गीतिका
संजीव 'सलिल'
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
***************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 5 सितंबर 2009
गीतिका : आचार्य संजीव 'सलिल'

जरूरी है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाना जावे
दुखद स्थिति है कि जब हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में जन मान्यता मिलनी थी तब भाषाई राजनीति की गई और यह संवैधानिक व्यवस्था हो गई कि जब तक एक भी राज्य नही चाहेगा तब तक हिन्दी वैकल्पिक बनी रहेगी .. विगत वर्षो में ग्लोबलाइजेशन के नाम पर अंग्रेजी को बहुत ज्यादा बढ़ावा मिला और हिन्दी उपेक्षित होति गई .. पर अब जरूरी है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाना जावे जिससे सभी भारत वासी हिन्दी जाने समझें .. यह तो मानना ही पड़ेगा कि चाहे देवगौड़ा हो या सोनिया ..इस देश से जुड़ने के लिये सबको हिन्दी सीखनी ही पड़ी है .
vivek ranjan shrivastava...jabalpur
vivek ranjan shrivastava...jabalpur

गुरुवार, 3 सितंबर 2009
हिंदुस्ताँ की धरती पे अमन ही बरसे।
हिंदुस्ताँ की धरती पे अमन ही बरसे।
मुस्कुराये हर जिंदगी कोई भी न तरसे।।
बड़ी ही खूबसूरत फिज़ा हर दिशायें।
सुना रहीं तराने जहाँ भर हवायें।
हर एक अंजुमन में मनायें सब जलसे।।
बाग़बाँ हो ज़िन्दगी लबों पे हँसी हो।
जिधर नज़र घुमायें, खुशी ही खुशी हो।
इन्सानियत की बस्ती बसे हर तरफ से।।
खुदा करे हिफाज़त सभी की ये मिन्नत।
हिन्दुस्ताँ जहाँ में जैसे कि मानो जन्नत।
महफूज़ हो जायें सभी हर तरह से।।
Ansh Lal Pandre
मुस्कुराये हर जिंदगी कोई भी न तरसे।।
बड़ी ही खूबसूरत फिज़ा हर दिशायें।
सुना रहीं तराने जहाँ भर हवायें।
हर एक अंजुमन में मनायें सब जलसे।।
बाग़बाँ हो ज़िन्दगी लबों पे हँसी हो।
जिधर नज़र घुमायें, खुशी ही खुशी हो।
इन्सानियत की बस्ती बसे हर तरफ से।।
खुदा करे हिफाज़त सभी की ये मिन्नत।
हिन्दुस्ताँ जहाँ में जैसे कि मानो जन्नत।
महफूज़ हो जायें सभी हर तरह से।।
Ansh Lal Pandre

एक शेर: संजीव 'सलिल'
काफिर से हरदम मिले,
खुद आकर भगवान।
उसे ज्ञात ठगता नहीं,
यह सच्चा इन्सान..
खुद आकर भगवान।
उसे ज्ञात ठगता नहीं,
यह सच्चा इन्सान..
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एक शे'र : संजीव 'सलिल'
कविता: मानव मन: देवेन्द्र कुमार
मानव मन पर नहीं है बंधन,
किस पर कब आ जाये ।
मनोभावनाएं सृजन कर,
अपना उसे बनाये ।।
कुछ न सोचे, कुछ न समझे,
कुछ का कुछ हो जाये ।
चलते-चलते जीवन पथ पर,
राह कहीं खोजाये।।
रंग न देखे, रूप न देखे,
आयु, जाति, रिस्तेदारी।
गुरू-शिष्य वैराग्य न देखे,
प्रेम है इन सब पर भारी।।
प्रेम में अंधा होकर प्राणी,
क्या कुछ न कर जाये ।
ठगा ठगा महसूस करे,
अंजाम देख पछताये ।।
जब टूट जाये विश्वास,
खो जाये होशोहवास।
जीवन वन जाये अभिशाप,
रिस्तों में आजाये खटास ।।
सब जानता इंसान ,
अनजान बन जाये ।
प्रेममयी माया के छटे,
गर्दिश में अपने को पाये ।।
कलंकित होकर समाज में,
खुली साँस न ले पाये ।
आत्मग्लानि से मायूस,
लज्जित हो शर्माये।।
गलतियाँ सभी से होतीं,
फिर से न दुहराओ ।
पश्चाताप करो उनका,
सपना मान भूल जाओ।।
संस्कृति की लक्ष्मण रेखा,
न नाको मेरे यार,
मर्यादा से जीवन में ,
आती रहे बहार।।
***************
किस पर कब आ जाये ।
मनोभावनाएं सृजन कर,
अपना उसे बनाये ।।
कुछ न सोचे, कुछ न समझे,
कुछ का कुछ हो जाये ।
चलते-चलते जीवन पथ पर,
राह कहीं खोजाये।।
रंग न देखे, रूप न देखे,
आयु, जाति, रिस्तेदारी।
गुरू-शिष्य वैराग्य न देखे,
प्रेम है इन सब पर भारी।।
प्रेम में अंधा होकर प्राणी,
क्या कुछ न कर जाये ।
ठगा ठगा महसूस करे,
अंजाम देख पछताये ।।
जब टूट जाये विश्वास,
खो जाये होशोहवास।
जीवन वन जाये अभिशाप,
रिस्तों में आजाये खटास ।।
सब जानता इंसान ,
अनजान बन जाये ।
प्रेममयी माया के छटे,
गर्दिश में अपने को पाये ।।
कलंकित होकर समाज में,
खुली साँस न ले पाये ।
आत्मग्लानि से मायूस,
लज्जित हो शर्माये।।
गलतियाँ सभी से होतीं,
फिर से न दुहराओ ।
पश्चाताप करो उनका,
सपना मान भूल जाओ।।
संस्कृति की लक्ष्मण रेखा,
न नाको मेरे यार,
मर्यादा से जीवन में ,
आती रहे बहार।।
***************
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कविता: मानव मन: देवेन्द्र कुमार
गीतिका: संजीव 'सलिल'
शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥
सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥
कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥
खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥
'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥
********************
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥
सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥
कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥
खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥
'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥
********************
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संजीव 'सलिल',
सूर्य
रविवार, 30 अगस्त 2009
गीतिका : आचार्य संजीव 'सलिल'
गीतिका :
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.
बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.
कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे.
नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे.
न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे.
*********************************
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.
बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.
कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे.
नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे.
न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे.
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एक कविता: कीर्तिवर्धन
खुदा ना बनाओ
मेरे मालिक!
मुझे इंसान बना रहने दो
खुदा ना बनाओ
बना कर खुदा मुझको
अपने रहम ओ करम से
महरूम ना कराओ।
पडा रहने दो मुझको
गुनाहों के दलदल में
ताकि तेरी याद सदा
बनी रहे मेरे दिल मे।
अपनी रहमत की बरसात
मुझ पर करना
मुझे आदमी से बढ़ा कर
इंसान बनने की ताकत देना।
तेरी हिदायतों पर अमल करता रहूँ
मुझे इतनी कुव्वत देना।
तेरे जहाँ को प्यार कर सकूं
मुझे इतनी सिफत देना।
मेरे मालिक!
मुझे खुदा ना बनाना
बस इंसान बने रहने देना।
मुझे डर है कहीं
बनकर खुदा
मैं खुदा को ना भूल जाऊँ
खुदा बनने गुरूर मे
गुनाह करता चला जाऊँ।
मेरे मालिक!
अपनी मेहरबानी से
मुझे खुदा ना बनाना।
सिर्फ़ अपनी नज़रे-इनायत से
मुझे इंसान बनाना।
गुस्ताखी ना होने पाये मुझसे
किसी इंसान की शान मे
मेहरबानी हो तेरी मुझ पर
बना रहूँ इंसान मैं.
* * *
मेरे मालिक!
मुझे इंसान बना रहने दो
खुदा ना बनाओ
बना कर खुदा मुझको
अपने रहम ओ करम से
महरूम ना कराओ।
पडा रहने दो मुझको
गुनाहों के दलदल में
ताकि तेरी याद सदा
बनी रहे मेरे दिल मे।
अपनी रहमत की बरसात
मुझ पर करना
मुझे आदमी से बढ़ा कर
इंसान बनने की ताकत देना।
तेरी हिदायतों पर अमल करता रहूँ
मुझे इतनी कुव्वत देना।
तेरे जहाँ को प्यार कर सकूं
मुझे इतनी सिफत देना।
मेरे मालिक!
मुझे खुदा ना बनाना
बस इंसान बने रहने देना।
मुझे डर है कहीं
बनकर खुदा
मैं खुदा को ना भूल जाऊँ
खुदा बनने गुरूर मे
गुनाह करता चला जाऊँ।
मेरे मालिक!
अपनी मेहरबानी से
मुझे खुदा ना बनाना।
सिर्फ़ अपनी नज़रे-इनायत से
मुझे इंसान बनाना।
गुस्ताखी ना होने पाये मुझसे
किसी इंसान की शान मे
मेहरबानी हो तेरी मुझ पर
बना रहूँ इंसान मैं.
* * *
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इन्सान,
कविता,
कीर्तिवर्धन,
खुदा

है ना यक्ष प्रश्न ....?
कर्मचारी भविष्य निधि का प्रश्न ....?
नियम है कि जब भी कोई मजदूर लगाया जावे तो कर्मचारी भविष्य निधि के नाम पर उससे अंशदान काटा जावे .. उतना ही अंशदान नियोक्ता मिलाये और उस राशि को कर्मचारी भविष्य निधि संगयन में जमा करे ... प्रश्न है कि दिहाड़ी मजदूर की इस तरह सरकार मदद कर रही है या सस्पेंस में जमा होते इस पेसे से वह और परेशान ही हो रहा है , इस पैसे को निकालने के लिये मजदूर को जाने कितने चक्कर लगाने पड़ेंगे सरकारी दफ्तरो के .......?
है ना यक्ष प्रश्न ....?
नियम है कि जब भी कोई मजदूर लगाया जावे तो कर्मचारी भविष्य निधि के नाम पर उससे अंशदान काटा जावे .. उतना ही अंशदान नियोक्ता मिलाये और उस राशि को कर्मचारी भविष्य निधि संगयन में जमा करे ... प्रश्न है कि दिहाड़ी मजदूर की इस तरह सरकार मदद कर रही है या सस्पेंस में जमा होते इस पेसे से वह और परेशान ही हो रहा है , इस पैसे को निकालने के लिये मजदूर को जाने कितने चक्कर लगाने पड़ेंगे सरकारी दफ्तरो के .......?
है ना यक्ष प्रश्न ....?

भजन: बहे राम रस गंगा -स्व. शान्ति देवी वर्मा
बहे राम रस गंगा
बहे राम रस गंगा,
करो रे मन सतसंगा.
मन को होत अनंदा,
करो रे मन सतसंगा...
राम नाम झूले में झूली,
दुनिया के दुःख झंझट भूलो.
हो जावे मन चंगा,
करो रे मन सतसंगा...
राम भजन से दुःख मिट जाते,
झूठे नाते तनिक न भाते.
बहे भाव की गंगा,
करो रे मन सतसंगा...
नयन राम की छवि बसाये,
रसना प्रभुजी के गुण गाये.
तजो व्यर्थ का फंदा,
करो रे मन सतसंगा...
राम नाव, पतवार रामजी,
सांसों के सिंगार रामजी.
'शान्ति' रहे मन रंगा,
करो रे मन सतसंगा...
**********
बहे राम रस गंगा,
करो रे मन सतसंगा.
मन को होत अनंदा,
करो रे मन सतसंगा...
राम नाम झूले में झूली,
दुनिया के दुःख झंझट भूलो.
हो जावे मन चंगा,
करो रे मन सतसंगा...
राम भजन से दुःख मिट जाते,
झूठे नाते तनिक न भाते.
बहे भाव की गंगा,
करो रे मन सतसंगा...
नयन राम की छवि बसाये,
रसना प्रभुजी के गुण गाये.
तजो व्यर्थ का फंदा,
करो रे मन सतसंगा...
राम नाव, पतवार रामजी,
सांसों के सिंगार रामजी.
'शान्ति' रहे मन रंगा,
करो रे मन सतसंगा...
**********
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शनिवार, 29 अगस्त 2009
लघुकथा: निपूती भली थी -आचार्य संजीव 'सलिल'
लघुकथा:
निपूती भली थी
-आचार्य संजीव 'सलिल'
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.
अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आई.
उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे. दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीडाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.
अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- 'ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.
* * * * *
निपूती भली थी
-आचार्य संजीव 'सलिल'
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.
अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आई.
उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे. दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीडाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.
अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- 'ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.
* * * * *
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भारत माता,
लघुकथा: निपूती भली थी,
संजीव 'सलिल'
भीख मांगना यूं तो कानूनी अपराध है पर सरे आम स्वयं हाई कोर्ट के मार्ग पर भिखारियो की लम्बी कतारे देखी जा सकती है ..दान करना ..भीख देना कही न कही हमारी
भीख मांगना यूं तो कानूनी अपराध है पर सरे आम स्वयं हाई कोर्ट के मार्ग पर भिखारियो की लम्बी कतारे देखी जा सकती है ..दान करना ..भीख देना कही न कही हमारी संस्कृति व पुरातन परंपरा से भी जुड़ा हुआ है ..लोक मनोविज्ञान भी इसके लिये जिम्मेदार है ...इसे पुण्य करना माना जाता है ... अपने पापो का प्रायश्चित भी ... मंदिरो के सामने ..दरगाहो के सामने जाने कितने ही भिखारियो की आजीविका चल रही है . इतनी बड़ी सामाजिक व्यवस्था को केवल एक कानून नही रोक सकता .. इस विषय पर चर्चा होना चाहिये ????? तो क्या सोचते हैं आप ?

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
मुक्तक : आचार्य संजीव 'सलिल'
मुक्तक : आचार्य सन्जीव 'सलिल'
जो दूर रहते हैं वही तो पास होते हैं.
जो हँस रहे, सचमुच वही उदास होते हैं.
सब कुछ मिला 'सलिल' जिन्हें अतृप्त हैं वहीं-
जो प्यास को लें जीत वे मधुमास होते हैं.
*********
पग चल रहे जो वे सफल प्रयास होते हैं
न थके रुक-झुककर वही हुलास होते हैं.
चीरते जो सघन तिमिर को सतत 'सलिल'-
वे दीप ही आशाओं की उजास होते है.
*********
जो डिगें न तिल भर वही विश्वास होते हैं.
जो साथ न छोडें वही तो खास होते हैं.
जो जानते सीमा, 'सलिल' कह रहा है सच देव!
वे साधना-साफल्य का इतिहास होते हैं
**********
जो दूर रहते हैं वही तो पास होते हैं.
जो हँस रहे, सचमुच वही उदास होते हैं.
सब कुछ मिला 'सलिल' जिन्हें अतृप्त हैं वहीं-
जो प्यास को लें जीत वे मधुमास होते हैं.
*********
पग चल रहे जो वे सफल प्रयास होते हैं
न थके रुक-झुककर वही हुलास होते हैं.
चीरते जो सघन तिमिर को सतत 'सलिल'-
वे दीप ही आशाओं की उजास होते है.
*********
जो डिगें न तिल भर वही विश्वास होते हैं.
जो साथ न छोडें वही तो खास होते हैं.
जो जानते सीमा, 'सलिल' कह रहा है सच देव!
वे साधना-साफल्य का इतिहास होते हैं
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चतुष्पदी,
चौपदे,
मुक्तक,
सन्जीव 'सलिल'
क्या विचार हैं आपके ???????
हिन्दी में कवितायें खूब लिखी जा रही है ,जिन्हें काव्य के रचना शास्त्र का ज्ञान नही है वे भी निराला जी के रबड़ छंदो मे लिख कर स्वनाम धन्य कवि हैं ..अपनी पूंजी लगाकर पुस्तके भी छपवा कर ..विजिटिग कार्ड की तरह बांट रहे है ..जुगाड़ टेक्नालाजी के चलते सम्मानित भी हो रहे है ...पर नाटक नही लिखे जा रहे ...उपन्यास नही लिखे जा रहे .. आलोचना का कार्य विश्वविद्यालयो के परिसर तक सीमित हो गया है ..शोध प्रबंध ही हिन्दी का गंभीर लेखन बनता जा रहा है ... लघुकथा को , मुक्तक को गंभीर साहित्य नही माना जाता .. इस सब पर क्या विचार हैं आपके ???????..........vivek ranjan shrivastava , jabalpur
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बुधवार, 26 अगस्त 2009
नव गीत: आचार्य संजीव 'सलिल'
नव गीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
जिनको कीमत नहीं
समय की
वे न सफलता
कभी वरेंगे...
*
समय न थमता,
समय न झुकता.
समय न अड़ता,
समय न रुकता.
जो न समय की
कीमत जाने,
समय नहीं
उसको पहचाने.
समय दिखाए
आँख तनिक तो-
ताज- तख्त भी
नहीं बचेंगे.....
*
समय सत्य है,
समय नित्य है.
समय तथ्य है,
समय कृत्य है.
साथ समय के
दिनकर उगता.
साथ समय के
शशि भी ढलता.
हो विपरीत समय
जब उनका-
राहु-केतु बन
ग्रहण डसेंगे.....
*
समय गिराता,
समय उठाता.
समय चिढाता,
समय मनाता.
दुर्योधन-धृतराष्ट्र
समय है.
जसुदा राधा कृष्ण
समय है.
शूल-फूल भी,
गगन-धूल भी
'सलिल' समय को
नमन करेंगे...
***********
आचार्य संजीव 'सलिल'
जिनको कीमत नहीं
समय की
वे न सफलता
कभी वरेंगे...
*
समय न थमता,
समय न झुकता.
समय न अड़ता,
समय न रुकता.
जो न समय की
कीमत जाने,
समय नहीं
उसको पहचाने.
समय दिखाए
आँख तनिक तो-
ताज- तख्त भी
नहीं बचेंगे.....
*
समय सत्य है,
समय नित्य है.
समय तथ्य है,
समय कृत्य है.
साथ समय के
दिनकर उगता.
साथ समय के
शशि भी ढलता.
हो विपरीत समय
जब उनका-
राहु-केतु बन
ग्रहण डसेंगे.....
*
समय गिराता,
समय उठाता.
समय चिढाता,
समय मनाता.
दुर्योधन-धृतराष्ट्र
समय है.
जसुदा राधा कृष्ण
समय है.
शूल-फूल भी,
गगन-धूल भी
'सलिल' समय को
नमन करेंगे...
***********
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कृष्ण,
जसुदा,
नव गीत: आचार्य संजीव 'सलिल',
राधा,
समय

गीत: अमन dalal
रिश्तो के इस शहर में,
जो हम संवर रहे हैं..
भावो की हर छुवन में,
अब हम सिहर रहे हैं....….रिश्तो के इस शहर में,
राहे-गुजर बड़ी थी,
गमो की इक झडी थी,
के मन ही मन में खिलने
अब हम ठहर रहे हैं,
रिश्तो को इस शहर में,
जो हम सँवर रहे हैं...
ये फूल और ये कलियाँ,
ये गाँव और गलियां,
न जाने क्यों यहाँ पर,
हैं कहते हमको छलियाँ,
पर कुछ कहो यहाँ की,
अब हम खबर रहे हैं....... रिश्तो के इस शहर में
हैं फिर से माँ की लोरी,
रेशम की सुर्ख डोरी,
बचपन के सारे वादे,
जो सच हैं वो बता दें,
बनते बिगड़ते कैसे,
ये हम सुधर रहे हैं..... रिश्तो के इस शहर में,
जब जाओं तुम वहां पर,
मैं गा रहा जहाँ पर,
ये वादा बस निभाना
तुम सबको ये बताना,
सपनो के इस नगर में,
हम कैसे रह रहे हैं......
रिश्तो को इस शहर में,
जो हम सँवर रहे हैं...
जो हम संवर रहे हैं..
भावो की हर छुवन में,
अब हम सिहर रहे हैं....….रिश्तो के इस शहर में,
राहे-गुजर बड़ी थी,
गमो की इक झडी थी,
के मन ही मन में खिलने
अब हम ठहर रहे हैं,
रिश्तो को इस शहर में,
जो हम सँवर रहे हैं...
ये फूल और ये कलियाँ,
ये गाँव और गलियां,
न जाने क्यों यहाँ पर,
हैं कहते हमको छलियाँ,
पर कुछ कहो यहाँ की,
अब हम खबर रहे हैं....... रिश्तो के इस शहर में
हैं फिर से माँ की लोरी,
रेशम की सुर्ख डोरी,
बचपन के सारे वादे,
जो सच हैं वो बता दें,
बनते बिगड़ते कैसे,
ये हम सुधर रहे हैं..... रिश्तो के इस शहर में,
जब जाओं तुम वहां पर,
मैं गा रहा जहाँ पर,
ये वादा बस निभाना
तुम सबको ये बताना,
सपनो के इस नगर में,
हम कैसे रह रहे हैं......
रिश्तो को इस शहर में,
जो हम सँवर रहे हैं...
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
tv रियलिटी शो में दिखाई गई छबि ही यही भारतीय महिलाओं की वास्तविक छबि है?
मेरा मानना है कि tv शो में दिखाई गई छबि भारतीय महिलाओं की वास्तविक छबि बिल्कुल नही है?महिलाओं की छवि फिल्मों और टीवी चैनलों ने सबसे ज्यादा खराब की है.देश की बहुसंख्यक महिलाये आज भी पारंपरिक सांस्कृतिक परिवेश का ही प्रतिनिधित्व करती है ..क्या सोचते है आप ????

सोमवार, 24 अगस्त 2009
लघुकथाएँ: “शिष्टता” और “जंगल में जनतंत्र” श्री प्राण शर्मा और आचार्य संजीव ‘सलिल’
दो लघुकथाएँ: श्री प्राण शर्मा और आचार्य संजीव ‘सलिल’ की लघुकथाएँ Posted by श्रीमहावीर
कुछ दिन पूर्व दिव्य नर्मदा में 'तितली' पर दो रचनाकारों की रचनाएँ आपने पढी और सराही थीं. आज उन्ही दोनों अर्थात श्री प्राण शर्मा जी और सलिल जी की एक-एक लघु कथा “शिष्टता” और “जंगल में जनतंत्र” 'मंथन' दिनांक १९-८-२००९ से प्रस्तुत हैं पाठकीय टिप्पणियों सहित-
लघुकथा
शिष्टता
प्राण शर्मा
किसी जगह एक फिल्म की शूटिंग हो रही थी. किसी फिल्म की आउटडोर शूटिंग हो वहां दर्शकों की भीड़ नहीं उमड़े, ये मुमकिन ही नहीं है. छोटा-बड़ा हर कोई दौड़ पड़ता है उस स्थल को जहाँ फिल्म की आउटडोर शूटिंग हो रही होती है. इस फिल्म की आउटडोर शूटिंग के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ. दर्शक भारी संख्या में जुटे. उनमें एक अंग्रेज भी थे. किसी भारतीय फिल्म की शूटिंग देखने का उनका पहला अवसर था.
पांच मिनटों के एक दृश्य को बार-बार फिल्माया जा रहा था. अंग्रेज महोदय उकताने लगे. वे लौट जाना चाहते थे लेकिन फिल्म के हीरो के कमाल का अभिनय उनके पैरों में ज़ंजीर बन गया था.
आखिर फिल्म की शूटिंग पैक अप हुई. अँगरेज़ महोदय हीरो की ओर लपके. मिलते ही उन्होंने कहा-” वाह भाई, आपके उत्कृष्ट अभिनय की बधाई आपको देना चाहता हूँ.”
एक अँगरेज़ के मुंह से इतनी सुन्दर हिंदी सुनकर हीरो हैरान हुए बिना नहीं रह सका.
उसके मुंह से निकला-”Thank you very much.”
” क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप भारत के किस प्रदेश से हैं?
” I am from Madya Pradesh.” हीरो ने सहर्ष उत्तर दिया.
” यदि मैं मुम्बई आया तो क्या मैं आपसे मिल सकता हूँ?
” Of course”.
” इस के पहले कि विदा लूं आपसे मैं एक बात पूछना चाहता हूँ. आपसे मैंने आपकी भाषा में प्रश्न किये किन्तु आपने उनके उत्तर अंगरेजी में दिए. बहुत अजीब सा लगा मुझको.”
” देखिये, आपने हिंदी में बोलकर मेरी भाषा का मान बढ़ाया, क्या मेरा कर्त्तव्य नहीं था कि अंग्रेजी में बोलकर मैं आपकी भाषा का मान बढ़ाता?”
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लघुकथा
जंगल में जनतंत्र
आचार्य संजीव ‘सलिल’
जंगल में चुनाव होनेवाले थे. मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे.- ‘ जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये. सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये.’
‘ मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद. आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ. ‘ भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया. मंत्री जी खुश हुए.
तभी उल्लू ने आकर कहा- ‘अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं. हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी’ और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया.
विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी.
समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे – ‘जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद. ‘
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कुछ दिन पूर्व दिव्य नर्मदा में 'तितली' पर दो रचनाकारों की रचनाएँ आपने पढी और सराही थीं. आज उन्ही दोनों अर्थात श्री प्राण शर्मा जी और सलिल जी की एक-एक लघु कथा “शिष्टता” और “जंगल में जनतंत्र” 'मंथन' दिनांक १९-८-२००९ से प्रस्तुत हैं पाठकीय टिप्पणियों सहित-
लघुकथा
शिष्टता
प्राण शर्मा
किसी जगह एक फिल्म की शूटिंग हो रही थी. किसी फिल्म की आउटडोर शूटिंग हो वहां दर्शकों की भीड़ नहीं उमड़े, ये मुमकिन ही नहीं है. छोटा-बड़ा हर कोई दौड़ पड़ता है उस स्थल को जहाँ फिल्म की आउटडोर शूटिंग हो रही होती है. इस फिल्म की आउटडोर शूटिंग के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ. दर्शक भारी संख्या में जुटे. उनमें एक अंग्रेज भी थे. किसी भारतीय फिल्म की शूटिंग देखने का उनका पहला अवसर था.
पांच मिनटों के एक दृश्य को बार-बार फिल्माया जा रहा था. अंग्रेज महोदय उकताने लगे. वे लौट जाना चाहते थे लेकिन फिल्म के हीरो के कमाल का अभिनय उनके पैरों में ज़ंजीर बन गया था.
आखिर फिल्म की शूटिंग पैक अप हुई. अँगरेज़ महोदय हीरो की ओर लपके. मिलते ही उन्होंने कहा-” वाह भाई, आपके उत्कृष्ट अभिनय की बधाई आपको देना चाहता हूँ.”
एक अँगरेज़ के मुंह से इतनी सुन्दर हिंदी सुनकर हीरो हैरान हुए बिना नहीं रह सका.
उसके मुंह से निकला-”Thank you very much.”
” क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप भारत के किस प्रदेश से हैं?
” I am from Madya Pradesh.” हीरो ने सहर्ष उत्तर दिया.
” यदि मैं मुम्बई आया तो क्या मैं आपसे मिल सकता हूँ?
” Of course”.
” इस के पहले कि विदा लूं आपसे मैं एक बात पूछना चाहता हूँ. आपसे मैंने आपकी भाषा में प्रश्न किये किन्तु आपने उनके उत्तर अंगरेजी में दिए. बहुत अजीब सा लगा मुझको.”
” देखिये, आपने हिंदी में बोलकर मेरी भाषा का मान बढ़ाया, क्या मेरा कर्त्तव्य नहीं था कि अंग्रेजी में बोलकर मैं आपकी भाषा का मान बढ़ाता?”
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लघुकथा
जंगल में जनतंत्र
आचार्य संजीव ‘सलिल’
जंगल में चुनाव होनेवाले थे. मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे.- ‘ जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये. सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये.’
‘ मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद. आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ. ‘ भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया. मंत्री जी खुश हुए.
तभी उल्लू ने आकर कहा- ‘अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं. हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी’ और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया.
विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी.
समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे – ‘जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद. ‘
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लघुकथा,
सन्जीव 'सलिल'
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात

ज्वलंत प्रश्न.....जिन्ना पर लिखी उनकी किताब जसवंत के निष्कासन की अहम वजह बनी क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात है ....?
मेरा अपना मानना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इतिहास से खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नही होनी चाहिये ...फिर जसवंत जी ने तो जाने क्यो गड़े मुर्दे उखाड़कर ..शायद स्वयं की मुसलमानो के प्रति लिबरल छबि बनाकर अगले प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने के लिये देश द्रोह जैसा कुछ कर डाला है ..क्या नही ..आप क्या सोचते है ?????

रविवार, 23 अगस्त 2009
भजन: भोले घर बाजे बधाई -स्व. शांति देवी वर्मा
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
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स्व. शांति देवी वर्मा
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
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