कुल पेज दृश्य

शनिवार, 30 जून 2012

एक गीत जिंदगी के नाम .. महेन्द्र कुमार शर्मा


एक गीत जिंदगी के नाम
 
                                        .. महेन्द्र कुमार शर्मा
 
 
माया के इस मोह-जाल मे, उलझ गयी तो दुख पायेगी,
चाहों के इस चक्रव्यूह से निकल गयी तो सुख पायेगी.
जीने की दो ही राहें हैं, बाकी सभी छ्लावा केवल
गलत चुना तो पछ्तायेगी, बोल जिन्दगी, किधर जायेगी.
 
लोगों की नादानी देखो, ज्ञानी हो कर भी, अज्ञानी 
गंगाजल की बातें करते, व्यवहारों में खारा पानी,                                 
दुनिया के मायादर्पण में, आडम्बर ही आडम्बर है,                                       सच का दर्पण साथ रखेगी, संवर जायेगी,निखर जायेगी. 
बोल जिन्दगी.........
 
मन का नट, नटखट होता है, बिना लिखा नाटक होता है,
सपनों के झीने घूंघट मे, यादों का पनघट होता है,
इधर खनक है मधुकलशो की, उधर आरती का गुन्जन है,
इधर गई तो बहक जायेगी, उधर महक से भर जायेगी.
बोल जिन्दगी.....
 
स्वर्णमृगों की हर चाहत पर लक्ष्मण रेखाएं होती है,
नैतिक पतन पुरुष क हो तो,पीडित अबलायें होती हैं.
सीता हरण प्रसंग इधर है,चीरहरण के दृश्य उधर हैं.
इधर बन्दिनी बन जायेगी,उधर शर्म सें मर जायेगी.
बोल जिन्दगी..
 
अन्त नहीं तृष्णा का कोई, साक्षी हो इतिहास रहा है,
पीडा क पुश्तैनी घर तो, सुख के घर के पास रहा है,
इन्द्रासन के चित्र इधर है,मन का विश्वामित्र उधर है,
वही मेनका फ़िर आई तो भंग तपस्या कर जायेगी.
 
बोल जिन्दगी..
mahendra sharma <mks_141@yahoo.co.in>
 .............................

Thought of the day: आज का विचार:

Thought of the day:

We are not human beings having a temporary spiritual experience; We are spiritual beings having a temporary human experience.''                                                                        -Pierre Teilhard de Char

आज का विचार:

हम न मनुज हैं आध्यात्मिक अनुभव जिनको क्षणभंगुर होना।
हम आध्यात्मिक जीव जिन्हें क्षणभंगुर मानव देह  मिली है
                                                             -पिअरे टेल्हार्ड दे चार      

बुधवार, 27 जून 2012

Why not... क्यों नहीं?... --सलिल

Why not...

*
So they want to stick gruesome images on cigarette packs..?? 
Why not pictures of obese children on McDonald's packaging..? 
Why not tortured animals on cosmetics products..? 
Why not put the photos of the victims of drunken drivers, on beer and wine bottles..? 
Why not pictures of dishonest, thieving Politicians enjoying our money, on tax returns..? 

Although some of you may agree.. I'll Bet none of you copy. 
I want to see who is brave enough even if you are not a smoker!

********

  क्यों नहीं?... सलिल 

चाहें सिगरेट की डब्बी पर मनमोहक छवि छाप सकें।

क्यों न थुलथुले बच्चे की छवि हो मक्डोनल्ड के खाद्यों पर?

क्यों न जिबह होते पशु अंकित हों सौंदर्य प्रसाधन पर?

क्यों न पियक्कड़ वाहनचालक हो शराब की बोतल पर?

क्यों न भ्रष्ट नेता को छापें कर संबंधी प्रपत्रों पर?

सहमत होंगे आप न लेकिन इन्हें कभी अपनाएंगे।

दोष न खुद बढ़ दूर करेंगे, औरों को दिखलायेंगे

*****

मंगलवार, 26 जून 2012

लंदन में काव्यवर्षा - (डॉ॰) कविता वाचक्नवी

  डॉ. कविता वाचक्नवी



साहित्य को लेकर जितना अराजकता, छल और निकृष्टता का वातावरण हिन्दी में है, वह अनुपमेय है। 


मैं आँख खोलने से लेकर होश सम्हालने व उसके बरसों बाद तक भी साहित्य के प्रति अत्यंत महनीय, पावन व आदरास्पद वातावरण में पली बढ़ी हूँ। और तत्कालीन अनेक श्रेष्ठ साहित्यकारों के वात्सल्य की छाया में भी;  अतः साहित्य और रचनाकर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यंत श्रद्धा और सम्मान का संस्कार व भाव मेरे मन का एक स्थाई भाव रहा है। अक्षुण्ण भी। 


किन्तु कुछ वर्ष पूर्व नॉर्वे की अपनी गृहस्थी को ताला लगा कर भारत लौटने पर जैसे जैसे हिन्दी के साहित्यिक/ भाषिक परिदृश्य और इनके तत्कालीन कर्ता-धर्ताओं को निकट से जाना समझा तैसे-तैसे मूर्ति टूटती चली गई और अब तो पूरी की पूरी तहस नहस हो चुकी है जैसे। इतनी अधिक त्रस्त हूँ वातावरण का हाल देख सुन, समझ कर कि मेरे लिए अपने संस्कारों के भीतर मरते अपने आप को बचाए रखना मुश्किल हो गया है। हर दम इस पीड़ा से त्रस्त हूँ कि क्यों देश, भाषा और नायकों के प्रति श्रद्धा के संस्कार रोपे पिता जी ने और आचार्यों ने ! हर पल हृदय में जैसे कोई घोंपे हुए भालों को बाहर खींच रहा हो ... ऐसी पीड़ा और त्रास है... जैसे अपना, कुछ बहुत व्यक्तिगत-सा, नष्ट हो रहा है... हो गया है.....! अस्तु। 


इन सब के मध्य कुछ चीजें पलों का नहीं बल्कि दीर्घकालीन सुख दे जाती हैं। आज भी ऐसा ही हुआ। 
 
आज अभी अभी संवाद आया कि आज ही  सायं Southbank Centre (सेंन्ट्रल लंदन) पर 9 बजे  Rain of Poems का आयोजन है। वस्तुतः यह आयोजन 26, 27 और 28 जून में से किसी भी एक दिन होना तय था जिस भी दिन मौसम खुला, सूखा व चमकीला रहेगा।  तो वह दिन आज आया है। अतः आज ही यह सम्पन्न होगा।


  कविताओं के  The Poetry Parnassus नामक समारोह  के अंतर्गत जैसे ही सूर्यास्त होगा उसी समय एक हेलिकॉप्टर से विश्व-भर के व अलग अलग भाषाओं के 300 समकालीन कवियों की 100,000 (एक लाख) कविताओं की वर्षा लंदन के जुबली गार्डन में आज दोपहर से इसी प्रयोजन से एकत्रित हो रही भीड़) पर की जाएगी। इस काव्य-वर्षा के साथ इस वर्ष के (The Poetry Parnassus) समारोह का उद्घाटन हो जाएगा। 


 हेलीकॉप्टर से कविताओं की वर्षा का यह क्रम निरंतर आधा घंटा चलेगा। कविताएँ बुकमार्क्स आकृति  के रूप में व पर अंकित होंगी। लोग लपक लपक कर उन कविताओं को अपने साथ ले जाते हैं, पढ़ते हैं और संग्रहित कर रखते हैं। 


 यू.के.  के  इस सबसे बड़े काव्य-समारोह (The Poetry Parnassus)  का आयोजन लंदन 2012 फ़ेस्टिवल  के आयोजनों की शृंखला में किया जा रहा है। इस  (The Poetry Parnassus) समारोह के आगामी दिनों में विश्व की अलग अलग 50 भाषा बोलियों के कवि, कहानीकार, लेखक, वक्ता और लोकगायक  अपनी अपनी रचनाओं का पाठ करेंगे और प्रस्तुतियाँ देंगे। 


एक वेबलिंक के माध्यम से साधारण जनता को अपनी  पसंद के रचनाकर को नामांकित करने का अधिकार दिया गया था। जिसमें जनता ने 6000 लोगों को दुनिया की सभी भाषाओं से चुना व नामांकित किया। 


आगामी कुछ दिनों में ओलंपिक्स के कारण लंदन में जुटने वाले दुनिया-भर के लोगों को सामाजिक दायित्वों व मानवीय संवेदना के प्रति जागरूक रहने की अपनी इच्छा, वरीयता व प्राथमिकता का संदेश देने के लिए इस आयोजन से ओलंपिक्स समारोह शृंखला का  सूत्रपात किया जा रहा है।  आज विश्व-भर के रचनाकार लंदन में एकत्रित हो रहे हैं, हो चुके हैं। 


इस पूरे आयोजन की प्रेरणा  ग्रीकस्थित  Mount Parnassus से ली गई है। Mount Parnassus  को  ग्रीक मिथक परंपरा में  Home of Muses कहा जाता है जो साहित्य, विज्ञान और कलाओं की देवी मानी जाती हैं। 

इस दृश्य का नजारा कुछ यों होगा (बर्लिन आयोजन में Bombing of Poems  नाम से हुए ऐसे ही एक आयोजन की झलक)   -  


ईमेल में वीडियो न जा सकने के कारण वीडियो के लिए लिंक पर जाना होगा -  http://vaagartha.blogspot.co.uk/2012/06/rain-of-poems-bombing-of-poems-in.html 
 
abhar  : vagarth 

कल और आज: घनाक्षरी -संजीव 'सलिल'

कल और आज: घनाक्षरी
कल : 
 
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि,
 
श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
 

भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि,
राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।




शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि,
तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।







काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि,
ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।





काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-

१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.

कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.

*****
आज : संजीव 'सलिल'




संसद के मंच पर, लोक-मत तोड़े दम, 
राजनीति सत्ता-नीति,  दल-नीति कारा है ।







 


नेताओं को निजी हित, साध्य- देश साधन है,
मतदाता घुटालों में, घिर बेसहारा है ।

 



 

'सलिल' कसौटी पर, कंचन की लीक है कि,
अन्ना-रामदेव युति, उगा ध्रुवतारा है।

 

 

स्विस बैंक में जमा जो, धन आये भारत में ,
देर न करो भारत, माता ने पुकारा है।


 

******
घनाक्षरी: वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण-
हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण. 

******
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com




short story: time and happiness लघुकथा: समय और प्रेम

short story: read & think  

time and happiness



 

लघुकथा:

समय और प्रेम 

किसी समय सुख, दुःख, प्रेम आदि भावनाएं समय के साथ एक द्वीप पर रहती थीं. एक दिन आकाशवाणी हुई कि द्वीप डूबनेवाला है. प्रेम को छोड़कर सभी ने तुरंत द्वीप छोड़ दिया. प्रेम ने अंतिम क्षण तक प्रतीक्षा की कि  संभवतः द्वीप न डूबे. अंततः द्वीप के डूबने की घड़ी जानकर प्रेम ने द्वीप छोड़ने का  निश्चय किया. एक बड़ी नाव में बैठ कर जा रहे समृद्धि को पुकारकर प्रेम ने पूछा: 'समृद्धि तुम मुझे अपने साथ ले सकोगी?'

'नहीं, मेरी नाव में बहुमूल्य सोना-चांदी है, तुम्हारे लिए जगह नहीं है.'

प्रेम ने खूबसूरत कक्ष में जा रहे सौन्दर्य को आवाज दी: 'सौन्दर्य! कृपया मेरी मदद करो'. 

'नहीं, तुम भीगे हो, तुम्हारे आने से मेरा कक्ष ख़राब हो जायेगा.' सौन्दर्य बोला.

इस बीच निकट आ चुके दुःख से प्रेम ने कहा: 'दुःख मुझे अपने साथ चलने दो.'

'ओह।.. प्रेम मैं इतना दुखी हूँ कि एकाकी रहना चाहता हूँ.' दुःख ने कहा.

तभी समीप से सुख निकला किन्तु वह इतना सुखी था कि  प्रेम की पुकार ही नहीं सुन सका.

अचानक एक वृद्ध की आवाज़ आई  'आओ, प्रेम मेरे साथ आ जाओ, मैं तुम्हें अपने साथ ले चलूँगा'. प्रेम इतना अधिक प्रसन्न हुआ कि  वृद्ध से यह पूछना भी  भूल गया कि वे कहाँ जा रहे हैं?' सूखी धरती पर आते ही वृद्ध अपनी राह पर चला गया। वृद्ध कितने परोपकारी थे यह अनुभव करते हुए प्रेम ने अन्य वृद्ध ज्ञान से पूछा: 'मेरी सहायता किसने की?'

'वह समय था' ज्ञान ने उत्तर दिया।

'किन्तु समय ने मेरी सहायता क्यों की?' प्रेमने पूछा।

ज्ञान ने समझदारी से मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहा: ' क्योंकि केवल समय ही यह समझने में सक्षम है कि प्रेम कितना मूल्यवान है।'

**********
 

सोमवार, 25 जून 2012

साक्षात्कार: स्वामी वासुदेवानंद जी -आनंदकृष्ण

साक्षात्कार :
 
 साहित्य "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात" का अनुगामी बने : ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज.
 
भारतीय मनीषा में भगवान् आदि-शंकराचार्य का अवतरण एक अलौकिक व विलक्षण घटना है. उन्होंने तत्कालीन समाज में फ़ैली कुरीतियों रूढियों और कुंठाओं को अपने अगाध ज्ञान और विश्वास के बल पर छिन्न-भिन्न कर भारतीय समाज में नई ऊर्जा का संचरण किया. उनके द्वारा प्रदीप्त किया हुआ ज्ञान का अखंड दीप आज भी अपने भरपूर उजास से हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहा है.

दिनांक १२ नवम्बर २००८ का वह पुन्य दिवस था जब मुझे श्री आनंद कुमार मिश्र (जबलपुर) तथा श्री रंगनाथ दुबे (अलाहाबाद) के आत्मीय सहयोग से अलाहाबाद में परम पूज्य अनंत श्री विभूषित ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज के पुन्य दर्शन करने व उनके अमृत वचन श्रवण करने का सौभाग्य मिला. महाराजश्री का बाल-सुलभ स्मित हास व उनका सहज व्यवहार मन को गहरे तक छू गया.

महाराजश्री के श्रीचरणों में बैठ कर मैंने अपनी कुछ जिज्ञासाएं और प्रश्न उनके सामने रखे जिनका उन्होंने समाधान किया. charchaa के दौरान जीवन, जगत और साहित्य से जुडी उनकी चिंताएं अभिव्यक्त हुईं. इस वार्तालाप के संपादित अंश प्रस्तुत हैं.

आनंदकृष्ण : महाराजश्री के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए मैं स्वयं को अत्यन्त गौरवान्वित और सौभाग्यशाली अनुभव कर रहा हूँ. आज के समय में प्रायः प्रत्येक भारतीय अपने समाज के अतीत के वैभव और वर्तमान की अधोगति को देख कर व्यथित और क्षुब्ध है. इस पतन का कारण क्या है ?

महाराजश्री : भारतीय परम्परा की शिक्षा का अभाव, रहन-सहन, व्यवहार, परिधान में अपनी परम्परा को त्याग कर विदेशियों का अन्धानुकरण, और भौतिकता की और दौड़ना ही वर्तमान में हमारे विघटन औत ह्रास के प्रमुख कारण हैं. हमें फिर से अपनी ही परम्परा को अपनाना होगा, उसे जगाना होगा. आज आपको मेरी बात कटु और अप्रिय लग सकती है किंतु भविष्य में हम सबको सोचना पडेगा कि हम अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अपनी संस्कृति को फिर से अपनाएँ उसे सम्मान देन और उसमें अपनी आस्था जगाये तभी हमारा समाज अपने अतीत के गौरव को पुनः संभाल सकेगा.

आनंदकृष्ण : " साहित्य समाज का दर्पण है" तो आपकी दृष्टि में साहित्य कैसा होना चाहिए-?

महाराजश्री : आपने बहुत अच्छी और ऊंची बात उठाई है. "साहित्य" को अपने व्यापक अर्थ में शब्द की शुद्धि के साथ शब्द की गरिमा, और दार्शनिकता को समेटते हुए उसे सरस बनाने की कला का रूप होना चाहिए. साहित्य में दार्शनिकता होना चाहिए, उसमें एक स्पष्ट दर्शन, और जीवन शैली की सम्यक व्याख्या होना चाहिए. इसके साथ उसमें ऐतिहासिकता हो, जिससे वह साहित्य अपने रचनाकाल के बाद भी प्रासंगिक रहे. उसमें व्याकरण की विधि-सम्मत शुद्धता होना चाहिए और इन सबके साथ उसमें सरसता होना चाहिए.

आनंदकृष्ण : महाराजश्री ! कृपया बताने की कृपा करें कि ये सारे गुण समाज में होंगे तो साहित्य में आयेंगे या साहित्य में होंगे तो समाज में आयेंगे-?

महाराजश्री : हाँ ! ये आवश्यक है कि साहित्य के द्वारा निर्धारित किए गए आदर्शों का समाज के द्वारा पालन किया जाए और उसका अनुसरण किया जाए और फिर समाज से ये मूल्य साहित्य में स्वतः ही पुनः प्रवेश करते जायेंगे. इस तरह इन शाश्वत मूल्यों का अनंत चक्र चलता रहेगा. साहित्य समाज से भिन्न रह कर नहीं चल सकता और समाज साहित्य से अलग हो कर नहीं रह सकता. दोनों अन्योन्याश्रित हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं. जिस साहित्य का अनुसरण समाज करेगा वही भविष्य का साहित्य कहलायेगा. इसलिए आज के साहित्यकारों से मैं ये भी कहना चाहता हूँ कि उन्हें सृजन के समय विशेष रूप से सावधानी रखना चाहिए. उनका रचा हुआ एक ग़लत शब्द भयंकर दुष्परिणामों का वाहक हो सकता है. शब्द को इसीलिये तो "ब्रह्म" कहा गया है.

आनंदकृष्ण : जी ! साहित्य को हम किस तरह समाजोपयोगी बना सकते हैं?

महाराजश्री : साहित्य में, जैसा कि मैंने पहले कहा, कि साहित्य में शब्द की शुद्धता, दार्शनिकता, और ऐतिहासिकता के साथ सरसता अत्यावश्यक तत्व हैं. जैसे "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियं" में "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात" ये भाग शब्द की शुद्धि, दार्शनिकता, और ऐतिहासिकता का परिचायक है और "न ब्रूयात सत्यमप्रियं" ये साहित्य के परिप्रेक्ष्य में सरसता की और संकेत है.

आनंदकृष्ण : महाराजश्री ! साहित्य में प्रायः यथार्थ और आदर्श का टकराव दिखाई देता है और यही टकराव समाज में भी दिखता है. कई बार यो यथार्थ होता है उसका आदर्श के साथ ताल-मेल नहीं होता और जो आदर्श होते हैं वे कई बार अव्यावहारिक होते हैं. ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए-?

महाराजश्री : ! वही | "सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात" . सत्य अर्थात यथार्थ और प्रिय अर्थात आदर्श. दोनों के मध्य समन्वय और संतुलन स्थापित करना आवश्यक है- साहित्य में भी और जीवन में भी. अब जैसे आपने साहित्य की बात की तो साहित्यिक रचनाएं  जैसे नाटक हैं, उपन्यास हैं, कविता है- तो बिल्कुल यथार्थ ले कर चलेंगे तो सही होगा क्या-? और इनमें कोरा आदर्श होगा तो उसे कौन पढेगा-? तो आदर्श और यथार्थ में संतुलन होना आवश्यक है. और यह संतुलन बनने की कला ही सच्ची कला है- साहित्य में भी और जीवन में भी.

आनंदकृष्ण : हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के क्या प्रभाव हुए हैं.?

महाराजश्री : मेरा मानना है कि इस देश की राष्ट्रभाषा तो संस्कृत ही है, भले ही उसे घोषित नहीं किया गया है. हिन्दी तो संस्कृत से निकली बोली है. देश के बड़े भू-भाग में हिन्दी बोली जाती है इसलिए हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने से देश में वैचारिक एकता तो आई है किंतु यदि संस्कृत को राष्ट्रभाषा घोषित किया जाता तो देश में सांस्कृतिक और भावनात्मक एकता में और वृद्धि हुई होती.
आनंदकृष्ण : महाराजश्री : आप देश की जनता को क्या संदेश देना चाहेंगे-?

महाराजश्री : साहित्य के माध्यम से हम अपनी संस्कृति का सम्मान करें, उसकी यशोगाथा सुनाएँ और अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करें. मीडिया को सतर्क रहना चाहिए पिछले दिनों में मीडिया ने " हिंदू आतंकवाद" शब्द बहुत उछाला है. मैं बताना चाहता हूँ कि हिंदू न कभी आतंवादी था और न ही उसकी पृकृति ही आतंकवादी की है. ये झूठे और प्रायोजित प्रचार तत्काल बंद होना चाहिए. देश को, समाज को एक बना कर रखें. भाषा, प्रांत, जाती के नाम पर अलगाववादियों के षड्यंत्रों को समझें और उनसे बचें.
************ *********
आनंदकृष्ण, जबलपुर.
मोबाइल : 09425800818
 

poem: misguided angel --margo and michel timmins

गीत: लोकतंत्र में... --संजीव 'सलिल'


गीत: 

लोकतंत्र में... 

संजीव 'सलिल'

*
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
संसद में गड़बड़झाला है.
विधायिका में घोटाला है.
दलदल मचा रहे दल हिलमिल-
व्यापारी का मन काला है.
अफसर, बाबू घूसखोर
आशा न शेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*

रविवार, 24 जून 2012

क्षणिका: कविता कैसे बनती है अर्चना मलैया


क्षणिका:


कविता कैसे बनती है 


अर्चना मलैया
*
भावना के सागर पर 


वेदना की किरण पड़ती है 


भावों की भाप 


मानस पर जमती है. 


धीरे धीरे भाप 


मेघ में बदलती है .


मेघ फटते है , 


बरसात होती है, 


ये नन्ही-नन्ही बूँदें  


कविता होती हैं. 


********

मुक्तिका: नागरिक से बड़ा... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
नागरिक से बड़ा...
संजीव 'सलिल'
*
नागरिक से बड़ा नेता का कभी रुतबा न हो.  
तभी है जम्हूरियत कोई बशर रोता न हो..    

आसमां तो हर जगह है बता इसमें खास क्या?
खासियत हो कि परिंदा उड़ने से डरता न हो.. 

मुश्किलों से डर न तू दीपक जला ले आस का.
देख दामन हो सलामत, हाथ भी जलता न हो.. 

इस जमीं का क्या करूँ मैं? ऐ खुदा! क्यों की अता?
ख्वाब की फसलें अगर कोई यहाँ बोता न हो..

व्यर्थ है मर्दानगी नाहक न इस पर फख्र कर.
बता कोई पेड़ जिस पर परिंदा सोता न हो..

घाट पर मत जा जहाँ इंसान मुँह धोता न हो.
'सलिल' वह निर्मल नहीं जो निरंतर बहता न हो..

पदभार 26

******

बालगीत: बिल्ली रानी --प्रणव भारती

बालगीत:
बिल्ली रानी
प्रणव भारती

*
 






*


एक थी प्यारी बिल्ली रानी,
शानदार जैसे महारानी|
रोज़ मलाई खाती थी वह,
मोटी होती जाती थी वह|
एक दिन सोचा व्रत करती हूँ 
वजन घटाकर कम करती हूँ|

बिल्ली ने उपवास किया,
काम न कुछ भी खास किया|
कुछ भी दिन भर ना खाया ,
उसको  फिर चक्कर आया|
मुश्किल उसको बड़ी हुई,
चुहिया देखी खड़ी हुई|

भागी चुहिया के पीछे ,
धम से गिरी छत से नीचे|
चुहिया तो थी भाग गई,
पर बिल्ली की टांग गई|
हाय-हाय कर खड़ी हुई,
बारिश की थी झड़ी हुई|

डॉक्टर को जब दिखलाया,
इंजेक्शन भी टुंचवाया|
चीखी चिल्लाई रोयी.
दूध-दवा खाई, सोयी|
"लालच में न आउंगी,

अब चूहा ना खाऊँगी "




कसरत रोज़ करूंगी अब ,
मोटी नहीं बनूंगी अब  |
बच्चों! करो न तुम लालच,
देखो बिल्ली की हालत|
कसरत नित करते रहना,
स्वास्थ्य खरा सच्चा गहना||

******

शनिवार, 23 जून 2012

रचना - प्रति रचना: ग़ज़ल मैत्रेयी अनुरूपा, मुक्तिका: सम्हलता कौन... संजीव 'सलिल'

रचना - प्रति रचना:


ग़ज़ल


मैत्रेयी अनुरूपा






*


बदल दें वक्त को ऐसे जियाले ही नहीं होते
वगरना हम दिलासों ने उछाले ही नहीं होते
उठा कर रख दिया था ताक पर उसने चरागों को
तभी से इस शहर में अब उजाले ही नहीं होते
कहानी रोज लाती हैं हवायें उसकी गलियों से
उन्हें पर छापने वाले रिसाले ही नहीं होते
पहन ली रामनामी जब किया इसरार था तुमने
कहीं रामेश्वरम के पर शिवाले ही नहीं होते
तरक्की वायदों की तो फ़सल हर रोज बोती है
तड़पती भूख के हक में निवाले ही नहीं होते
रखा होता अगरचे डोरियों को खींच कर हमने
यकीनन पंख फ़िर उसने निकाले ही नहीं होते
न जाने किसलिये लिखती रही हर रोज अनुरूपा
ये फ़ुटकर शेर गज़लों के हवाले ही नहीं होते
maitreyee anuroopa <maitreyi_anuroopa@yahoo.com>

मुक्तिका:
सम्हलता कौन...
संजीव 'सलिल'
*


*
सम्हलता कौन गिरकर ख्वाब गर पाले नहीं होते.
न पीते, गम हसीं मय में अगर ढाले नहीं होते..


न सच को झूठ लिखते, रात को दिन गर नहीं लिखते.
किसी के हाथ में कोई रिसाले ही नहीं होते..


सियासत की रसोई में न जाता एक भी बन्दा.
जो ताज़ा स्वार्थ-सब्जी के मसाले ही नहीं होते..


न पचता सुब्ह का खाना, न रुचता रात का भोजन.
हमारी जिंदगी में गर घोटाले ही नहीं होते..


कदम रखने का हमको हौसला होता नहीं यारों.
'सलिल' राहों में काँटे, पगों में छाले नहीं होते..


*


Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com

शुक्रवार, 22 जून 2012

हिंदी सलिला: पंख फैला कर उड़ पड़ी है हिंदी --दयानंद पांडेय

हिंदी सलिला
पंख फैला कर उड़ पड़ी है हिंदी
दयानंद पांडेय
 
*************
 
दयानंद पांडेयवरिष्ठ तथा चर्चित लेखक-पत्रकार. जन्म: 30 जनवरी १९५८ गांव बैदौली, गोरखपुर जिला.हिंदी में एम.ए.. 33 साल से पत्रकारिता.  डेढ़ दर्जन से अधिक उपन्यास और कहानी संग्रह. 'लोक कवि अब गाते नहीं' पर प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से प्रकाशित। ब्लाग: सरोकारनामा.
  
************* 

      दुनिया अब हिंदी की तरफ़ बड़े रश्क से देख रही है। अमरीका, चीन जैसी महाशक्तियां भी अब हिंदी सीखने की ज़रूरत महसूस कर रही हैं और सीख रही हैं क्योंकि हिंदी जाने बिना वह हिंदुस्तान के बाज़ार को जान नहीं सकते, हिंदी के बिना उनका व्यापार चल नहीं सकता। सो वह हिंदी सीखने, जानने के लिए लालायित हैं क्योंकि हिंदी के बिना उनका कल्याण नहीं है। सच यह है कि हिंदी अब अपने पंख फ़ैलाकर उड़ने को तैयार है। यकीन मानिए कि आगामी 2050 तक हिंदी दुनिया की सब से बड़ी भाषा बनने जा रही है। अब भविष्य का आकाश हिंदी का आकाश है। अब इसकी उड़ान को कोई रोक नहीं सकता। हिंदी अब विश्वविद्यालयी खूंटे को तोड़ कर आगे निकल आई है। कोई भाषा बाज़ार और रोजगार से आगे बढती है। हिंदी अब बाज़ार की भाषा तो बन ही चुकी है, रोजगार की भी इसमें अपार संभावनाएं हैं। अब बिना हिंदी के किसी का काम चलने वाला नहीं है। भाषा विद्वान नहीं बनाते, जनता बनाती है, अपने दैनंदिन व्यवहार से। 
 
हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई इसका विधवा विलाप करने से कुछ नहीं होने वाला है। क्या हिंदी के लिए देश को तोड़ना क्या ठीक होता? क्या देश चलाने में तब क्या हिंदी सक्षम भी थी जो आप हिंदी को राष्ट्रभाषा बना लेते? क्या हम शासन चला पाते आधी-अधूरी हिंदी के साथ? हालत यह है कि आज भी हमारे पास तकनीकी शब्दावली हिंदी में पूरी नहीं है। लगभग सभी मंत्रालयों में इस पर काम चल रहा है। भाषाविद लगे हुए हैं। काम गंभीरता से हो रहा है। इसी लिए मैं कह रहा हूं कि हिंदी 2050 में दुनिया की सबसे बड़ी भाषा बनने जा रही है। कोई रोक नहीं सकता। बस ज़रूरी है कि हम आप हिंदी को अपने स्वाभिमान से जोड़ना सीखें। 
 
हमारे देश में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी लाई थी। बाद में मैकाले की शिक्षा पद्धति ने इस को हमारी गुलामी से जोड़ दिया। इसीलिए आज भी कहा जाता है कि अंग्रेज चले गए, अंग्रेजी छोड़ गए। तय मानिए कि अंग्रेजी सीख कर आप गुलाम ही बन सकते हैं, मालिक नहीं। मालिक तो आप अपनी ही भाषा सीख कर बन सकते हैं। चाहे वह हिंदी हो या कोई भी भारतीय भाषा। आज लड़के अंग्रेजी पढ कर यू.एस., यू.के. जा रहे हैं तो नौकर बन कर ही, मालिक बन कर नहीं। अगर 10 साल पहले मुझ से कोई हिंदी के भविष्य के बारे में बात करता तो मैं यह ज़रूर कहता कि हिंदी डूब रही है, लेकिन आज की तारीख में यह कहना हिंदी के साथ ज़्यादती होगी, क्योंकि हिंदी अब न सिर्फ फूलती-फलती दिखती है, बल्कि परवान चढ़ती भी दिखती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश तक अमेरीकियों से हिंदी पढ़ने को कह गए हैं, ओबामा भी कह रहे हैं। न सिर्फ़ इतना हिंदी अब ग्लोबलाइज़ भी हो गई है। जाहिर है आगे और होगी, क्यों कि हिंदी ने अब शास्त्रीय और पंडिताऊ हिंदी की कैद से छुटकारा पा लिया है। पाठ्यक्रमों वाली हिंदी के खूंटे से आज की हिंदी ने अपना पिंड छुड़ा लिया है। हिंदी आज के बाज़ार की सब से बड़ी भाषा बन गई है, हालां कि आम तौर पर अंग्रेजी की बेहिसाब बढ़ती लोकप्रियता कई बार संशय में डालती है और लोग कहते हैं कि हिंदी डूब रही है।
 
हिंदी के प्रकाशक भी जिस तरह लेखकों का शोषण कर सरकारी खरीद के बहाने हिंदी किताबों की लाइब्रेरियों में कैद कर पाठक-लेखक के बीच खाई बना रहे हैं, उससे भी हिंदी डूब रही है। प्रकाशक के पास बाइंडर तक को देने के लिए पैसा है, पर लेखक को देने के लिए उसके पास धेला नहीं है। बीते वर्षों में निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल को जिस तरह प्रकाशक के खिलाफ खड़ा होना पड़ा, रायल्टी के लिए यह स्थिति हिंदी को डुबोनेवाली है। महाश्वेता देवी जैसी लेखिका को भी बांगला प्रकाशक से नहीं, हिंदी प्रकाशक से शिकायत है। यह स्थिति भी हिंदी को डुबोने वाली है। आज हिंदी का बड़ा से बड़ा लेखक भी हिंदी में लेखन कर रोटी, दाल या घर नहीं चला सकता। यह स्थिति भी हिंदी को डुबोने वाली है। 
 
एक और आंकड़ा भी हिंदी का दिल हिला देने वाला है। वह यह कि हर छठवें मिनट में एक हिंदी भाषी अंग्रेजी बोलने लगता है। यह चौंकाने वाली बात एंथ्रोपॉलीजिकल सर्वे आफ़ इंडिया ने अपनी ताज़ी रिपोर्ट में बताई है। संतोष की बात है कि इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है हर पांच सेकेंड में हिंदी बोलनेवाला एक बच्चा पैदा हो जाता है। गरज यह है कि हिंदी बची रहेगी। पर सवाल यह है कि उस की हैसियत क्या होगी? क्योंकि रिपोर्ट इस बात की तसल्ली तो देती है कि हिंदीभाषियों की आबादी हर पांच सेकेंड में बढ़ रही है, लेकिन साथ ही यह भी चुगली खाती है कि हिंदीभाषियों की आबादी बेतहाशा बढ़ रही है। जिस परिवार की जनसंख्या ज्यादा होती है, उसकी दुर्दशा कैसे और कितनी होती है यह भी हम सभी जानते हैं। 
 
हिंदी आज से 10-20 साल पहले जिस गति को प्राप्त हो रही थी, हिंदी सप्ताह व हिंदी पखवारे में समा रही थी, लग रहा था कि हिंदी को बचाने के लिए जल्दी ही कोई परियोजना भी शुरू करनी पड़ेगी। जैसा कि पॉली और संस्कृत भाषाओं के साथ हुआ है। लेकिन परियोजनाएं क्या भाषाएं बचा पाती हैं? सरकारी आश्रय से भाषाएं बच पाती हैं? अगर बच पातीं तो उर्दू कब की बच गई होती। सच यह है कि कोई भी भाषा बचती है तो सिर्फ़ इस लिए कि उसका बाज़ार क्या है? उसकी ज़रूरत क्या है? उसकी मांग कहां है? वह रोजगार दे सकती है क्या? या फिर रोजगार में सहायक भी हो सकती है क्या? अगर नहीं तो किसी भी भाषा को आप हम क्या कोई भी नहीं बचा सकता। संस्कृत, पाली, उर्दू जैसी भाषाएं अगर बेमौत मरीं हैं तो सिर्फ़ इस लिए कि वह रोजगार और बाजार की भाषाएं नहीं बन सकीं। चाहें उर्दू हो या संस्कृत हो या पाली, जब तक वह कुछ रोजगार दे सकती थीं, चलीं। लेकिन पाली का तो अब कोई नामलेवा ही नहीं है। बहुतेरे लोग तो यह भी नहीं जानते कि पाली कोई भाषा भी थी। इतिहास के पन्नों की बात हो गई है पाली। 
 
लेकिन संस्कृत? वह पंडितों की भाषा मान ली गई है और जनबहिष्कृत हो गई है। इसलिए भी कि वह बाज़ार में न पहले थीं और न अब कोई संभावना है। उर्दू एक समय देश की मुगलिया सल्तनत में सिर चढ़कर बोलती थी। उसके बिना कोई नौकरी मिलनी मुश्किल थी। जैसे आज रोजगार और बाज़ार में अंग्रेजी की धमक है, तब वही धमक उर्दू की होती थी। बड़े-बड़े पंडित तक तब उर्दू पढ़ते-पढ़ाते थे। मुगलों के बाद अंग्रेज आए तो उर्दू धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई। फिर जैसे संस्कृत पंडितों की भाषा मान ली गई थी, वैसे ही उर्दू मुसलमानों की भाषा मान ली गई। आज की तारीख में उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में राजनीतिक कारणों से वोट बैंक के फेर में उर्दू दूसरी राजभाषा का दर्जा भले ही पाई हुई हो, लेकिन रोजगार की भाषा अब वह नहीं है और न ही बाज़ार की भाषा है। सो, उर्दू भी अब इतिहास में समाती जाती दिखती है। उर्दू को बचाने के लिए भी राजनेता और भाषाविद् योजना-परियोजना की बतकही करते रहते हैं। पुलिस, थानों तथा कुछ स्कूलों में भी मूंगफली की तरह उर्दू-उर्दू हुआ है। पर यह नाकाफी है और मौत से बदतर है।
 
हां, हिंदी ने इधर होश संभाला है और होशियारी दिखाई है। रोजगार की भाषा आज अंग्रेजी भले हो पर बाज़ार की भाषा तो आज हिंदी है और लगता है आगे भी रहेगी क्या, दौड़ेगी भी। कारण यह है कि हिंदी ने विश्वविद्यालयी हिंदी के खूंटे से अपना पिंड छुड़ा लिया है। शास्त्रीय हदों को तोड़ते हुए हिंदी ने अपने को बाज़ार में उतार लिया है और हम विज्ञापन देख रहे हैं कि दो साल तक टॉकटाइम फ्री, लाइफ़ टाइम प्रीपेड, दिल मांगे मोर हम कहने ही लगे हैं। इतना ही नहीं, अंग्रेजी अखबार अब हिंदी शब्दों को रोमन में लिख कर अपनी अंग्रेजी हेडिंग बनाने लगे हैं। अरविंद कुमार जैसे भाषाविद् कहने लगे हैं कि विद्वान भाषा नहीं बनाते। भाषा बाज़ार बनाती है। भाषा व्यापार और संपर्क से बनती है। हिंदी ने बहुत सारे अंग्रेजी, पंजाबी, कन्नड़, तमिल आदि शब्दों को अपना बना लिया है। इस लिए हिंदी के बचे रहने के आसार तो दिखते हैं। 
 
आधुनिक हिंदी के विकास एवं विस्तार में जाएं तो हम पाते हैं कि भिन्न-भिन्न भाषाओं के देश में आने, भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के संपर्क में आने से हिंदी को बखूबी बढ़ावा मिला है। हिंदी से यहां हमारा अभिप्राय खड़ी बोली से है। हम ब्रज भाषा,भोजपुरी, मैथिली, अवधी आदि भाषाओं के पिछड़ेपन को देखें तो बात ज़्यादा आसानी से समझ में आती है। वह भाषाएं अपने पुराने कलेवर राधा-कृष्ण (ब्रज भाषा), रामचरित मानस (अवधी) से आगे कुछ लेने को तैयार नहीं। इनके बोलने वालों ने अपने को भूतकाल में कैद कर रखा है। लेकिन खड़ी बोली यानी हिंदी ने ऐसा नहीं किया है। अमीर खुसरो जैसों ने हिंदी को एक नया विकास दिया है। नया तेवर और नया शिल्प दिया। बाद में इस की प्रगति उर्दू के नाम पर जो उस जमाने में अलग भाषा नहीं बन पाई थी, बल्कि हिंदी को देवनागरी की जगह फारसी लिपी में लिखी मर गई थी। कबीर, मीर तकी मीर और नज़ीर अकबराबादी जैसे शायर इस बात के प्रमाण हैं। उर्दू लिपि में लिखी जाने से पद्मावत उर्दू नहीं बन जाती। वह रहती अवधी ही है। ऐसे उदाहरण इस तरफ भी इशारा करते हैं कि अवधी आदि भाषाओं ने अपनी शब्दावली में नए शब्द लेने से इंकार कर दिया और नए भावों को अपनी भाषा में नहीं लिया, तो पिछड़ी रह गई। हमारी हिंदी के पाठ्यक्रमों में प्राचीन काव्य और साहित्य के नाम पर यही आंचलिक भाषाएं और उन के कवि सम्मिलित किए जाते हैं। जो बहुत हद तक इस के पीछे उन्नीसवीं शताब्दी की वह होड़ है, जो अंग्रेजी शिक्षाविदों ने हिंदी और उर्दू को अलग करने के लिए इन भाषाओं को धार्मिक रंग देने के लिए किया।
 
खड़ी बोली के विकास में अमीर खुसरो के बाद नई बातों, भावों, विषयों को लेने और उठाने की क्षमता पैदा हो चुकी थी। इस लिए उस का विकास अनुवादों, शुरू में बाइबिल आदि, बाद में समाचारों, लेखों, कविता, कहानियों आदि का विकास तेज़ी से हुआ तो इसके पीछे पढ़े-लिखे लोगों की पूरी फौज थी। यह लोग अंग्रेजी पढ़े-लिखे थे। इन सब ने नए भाव लिए थे, नई जानकारी पाई थी। हमारा आधुनिक हिंदी साहित्य अगर आज आधुनिक है तो इस के पीछे स्वयं अग्रेजी और अंग्रेजी के माध्यम से विश्व भर के साहित्य से हमारा संपर्क है। हमारी आज़ादी की लड़ाई, आर्य समाज जैसे सुधार आंदोलनों के पीछे अंग्रेजी भाषा और यूरोप के सामाजिक, राजनैतिक विचारधाराओं का हमारे नेताओं द्वारा आत्मसात किया जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण है। स्वामी दयानंद एक हद तक क्रिश्चियन आंदोलन के विरुद्ध हिंदू धर्म के समर्थन और उस की रक्षा का कार्य कर रहे थे। 
 
कई बार तो लगता कि अगर अंग्रेजी के माध्यम से हम लोग पूरी दुनिया के संपर्क में न आए होते या खुदा ना खास्ता 1857 का आंदोलन सफल हो गया होता तो शायद हम आज तक वहीं होते, जहां आज अफगानिस्तान या ईरान हैं। बात कुछ अटपटी है ज़रूर और तल्ख भी, पर सच्चाई यही है। अब वैश्वीकरण के युग में देश-विदेश से हम लोगों का संबंध केवल उच्च वर्ग तक ही सीमित नहीं रह पाएगा। गांव के लोग, छोटी जातियों के लोग भी अब तेज़ी से अंग्रेजी पढ़ रहे हैं। जैसे उच्च वर्ग के लोगों ने अपने भारतीय संस्कार नहीं छोड़े, बल्कि उन्हें बदला। उसी तरह यह नए लोग बहुत गहरे तक अंग्रेजी शिक्षा पा कर अपना सुधार तो करेंगे ही अपनी भाषा को भी नया रंग देंगे। आज मध्यम वर्ग जो अंग्रेजी मिश्रित भाषा बोलता है, वह इस बात का प्रमाण है कि हम हिंदी में नई शब्दावली स्वीकार कर रहे हैं। हमने अरबी, फारसी से शब्द लिए तो हम गरीब नहीं, अमीर हुए। और आज अंग्रेजी से हिंदी में कुछ शब्द ले रहे हैं तो भी हम अमीर ही हो रहे हैं, गरीब नहीं। आज की पीढ़ी ने और आज के अखबारों ने जो नई भाषा बनानी शुरू की है, वही हिंदी को और हमें आगे ले जाएगी। पंडिताऊ हिंदी से छुट्टी पा कर ही हिंदी गद्य और पद्य में क्रांतिकारी बदलाव स्पष्ट दिखाई देते हैं।
 
हिंदी के भविष्य की बात करें और हिंदी सिनेमा की बात न करें तो शायद यह गलती होगी। सच यही है कि हिंदी भाषा के विकास में हमारी हिंदी फ़िल्मों और हिंदी गानों की भी बहुत बड़ी भूमिका है। सिनेमा दादा फाल्के के जमाने से ले कर अब तक हमारे लिए हमेशा नई और विदेशी टेक्निक थी और रहेगी। बोलने वाली फ़िल्मों का अविष्कार भी हमारे लिए नया जमाना ले कर आया। हमने विदेशी टेक्निक का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया। दादा फाल्के ने पहली फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी। दादा फाल्के ने अपनी देखी पहली फ़िल्म के अनुभव पर लिखा है कि परदे पर मैं क्राइस्ट को देख रहा था और मेरे मन में कृष्ण का चरित्र चित्रों में चल रहा था। हिंदी फ़िल्में पूरी दुनिया में अभारतीयों को भी आकर्षित करती हैं। एक समय आवारा हूं जैसे गीत दुनिया भर के लोग गाते दिखते थे। रूस में, मिश्र में, अरब में, हर कहीं। आज फ़िल्म और फ़िल्मी गीत प्रवासी भारतीयों को भारत से जोड़े रखती है। उन की वह संतान जो विदेशों में पैदा हुई है और हिंदी पढ़ना-लिखना नहीं जानती है, लेकिन हिंदी फ़िल्मी गीत समझती है। और उन्हें सुनना चाहती है। हिंदी पढ़ना चाहती है।
 
यह अद्भुत संयोग ही है कि अमरीका में एक तरफ पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश अमेरिकियों से हिंदी पढ़ने के लिए कह गए तो आज ओबामा भी हिंदी पढने को कह रहे हैं। तो दूसरी तरफ अमरीका में ही एक भारतीय अविनाश चोपड़े ने रोमन स्क्रिप्ट में हिंदी लिखने की जो नई विधि (आईटीआरएएनएस) बनाई है, उसके द्वारा अनगिनत लोग हिंदी में लिख रहे हैं। यहां तक कि संस्कृत का डॉ. लोनियर का प्रसिद्ध कोश भी अब इंटरनेट पर आईटीआरएएनएस में उपलब्ध है। यह हिंदी के विकास का नया आकाश है। इंटरनेट पर या मोबाइल फ़ोन पर रोमन लिपि में ही सही हिंदी में चैटिंग और चिट्ठी-पत्री अबाध रूप से जारी है। अब विभिन्न टीवी चैनलों पर जो हिंदी बोली जा रही है, वह सारी दुनिया में पहुंच रही है, रेडियो की समाचारी हिंदी, हिंदी भाषा को सीमित कर रही थी, अब वह हिंदी अपने रुपहले पंख फैला कर उड़ पड़ी है। उड़ पड़ी है अनंत आकाश को नापने।
 
***********