गीतिका-१
तुमने कब चाहा दिल दरके?
हुए दिवाने जब दिल-दर के।
जिन पर हमने किया भरोसा
वे निकले सौदाई जर के..
राज अक्ल का नहीं यहाँ पर
ताज हुए हैं आशिक सर के।
नाम न चाहें काम करें चुप
वे ही जिंदा रहते मर के।
परवाजों को कौन नापता?
मुन्सिफ हैं सौदाई पर के।
चाँद सी सूरत घूँघट बादल
तृप्ति मिले जब आँचल सरके।
'सलिल' दर्द सह लेता हँसकर
सहन न होते अँसुआ ढरके।
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गीतिका-२
आदमी ही भला मेरा गर करेंगे।
बदी करने से तारे भी डरेंगे.
बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.
कलम थामे, न जो कहते हकीक़त
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।
नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के ख़ुद तरेंगे।
न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
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(अभिनव प्रयोग)
दोहा गीतिका
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख़्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तकरीर
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी ख़तरनाक तक़्सीर
फेंक द्रौपदी ख़ुद रही फाड़-फाड़ निज चीर
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर
प्यार-मुहब्बत ही रहे मज़हब की तफ़सीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय!सियासत रह गयी, सिर्फ़ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
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