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सोमवार, 2 मई 2011

सत्‍य साईं: अवतार, भगवान, जादूगर या सेक्‍स का भूखा भेडि़या!

सत्‍य साईं: अवतार, भगवान, जादूगर या सेक्‍स का भूखा भेडि़या!

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पुट्टापर्थी के सत्‍य साईं का निधन हो गया है। रविवार २४  अप्रैल की सुबह सात बजकर ४० मिनट पर उन्‍होंने अपना शरीर छोड़ दिया। ८५  वर्षीय सत्‍य साईं को दिल और सांस संबंधी समस्‍याओं के बाद २८ मार्च को अस्‍पताल में भर्ती कराया गया था। उनके सभी अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। पिछले २८ दिनों से सत्‍य साईं की जिंदगी के लिए भले ही लाखों हाथ दुआ के लिए उठ रहे थे, लेकिन समय-समय पर ऐसे हाथ भी आगे आए हैं, जिन्‍होंने उन पर यौन शोषण, बाल यौन शोषण और समलैंगिक संबंध बनाने तक के आरोप लगाए हैं। खुद को भगवान और साईं बाबा का अवतार बताने वाले सत्‍य साईं का चरित्र भारतीय भक्‍तों के लिए अलौकिक, चमत्‍कारिक और अवतारी रहा है तो विदेशी भक्‍तों ने उन्‍हें सेक्‍स का भूखा भेडि़या तक कहा है।

राजू से सत्‍यसाईं तक का सफर
सत्य साईं बाबा के  बचपन का नाम सत्यनारायण राजू था। सत्य साईं का जन्म आन्ध्र प्रदेश के पुत्तपार्थी गांव में २३  नवंबर १९२६  को हुआ था। वह श्री पेदू वेंकप्पाराजू एवं मां ईश्वराम्मा की संतानों में सत्यनारायणा एक भाई और दो बहनों के बाद सब से छोटे थे। उनके माता-पिता मजदूरी कर घर चलाते थे। कहा जाता है कि जिस क्षण उनका जन्म हुआ, उस समय घर में रखे सभी वायंत्र स्वत: बजने लगे और सर्प बिस्तर के नीचे से फन निकालकर छाया करता पाया गया।
सत्य नारायण भगवान की पूजा का प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात शिशु का जन्म हुआ था, अतएव नवजात का नाम सत्य नारायण रखा गया। सत्यनारायण ने अपने गांव पुत्तपार्थी में तीसरी क्लास तक पढ़ाई की। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वो बुक्कापटनम के स्कूल चले गए। आठ वर्ष की अल्प आयु से ही उन्‍होंने ने सुंदर भजनों की रचना शुरू की। चित्रावती के किनारे ऊंचे टीले पर स्थित इमली के वृक्ष से साथियों की मांग पर, विभिन्न प्रकार के फल व मिठाइयां सृजित करते थे। यह इमली का वृक्ष आज भी है।
खुद को किया साई बाबा का अवतार घोषित
कहा जाता है कि ८ मार्च १९४० को जब वो कहीं जा रहे थे तो उनको एक बिच्छू ने डंक मार दिया। कई घंटे तक वो बेहोश पड़े रहे। उसके बाद के कुछ दिनों में उनके व्यक्तित्व में खासा बदलाव देखने को मिला। वो कभी हंसते, कभी रोते तो कभी गुमसुम हो जाते। उन्होंने संस्कृत में बोलना शुरू कर दिया जिसे वो जानते तक नहीं थे।

डॉक्टरों ने सोचा उन्हें दौरा पड़ा है। उनके पिता ने उन्हें कई डॉक्टरों, संतों,  और ओझाओं से दिखाया, लेकिन कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। २३  मई १९४० को उनकी दिव्यता का लोगों को अहसास हुआ। सत्य साईं ने घर के सभी लोगों को बुलाया और चमत्कार दिखाने लगे। उनके पिता को लगा कि उनके बेटे पर किसी भूत की सवारी आ गई है। उन्होंने एक छड़ी ली और सत्यनारायण से पूछा कि कौन हो तुम? सत्यनारायण ने कहा 'मैं शिव शक्ति स्वरूप, शिरडी साईं का अवतार हूं ।' इस उदघोषणा के बाद उन्होंने मुट्ठी भर चमेली के फूलों को हवा में उछाल दिया, जिनसे धरती पर गिरते ही तेलुगू अक्षरों में 'साईंबाबा ’ लिख गया।
शिरडी के साईं बाबा, सत्य साईं की पैदाइश से 8 साल पहले ही गुजर चुके थे। खुद को शिरडी साईं बाबा का अवतार घोषित करने के वक्‍त सत्‍य साईं की उम्र १४ वर्ष थी। बाद में उनके पास श्रद्धालुओं की भीड़ जुटने लगी। उन्होंने मद्रास और दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों की यात्रा की। उनके भक्तों की तादाद बढ़ गई। हर गुरुवार को उनके घर पर भजन होने लगा, जो बाद में रोजाना हो गया।
२० अक्टूबर १९४० को उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और घोषणा की कि भक्तों की पुकार उन्हें बुला रही है और उनका मुख्य कार्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। १९४४ में सत्य साईं के एक भक्त ने उनके गांव के नजदीक उनके लिए एक मंदिर बनाया जो आज पुराने मंदिर के नाम से जाना जाता है। उन्होंने पुट्टापत्र्ती में 'प्रशांति निलयम ’ आश्रम की स्थापना की, जिसका उद्घाटन बाबा के २५वें जन्म दिन पर १९५० में उन्हीं के द्वारा किया गया।
१९५७ में साईं बाबा उत्तर भारत के दौरे पर गए। १९६३ में उन्हें कई बार दिल का दौरा पड़ा। ठीक होने पर उन्होंने एलान किया कि वो कर्नाटक प्रदेश में प्रेम साईं बाबा के रूप में पुन: अवतरित होंगे।
२९ जून १९६८ को उन्होंने अपनी पहली और एकमात्र विदेश यात्रा की। वो युगांडा गए जहां नैरोबी में उन्होंने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि मैं यहां आपके दिल में प्यार और सद्भाव का दीप जलाने आया हूं, मैं किसी धर्म के लिए नहीं आया, किसी को भक्त बनाने नहीं आया, मैं तो प्यार का संदेश फैलाने आया हूं।
कैसे-कैसे आरोप
४० हजार करोड़ रुपये के आध्यात्मिक साम्राज्य के सर्वेसर्वा सत्य साईं पर भक्तों को सम्मोहित करके उनका यौन शोषण करने के कई आरोप लगे हैं। ब्रिटेन, स्वीडन, जर्मनी और अमेरिका के सांसदों के कई समूहों ने यह भी आरोप लगाए कि सत्‍य साईं बाबा तिकड़म और हाथ की सफाई दिखाते हैं। आरोपों के अनुसार आंध्र प्रदेश में पुट्टपर्थी स्थित सत्‍य साईं के आश्रम में इस तरह की शर्मनाक गतिविधियां लंबे समय से चलती रही हैं और इनके बारे में कभी पुलिस रिपोर्ट तक नहीं लिखी गई। सामान्य शारीरिक संबंधों के अलावा समलैंगिक गतिविधियों में शामिल होने के उन पर कई बार आरोप लगे हैं। कई भक्तों ने समय-समय पर यह भी आरोप लगाए कि उन्हें मोक्ष दिलाने के बहाने उनके साथ शारीरिक संबंध बनाए गए।
भारतीय प्रधानमंत्री लेते रहे हैं आशीर्वादयह अलग बात है कि नरसिम्‍हाराव, अटलबिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और न जाने कितने ही भारत के प्रधानमंत्री, मुख्‍यमंत्री, सांसद, नौकरशाह व नेता उसके पैर में अपना सिर नवाते रहे हैं। क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर व डांसर माइकल जैक्‍सन भी उनके शिष्‍य रहे हैं। लाखों भक्‍त उनके भभूत निकालने, सोने की जंजीर निकालने और ऐसे कई चमत्‍कारों की वजह से उन्‍हें अपना भगवान मानते रहे हैं। कईयों का दावा है कि सत्‍य साईं की वजह से उनकी जिंदगी में खुशियां आई, लेकिन इसके उलट कई विदेशी भक्‍तों ने उन्‍हें सेक्‍स कुंठित, सेक्‍स का भूखा भेडि़या और न जाने क्‍या-क्‍या कहा। भारत में कभी उनके खिलाफ एक पुलिस रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की जा सकी, लेकिन उनके विदेशी भक्‍तों ने अपने-अपने देश में उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करा रखा है।
कुछ आरोपों के उदाहरणमलेशिया की एक भक्त ने सीधे सत्य साईं बाबा पर समलैंगिक संबंध बनाने के लिए जोर डालने का आरोप लगाया। ऐसे ही ब्रिटेन की एक महिला ने यहां तक कहा कि बाबा और उनके सहयोगियों ने लंबे समय तक उसका शारीरिक शोषण किया। ज्यादातर आरोप किशोरों और युवा भक्तों द्वारा लगाए गए हैं। १९७० में एक ब्रिटिश लेखक टाल ब्रोक ने सत्य साईं बाबा को 'सेक्स का भूखा भेड़िया' करार दिया था। कैलिफोर्निया (अमेरिका) के रहने वालेग्लेन मैनॉय ने अमेरिकी अदालत में सत्य साईं बाबा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अर्जी दी। आश्रम में यौन शोषण और आर्थिक धोखाधड़ी के शिकार हुए कई लोगों की रिपोर्ट जब पुलिस ने नहीं लिखी तो उन्होंने अपने उच्चायोगों और दूतावासों में शिकायतकी और आखिरकार अपने देशों में जा कर शिकायत लिखवाई।
बीबीसी की रिपोर्टजून २००४ में बीबीसी ने अपने कार्यक्रम 'द सीक्रेट स्‍वामी' में दावा किया कि भारत से लेकर कैलीफोर्निया तक सत्‍य साईं बाबा के कई पूर्व भक्‍तों ने उनसे मुंह मोड़ लिया है। इनका आरोप है कि बाबा ने उनकी जिंदगी बर्बाद की है। चैनल ने बाबा की एक पूर्व भक्‍त अलाया के हवाले से कहा कि बाबा ने उसका यौन शोषण किया। इस कार्यक्रम में दिए बाइट में अलाया ने कहा, 'मुझे उनकी (सत्‍य साईंबाबा) वो बात याद है कि यदि तुम मेरा कहा नहीं मानोगी हो तो मैं तुम्‍हे बर्बाद कर सकता हूं। तुम्‍हे जीवन में कष्‍ट और परेशानियां झेलनी पड़ेंगी।'
ब्रिटेन में मचा था बवंडर२००६ में ब्रिटेन में बाबा को लेकर नया विवाद उस वक्‍त शुरू हुआ जब सत्‍य साईं ट्रस्‍ट ब्रिटेन के ड्यूक ऑफ इडनबर्ग के अवार्ड चैरिटी का पार्टनर बना। दोनों पक्षों के बीच तय हुआ कि चैरिटी के करीब २०० युवा वालंटियर श्री सत्‍य साईं संगठन के लिए काम करने भारत जाएंगे। स्‍थानीय लोगों के विरोध के बाद सत्‍य साईं बाबा संगठन की ब्रिटिश स्थित शाखा साईं यूथ यूके ने अपने कदम पीछे खींच लिए। कई लोगों (जिनमें सत्‍य साई के पूर्व भक्‍त भी शामिल थे) ने सवाल किए कि जब बाबा का चरित्र संदिग्‍ध है तो चैरिटी ने ऐसा फैसला क्‍यों किया। ब्रिटिश अखबार 'द गार्जियन' ने इस मुद्दे को तूल देते हुए कहा कि ड्यूक ऑफ इडनबर्ग अवार्ड से उस आध्‍यात्मिक समूह से जोड़ा जा रहा है जिसके संस्‍थापक पर बच्‍चों का यौन शोषण करने के आरोप हैं।

ब्रिटेन की लेबर पार्टी के सांसद टोनी कोलमेन और भूतपूर्व ब्रिटिश मंत्री टॉम सैक्रिल ने तो यह मामला ब्रिटिश संसद में भी उठाया था। उन्होंने बीबीसी की एक रिपोर्ट को सबूत के तौर पर पेश किया था और मांग की कि सत्य साईं बाबा को ब्रिटेन आने के लिए हमेशा के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाए।
कैसे-कैसे चमत्‍कार
सत्य साईं बाबा उस वक्‍त ज़्यादा लोकप्रिय हुए जब उन्होंने तरह-तरह के चमत्कार दिखने शुरू किया- जैसे हाथ में अचानक सोने की चेन ले आना, अपने पेट से उल्टी के जरिए शिवलिंग उगलना, हवा से भभूत पैदा करना आदि। उनके चमत्कारों की बात फैलने लगी और हवा में हाथ घुमा कर विभूति या राख से लेकर बहुमूल्य आभूषण और कीमती घड़ियाँ प्रस्तुत करने की क्षमता के चर्चे होने लगे वैसे-वैसे उनके भक्तों की संख्या भी बढ़ने लगी। लेकिन सन १९९० में सत्‍य साई ने ढोंगी होने का आरोप लगने के बाद चमत्कार दिखाना बन्द कर दिया। बाद के वर्षों में देश विदेश में बसे उनके अनेक भक्तों ने दावा किया कि उनके घरों में सभी देवी देवताओं की मूर्तियों तथा चित्रों से विभूति, कुमकुम, शहद, रोली शिवलिंग प्रकट होते हैं, जिसे वह खुद के लिए सत्‍य साईं का आशीर्वाद मानते हैं।

पीसी सरकार ने सामने ही दे डाली थी चुनौती
हैदराबाद में एक समारोह में उन्होंने हवा में हाथ लहराकर सोने की ज़ंजीर अपनी भक्तों को दिखाई लेकिन बाद में उसका वीडियो देखने से पता चला की वो ज़ंजीर उन्होंने अपनी आस्तीन से निकाली थी।
इस घटना के बाद कई बुद्धिजीवियों ने साईं बाबा को चुनौती दी कि वो अपना लबादा निकाल कर और आम कपड़े पहने कर उनका सामना करें और चमत्कार दिखाएं.
एक बार बंगाल के मशहूर जादूगर पी सी सरकार ने भी उन के मुकाबले में हाथ की सफ़ाई दिखाई. जहाँ बाबा ने कीमती घड़ी हवा में से निकालने का दावा किया वहीं उसी आश्रम में मौजूद सरकार ने रसगुल्ला पेश कर के हंगामा मचा दिया। साईं बाबा के कर्मचारियों ने उन्हें वहां से निकाल बाहर किया.

उनके आश्रम में चार लोगों की हुई थी हत्‍या
उस के कुछ ही समय बाद चार युवा उनके प्रशांति निलयम में सुरक्षा कर्मियों के हाथों मारे गए. आश्रम के अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने साईं बाबा के बेडरूम में घुस कर उन्हें मारने की कोशिश की थी. इस घटना ने कई दूसरी अफ़वाहों को जन्म दिया लेकिन सच्चाई कभी सामने नहीं आ सकी.

सामाजिक कार्य
सत्‍य साईं ने देश-विदेश में करीब १६७ आध्यात्मिक केंद्र स्थापित किए। उन का सबसे बड़ा काम सूखे से पीड़ित अनंतपुर ज़िले में हुआ जहाँ उन्होंने करीब गांवों के लिए पीने के पानी की योजना पर ३०० करोड़ रुपए खर्च किए। पुट्टपर्ति नगर में उन्होंने एक विश्वविद्यालय, गरीबों के मुफ्त इलाज के लिए आधुनिक अस्पताल, एयरपोर्ट और स्टेडियम बनवाया।

भक्‍तों को एक और अवतार की उम्‍मीद
साईं बाबा ने ही भविष्‍यवाणी की थी कि वह ९६ साल तक जिंदा रहेंगे और फिर २०२३ में कर्नाटक के मांडया जिले के गुनापर्थी गांव में प्रेमा साईं बाबा के रूप में नया अवतार लेंगे। उनके मुताबिक यह साईं का अंतिम अवतार होगा। प्रेमा साईं का जिक्र पहली बार १९६३ में सत्‍य साईं ने एक प्रवचन के दौरान किया था।
उन्‍होंने कहा था, भगवान शिव ने कहा था कि शिव और शक्ति भारद्वाज गोत्र में तीन बार जन्‍म लेंगे। फिर २००८ में सत्‍य साईं ने कहा था कि प्रेमा साईं के अवतरित होने से सभी मानवों के बीच जबरदस्‍त एकता बढ़ेगी। बाबा ने यह भी कहा था कि प्रेमा साईं बाबा का शरीर बनने की प्रक्रिया चल रही है। उन्‍होंने यह तक बताया था कि प्रेमा साईं बाबा का जन्‍म कस्‍तूरी के गर्भ से होगा। अब सत्‍य साईं के भक्‍तों को प्रेमा साईं बाबा के अवतार का इंतजार है।
हालांकि उनका देहावसान ८६ वर्ष की उम्र में ही हो गया और उनकी ९६ साल तक जिंदा रहने की भविष्‍यवाणी झूठी साबित हो गई, लेकिन उनके भक्‍तों को उम्‍मीद है कि साईं का तीसरा अवतार होगा और वह उनके बीच प्रेमा साईं के रूप में आएंगे।

सत्‍य साईं की शिक्षा
इस समय विश्व के लगभग १६७ जगहों पर सत्य साईं केंद्रों की स्थापना हो चुकी है। भारत के लगभग सभी प्रदेशों में साईं संगठन  हैं। सत्‍य साई का कहना है कि विभिन्न मतों को मानने वाले, अपने-अपने धर्म को मानते हुए, अच्छे मानव बन सके। साईं मिशन को सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि बच्चों को बचपन से ऐसा वातावरण उपलब्ध हो, जिसमें उनको अच्छे संस्कार मिलें और पांच मानवीय मूल्यों, सत्य, धर्म, शान्ति, प्रेम और अहिंसा को अपने चरित्र में ढालते हुए वे अच्छे नागरिक बन सकें।
* व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म को माने पर परम निष्ठा के साथ धर्म का पालन करना चाहिए।
* सदैव दूसरे धर्म का आदर करना चाहिए।
* सदैव अपने देश का आदर करो हमेशा उसके कानूनों का पालन करना चाहिए।
* परमात्मा एक है, पर उसके नाम अलग-अलग हैं।
* रोजमर्रा की जिंदगी में अच्छे व्यवहार और नैतिकता को कड़ाई से शामिल करना चाहिए।
* बिना किसी उम्मीद के गरीबों, जरूरतमंदों और बीमारों की मदद करनी चाहिए।
* सत्य का मूल्य, आध्यात्मिक प्रेम, अच्छे आचरण, शांति और अहिंसा का पालन और प्रसार करना चाहिए
 
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चिंतन: सम्यक निद्रा के लिए ध्यान -- ओशो

चिंतन:

सम्यक निद्रा के लिए ध्यान

ओशो  

मनुष्य-जाति की सभ्यता के विकास में सबसे ज्यादा जिस चीज को हानि पहुंची है वह निद्रा है। जिस दिन से आदमी ने प्रकाश की ईजाद की उसी दिन निद्रा के साथ उपद्रव शुरू हो गया। और फिर जैसे-जैसे आदमी के हाथ में साधन आते गए उसे ऐसा लगने लगा कि निद्रा एक अनावश्यक बात है। समय खराब होता है जितनी देर हम नींद में रहते हैं। समय फिजूल गया। तो जितनी कम नींद से चल जाए उतना अच्छा। क्योंकि नींद का भी कोई जीवन की गहरी प्रक्रियाओं में दान है, कंट्रीब्यूशन है यह तो खयाल में नहीं आता। नींद का समय तो व्यर्थ गया समय है। तो जितने कम सो लें उतना अच्छा। जितने जल्दी यह नींद से निपटारा हो जाए उतना अच्छा।.
एक तरफ तो इस तरह के लोग थे जिन्होंने नींद को कम करने की दिशा शुरू की। और दूसरी तरफ साधु-संन्यासी थे, उनको ऐसा लगा कि नींद जो है, मूर्च्छा जो है, यह शायद आत्म-ज्ञान की या आत्म-अवस्था की उलटी अवस्था है निद्रा। तो निद्रा लेना ठीक नहीं है। तो जितनी कम नींद ली जाए उतना ही अच्छा है। और भी साधुओं को एक कठिनाई थी कि उन्होंने चित्त में बहुत से सप्रेशंस इकट्ठे कर लिए, बहुत से दमन इकट्ठे कर लिए। नींद में उनके दमन उठ कर दिखाई पड़ने लगे, सपनों में आने लगे। तो नींद से एक भय पैदा हो गया। क्योंकि नींद में वे सारी बातें आने लगीं जिनको दिन में उन्होंने अपने से दूर रखा है। जिन स्त्रियों को छोड़ कर वे जंगल में भाग आए हैं, नींद में वे स्त्रियां मौजूद होने लगीं, वे सपनों में दिखाई पड़ने लगीं। जिस धन को, जिस यश को छोड़ कर वे चले आए हैं, सपने में उनका पीछा करने लगा। तो उन्हें ऐसा लगा कि नींद तो बड़ी खतरनाक है। हमारे बस के बाहर है। तो जितनी कम नींद हो उतना अच्छा। तो साधुओं ने सारी दुनिया में एक हवा पैदा की कि नींद कुछ गैर-आध्यात्मिक, अन-स्प्रिचुअल बात है।
यह अत्यंत मूढ़तापूर्ण बात है। एक तरफ वे लोग थे जिन्होंने नींद का विरोध किया, क्योंकि ऐसा लगा फिजूल है नींद, इतना सोने की क्या जरूरत है, जितने देर हम जागेंगे उतना ही ठीक है। क्योंकि गणित और हिसाब लगाने वाले, स्टैटिक्स जोड़ने वाले लोग बड़े अदभुत हैं। उन्होंने हिसाब लगा लिया कि एक आदमी आठ घंटे सोता है, तो समझो कि दिन का तिहाई हिस्सा तो सोने में चला गया। और एक आदमी अगर साठ साल जीता है, तो बीस साल तो फिजूल गए। बीस साल बिलकुल बेकार चले गए। साठ साल की उम्र चालीस ही साल की रह गई। फिर उन्होंने और हिसाब लगा लिए--उन्होंने हिसाब लगा लिया कि एक आदमी कितनी देर में खाना खाता है, कितनी देर में कपड़े पहनता है, कितनी देर में दाढ़ी बनाता है, कितनी देर में स्नान करता है--सब हिसाब लगा कर उन्होंने बताया कि यह तो सब जिंदगी बेकार चली जाती है। आखिर में उतना समय कम करते चले गए, तो पता चला, कि दिखाई पड़ता है कि आदमी साठ साल जीआ--बीस साल नींद में चले गए, कुछ साल भोजन में चले गए, कुछ साल स्नान करने में चले गए, कुछ खाना खाने में चले गए, कुछ अखबार पढ़ने में चले गए। सब बेकार चला गया। जिंदगी में कुछ बचता नहीं। तो उन्होंने एक घबड़ाहट पैदा कर दी कि जितनी जिंदगी बचानी हो उतना इनमें कटौती करो। तो नींद सबसे ज्यादा समय ले लेती है आदमी का। तो इसमें कटौती कर दो। एक उन्होंने कटौती करवाई। और सारी दुनिया में एक नींद-विरोधी हवा फैला दी। दूसरी तरफ साधु-संन्यासियों ने नींद को अन-स्प्रिचुअल कह दिया कि नींद गैर-आध्यात्मिक है। तो कम से कम सोओ। वही उतना ज्यादा साधु है जो जितना कम सोता है। बिलकुल न सोए तो परम साधु है।
ये दो बातों ने नींद की हत्या की। और नींद की हत्या के साथ ही मनुष्य के जीवन के सारे गहरे केंद्र हिल गए, अव्यवस्थित हो गए, अपरूटेड हो गए। हमें पता ही नहीं चला कि मनुष्य के जीवन में जो इतना अस्वास्थ्य आया, इतना असंतुलन आया, उसके पीछे निद्रा की कमी काम कर गई। जो आदमी ठीक से नहीं सो पाता, वह आदमी ठीक से जी ही नहीं सकता। निद्रा फिजूल नहीं है। आठ घंटे व्यर्थ नहीं जा रहे हैं। बल्कि आठ घंटे आप सोते हैं इसीलिए आप सोलह घंटे जाग पाते हैं, नहीं तो आप सोलह घंटे जाग नहीं सकते। वह आठ घंटों में जीवन-ऊर्जा इकट्ठी होती है, प्राण पुनरुज्जीवित होते हैं। और आपके मस्तिष्क के और हृदय के केंद्र शांत हो जाते हैं और नाभि के केंद्र से जीवन चलता है आठ घंटे तक। निद्रा में आप वापस प्रकृति के और परमात्मा के साथ एक हो गए होते हैं, इसलिए पुनरुज्जीवित होते हैं। अगर किसी आदमी को सताना हो, टॉर्चर करना हो, तो उसे नींद से रोकना सबसे बढ़िया तरकीब है। हजारों साल में ईजाद की गई। उससे आगे नहीं बढ़ा जा सका अब तक।
नींद वापस लौटानी जरूरी है। और अगर सौ, दो सौ वर्षों के लिए इस सारी दुनिया में कोई कानूनी व्यवस्था की जा सके कि आदमी को मजबूरी में सो ही जाना पड़े, कोई और उपाय न रहे, तो मनुष्य-जाति के मानसिक स्वास्थ्य के लिए इससे बड़ा कोई कदम नहीं उठाया जा सकता। साधक के लिए तो बहुत ध्यान देना जरूरी है कि वह ठीक से सोए और काफी सोए। और यह भी समझ लेना जरूरी है कि सम्यक निद्रा हर आदमी के लिए अलग होगी। सभी आदमियों के लिए बराबर नहीं होगी। क्योंकि हर आदमी के शरीर की जरूरत अलग है, उम्र की जरूरत अलग है, और कई दूसरे तत्व हैं जिनकी जरूरत अलग है।

(सौजन्‍य से ओशो न्‍यूज लेटर/ओशोवाणी)

चिट्ठाकारों का सम्मलेन दिल्ली में: रपट : अविनाश वाचस्पति. आभार नुक्कड़

चिट्ठाकारों का सम्मलेन दिल्ली में:
 रपट : अविनाश वाचस्पति.
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    देश की संस्‍कृति का केन्‍द्र है उत्‍तराखंड और मैं चाहूंगा कि आप सबके सहयोग से वह विश्‍व पटल पर हिन्‍दी का एक सशक्‍त केन्‍द्र भी हो जाए। शनिवार दिनांक ३० अप्रैल २०११ को हिंदी भवन दिल्‍ली में हिन्‍दी साहित्‍य निकेतन परिकल्‍पना सम्‍मान समारोह को संबोधित करते हुए उपरोक्‍त विचार उत्‍तराखंड के मुख्‍यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने व्‍यक्‍त किए। इस अवसर पर उन्‍होंने परिकल्‍पना डॉट कॉम की ओर से देश विदेश के इक्‍यावन चर्चित और श्रेष्‍ठ तथा नुक्‍कड़ डॉट कॉम की ओर से हिंदी ब्‍लॉगिंग में विशिष्‍टता हासिल करने वाले तेरह ब्‍लॉगरों को सारस्‍वत सम्‍मान प्रदान किया।

    कार्यक्रम दो सत्रों में संपन्‍न हुआ। पहले सत्र की अध्‍यक्षता हास्‍य व्‍यंग्‍य के सशक्‍त और लोकप्रिय हस्‍ताक्षर अशोक चक्रधर ने की। इस अवसर पर मुख्‍य अतिथि रहे वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ. रामदरश मिश्र और विशिष्‍ट अतिथि रहे प्रभाकर श्रोत्रिय। साथ ही प्रमुख समाजसेवी विश्‍वबंधु गुप्‍ता और डायमंड बुक्‍स के संचालक नरेन्‍द्र कुमार वर्मा भी मंचासीन थे। दीप प्रज्‍वलित कर कार्यक्रम का विधिवत शुभारंभ रमेश पोखरियाल निशंक ने किया। अविनाश वाचस्‍पति और रवीन्‍द्र प्रभात द्वारा संपादित हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की पहली मूल्‍यांकनपरक पुस्‍तक हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग : अभिव्‍यक्ति की नई क्रांति, रवीन्‍द्र प्रभात का नया उपन्‍यास ताकी बचा रहे लोकतत्र, निशंक जी की पुस्‍तक सफलता के अचूक मंत्र तथा रश्मिप्रभा द्वारा संपादित परिकल्‍पना की त्रैमासिक पत्रिका वटवृक्ष का लोकार्पण किया गया। इसके बाद चौंसठ हिंदी ब्‍लॉगरों का सारस्‍वत सम्‍मान हुआ।
 
   इस अवसर पर प्रमुख समाजसेवी विश्‍वबंधु गुप्‍ता ने कहा कि जीवन के उद्देश्‍य ऐसे हों जिनमें मानवीय सेवा निहित हो। मैं ब्‍लॉगिंग के बारे में बहुत ज्‍यादा तो नहीं जानता किंतु जहां तक मेरी जानकारी में है और मैंने महसूस किया है, उसके आधार पर यह दावे के साथ कह सकता हूं कि हिंदी ब्‍लॉगिंग में सामाजिक स्‍वर और सरोकार पूरी तरह दिखाई दे रहा है। कई ऐसे ब्‍लॉगर हैं जो सामाजिक जनचेतना को हिंदी ब्‍लॉगिंग से जोड़ने का महत्‍वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। यह दुनिया विचारों की दुनिया है, बस कोशिश यह करें कि हमारे विचार आम आदमी से जुड़कर आगे आएं।

    अशोक चक्रधर ने अपने चुटीले अंदाज में सर्वप्रथम हिन्‍दी साहित्‍य निकेतन के साथ अपनी भावनात्‍मक सहभागिता की बात की और स्‍वयं एक ब्‍लॉगर होने के नाते आयोजकत्रय गिरिराजशरण अग्रवाल, रवीन्‍द्र प्रभात और अविनाश वाचस्‍पति की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्‍होंने बताया कि हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग ने सचमुच समाज में एक नई क्रांति का सूत्रपात किया है क्‍योंकि पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में साहित्‍य और संस्‍कृति के पेज संकुचित होते जा रहे हैं और उनकी अभिव्‍यक्ति को धार दे रही है हिन्‍दी ब्‍लॅगिंग। ऐसे कार्यक्रमों से निश्चित रूप से हिंदी का विकास होगा और हिन्‍दी अंतरराष्‍ट्रीय फलक पर अग्रणी भाषा के रूप में प्रतिस्‍थापित होगी।
 
हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय ने अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम को लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति से जोड़कर देखा और कहा कि हिंदी ब्लॉगिंग का तेजी से विकास हो रहा है, तमाम साधन और सूचना की न्यूनता के वाबजूद यह माध्यम प्रगति पथ पर तीब्र गति से अग्रसर है, तकनीक और विचारों का यह साझा मंच कुछ बेहतर करने हेतु प्रतिबद्ध दिखाई दे रहा है । यह कम संतोष की बात नहीं है

   वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ. रामदरश मिश्र ने साहित्‍य के अपने लंबे अनुभवों को बांटा, वहीं अभिव्‍यक्ति के इस नए माध्‍यम के भविष्‍य को लेकर पूरी तरह आशान्वित दिखे। उन्होंने कहा कि जब मैंने साहित्य सृजन करना शुरू किया था तो मैं यह महसूस करता था कि कलम सोचती है और आज़ हिन्दी ब्लॉगिंग के इस महत्वपूर्ण दौर मे यह कहने पर विवश हो गया हूँ कि उंगलिया भी सोचती हैं। बहुत अच्छा लगता है जब आज की पीढ़ी को नूतनता के साथ आगे बढ़ते देखता हूँ । आयोजको को इस नयी पहल के लिए मेरी असीम शुभकामनाएं

   दूसरे सत्र में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने कालजयी साहित्यकार रविन्द्र नाथ टैगोर की बंगला नाटिका लावणी का हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर सभागार में उपस्थित दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर दिया । इस अवसर पर हिंदी साहित्य निकेतन की ५० वर्षों की यात्रा को आयामित कराती पावर पोईन्ट प्रस्तुति भी हुई कार्यक्रम का संचालन रवीन्द्र प्रभात और गीतिका गोयल ने किया

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मुक्तिका: मैं -संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मैं
संजीव 'सलिल'
*
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं, अधुनातन हूँ सच मानो.
कहा-अनकहा, सुना-अनसुना, किस्सा हूँ यह भी जानो..

क्षणभंगुरता मेरा लक्षण, लेकिन चिर स्थाई हूँ.
निराकार साकार हुआ मैं वस्तु बिम्ब परछाईं हूँ.

परे पराजय-जय के हूँ मैं, भिन्न-अभिन्न न यह भूलो.
जड़ें जमाये हुए ज़मीन में, मैं कहता नभ को छूलो..

मैं को खुद से अलग सिर्फ, तू ही तू दिखता रहा सदा. 
यह-वह केवल ध्यान हटाते, करता-मिलता रहा बदा..

क्या बतलाऊँ? किसे छिपाऊँ?, मेरा मैं भी नहीं यहाँ.
गैर न कोई, कोई न अपना, जोडूँ-छोडूँ किसे-कहाँ??

अब तब जब भी आँखें खोलीं, सब में रब मैं देख रहा.
फिर भी अपना और पराया, जाने क्यों मैं लेख रहा?

ढाई आखर जान न जानूँ, मैली कर्म चदरिया की.
मर्म धर्म का बिसर, बिसारीं राहें नर्म नगरिया की..

मातु वर्मदा, मातु शर्मदा, मातु नर्मदा 'मैं' हर लो.
तन-मन-प्राण परे जा उसको भज तज दूँ 'मैं' यह वर दो..

बिंदु सिंधु हो 'सलिल', इंदु का बिम्ब बसा हो निज मन में.
ममतामय मैया 'मैं' ले लो, 'सलिल' समेटो दामन में..
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ताजमहल मकबरा नहीं तेजो महालय (तेजपुंज शिव का मंदिर)




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ताजमहल मकबरा नहीं तेजो महालय (तेजपुंज शिव का मंदिर)

दुनिया के ७ आश्चर्यों में से एक  भारत के आगरा जिले में सहित ताजमहल को मुग़ल सम्राट शाहजहाँ द्वारा  उसकी अनेक बेगमों में से एक मुमताजमहल की याद में बनवाया गया मकबरा बताया जाता है जबकि सत्य इसके सर्वथा विपरीत है. अकाट्य ऐतिहासिक साक्ष्य हैं की यह भवन मूलतः शिव मंदिर था जिसे राजपूत राजाओं ने अपने इष्टदेव को समर्पित किया था तथा इसका शेष भाग राजपूत राजाओं का निवास था. मुगलों ने सत्तासीन होने पर राजपूतों का मान मर्दन करने के लिए इसे कपटपूर्वक मुमताज़महल का मकबरा बनाने के किये हथिया लिया और अपने दरबारी इतिहासकारों से झूठा इतिहास लिखवा लिया कि इसे शाहजहाँ ने दिवंगत बेगम की याद में बनवाया. यह विडम्बना है कि देश स्वतंत्र होने पर भारत सरकार के एक विभाग सर्वे ऑफ़ इंडिया के विद्वान् महानिर्देशक स्व. पुरुषोत्तम नागेश ओक द्वारा प्रामाणिक खोजकर लिखी गयी किताब 'ताजमहल राजपूती महल था' में प्रस्तुत निष्कर्षों की उपेक्षा की गयी और जनता को सत्य से दूर रखा गया. यहाँ प्रस्तुत है ताजमहल के तेजो महालय होने संबंधी प्रमाण:
 
भवन के अंदर पानी का कुआँ ...
 
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ताजमहल और गुम्बद के सामने का दृश्य

निर्मित छत...... cid:part3.09080704.08060501@oracle.com
गुम्बद और शिखर के पास का दृश्य.....

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शिखर के ठीक पास का दृश्य.........
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आँगन में शिखर के छायाचित्र कि बनावट.....

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प्रवेश द्वार पर बने लाल कमल........
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ताज के पिछले हिस्से का दृश्य और बाइस कमरों का समूह........
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पीछे की खिड़कियाँ और बंद दरवाजों का दृश्य........
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विशेषतः वैदिक शैली मे निर्मित गलियारा.....
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मकबरे के पास संगीतालय........एक विरोधाभास.........

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ऊपरी तल पर स्थित एक बंद कमरा.........

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निचले तल पर स्थित संगमरमरी कमरों का समूह.........

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दीवारों पर बने हुए फूल......जिनमे छुपा हुआ है ओम् ( ॐ ) ....

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निचले तल पर जाने के लिए सीढियां........

cid:part15.06000608.05080409@oracle.com 
कमरों के मध्य 
300फीट लंबा गलियारा..cid:part16.05080508.04010801@oracle.com 
निचले तल के२२गुप्त कमरों मे से एक कमरा... 
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२२ गुप्त कमरों में से एक कमरे का आतंरिक दृश्य.......

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अन्य बंद कमरों में से एक आतंरिक दृश्य.. 
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एक बंद कमरे की वैदिक शैली में निर्मित छत

 

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ईंटों से बंद किया गया विशाल रोशनदान .....

 

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दरवाजों में लगी गुप्त दीवार,जिससे अन्य कमरों का सम्पर्क था.....

 

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बहुत से साक्ष्यों को छुपाने के लिए, गुप्त ईंटों से बंद किया गया दरवाजा......

 

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बुरहानपुर मध्य प्रदेश मे स्थित महल जहाँ मुमताज-उल-ज़मानी कि मृत्यु हुई थी.......

 

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बादशाहनामा के अनुसार,, इस स्थान पर मुमताज को दफनाया गया....

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प्रो. पी.जी.ओक ने अपनी शोधपरक पुस्तक 'ताजमहल राजपूती महल था' जो अंग्रेजी में  "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" शीर्षक से छपी में प्रमाणित किया कि ताजमहल बेगम मुमताज का मकबरा न होकर, एक हिंदू प्राचीन शिव मन्दिर (तेजो महालय) था. 
 
 शाहजहाँ ने जयपुर के राजा जयसिंह से अवैध तरीके से छीनकर मकबरे में बदल दिया था किन्तु लाख कोशिशों के बाद भी इमारत से हिन्दू मंदिर होने के चिन्ह पूरी तरह नहीं मिटाये जा सके.
  
  शाहजहाँ के दरबारी लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा लिखे गए बादशाहनामा में मुग़ल शासन का सम्पूर्ण वृतांत 1000  से ज़्यादा पृष्ठों मे वर्णित है. खंड एक केपृष्ठ 402 - 403 के अनुसारशाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी को मृत्यु के बादबुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफनाने के ०६ माह बाद, तारीख़ 15 ज़मदी-उल-अउवल दिन शुक्रवार को अकबराबाद आगरा लाया गया. बाद में उसे महाराजा जयसिंह से वफादारी के नाम पर जबरदस्ती छीने गए एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) में  पुनः दफनाया गया, लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों की इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे, पर बादशाह के प्रति वफादारी का वास्ता दिए जाने पर दबाव में देने के लिये मजबूर हो गये थे.जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में शाहजहाँ द्वारा तेजो महालय समर्पित करने के लिये राजा जयसिंहको दिये गये दोनों आदेश अब तक सुरक्षित हैं. मुग़ल काल मेंमृत दरबारियों और राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिये प्रायः हिन्दुओं के मंदिरों और भवनों का प्रयोग किया जाता था.हुमायूँअकबरएतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे दफनाये गए हैं.
  
प्रो. ओक ने सही लिखा है कि
"महलशब्दअफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश मेंभवनों के लिए प्रयोग नहीं किया जाता.'महल' शब्द मुमताज महल से लिए जाने का कुतर्क आधारहीन है क्योंकिशाहजहाँ की बेगम का नाम मुमताज महल नहीं मुमताज-उल-ज़मानी था दूसरा किसीभवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज) का ही प्रयोग कर प्रथम अर्ध भाग (मुम) को छोड़ना समझ से परे है... 
  
प्रो.ओक ने ठीक कहा है किमुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी, चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है.शाहजहाँ के समय के शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की पुष्टि नही करते.
  

 तेजो महालय मुग़ल काल के पहले निर्मित भगवान् शिव को समर्पित मंदिर तथा जयपुर के राजपरिवार का आवास था. 

  न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़ के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर १९८५ में यह सिद्ध किया कि यह दरवाजा सन् १३५९ के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग ३०० वर्ष पूर्व का है.

 
  मुमताज की मृत्यु १६३१ में हुई थी. उसी वर्ष के अंग्रेज पर्यटक पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि  ताजमहल मुग़ल बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था.
 
   यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने मुमताज की मृत्यु के साल बादसन् १६३८  में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांत का वर्णन किया परन्तु उसने ताज के बनने का कोइ उल्लेख नहीं किया. जबकि कहा जाता है कि ताज का निर्माण १६३१ से १६५१  तक जोर-शोर से हो रहा था.

 
   फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा, के यात्रा वृत्तान्त के अनुसार औरंगजेब के शासन काल में यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया था कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था.

 
   प्रो. ओक. ने अनेक आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित है जो प्रमाणित करते हैं कि ताजमहल विशाल मकबरा न होकर केवलहिंदू शिव मन्दिर है.आज भी ताजमहल के कई कक्ष शाहजहाँ के काल से बंद हैं, जो आम जनता की पहुँच से परे सत्य को अपने दमन में समेटे हैं.हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति, त्रिशूल, कलश और ॐ आदि चिन्हों का प्रयोग सर्वज्ञात है. ताज में ये प्रतीक अनेक स्थानों पर हैं.
 

   ताज महल के सम्बन्ध में किवदंती है कि ताजमहल के अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है. पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद-बूँद पानी नहीं टपकाया जाता, जबकि हर हिंदू शिव मन्दिर में शिवलिंग पर बूँद-बूँद कर पानी टपकाने का विधान है.
  

  राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से जब्त कर लीं तथा इनके प्रथम संस्करण छापने वाले संपादकों को भयंकर परिणाम भुगतने की धमकियाँ दीं.


प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में खुलवाये और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे.
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एक दूरलेखवार्ता (चैट): वार्ताकार: नवीन चतुर्वेदी-संजीव 'सलिल' विषय: भाषा में अन्य भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग

एक दूरलेखवार्ता (चैट):
वार्ताकार: नवीन चतुर्वेदी-संजीव 'सलिल'
विषय: हिंदी भाषा में अन्य भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग:
 
 
 
 
 
 
नवीन
नमस्कार
सुप्रभात 
सलिल:  नमन.
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं अधुनातन का हिस्सा हूँ.
बिना कहे जो कहा गया, वह सुना-अनसुना किस्सा हूँ..
- नवीन: वाह वाह 
सलिल: निवेदन आप तक पहुँच गया है.
नवीन: बिलकुल, मैंने भी एक निवेदन किया है आपसे.
सलिल: कौन सा?
नवीन: भाषा-व्याकरण में बंध के रहना मेरे लिए सच में बहुत ही कठिन है. मैंने आपको जी मेल पर मेसेज दिया था कल. नवगीत पर भी ये निवेदन कर चुका हूँ , ओबीओ, ठाले बैठे, समस्या पूर्ति और फेसबुक पर भी.
सलिल: कठिन को सरल करना ही तो नवीन होना है. 
नवीन: मैं खुले गगन का उन्मुक्त विहग हूँ, आचार्य जी!
सलिल: आप जैसा समर्थ रचनाकार भाषिक शब्दों, पिंगलीय लयात्मकता और व्याकरणिक अनुशासन को साध सकता है बशर्ते तीनों को समान महत्त्व दे. कम ही रचनाकार हैं जिनसे यह आशा है.उन्मुक्त तो भाव और विचार होता है, शिल्प के साथ नियम तो होते ही हैं.
नवीन: क्षमा चाहता हूँ आदरणीय. जहाँ तक मैं समझता हूँ, जिनके लिए हम लिख रहे हैं, उन्हें समझ जरुर आना चाहिए और साहित्यिक बंधनों की मूलभूत बातों का सम्मान अवश्य जरूरी होता है. हमें स्तर अलग-अलग कर लेने चाहिए. एक वो स्तर जहाँ आप जैसे विद्वानों से हमें सीखने को मिल सके और एक वो स्तर जहाँ नए लोगों को काव्य में रूचि जगाने का मौका मिल सके, नहीं तो बचे-खुचे भी भाग खड़े होंगे.
सलिल: आप शब्दों का भंडार रखते हुए भी उसमें से चुनते नहीं जो जब हाथ में आया रख देते हैं. गाड़ी के दोनों चकों में बराबर हवा जरूरी है. शिल्प में सख्ती और शब्द चयन में ढील क्यों? अर्थ तो पाद टिप्पणी में दिए जा सकते हैं. इससे शब्द का प्रसार और प्रचलन बढ़ता है और भाषा समृद्ध होती है.
अलग-अलग कर देंगे तो हम बच्चों से कैसे सीखेंगे? बच्चों के पास बदलते समय के अनेक शब्द हैं जो शब्द कोष में सम्मिलित किये जाने हैं. उन्हें अतीत में प्रयोग हुए शब्दों को भी समझना है, नहीं तो अब तक रचा गया सब व्यर्थ होगा.
नवीन: हमें दो अलग-अलग मंच रखने चाहिए. एक विद्वानों वाला मंच, एक नए बच्चों का मंच. दोनों को मिक्स नहीं करना चाहिए.विद्वत्ता की प्रतियोगिता देखने के लिए काफी लोग लालायित हैं.
सलिल: नहीं, विद्वान कोई नहीं है और हर कोई विद्वान् है. यह केवल आदत की बात है. जैसे अभी अपने 'मिक्स' शब्द का प्रयोग किया मैं 'मिलाना' लिखता. लगभग सभी पाठक दोनों शब्दों को जानते हैं. तत्सम और तद्भव शब्द वहीं प्रयोग हों जहाँ वे विशेष प्रभाव उत्पन्न करें अन्यथा वे भाषा को नकली और कमजोर बनाते हैं.
नवीन: मुझे लगता है, हमारे करीब 20 अग्रजों को एक जुट होकर एक अलग प्रतियोगिता [खास कर उनके लिए ही] शुरू करनी चाहिए. हम सब उससे प्रेरणा लेंगे और समझाने का प्रयास भी करेंगे.
सलिल: हम साधक हैं पहलवान नहीं. साधकों में कोई प्रतियोगिता नहीं होती. आप लड़ाने नहीं मिलाने की बात करें. मैं एक विद्यार्थी था, हूँ और सदा विद्यार्थी ही रहूँगा. सबसे कम जानता हूँ... नए रचनाकारों से बहुत कुछ सीखता हूँ. बात भाषा में समुचित शब्द होते हुए और रचनाकार को ज्ञात होते हुए भी अन्य भाषा के शब्द के उपयोग पर है. आरक्षण या जमातें नहीं चाहिए. सब एक हैं. सबको एक दूसरे को सहना, समझना और एक दूसरे से सीखना है.मतभेद हों मनभेद न हों.
नवीन: इसीलिए तो २० अग्रजों को मिलाने की बात कर रहा हूँ आदरणीय. इसकी लम्बे अरसे से ज़रूरत है .
मथुरा का चौबे हूँ, लिपि-पुती बातें करने को वरीयता नहीं देता, जो दिल में आता है- अधिकार के साथ अपने स्नेही अग्रजों से निवेदन कर देता हूँ. मनभेद की नौबत न आये इसीलिए आगे बढ़कर संवाद के मौके तलाश किये हैं.अब ऑफिस की तयारी करता हूँ .
सलिल: मुझे आवश्यक होने पर अन्य भाषा के शब्द लेने से परहेज़ नहीं है पर वह आवश्यक होने पर, जब भाषा में समुचित शब्द न हो तब या कथ्य की माँग पर... मात्र यह निवेदन है. शेष अपनी-अपनी पसंद है. रचनाकार की शैली उसे स्वयं ही तय करना है, समीक्षक मूल्यांकन मानकों के आधार पर ही करते हैं. अस्तु नमन...
नवीन: प्रणाम आदरणीय.
सलिल: सदा प्रसन्न रहिये.
*************
 

रविवार, 1 मई 2011

मुक्तिका: मौन क्यों हो? संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मौन क्यों हो?
संजीव 'सलिल'
*
मौन क्यों हो पूछती हैं कंठ से अब चुप्पियाँ.
ठोकरों पर स्वार्थ की, आहत हुई हैं गिप्पियाँ..
टँगा है आकाश, बैसाखी लिये आशाओं की.
थक गये हैं हाथ, ले-दे रोज खाली कुप्पियाँ..
शहीदों ने खून से निज इबारत मिटकर लिखी.
सितासत चिपका रही है जातिवादी चिप्पियाँ..
बादशाहों को किया बेबस गुलामों ने 'सलिल'
बेगमों की शह से इक्के पर हैं हावी दुप्पियाँ..
तमाचों-मुक्कों ने मानी हार जिद के सामने.
मुस्कुराकर 'सलिल' जीतीं, प्यार की कुछ झप्पियाँ..
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मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मुक्तिका : माँ ______- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
माँ
संजीव 'सलिल'
*
बेटों के दिल पर है माँ का राज अभी तक.
माँ के आशिष का है सिर पर ताज अभी तक..

प्रभू दयालु हों इसी तरह हर एक बेटे पर
श्री वास्तव में माँ है, है अंदाज़ अभी तक..

बेटे जो स्वर-सरगम जीवन भर गुंजाते.
सत्य कहूँ माँ ही है उसका साज अभी तक..

बेटे के बिन माँ का कोई काम न रुकता.
माँ बिन बेटों का रुकता हर काज अभी तक..

नहीं रही माँ जैसे ही बेटा सुनता है.
बेटे के दिल पर गिरती है गाज अभी तक..

माँ गौरैया के डैने, ममता की छाया.
पा बेटे हो जाते हैं शहबाज़ अभी तक..

कोई गलती हो जाये तो आँख न उठती.
माँ से आती 'सलिल' सुतों को लाज अभी तक..

नानी तो बन गयी, कभी दादी बन जाऊँ.
माँ भरती है 'सलिल' यही परवाज़ अभी तक..

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हिंदी काव्य का अमर छंद रोला ------ नवीन चतुर्वेदी

हिंदी काव्य का अमर छंद रोला

नवीन चतुर्वेदी
*
रोला छंद की विशेषताएं निम्न हैं:

१. चार पंक्तियों वाला होता है रोला छंद.
२. रोला छन्द की हर पंक्ति दो भागों में विभक्त होती है.
३. रोला छन्द की हर पंक्ति के पहले भाग में ११ मात्राएँ अंत में गुरु-लघु [२१] या लघु-लघु-लघु [१११] अपेक्षित हैं.
४. रोला छन्द की हर पंक्ति के दूसरे भाग में १३ मात्रा अंत में गुरु-गुरु [२२] / लघु-लघु-गुरु [११२] या लघु-लघु-लघु-लघु [११११] अपेक्षित है. कई विद्वानों का मत है क़ि रोला में पंक्ति के अंत में गुरु-गुरु [२२] से ही हो.
५. रोला छन्द की किसी भी पंक्ति की शुरुआत में लघु-गुरु-लघु [१२१] के प्रयोग से बचना चाहिए, इस से लय में व्यवधान उत्पन्न होता है|

रोला छन्द के कुछ उदाहरण:-

हिंद युग्म - दोहा गाथा सनातन से साभार:-:-

नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है.
२२११ ११२१=११ / १११ ११ ११ २११२ = १३
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है.
२१२१ ११ १११=११ / २१२ २२११२ = १३
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारा-मंडल हैं
११२ २१ १२१=११ / २१ २२ २११२ = १३
बंदीजन खगवृन्द, शेष-फन सिंहासन है.
२२११ ११२१ =११ / २१११ २२११२ = १३


शिवकाव्य.कोम से साभार:-

अतल शून्य का मौन, तोड़ते - कौन कहाँ तुम.
१११ २१ २ २१ = ११ / २१२ २१ १२ ११ = १३
दया करो कुछ और, न होना मौन यहाँ तुम..
१२ १२ ११ २१ = ११ / १ २२ २१ १२ ११ = १३
नव जीवन संचार, करो , फिर से तो बोलो.
११ २११ २२१ = ११ / १२ ११ २ २ २२ = १३
तृषित युगों से श्रवण, अहा अमरित फिर घोलो..
१११ १२ २ १११ = ११ / १२ १११११ ११ २२ = १३

रूपचंद्र शास्त्री मयंक जी के ब्लॉग उच्चारण से साभार:-

समझो आदि न अंत, खिलेंगे सुमन मनोहर.
११२ २१ १ २१ = ११ / १२२ १११ १२११ = १३
रखना इसे सँभाल, प्यार अनमोल धरोहर..
११२ १२ १२१ = ११ / २१ ११२१ १२११ = १३


कवि श्रेष्ठ श्री मैथिली शरण गुप्त जी द्वारा रचित साकेत का द्वादश सर्ग तो रोला छन्द में ही है और उस की शुरुआती पंक्तियों पर भी एक नज़र डालते हैं:-

ढाल लेखनी सफल, अंत में मसि भी तेरी.
२१ २१२ १११ = ११ / २१ २ ११ २ २२ = १२
तनिक और हो जाय, असित यह निशा अँधेरी..
१११ २१ २ २१ = ११ / १११ ११ १२ १२२ = १३

इसी रोला छंद की तीसरी और चौथी पंक्तियाँ खास ध्यान देने योग्य हैं:-
ठहर तभी, कृष्णाभिसारिके, कण्टक कढ़ जा.
१११ १२ २२१२१२ = १६ / २११ ११ २ = ८
बढ़ संजीवनि आज, मृत्यु के गढ़ पर चढ़ जा..
११ २२११ २१ = ११ / २१ २ ११ ११ ११ २ = १३

तीसरी पंक्ति में यति को प्रधान्यता दी जाए तो यति आ रही है १६ मात्रा के बाद| कुल मात्रा १६+८=२४ ही हैं| परंतु यदि हम 'कृष्णाभिसारिके' शब्द का संधि विच्छेद करते हुए पढ़ें तो यूँ पाते हैं:-

ठहर तभी कृष्णाभि+सारिके कण्टक कढ़ जा
१११ १२ २२१ = ११ / २१२ २११ ११ २ = १३

अब कुछ अपने मन से : छंद रचना को ले कर लोगों में फिर से जागरूकता बढ़ान हमारा उद्देश्य है | हम में से कई बहुत सफलता से ग़ज़ल कह रहे हैं, उनकी तख्तियों को आसानी से समझ रहे हैं|  नीचे दिए गये पदभार (वज्न) भी रोला छंद लिखने में मदद कर सकते है, यथा:-

अपना तो है काम, छंद की बातें करना
फइलातुन फइलात फाइलातुन फइलातुन
२२२ २२१ = ११ / २१२२ २२२ = १३

भाषा का सौंदर्य, सदा सर चढ़ के बोले
फाईलुन मफऊलु / फईलुन फइलुन फइलुन
२२२ २२१ = ११ / १२२ २२ २२ = १३

रोला छन्द संबन्धित कुछ अन्य उदाहरण :- 
१.  पाक दिल जीत घर गया
तेंदुलकर, सहवाग, कोहली, गौतम, माही|
रैना सँग युवराज, कामयाबी के राही|
नहरा और मुनाफ़, इक दफ़ा फिर से चमके|
भज्जी संग जहीर, खेल दिखलाया जम के|१|

हारा मेच परन्तु, पाक दिल जीत घर गया|
एक अनोखा काम, इस दफ़ा पाक कर गया|
नफ़रत का हो अंत, प्यार वाली हो बिगिनिंग|
शाहिद ने ये बोल, बिगिन कर दी न्यू ईनिंग|२|

अब अंतिम है मेच, दिल धड़कता है पल छिन|
सब के सब बेताब, हो रहे घड़ियाँ गिन गिन|
कैसा होगा मेच, सोचते हैं ये ही सब|
बोल रहे कुछ लोग, जो नहीं अब, तो फिर कब|३|

तेंदुलकर तुम श्रेष्ठ, मानता है जग सारा|
आशा तुमसे चूँकि, खास अंदाज तुम्हारा|
तुम हो क्यूँ जग-श्रेष्ठ, आज फिर से बतला दो|
मारो सौवाँ शतक, झूमने का मौका दो|४|

भारत में किरकेट, बोलता है सर चढ़ के|
सब ने किया क़ुबूल, प्रशंसा भी की बढ़ के|
अपनी तो ये राय, हार हो या फिर विक्ट्री|
खेलें ऐसा खेल, जो क़ि बन जाए हिस्ट्री|५|

छन्द : रोला
विधान ११+१३=२४ मात्रा
२. भद्रजनों की रीत नहीं ये संगाकारा
हार गए जो टॉस, किसलिए उसे नकारा|
भद्रजनों की रीत, नहीं ये संगाकारा|
देखी जब ये तुच्छ, आपकी आँख मिचौनी|
चौंक हुए स्तब्ध, जेफ क्रो, शास्त्री, धोनी|१|

तेंदुलकर, सहवाग, ना चले, फर्क पड़ा ना|
गौतम और विराट, खेल खेले मर्दाना|
धोनी लंगर डाल, क्रीज़ से चिपके डट के|
समय समय पर दर्शनीय, फटकारे फटके|२|

जब सर चढ़े जुनून, ख्वाब पूरे होते हैं|
सब के सम्मुख वीर, बालकों से रोते हैं|
दिल से लें जो ठान, फिर किसी की ना मानें|
हार मिले या जीत, धुरंधर लड़ना जानें|३|

त्र्यासी वाली बात, अब न कोई बोलेगा|
सोचेगा सौ बार, शब्द अपने तोलेगा|
अफ्रीका, इंगलेंड, पाक, औसी या लंका|
सब को दे के मात, बजाया हमने डंका|४|

तख्तियों के जानकार इस बारे में और भी बहुत कुछ हम लोगों से साझा कर सकते हैं|
 आभार: http://thalebaithe.blogspot.com/2011/04/blog-post_04.html
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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

विशेष लेख: निश्छल आराधना की अमर देवी महादेवी -- प्रभात कुमार राय

विशेष लेख:
निश्छल आराधना की अमर देवी महादेवी
प्रभात कुमार राय
*
       आराधना की वेदी पर अपनी हर एक सांस को न्यौछावर कर देने के लिए आतुर महिमायमयी महादेवी की जिंदगी विलक्षण रही। वह प्यार, करूणा, मैत्री और अविरल स्नेह की कवियत्री रही। मधुर मधुर जलने वाली ज्योति जैसी रही प्रतिपल युगयुग तक प्रियतम का पथ आलोकित करने के लिए आकुल रही। अपनी जिंदगी को दीपशिखा के समान प्रज्लवलित करके युग की देहरी पर ऐसे रख दिया कि मन के बाहर और भीतर उजियाला बिखर गया। महादेवी की रहस्यवादी अभिव्यक्ति को निरुपित करते हुए कवि शिवमंगल सिंह सुमन ने कहा था कि उन्होने वेदांत के अद्वैत की छाया ग्रहण की, लौकिक प्रेम की तेजी अपनायी इनको दोनों को एकाकार करके एक निराले ही संबंध को सृजित कर डाला। ऐसा निराला संबंध जोकि मानव मन को आलंबन प्रदान करे और इसे पार्थिव प्रेम से कहीं उपर उठा सके।
      20 वीं सदी की छायावादी हिंदी कविता के चार सर्वश्रेष्ठ कवियों में महादेवी वर्मा को स्थान प्राप्त हुआ । इस श्रंखला के अन्य तीन कवि हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत। महादेवी वर्मा को उनकी साहित्यिक रचनाओं के लिए बहुत से पुरुस्कार प्रदान किए गए। इनमे सबसे अधिक उल्लेखनीय रहा सन् 1935 में इंदौर में अखिल भरतीय हिंदी सम्मेलन मे महात्मा गांधी द्वारा प्रदान किया गया ,मंगला प्रसाद पुरुस्कार। सन् 1982 में महादेवी को प्रदान किया गया ज्ञानपीठ पुरुस्कार तथा पद्म भूषण सम्मान। 1983 में तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भारत भारती पुरुस्कार जिसे ग्रहण करते हुए महादेवी ने कहा था कि महात्मा गांधी के हाथों पुरुस्कार पाने के बाद किसी अन्य पुरुस्कार की आकांक्षा नहीं रह गयी थी अतएव उनकी पावन स्मृति में कृतज्ञतापूर्वक यह पुरुस्कार मैं न्यास को समर्पित करती हूं। महादेवी वर्मा एक सतत स्वातंत्रय योद्धा रही। महात्मा गांधी के सशक्त प्रभाव के कारण जीवन पर्यन्त खादी के वस्त्र ही धारण करती रही।
      होली के दिन सन् 1907 में महादेवी का जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ। पिता गोविंद प्रसाद वर्मा अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। मां आध्यात्मिक स्वभाव की महिला थी, जोकि भक्ति आंदोलन के संतो की रचनाओं को प्रायः गाया गुनगुनाया करती थी। महादेवी ने पिता से तीक्ष्ण सजग मेधा पाई तो अपनी मां से संवेदनशील संस्कार ग्रहण किया। इलाहबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए. किया और प्रयाग महिला विद्यापीठ से संबद्ध हो गई। जहां प्रारम्भ में  एक अध्यापक के रूप में और बाद में प्रिंसिपल के तौर पर 30 वर्षों तक कार्यरत रही।
      अपनी काव्य एवं गद्य रचनाओं के अतिरिक्त महादेवी ने प्राचीन भारत के संस्कृत कवियों वाल्मिकी, कालीदास, अश्वघोष, त्यागराज, और जयदेव की कृतियों का हिंदी में पद्यानुवाद भी किया जोकि सप्तपर्ण शीषर्क से प्रकाशित हुआ । महादेवी की संपूर्ण साहित्य साधना वस्तुतः आस्था, उपासना, और उत्सर्ग से लबरेज है। उनकी काव्य रचनाएं नीहारिका, नीरजा, सांध्यगीत और दीपशिखा उनकी मंगलमय काव्य यात्रा के ज्योर्तिमय पग चिन्ह है और स्मृति की रेखाएं एवं अतीत के चलचित्र प्रमुख गद्य रचनाएं।

महादेवी की सबसे पहली काव्य रचना उस पार है । जिसमें उनकी अभिव्यक्ति है...
 विसर्जन ही है कर्णधार
  वही पंहुचा देगा उसपार....
   चाहता है ये पागल प्यार
     अनोखा एक नया संसार ....
       जीवन की अनुभूति तुला पर अरमानों की तोल
         यह अबोध मन मूक व्यथा से ले पागलपन अनमोल
          करे दृग आंसू को व्यापार
            अनोखा एक नया संसार...

   नीहार की काव्य रचनाएं सन् 1924 से 1928 के मध्य की हैं

अपने उर पर सोने से लिख कर प्रेम कहानी
 सहते हैं रोते बादल तूफानों की मनमानी

 नीहार की एक और रचना है
  शूंय से टकरा कर सुकुमार करेगी पीड़ा हाहाकार ...
   विश्व होगा पीड़ा का राग निराशा होगी वरदान
    साथ लेकर मुरझाई साध बिखर जाएगें प्यासे प्राण...

 महादेवी के गीतों में सृष्टि के कण कण में व्याप्त संवेदन की यह प्रतीति अपनी सूक्ष्मता एवं सुकुमारता में मर्मस्पर्शी हो उठी है ....

जहां विष देता है अमरत्व जहां पीड़ा है प्यारी मीत
 अश्रु हैं नैनों का श्रंगार जहां ज्वाला बनती नवनीत
  जहां बनता पतझार बसंत जहां जागृति बनती उन्माद
   जहां मदिरा बनती चैतन्य  भूलना बनता मीठी याद

      साधारणतया समीक्षकों ने महादेवी वर्मा को आधुनिक मीरा के तौर पर अभिहित किया गया है। एक ओर उनकी अगाध संवेदनशीलता बुद्ध की करुणा से अनुप्राणित है तो दूसरी तरफ उनकी वाणी में ऋचाओं की पवित्रता और स्वरों में समगान का सम्मोहन निहित है। उनके इस स्वरुप पर मुग्ध होकर ही महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने  महादेवी के विषय में कहा था...

 हिंदी के विशाल मंदिर की वीणा वाणी
  स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी

 विमुग्ध विभावरी भावना की तीव्रता और गेयता की दृष्टि से महादेवी ने गीतिकाव्य का शिल्प बहुत सुंदर संवारा है

मैं नीर भरी दुख की बदली
 विस्तृत नभ का कोई कोना
  मेरा पग पग संगीत भरा
   श्वासों से स्वप्न पराग भरा
    नभ के नवरंग बुनते दुकूल
     छाया में मलय वयार वली ...
      मेरा न कोई अपना होना
       परिचय इतना इतिहास यही
         उमड़ी कल थी मिट आज चली ...

      उनकी कविता में रहस्यात्मक अनभूति के साथ करुण वेदना,विरह, मिलन का चित्रण होता रहा। यह कहना कठिन है कि कब उनकी तूलिका से छंद संवर जाते हैं और कब उन ठंदों से रंग बिखर जाते हैं।

मैं कंपन हूं तू करुण राग
 मैं आंसू हूं तू है विषाद
  मैं मदिरा हूं तू है खुमार
   मैं छाया हूं तू उसका आधार
    मेरे भारत मेरे विशाल
      मुझको कह लेने दो उदार
       फिर एक बार बस एक बार...
         कहता है जिसका व्यथित मौन
           हम सा निष्फल है आज कौन....

   महादेवी के की काव्य धारा में एक अनंत आशावाद समाया है

सजल है कितना सवेरा
 गहन तम में जो कथा इसकी न भूला
   अश्रु उस नभ के चढा़ शिर फूल फूला
     झूम झूक झूक कह रहा हर श्वास तेरा


   महादेवी वर्मा ने अप्रहित आराधना की वेदी पर अपनी प्रत्येक सांस को न्यौछावर कर दिया। वह साहित्य साधना करते करते  स्वयं ही भाव लोक की चलती फिरती संस्कृति बन गई थी। अपने बाल्यकाल से ही महात्मा बुद्ध की करुणा से वह बहुत अधिक प्रभावित रही। उनकी आत्मा पर बुद्ध के दुःखवाद की अमिट छाप सदैव अंकित रही।
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आर्यव के लिए -- संजीव 'सलिल'

आर्यव के लिए

संजीव 'सलिल'
*
है फूलों सा कोमल बच्चा, आर्यव इसका नाम.
माँ की आँखों का तारा है, यह नन्हा गुलफाम..

स्वागत करो सभी जन मिलकर नाचो झूमो गाओ
इस धरती पर लेकर आया खुशियों का पैगाम.

उड़नतश्तरी के कंधे पर बैठ करेगा सैर.
इसकी सेवा से ज्यादा कुछ नहीं जरूरी काम..

जिसने इसकी बात न मानी उस पर कर दे सुस्सू.
जिससे खुश उसके संग घूमे गुपचुप उँगली थाम..

'सलिल' विश्व मानव यह सच्चा, बच्चा प्रतिभा पुंज.
बब्बा सिर्फ समीर उठे यह बन तूफ़ान ललाम..

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प्रयोगात्मक मुक्तिका: जमीं के प्यार में... --संजीव 'सलिल'

प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
संजीव 'सलिल'
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जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..

उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..

हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..

बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा. 
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..

हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना भी होता था..

नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..

न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..

हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना भी होता था..
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मुक्तिका: दीवाना भी होता था. ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
दीवाना भी होता था.
संजीव 'सलिल'
*
हजारों आदमी में एक दीवाना भी होता था.
खुदाई रौशनी का एक परवाना भी होता था..

सियासत की वजह से हो गये हैं गैर अपने भी.
वगर्ना कहो तो क्या कोई बेगाना भी होता था??

लहू अपना लहू है, और का है खून भी पानी. 
गया वो वक्त जब बस एक पैमाना भी होता था..

निकाली भाई कहकर दुशमनी दिलवर के भाई ने.
कलेजे में छिपाए दर्द मुस्काना भी होता था..

मिली थी साफ़ चादर पर सहेजी थी नहीं हमने.
बिसारा था कि ज्यों की त्यों ही धर जाना भी होता था.. 

सिया जूता, बुना कपड़ा तो इसमें क्या बुराई है?
महल हो या कुटी मिट्टी में मिल जाना ही होता था..

सिया को भेज वन सीखा अवध ने पाठ यह सच्चा 
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था..

नहाकर स्नेह सलिला में, बहाकर प्रेम की गंगा.
'सलिल' मरघट में सबको एक हो जाना ही होता था
..
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रविवार, 24 अप्रैल 2011

षटपदियाँ : संजीव 'सलिल'

षटपदियाँ :
संजीव 'सलिल'
*
लोक-लाज, शालीनता, शर्म, हया, मर्याद.
संयम अनुशासन भुला, नव पीढ़ी बर्बाद..
नव पीढ़ी बर्बाद, प्रथाओं को कुरीति कह.
हुई बड़ों से दूर, सके ना लीक सही गह..
मैकाले की नीति सफल हुई, यही शोक है.
लोकतंत्र में हुआ तंत्र से दूर लोक है..
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तिमिर मिटाकर कर रहा, उजियारे का दान.
सारे जग में श्रेष्ठ है, भारत देश महान..
भारत देश महान, न इस सा देश अन्य है.
सत-शिव -सुंदर का आराधक, सच अनन्य है..
सत-चित-आनंद नित वरता, तम सकल हटाकर.
सूर्य उगाता नील गगन से तिमिर हटाकर..
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छले दूरदर्शन, रहे निकट देख ले सूर.
करा देह-दर्शन रहा, बेशर्मी भरपूर.
बेशर्मी भरपूर, मौज-मस्ती में डूबा.
पथ भूला है युवा, तन्त्र से अपने ऊबा..
कहे 'सलिल' परदेश युवाओं को है भाता?
दूर देश से भटक, धुनें सिर फिर पछताता..
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