम आदमी को वह सन्देश दे जाते हैं जो उसकी सुप्त चेतन को लुप्त होने से बचाते हुए सार्थक उद्देश्य तक ले जाता है। विवेच्य कृति अगली कृति की प्रतीक्षा का भाव जगाने में समर्थ है।
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सोमवार, 8 जुलाई 2013

navgeet: champa --sanjiv

नवगीत
चंपा
संजीव
*
​बढ़े सियासत के बबूल
सूखा है चम्पा सद्भावों का,
चलन गाँव में घुस आया है-
शहरी जड़विहीन छाँवों का...
*
पानी भरा टपरिया में,
रिसती तली गगरिया में.
बहू सो रही ए. सी. में-
खटती बऊ दुपहरिया में. 

शासन ने आदेश दिया है
मरुथल खातिर नावों का,​
चलन गाँव में घुस आया है
शहरी जड़विहीन छाँवों का...
*

जंग चरित्री-सरिया में,
बिल्डिंग तन गयी तरिया में.
जंगल जला, पहाड़ खुदे-
आग लगी है झिरिया में.​


​तन ने मन नीलाम किया
है ऊँचा भाव अभावों का,​
चलन गाँव में घुस आया है
शहरी जड़विहीन छाँवों का...
*

शनिवार, 6 जुलाई 2013

doha salila: madhu gupta

दोहा सलिला:

मधु गुप्ता
*
धन-दौलत का पुल बना,जिस पर धावक तीन                     
चढ़ मर्यादा-मान पर, अहं बजावे बीन  

दुःख का कितना माप है, आँसू कितने ग्राम  
नयन तराजू तौलते, भीतर-बाहर थाम 
                 
पत्थर-ईंटें चीन्हकर,  महल लिये चिनवाय 
पाहुन आवत देखकर, नाहक द्वार ढुकाये ?

ईश-दरश  को हम गए, माथे लिया प्रणाम 
क्षण में अर्पित कर दिया, जीवन प्रभु के नाम  
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Madhu Gupta via yahoogroups.com 

kuchh dwipadiyan --sanjiv

कुछ द्विपदियाँ: 
संजीव 
*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो 
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
ane wale laut kar aa jayen to  
aane valon ko jagah hogee kahan?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं 
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
manch se kuchh paatr yadi jayen naheen 
manch par kuchh paatr kaise aayenge?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना 
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर 
jo gaye too unkaa maatam mat mana
shesh hain jo unkee bhee kuchh fiqr kar 
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को 
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
moh-maya taj gaye the teerth ko
mukt maya se hue to shok kyon?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो 
hai sansar asaar to chhutane ka kyon shok?
gaye saar kee khoj men, mila saar khush ho
*

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

doha salila : pranav bharti

doha salila

pratinidhi doha kosh 2-  

purnima barman, sharjah  

प्रतिनिधि दोहा कोष:2

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी तथा पूर्णिमा बर्मन के दोहे। आज अवगाहन कीजिए प्रणव भारती रचित दोहा सलिला में :
:
प्रणव भारती
*
मानव ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी केवल आप 
तथ्य न जो यह मानता, वह करता है पाप  
प्रभु! तेरे दरबार में, मांगूं सबकी खैर
प्रणव नहीं मन में करूँ, कभी किसी से बैर
आस-दिया रवि ने जला, दिया उजाला-ताप 
तूने द्वार ढुका दिए  ,भर मन में संताप

-मन तो जाने बावरा ,मन की कहाँ बिसात
 मन ही मन फूला फिरे ,कहे न असली बात
प्रेम सभी को चाहिए, प्रेम मिले बिन मोल
प्रेम बिना जीवन नहीं, प्रेम कभी मत तोल
संवेदन तुलता नहीं ,जीवन के बाज़ार 
 संवेदन जो तोलता ,वह जीवन बेकार  

चन्दा सा मुखड़ा लिए, हँसी- खुला अध्याय
जब समीप आने कहूँ ,भागे कहकर 'बाय'

माटी के तन में रहे, सोने जैसा मन
जो चाहे सबका भला, रोये न उसका मन
*

ANNA HAJARE visiting JABALPUR





अन्ना हजारे संस्कारधानी जबलपुर में : ८-७-२०१३ 
जनतंत्र यात्रा : आम सभा सरदार वल्लभ भाई पटेल सभाग्रह, सिविक सेंटर जबलपुर
पंचम चरण कार्यक्रम : ५ - १७  जुलाई २०१३
५ जुलाई - रीवा रात्रि विश्राम / ६ जुलाई - रामपुर, हनुमान गढ़, सिमरिया, सीधी रात्रि विश्राम, ७ जुलाई - ब्योहारी, कटनी रात्रि विश्राम, ८ जुलाई - जबलपुर, सिवनी रात्रि विश्राम, ९ जुलाई - छिन्दवाडा, मुलताई, बैतूल रात्रि विश्राम, १० जुलाई - इटारसी, होशंगाबाद रात्रि विश्राम, ११ जुलाई - भोपाल रात्रि विश्राम, १२ जुलाई - शाहगढ़, घवारा, टीकमगढ़ रात्रि विश्राम, १४ जुलाई दतिया, ग्वालियर रात्रि विश्राम, १५ जुलाई - शिवपुरी, गुना रात्रि विश्राम, १६ जुलाई ब्यावरा, शाजापुर रात्रि विश्राम, १७ जुलाई उज्जैन देवास, इंदौर रात्रि विश्राम। 

टैक्सी बैनर, लैटर पैड :

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संयोजक जनतंत्र यात्रा जबलपुर :  http://www.anubhuti-hindi.org/geet/a/acharya_sanjeev_salil/acharya_sanjeev_salil.jpg
श्री जयंत वर्मा                              आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
महत्वपूर्ण ई मेल संपर्क :
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  Jantantra Morcha <jantantramorcha@gmail.com>
To: Sunilam Sunilam <samajwadisunilam@gmail.com>; sunilam_swp@yahoo.com; jantantrayatramp@gmail.com; vinodsingh1954@gmail.com
Sent: Saturday, 29 June 2013 1:14 AM


Subject: Re: Annaji & other's food menue

2013/6/29 Jantantra Morcha <jantantramorcha@gmail.com>
आदरणीय सुनीलम जी
                            नमस्कार
आपने श्री अन्ना हजारे जी के भोजन के संबंध में जानकारी चाही थी जो कि निम्न लिखित है अन्ना जी सुबह नाश्ते में नारियल की चटनी के साथ इडली खाना पसंद करते हैं चटनी में मिर्च बिलकुल भी न हो दोपहर और रात के भोजन में अन्ना जी अरहर की दाल जिसमें जीरा से बघार लगा हो. खाने में भी किसी भी तरह की मिर्च (हरी अथवा लाल)  न हो.  कोई हरी सब्जी, तवा वाली रोटी, प्लेन चावल , दही,  सलाद आदि लेना पसंद करते हैं. रात में सोने के पहले एक गिलास ठंडा दूध
नोटः अन्ना जी का खाना घर का बना हुआ हो. 
अन्य लोग भी सामान्य खाना पसंद करते हैं जिसमें ज्यादा मिर्च न हो. सामान्य तौर पर पूड़ी भोजन में न हो. तवें की रोटी ,प्लेन चावल और दाल आवश्यक रूप से भोजन का हिस्सा हो. 
अन्ना जी के साथ यात्रा में चल रहे मुख्य लोगों का परिचय 
जनरल वी के सिंहः
जनरल वी के सिंह 26 महीने तक भारतीय थल सेना के प्रमुख के पद पर रहे. उन्हें अति विशिष्ट सेवा मैडल और परम विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया गया है. 
सूफी जिलानीः 
सूफी जिलानी जी का संबंध अजमेर से है. वह वर्ल्ड सूफी काउंसिल के चेयरमैन हैं. वर्ल्ड सूफी काउंसिल विश्व की सभी सूफी संस्थाओं को एकीकृत करने वाली संस्था है.  
संतोष भारतीयः 
संतोष भारतीय  देश के जानमाने पत्रकार हैं वह वर्तमान में चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार के प्रधान संपादक हैं. वह उत्तर प्रदेश की फर्रुखाबाद लोकसभा सीट से सांसद भी निर्वाचित हो चुके हैं. 
अन्ना जी और इपरोक्त वर्णित लोगों  के ब्लड ग्रुप की जानकारी जल्दी ही आपको उपलब्ध करा दी जाएगी. 
धन्यवाद, नवीन चौहान, जनतंत्र मोर्चा, 09266627330 / 09266672893






kahani: ek aur mauka -santosh bhauwala

कहानी:

एक और मौका

संतोष भाऊवाला
*
सुशीला अपने बेटे के साथ कलक्टर शोभा से मिलने आई। सुबह के आठ बज गए थे, पर शोभा की नींद ही नहीं खुल रही थी। ऐसा लग रहा था, बरसों बाद इतनी गहरी नींद सोयी थी वह, काका ने कई बार आवाज देकर उठाया, तब जाकर नींद खुली। बाहर आई तो देखा, सुशीला अपने बेटे के साथ उसका इन्तजार कर रही है। आशंकित हुई, कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? पूछा उसने, तो सुशीला ने ख़ुशी से कहा, आपका धन्यवाद करने आई हूँ।  डॉ ने कहा है जल्दी ही मेरा बेटा  ठीक हो जाएगा ,कल से इलाज शुरू हो जाएगा आपकी कृपा से, बाद में नहीं मिल सकूंगी, इसीलिए सोचा आपका धन्यवाद कर दूं ।  शोभा एक ठंडी सांस लेकर बोली, नहीं नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं, कह कर शरीर को ढीला छोड़ दिया और आराम कुर्सी पर सर टिका कर आँखे बंद कर ली। अतीत में गोते खाने लगी .. अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात थी जब ....

  उस दिन सुबह से ही आने जाने वालों की भीड़ लगी थी। शोभा सुबह से सभी को निपटाते निपटाते थक कर चूर हो गई, फिर भी कुछ लोग बाकी थे।  तब शंकर को बुला कर पूछा, बाहर और कितने लोग है ,काका ?, शंकर ने कहा, अभी चार पांच और है।  शोभा ने कहा ...  अब आज और नहीं काका,उन्हें कल आने को कह दीजिये । 
 शंकर ने कहा, एक बहुत ही दुखियारी है।  जंजीर से बेटे को बाँध रखा है। सिर्फ उससे मिल लीजिये। कलक्टर शोभा बहुत सहृदया थी। उसने कहा ठीक है भेज दीजिये, पर बाकी लोगो को वापस भेज दीजिये काका।
शंकर ने यह कह कर,  जैसी आपकी मर्जी, उस दुखियारी को अंदर भेज दिया।   
 शोभा ने देखा, माँ के हाथों में जंजीर है और उसके दूसरे शिरे से बेटे  का हाथ बंधा है। कलक्टर शोभा को बडा अजीब लगा। पूछा उससे , ऐसा क्यों ...
तब दुखियारी माँ कहने लगी ......
 इसे कुछ भी पता नहीं चलता है।  जमीन पर मिटटी हो या पत्थर या फिर अन्य कोई सामान, सब खा जाता है। थोड़ी देर भी हाथ खोलती हूँ तो कहीं चला जाता है।  ऐसे में इसे बांधे रखना ही मजबूरी है।  इसके बाल काटने से लेकर तैयार करने तक का सारा काम मै ही करती हूँ। बचपन से लेकर अब तक कभी चारपाई तो कभी पेड़ के सहारे जंजीर से बंधी रही जिंदगी और यूँ ही निकल गए इसके जीवन के अठारह वसंत। इलाज करवा रहे हैं, पर पैसे की कमी के कारण उचित इलाज नहीं मिल पा रहा। अब तक पच्चास हज्जार रुपये से ज्यादा खर्च हो चुके है। हम गरीब कहाँ से लायें इतना पैसा ? 
कलक्टर ने पूछा, सामाजिक न्याय व् अधिकारिता विभाग की और से पिछले दिनों आसपुर में जो विशेष सहायता शिविर का आयोजन हुआ था, आपने वहां इलाज करवाने की कोशिश नहीं की ?
माँ ने बताया ...हम गए थे शिविर में, पर मनोरोग चिकित्सक न होने की वजह से अधिकारियों ने अगले हफ्ते डूंगरपुर आने का निर्देश दिया था।  
फिर वहां गए नहीं आप लोग?  ..
 हम गए थे पर हमें बेरंग लौटा दिया गया। हम गरीब कमीशन का पैसा कहाँ से लायें।   कहते कहते माँ का गला भर आया।  दिल का दर्द आँखों के रस्ते बाहर आने लगा।  
कलक्टर शोभा को बहुत दुःख हुआ जान कर, उसने विकास अधिकारी से तुरंत बात की और बेटे को चिकित्सालय भेजने और पी ऍम ओ को उदयपुर रेफर करने के निर्देश दिए।  
कलक्टर के आदेश से अफरा तफरी मच गई।  हर तरफ अधिकारी दौड़ लगाते दिखे।  इतने वर्षों से झुझती माँ की आँखों में चमक, आशा की किरण नजर आने लगी थी। मन ही मन शोभा को ढेरों आशीर्वाद दे रही थी और सोच रही थी पता नहीं भगवान् कब किस रूप में सामने आ जाए।  उसके लिए तो शोभा भगवान् का दूत बन कर आई थी।    
दूसरी और कलक्टर शोभा की भी आँखे नम थी, यह सोच कर कि किसी का दुःख कम करने का विधाता ने उसे एक और मौका दिया।
 एक और मौका ....हाँ , याद है एक ऐसी ही घटना जब वह नई नई कलक्टर बन कर आई थी।  जमीन पर पैर नहीं पड़ रहे थे, बस बड़े बड़े लोगो से ही रिश्ते बनाने में लगी थी।  गरीबों से मिलने का समय न था।  उच्च पदस्थ लोगों से मिलना, अपनी तारीफ़ सुनना, पार्टी करना, जैसे यही जीवन है।  उन्ही दिनों एक दुखियार माँ आई थी, उसकी बेटी की तबियत खराब थी, पर वह अहंकार के नशे में चूर उससे नहीं मिली। सुबह काका ने बताया कि कल जो दुखियारी माँ आई थी , उसकी बेटी अब इस दुनिया में नहीं रही।  सुनते ही आँखे चौड़ी हो गई , सोचने लगी क्या वह दोषी है उसकी मौत की .....
फिर दिमाग को झटक कर रोजमर्रा के काम में लग गई।  पुरे दिन फिर वही लोगो से मिलना जुलना ...
शाम को जब अकेली, खुद के साथ थी तो दुखियारी माँ की तस्वीर आँखों के आगे घुमने लगी। मन विचलित सा होने लगा । सोचने लगी ऐसा क्या हुआ है जो मन उदिग्न हो गया है पहले भी वह कई लोगो से नहीं मिली थी पर इस बार ... काका को बुला कर पूछा, काका क्या मेरी गलती है?
 काका बिचारा क्या कहता ....उसे भी तो अपनी नौकरी प्यारी थी।  गाँव में परिवार जो पालना था।  चुप चाप सर झुक कर खड़ा हो गया, क्यों कि ना  कह कर वह अपने जमीर को मारना नहीं चाहता था।  शायद इतनी इंसानियत तो बाकी थी उसमे । 
काका की चुप्पी ने शोभा को अंदर तक हिला कर रख दिया था, तभी उसने मन में सोच लिया था जितना हो सकेगा, लोगो की सहायत करेगी,ऐसी गलती फिर न दोहराएगी ।  जितना हो सकता था शोभा ने किया भी बहुत काम, पर मन के भीतर कहीं कोई खालीपन रहता था, अतृप्त सा, लगता था कहीं कुछ रह गया, कुछ ऐसा जो पीछे छुट गया, जिसे वह चाह कर भी वापस नहीं ला सकती।  

बिटिया घर नहीं जाना? सुन कर वह अतीत की दुनिया से बाहर आई और बोली ... 
हाँ काका चलिए , आज बड़ी जोरो की नींद आ रही है। 
काका ने उसकी आंखों में तृप्ति का भाव देखा, अनुभवी आँखे समझ गई , आज उसके दिल का खालीपन भर गया है । 
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Santosh Bhauwala <santosh.bhauwala@gmail.com>

संतोष भाऊवाला