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गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

मुक्तिका ... मुहब्बतनामा संजीव 'सलिल'

मुक्तिका ...                                                                            

 मुहब्बतनामा

संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' सद्गुणों की पुजारी मुहब्बत.
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.१.

गंगा सी पावन दुलारी मुहब्बत.
रही रूह की रहगुजारी मुहब्बत.२.

अजर है, अमर है हमारी मुहब्बत.
सितारों ने हँसकर निहारी मुहब्बत.३.

महुआ है तू महमहा री मुहब्बत.
लगा जोर से कहकहा री मुहब्बत.४.

पिया बिन मलिन है दुखारी मुहब्बत.
पिया संग सलोनी सुखारी मुहब्बत.५.

सजा माँग सोहे भ'तारी मुहब्बत.
पिला दूध मोहे म'तारी मुहब्बत.६.

नगद है, नहीं है उधारी मुहब्बत.
है शबनम औ' शोला दुधारी मुहब्बत.७.

माने न मन मनचला री मुहब्बत.
नयन-ताल में झिलमिला री मुहब्बत.८.

नहीं ब्याहता या कुमारी मुहब्बत.
है पूजा सदा सिर नवा री, मुहब्बत.९.

जवां है हमारी-तुम्हारी मुहब्बत..
सबल है, नहीं है बिचारी मुहब्बत.१०.

उजड़ती है दुनिया, बसा री मुहब्बत.
अमन-चैन थोड़ा तो ब्या री मुहब्बत.११.

सम्हल चल, उमरिया है बारी मुहब्बत.
हो शालीन, मत तमतमा री मुहब्बत.१२.

दीवाली का दीपक जला री मुहब्बत.
न बम कोई लेकिन चला री मुहब्बत.१३.

न जिस-तिस को तू सिर झुका री मुहब्बत.
जो नादां है कर दे क्षमा री मुहब्बत.१४.

जहाँ सपना कोई पला री मुहब्बत.
वहीं मन ने मन को छला री मुहब्बत.१५.

न आये कहीं जलजला री मुहब्बत.
लजा मत तनिक खिलखिला री मुहब्बत.१६.

अगर राज कोई खुला री मुहब्बत.
तो करना न कोई गिला री मुहब्बत.१७.

बनी बात काहे बिगारी मुहब्बत?
जो बिगड़ी तो क्यों ना सुधारी मुहब्बत?१८.

कभी चाँदनी में नहा री मुहब्बत.
कभी सूर्य-किरणें तहा री मुहब्बत.१९.

पहले तो कर अनसुना री मुहब्बत.
मानी को फिर ले मना री मुहब्बत.२०.

चला तीर दिल पर शिकारी मुहब्बत.
दिल माँग ले न भिखारी मुहब्बत.२१.

सजा माँग में दिल पियारी मुहब्बत.
पिया प्रेम-अमृत पिया री मुहब्बत.२२.

रचा रास बृज में रचा री मुहब्बत.
हरि न कहें कुछ बचा री मुहब्बत.२३.

लिया दिल, लिया रे लिया री मुहब्बत.
दिया दिल, दिया रे दिया, री मुहब्बत.२४.

कुर्बान तुझ पर हुआ री मुहब्बत.
काहे सारिका से सुआ री मुहब्बत.२५.

दिया दिल लुटा तो क्या बाकी बचा है?
खाते में दिल कर जमा री मुहब्बत.२६.

दुनिया है मंडी खरीदे औ' बेचे.
कहीं तेरी भी हो न बारी मुहब्बत?२७.

सभी चाहते हैं कि दर से टरे पर
किसी से गयी है न टारी मुहब्बत.२८.

बँटे पंथ, दल, देश बोली में इंसां.
बँटने न पायी है यारी-मुहब्बत.२९.

तौलो अगर रिश्तों-नातों को लोगों
तो पाओगे सबसे है भारी मुहब्बत.३०.

नफरत के काँटे करें दिल को ज़ख़्मी.
मिलें रहतें कर दुआ री मुहब्बत.३१.

कभी माँगने से भी मिलती नहीं है.
बिना माँगे मिलती उदारी मुहब्बत.३२.

अफजल को फाँसी हो, टलने न पाये.
दिखा मत तनिक भी दया री मुहब्बत.३३.

शहादत है, बलिदान है, त्याग भी है.
जो सच्ची नहीं दुनियादारी मुहब्बत.३४.

धारण किया धर्म, पद, वस्त्र, पगड़ी.
कहो कब किसी ने है धारी मुहब्बत.३५.

जला दिलजले का भले दिल न लेकिन
कभी क्या किसी ने पजारी मुहब्बत?३६.

कबीरा-शकीरा सभी तुझ पे शैदा.
हर सूं गई तू पुकारी मुहब्बत.३७.

मुहब्बत की बातें करते सभी पर
कहता न कोई है नारी मुहब्बत?३८.

तमाशा मुहब्बत का दुनिया ने देखा
मगर ना कहा है 'अ-नारी मुहब्बत.३९.

चतुरों की कब थी कमी जग में बोलो?
मगर है सदा से अनारी मुहब्बत.४०.

बहुत हो गया, वस्ल बिन ज़िंदगी क्या?
लगा दे रे काँधा दे, उठा री मुहब्बत.४१.

निभाये वफ़ा तो सभी को हो प्यारी
दगा दे तो कहिये छिनारी मुहब्बत.४२.

भरे आँख-आँसू, करे हाथ सजदा.
सुकूं दे उसे ला बिठा री मुहब्बत.४३.

नहीं आयी करके वादा कभी तू.
सच्ची है या तू लबारी मुहब्बत?४४.

महज़ खुद को देखे औ' औरों को भूले.
कभी भी न करना विकारी मुहब्बत.४५.

हुआ सो हुआ अब कभी हो न पाये.
दुनिया में फिर से निठारी मुहब्बत.४६.
.
कभी मान का पान तो बन न पायी.
बनी जां की गाहक सुपारी मुहब्बत.४७.

उठाते हैं आशिक हमेशा ही घाटा.
कभी दे उन्हें भी नफा री मुहब्बत.४८.

न कौरव रहे कोई कुर्सी पे बाकी.
जो सारी किसी की हो फारी मुहब्बत.४९.

कलाई की राखी, कजलियों की मिलनी.
ईदी-सिवँइया, न खारी मुहब्बत.५०.

नथ, बिंदी, बिछिया, कंगन औ' चूड़ी.
पायल औ मेंहदी, है न्यारी मुहब्बत.५१.

करे पार दरिया, पहाड़ों को खोदा.
न तू कर रही क्यों कृपा री मुहब्बत?५२.

लगे अटपटी खटपटी चटपटी जो
कहें क्या उसे हम अचारी मुहब्बत?५३.

अमन-चैन लूटा, हुई जां की दुश्मन.
हुई या खुदा! अब बला री मुहब्बत.५४.

तू है बदगुमां, बेईमां जानते हम
कभी धोखे से कर वफा री मुहब्बत.५५.

कभी ख़त-किताबत, कभी मौन आँसू.
कभी लब लरजते, पुकारी मुहब्बत.५६.

न टमटम, न इक्का, नहीं बैलगाड़ी.
बसी है शहर, चढ़के लारी मुहब्बत.५७.

मिला हाथ, मिल ले गले मुझसे अब तो
करूँ दुश्मनों को सफा री मुहब्बत.५८.

तनिक अस्मिता पर अगर आँच आये.
बनती है पल में कटारी मुहब्बत.५९.

है जिद आज की रात सैयां के हाथों.
मुझे बीड़ा दे तू  खिला री मुहब्बत.६०.

न चौका, न छक्का लगाती शतक तू.
गुले-दिल खिलाती खिला री  मुहब्बत.६१.

न तारे, न चंदा, नहीं चाँदनी में
ये मनुआ प्रिया में रमा री मुहब्बत.६२.

समझ -सोच कर कब किसी ने करी है?
हुई है सदा बिन विचारी मुहब्बत.६३.

खा-खा के धोखे अफ़र हम गये हैं.
कहें सब तुझे अब अफारी मुहब्बत.६४.

तुझे दिल में अपने हमेशा है पाया.
कभी मुझको दिल में तू पा री मुहब्बत.65.

अमन-चैन हो, दंगा-संकट हो चाहे
न रोके से रुकती है जारी मुहब्बत.६६.

सफर ज़िंदगी का रहा सिर्फ सफरिंग
तेरा नाम धर दूँ सफारी मुहब्बत.६७.

जिसे जो न भाता उसे वह भगाता
नहीं कोई कहता है: 'जा री मुहब्बत'.६८.

तरसती हैं आँखें  झलक मिल न पाती.
पिया को प्रिया से मिला री मुहब्बत.६९.

भुलाया है खुद को, भुलाया है जग को.
नहीं रबको पल भर बिसारी मुहब्बत.७०.

सजन की, सनम की, बलम की चहेती.
करे ढाई आखर-मुखारी मुहब्बत.७१.

न लाना विरह-पल जो युग से लगेंगे.
मिलन शायिका पर सुला री मुहब्बत.७२.

उषा के कपोलों की लाली कभी है.
कभी लट निशा की है कारी मुहब्बत.७३. 

मुखर, मौन, हँस, रो, चपल, शांत है अब
गयी है विरह से उबारी मुहब्बत..

न तनकी, न मनकी,  न सुध है बदनकी.
कहाँ हैं प्रिया?, अब बुला री मुहब्बत.७४.

नफरत को, हिंसा, घृणा, द्वेष को भी
प्रचारा, न क्योंकर प्रचारी मुहब्बत?७५.

सातों जनम तक है नाता निभाना.
हो कुछ भी न डर, कर तयारी मुहब्बत.७६.

बसे नैन में दिल, बसे दिल में नैना.
सिखा दे उन्हें भी कला री मुहब्बत.७७.

कभी देवता की, कभी देश-भू की 
अमानत है जां से भी प्यारी मुहब्बत.७८.

पिए बिन नशा क्यों मुझे हो रहा है?
है साक़ी, पियाला, कलारी मुहब्बत.७९.

हो गोकुल की बाला मही बेचती है.
करे रास लीलाविहारी मुहब्बत.८०.

हवन का धुआँ, श्लोक, कीर्तन, भजन है.
है भक्तों की नग्मानिगारी मुहब्बत.८१.

ज़माने ने इसको कभी ना सराहा.
ज़माने पे पड़ती है भारी मुहब्बत.८२.

मुहब्बत के दुश्मन सम्हल अब भी जाओ.
नहीं फूल केवल, है आरी मुहब्बत.८३.

फटेगा कलेजा न हो बदगुमां तू.
सिमट दिल में छिप जा, समा री मुहब्बत.८४.

गली है, दरीचा है, बगिया है पनघट
कुटिया-महल है अटारी मुहब्बत.८५.

पिलाया है करवा से पानी पिया ने.
तनिक सूर्य सी दमदमा री मुहब्बत.८६.

मुहब्बत मुहब्बत है, इसको न बाँटो.
तमिल न मराठी-बिहारी मुहब्बत.८७.

न खापों का डर है न बापों की चिंता.
मिटकर निभा दे तू यारी मुहब्बत.८८.

कोई कर रहा है, कोई बच रहा है.
गयी है किसी से न टारी मुहब्बत.८९.

कली फूल कांटा है तितली- भ्रमर भी
कभी घास-पत्ती है डारी मुहब्बत.९०.

महल में मरे, झोपड़ी में हो जिंदा.
हथेली पे जां, जां पे वारी मुहब्बत.९१.

लगा दाँव पर दे ये खुद को, खुदा को.
नहीं बाज आये, जुआरी मुहब्बत.९२.

मुबारक है हमको, मुबारक है तुमको.
मुबारक है सबको, पिआरी मुहब्बत.९३.

रहे भाजपाई या हो कांगरेसी
न लेकिन कभी हो सपा री मुहब्बत.९४.

पिघल दिल गया जब कभी मृगनयन ने
बहा अश्क जीभर के ढारी मुहब्बत.९५.

जो आया गया वो न कोई रहा है.
अगर हो सके तो न जा री मुहब्बत.९६.

समय लीलता जा रहा है सभी को.
समय को ही क्यों न खा री मुहब्बत?९७.

काटे अनेकों लगाया न कोई.
कर फिर धरा को हरा री मुहब्बत.९८.

नंदन न अब देवकी के रहे हैं.
न पढ़ने को मिलती अयारी मुहब्बत.९९.

शतक पर अटक मत कटक पार कर ले.
शुरू कर नयी तू ये पारी मुहब्बत.१००.

न चौके, न छक्के 'सलिल' ने लगाये.
कभी हो सचिन सी भी पारी मुहब्बत.१०१.

'सलिल' तर गया, खुद को खो बेखुदी में
हुई जब से उसपे है तारी मुहब्बत.१०२.

'सलिल' शुबह-संदेह को झाड़ फेंके.
ज़माने की खातिर बुहारी मुहब्बत.१०३.

नए मायने जिंदगी को 'सलिल' दे.
न बासी है, ताज़ा-करारी मुहब्बत.१०४.

जलाती, गलाती, मिटाती है फिर भी
लुभाती 'सलिल' को वकारी मुहब्बत.१०५.

नहीं जीतकर भी 'सलिल' जीत पायी.
नहीं हारकर भी है हारी मुहब्बत.१०६.

नहीं देह की चाह मंजिल है इसकी.
'सलिल' चाहता निर्विकारी मुहब्बत.१०७.

'सलिल'-प्रेरणा, कामना, चाहना हो.
होना न पर वंचना री मुहब्बत.१०८.

बने विश्व-वाणी ये हिन्दी हमारी.
'सलिल' की यही कामना री मुहब्बत.१०९.

ये घपले-घुटाले घटा दे, मिटा दे.
'सलिल' धूल इनको चटा  री मुहब्बत.११०.

'सलिल' घेरता चीन चारों तरफ से.
बहुत सोये अब तो जगा री मुहब्बत.१११.

अगारी पिछारी से होती है भारी.
सच यह 'सलिल' को सिखा री मुहब्बत.११२.

'सलिल' कौन किसका हुआ इस जगत में?
न रह मौन, सच-सच बता री मुहब्बत.११३.

'सलिल' को न देना तू गारी मुहब्बत.
सुना गारी पंगत खिला री मुहब्बत.११४.

'सलिल' तू न हो अहंकारी मुहब्बत.
जो होना हो, हो निराकारी मुहब्बत.११५.

'सलिल' साधना वन्दना री मुहबत.
विनत प्रार्थना अर्चना री मुहब्बत.११६.

चला, चलने दे सिलसिला री मुहब्बत.
'सलिल' से गले मिल मिल-मिला री मुहब्बत.११७.

कभी मान का पान लारी मुहब्बत.
'सलिल'-हाथ छट पर खिला री मुहब्बत.११८.

छत पर कमल क्यों खिला री मुहब्बत?
'सलिल'-प्रेम का फल फला री मुहब्बत.११९.

उगा सूर्य जब तो ढला री मुहब्बत.
'सलिल' तम सघन भी टला री मुहब्बत.१२०.

'सलिल' से न कह, हो दफा री मुहब्बत.
है सबका अलग फलसफा री मुहब्बत.१२१.

लड़ाती ही रहती किला री मुहब्बत.
'सलिल' से न लेना सिला री मुहब्बत.१२२.

तनिक नैन से दे पिला री मुहब्बत.
मरते 'सलिल' को जिला री मुहब्बत.१२३.

रहे शेष धर, मत लुटा री मुहब्बत.
कल को 'सलिल' कुछ जुटा री मुहब्बत.१२४.

प्रभाकर की रौशन अटारी मुहब्बत.
कुटिया 'सलिल' की सटा री मुहब्बत.१२५.

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बुधवार, 15 दिसंबर 2010

लघु कथा - वन्देमातरम -- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

वन्देमातरम [लघु कथा] - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'




साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।

आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।

आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि।

वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं।

-'मुसलमानों को 'वन्दे मातरम' नहीं गाना चाहिए, वज़ह यह है की इस्लाम का बुनियादी अकीदा 'तौहीद' है। मुसलमान खुदा के अलावा और किसी की इबादत नहीं कर सकता।' -मौलाना तकरीर फरमा रहे थे।


'अल्लाह एक है, वही सबको पैदा करता है। यह तो हिंदू भी मानते हैं। 'एकोहम बहुस्याम' कहकर हिंदू भी आपकी ही बात कहते हैं। अल्लाह ने अपनी रज़ा से पहले ज़मीनों-आसमां तथा बाद में इन्सान को बनाया। उसने जिस सरज़मीं पर जिसको पैदा किया, वही उसकी मादरे-वतन है। अल्लाह की मर्जी से मिले वतन के अलावा किसी दीगर मुल्क की वफादारी मुसलमान के लिए कतई जायज़ नहीं हो सकती। अपनी मादरे-वतन का सजदा कर 'वंदे-मातरम' गाना हर मुसलमान का पहला फ़र्ज़ है। हर अहले-इस्लाम के लिए यह फ़र्ज़ अदा करना न सिर्फ़ जरूरी बल्कि सबाब का काम है। आप भी यह फ़र्ज़ अदा कर अपनी वतन-परस्ती और मजहब-परस्ती का सबूत दें।' -एक समझदार तालीमयाफ्ता नौजवान ने दलील दी।

मौलाना कुछ और बोलें इसके पेश्तर मजामीन 'वन्दे-मातरम' गाने लगे तो मौलाना ने चुपचाप खिसकने की कोशिश की मगर लोगों ने देख और रोक लिया तो धीरे-धीरे उनकी आवाज़ भी सबके साथ घुल-मिल गयी।
 
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मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

The sharing of marriage... --- vijay kaushal

The sharing of marriage...                      
 
vijay kaushal
*
The old man placed an order for one hamburger, French fries and a drink.

He unwrapped the plain hamburger and carefully cut it in half, placing one half in front of his wife.


He then carefully counted out the French fries, dividing them into two piles and neatly placed one pile in front of his wife.



He took a sip of the drink, his wife took a sip and then set the cup down between them . As he began to eat his few bites of hamburger, the people around them were looking over and whispering.



Obviously they were thinking, 'That poor old couple - all they can afford is one meal for the two of them.'



As the man began to eat his fries a young man came to the table and politely offered to buy another meal for the old couple. The old man said, they were just fine - they were used to sharing everything



People closer to the table noticed the little old lady hadn't eaten a bite. She sat there watching her husband eat and occasionally taking turns sipping the drink.



Again, the young man came over and begged them to let him buy another meal for them.

This time the old woman said 'No, thank you, we are used to sharing everything.'



Finally, as the old man finished and was wiping his face neatly with the napkin, the young man again came over to the little old lady who had yet to eat a single bite of food and asked 'What is it you are waiting for?'

She answered --
I
I
I
I
I

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एक गीत : होता है... __ संजीव 'सलिल'

एक गीत                                                                                       
होता है...
संजीव 'सलिल'
*
जाने ऐसा क्यों होता है?
जानें ऐसा यों होता है...
*
गत है नीव, इमारत है अब,
आसमान आगत की छाया.
कोई इसको सत्य बताता,
कोई कहता है यह माया.

कौन कहाँ कब मिला-बिछुड़कर?
कौन बिछुड़कर फिर मिल पाया?
भेस किसी ने बदल लिया है,
कोई न दोबारा मिल पाया.

कहाँ परायापन खोता है?
कहाँ निजत्व कौन बोता है?...
*
रचनाकार छिपा रचना में
ज्यों सजनी छिपती सजना में.
फिर मिलना छिपता तजना में,
और अकेलापन मजमा में.

साया जब  धूमिल हो जाता.
काया का पाया, खो जाता.
मन अपनों को भूल-गँवाता,
तन तनना तज, झुक तब पाता.

साँस पतंग, आस जोता है.
तन पिंजरे में मन तोता है... 
*
जो अपना है, वह सपना है.
जग का बेढब हर नपना है.
खोल, मूँद या घूर, फाड़ ले,
नयन-पलक फिर-फिर झपना है.

हुलस-पुलक मत हो उदास अब.
आएगा लेकर उजास रब.
एकाकी हो बात जोहना,
मत उदास हो, पा हुलास सब.

मिले न जो हँसता-रोता है.
मिले न जो जगता-सोता है...
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सोमवार, 13 दिसंबर 2010

ग़ज़ल: एक परिचय : संजीव 'सलिल'

ग़ज़ल: एक परिचय                                                                                                                                      
संजीव 'सलिल'
*
ग़ज़ल - उर्दू का एक सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-रूप है जो मूलतः अरबी से आया है. ग़ज़ल स्त्रीलिंग शब्द है जिसकी व्याख्या है 'सुखन अज़ जनान गुफ्तन' अर्थात औरतों की बातें या ज़िक्र करना'. अरबी में ग़ज़ल की उत्पत्ति लघु प्रेमगीत 'तशीब' या 'कसीदे' से तथा फारसी में गज़ाला-चश्म (मृगनयनी) अर्थात महबूब / महबूबा से वार्तालाप से मान्य है. इसलिए 'नाज़ुक खयाली' (हृदय की कोमल भावनाएँ) ग़ज़ल का वैशिष्ट्य मानी गयीं. सूफियों ने महबूब ईश्वर को मानकर आध्यात्मिक दार्शनिक ग़ज़लें कहीं. कालांतर में क्रांति और सामाजिक वैषम्य भी ग़ज़लों का विषय बन गये. ग़ालिब ने इसे 'तंग गली' और  'कोल्हू का बैल' कहकर नापसंदगी ज़ाहिर की लेकिन उनकी ग़ज़लों ने ही उन्हें अमर कर दिया. उनकी श्रेष्ठ(?) रचनाएँ क्लिष्टता के कारण दीवानों (संकलनों) में ही रह गयीं.
ग़ज़ल के २ प्रकार मुसलसल ग़ज़ल (जिसके सभी शे'र एक-दूसरेसे संबद्ध हों) तथा गैर मुसलसल ग़ज़ल  (जिसका हर शेर अपने आपमें स्वतंत्र और अलग विषय पर हो) हैं.
मिसरा = कविता की एक पंक्ति, एक काव्य-पद.
मुरस्सा ग़ज़ल = मानकों के अनुरूप पूरी तरह से अलंकृत ग़ज़ल को मुरस्सा ग़ज़ल कहते हैं. 
मिसरा ऊला / मिसरा अव्वल = शे'र की पहली पंक्ति.
मिसरा सानी =  शेर की दूसरी /अंतिम पंक्ति.
शे'र = शाब्दिक अर्थ जानना, जानी हुई बात, उर्दू कविता की प्राथमिक इकाई, दो मिसरों का युग्म, द्विपदी. बहुवचन अश'आर (उर्दू), शेरों (हिंदी). शे'र की दोनों पंक्तियों का हमवज्न / समान पदभार का होना ज़रूरी है. सुविधा के लिये कह सकते हैं कि दोनों की मात्राएँ (मात्रिक छंद में) अथवा अक्षर (वर्णिक छंद में) समान हों. सार यह कि कि दोनों पंक्तियों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान हो. शे'र को फर्द या बैत भी कहते हैं.
शायर = जाननेवाला, कवि.
बहर = छंद. आहंग (अवरोह) के लिहाज़ से शब्दों की आवाज़ों के आधार पर तय किये गये पैमाने 'बहर' कहे जाते हैं.
बैत = एकमात्र शे'र.
बैतबाजी = किसी विषय विशेष पर केन्द्रित शे'रों की अन्त्याक्षरी.
रदीफ़ / तुकांत = शेरों के दूसरे मिसरे में अंत में प्रयुक्त अपरिवर्तित शब्द या शब्द समूह, बहुवचन रदाइफ़ / पदांतों. ग़ज़ल में रदीफ़ होना वांछित तो है जरूरी नहीं अर्थात ग़ज़ल बेरदीफ भी हो सकती है. देखिये उदाहरण २.
काफिया / पदांत = शे'रों के दूसरे मिसरे में रदीफ़ से पहले प्रयुक्त एक जैसी आवाज़ के अंतिम शब्द / अक्षर / मात्रा. बहुवचन कवाफी / काफिये. ग़ज़ल में काफिये का होना अनिवार्य है, बिना काफिये की ग़ज़ल हो ही नहीं सकती.
वज्न = वजन / पदभार. अरबी-फ़ारसी बहर के आधार पर उर्दू काव्य में लय विशेष की प्रमुखता के साथ निश्चित मात्राओं के वर्ण समूह को वज्न कहते हैं. काव्य पंक्ति के अक्षरों को रुक्न (गण) की मात्राओं से मिलाकर बराबर करने को वज्न ठीक करना कहा जाता है. ग़ज़ल के सभी अश'आर हमवज्नी (एक छंद में) होना अनिवार्य है.
तक्तीअ / तकतीअ = छंद-विन्यास / शाब्दिक अर्थ टुकड़े करना. हिंदी में गण तथा उर्दू में रुक्न के आधार पर किया जाता है.
रुक्न (गण) = पूर्व निश्चित मात्रा-समूह. जैसे-  फ़अल, फ़ाइल, फ़ईलुन, फ़ऊल आदि, हिंदी के जगण, मगन, तगण की तरह. बहुवचन अर्कान/अरकान.
उर्दू के छंद प्रायः मात्रिक हैं, उनमें एक गुरु (दीर्घ) के स्थान पर दो लघु आना जायज़ है. संस्कृत की तरह उर्दू में भी गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है किन्तु इसे सामान्यतः नहीं अपवाद स्वरूप ज़रूरी तथा उपयुक्त होने पर ही काम में लाना चाहिए ताकि अर्थ का अनर्थ न हो.  देखिये उदाहरण ३.
उदाहरण:
१.
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम.
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई..
आखिरे-शब् के हमसफर 'फैज़' न जाने क्या हुए.
रह गई किस जगह सबा, सुब्ह किधर निकल गई..   
यहाँ 'गई' रदीफ़ है जबकि उसके थी पहले 'बदल' और 'निकल' कवाफी हैं.
गजल का पहला शे'र शायर अपनी मर्जी से रदीफ़-काफिया लेकर कहता है, बाद के शे'रों में यही बंधन हो जाता है. रदीफ़ को जैसा का तैसा उपयोग करना होता है जबकि काफिया के अंत को छोड़कर कुछ नियमों का पालन करते हुए प्रारंभ बदल सकता है. जैसे उक्त शेरों में 'बद' और 'निक'. जब काफिया न मिल सके तो इसे 'काफिया तंग होना' कहते हैं. काफिये-रदीफ़ के इस बंधन को 'ज़मीन' कहा जाता है. कभी-कभी कोई विचार केवल इसलिए छोड़ना होता है कि उसे समान ज़मीन में कहना सम्भव नहीं होता. अच्छा शायर उस विचार को किसी अन्य काफिये-रदीफ़ के साथ अन्य शे'र में कहता है. जो शायर वज्न या काफिये-रदीफ़ का ध्यान रखे बिना ठूससमठास करते हैं कमजोर शायर कहे जाते हैं.
२. बेरदीफ ग़ज़ल- हसन नईम की ग़ज़ल के इन शे'रों में सिर्फ काफिये (बड़े, लड़े, पड़े) हैं, रदीफ़ नहीं है.
यकसां थे सब निगाह में, छोटे हों या बड़े.
दिल ने कहा तो एक ज़माने हम लड़े..
ज़िन्दां की एक रात में इतना जलाल था
कितने ही आफताब बलंदी से गिर पड़े..
३.
गुलिस्तां में जाकर हरेक गुल को देखा.
न तेरी सी रंगत, न तेरी सी बू है..
 बहर के अनुसार
गुलिस्तां में जाकर हर इक गुल को देखा.
न तेरी सि रंगत, न तेरी सि बू है..
मतला = ग़ज़ल का पहला शेर, मुखड़ा, आरम्भिका. इसके दोनों मिसरों में रदीफ़-काफिया या काफिया होता है. कभी-कभी एक से अधिक मतले हो सकते हैं जिन्हें क्रमशः मतला सानी, मतला सोम, मतला चहारम आदि कहते हैं. उस्ताद ज़ौक की एक ग़ज़ल में मय रदीफ़ १० मतले हैं.
हुस्ने-मतला = मतला या मतला-ऐ-सानी के बाद का शे'र हुस्ने-मतला कहते हैं.
दो गज़ला = किसी ग़ज़ल में मतला के शे'र १७ हों तथा उसके और फिर अन्य शे'र हों तो उसे दो गज़ला कहते हैं. इसी प्रकार 'सिह गज़ला, चहार-गज़ला भी होते हैं.
शाहबैत = ग़ज़ल के सबसे अच्छे शे'र को शाह्बैत या फर्द कहते हैं.
मकता / मक्ता = ग़ज़ल का अंतिम शे'र जिसमें 'शायर का 'तखल्लुस' (उपनाम) होना जरूरी है, अंतिका. मकटाविहीन ग़ज़ल को 'बेमकता ग़ज़ल' कहते हैं. देखिये उदाहरण १.
४. पहले कभी-कभी शायर मतले और मकते दोनों में तखल्लुस का प्रयोग करते थे.
जो इस शोर से 'मेरे' रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा.  -मतला
बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आँसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा.  - मकता
ग़ज़ल में आम तौर पर विषम संख्या में ५ से ११ तक शेर होते हैं लेकिन फिराक गोरखपुरी ने १०० शे'रों तक की ग़ज़ल कही है. ग़ज़ल में जुफ्त (सम) संख्या में शे'र होने को एक काव्य-दोष कहा गया है. अब तो २०००, ३००० शेरों की गज़लें (?) भी कही जा रहीं हैं. आरम्भ में ग़ज़लों में एक मिसरा अरबी तथा दूसरा फारसी का होता था. ऐसी कुछ गज़लें अमीर खुसरो की भी हैं.
रेख्ती = ग़ज़ल का एक रूप जिसमें ख्यालात व ज़ज्बात औरतों की तरफ से, उन्हीं की रंगीन बेगमाती जुबान में हो.
दीवान = ग़ज़ल संग्रह.
ज़मीन = ग़ज़ल का बाह्य कलेवर अर्थात छंद, काफिया, रदीफ़.
तरह = मिसरे-तरह = वह मिसरा जिसके छंद, काफिये और रदीफ़ की ज़मीन पर मुशायरे के सभी शायर ग़ज़ल कहते हैं. तरह के आधार पर हुए मुशायरे को तरही मुशायरा कहते हैं.
गिरिह / गिरह = किसरे-तरह को मिसरा-ए-सानी बनाकर अपनी ओर से पहला मिसरा लगाना. यह शायर की कुशलता मानी जाती है.
तखल्लुस = उपनाम. कभी असली नाम का एक भाग, कभी बिलकुल अलग, प्रायः एक कभी-कभी एक से अधिक भी.
तारीख़ = किसी घटना पर लिखा गया ऐसा मिसरा जिसके अक्षरों के प्रतीक अंकों को (हर अक्षर का मान एक संख्या विशेष है) जोड़ने पर उस घटना की तिथि या साल निकल आये. इसके लिये शायर का जानकार और कुशल होना बहुत जरूरी है.
५. चकबस्त की मृत्यु पर उनके एक शायर मित्र ने शे'र कहा-
उनके मिसरे ही से तारीख़ है हमराहे-'अज़ा'
'मौत क्या है इन्हीं अजज़ा का परीशां होना.
अज़ा = ७८, दूसरा मिसरा = १२६६ योग = १३४४ हिज़री कैलेण्डर में चकबस्त का मृत्यु-वर्ष.
हज़ल = ग़ज़ल के वज़न पर मगर ठीक उल्टा. ग़ज़ल में भाव की प्रधानता और शालीनता प्रमुख हज़ल में भाव की न्यूनता और अश्लीलता की हद तक अशालीनता.
हजो = ग़ज़ल में कसीदाकारी (प्रशंसा) के स्थान पर निंदा या मजाक हो तो उसे 'हजो' कहते हैं.
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मुक्तिका: ख्वाब में बात हुई..... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                       

ख्वाब में बात हुई.....

संजीव 'सलिल'
*
ख्वाब में बात हुई उनसे न देखा जिनको.
कोई कतरा नहीं जिसमें नहीं देखा उनको..

कभी देते वो खलिश और कभी सुख देते.
क्या कहें देखे बिना हमने है देखा किनको..

कोई सजदा, कोई प्रेयर, कोई जस गाता है.
खुद में डूबा जो वही देख सका साजनको..

मेरा महबूब तो तेरा भी है, जिस-तिस का है.
उसने पाया उन्हें जो भूल सका है तनको..

उनके ख्यालों ने भुला दी है ये दुनिया लोगों.
कोरी चादर हुआ बैठा है 'सलिल' ले मनको..

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एक रचना: ऐसा क्यों होता है? -- संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                        
ऐसा क्यों होता है?
संजीव 'सलिल'
*
ऐसा क्यों होता होता है ?...
*
रुपये लेकर जाता है जो वह आता है खाली हाथ.
खाली हाथ गया जो भीतर, धन पा करता ऊँचा माथ..
जो सच्चा वह क़र्ज़ चुकाता, जो लुच्चा खा जाता है-
प्रभु का कैसा न्याय? न हमको तनिक समझ में आता है.

कहे बैंक मैनेजर पहले ने धन अपना जमा किया.
दूजा बचत निकाल खा रहा, जैसे पीता तेल दिया..
क़र्ज़ चुकाकर ब्याज बचाता जो वह चतुर सयाना है.
क़र्ज़ पचा निकले दीवाला जिसका वह दीवाना है..

कौन बताये किसको क्यों, कब कहाँ और क्या होता है?
मन भरमाता है दिमाग कहकर ऐसा क्यों होता है ?...
*
जन्म-जन्म का लेखा-जोखा हमने कभी न देखा है.
उत्तर मिलता नहीं प्रश्न का, पृष्ठ बंद जो लेखा है..
सीमा तन की, काल-बाह्य जो वह हम देख नहीं पाते.
झुठलाते हैं बिन जाने ही, अनजाने ही कतराते..

कर्म न कोई निष्फल होता, वह पाता जो बोता है.
मिले अचानक तो हँसता मन, खो जाये तो रोता है..
विधि निर्मम-निष्पक्ष मगर हम उसको कृपानिधान कहें.
पूजा, भोग, चढ़ावा, व्रत से खुद को छल अभिमान करें..

जैसे को तैसा मिलता है, कोई न पाता-खोता है.
व्यर्थ पूछते हम जिस-तिससे कह ऐसा क्यों होता है ?...
*
जैसा औरों से चाहें हम, अपने संग व्यवहार करें.
वैसा ही हम औरों के संग, लेन-देन आचार करें..
हम सबमें है अंश उसी का, जिसका आदि न अंत कहीं.
सत्य समझ लें तो पायेगा कोई किसी से कष्ट नहीं..

ध्यान, धारणा फिर समाधि से सत्य समझ में आता है.
जो जितना गहरा डूबा वह उतना ऊपर जाता है..
पानी का बुलबुला किस तरह चट्टानों का सच जाने?
स्वीकारे अज्ञान न, लगता सत्य समूचा झुठलाने..

'सलिल' समय-सलिला में बहता ऊपर-नीचे होता है.
जान सके जो सत्य, बताते कब-कैसा-क्यों होता है??
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प्रो सत्य सहाय श्रीवास्तव के प्रति श्रृद्धा-सुमन : संजीव 'सलिल'

प्रो सत्य सहाय श्रीवास्तव के प्रति श्रृद्धा-सुमन :
संजीव 'सलिल'
*
षट्पदी
मौत ले जाती है काया, कार्य होते हैं अमर.
ज्यों की त्यों चादर राखी, निर्मल बुन्देली पूज्यवर!
हे कलम के धनी! शिक्षादान आजीवन किया-
हरा तम अज्ञानका, जब तक जला जीवन-दिया.
धरा छतीसगढ़ की ऋण से उऋण हो सकती नहीं.
'सलिल' सेवा-साधना होती अजर मिटती नहीं..
******
चतुष्पदियाँ / मुक्तक
मन-किवाड़ पर दस्तक देता, सुधि का बंदनवार.
दीप जलाये स्मृतियों के, झिलमिल जग उजियार.
इस जग से तुम चले गये, मन से कैसे जाओगे?
धूप-छाँव में, सुख-दुःख में, सच याद बहुत आओगे..
*****
नहीं किताबी शिक्षक थे तुम, गुरुवत बाँटा ज्ञान.
शत कंकर तराशकर शंकर, गढ़े बिना अभिमान..
जीवन गीता, अनुभव रामायण के अनुपम पाठ-
श्वास-श्वास तुम रहे पढ़ाते, बन रस-निधि, रस-खान..
*****
सफल उसी का जीवन, जिसका होता सत्य-सहाय.
सत्य सहाय न हो पाये तो मानव हो निरुपाय..
जो होता निरुपाय उसीका जीवन निष्फल जान-
स्वप्न किये साकार अनेकों के, रच नव अध्याय..
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पुण्य फले तब ही जुड़ पाया, तुमसे स्नेहिल नाता.
तुममें वाचिक परंपरा को, मूर्तित होते पाया..
जटिल शुष्क नीरस विषयों को सरस बना समझाते-
दोष-हरण सद्गुण-प्रसार के थे अनुपम व्याख्याता..
*****
तुम गये तो शून्य सा मन हो गया है.
है जगत में किन्तु लगता खो गया है..
कभी लगता आँख में आँसू नहीं हैं-
कभी लगता व्यथित हो मन रो गया है..
*****
याद तुम्हारी गीत बन रही,
जीवन की नव रीत बन रही.
हार मान हर हार ग्रहण की-
श्वास-आस अब जीत बन रही..
*****
अश्रुधारा से तुम्हें तर्पण करेंगे.
हृदय के उद्गार शत अर्पण करेंगे..
आत्म पर जब भी 'सलिल' संदेह होगा-
सुधि तुम्हारी कसौटी-दर्पण करेंगे..
***** तुम थे तो घर-घर लगता था.
हर कण अपनापन पगता था..
पारस परस तुम्हारा पाकर-
सोया अंतर्मन जगता था..
*****
सुधियों के दोहे
सत्य सहाय सदा रहे, दो आशा-सहकार.
शांति-राज पुष्पा सके, सुषमा-कृष्ण निहार..
*
कीर्ति-किरण हनुमान की, दीप्ति इंद्र शशि सोम.
चन्द्र इंदु सत्य सुधा, माया-मुकुलित ॐ..
*
जब भी जीवन मिले कर सफल साधना हाथ.
सत-शिव सुंदर रचें पा, सत-चित-आनंद नाथ..
*
सत्य-यज्ञ में हो सके, जीवन समिधा दैव.
औरों का कुछ भलाकर, सार्थक बने सदैव..
*
कदम-कदम संघर्ष कर, सके लक्ष्य को जीत.
पूज्यपाद वर दीजिये, 'सलिल'-शत्रु हो मीत..
*
महाकाल से भी किये, बरसों दो-दो हाथ.
निज इच्छा से भू तजी, गह सुरपुर का पाथ..
*
लखी राम ने भी 'सलिल', कब आओ तुम, राह.
हमें दुखीकर तुम गये, पूरी करने चाह..
*
शिरोधार्य रह मौन हम, विधि का करें विधान.
दिल रोये, चुप हों नयन, अधर करें यश-गान..
*
सद्गुरु बिन सुर कर नहीं, पाये 'सलिल' निभाव.
बिन आवेदन चुन लिया, तुमको- मिटे अभाव..
*
देह जलाने ले गये, वे जिनसे था नेह.
जिन्हें दिखाया गेह था, करते वही-गेह..
*
आकुल-व्याकुल तन हुआ, मन है बहुत उदास.
सुरसरि को दीं अस्थियाँ, सुधियाँ अपने पास..
*
आदम की औकात है, बस मुट्ठी भर राख.
पार गगन को भी करे, तुम जैसों की साख..
*
नयन मूँदते ही दिखे, झलक तुम्हारी नित्य.
आँख खुले तो चतुर्दिक, मिलता जगत अनित्य..
*****








कविता: विरसा संजीव 'सलिल'

कविता:
विरसा
संजीव 'सलिल'
*
तुमने
विरसे में छोड़ी है
अकथ-कथा
संघर्ष-त्याग की.
हमने
जीवन-यात्रा देखी
जीवट-श्रम,
बलिदान-आग की.
आये थे अनजान बटोही
बहुतों के
श्रृद्धा भाजन हो.
शिक्षा, ज्ञान, कर्म को अर्पित
तुम सारस्वत नीराजन हो.
हम करते संकल्प
कर्म की यह मशाल
बुझ ना पायेगी.
मिली प्रेरणा
तुमसे जिसको
वह पीढ़ी जय-जय गायेगी.
प्राण-दीप जल दे उजियारा
जग ज्योतित कर
तिमिर हरेगा.
सत्य सहाय जिसे हो
वह भी-
तरह तुम्हारी लक्ष्य वरेगा.
*****
 

प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव के प्रति शब्द-सुमनांजलि नमन हमारे... --संजीव 'सलिल'

प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव के प्रति शब्द-सुमनांजलि

नमन हमारे...

संजीव 'सलिल'
*
पूज्य चरण में अर्पित हैं
शत नमन हमारे...
*
मन में यादों के सुगंध है,
मिला सदा आशीष.
जितना तुमने दिया, शत गुणा
तुमको दे जगदीश.
स्वागत हेतु लगे सुरपुर में
बंदनवारे....
*
तुम भास्कर, हम हुए प्रकाशित,
हैं आभारी.
बिना तुम्हारे हैं अपूर्ण हम
हे यशधारी..
यादों का पाथेय लगाये
हमें किनारे...
*
नेक प्रेरणा दे अनेक को,
विदा हो गये.
खोज रहे हम, तुम विदेह में
लीन हो गये..
मन प्राणों को दीपित करते
कर्म तुम्हारे...
*****

प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव के प्रति भावांजलि: तुममें जीवित था... संजीव 'सलिल'

प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव के प्रति भावांजलि:
तुममें जीवित था...
संजीव 'सलिल'
*
तुममें जीवित था इतिहास,
किन्तु न था युग को आभास...
*
पराधीनता के दिन देखे.
सत्याग्रह आन्दोलन लेखे..
प्रतिभा-पूरित सुत 'रनेह' के,
शत प्रसंग रोचक अनलेखे..
तुम दमोह के दीपक अनुपम
देते दिव्य उजास...
*
गंगा-विश्वनाथ मन भाये,
'छोटे'  में विराट लख पाये..
अरपा नदी बिलासा माई-
छतीसगढ़ में रम harhsaaye..
कॉलेज-अर्थशास्त्र ने पाया-
नव उत्थान-विकास...
*
साक्ष्य खरसिया-जांजगीर है.
स्वस्थ रखी तुमने नजीर है..
व्याख्याता-प्राचार्य बहुगुणी
कीर्ति-विद्वता खुद नजीर है..
छात्र-कल्याण अधिष्ठाता रह-
हुए लोकप्रिय खास...
*
कार्यस्थों को राह दिखायी.
लायन-रोटरी ज्योति जलायी.
हिंद और हिन्दी के वाहक
अमिय लुटाया हो विषपायी..
अक्षय-निधि आशा-संबल था-
सार्थक किये प्रयास...
*
श्रम-विद्या की सतत साधना.
विमल वन्दना, पुण्य प्रार्थना,
तुम अशोक थे, तुम अनूप थे-
महावीर कर विपद सामना,
नेह-नर्मदा-सलिल पानकर-
हरी पीर-संत्रास...
*
कीर्ति-कथा मोहिनी अगेह की.
अर्थशास्त्र-शिक्षा विदेह सी.
सत-शिव-सुंदर की उपासना-
शब्दाक्षर आदित्य-गेह की..
किया निशा में भी उजियारा.
हर अज्ञान-तिमिर का त्रास...
*
संस्मरण बहुरंगी अनगिन,
क्या खोया?, क्या पाया? बिन-गिन..
गुप्त चित्त में चित्र चित्रगुप्त प्रभु!
कर्म-कथाएँ लिखें पल-छीन.
हरी उपेक्षित मन की पीड़ा
दिया विपुल अधरों को हास...
*
शिष्य बने जो मंत्री-शासन,
करें नीति से जन का पालन..
सत्ता जन-हित में प्रवृत्त हो-
दस दिश सुख दे सके सु-शासन..
विद्यानगर बसा सामाजिक
नायक लिये हुलास...
*
प्रखर कहानी कर्मयोग की,
आपद, श्रम साफल्य-योग की.
थी जिजीविषा तुममें अनुपम-
त्याग समर्पण कश्र-भोग की..
बुन्देली भू के सपूत हे!
फ़ैली सुरभि-सुवास...
******

रविवार, 12 दिसंबर 2010

प्रो. सत्यसहाय के प्रति : स्मृति गीत: मन न मानता... संजीव 'सलिल'

प्रो. सत्यसहाय के प्रति श्रृद्धांजलि :
 स्मृति गीत:
मन न मानता...
संजीव 'सलिल'
*
मन न मानता
चले गये हो...
*
अभी-अभी तो यहीं कहीं थे.
आँख खुली तो कहीं नहीं थे..
अंतर्मन कहता है खुदसे-
साँस-आस से
छले गये हो...
*
नेह-नर्मदा की धारा थे.
श्रम-संयम का जयकारा थे..
भावी पीढ़ी के नयनों में-
स्वप्न सदृश तुम
पले गये हो...
*
दुर्बल तन में स्वस्थ-सुदृढ़ मन.
तुम दृढ़ संकल्पों के गुंजन..
जीवन उपवन में भ्रमरों संग-
सूर्य अस्त लाख़
ढले गये हो...
*****

विधि का विधान : प्रो. सत्य सहाय दिवंगत.....

श्रृद्धांजलि: विधि का विधान : प्रो. सत्य सहाय दिवंगत.....                                                                                                                                                                                                                   SS Shrivastava.jpg

वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव

संजीव वर्मा 'सलिल'

बिलासपुर, छत्तीसगढ़ २८.११.२०१०. स्थानीय अपोलो चिकित्सालय में आज देर रात्रि विख्यात अर्थशास्त्री, छत्तीसगढ़ राज्य में महाविद्यालायीन शिक्षा के सुदृढ़ स्तम्भ रहे अर्थशास्त्र की ३ उच्चस्तरीय पुस्तकों के लेखक, प्रादेशिक कायस्थ महासभा मध्यप्रदेश के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष रोटेरियन, लायन प्रो. सत्य सहाय का लम्बी बीमारी के पश्चात् देहावसान हो गया. खेद है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार आपने प्रदेश के इस गौरव पुरुष के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ तथा असावधान रही. वर्ष १९९४ से पक्षाघात (लकवे) से पीड़ित प्रो. सहाय शारीरिक पीड़ा को चुनौती देते हुए भी सतत सृजन कर्म में संलग्न रहे. शासन सजग रहकर उन्हें राजकीय अतिथि के नाते एम्स दिल्ली या अन्य उन्नत चिकित्सालय में भेजकर श्रेष्ठ विशेषज्ञों की सेवा उपलब्ध कराता तो वे रोग-मुक्त हो सकते थे.

१६ वर्षों से लगातार पक्षाघात (लकवा) ग्रस्त तथा शैयाशाई होने पर भी उनके मन-मष्तिष्क न केवल स्वस्थ्य-सक्रिय रहा अपितु उनमें सर्व-हितार्थ कुछ न कुछ करते रहने की अनुकरणीय वृत्ति भी बनी रही. वे लगातार न केवल अव्यवसायिक सामाजिक पत्रिका 'संपर्क' का संपादन-प्रकाशन करते रहे अपितु इसी वर्ष उन्होंने 'राम रामायण' शीर्षक लघु पुस्तक का लेखन-प्रकाशन किया था. इसमें रामायण का महत्त्व, रामायण सर्वप्रथम किसने लिखी, शंकर जी द्वारा तुलसी को रामकथा साधारण बोल-चाल की भाषा में लिखने की सलाह, जब तुलसी को हनुमानजी ने श्रीराम के दर्शन करवाये, रामकथा में हनुमानजी की उपस्थिति, सीताजी का पृथ्वी से पैदा होना, रामायण कविता नहीं मंत्र, दशरथ द्वारा कैकेयी को २ वरदान, श्री राम द्वारा श्रीभरत को अयोध्या की गद्दी सौपना, श्री भारत द्वारा कौशल्या को सती होने से रोकना, रामायण में सर्वाधिक उपेक्षित पात्र उर्मिला, सीता जी का दूसरा वनवास, रामायण में सुंदरकाण्ड, हनुमानजी द्वारा शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराना, परशुराम प्रसंग की सचाई, रावण के अंतिम क्षण, लव-कुश काण्ड, सीताजी का पृथ्वी की गोद में समाना, श्री राम द्वारा बाली-वध, शूर्पनखा-प्रसंग में श्री राम द्वारा लक्ष्मण को कुँवारा कहा जाना, श्री रामेश्वरम की स्थापना, सीताजी की स्वर्ण-प्रतिमा, रावण के वंशज, राम के बंदर, कैकेई का पूर्वजन्म, मंथरा को अयोध्या में रखेजाने का उद्देश्य,  मनीराम की छावनी, पशुओं के प्रति शबरी की करुणा, सीताजी का राजयोग न होना, सीताजी का रावण की पुत्री होना, विभीषण-प्रसंग, श्री राम द्वारा भाइयों में राज्य-विभाजन आदि जनरूचि के रोचक प्रसंगों का उल्लेख किया है. गागर में सागर की तरह विविध प्रसंगों को समेटे यह कृति प्रो. सहाय की जिजीविषा का पुष्ट-प्रमाण है.

 प्रो. सत्यसहाय जीवंत व्यक्तित्व, कर्मठ कृतित्व तथा मौलिक मतित्व की त्रिविभूति-संपन्न ऐसे व्यक्तित्व थे जिन पर कोई भी राज्य-सत्ता गर्व कर सकती है. ग्राम रनेह (राजा नल से समबन्धित ऐतिहासिक नलेह), तहसील हटा (राजा हट्टेशाह की नगरी), जिला दमोह (रानी दमयन्ती की नगरी) में जन्में, बांदकपुर स्थित उपज्योतिर्लिंग जागेश्वरनाथ पुण्य भूमि के निवासी संपन्न-प्रतिष्ठित समाजसेवी स्व. सी.एल. श्रीवास्तव तथा धर्मपरायण स्व. महारानी देवी के कनिष्ठ पुत्र सत्यसहाय की प्राथमिक शिक्षा रनेह, ग्राम, उच्चतर माध्यमिक शिक्षा दमोह तथा महाविद्यालयीन शिक्षा इलाहाबाद में अग्रज स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव (आपने समय के प्रखर पत्रकार, दैनिक लीडर तथा अमृत बाज़ार पत्रिका के उपसंपादक, पत्रकारिता पर महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक) के सानिंध्य में पूर्ण हुई. अग्रज के पद-चिन्हों पर चलते हुए पत्रकारिता के प्रति लगाव स्वाभाविक था. उनके कई लेख, रिपोर्ताज, साक्षात्कार आदि प्रकाशित हुए. वे लीडर पत्रिका के फ़िल्मी स्तम्भ के संपादक रहे. उनके द्वारा फ़िल्मी गीत-गायक स्व. मुकेश व गीता राय का साक्षात्कार बहुचर्चित हुआ. 

उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के निजी सचिव स्व. महेशदत्त मिश्र पन्नालाल जी के साथ रहकर राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे. तरुण सत्यसहाय को गाँधी जी की रेलयात्रा के समय बकरीका ताज़ा दूध पहुँचाने का दायित्व मिला. गाँधी जी की रेलगाड़ी इलाहाबाद पहुँची तो भरी भीड़ के बीच छोटे कद के सत्यसहाय जी नजर नहीं आये, रेलगाड़ी रवाना होने का समय हो गया तो मिश्रजी चिंतित हुए, उन्होंने आवाज़ लगाई 'सत्य सहाय कहाँ हो? दूध लाओ.' भीड़ में घिरे सत्यसहाय जी जोर से चिल्लाये 'यहाँ हूँ' और उन्होंने दूध का डिब्बा ऊपर उठाया, लोगों ने देखा मिश्र जी डब्बा पकड़ नहीं पा रहे और रेलगाड़ी रेंगने लगी तो कुछ लम्बे लोगों ने सहाय जी को ऊपर उठाया, मिश्र जी ने लपककर डब्बा पकड़ा. बापू ने खिड़की से यह दृश्य देखा तो खिड़कीसे हाथ निकालकर उन्हें आशीर्वाद दिया.  मिश्रा जी के सानिंध्य में वे अनेक नेताओं से मिले. सन १९४८ में अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् नव स्वतंत्र देश का भविष्य गढ़ने और अनजाने क्षेत्रों को जानने-समझने की ललक उन्हें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) ले आयी.

पन्नालाल जी अमृत बाज़ार पत्रिका और लीडर जैसे राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में संवाददाता और उपसंपादक रहे थे. वे मध्य प्रान्त और विदर्भ के नेताओं को राष्ट्री क्षितिज में उभारने में ही सक्रिय नहीं रहे अपितु मध्य अंचल के तरुणों को अध्ययन और आजीविका जुटने में भी मार्गदर्शक रहे. विख्यात पुरातत्वविद राजेश्वर गुरु उनके निकट थे, जबलपुर के प्रसिद्द पत्रकार रामेश्वर गुरु को अपना सहायक बनाकर पन्नालाल जी ने संवाददाता बनाया था. कम लोग जानते हैं मध्य-प्रदेश उच्च न्यायालय के  विद्वान् अधिवक्ता श्री राजेंद्र तिवारी भी प्रारंभ में प्रारंभ में पत्रकार ही थे. उन्होंने बताया कि वे स्थानीय पत्रों में लिखते थे. गुरु जी का जामाता होने के बाद वे पन्नालाल जी के संपर्क में आये तो पन्नालाल जी ने अपना टाइपराइटर उन्हें दिया तथा राष्ट्रीय अख़बारों से रिपोर्टर के रूप में जोड़ा. अपने अग्रज के घर में अंचल के युवकों को सदा आत्मीयता मिलते देख सत्य सहाय जी को भी यही विरासत मिली.

आदर्श शिक्षक तथा प्रशासनविद:

बुंदेलखंड में कहावत है 'जैसा पियो पानी, वैसी बोलो बनी, जैसा खाओ अन्न, वैसा होए मन'- सत्यसहाय जी के व्यक्तित्व में सुनार नदी के पानी साफगोई, नर्मदाजल की सी निर्मलता व गति तथा गंगाजल की पवित्रता तो थी ही बिलासपुर छत्तीसगढ़ में बसनेपर अरपा नदीकी देशजता और शिवनाथ नदीकी मिलनसारिता सोने में सुहागा की तरह मिल गई. वे स्थानीय एस.बी.आर. महाविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हो गये. उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, सरस-सटीक शिक्षण शैली, सामयिक उदाहरणों से विषय को समझाने तथा विद्यार्थी की कठिनाई को समझकर सुलझाने की प्रवृत्ति ने उन्हें सर्व-प्रिय बना दिया. जहाँ पहले छात्र अर्थशास्त्र विषय से दूर भागते थे, अब आकर्षित होने लगे. सन १९६४ तक उनका नाम स्थापित तथा प्रसिद्ध हो चुका था. इस मध्य १९५८ से १९६० तक उन्होंने नव-स्थापित 'ठाकुर छेदीलाल महाविद्यालय जांजगीर' के प्राचार्य का चुनौतीपूर्ण दायित्व सफलतापूर्वक निभाया और महाविद्यालय को सफलता की राह पर आगे बढ़ाया. उस समय शैक्षणिक दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े राज्य छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की दीपशिखा प्रज्वलित करनेवालों में अग्रगण्य स्व. सत्य सहाय अपनी मिसाल आप थे.जांजगीर महाविद्यालय सफलतापूर्वक चलने पर वे वापिस बिलासपुर आये तथा योजना बनाकर एक अन्य ग्रामीण कसबे खरसिया के विख्यात राजनेता-व्यवसायी स्व. लखीराम अग्रवाल प्रेरित कर महाविद्यालय स्थापित करने में जुट गये. लम्बे २५ वर्षों तक प्रांतीय सरकार से अनुदान प्राप्तकर यह महाविद्यालय शासकीय महाविद्यालय बन गया. इस मध्य प्रदेश में विविध दलों की सरकारें बनीं... लखीराम जी तत्कालीन जनसंघ से जुड़े थे किन्तु सत्यसहाय जी की समर्पणवृत्ति, सरलता, स्पष्टता तथा कुशलता के कारण यह एकमात्र महाविद्यालय था जिसे हमेशा अनुदान मिलता रहा.

उन्होंने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में अधिष्ठाता छात्र-कल्याण परिषद्, अधिष्ठाता महाविद्यालयीन विकास परिषद् तथा निदेशक जनजाति प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण के रूप में भी अपनी कर्म-कुशलता की छाप छोड़ी.
आपके विद्यार्थियों में स्व. बी.आर. यादव, स्व. राजेंद्र शुक्ल. श्री अशोक राव, श्री सत्यनारायण शर्मा आदि अविभाजित मध्यप्रदेश / छतीसगढ़ के कैबिनेट मंत्री, पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय मंत्री तथा स्व. श्रीकांत वर्मा सांसद और राष्ट्रीय राजनीति के निर्धारक रहे. अविभाजित म.प्र. के वरिष्ठ नेता स्वास्थ्य मंत्री स्व. डॉ. रामाचरण राय, शिक्षामंत्री स्व. चित्रकांत जायसवाल से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे. उनके अनेक विद्यार्थी उच्चतम प्रशासनिक पदों पर तथा कई कुलपति, प्राचार्य, निदेशक आदि भी हुए किन्तु सहाय जी ने कभी किसीसे नियम के विपरीत कोई कार्य नहीं कराया. अतः उन्होंने सभी से  सद्भावना तथा सम्मान पाया. 

सक्रिय समाज सेवी:

प्रो. सत्यसहाय समर्पित समाज सुधारक भी थे. उन्होंने छतीसगढ़ अंचल में लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने की कुप्रथा से आगे बढ़कर संघर्ष किया. ग्रामीण अंचल में रहकर तथा सामाजिक विरोध सहकर भी उन्होंने न केवल अपनी ४ पुत्रियों को  स्नातकोत्तर शिक्षा दिलाई अपितु २ पुत्रियों को महाविद्यालयीन प्राध्यापक बनने हेतु प्रोत्साहित तथा  विवाहोपरांत शोधकार्य हेतु सतत प्रेरित किया. इतना ही नहीं उन्होंने अपने संपर्क के सैंकड़ों परिवारों को भी लड़कियों को पढ़ाने की प्रेरणा दी.

स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे सामाजिक ऋण-की अदायगी करने में जुट गये. प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जबलपुर, बरमान (नरसिंहपुर), उज्जैन, दमोह, बालाघाट, बिलासपुर आदि अनेक स्थानों पर युवक-युवती, परिचय सम्मलेन, मितव्ययी दहेज़रहित सामूहिक आदर्श विवाह सम्मलेन आदि आयोजित कराये. वैवाहिक जानकारियाँ एकत्रित कर चित्राशीष जबलपुर तथा संपर्क बिलासपुर पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अभिभावकों को उपलब्ध कराईं.
विविध काल खण्डों में सत्यसहाय जी  ने लायन तथा रोटरी क्लबों के माध्यम से भी सामाजिक सेवा की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित कर अपूर्व सदस्यतावृद्धि हेतु श्रेष्ठ गवर्नर पदक प्राप्त किये. वे जो भी कार्य करते थे दत्तचित्त होकर लक्ष्य पाने तक करते थे.

छतीसगढ़ शासन जागे : 

बिलासपुर तथा छत्तीसगढ़ के विविध अंचलों में प्रो. असत्य सहाय के निधन का समाचार पाते ही शोक व्याप्त हो गया. छतीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के अनेक महाविद्यालयों ने उनकी स्मृति में शोक प्रस्ताव पारित किये. अभियान सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्था जबलपुर, रोटरी क्राउन जबलपुर, रोटरी क्लब बिलासपुर, रोटरी क्लब खरसिया, लायंस क्लब खरसिया, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, सनातन कायस्थ महापरिवार मुम्बई, विक्रम महाविद्यालय उज्जैन, शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर, कायस्थ समाज बिलासपुर, कायस्थ कल्याण परिषद् बिलासपुर, कायस्थ सेना जबलपुर आदि ने प्रो. सत्यसहाय के निधन पर श्रैद्धांजलि व्यक्त करते हुए उन्हें युग निर्माता निरूपित किया है. छत्तीसगढ़ शासन से अपेक्षा है कि खरसिया महाविद्यालय में उनकी प्रतिमा स्थापित की जाये तथा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर एवं गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर में अर्थशास्त्र विषयक उच्च शोध कार्यों हेतु प्रो. सत्यसहाय शोधपीठ की स्थापना की जाए.

दिव्यनर्मदा परिवार प्रो. सत्यसहाय के ब्रम्हलीन होने को शोक का कारण न मानते हुए इसे देह-धर्म के रूप में विधि के विधान के रूप में नत शिर स्वीकारते हुए संकल्प लेता है कि दिवंगत के आदर्शों के क्रियान्वयन हेतु सतत सक्रिय रहेगा. हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में विकसित करने की प्रो. सत्यसहाय की मनोकामना को मूर्तरूप देने के लिये सतत प्रयास जारी रहेंगे. आप सब इस पुनी कार्य में सहयोगी हों, यही सच्ची कर्मांजलि होगी.

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मुक्तिका .....डरे रहे. ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                                      

.....डरे रहे.

संजीव 'सलिल'
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.

दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.

हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.

रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.

नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.

निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.

सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.

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मुक्तिका थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.... ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                                             थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.

संजीव 'सलिल'


*
थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.
चाहा सुख तो पाया गम.

अधरों पर मुस्कान मिली
लेकिन आँखें पायीं नम.

दूर करो हाथों से बम.
मिलो गले कह बम-बम-बम.

'मैं'-'तू' भूलें काश सभी
कहें साथ मिल सारे 'हम'.

सात जन्म का वादा कर
ठोंक रहे आपस में ख़म.

मन मलीन को ढाँक रहे
क्यों तन को नित कर चम्-चम्.

जब भी बाला दिया 'सलिल'
मिला ज्योति के नीचे तम.

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sattire: THREE PARROTS -- vijay kushal.

sattire:


THREE    PARROTS                                    


-- vijay kushal.

A man wanted to buy his son a parrot as a birthday present.
The next day he went to the pet shop and saw
three identical parrots in a cage.

He asked the clerk, "how much for the parrot on the right?

 The owner said it was Rs. 2500.
"Rs. 2500.", the man said. "Well what does he do?
"He knows how to use all of the functions of Microsoft Office 2000,
responds the clerk.
"He can do all of your spreadsheets and type all of your letters."

 The man then asked what the second parrot cost.
The clerk replied, Rs. 5000, but he not only knows Office 2000,
but is an expert computer programmer.

 Finally, the man inquired about the cost of the last parrot.
The clerk replied, "Rs. 10,000."
Curious as to how a bird can cost Rs. 10,000, the man asked what this
bird's specialty was.
The clerk replies, "Well to be honest I haven't seen him do anything.

But the other two call him *"BOSS"!! *

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रविवार, 28 नवंबर 2010

शोक!... महाशोक!!.... वयोवृद्ध कर्मयोगी प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव दिवंगत संजीव वर्मा 'सलिल'

शोक!... महाशोक!!....

वयोवृद्ध कर्मयोगी प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव दिवंगत

संजीव वर्मा 'सलिल'
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बिलासपुर, छत्तीसगढ़ २७.११.२०१०. 
 
स्थानीय अपोलो चिकित्सालय में आज देर रात्रि विख्यात अर्थशास्त्री प्रो. सत्य सहाय का लम्बी बीमारी के पश्चात् देहावसान हो गया. 
 
छत्तीसगढ़ राज्य में महाविद्यालायीन शिक्षा के सुदृढ़ स्तम्भ तथा अर्थशास्त्र की उच्चस्तरीय पुस्तक लेखन कार्य की नींव के पत्थर प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव वार्धक्य के प्रभाव से रुग्ण हैं. वे स्थानीय अपोलो चिकित्सालय में स्वास्थ्य-लाभ कर रहे हैं. खेद है कि राज्य सरकार आपने प्रदेश के इस गौरव पुरुष के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ तथा असावधान है.

वर्ष १९९४ से पीड़ित प्रो. सहाय शारीरिक पीड़ा को चुनौती देते हुए भी सतत सृजन कर्म में संलग्न रहते आये हैं. वे लगातार न केवल अव्यवसायिक सामाजिक पत्रिका 'संपर्क' का संपादन-प्रकाशन करते रहे हैं अपितु इसी वर्ष उन्होंने 'राम रामायण' शीर्षक लघु पुस्तक का लेखन-प्रकाशन किया है. इसमें रामायण का महत्त्व, रामायण सर्वप्रथम किसने लिखी, शंकर जी द्वारा तुलसी को रामकथा साधारण बोल-चाल की भाषा में लिखने की सलाह, जब तुलसी को हनुमानजी ने श्रीराम के दर्शन करवाये, रामकथा में हनुमानजी की उपस्थिति, सीताजी का पृथ्वी से पैदा होना, रामायण कविता नहीं मंत्र, दशरथ द्वारा कैकेयी को २ वरदान, श्री राम द्वारा श्रीभरत को अयोध्या की गद्दी सौपना, श्री भारत द्वारा कौशल्या को सती होने से रोकना, रामायण में सर्वाधिक उपेक्षित पात्र उर्मिला, सीता जी का दूसरा वनवास, रामायण में सुंदरकाण्ड, हनुमानजी द्वारा शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराना, परशुराम प्रसंग की सचाई, रावण के अंतिम क्षण, लव-कुश काण्ड, सीताजी का पृथ्वी की गोद में समाना, श्री राम द्वारा बाली-वध, शूर्पनखा-प्रसंग में श्री राम द्वारा लक्ष्मण को कुँवारा कहा जाना, श्री रामेश्वरम की स्थापना, सीताजी की स्वर्ण-प्रतिमा, रावण के वंशज, राम के बंदर, कैकेई का पूर्वजन्म, मंथरा को अयोध्या में रखेजाने का उद्देश्य,  मनीराम की छावनी, पशुओं के प्रति शबरी की करुणा, सीताजी का राजयोग न होना, सीताजी का रावण की पुत्री होना, विभीषण-प्रसंग, श्री राम द्वारा भाइयों में राज्य-विभाजन आदि प्रसंगों का उल्लेख है. गागर में सागर की तरह विविध प्रसंगों को समेटे यह कृति प्रो. सहाय की जिजीविषा का पुष्ट-प्रमाण है. १६ वर्षों से लगातार पक्षाघात (लकवा) ग्रस्त तथा शैयाशाई होने पर भी उनके मन-मष्तिष्क न केवल स्वास्थ्य-सक्रिय है अपितु उनमें सर-हितार्थ कुछ न कुछ करते रहने की अनुकरणीय वृत्ति भी है.

प्रो. सत्यसहाय जीवंत व्यक्तित्व, कर्मठ कृतित्व तथा मौलिक मतित्व की त्रिविभूति-संपन्न ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन पर कोई भी राज्य-सत्ता गर्व कर सकती है. ग्राम रनेह (राजा नल से समबन्धित ऐतिहासिक नलेह), तहसील हटा (राजा हट्टेशाह की नगरी), जिला दमोह (रानी दमयन्ती की नगरी) में जन्में, बांदकपुर स्थित उपज्योतिर्लिंग जागेश्वरनाथ पुण्य भूमि के निवासी संपन्न-प्रतिष्ठित समाजसेवी स्व. सी.एल. श्रीवास्तव तथा धर्मपरायणा स्व. महारानी देवी के कनिष्ठ पुत्र सत्यसहाय की प्राथमिक शिक्षा रनेह, ग्राम, उच्चतर माध्यमिक शिक्षा दमोह तथा महाविद्यालयीन शिक्षा इलाहाबाद में अग्रज स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव (आपने समय के प्रखर पत्रकार, दैनिक लीडर तथा अमृत बाज़ार पत्रिका के उपसंपादक, पत्रकारिता पर महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक) के सानिंध्य में पूर्ण हुई. अग्रज के पद-चिन्हों पर चलते हुए पत्रकारिता के प्रति लगाव स्वाभाविक था. उनके कई लेख, रिपोर्ताज, साक्षात्कार आदि प्रकाशित हुए. उन दिनों महात्मा गाँधी के निजी सचिव स्व. महेशदत्त मिश्र पन्नालाल जी के साथ रहकर राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे. तरुण सत्यसहाय को गाँधी जी की रेलयात्रा के समय बकरीका ताज़ा दूध पहुँचाने का दायित्व मिला. मिश्रा जी के सानिंध्य में वे अनेक नेताओं से मिले. सन १९४९ में अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् देश का भविष्य गढ़ने और अनजाने क्षेत्रों को जानने-समझने की ललक उन्हें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) ले आयी.

बुंदेलखंड में कहावत है 'जैसा पियो पानी, वैसी बोलो बनी, जैसा खाओ अन्न, वैसा होए मन'- सत्यसहाय जी के व्यक्तित्व में सुनार नदी के पानी साफगोई, नर्मदाजल की सी निर्मलता व गति तथा गंगाजल की पवित्रता उनमें थी ही अब उसमें अरपा नदीकी देशजता और शिवनाथ नदीकी मिलनसारिता सोने में सुहागा हो गई. वे स्थानीय एस.बी.आर. महाविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हो गये. उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, सरस-सटीक शिक्षण शैली, सामयिक उदाहरणों से विषय को समझाने तथा विद्यार्थी की कठिनाई को समझकर सुलझाने की प्रवृत्ति ने उन्हें सर्व-प्रिय बना दिया. जहाँ पहले छात्र अर्थशास्त्र विषय से दूर भागते थे, अब आकर्षित होने लगे. सन १९६४ तक प्रो. उनका नाम स्थापित तथा प्रसिद्ध हो चुका था. इस मध्य १९५८ से १९६० तक उन्होंने नव-स्थापित 'ठाकुर छेदीलाल महाविद्यालय जांजगीर' के प्राचार्य का चुनौतीपूर्ण दायित्व १९५८ से १९६० तक सफलतापूर्वक निभाया और महाविद्यालय को सफलता की राह पर आगे बढ़ाया. उस समय शैक्षणिक दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े राज्य छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की दीपशिखा प्रज्वलित करनेवालों में अग्रगण्य स्व. सत्य सहाय अपनी मिसाल आप थे.

आपके विद्यार्थियों में स्व. बी.आर. यादव, स्व. राजेंद्र शुक्ल. श्री अशोक राव आदि अविभाजित मध्य प्रदेश के कैबिनेट मंत्री रहे.

गीत: चलते-चलते -- संजीव 'सलिल'

गीत:                                                                                  


चलते-चलते

संजीव 'सलिल'
*
चलते-चलते अटक रहे हैं.
मिलते-मिलते भटक रहे हैं.....
*
गति-मति की युति हुई अनछुई.
मंजिल पग ने छुई-अनछुई..
लट्ठम-लट्ठा सूत ना रुई-
दुनियादारी ठगी हो गयी..
ढलते-ढलते सटक रहे हैं.....
*
रीति-नीति से प्रीति नहीं है.
सत की सत्य प्रतीति नहीं है.
हाय असत से भीती नहीं है.
काव्य रचे पर गीति नहीं है..  
खुद को खुद ही खटक रहे हैं.....
*
भारी को भी आभारी हैं.
हे हरि!  अद्भुत लाचारी है.
दृष्टि हो गयी गांधारी है.
सृष्टि समूची व्यापारी है..
अनचाहा भी गटक रहे हैं.

******************