दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
शब्द-यात्रा : अजित वडनेरकर
आज की बात आज ही: 'सलिल'
ऐ मनुज!
बोलती है नज़र तेरी, क्या रहा पीछे कहाँ?
देखती है जुबान लेकिन, क्या 'सलिल' खोया कहाँ? 
कोई कुछ उत्तर न देता, चुप्पियाँ खामोश हैं।
होश की बातें करें क्या, होश ख़ुद मदहोश हैं।
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सत्य यही है हम दब्बू हैं...
अपना सही नहीं कह पाते।
साथ दूसरों के बह जाते।
अन्यायों को हंस सह जाते।
और समझते हम खब्बू हैं...
निज हित की अनदेखी करते।
गैरों के वादों पर मरते।
बेटे बनते बाप हमारे-
व्यर्थ समझते हम अब्बू हैं...
सरहद भूल सियासत करते।
पुरा-पड़ोसी फसलें चरते। 
हुए देश-हित 'सलिल' उपेक्षित-
समझ न पाए सच कब्बू हैं...
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लोकतंत्र का यही तकाज़ा
चलो करें मतदान।
मत देना मत भूलना
यह मजहब, यह धर्म।
जो तुझको अच्छा लगे
तू बढ़ उसके साथ।
जो कम अच्छा या बुरा
मत दे उसको रोक।
दल को मत चुनना
चुनें अब हम अच्छे लोग।
सच्चे-अच्छे को चुनो
जो दे देश संवार।
नहीं दलों की, देश
अब तो हो सरकार।
वादे-आश्वासन भुला, भुला पुराने बैर।
उसको चुन जो देश की, कर पायेगा खैर।
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एक शे'र : दोस्त -आचार्य संजीव 'सलिल'
आ रहे हैं दोस्त मिलने के लिए॥
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
POETRY -DR. RAM SHARMA

-DR. RAM SHARMA , MEERUT.
I still remember my childhood,
Love, affection and chide of my mother,
Weeping in a false manner,
Playing in the moonlight,
Struggles with cousins and companions,
Psuedo-chide of my father,
I still have everything with me,
But i miss,
Those childhood memories
OCTOPUS
Man has become octopus,
entangled in his own clutches,
fallen from sky to earth,
new foundation was made,
of rituals,
customs and manners,
tried to come out of the clutches,
but notwaiting for doom`s day
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शिव भजन -सतीश चन्द्र वर्मा, भोपाल
नमामि शंकर, नमामि शंकर...
बदन में भस्मी, गले में विषधर.

नमामि शंकर, नमामि शंकर...
जटा से गंगा की धारा निकली.
विराजे मस्तक पे चाँद टिकली.
सदा विचरते बने दिगंबर,
नमामि शंकर, नमामि शंकर...
तुम्हारे मंदिर में नित्य आऊँ.
तुम्हारी महिमा के गीत गाऊँ.
चढ़ाऊँ चंदन तुम्हें मैं घिसकर,
नमामि शंकर,नमामि शंकर...
तुम्हीं हमारे हो एक स्वामी.
कहाँ हो आओ, हे विश्वगामी!
हरो हमारी व्यथा को आकर,
नमामि शंकर,नमामि शंकर...
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नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल मूल व हिंदी काव्यानुवाद॥, आचार्य संजीव 'सलिल'
.....................................................................................................................................संजीव वर्मा "सलिल"
देवासुरा सुपावनी नमामि सिद्धिदायिनी, .......................................सुर असुरों को पावन करतीं सिद्धिदायिनी,
त्रिपूरदैत्यभेदिनी विशाल तीर्थमेदिनी । ........................................त्रिपुर दैत्य को भेद विहँसतीं तीर्थमेदिनी।
शिवासनी शिवाकला किलोललोल चापला, ................................शिवासनी शिवकला किलोलित चपल चंचला,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।१।। ...............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥१॥
विशाल पद्मलोचनी समस्त दोषमोचनी, ...................................नवल कमल से नयन, पाप हर हर लेतीं तुम,
गजेंद्रचालगामिनी विदीप्त तेजदामिनी ।। ..............................गज सी चाल, दीप्ति विद्युत सी, हरती भय तम।
कृपाकरी सुखाकरी अपार पारसुंदरी, .........................................रूप अनूप, अनिन्द्य, सुखद, नित कृपा करें माँ
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।२।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥२॥
तपोनिधी तपस्विनी स्वयोगयुक्तमाचरी, .......................................सतत साधनारत तपस्विनी तपोनिधी तुम,
तपःकला तपोबला तपस्विनी शुभामला । ..........................योगलीन तपकला शक्तियुत शुभ हर विधि तुम।
सुरासनी सुखासनी कुताप पापमोचनी, ..............................................पाप ताप हर, सुख देते तट, बसें सर्वदा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।३।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥३॥
कलौमलापहारिणी नमामि ब्रम्हचारिणी, .....................................ब्रम्हचारिणी! कलियुग का मल ताप मिटातीं,
सुरेंद्र शेषजीवनी अनादि सिद्धिधकरिणी । ..................................सिद्धिधारिणी! जग की सुख संपदा बढ़ातीं ।
सुहासिनी असंगिनी जरायुमृत्युभंजिनी, ......................................मनहर हँसी काल का भय हर, आयु दे बढ़ा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।४।। .............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥४॥
मुनींद्र वृंद सेवितं स्वरूपवन्हि सन्निभं, ....................................अग्निरूप हे! सेवा करते ऋषि, मुनि, सज्जन,
न तेज दाहकारकं समस्त तापहारकं । .......................................तेज जलाता नहीं, ताप हर लेता मज्जन ।
अनंत पुण्य पावनी, सदैव शंभु भावनी, ....................................शिव को अतिशय प्रिय हो पुण्यदायिनी मैया,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।५।। .............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥५॥
षडंगयोग खेचरी विभूति चंद्रशेखरी, .........................................षडंग योग, खेचर विभूति, शशि शेखर शोभित,
निजात्म बोध रूपिणी, फणीन्द्रहारभूषिणी । .............................आत्मबोध, नागेंद्रमाल युत मातु विभूषित ।
जटाकिरीटमंडनी समस्त पाप खंडनी, .......................................जटामुकुट मण्डित देतीं तुम पाप सब मिटा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।६।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥६॥
भवाब्धि कर्णधारके!, भजामि मातु तारिके! ......................................कर्णधार! दो तार, भजें हम माता तुमको,
सुखड्गभेदछेदके! दिगंतरालभेदके! ...........................................दिग्दिगंत को भेद, अमित सुख दे दो हमको ।
कनिष्टबुद्धिछेदिनी विशाल बुद्धिवर्धिनी, .......................................बुद्धि संकुचित मिटा, विशाल बुद्धि दे दो माँ!,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।७।। .............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥७॥
समष्टि अण्ड खण्डनी पताल सप्त भैदिनी, ......................................भेदे हैं पाताल सात सब अण्ड खण्ड कर,
चतुर्दिशा सुवासिनी, पवित्र पुण्यदायिनी । ........................................पुण्यदायिनी! चतुर्दिशा में ही सुगंधकर ।
धरा मरा स्वधारिणी समस्त लोकतारिणी, ...........................................सर्वलोक दो तार करो धारण वसुंधरा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।८।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥८॥
॥साभारःनर्मदा कल्पवल्ली, ॐकारानंद गिरि॥ संपर्कः दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.काम, ९४२५१८३२४४
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शे'र आचार्य संजीव 'सलिल'
शे'र
आचार्य संजीव 'सलिल'
दोस्त जब मेहरबां हुए हम पर।
दुश्मनों की न फिर ज़ुरूरत थी.
शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - सफर रूप का
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
स्तुति: माँ नर्मदे! -चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध'
चाहिए मुझको तुम्हारा प्यार हे माँ नर्मदे!॥

जन्म-मर तट पर तुम्हारे ज्ञान-गुण सन्नद्ध हो।
धर्म ही अनिवार्यता से विवश हित आबद्ध हो।
प्रगतिशाली दृष्टि से भावी सफलता के लिए-
प्रेरणा ली नित तुम्हारी धार से माँ नर्मदे!॥
दूर-दूर गया सदा निज धर्म की अनुरक्ति से।
पा सदा कुछ स्वर्ण-धन सत्संग श्रम सद्भक्ति से।
कुछ देश, कुछ परिवेश कुछ परिवार के सुख के लिए-
पा लोकसेवा का सहज आधार हे माँ नर्मदे!॥
है सदा गति में मेरी कर्तव्यबोधी भावना।

इसी से कर सदा नित श्रम समय की आराधना।
कुछ सुखद संयोग संबल नेह बल विश्वास भी-
मिल सका अब तक सदा साभार हे माँ नर्मदे!॥
शान्ति-सुख की कामना ले, आ गया फ़िर मैं यहाँ।
साधना का यह पुरातन क्षेत्र है पवन महा।
दीजिये आशीष हो साहित्य सेवा के लिए-
रस-भावना अभिव्यक्ति पर अधिकार हे माँ नर्मदे!॥
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बाल गीत: भोर की धूप - पुष्पलता शर्मा, अहमदाबाद
नीचे तो आ।
झाडों के ऊपर
तू सोना झरा॥
बदल के पीछे से
सोनेरी तीर छोड़।
घास फूल पत्तों में
जान तो जगा॥

मन्दिर में सोते जो
राम, कृष्ण, शंकर,
खिड़की से झांक-झांक
उन्हें तो जगा॥
भोर हुई, रात गयी
नभ से सोना बरसे,
सोने की घंटी का,
गीत तो सुना॥
चिडियों की तिहुर-तिहुर,
कौवों की कांव-कांव,
पीपल के पत्तों में
नीचे की धूप-छाँव॥
सड़कों पर, बागों पर
नगर के तालाबों पर,
सूखऐ और खिले हुए
मोगरा गुलाबों पर॥
रोते पर, हंसते पर
भूख से बिलखते पर,
कोमल से ममतामय
हाथों से सोनबाई
मरहम सी, सोने की,
परत तो चढा॥
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बोध कथा: ईश्वर का निवास -मंजू मिश्रा, अहमदाबाद.
सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'
सूक्ति कोष
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के. 
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
नियाज़ जी कहते हैं- 'साहित्य उतना हे सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। ..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।'
आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियां शेक्सपिअर के साहित्य से-
action कार्य:
'if to do werw as easy to know what were good to do, chapels ha dbeen churches, and poor man's cottages princes' palaces.'
यदि सत्कार्य के ज्ञान के समान उसका संपादन भी सरल होता तो साधारण उपासना गृह भी गिरिजाघर तथा दीं की कुटी भी राज भवन ही होते।
अगर ज्ञान के सदृश ही, होता कार्य सुजान।
पूजाघर मन्दिर, कुटी होती महल महान ॥
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शब्द-यात्रा, अजित वडनेरकर
शब्द-यात्रा
अजित वडनेरकर
अ गर आप संगीत प्रेमी हैं और बाऊल संगीत नहीं सुना तो आपको अभागा माना जा सकता है । क्योंकि बाऊल तो भक्ति संगीत की एक ऐसी धारा है जिसमें डुबकी लगाए बिना गंगासागर में स्नान का पुण्य भी शायद निरर्थक है। बंगाल भूमि से उपजे इस भक्तिनाद में माधुर्य और समर्पण का ऐसा राग-विराग है जो श्रोता पर परमात्मा से मिलने की उत्कट अभिलाषा का रहस्यवादी प्रभाव छोड़ता है।
बाऊल भी इस देश की अजस्र निर्गुण भक्ति धारा के महान अनुगामी हैं जिनमें सूफी फ़कीर भी हैं तो वैष्णव संत भी। बाऊल बंगाल प्रांत के यायावर भजनिक हैं। ये आचार-व्यवहार से वैष्णव परिपाटी के होते हैं और चैतन्यमहाप्रभु की बहायी हुई भक्तिधारा का इन पर प्रभाव स्पष्ट है। मगर इन्हें पूरी तरह से वैष्णव कहना गलत होगा। बाऊल सम्प्रदाय में हिन्दू जोगी भी होते हैं और मुस्लिम फकीर भी। ये गांव-गांव जाकर एकतारे के साथ निर्गुण-निरंजन शैली के गीत गाते हैं। न सिर्फ बंगाल भर में बल्कि अब तो दुनियाभर में ये बेहद लोकप्रिय हैं।
आप अगर बाऊल संगीत सुन सकें तो हिन्दी फिल्मों के कई गीत याद आ जाएंगे, जो इस सरल संगीत शैली से प्रभावित हैं। इस सम्प्रदाय में सूफी मत से लेकर बौद्धों के तंत्र-मंत्रवादी रहस्यवाद का भी प्रभाव मिलता है। वैष्णवों की प्रेमपगी भक्तिसाधना तो इनकी पहली पहचान ही है।
बाऊल शब्द के विषय में कई तरह के मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार यह शब्द फारस की सूफी परम्परा बा’अल से निकला है। यह पंथ बारहवीं सदी में यमन के प्रसिद्ध सूफी संत अली बा अलावी अल हुसैनी Ali Ba'Alawi al-Husaini के नाम से शुरू हुआ था। इस्लाम की सहज-सरल समानतावादी दृष्टि की शिक्षा देने वाले इस पंथ के सूफियों का भारत आगमन हुआ और बंगाल की संगीतमय पृष्ठभूमि में इन्हें अपने अध्यात्म को जोड़ते देर नहीं लगी।
एक अन्य मत के अनुसार बंगाल में बाऊल संगीत कब से शुरू हुआ कहना कठिन है मगर इसका रिश्ता संस्कृत के वातुल शब्द से है। वातुल बना है वात् धातु से जिसका मतलब है वायु, हवा। गौरतलब है कि शरीर के तीन प्रमुख दोषों में एक वायुदोष भी माना जाता है। बाहरी वायु और भीतरी वायु शरीर और मस्तिष्क पर विभिन्न तरह के विकार उत्पन्न करती है। आयुर्वेद में इस किस्म के बहुत से रोगों का उल्लेख है। वातुल शब्द में वायु से उत्पन्न रोग का ही भाव है। आमतौर पर जिसकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं रहती उसके बारे में यही कहा जाता है कि इसे गैबी हवा लग गई है। बहकना शब्द पर ध्यान दीजिए। इसे आमतौर पर पागलपन से, उन्माद से ही जोड़ा जाता है। संस्कृत की वह् धातु का अर्थ भी वायु ही होता है अर्थात जो ले जाए। वायु की गति के आधार पर यह शब्द बना है। वह् का रूप हुआ बह जिससे बहाव, बहना या बहक-बहकना जैसे शब्द बने।
किसी रौ में चल पड़ना, या जिसका मन-मस्तिष्क किसी खास लहर पर सवार रहता हो, उसके संदर्भ में ही यह क्रिया बहक या बहकना प्रचलित हुई। जाहिर है, यहा वायुरोग के लिए ही संकेत है। वातुल के दार्शनिक भाव पर गौर करें। अपनी धुन में रहनेवाले, मनमौजी लोगों को भी समाज में पागल ही समझा जाता है। तमाम सूफी संतों, फकीरों, औलियाओं और पीरों की शख्सियत रहस्यवादी रही है। परमतत्व के प्रति इनकी निराली सोच, उसे पाने के अनोखे मगर आसान रास्ते और प्रचलित आराधना पद्धतियों-आराध्यों से हटकर अलग शैली में निर्गुण भक्ति का रंग इन्हें बावला साबित करने के लिए पर्याप्त था। स्पष्ट है कि वातुल से ही बना है बाऊल। इसी तरह वातुला से बना है बाउला या बावला। इसका एक अन्य रूप है बावरा। प्रख्यात गायक बैजू बावरा के नाम के साथ जुड़ा बावरा शब्द इसी वातुल से आ रहा है। बैजू की संगीत के प्रति दीवानगी के चलते उसे दीनो-दुनिया से बेखबर बनाती चली गई। सामान्य अर्थों में वह सामाजिक नहीं था, सो वातरोगी के लिए, उन्मादी के लिए प्रचलित बावला शब्द अपने दौर के एक महान गायक की पदवी बन गया।
किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर चाहे आह्लादकारी हों या विशादकारी, प्रभावित व्यक्ति के विचित्र क्रियाकलापों को बौराना कहा जाता है। कुछ लोग इसे आम्रबौर से जोड़ते हैं। यह ठीक नहीं है। यह बौराना दरअसल बऊराना ही है यानी वातुल से उपजे बाऊल की कड़ी का ही शब्द। जिस मूल से बावरा जैसा शब्द बना है, उससे ही बौराना-बऊराना भी बना है। एक अन्य दृष्टकोण के अनुसार निर्गुण वैष्णव भक्तिमार्गियों के इस विशिष्ट सम्प्रदाय के लिए बाऊल शब्द के मायने इनकी उत्कटता, लगन और परमतत्व से मिलने की व्याकुलता है। व्याकुल शब्द ने ही ब्याकुल और फिर बाऊल रूप लिया। यूं देखा जाए तो वात या वातुल शब्द से बाऊल की व्युत्पत्ति का आधार मुझे ज्यादा तार्किक लगता है क्योंकि उसके पीछे भाषावैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण अधिक प्रभावी है। अली सरदार जा़फरी भी अपनी कबीरबानी में इन्हें बाऊल=बावला अर्थात उन्मत्त लिखते हैं जो सभी परम्परागत बंधनों से मुक्त होकर हवा की तरह मारे मारे फिरते हैं।
... अली सरदार ज़ाफरी साहब ने एके सेन की हिन्दुइज्म पुस्तक से एक बेहतरीन नजी़र दी है जो बाऊल क्या हैं, यह बताती है। सेन साहब ने ज्वार के वक्त गंगातट पर बैठे एक बाऊल से पूछा कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना वृत्तांत क्यों नहीं लिखते। बाऊल ने कहा कि हम तो सहजगामी है, पदचिह्न छोड़ना ज़रूरी नहीं समझते। उसी वक्त पानी उतरा और मांझी पानी में नाव धकेलने लगे। बाऊल ने सेन महाशय को समझाया, ‘क्या भरे पानी में कोई नाव निशान छोड़ती है ? केवल वही मांझी जो मजबूरी की वजह से कीचड़ में नाव चलाते हैं, निशान छोड़ते हैं। बाऊल केवल बाऊल है। वह किसी भी वर्ग से आए।
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ग़ज़ल, मनु 'बेतख्ल्लुस
ग़ज़ल
-मनु 'बेतख्ल्लुस', दिल्ली
गमे-हस्ती के सौ बहाने हैं,
ख़ुद ही अपने पे आजमाने हैं।
सर्द रातें गुजारने के लिए,
धूप के गीत गुनगुनाने हैं।
कैद सौ आफ़ताब तो कर लूँ,
क्या मुहल्ले के घर जलाने हैं।
आ ही जायेंगे वो चराग ढले,
और उनके कहाँ ठिकाने हैं।
फ़िक्र पर बंदिशें हजारों हैं,
सोचिये, क्या हसीं जमाने हैं।
तुझ सा मशहूर हो नहीं सकता,
तुझ से हटकर, मेरे फ़साने हैं।
**************************
मुक्तिका: सो जाइए -- संजीव 'सलिल'
सो जाइए
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए।
नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए।
चंद्रमा में चांदनी भी और धब्बे-दाग भी।
चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए।
होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे।
भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए।
खुदा बनने था चला, इंसां न बन पाया 'सलिल'।
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए।
एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर 'सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए।
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सोमवार, 13 अप्रैल 2009
कुण्डली -आचार्य संजीव 'सलिल'
हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- न दाल गलेगी।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
मिलती है ऊँचाई केवल नीचाई से.
पान-पन्हैया और आम चुनाव- संजीव 'सलिल'
पान बन गया लबों की, युगों-युगों से शान।
रही पन्हैया शेष थी, पग तज आयी हाथ।
'सलिल' मिसाइल बन चली, छूने सीधे माथ।
जब-जब भारत भूमि में होंगें आम चुनाव।
तब-तब बढ़ जायेंगे अब जूतों के भाव।
- आचार्य संजीव 'सलिल' सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
समाचार : शोध-प्रश्नों के उत्तर दीजिये
आत्मीय!
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
नमन नर्मदा :
सुशीला शुक्ला
गुलों स्व खेलती
पहाडों पर उछलती
चंचल बाला सी
खिलखिलाती बहती हो।

सुबह सूरज से खेल
रात तारों को ओढ़
चन्द्र तकिया लगा
परी बन लुभाती हो
फूलों को अपने
आगोश में समेटकर
नेह नर धरती पर
अपने बिखेर कर
लहराती फसलों में
झूम रहे जंगल में
हरियाली से झाँक रहा
तेरा अस्तित्व माँ

लहरों में तैरती
इतिहास की परछाइयाँ
मं को डुबोती हैं
तेरी गहराइयां
वायु के झकोरे जब
छेदते तरंगों को
जल तरंग सी बजकर
कानों को छलती हो
मंगलाय मन्त्र ऐसे
वाणी से झरते हैं
सदियों से जाप करें
जैसे तपस्विनी
धरती को परस रही
परस सा नीर निज
मेरे शब्दों में ढली
बनीं कविता कामिनी।
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हास्य रचना स्वादिष्ट निमंत्रण तुहिना वर्मा 'तुहिन'
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते। यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं। मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आये वो भी पछताए...जो न आये वह भी पछताए क्योंकि आपकी सिर्चाधी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं। ये रस मलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेडा शहर, कचौडी नगर, के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिन्गौडीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईन्प्रसाद के साथ होना तय हुआ है। चांदनी चौक में चमचम चाची को चांदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबदा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए आकर डकार रहे हैं। जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दही-बड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूर्पाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे. रसमलाई धरमशाला में सदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवई बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा. शरबती बी के बदबख्त हाथों से भांग पीकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाती के साथ मीठे मसाले वाला पान और नशीला पान बहार लिए आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली रबडी मलाई
