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गुरुवार, 9 मई 2013

bastar men adivasi vidroh 1876 aur jhada siraha -rajiv ranjan prasad




शोध:


बस्तर में 1876 का आदिवासी विद्रोह और झाड़ा सिरहा


बस्तर में हुए जन-आन्दोलनों के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1876 में झाडा सिरहा के नेतृत्व में हुए भूमकाल अथवा विद्रोह की महत्वपूर्ण जगह है। इस आन्दोलन को बारीकी से देखने पर यह ज्ञात होता है कि आदिवासी न केवल संघर्षशील कौम हैं, अपितु उनकी सिद्धांतवादिता का भी कोई सानी नहीं। 1876 के विद्रोह का दमन केवल इसीलिये हो सका था चूंकि आदिवासियों नें संयम और आदर्शवारिता की स्वयंस्थापित लकीर को पार नहीं किया था। आईये जानते हैं इस संघर्ष को विस्तार से:
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किसी भी क्रांति का सूत्रपात करने तथा उसे सुचारू रूप से संचालित करने का श्रेय उसके नायक को जाता है। बस्तर अंचल में दो बेहद शक्तिशाली जन-आन्दोलन हुए हैं वर्ष 1876 में तथा वर्ष 1910 में; जो लगभग व्यवस्था परिवर्तन की कगार तक पहुँचे किंतु फिर छल-बल से उनका दमन कर दिया गया। ये दोनो ही आन्दोलन क्रांति की मूल परिभाषा के अंतर्गत आते हैं जहाँ जनता अपनी इच्छा की व्यवस्था के लिये स्वयं संगठित हुई। मेरी धारणा है कि क्रांति का कोई ककहरा नहीं होता, क्रांति करने वालों को किसी रटे-रटाये वाक्यों या कि नारों और झंडों की आवश्यकता नहीं होती। मार्क्स-लेनिन-माओ को पढ़े बिना भी बदलाव आते रहे हैं और आयेंगे यह बात बस्तर के स्वत: स्फूर्त आन्दोलनों से बेहतर और कहीं सिद्ध नहीं होता। निश्चित ही मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि आधे बस्तर को लील चुका माओवाद न तो बस्तर का अपना आन्दोलन है न ही क्रांति से इसका कोई लेना देना है। आन्दोलन तो झाड़ा सिरहा ने किया था; आईये जानते हैं उसकी कहानी।

वर्ष 1876 तक अंग्रेजों की पकड़ बस्तर में पूरी तरह मजबूत हो चुकी थी। वर्ष 1862’ में चर्चित दीवान दलगंजन सिंह की मौत के बाद मोतीसिंह बस्तर राज्य के दीवान बनाये गये। दलगंजन सिंह जब तक राज की बागडोर संभाले हुए थे अंग्रेजों को बहुत हद तक मनमानी करने की स्वतंत्रता नहीं मिल रही थी। यही कारण है कि लाल दलगंजनसिंह के बाद राज्य के जो भी दीवान बनाये गये वे अंग्रेजों की पसंद और सलाह से नियुक्त व्यक्ति थे। यह स्वाभाविक था कि यहाँ के आदिवासियों के लिये सारा जंगल उनका है, सारी जमीन उनकी है, सारा पानी उनका है और इसलिये कोई जमीन से जुड़ी सरकानी नीति नहीं थी। दलगंजनसिंह ने अपने समय तक पटेली बन्दोबस्त को इस तरह लागू रखा कि उसमें फसल उगाने वाले और राजा के बीच कोई बिचौलिया नहीं था। सीधे फसल उगाने वाले से ही टैक्स वसूला जाता था। इसके लिये गाँव से ही किसी आदिवासी को पटेल नियुक्त कर दिया जाता जो वसूली करके टैक्स राजकोष में जमा करा देता। पटेलों से “हैसियत साल” नाम से सम्पत्ति कर वसूला जाता था। यहाँ फ्लक्सिबिलिटी थी कि फसल अच्छी है तो लगान की दर अलग और खराब हुई तो अलग। अगले दीवान मोतीसिंह ने टैक्स पेमेंट के ब्रिटिश पैटर्न को अपना लिया। इसका उद्देश्य था ज्यादा लगान वसूलना। अब फसल उगाने वाले और राजा के बीच में पूरी ब्यूरोक्रेसी काम करने लगी। फसल कैसी भी हो टैक्स फिक्ड है। दीवान मोतीसिंह ने बंजारों पर भी आयात शुल्क और चरवाहा कर लगा दिया था। इससे बंजारों की आमद कम होने लगी तथा राज्य का व्यापार प्रभावित होने लगा। यह कदम एक तरह से कालाबाजारी को प्रोत्साहन भी था।

गोपीनाथ राउत कपड़दार ‘वर्ष-1867’ मे ब्रिटिश आदेश पर दीवान नियुक्त किये गये। एक ‘राउत’ को दीवान आसानी से स्वीकार नहीं किया गया। कपड़दार ने पूर्व दीवान मोती सिंह से एक कदम आगे निकलते हुए ठेकेदारी प्रथा को राज्य में लागू किया। उसने कर वसूलने का काम ठेके पर ग्रामप्रमुखों को दे दिया और इसी से वो ठेकेदार भी कहलाने लगे। यह एक छद्म सुधार था। नाप-जोख के अनुसार टैक्स तय कर दिया गया। जमीन की नाप का गणित तो किसी आदिवासी को समझ आता नहीं था। किसने कितनी जमीन जोती और कितनी आमदनी हुई सारा गुणा-भाग हवा में होने लगा। बढ़ा चढ़ा कर लगान वसूली करने का एक सिलसिला आरंभ हो गया। दीवान कपड़दार ने प्रति जोत भूमि का मूल्यांकन एक रुपये से चार रुपये कर दिया। इमारती लकड़ी पर अलग कर लगाया गया। शराब-लांदा-सलफी जो कि आदिवासियों की जिन्दगी थी उस पर भी उत्पाद शुल्क लिया जाने लगा।

केवल दीवान ही नहीं अंग्रेज भी अब नीतियों में सीधे हस्तक्षेप करने लगे थे। पैदावार बढ़ाने के लिये परम्परागत कृषि के तरीकों को बदलने पर जोर दिया जाने लगा। फसल वह ली जाने लगी जो अंग्रेजों को उपयोगी लगती थी। माँग ब्रिटेन में होती थी और कच्चामाल आदिवासी तैयार करते थे। इसी बीच “वन सुरक्षा अधिनीयम’ को लागू किया गया। यह बात समझी जानी चाहिये कि वनों को आदिवासियों से कभी खतरा नहीं था तो फिर उन पर वन सुरक्षा अधिनियम के क्या मायने हो सकते थे? जितने जंगल अंग्रेजों के आने के बाद कटे हैं उतना आदिवासियों की कई पीढ़ी मिल कर भी नहीं काट सकती थी? यह सही है कि जूम कल्टिवेशन के लिये जंगल के हिस्से साफ किये जाते हैं। आदिवासी इसके लिये ज्यादातर श्रब्स या झाडियों वाली जगहें चुनते हैं। पच्चीस पचास पेड़ किसी गाँव ने जूम खेती के नाम पर काट भी दिये तो वह इतना नुकसान हर्गिज नहीं था जो खुद अंग्रेज कर रहे थे। उनकी आरा मशीने जंगलों को मैदान बनाती जा रही थीं।

राजा को पूरी तरह अब नाम बना दिया गया था। हालाकि उसे सन-1865 से फ्यूडेटरी चीफ का स्टेटस दिया गया था किंतु उसकी हैसियत एक ‘सेशन-जज’ जितनी ही थी। उसे किसी भी बड़ी सजा या मृत्युदंड़ देने से पहले चीफ कमिश्नर से ऑर्डर लेने होते थे। इससे राज्य के अधिकारी मनमानी पर उतर आये थे। घोड़ा और कोड़ा शान का प्रतीक बन गया और रियाया की पीठ उनके अधिकारों की प्रदर्शनस्थली। काम जो भी हो उसके लिये ‘बेगार’ लिया जाता। दाम माँगे जाने की सूरत में पीठ पर कोड़े के निशान जख्म छोड़ दिया करते थे। राजा के लिये स्वेच्छा से बेगार करने वाले आदिम भी थे। राजा उनका ‘देव’ जो था; लेकिन उसके माहतहत? लगान के बोझ के बाद भी उन्हें नोचा जाता। किसी मुंशी की बीवी का जी मचलाये तो शाम को बोरा भर इमली उसकी देहरी पर होती थी, वह भी बिना दाम चुकाये। कुछ आदिवासी तो संपन्न लोगों के खरीदे हुए दास थे। इधर अंग्रेज भी बस्तर के राजा और निकटवर्ती रियासतों को छोटी छोटी बातों के लिये उलझाये रखते थे तथा अपने मनमाने फैसलों से किसी को अपमानित तो किसी के अहं को तुष्ट करते रहते थे। उदाहरण के लिये जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाँथी। जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाँथी पकड़वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी इसी काम के लिये भेजी गयी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। यह बड़ा डिस्प्यूट हो गया। अंग्रेजों ने इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव किया। हथिनी को पहले सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा। बाद में उसे जैपोर स्टेट को वापस सौंप दिया गया। वस्तुत: यह बस्तर के राजा को नीचा दिखाने की एक हरकत ही थी।

इन्हीं परिस्थितियों के बीच एक दिन राजा ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के स्वागत के लिये दिल्ली रवाना हो रहे थे। काफिले में सबसे पीछे कई आदिवासी “बेगारी” थे, जो बोझ ढ़ोए चल रहे थे। काफिला जहाँ-जहाँ से गुजरता गाँव का गाँव राजा को देखने उमड़ आता। बच्चों के लिये यह जुलूस एक कौतूहल था तो युवाओं के लिये जिज्ञासा। जबकि कई बूढ़े-आदिम राजा के आगे दण्ड़वत हो रहे थे। सब कुछ सामान्य लग रहा था। काफिला बड़े-मारेंगा पहुँचा। तभी जुलूस ठहर गया। अभी जगदलपुर से महज चौदह किलोमीटर का सफर तय हुआ था। ‘आगरवारा परगना’ का माँझी और उसके साथ लगभग पाँच सौ मुरिया आदिवासियों ने राजा के काफिले को घेर लिया था। आदिवासियों राजा को दिल्ली न जाने का अनुरोध कर रहे थे। उनके अनुसार यदि राजा ही रियासत के बाहर चले गये तो संभव है अंग्रेज उन्हे दुबारा यहाँ आने नहीं देंगे। उनकी अनुपस्थिति में राज्य के सरकारी कर्मचारियों की मनमानी बढ़ जायेगी। आदिवासियों को मुख्य नाराजगी दीवान गोपीनाथ कपड़दार तथा दण्ड न्यायालय के प्रमुख अदितप्रसाद से थी। आदिवासियों द्वारा भैरमदेव को इस तरह रोकना उनके प्रति सम्मान दिखाना था। वह व्यवस्था, जिसके आधीन हुई नृशंसताओं की दास्तान सुनायी और दिखायी गयी, उसका दायित्व स्वयं राजा का ही था।

दीवान ने राजा के आगे की यात्रा का मार्ग तैयार कर दिया। सशस्त्र सिपाहियों के हथियार कंधे से उतर कर हाँथों में आ गये। अंगरक्षक सिपाहियों के हवा में लहराते कोड़ों की सांय सांय भीड़ को धमकाने के लिये थी। लेकिन अपेक्षा के विपरीत आदिवासी अड़ गये। “मैं राजा का सामान आगे नहीं ले जाउंगा” एक मुरिया बेगारी सम्मुख आ गया। उसकी आखों में बात नहीं मानने की शर्मिन्दगी के साथ साथ, बात नहीं मानूंगा की जिद थी। जैसे ही उसकी अवज्ञा का प्रत्युत्तर कोडे से दिया गया बात पूरी तरह बिगड़ गयी। सभी आदिवासियों ने राजा का सामान नीचे रख दिया। स्वाभाविक विरोध का उत्तर दमन नहीं होता है। बात बिगड़ गयी। मुरिया, राजा को आगे नहीं जाने देने पर तुल गये। बात दीवान की प्रतिष्ठा पर आ गयी थी। ‘बेगारी’ सामान ढ़ोने को तैयार नहीं और ग्रामीण काफिले को आगे बढ़ने देने के लिये सहमत नहीं हो रहे थे। राजा हाँथी पर बैठ गये लेकिन एक कदम आगे बढ़ना संभव नहीं था। दीवान की भाषा कड़वी और धमकी भरी थी जिससे मुरिया शांत होने की जगह और गुस्से से भर गये। बात आर या पार पर आ गयी। आखिरकार दीवान की आज्ञा से भीड़ पर गोली चलायी जाने लगी। कुछ ही देर में हाय तौबा और चीख पुकार के बाद चुप्पी हो गयी। तीन लाशों और अठारह गिरफ्तारियों के बाद हुई इस शांति में तूफान के आने की सुनिश्चितता अंतर्निहित थी। भैरमदेव ने स्थिति को समझा और अपनी दिल्ली यात्रा स्थगित कर दी।

राजा का काफिला जगदलपुर लौट आया। गिरफ्तार मुरिया कुरंगपाल जेल भेज दिये गये। गोपीनाथ कपड़दार के लिये तो राजा का वापस लौटना उसकी प्रशासनिक क्षमता की पराजय थी। उसकी क्या इज्जत रह गयी? आदिवासियों पर ही हुकूमत नहीं चला सका, तो किस काम का दीवान? वह एक पल भी जगदलपुर में नहीं रुका। घुड़सवार सैनिक टुकड़ी ले कर सीधे कुरंगपाल आ पहुँचा। दीवान से इस मूल्यांकन में चूक हो गयी कि विद्रोही हो जाने के बाद परिणाम कौन सोचता है? पतंगे जान कर और होश-हवास में ही शमां पर मर मिटते हैं। वह गिरफ्तार कैदियों पर ज्यादती कर अपनी हताशा का प्रतिशोध लेना चाहता था। आततायी हमेशा जोश में होते हैं किंतु वे आम जन के होश का सही मूल्यांकन कभी नहीं कर पाते। दीवान का कुरंगपाल आना कोई तय योजना नहीं, गुस्से में उठाया गया कदम था। कुरंगपाल आते हुए सैनिकों ने भी आतंक फैलाने का ही काम किया। किसी का घर उजाड़ दिया तो किसी के जानवर खोल दिये या किसी की पीठ कोड़े की मार से उधेड़ दी। अफरा-तफरी फैला दी गयी थी, बदला लिया जा रहा था।

कैदियों को जबरन जगदलपुर ले जाने के लिये निकाला गया। सैनिकों और कैदियों में जोर आजमाईश हो ही रही थी कि चार-पाँच सौ मुरिया ग्रामीण अचानक सैनिकों पर झपट पड़े। दीवान को अपने लिये खतरे का जैसे ही आभास हुआ उसने एक पल भी नहीं गँवाया और अपना घोड़ा राजधानी की ओर भगा लिया। भीड़ ने सभी कैदी छुड़ा लिये थे। दीवान के कुछ सिपाही तो भाग निकले लेकिन जो भी मुरियाओं के हत्थे चढ़े उन्हें अधमरा कर दिया गया। अब विद्रोह स्वरूप लेने लगा। मुरियाओं के सामने माँगे साफ हो गयी थीं। दीवान गोपीनाथ कपड़दार, दण्ड न्यायालय का प्रमुख अदित प्रसाद और राजा के तमाम वो मुंशी जिन्हे दीवान ने नियुक्त किया था, विद्रोहियों के निशाने पर थे। इस बीच विद्रोही मुरिया आरापुर गाँव में एकत्रित हुए और सबने मिल कर ‘झाड़ा-सिरहा’ को नेता चुन लिया गया था। चमत्कारी था झाड़ा सिरहा। जादू टोना जानता था। सब मानते थे कि उसने बहुत से पिरेत बस में किये हैं जिनसे वह अपनी बात मनवा लेता है। वस्तुत: किसी भी व्यक्ति की नायक के रूप में स्वीकार्यता उसमे अंतर्निहित विशिष्ठताओं के कारण ही होती है। नेतृत्व के गुण झाड़ा सिरहा में कूट कूट कर भरे थे। उसके दिशा निर्देश पर विद्रोह की स्वीकार्यता को प्रसारित करने का निर्णय लिया गया तथा भागीदारी में सहमति के लिये प्रतीक स्वरूप तीर को गाँव गाँव भेजा गया। जगदलपुर और उससे लगे सभी गाँव-परगने विद्रोह के लिये तत्पर थे। तीर स्वीकार कर लेने का अर्थ ही विद्रोह को गाँव का समर्थन प्राप्त होना था। प्रतीक के रूप में गाँवों के खलिहान में आम की डाल रोंप दी गयी। अपेक्षित परिणाम भी सामने था। राजा की ओर से भी विद्रोह को टालने और सुलह करने की कोशिशे तेज हो गयीं। अपने सभासदों - ‘कुँअर दुर्जनसिंह’ और ‘दुबेदानी’ को राजा भैरमदेव ने विद्रोह का आंकलन करने और सुलह की जमीन तलाशने के लिये भेजा। झाड़ा सिरहा से बातचीत के बाद इस बात पर स्वीकार्यता बनी कि राजा स्वयं विद्रोहियों से बात करने आयेंगे। 
 
राजा के सुलह के लिये आने की खबर ने विद्रोहियों के उत्साह को दुगुना कर दिया। वे यही तो चाहते थे। झाड़ा सिरहा ने एहतियात बरतते हुए अलग अलग स्थानों पर ढ़ेर बना कर पत्थर और हड्डियाँ जमा करवा दीं। उसने विद्रोहियों को उनके शस्त्रों के हिसाब से विभाजित कर दिया था। कोई भी हमला होने की स्थिति में उसका उत्तर दिया जा सकता था। दोपहर ढ़लने लगी थी। राजा की पालकी आरापुर पहुँची। राजा आपनी सैनिक तैयारियों और सिपहसालारों के साथ पहुँचा था। एक सफेद घोड़े में वहाँ राजा का चचेरा भाई लाल कालिन्द्र सिंह भी उपस्थित था जिनके पिता रियासत के दिवंगत बहुचर्चित दीवान दलगंजन सिंह थे। विद्रोहियों और राजा में बात सौहार्द पूर्ण वातावरण में आरंभ हुई। बहुत संभव था कि राजा और विद्रोही किसी मान्य समझौते पर पहुँच भी जाते कि तभी एक दम से अराजकता फैल गयी थी। अचानक दीवान का घोड़ा आरापुर में आते देख कर विद्रोहियों के सब्र ने जवाब दे दिया। दीवान के खिलाफ पनप चुका आक्रोश इतना अधिक था कि उसे देखते ही जनसमूह के समक्ष राजा की उपस्थिति भी गौँण हो गयी। दीवान और राजा, दोनों ने ही इस बात की कल्पना नहीं की थी। अब तक तो यही होता आया था कि राजा का वाक्य अंतिम था।
 
मुरिया अपना आपा खो बैठे और सब कुछ अनियंत्रित हो गया। दीवान को निशाना बना कर पत्थर और हड्डियाँ फेंकी जाने लगी। कपड़दार बचाव के लिये राजा की पालकी की आड़ लेने लगा। विद्रोह के कारणों के केन्द्र में तो वही था और तनाव के माहौल में उसके घोड़े पर बैठ कर आने ने बुझाई जा रही चिंगारी को सुलगा कर दावानल बना दिया। अब बात राजा के हाँथ के बाहर थी। सुरक्षा सैनिकों ने राजा और दीवान को घेरे में ले लिया। विकल्पहीन राजा ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। एक ओर से गोली चलाई जाने लगी और दूसरी ओर से भीड़ पर हाँथी सवार सैनिक छोड़ दिये गये। छह मुरिया आदिवासी मारे गये। दीवान सहित कई सैनिक भी घायल हुए। राजा और दीवान लगभग बच कर वापस लौट आये थे। विद्रोही तितर बितर अवश्य हुए लेकिन अब उनके द्वारा पुन: संगठित हो कर अधिक आक्रामक जवाबी कार्यवायी किये जाने का अंदेशा था। जल्दबाजी में महल के भीतर अनाज का भंडारण किया गया। महल के सभी द्वार बंद कर दिये गये। ज्वालामुखी फट पड़ने से पहले सदियों घुटन सहता है, फिर कठोर चट्टानों को पिघला कर लावा अपना मार्ग बनाता हुआ भयंकर विस्फोट के साथ बाहर निकल आता है। इसके बाद एक नयी भू-आकृति होती है, नयी शिलायें जन्म लेती हैं नया वातावरण बनता है। झाड़ा सिरहा और उसके साथियों के लिये यह परीक्षा की घडी थी। रात होने से पहले ही हजारो विद्रोही मुरिया जगदलपुर पहुँच गये। अचरजपूर्ण रूप से बढ़ते बढ़ते यह संख्या बीस हजार से अधिक हो गयी। झाड़ा सिरहा की सोच और उसका रण कौशल देखते ही बनता था। घेराबन्दी इस तरह की गयी कि महल के भीतर न तो अनाज भेजा जा सकता था न ही पानी। महल से बाहर किसी तरह भी कोई संदेश नहीं ले जाया जा सकता था। इसी तरह दिन और महीने बीतते जा रहे थे।

राजमुरिया आदिवासियों ने राजधानी को चार महीनों से घेरा हुआ था। बीस हजार से अधिक नरमुंड़ अपना काम-काज, खेती-शिकार, परब-तिहार सब कुछ छोड़ कर एकत्रित थे। इन राजमुरियाओं में से हर एक सशस्त्र था। गंडासा, फरसा, टंगिया, भाला, तलवारें और धनुष-बाण से सुसज्जित यह भीड़ जिस क्षण चाहती राजधानी उनकी होती। आन्दोलन व्यवस्था को उलट देने के लिये ही नहीं होते। आन्दोलन इस लिये भी होते है कि व्यवस्था को जन-सामान्य के अनुरूप ढ़लने के लिये बाध्य किया जा सके। अन्यथा दुविधा क्यों थी? अंग्रेजी सत्ता ने राजा को बिना दाँत का कर ही दिया था। उसे सीमित संख्या में सैनिक रखने की अनुमति थी। महल में इतने सैनिक नहीं थे कि सामने एकत्रित राजमुरियाओं के संगठित हमले का जवाब दे सकें। आदिवासी अगर ठान लेते तो भैरमदेव काकतीय वंश के आखिरी राजा होते। ताकत ही सर्वोपरि नहीं होती। झाड़ा-सिरहा का अनुमान था कि महल मे अन्न के भंडार और जल संसाधन सीमित हैं। विद्रोहियों ने सरकारी खजाने को हथिया लिया था। जानकार मुरियाओं से खजाने की गिनती करवायी गयी। आठ से दस मुरिया कोष की निगरानी में तैनात किये गये। जिस गर्व से वह व्यवस्था को चुनौती दे रहा था यह देखते ही बनता था। यह लड़ाई भैरमदेव की जगह झाड़ा-सिरहा की सत्ता निरुपित करने के लिये नहीं थी। यह लड़ाई किसी धारा-विचारधारा या वाद की परिणति भी नहीं थी।

राजमहल के भीतर भी इन परिस्थितियों से बाहर निकलने के लिये निरंतर मंथन चल रहा था। पहले राजगुरु लोकनाथ को समझौते के लिये झाड़ा सिरहा के पास भेजा गया किंतु विफलता ही हाथ लगी। अब एक नाटकीयता पूर्ण साजिश रची गयी। अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से एक पत्र लिखा गया। अब समस्या किसी भी तरह इस पत्र को जयपोर पहुँचाने की थी। चिठ्ठी को एक मिट्टी की हाँडी की तली में रख कर मोम से भर दिया गया। हाँडी में उपर तक पेज भरा गया। मोम और पेज का रंग एक ही होता है अत: यदि विद्रोही जांच भी करते तो चिट्ठी के पकडे जाने की संभावना न्यूनतम थी। हाँडी बाहर ले कर जाने के लिये जिस महिला का चयन किया गया था वह ‘माहरा जाति’ की थी। योजनाकार जानते थे कि महारा जाति के आदिमों की सामाजिक स्थिति हीन मानी जाती है। आम तौर पर माहरा जाति के लोग गाँव में कपड़े बुनने का कार्य करते हैं। वे किसी भी मुरिया ग्राम के आवश्यक निवासी होते हैं। इन कारणों को देखते हुए माहरा महिला की तलाशी होने की संभावना नहीं थी। एक अन्य कारण था कि माहरा ही विद्रोही और राजा के लोगों के बीच सूचना का आदानप्रदान भी कर रहे थे अत: महिला का महल से पेज भरी हांडी ले कर निकलना साधारण बात ही मानी जाती।

यह साजिश पूरी तरह से कामयाब हुई। राजगुरु विद्रोहियों से समझौता करा पाने में मिली विफलता को राजा की नाराजगी बता कर महल से बाहर चले आये। माहरा महिला जैसे ही चिट्ठी को विद्रोहियों से बचा कर निकाल लाने मे सफल हुई, राजगुरु लोकनाथ ने हांडी फोड कर उसे बाहर निकाल लिया। यह चिट्ठी कोरापुट में जा कर पोस्ट कर दी गयी। अंग्रेजों के लिये तो अंधा क्या चाहे दो आँखें वाली बात थी। विद्रोह को दबाने के बहाने राज्य की गर्दन अधिक बेहतर तरीके से दबाई जा सकती थी। तुरंत ही सिरोंचा से थलसेना की तीन रेजिमेंट जगदलपुर के लिये रवाना हुई। पड़ोसी राज्यों की पुलिस को भी अभियान का हिस्सा बनाया गया। अंग्रेज कमाण्डर मैक्जॉर्ज ने इस सेना का नेतृत्व किया। इधर महीनों की घेराबंदी ने झाड़ा सिरहा को निश्चिंत बना दिया था। विद्रोही ‘राज-मुरिया’ अपनी जीत सुनिश्चित मान कर चल रहे थे। उनका अनुमान था कि पानी और रसद की महल में कमी हो गयी है। किसी भी समय उनकी जीत हो सकती है। लम्बे अंतराल के कारण घेराबंदी की सुदृढ़ता में भी कमी आ गयी थी। एक समय में महल के गिर्द दस हजार से अधिक मुरिया एकत्रित रहा करते थे, घटते घटते यह संख्या, अब चार-पाँच हजार रह गयी थी। अचानक हमला हो गया। कुछ मुरिया उस समय खाना खा रहे थे तो कुछ सुस्ता रहे थे। गोलियाँ चलने की आवाजों के साथ ही सबको पैरों के नीचे से जमीन जाती दिखाई पड़ी। प्रतिरोध अव्यवस्थित हो गया। नगाड़े जोर जोर से पीटे जाने लगे जिससे विद्रोही खतरे के प्रति सजग हो जायें और आक्रमण के लिये तैयार हो सकें। नगाड़े की आवाज उन मुरियाओं के लिये भी संदेश था जो निकट के गाँवों में हों और अपने साथियों को सहयोग करने के लिये आ सकें। बहुत देर हो चुकी थी और चिडिया ने खेत चुग लिया। विद्रोही जी-जान से लड़े। कोई तय योजना नहीं रह गयी। कोई पेड़ पर चढ़ कर तीर चला रहा था तो कोई बंदूख से फरसे-भाले लिये भिड़ गया। झाड़ा सिरहा ने भगदड़ रोकने की भरसक कोशिश की। अंतिम परिणाम उसकी समझ में आ गया। अग्रेजों ने झाड़ा सिरहा को पकड़ कर न केवल मार ही डाला अपितु उसके पार्थिव शरीर को इन्द्रावती नदी में बहा दिया गया। एक वीर आदिवासी योद्धा की कहानी का यह दु:खद अंत था।

झाड़ा सिरहा का दुख़द अंत इस लिये कहना होगा चूंकि स्वयं मैकजॉर्ज मानते थे कि मुरिया वस्तुत: अपनी जीती हुई लड़ाई केवल नैतिकता के कारण हार गये थे। मैक्जॉर्ज ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि “विद्रोहियों की संख्या इतनी थी कि वे किसी भी समय आक्रमण कर के महल पर कब्जा कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहाँ तक कि जब हमने पीछे से इनपर आक्रमण किया तब भी यदि ये चाहते तो महल पर हमला कर अधिकारियों की हत्या कर सकते थे, उन्होंने वह भी नहीं किया। सबसे आश्चर्यजनक था कि विद्रोहियों ने राजा का लूटा हुआ खजाना उसे सही सलामत लौटा दिया था।“ इसी रिपोर्ट में मैक्जॉर्ज ने आगे जानकारी दी है कि “जब मुरियाओं ने घेराव कर रखा था तब राजपरिसर में ही उनकी पहुँच में राजकीय जेल भी था। जेल की सुरक्षा में राजा के कुल बीस सिपाही से अधिक तैनात नहीं थे। जेल भी कोई बहुत मजबूत नहीं था, इसकी दीवारे मिट्टी की और छप्पर घास-फूस की थीं। मुरिया विद्रोही जब चाहते जेल की दीवारे तोड़ कर कैदियों को मुक्त करा सकते थे। इनमे कई कैदी तो विद्रोहियों के साथी भी थे। लेकिन ऐसा संयम रखा गया जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती।“
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ऐसा नहीं था कि यह विद्रोह केवल पराजय की दास्तान भर था। आदिवासियों की सभी व्यवहारिक माँगे मान ली गयीं। यद्यपि कुछ विद्रोही भी गिरफ्तार किये गये थी साथ ही साथ गोपीनाथ कपड़दार, अदितप्रसाद और लोकनाथ ठाकुर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन सभी मुंशियों को जिन्हें दीवान के आदेश से काम पर रखा गया था, उन्हें टर्मिनेट कर दिया और रियासत से बाहर जाने के ऑर्डर दे दिये गये। इसके बाद अपनी फितरत के अनुसार मैक्जॉर्ज ने ‘आदिवासी वर्सेज नॉन आदिवासी’ का कार्ड खेला तो इस लड़ाई का विलेन चेहरा दीवान और उसके लोग ही रह गये। इसके साथ ही 8 मार्च 1876 को पहली बार मुरिया दरबार बुलाया गया। दरबार में मैक्जॉर्ज ने राजा और विद्रोही मुरिया नेताओं से आमने-सामने बात की। चाल यह थी कि विद्रोही अगर राजा के प्रति जरा भी असंतोष दिखाते तो भैरमदेव को भी गिरफ्तार किया जा सकता था किंतु योजना से ठीक उलट, न चाह कर भी ‘मुरिया दरबार’ में अंग्रेजों को ‘राजा और प्रजा’ के बीच सुलह कराने में अपनी उर्जा खर्च करनी पडी।” मुरिया दरबार इसके पश्चात प्रतिवर्ष की अनिवार्य परम्परा बन गयी तथा आज भी दशहरे के पश्चात सिरासार में इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। निष्कर्षत: झाड़ा सिरहा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया था तथा 1876 का आन्दोलन मुरिया आदिवासियों की सफलता का इतिहास है।

cartoon / vyabgyachitr

व्यंग्य चित्र

  


darohar sasural chalo gopal prasad vyas

धरोहर:

हास्य रचना

ससुराल चलो

गोपाल प्रसाद व्यास
*
तुम बहुत बन लिए यार संत,
अब ब्रम्हचर्य में नहीं तंत,
क्यों दंड व्यर्थ में पेल रहे,
ससुराल चलो बुद्धू बसंत।
मुख में बीड़ा, कर में गजरा,
आँखों में मस्ताना कजरा,
कुर्ते में चुन्नट डाल चलो, 
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
रूखे-रूखे से बाल चलो,
पिचके-पिचके से गाल चलो,
दो-दो चश्मे, छै-छै टोनिक,
दर्जन भर साथ रुमाल चलो,
स्लीपिंग टेबलेट, अमृतधारा,
कुछ च्यवनप्राश, शोधित पारा,
थैले में सब कुछ डाल चलो,

ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
छोडो फ़ाइल, छोडो लैदर,
देखो कैसा जोली वैदर,
क्यों कलम अकेले रगड़ रहे?
हो जाओ वन से टूगैदर।
वे वहाँ पड़ीं, तुम यहाँ पड़े,
वे वहाँ छड़ीं, तुम यहाँ छड़े।
अर्जेंट आ गयी काल चलो,

ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
मम्मी के मन के मून चलो,
डैडी के अफलातून चलो.
बंडी-बंडी बुश शर्ट पहन,
चिपकी-चिपकी पतलून चलो.
सींकिया सनम, मजनू माडल ,
आँखों पर बैलों सा गोगल।
जी नहीं नमस्ते, कहो 'हलो'
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
साली से गाली खाने को,
सरहज का लहजा पाने को, 
उनकी सखियों से नजर बचा,
कतराने को, इतराने को,
मनचले चलो, मन छले चलो
मन मले चलो, मन जले
भावों में लिए उबाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
लो नयी ट्यून सीखो मिस्टर,
डारा डारा डररर डररर.
फिल्मों के नए नाम रट लो, 
शौक़ीन बहुत उनकी सिस्टर।
वे शर्मीलीन, तुम शर्मीले,
मत ट्विस्ट करो ढीले-ढीले।
हो चुस्त-चपल, वाचाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...

  



navgeet maa ka pyar ompraksh tiwari

मेरी पसंद:
नवगीत
माँ का प्यार
- ओमप्रकाश तिवारी

प्रातकाल उठि के रघुनाथा । मातु-पिता गुरु नावहिं माथा।।

अर्थात, भारतीय संस्कृति में रोज सुबह मां को प्रणाम करके ही दिनचर्या शुरू करने का विधान है। फिर भी, पश्चिमी संस्कृति के अनुसार आज का दिन मातृ दिवस के रूप में निर्धारित है तो एक नवगीत प्रस्तुत है-
लेकिन पाया माँ का प्यार
-------------------------

चॉकलेट
कम खाई मैंने,
लेकिन पाया
माँ का प्यार ।
घर में रहनेवाली
माँ थीं,
घर ही था
उनका संसार,
हँसते-हँसते
दिनभर खटतीं
लगी गृहस्थी
कभी न भार

गरम पराठे
दूध-मलाई,
फिर भी नखरे
मेरे हजार ।

न आया का
दूध चुराना
न मेरे
हिस्से का खाना,
खुद ही
उबटन-तेल लगाकर
थपकी देकर
मुझे सुलाना

पल भर को भी
बाहर जाऊँ,
तो आने तक
तकतीं द्वार ।

नहीं बोर्डिंग का
सुख पाया
न पड़ोस में
समय बिताया,
क्रेच व बेबी सिटिंग
कहाँ थे
था माँ के
आँचल का साया

जन्मदिवस पर
केक न काटा,
किंतु गुलगुलों
की भरमार

+++++++++++

बुधवार, 8 मई 2013

SHATPADEE : acharya sanjiv 'salil'

षट्पदी  :
संजीव 
*
भाल पर, गाल पर, अम्बरी थाल पर
चांदनी शाल ओढ़े ठिठककर खड़ी .
देख सुषमा धरा भी ठगी रह गयी
ओढ़नी भायी मन को सितारों  जड़ी ..
कुन्तलों सी घटा छू पवन है मगन
चाल अनुगामिनी दामिनी की हुई.
नैन ने पालकी में सजाये सपन
देह री! देहरी कोशिशों की मुई..
*
 
एक संध्या निराशा में डूबी मगर, 
थाम कर कर निशा ने लगाया गले.
भेद पल में गले, भेद सारे खुले, 
थक अँधेरे गए, रुक गए मनचले..
मौन दिनकर ने दिन कर दिया रश्मियाँ , 
कोशिशों की कशिश बढ़ चली मनचली-
द्वार संकल्प के खुल गए खुद-ब-खुद, 
पग चले अल्पना-कल्पना की गली..    

मंगलवार, 7 मई 2013

अपनी अपनी बात










grandson of mortyre udham singh A mason

शहीद का वारिस

navgeet ka bhavishya madhukar ashthana


नवगीत चर्चा:
नवगीत परिसंवाद-२०१२ में पढ़ा गया शोध-पत्र
उत्तर प्रदेश में नवगीत का भविष्य
-मधुकर अष्ठाना

साहित्य समाज से आगे चलकर परिवर्तन का मार्ग बनाता है पूरे समाज को चिन्तन की नयी दिशा देता है, साहित्य उपदेशक या प्रवाचक नहीं है किन्तु ऐसा वातावरण बनाता है जिसमें प्रतिरोध एवं प्रतिकार के अंकुर जन्म ले सकें एवं अव्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश ऊर्ध्वगामी हो, किन्तु इस तथ्य के विपरीत वही साहित्य मात्र कुछ लोगों के मनोरंजन के लिये लिखा जाता है तो वह ऊर्ध्वगामी होकर समाज की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करता है और एक परिधि में बन्दी रहकर नकारात्मकता को प्रोत्साहन देता है, अभिजातवर्गीय मनोरंजन वादी किरकिरे साहित्य की मानव विरोधी प्रवृत्ति के विरुद्ध सम्पूर्ण विश्व में बदलाव आया जिसका प्रभाव कहीं जल्द और कहीं देर से आया, भारत में इस बदलाव की लहर देर से आई और गीतों में तो और भी विलम्ब से यह परिणामित हुई, इस बदलाव के प्रथम चरण में छायावादोत्तर गीतों में मामूली नयापन दिखाई पड़ा जिसमें प्रतिरोध और प्रतिकार का स्वर अलक्षित रहा।

वास्तव में गीतों में पविर्तन दूसरे चरण में आया जब लघुमानव के शोषण उत्पीड़न की व्यथा कथा के गीत मुखरित होने लगे, इस क्रम में नूतन कथ्य के अनुकूल भाषा की तलाश प्रारम्भ हुई। गीत ने भाषायी परिवर्तन और नयेपन के लिये नगरीय भाषा के साथ देशज शब्दों की युगलबन्दी को प्रोत्साहित किया, इस गीत में मुहावरों-लोकोक्तियों के योग से नये प्रतीकों और बिम्बों को गति मिली। दोहों की संक्षिप्तता, गजलों की व्यंजना और नयी कविता के विचारों ने इस गीत को नया तेवर और धार दी। जहाँ तक प्रतिरोध प्रतिकार का प्रश्न है यह पूँजी लोक गीतों के रूप में भारत जैसे ग्राम-देश में अकूत विद्यमान है जो पूर्णरूपेण भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं परम्परा की देन है।

इस नये परिवर्तित रूप को अधिकांश रचनाकारों ने नवगीत के रूप में स्वीकार किया जिसमें साधाराण जनता के सुख-दुख, राग-विराग, शोषण-उत्पीड़न, जीवन-संघर्ष, जिजीविषा, त्रासदी, विसंगति, विषमता, विघटन, विद्रूपता, विद्वेष, मानवीय सम्बन्धों में बिखराव, मानवता का क्षरण और संस्कृति का पतन आदि का यथार्थ और वास्तविक चित्रण होने लगा जिसकी आत्मा में सम्वेदना रही एवं थोड़े बहुत परिवर्तन के उपरान्त भी यही क्रम गतिशील है। यदि नवगीतकार श्रीनिर्मल शुक्ल के शब्दों में कहें तो नवगीत खौलती सम्वेदनाओं को वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते हुए परिवेश में भुनती जिन्दगी का स्वर संधान है, वह पछुवा के अंधड़ में तिनके की तरह उड़ते स्वास्तिक की कराह है।" मैं भी जानता हूँ कि नवगीत भावनाओं के खेत में उपजी सम्वेदनाओं की वह फसल है जिसमें पीड़ा की खाद पड़ती है और आँसुओं की सिंचाई होती है। समसामयिक सन्दर्भों की गहन सम्वेदना और अपने परिवेश को अभिव्यक्ति देता यह नवगीत साठ वर्ष से भी अधिक समय को मुखरित कर चुका है और अब भी समाज में जागरण लाने तथा अव्यवस्था के विरुद्ध पूरी क्षमता के साथ आक्रामक है।

नवगीत किसी वाद का प्रवर्तक नहीं है बल्कि मुक्त मानसिकता के साथ मानवता का पोषक है और मानवीय दृष्टिकोण से अपने समय की जाँच परख कर प्रस्तुत करता है। इस शब्द सम्वेदना के यज्ञ में सैंकड़ों रचनाकारों ने अपने विशिष्ट चिन्तन के साथ योगदान दिया है और भविष्य में भी यह क्रम कहीं रुकने वाला नहीं प्रतीत होता है। रागात्मक अन्तश्चेतना से उपजी सम्वेदना का यह छान्दसिक स्वरूप अनवरत रचनाकारों की कृतियों तक ही नहीं सीमित रह गया बल्कि आम आदमी की जबान पर भी चढ़ रहा है। इसके विकास और विस्तार के लिये हमें अपने दृष्टिकोण को असीमित रखते हुए उन सभी गेय एवं नवतायुत काव्य रूपों को नवगीत की परिधि में लाने का प्रयास करना चाहिये जिनमें प्रगतिशीलता व्याप्त है और उनकी कहन एवं कथ्य में भी समानता है एवं भाषा-शिल्प में भी लगभग एकरूपता दिखाई पड़ती है। नवगीत में उन तत्वों के संतुलन और सामंजस्य की बारीकियों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। यदि इसे अन्तर्देशीय रूप देना है तो सहज भाषा छान्दसिकता क्षेत्रीय बोलियों का दाल में नमक के बराबर ही उपयोग आवश्यक है अन्यथा विपरीत दशा में ऐसे नवगीत विशेष क्षेत्र में ही सिमट कर रह जायेंगे।

आज ऐसे गीतकार जो परम्परा के साथ, अपनी अभिजात गीत शैली के द्वारा गहराई से जुड़े थे, उनमें भी नवगीत का प्रबल प्रभाव देखा जा रहा है और नवगीत का कथ्य अपनी परम्परागत शैली में ही लिखने लगे हैं ऐसे भी गीतकार हैं जिन्होंने देर से ही सही नवगीत की अव्यवस्था को समझा और अपनी भाषा शिल्प में परिवर्तन ले आए। इनके अतिरिक्त अनेक युवा रचनाकार भी नवगीत की ओर बढ़े हैं और अपनी पहचान बनाने का प्रयास किया है। नवगीत के क्षेत्र में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश की भूमिका पूर्व से आज तक सशक्त रूप से स्थापित होती रही है। इस क्रम में उत्तर प्रदेश में नवगीत के भविष्य को आपके समक्ष प्रस्तुत करना ही मेरा ध्येय है।

उत्तर प्रदेश में प्रारम्भ से ही नवगीत को उर्वर भूमि मिली, इस प्रदेश में पुराने हों अथवा नये नवगीतकार संख्या में सर्वथा अधिक रहे हैं और यह स्थिति वर्तमान में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। कबीर, तुलसी, सूर, जायसी के समय से लेकर आज तक उत्तरप्रदेश हिन्दी का हृदय बना हुआ है। विधा कोई भी हो यह प्रदेश अग्रणी रहा है। नवगीत के प्रारम्भिक काल में यहीं पर स्मृति शेष डॉ. शम्भुनाथ सिंह, चन्ददेव सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, रवीन्द्र भ्रमर, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, भारतभूषण, उमाशंकर तिवारी, बालकृष्ण मिश्र, नीलम श्रीवास्तव, माधव मधुकर, देवेन्द्र बंगाली, उमाकान्त मालवीय, दिनेश सिंह, कैलाश गौतम, प्रतीक मिश्र आदि जैसे रचनाकारों ने नवगीत को विविध रूप और विविध प्रयोगों के माध्यम से नया आयाम दिया।

वर्तमान में सर्वश्री वृजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’, प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, शचीन्द्र भटनागर, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, रामदेव लाल, माहेश्वर तिवारी, श्याम नारायण श्रीवास्तव, रविन्द्र गौतम, देवेन्द्र शर्मा, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, श्याम निर्मल, ब्रजनाथ, राम सनेही लाल शर्मा, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, अवध बिहारी श्रीवास्तव, श्रीकृष्ण तिवारी, सुरेन्द्र वाजपेयी, गुलाब सिंह, वीरेन्द्र आस्तिक, योगेन्द्र दत्त शर्मा, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, भारतेन्दु मिश्र, सूर्य देव पाठक ‘प्रयाग’, गणेश गम्भीर, ओम धीरज, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान, ओमप्रकाश सिंह, विनय भदौरिया, जय चक्रवर्ती, सुधांशु उपाध्याय, यश मालवीय आदि के अतिरिक्त भी अनेक नवगीतकार हैं जो हैं जो उत्तर प्रदेश के ही कितु वर्तमान में प्रदेश से बाहर बस गये हैं जिनमें बुद्धिनाथ मिश्र, अश्वघोष, विष्णुविराह, मयंक श्रीवास्तव, राधेश्याम बन्धु, पूर्णिमा वर्मन, महेन्द्र नेह आदि महत्वपूर्ण हैं।

इनके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक नवगीतकार हैं जो हैं तो उत्तर प्रदेश के निवासी किन्तु अन्य प्रान्तों में निवास कर रहे हैं और नये रचनाकार जिनकी कम से कम एक कृति प्रकाशित हो गयी है अथवा प्रकाशन की प्रतीक्षा में है, उनकी भी संख्या उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक है। ऐसे रचनाकारों में सर्व श्री योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ अवनीश सिंह चौहान, आनन्द गौरव, संजय शुक्ल, शैलेन्द्र शर्मा, रामनारायण, रमाकान्त, राजेन्द्र बहादुर ‘राजन’, रामबाबू रस्तोगी, विनोद श्रीवास्तव, सत्येन्द्र तिवारी, विनय मिश्र जयशंकर शुक्ल, जयकृष्ण शर्मा तुषार, राजेन्द्र वर्मा, देवेन्द्र ‘सफल’ अभय मिहिर, अनिल मिश्र, राजेन्द्र शुक्ला ‘राज’, कैलाश निगम, मृदुल शर्मा, अनन्त प्रकाश तिवारी, निर्मलेन्दु शुक्ल, अमृत खरे आदि महत्वपूर्ण हैं। यदि खोज की जाये तो यह संख्या लगभग दूनी हो सकती है। नवगीतात्मक रुझान वाले रचनाकारों की संख्या तो इसके दूने से कम नहीं होगी। तीसरी पीढ़ी के अपेक्षाकृत कुछ रचनाकारों से मैं परिचित कराना चाहूँगाः-

डॉ. अवनीश कुमार सिंह चौहान

अंग्रेजी विषय में पी.एच.डी. डॉ. अवनीश मुरादाबाद में तीर्थंकर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता हैं वे नये पुराने सुप्रसिद्ध नवगीत पत्रिका के सम्पादन के साथ ही वेब पत्रिका पूर्वाभास व गीतपहल के समन्वयक एवं सम्पादक हैं। देश की पचासों पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दर्जनों सहयोगी संकलनों में उनके गीत हैं। देश की अनेक संस्थाओं ने तो उन्हें सम्मानित किया ही है, विदेश में भी उनके कार्य एवं सृजन पर अनेक सम्मान एवं पुरस्कार मिल चुके हैं। गीत के सम्बन्द्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं- ‘‘आम गीत किसी देश-विदेश की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा बल्कि समसामयिक स्थितियों परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने कायान्तरण के बाद नवगीत के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि की बात बड़ी बेबाकी से कर रहा है जिसमें समाहित है वस्तुपरता, लयात्मकता, समष्टिपरकता एवं अभिनव प्रयोग, इसलिये वर्तमान में नवगीत प्रासंगिक एवं प्रभावी विधा के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए है। सामाजिक विसंगतियों विद्रूपताओं को देख-सुन कर जब कभी मेरा मन अकुलाने लगता है अथवा कभी प्रेममय, शांतिमय या आनंदमय स्थिति में अपने को पाता हूँ तो मन गाने लगता है और मैं उन शब्दों को कलम बद्ध कर लेता हूँ।’’ उदाहरणार्थ डॉ. चौहान का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-

‘‘बिना नाव के माझी देखे
मैंने नदी किनारे
इनके-उनके ताने सुनना, दिन भर देह जलाना
तीस रुपैया मिले मजूरी नौ की आग बुझाना
अलग-अलग है रामकहानी
टूटे हुए शिकारे

बढ़ती जाती रोज उधारी ले-दे काम चलाना
रोज-रोज झोपड़ पर अपने नये तगादे आना
घात सिखाई है तंगी में
किसको कौन उबारे
भरा जलाशय जो दिखता है केवल बातें घोले
प्यासा तोड़ दिया करना दम मुख को खोले-खोले
अपने स्वप्न भयावह कितने
उनके सुखद सुनहरे‘‘

श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’

हिन्दी विषय से एम.फिल., साहित्य रत्न श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’ वर्तमान में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर एस. के. डी. एकेडमी इन्टर कालेज लखनऊ में कार्यरत हैं। छन्दों की पृष्ठभूमि से निकले श्री राज की नवगीत कृति ‘मुट्ठी की रेत’ प्रकाशनाधीन है। वे निरन्तर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इन्टरनेट पत्रिका अनुभूति में भी इनके गीत आये हैं। इसके अतिरिक्त, आलेख, संस्मरण, भेंटवार्ता तथा समीक्षा आदि भी प्रकाशित होते रहे हैं। पत्रकारिता एवं रंग कर्म में भी उन्होंने प्रयास किया है, लगभग एक दर्जन संकलनों में सहभागी के रूप में संकलित हैं। लखनऊ नगर की अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े श्रीराज ‘सर्वजन हिताय’ साहित्यिक समिति के संयोजक हैं जिसकी मासिक गोष्ठियाँ अविच्छिन्न रूप से हो रही हैं। गीत को श्री राज साहित्य सर्वोत्तम विधा मानते हैं जबकि वे छन्दों में भी बेहद कुशल हैं। उनका यह भी कहना है कि गीत के संशोधित, परिवर्धित रूप में अपनी विगत पीड़ाओं को समष्टिगत रूप देना ही वास्तविक नवगीतकार का मुख्य रचनाधर्म है और ऐसी स्थिति में यथार्थता के साथ परिवेश का चित्रण सहज ही होता है। सृजन में रचनाकार का निष्पक्ष एवं ईमानदार कथ्य ही उसे समाज से जोड़ता है उदाहरणार्थ उनका एक नवगीत मैं यहाँ पर उद्धृत कर रहा हूँ:-

‘‘मुश्किल में मुस्कान हमारी क्या बोलूँ
संकट में पहचान हमारी
क्या बोलूँ
नालन्दा में लंदन पेरिस, कुटियों में
हम, बाजारी लाश खोजते दुखियों में
आसमान छू लिया मगर गिर गये बहुत
ग्रहण लगा बैठे धरती की खुशियों में
कैसी रही उड़ान हमारी
क्या बोलूँ
हमने थामा शास्त्र,शस्त्र को छोड़ दिया
प्यासा आया पास, तो गला रेत दिया
ऐसा तंत्र रचा विचार की मौत हुई
अपनी पीढ़ी को हमने बस पेट दिया
छवि है लहूलुहान हमारी
क्या बोलूँ’’

श्री संजय शुक्ल

स्नातक अध्यापक प्राकृतिक विज्ञान के पद पर शिक्षा विभाग, दिल्ली में कार्यरत हैं। अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। नवगीत के अतिरिक्त गजल और समीक्षक के रूप में भी उनकी प्रसिद्धि है। दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी उनके गीत-नवगीत प्रसारित होते हैं। अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। छन्दोबद्ध सृजन के प्रबल पक्षधर श्री शुक्ल मानते हैं कि ‘‘अपने भोगे यर्थार्थ से उपजी लौकिक-अलौकिक कल्पनाओं की कवि द्वारा की गयी कलात्मक, लयात्मक स्वर-ताल से सुसज्जित गीत रचना श्रोता और पाठक को मुग्ध करती है। नवगीत में अपने समय को अभिव्यक्त करने का संकल्प लिया है जो एक चुनौती है इसलिये दूर-दूर तक इसमें खुरदुरापन पसरा हुआ है। वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और लिजलिजे विज्ञापन के युग में कोमल, सरल, सरस, बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से अपने परिवेश को व्यक्त करना अब सम्भव नहीं रहा। कवियों ने नये सन्दर्भों, नये विमर्शों को पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों से जोड़ कर अपने सृजन को समृद्ध तो किया ही है साथ अर्थवत्ता को व्यापकता प्रदान की है। कवि अपनी समृष्टि और ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा से स्वान्तः सुखाय और लोक मंगल के लिये भाव प्रवण मार्मिक गीतों के साथ-साथ सत्ता की अराजकता पर व्यंग्य गीत लिख रहे हैं और लिखते रहेंगे।’’

उदाहरणार्थ श्री संजय शुक्ल का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-

‘‘ठीक बरस भर बाद सुखनवाँ घर को लौट रहा
सम्भावित प्रश्नों के उत्तर
मन में सोच रहा
पूछेगी अम्मा बचुआ क्यों इतने सूख रहे
पीते प्यास रहे अपनी क्या खाते भूख रहे
कह दूंगा अम्मा शहरों की उल्टी रीति रही
वही सजीले दिखते जिनके
तन में लोच रहा
बहुत तजुर्बा है आंखें सब सच-सच पढ़ लेंगी
गरजें बापू का मन बातें क्या-क्या गढ़ लेंगी
कह दूंगा फिर भी बिदेश में मरे न मजदूरी
नहीं अधिक खटने में
मुझको भी संकोच रहा
बहिना की अंखियाँ गौने का प्रश्न उठायेंगी
भौजी दद्दा की दारू का दंश छिपायेंगी
दिल घबराया तो मनने कुछ सुखद कल्पना की
झुकी हुई दादा की मूँछें
मुन्ना नोंच रहा

चाहेंगे मनुहार प्रश्न कुछ भोले, कुछ कमसिन
हमला बाजारों से लाया बेंदी-हेयरपिन
सिल्की जोड़ों के जैसा फिर प्यार व्यार होगा
रंगमहल सा देख रेल का
जनरल कोच रहा’’

उपर्युक्त उद्धरणों और नवगीतकारों का चिन्तन, भाषा, शिल्प और कथ्य की कहन स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि ये होनहार दिखे एक दिन वटवृक्ष बनेंगे और नवगीत को आगामी सदी तक ले जायेंगे। नवोदित नवगीतकारों के सृजन में, उनकी चुनौतियों, उनके परिवेश, राष्टप्रिय एवं वैश्विक परिदृश्य तथा आम आदमी का जीवन-संघर्ष, उसकी जिजीविषा आदि के साथ विसंगतियों तथा विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति नूतन प्रतीक-बिम्बों के साथ एक ताजगी का अनुभव कराती है जिसमें वर्तमान पीढ़ी का आक्रोश, प्रतिकार तथा प्रतिरोध स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। नये नवगीतकारों का दृष्टि कोण जहाँ पुराने नवगीतकारों से भिन्न है वहीं उनकी सोच का दायरा भी विस्तृत है और प्रायः अधिकांश अपनी जमीन तथा अपना मार्ग स्वयं निर्धारित कर रहे हैं। उनके सृजन में कहीं भी छायाप्रति दिखने की गुंजाइश नहीं है। नवगीत के लिये निश्चित रूप से यह शुभलक्षण हैं जो विद्वान नवगीत के भविष्य के प्रति निराशा व्यक्त करते हैं उनसे सहमत होना सम्भव नहीं है। जब तक नवता तथा गेयता के प्रति समाज में अभिरुचि एवं आकर्षण रहेगा, लोकगीत रहेंगे, संगीत विद्यमान रहेगा, तब तक नवगीत की उपस्थिति चेतना को झकझोरती रहेगी और नये-नये नवगीतकार नवगीत को नया रूप-सौन्दर्य और समसामयिक यथार्थबोध अलंकृत कर आगे बढ़ाते रहेंगे।

doha gatha 3 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा : ३.


दोहा छंद  अनूप  


संजीव 
*

नाना भाषा-बोलियाँ, नाना भूषा-रूप।
पंचतत्वमय व्याप्त है, दोहा छंद अनूप।।


"भाषा" मानव का अप्रतिम आविष्कार है। वैदिक काल से उद्गम होने वाली भाषा शिरोमणि संस्कृत, उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, सदियों पश्चात् आज तक पल्लवित-पुष्पित हो रही है। भाषा विचारों और भावनाओं को शब्दों में साकारित करती है। संस्कृति वह बल है जो हमें एकसूत्रता में पिरोती है। भारतीय संस्कृति की नींव "संस्कृत" और उसकी उत्तराधिकारी हिन्दी ही है। "एकता" कृति में चरितार्थ होती है। कृति की नींव विचारों में होती है। विचारों का आकलन भाषा के बिना संभव नहीं। भाषा इतनी समृद्ध होनी चाहिए कि गूढ-अमूर्त विचारों और संकल्पनाओं को सहजता से व्यक्त कर सके। स्पष्ट विचार समाज में आचार-विचार की एकरूपता याने "एकता" को पुष्ट करते हैं।

भाषा, भाव विचार को, करे शब्द से व्यक्त।
उर तक उर की चेतना, पहुँचे हो अभिव्यक्त।।


उच्चार :


ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार।
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार।।


ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।

सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद।
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद।।


उच्चारण स्थान
वर्ग
कठोर(अघोष) व्यंजन
मृदु(घोष) व्यंजन




अनुनासिक
कंठ
क वर्ग
क्
ख्
ग्
घ्
ङ्
तालू
च वर्ग
च्
छ्
ज्
झ्
ञ्
मूर्धा
ट वर्ग
ट्
ठ्
ड्
ढ्
ण्
दंत
त वर्ग
त्
थ्
द्
ध्
न्
अधर
प वर्ग
प्
फ्
ब्
भ्
म्
विशिष्ट व्यंजन

ष्, श्, स्,
ह्, य्, र्, ल्, व्


कुल १४ स्वरों में से ५ शुद्ध स्वर अ, इ, उ, ऋ तथा ऌ हैं. शेष ९ स्वर हैं आ, ई, ऊ, ऋ, ॡ, ए, ऐ, ओ तथा औ। स्वर उसे कहते हैं जो एक ही आवाज में देर तक बोला जा सके। मुख के अन्दर ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दांत, होंठ) से जिन २५ वर्णों का उच्चारण किया जाता है उन्हें व्यंजन कहते हैं। किसी एक वर्ग में सीमित न रहने वाले ८ व्यंजन स्वरजन्य विशिष्ट व्यंजन हैं।

विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन :

य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श् तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं।

स्वराश्रित व्यंजन:

  तीन स्वराश्रित व्यंजन अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग (:) हैं।

संयुक्त वर्ण :

विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, क्त आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है।

मात्रा :

उच्चारण की न्यूनाधिकता अर्थात किस अक्षर पर कितना कम या अधिक भार ( जोर, वज्न) देना है अथवा किसका उच्चारण कितने कम या अधिक समय तक करना है ज्ञात हो तो लिखते समय सही शब्द का चयन कर दोहा या अन्य छांदस काव्य रचना के शिल्प को सँवारा और भाव को निखारा जा सकता है। गीति रचना के वाचन या पठन के समय शब्द सही वजन का न हो तो वाचक या गायक को शब्द या तो जल्दी-जल्दी लपेटकर पढ़ना होता है या खींचकर लंबा करना होता है, किंतु जानकार के सामने रचनाकार की विपन्नता, उसके शब्द भंडार की कमी, शब्द ज्ञान की दीनता स्पष्ट हो जाती है। अतः, दोहा ही नहीं किसी भी गीति रचना के सृजन के पूर्व मात्राओं के प्रकार व गणना-विधि पर अधिकार कर लेना जरूरी है।

उच्चारण नियम :

उच्चारण हो शुद्ध तो, बढ़ता काव्य-प्रभाव।
अर्थ-अनर्थ न हो सके, सुनिए लेकर चाव।।

शब्दाक्षर के बोलने, में लगता जो वक्त।
वह मात्रा जाने नहीं, रचनाकार अशक्त।।

हृस्व, दीर्घ, प्लुत तीन हैं, मात्राएँ लो जान।
भार एक, दो, तीन लो, इनका क्रमशः मान।।


१. हृस्व (लघु) स्वर : कम भार, मात्रा १ - अ, इ, उ, ऋ तथा चन्द्र बिन्दु वाले स्वर।

२. दीर्घ (गुरु) स्वर : अधिक भार, मात्रा २ - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं।

३. बिन्दुयुक्त स्वर तथा अनुस्वारयुक्त या विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। यथा - नंदन, दु:ख आदि.

४. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है।

५. प्लुत वर्ण : अति दीर्घ उच्चार, मात्रा ३ - ॐ, ग्वं आदि। वर्तमान हिन्दी में अप्रचलित।

६. पद्य रचनाओं में छंदों के पाद का अन्तिम हृस्व स्वर आवश्यकतानुसार गुरु माना जा सकता है।

७. शब्द के अंत में हलंतयुक्त अक्षर की एक मात्रा होगी।

पूर्ववत् = पूर् २ + व् १ + व १ + त १ = ५

ग्रीष्मः = ग्रीष् 3 + म: २ +५

कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ = ४

हृदय = १ + १ +२ = ४

अनुनासिक एवं अनुस्वार उच्चार :

उक्त प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) का उच्चारण नासिका से होने का कारण ये 'अनुनासिक' कहलाते हैं।

वर्ग-अंत के वर्ण का, नाक करे उच्चार।
अनुनासिक उसको कहें, गुणिजन सोच-विचार।।

१. अनुस्वार का उच्चारण उसके पश्चातवर्ती वर्ण (बाद वाले वर्ण) पर आधारित होता है। अनुस्वार के बाद का वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चारण उस वर्ग का अनुनासिक होगा। यथा-

१. अनुस्वार के बाद क वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ङ् होगा।

क + ङ् + कड़ = कंकड़,

श + ङ् + ख = शंख,

ग + ङ् + गा = गंगा,

ल + ङ् + घ् + य = लंघ्य

२. अनुस्वार के बाद च वर्ग का व्यंजन हो तो, अनुस्वार का उच्चार ञ् होगा.

प + ञ् + च = पञ्च = पंच

वा + ञ् + छ + नी + य = वांछनीय

म + ञ् + जु = मंजु

सा + ञ् + झ = सांझ

३. अनुस्वार के बाद ट वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ण् होता है.

घ + ण् + टा = घंटा

क + ण् + ठ = कंठ

ड + ण् + डा = डंडा

४. अनुस्वार के बाद 'त' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण 'न्' होता है.

शा + न् + त = शांत

प + न् + थ = पंथ

न + न् + द = नंद

स्क + न् + द = स्कंद

५ अनुस्वार के बाद 'प' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार 'म्' होगा.

च + म्+ पा = चंपा

गु + म् + फि + त = गुंफित

ल + म् + बा = लंबा

कु + म् + भ = कुंभ

आज का पाठ कुछ कठिन किंतु अति महत्वपूर्ण है। अगले पाठ में विशिष्ट व्यंजन के उच्चार नियम, पाद, चरण, गति, यति की चर्चा करेंगे।

अनुरोध :
आप अपनी पसंद का एक दोहा चुनें और उसकी मात्राओं की गिनती कर भेजें। अगली गोष्ठी में हम आपके द्वारा भेजे गए दोहों के मात्रा सम्बन्धी पक्ष की चर्चा कर कुछ सीखेंगे।
गौ भाषा को दुह रहा, दोहा कर पय-पान।।
सही-ग़लत की 'सलिल' कर, सही-सही पहचान।।

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muktika: sanjiv 'salil'

मुक्तिका

संजीव
*
हमको केवल खुद से प्यार
बनते जग के पहरेदार
कुर्सी पा मनमानी की
औरों को उपदेश हजार
देख छिपकली  डर जाते
लेकिन शेखी रहे बघार
नगद न नौ है हाथों में
तेरह चाहें मिले उधार
मन का मैल न धोते हैं
तन को अपने रहे निहार
अपनी रखते परदे में
सब की बीबी रहे निहार
दिया नहीं दिल जला रहे
'सलिल' ने देना भाग्य पजार

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० स्वास्थ्य :
आम बीमारियों का घरेलू इलाज
अन्नपूर्णा बाजपेयी 

कब्ज :- पेट साफ न होना, भूख न लगना, पेट मे भारी पन कब्ज के लक्षण है।

कारण :- भोजन ठीक तरह से चबाया न गया हो, या समय पर न किया गया हो, शारीरिक परिश्रम नहीं करने पर, अधिक चाय, काफी, शराब, तली भुनी चीजें, खट्टी चटपटी चीजें, सेवन करने से तथा आंतों व लीवर मे गड़बड़ी होने पर कब्ज हो जाती है । 

निदान :- काला नमक और छोटी हर्र का चूर्ण बना कर रख लें रोज सुबह शाम एक छोटी चम्मच गरम पानी से लें। रेशेदार भोज्य पदार्थों का सेवन करें। चाय, काफी, शराब, खट्टी चटपटी वस्तुएं न खाएं । सोते समय  बिना चीनी का गरम दूध लें , सुबह पेट खुल कर साफ हो जाएगा ।  

नोट :- अल्सर से ग्रसित रोगी उपरोक्त नुस्खे का सेवन न करें यदि दूध लेना चाहे तो ले सकते हैं। ऐसे रोगी डाक्टरी सलाह से कुछ भी लें तो बेहतर रहेगा ।


एसिडिटी :- इस रोग मे खट्टी डकारें आती है पेट से लेकर गले तक जलन होती है प्रायः पित्त अधिक बढ़ जाने पर रोगी उल्टियाँ करने लगता है बार बार शौच के लिए जाता है किन्तु आराम नहीं मिलता । 


कारण :-   अधिक तेल मसाले दार भोजन, अधपका मांसाहार , लाल मिर्च का सेवन चाय ,काफी ,शराब इत्यादि पित्त को बढ़ाने मे सहायक होती हैं ।

निदान :- त्रिफला 300 ग्राम, खाने वाला सोडा 25 ग्राम , नींबू का रस 12 ग्राम , काला नमक 25 ग्राम सारी सामग्री को कूट पीस कर कपड़ छान कर शीशी मे भर कर रख लें। रात मे 10 ग्राम चूर्ण पानी मे भिगो कर रख दें । सुबह छान कर पी लें । इसका सेवन करने के एक घंटे के बाद ही कुछ खाएं या पिये । ठंडा दूध ,चावल, हरी पत्ते दार सब्जियाँ , मीठे फल खाएं । भारी, तीखी, तेज मसाले दार चीजें न खाएं । 

नोट :- जिनकी आंतों मे फोड़ा हो वे नुस्खे का प्रयोग न करें । 


भूख न लगना :-  किसी बीमारी वश या मानसिक तनाव के कारण , अत्यंत थकान के कारण मंदाग्नि पैदा हो जाती है जिससे यह समस्या उत्पन्न होती है ।

निदान :- पके सेब के रस मे मिश्री मिलाकर पीने से लाभ होता है।

नोट :- डायबिटीज़ के रोगी इसका सेवन न करे।


साधारण ज्वर :-  ऋतु परिवर्तन , गरम ठंडा हो जाने से, वर्षा मे भीग जाने से और किसी अन्य कारण से भी बुखार हो जाता है । 

निदान :- शहद 6 ग्राम ,  बंगला पान का रस 6 ग्राम , अदरक का रस 6 ग्राम तीनों मिलाकर दवा सुबह शाम ले  बुखार उतर जाएगा। 

नोट :- अम्ल पित्त के रोगी इस नुस्खे का सेवन न करें । 

रक्ताल्पता :-  किसी संक्रामक रोग के होने पर , लीवर और तिल्ली की गड़बड़ी होने पर , रक्तस्राव   होने पर , पौष्टिक भोजन की कमी होने से यह समस्या हो जाती है । इसमे रोगी के नाखून और चेहरा पीला पड़ जाता है आंखे धँसी सी लगती हैं ।

निदान :-  टमाटर के 100 ग्राम रस मे काला नमक मिलकर सुबह शाम पीने से रक्ताल्पता दूर होती है । चुकंदर का रस 50 ग्राम गाजर का रस 50 ग्राम मिलाकर काला नमक मिला ले और सुबह शाम पिये । और भोजन को नियमित करें, इसमे लौह तत्त्वों वाली सब्जियों तथा फलों को शामिल करें। डाक्टरी सहायता से एनीमिया के कारणों को दूर करने का प्रयास करें ।


बच्चों की सर्दी :-  ठंडी चीजों को खाने से, बारिश मे भीगने से, अधिक बर्फ या आइसक्रीम खाने से ,  बच्चों को सर्दी हो जाती है ।

निदान:-  आधा चम्मच अदरक का रस , आधा चम्मच शहद मिलकर सुबह शाम  दें। एक बादाम चार कालीमिर्च चबाकर खिलाएँ । दस तुलसी की पत्तियाँ, काली मिर्च चार दाने कूट कर , गुड , अदरक , एक चुटकी सेंधा नमक  एक गिलास पानी उबाल लें आधा रह जाने पर काढ़ा छान कर रोगी को सुबह शाम  दें तुरंत आराम मिलेगा । 

नोट : - एसिडिटी वाले रोगियों के लिए काढ़ा बनाते समय कालीमिर्च न  डालें ।napurna409@gmail.com .

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आज की कविता 
हे शिव!
राज राजीव कुमार श्रीवास्तव
*
हे शिव! ये तुम्हीं तो हो!
आँधियों की तेज़ आवाज़ कहती है कि तुम हो,
पेड़ों का झूमना और पर्वतों का अडिग रहना,
लहरों का उठना और झरनों का गिरना,
धरती की कोख का बीज और माँ की कोख का अंश,
फूलों की महक और तितली के रंग,
सूरज का उगना, ढलना और तारों का चमकना,
बारिश की बूँदें और धरती का सोंधापन,
चमकते और पिघलते हिमशिखर,
दूब पर टिके पावन ओस के कण,
घंटों की मधुर ध्वनि और ॐ का स्वर,
चहचहाते पंछी और उड़ते बादल,
सोना उगलती धरती और चांदी बहाते पर्वत,
साँसों का संगीत, सब कहते हैं कि तुम हो,
झूमते, गाते, महकते, खिलखिलाते,
चमकते, बोलते और सिर सहलाते,
हे शिव! ये तुम्हीं तो हो!

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बोध कथा :
दौलत 
दीप्ति गुप्ता 

बचपन में दौलत राम बहुत ग़रीब था। समय के साथ साथ उसने शहर में जाकर ख़ूब मेहनत की और बहुत पैसा कमाया। जैसे-जैसे लक्ष्मी मैया की कृपा होती गई, दौलत राम का घमण्ड बढ़ता गया और वो हर किसी को नीची निगाह से देखने लगा।
बहुत दिन बाद वो शहर से अपने गाँव आया। दुपहर में एक बार जब वो घूमने निकला तो उसे अपने बचपन की सारी यादें ताज़ा होने लगीं। उसे वो सारे दृश्य याद आने लगे जहाँ उसने अपना बचपन बिताया था। एकाएक उसका ध्यान एक बरगद के पेड़ पर पड़ा जिस के नीचे एक आदमी आराम से लेटा हुआ था। क्योंकि धूप थोड़ी तेज़ होने लगी थी इसलिए दौलत राम सीधा वहाँ पहुँचा और देखा कि उसका बचपन का साथी कन्हैया वहाँ आराम से लेटा हुआ है।
बजाए इस के कि दौलत राम अपने पुराने मित्र का हाल चाल पूछे, उस ने कन्हैया को टेढ़ी नज़र से देख कर कहा-
 ओ कन्हैया, तू तो बिल्कुल निठल्ला है। न पहले कुछ करता था और न अब कुछ करता है। मुझे देख मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ।
यह सुनकर कन्हैया थोड़ा बुड़बुड़ा कर बैठ गया। दौलत राम का हालचाल पूछा और कहने लगा कि समस्या क्या है। दौलत राम के ये कहने पर कि वो काम क्यों नहीं करता, कन्हैया ने पूछा कि उस का क्या फ़ायदा होगा। दौलत राम ने कहा कि तेरे पास बहुत सारे पैसी हो जाएँगे।
उन पैसों का मैं क्या करूँगा? कन्हैया ने फिर प्रश्न किया।
अरे मूर्ख, उन पैसों से तू एक बहुत बड़ा महल बनाएगा।
क्या करूँगा मैं उस महल का?  कन्हैया ने फिर तर्क किया।
ओ मन्द बुद्धि उस महल में तू आराम से रहेगा, नौकर चाकर होंगे, घोड़ा गाड़ी होगी, बीवी बच्चे होंगे। दौलत राम ने ऊँचे स्वर से गुस्से में कहा।
फिर उसके बाद? कन्हैया ने फिर प्रश्न किया।
अब तक दौलत राम अपना धीरज खो बैठा था। वो गुस्से में झुँझला कर बोला-
ओ पागल कन्हैया, फिर तू आराम से लम्बी तान कर सोएगा।
ये सुन कर कन्हैया ने मुस्कुराकर जवाब दिया- सुन मेरे भाई दौलत, तेरे आने से पहले, मैं लम्बी तान के ही तो सो रहा था।
ये सुनकर दौलत राम के पास कुछ भी कहने को नहीं रहा। उसे इस चीज़ का एहसास होने लगा कि जिस दौलत को वो इतनी मान्यता देता था वो एक सीधे-साधे कन्हैया की निगाह में कुछ भी नहीं। आगे बढ़ कर उसने कन्हैया को गले लगा लिया और कहने लगा कि आज उसकी आँखें खुल गई हैं। दोस्ती के आगे दौलत कुछ भी नहीं है। इंसान और इंसानियत ही इस जग में सब कुछ है।
 
"gupta, deepti" <drdeepti25@yahoo.co.in>

सोमवार, 6 मई 2013

strange but true

विचित्र किन्तु सत्य

दांत से आंख तक 


indian spy in pak army


पाक सेना में भारतीय जासूस 
रेहान फ़ज़ल

भारत पाकिस्तान सीमा

विभाजन के बाद से ही भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य नहीं है
पाकिस्तान में ज़िंदगी की जंग हारने वाले सरबजीत को लेकर भले ही ये विवाद हो कि वो भारत के जासूस थे या नहीं, लेकिन ये मामला जासूसी की रहस्यमयी दुनिया की तरफ ध्यान खींचता है.
जो जासूस सरकारों के लिए बेहद अहम जानकारी का जरिया होते हैं, उन्हें ही वो अक्सर नहीं स्वीकारती. हालांकि रवींद्र कौशिक जैसे जासूस फिर भी अपनी जान पर खेल इस काम को अंजाम देते हैं.
कौशिक की मौत भी पाकिस्तानी की ही एक जेल में हुई थी.
लेकिन मौत से पहले के उनके कारनामे किसी फ़िल्म से कहीं ज्यादा रोमांचक कहे जा सकते हैं.
वो न सिर्फ भारत के लिए जासूसी करने पाकिस्तान गए बल्कि उन्होंने पाकिस्तानी सेना में मेजर तक का पद हासिल कर दिया. बताया जाता है कि पाकिस्तानी सेना में रहते हुए उन्होंने भारत को बहुत अहम जानकारियां दीं.
रॉ के कई पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों ने इस संवाददाता से नाम न बताने की शर्त पर इस बात की पुष्टि की है.
माना जाता है कि सलमान खान की फिल्म 'एक था टाइगर' रवींद्र कौशिक की ज़िंदगी से प्रेरित थी.
ये भी कहा जाता है कि तत्कालीन गृहमंत्री एसबी चव्हाण ने उन्हें 'ब्लैक टाइगर' का नाम दिया था.

'जांबाज जासूस'

राजस्थान के श्रीगंगानगर ज़िले के रहने वाले कौशिक ने 23 वर्ष की आयु में स्तानक की पढ़ाई करने के बाद ही भारतीय खुफ़िया एजेंसी रॉ में नौकरी शुरू की.
साल 1975 में कौशिक को भारतीय जासूस के तौर पर पाकिस्तान भेजा गया था और उन्हें नबी अहमद शेख़ का नाम दिया गया. पाकिस्तान पहुंच कर कौशिक ने कराची के लॉ कॉलेज में दाखिल लिया और कानून में स्तानक की डिग्री हासिल की.
जाने के पहले उनका खतना भी कराया गया था.
इसके बाद वो पाकिस्तानी सेना में शामिल हो गए और मेजर के रैंक तक पहुंच गए. लेकिन पाकिस्तान सेना को कभी ये अहसास ही नहीं हुआ कि उनके बीच एक भारतीय जासूस काम कर रहा है.
कौशिक को वहां एक पाकिस्तानी लड़की अमानत से प्यार भी हो गया. दोनों ने शादी कर ली और उनकी एक बेटी भी हुई

भारत पाकिस्तान सीमा

दोनों देशों का एक दूसरे पर अविश्वास तनाव की मुख्य वजह माना जाता है
कौशिक ने अपनी जिंदगी के 30 साल अपने घर और देश से बाहर गुजारे.
इस दौरान पाकिस्तान के हर कदम पर भारत भारी पड़ता था क्योंकि उसकी सभी योजनाओं की जानकारी कौशिक की ओर से भारतीय अधिकारियों को दे दी जाती थी.

कैसे खुला राज

लेकिन 1983 में कौशिक का राज खुल गया. दरअसल रॉ ने ही एक अन्य जासूस कौशिक से मिलने पाकिस्तान भेजा था जिसे पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी ने पकड़ लिया.
पूछताछ के दौरान इस जासूस ने अपने इरादों के बारे में साफ़ साफ़ बता दिया और साथ ही कौशिक की पहचान को भी उजागर कर दिया.
हालांकि कौशिक वहां से भाग निकले और उन्होंने भारत से मदद मांगी, लेकिन भारत सरकार पर आरोप लगते हैं कि उसने उन्हें भारत लाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई.
आखिरकार पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों ने कौशिक को पकड़ लिया और सियालकोट की जेल में डाल दिया. वहां न सिर्फ उनका शोषण किया गया बल्कि उन पर कई आरोपों में मुकदमा भी चला.
बताते हैं कि वहां रवींद्र कौशिक को लालच दिया गया कि अगर वो भारतीय सरकार से जुड़ी गोपनीय जानकारी दे दें तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा. लेकिन कौशिक ने अपना मुंह नहीं खोला, पाकिस्तान में कौशिक को 1985 में मौत की सजा सुनाई गई जिसे बाद में उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया.
वो मियांवाली की जेल में रखे गए और 2001 में टीबी और दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई.

Expactation came true

पुर्वानुमान जो सच हुआ….

सभी भारतीय नेता निम्न योग्यता के .... तथा दांतों से तिनका पकड़नेवाले होंगे। वे मिठबोले  किन्तु दिल के काले होंगे। वे सत्ता के लोए आपस में लड़ेंगे ... तथा राजनैतिक दांव-पेंच में शून्य रहेंगे।
सर विंस्टन चर्चिल, भूतपूर्व प्रधान मंत्री इंग्लॅण्ड 

HINDI RHYME: SHUBH PRABHAT SANJIV

बाल गीत:
शुभ प्रभात
संजीव 'सलिल' 
***
 

शुभ प्रभात, गुड मोर्निंग,
आओ! खेलें खेल।
उछलें-कूदें, नाचें-गायें-
रख आपस में मेल।
*
कलियों से सीखें मुस्काना,
फूलों से नित खिलना।
चिड़ियों से सीखें संग रहना-
आसमान में उड़ना।
चलो! तोड़ दें बैर-भाव की-
मिलकर आज नकेल…
*
हरियाली दे शुद्ध हवा हँस,
बादल देता छैयां।
धूप अँधेरा हरकर थामे-
उजियारे की बैयां।
कोयल कहती मीठा बोलो
छोडो दूर झमेल
*


शनिवार, 4 मई 2013

hindi geet: acharya sanjiv verma 'salil'

गीत:

मन से मन के तार जोड़ती.....

संजीव 'सलिल'
*

















*
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..

होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है. 
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.

हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?

करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम