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मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

बसंत : शब्द चित्र संजीव 'सलिल'

बसंत : शब्द चित्र 
संजीव 'सलिल'
*
तब भी धूप-छाँव होती थी.
अब भी सुख-दुःख आते-जाते.
तब भी गत अच्छा लगता था,
अब भी विगत-दिवस मन भाते.
गिर-उठ-चलकर मंजिल तब भी
वरते थे पग हो आनंदित.
अब भी भू पर खड़े नापते गगन 
मनुज हम परमानन्दित .
तम पर तब भी उजियारे ने 
अंकित कर दी थी जय-गाथा.
अब भी रजनी पर ऊषा ने 
फहराई है विजय पताका.
शिशिर सँग तब भी पहुनाई
करता था हेमंत पुलककर.
पावस सँग अब भी तरुणाई
वासंती होती है हँसकर..
योगी-भोगी दोनों तब भी
अपना-अपना गीत सुनाते.
सुर, नर, असुर आज भी 
मानव के मन में ही पाये जाते..
*
 श्री निधि जिसने पायी उसको
अब शेष रहा क्या पाना है?
जो पाया उससे तुष्ट न हो
तो शेष सिर्फ पछताना है.
प्रिय सी प्रेयसी हो बाँहों में 
तो रहे न कोई चाहों में.
भँवरे को कलियों पर मरकर
भी आखिर में जी जाना है.
*
आगमन बसंत का...
इस तरह हुआ जैसे 
कामिनी ने पाया है
दर्शन निज कंत का.
नव बसंत आया है...
नयनों में सपनों सा,
अनजाने अपनों सा,
अनदेखे नपनों सा,
खुद से शरमाया है...
*
आओ, आओ ऋतुराज बसंत.
आकर फिर मत जाओ बसंत.
पतझड़ से सूने तरुओं पर-
नव पल्लव बन छाओ बसंत..
*
बासंती मौसम की सौं है
मत बिसराना तनिक बसंत.
कलियों के सँग खूब झूमना 
मत इतराना तनिक बसंत.
जो आता है, वह जाता है,
जाकर आना तनिक बसंत.
राजमार्ग-महलों को तज
कुटियों में छाना तनिक बसंत..
*
आ गया ऋतुराज फिर से
गाओ मंगल गीत...
पवन री सुर छेड़ स्नेहिल
गुँजा कजरी झूमकर.
डाल झूला बाग़ में
हम पेंग लें-लें लूमकर.
आ गया ऋतुराज फिर से
पुलक-बाँटो प्रीत...
जीत-हारो, हार-जीतो
निज हृदय को आज.
समर्पण-अर्पण के पल में
लाज का क्या काज?
गैर कोई भी नहीं
अपनत्व पालो मीत...
*
नव बसंत सुस्वागतम..
देख अरसे बाद तुमको 
हो रही है आँख नम.
दृष्टि दो ऐसी कि मिट जाए 
सकल मन का भरम.
दिग-दिगन्तों तक न दीखे
छिपे दीपक तले तम.
जी सके सच्चाई जग में
रहे हरदम दम में दम.
हौसलों के लिये ना हो
कोई भी मंजिल अगम.
*
ओ बसंत रुक जाना...
ठिठक गये खुशबुओं के पैर.
अब न खुशियाँ ही रही हैं गैर.
मनाती हैं आरजुएँ खैर.
ताली दे गाना...
पनघट की चल कर लें सैर.
पोखर में मीन पकड़-तैर.
बिसरा कब किससे रहा बैर.
किसने हठ ठाना...
*
जाने कब आ गयी छटा बसंत की.
अग-जग पर छा गयी छटा बसंत की..
सांवरे पर रीझ रही खीझ भी रही
गोरी को भा गयी छटा बसंत की..
संसद से द्वेष मिटा, स्नेह छा गया
सबको भरमा गयी छटा बसंत की..
सैयां के नयनों में खुद को खुद देख.
लजाई-शरमा गयी छटा बसंत की..
प्राची के गालों की लालिमा बनी.
जवां दिल धड़का गयी छटा बसंत की..
*
चलो खिलायें 
वीराने में सुमन
मुस्कुरायें.
बाँह फैलायें 
मूँदकर नयन
नगमे सुनायें
खुशी मनायें
गैर की खुशियों में 
दर्द भुलायें.
*

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

ग़ज़ल: डॉ. महेश चन्द्र गुप्ता 'खलिश', मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

ग़ज़ल:
डॉ. महेश चन्द्र गुप्ता 'खलिश'
*
एक दिन चोला मेरा यूँ ही धरा रह जाएगा
नाम मेरा वक्त के सैलाब में बह जाएगा

और पत्थर मार लो दो चार मेरे दोस्तो
साँस बाकी है अभी कुछ दर्द दिल सह जाएगा

इस तरह देखो न रस्ते में पड़ी इस लाश को
ये महल जो है तुम्हारा एक दिन ढह जाएगा

न मेरा न ही तुम्हारा बच रहेगा कुछ वज़ूद
एक पत्थर का निशाँ सब दास्ताँ कह जाएगा

खून से सींचा ख़लिश, ये आँसुओं में है बुझा
आह का है तीर, काफ़ी दूर तक यह जाएगा.
*
मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
कहाँ से लाया था क्या?, क्या साथ तू गह जाएगा??
मिला जो भी है यहाँ, सब यहाँ ही रह जाएगा..
कहा अपना तुझे जिसने, जिसे तू अपना कहे.
मोह-माया का महल सच मान ले ढह जाएगा..

उजाले में दिखे दुनिया, अँधेरे में कुछ नहीं.
तिमिर में संग-साथ साया भी नहीं रह जाएगा..

फ़िक्र-चिंता छोड़ सारी, फकत इतना देख ले-
ढाई आखर की चदरिया, 'ठीक से तह जाएगा..

कोई धोता पैर, कोई चढ़ाता है ईश पर. 
'सलिल' कब ठिठका कहीं?, सब तज तुरत बह जाएगा..

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रचना-प्रति रचना: ह्रदय कुसुम सिन्हा-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना:
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
कुसुम सिन्हा
*
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
                     पाकर चोट  न झरते आंसू 
                    नहीं ह्रदय से आह निकलती 
                   प्यार और विश्वास में छल पा

                  दिल का शीशा   चूर न होता
काश ह्रदय पत्थर का होता
                 ह्रदय बनाकर  यदि वो इश्वर
                कठिन प्यार की पीर न देता 
               तो फिर जीवन शायद  इतना 
              पीड़ा से बोझिल न होता
काश   ह्रदय   पत्थर का होता 
              निर्विकार सह   लेता सुख दुःख 
               हाश अश्रु   और  प्यार न होता 
               नहीं ह्रदय  टुटा करता    फिर 
              नहीं   कोई  मर मरकर जीता 
काश ह्रदय पत्थर का होता 
             पीड़ा का अभिशाप   दिया जो 
             मन तो फूलों सा न बनाता
             अंगारों सा मन होता तो 
            नहीं कोई मर मर कर जीता 
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
           विरहन   चकई  की चीखें सुन 
          चाँद कभी आंसू न बहाता
           शब्द  वाण फिर ह्रदय चीरकर 
           सारा लहू न  अश्रु   बनाता 
काश ह्रदय पत्थर का होता
*
माननीया कुसुम जी,
आपकी भाव भीनी रचना को पढ़कर कलम से उअतारी पंक्तियाँ आपको सादर समर्पित.
प्रति कविता:
अगर हृदय पत्थर का होता
संजीव 'सलिल'
*
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
खाकर चोट न किंचित रोता,
दुःख-विपदा में धैर्य न खोता.
आह न भरता, वाह न करता-
नहीं मलिनता ही वह धोता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
कुसुम-परस पा नहीं सिहरता,
उषा-किरण सँग नहीं निखरता.
नहीं समय का मोल जानता-
नहीं सँवरता, नहीं बिखरता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
कभी नींव में दब दम घुटता,
बन सीढ़ी वह कभी सिसकता.
दीवारों में पा तनहाई-
गुम्बद बन बिन साथ तरसता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
अपने में ही डूबा रहता,
पर पीड़ा से नहीं पिघलता.
दमन, अनय, अत्याचारों को-
देख न उसका लहू उबलता.
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
आँखों में ना होते सपने,
लक्ष्य न पथ तय करता अपने.
भोग-योग को नहीं जानता-
'सलिल' न जाता माला जपने..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*




शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

मुक्तिका: धूप सुबह की ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
धूप सुबह की
संजीव 'सलिल'
*                                                                                                                     
धूप सुबह की, चाय की प्याली, चश्मा थामे हाथ.
पापाजी अख़बार लिये, नत झुर्रीवाला माथ..

माँ जी ऐ जी, ओ जी कहकर जब देतीं आवाज़.
चेहरे पर मुस्कान लिए दो नयन झाँकते साथ..

पच्चासी की उमर बिना जल करतीं करवा चौथ.
माँ दे अरघ तोड़तीं व्रत, सम्मुख पाकर निज नाथ..

मार समय की चूल्हे सिगड़ी संग गुमे कंदील.
अब न खनकती चूड़ी कोई हँसती कंडे पाथ..

जब थे तब मालूम नहीं था खो होंगे बेचैन.
माँ-पापा बिन 'सलिल' रह गया होकर हाय अनाथ..

********

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

दोहा मुक्तिका ... आस प्रिया है श्वास की --संजीव 'सलिल



दोहा मुक्तिका ...
आस प्रिया है श्वास की
संजीव 'सलिल
*
आस प्रिया है श्वास की, जीवन है मधु मास.
त्रास-हास सम भाव से, सहिये बनिए ख़ास..

रास न थामें और की, और न थामे रास.
करें नियंत्रण स्वयं पर, तभी रचाएं रास..

कोई न ग्रस्त काल को, सभी काल के ग्रास.
बन कर सूरज चमक ले, बौना हो खग्रास..

जब मुश्किल का समय हो कोई न डाले घास.
तिमिर घेर ले तो नहीं, आती छाया पास..

हो संकल्प सुदृढ़ अगर, चले मरुत उनचास.
डिगा नहीं सकता तनिक, होता सफल प्रयास..

तम पग-तल धरकर दिया, देता 'सलिल' उजास.
मौन भाव से मौत वर, होता नहीं उदास..

कौन जिसे होता नहीं, कभी सत्य-आभास.
सच वर ले यदि 'सलिल' हो, जीवन सुमन-सुवास..

***************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

मुक्तक: --संजीव 'सलिल'

मुक्तक:
संजीव 'सलिल' 
*
कभी न समय एक सा रहता, प्रकृति-चक्र इतना सच कहता.
हार न बाधाओं के आगे, 'सलिल' हमेशा बहता रहता..
अतुल न दुःख, यदि धैर्य अतुल हो, जय पाती मानव की कोशिश-
पग-पग बढ़ता जो वह इन्सां, अपनी मंजिल निश्चय गहता..
*
आया तो है बसंत, जाने मत दीजिये.
साफ़ पर्यावरण हो, ऐसा कुछ कीजिये..
पर्वत, वन, सलिल-धार सुन्दरता हो अपार-
उमाकांत  के दर्शन जी भर फिर कीजिये..
*
सिर्फ प्रेम में मत डूबा रह, पहले कर पुरुषार्थ.
बन किशोर से युवा जीत जग जैसे जीता पार्थ..
कदम-कदम बढ़, हर सीढ़ी चढ़, मंजिल चूमे पैर-
कर संदीपित सारे जग को, प्रेम बने परमार्थ..
*
आया बसंत झूम कर सुरेश गा रहे.
हैं आम खास, नए-नए बौर छा रहे.
धरती का रूप देखिये दुल्हन सजी हुई-
नभ का संदेशा लिए पवन देव आ रहे..

*
नीरज के नाम नीरजा ने भेजी पाती.
लहरें संदेशा ले आई हैं मदमाती.
छवि निरखे गोरी दर्पण में अपनी ही-
जैसे पढ़ती हो लिखकर अपनी पाती..
*
दिल बाग़-बाग़ हो गया है, महमहाइये.
भँवरों ने साज छेड़ दिए गीत गाइए.
ऋतुराज के स्वागत का समय आ गया 'सलिल'-
शेष धर न लीजिये, खुशियाँ लुटाइए..
*
सुनो सुजाता कौन सुखाता नाहक अपनी देह.
भरो कटोरा खीर खिलाओ, हो ना जाए विदेह..
पीपल तले बैठ करता है सकल सृष्टि की चिंता.
आया-छाया है बसंत ले खुशियाँ निस्संदेह..
*
त्रिपाठ मोह स्नेह प्रेम के रटे
इस तरह कदम बढ़े नहीं हटे
पेश की रत्नेश ने सुसंपदा-
बाँट-बाँट कर थका नहीं घटे

भावनाओं का उठा है ज्वार अब
एक हो गयी है जीत-हार अब
मिट गया है द्वेष ईर्ष्या जलन
शेष है अशेष सिर्फ प्यार अब

एक हो गए हैं कामिनी औ' कंत
भूल गए साधना सुसाधु-संत
शब्द के गले कलम लिपट गयी
गीत प्रीत के रचे 'सलिल' अनंत
*
खिल-खिल उठे अरविन्द शत निहारिये.
दूरियों को दिल से अब बिसारिये.
श्री माल कंठ-कंठ में सजाइये
मिल बसन्ती गीत मीत गाइए.
*
नीरव हो न निकुंज चलो अब गायें हम
समस्याएँ हैं अनगिन कुछ सुलझायें हम.
बोधिसत्व आशा का दामन क्यों छोड़ें?
दीप बनें जल किंचित तिमिर मिटायें हम..
*
पूनम का मादक हो बसंत
राणा का हो बलिदानी सा.
खुशियों का ना हो कभी अंत
उत्साह अमित अरमानी सा.
हो गीत ग़ज़ल कुंडलियोंमय
मनहर बसंत लासानी सा.
भारत माता की लाज रखे
बनकर बसंत कुर्बानी सा.
*

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

कुछ दोहे श्रृंगार के ---संजीव 'सलिल'

कुछ दोहे श्रृंगार के
संजीव 'सलिल'
*
गाल गुलाबी हो गये, नयन शराबी लाल.
उर-धड़कन जतला रही, स्वामिन हुई निहाल..

पुलक कपोलों पर लिखे, प्रणय-कथाएँ कौन?
मति रति-उन्मुख कर रहा, रति-पति रहकर मौन..

बौरा बौरा फिर रहे, गौरा लें आनंद.
लुका-छिपी का खेल भी, बना मिलन का छंद..

मिलन-विरह की भेंट है, आज वाह कल आह.
माँग रहे वर प्रिय-प्रिया, दैव न देना डाह..

नपने बौने हो गये, नाप न पाये चाह.
नहीं सके विस्तार लख, ऊँचाई या थाह..
आधार चाहते भाल पर, रखें निशानी एक.
तम-मन सिहरे पुलककर, सिर काँधे पर टेक..

कंधे से कंधे मिलें, नयन-हृदय मिल साथ.
दूरी सही न जा सके, मिले अधर-पग-हाथ..

करतल पर मेंहदी रची, चेहरा हुआ गुलाल.
याद किया प्रिय को हुई, मदिर नशीली चाल..


माटी से माटी मिले, जीवन पाये अर्थ.
माटी माटी में मिले, जग-जीवन हो व्यर्थ..
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मुक्तिका ...संबंध हैं. --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका 

 ...संबंध हैं. 

संजीव 'सलिल'
*
कांच के घर की तरह संबंध हैं.
हथौड़ों की चोट से प्रतिबंध हैं..

पग उठाये चल पड़े श्रम जिस तरफ.
सफलता के उस तरफ अनुबंध हैं..

कौरवी दरबार सी संसद सजी.
भ्रष्ट मंत्री, दुष्ट सांसद अंध हैं..

प्रशासन वैताल, विक्रम आम जन.
लाड थक-झुक-चुक गए स्कंध हैं..

सृष्टि बगिया लगा माली चुन रहा.
'सलिल' सुरभित सुमन स्नेहिल गंध हैं..

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