कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

शब्द-यात्रा : अजित वडनेरकर

स रपत एक खास किस्म की घास का नाम हैं। पहाड़ों से मैदानों तक समूचे हिन्दुस्तान में यह हर उस जगह पाई जाती है जहां जलस्रोत होते हैं। खास तौर पर पानी के जमाव वाले इलाके, कछारी क्षेत्र, उथले पानी वाले इलाकों में इसकी बढ़वार काफी होती है। सरपत घास ज़रूर है पर वनस्पतिशास्त्र की नजर में बालियों वाली सारी वनस्पतियां घास की श्रेणी में ही आती है। गेहूं से धान तक तक सब। हां, सबसे प्रसिद्ध घास है गन्ना। उससे लोकप्रिय और मीठी वनस्पति और कोई नहीं। जहां तक भीमकाय घास का सवाल है, बांसों के झुरमुट को घास कहने का मन तो नहीं करता, पर है वह भी घास ही। सरपत भी सामान्य घास की तुलना में काफी बड़ी होती है। इसे झाड़ी कहा जा सकता है जो नरकुल की तरह ही होती हैं। आमतौर पर इनकी ऊंचाई दो-तीन फुट तक होती हैं। इसकी पत्तियां इतनी तेज होती हैं कि बदन छिल जाता है। बचपन में अक्सर बरसाती नालों को पार करते हुए हमने इससे अपनी कुहनियां और पिंडलियों पर घाव बनते देखे हैं। इसकी पत्तियां बेहद चमकदार होती हैं और सुबह के वक्त इसकी धार पर ओस की बूंदें मोतियों की माला सी खूबसूरत लगती हैं। बसोर जाति के लोग सरपत से कई तरह की वस्तुएं बनाते हैं जिनमें डलिया, बैग, चटाई, सजावटी मैट, बटुए, सूप हैं। हां, झोपड़ियों के छप्पर भी इनसे बनते हैं। सरपत शब्द बना है संस्कृत के शरःपत्र से। शरः का अर्थ होता है बाण, तीर, धार, चोट, घाव। पत्र का मतलब हुआ पत्ता यानी ऐसी घास जिसके पत्ते तीर की तरह नुकीले हों। सरपत का पत्ते को तीर की तुलना में तलवार या बर्छी कहना ज्याद सही है क्योंकि तीर तो सिर्फ अपने सिरे पर ही नुकीला होता है, सरपत तो अपनी पूरी लंबाई में धारदार होती है। सरपत के चरित्र को बतानेवाले इतने सारे अर्थ उसने यूं ही नहीं खोज लिए। ये तमाम अर्थ बताते हैं कि प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। इसीलिए इसे शरः कहा गया है। सभ्यता क्रम में मनुष्य ने सरपत से ही शत्रु की देह पर जख्म बनाए होंगे, उसे चीरा होगा। सिरे पर तीक्ष्णधार वाला तीर तो आत्मरक्षा की उन्नत तकनीक है जिसे विकासक्रम में उसने बाद में सीखा। तीर की तीक्ष्णता कृत्रिम और सायास है जबकि शर में तीर का भाव और गुण प्राकृतिक है। जाहिर है तीर का शरः नामकरण शरः घास के गुणो के आधार पर बाद में हुआ होगा। शरः बना है शृ धातु से जिसका मतलब होता है फाड़ डालना, टुकड़े टुकड़े कर देना, क्षति पहुंचाना आदि। हिन्दी संस्कृत में शरीर के लिए देह और काया जैसे शब्द भी हैं मगर सर्वाधिक इस्तेमाल होता है शरीर का। यह शरीर भी इसी शृ धातु से जन्मा है जिसका अर्थ नष्ट करना, मार डालना, क्षत-विक्षत करना होता है। इस शब्द संधान से साबित होता है कि चाहे देह के लिए शरीर शब्द आज सर्वाधिक पसंद किया जाता हो, मगर प्राचीनकाल में इसका आशय मृत देह से अर्थात शव से ही था। मनुष्य के विकासक्रम में इस शब्द को देखें तो पता चलता है कि प्राचीन मनुष्य के भाग्य में अप्राकृतिक कारणों से मृत्यु अधिक थी। वह राह चलते किसी मनुष्य से लेकर पशु तक का शिकार बनता था। यहां तक कि किन्हीं समुदायों में सामान्य मृत्यु होने पर भी शवों को वन्यप्राणियों का भोग लगाने के लिए उन्हें आबादी से दूर लावारिस छोड़ दिया जाता था ऐसे अभागों की क्षतिग्रस्त देह के लिए प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। ही शृ धातु से बने शरीर का अभिप्राय था। घास की एक और प्रसिद्ध किस्म है सरकंडा। इसमें भी चीर देने वाला शरः झांक रहा है। यह बना है शरःकाण्ड से। काण्ड का मतलब होता है हिस्सा, भाग, खण्ड आदि। सरकंडे की पहचान ही दरअसल उसकी गांठों से होती है। सरपत को तो मवेशी नहीं खाते हैं मगर गरीब किसान सरकंडा ज़रूर मवेशी को खिलाते हैं या इसकी चुरी बना कर, भिगो कर पशुआहार बनाया जाता है। वैसे सरकंडे से बाड़, छप्पर, टाटी आदि बनाई जाती है। सरकंडे के गूदे और इसकी छाल से ग्रामीण बच्चे खेल खेल में कई खिलौने बनाते हैं। हमने भी खूब खिलौने बनाए हैं। बल्कि मैं आज भी इनसे कुछ कलाकारी दिखाने की इच्छा रखता हूं, पर अब शहर में सरकंडा ही कहीं नजर नहीं आता। खरपतवार भी इसी शरःपत्र से बना शब्द लगता है। संस्कृत-हिन्दी में श वर्ण के ख में बदलने की प्रवृत्ति है। खरपतवार भी खेतों में फसलों के बीच उगने वाली हानिकारक घास-पात ही होती है। आमतौर पर इसे उखाड़ कर मेड़ पर फेंक दिया जाता है जिसे बाद में जलाने या खाद बनाने के में काम लिया जाता है।

आज की बात आज ही: 'सलिल'

आज की बात आज ही:

ऐ मनुज!

बोलती है नज़र तेरी, क्या रहा पीछे कहाँ?

देखती है जुबान लेकिन, क्या 'सलिल' खोया कहाँ?


कोई कुछ उत्तर न देता, चुप्पियाँ खामोश हैं।

होश की बातें करें क्या, होश ख़ुद मदहोश हैं।

**************************



सत्य यही है हम दब्बू हैं...

अपना सही नहीं कह पाते।

साथ दूसरों के बह जाते।

अन्यायों को हंस सह जाते।

और समझते हम खब्बू हैं...

निज हित की अनदेखी करते।

गैरों के वादों पर मरते।

बेटे बनते बाप हमारे-

व्यर्थ समझते हम अब्बू हैं...

सरहद भूल सियासत करते।

पुरा-पड़ोसी फसलें चरते।


हुए देश-हित 'सलिल' उपेक्षित-

समझ न पाए सच कब्बू हैं...


**********************

लोकतंत्र का यही तकाज़ा
चलो करें मतदान।

मत देना मत भूलना
यह मजहब, यह धर्म।

जो तुझको अच्छा लगे
तू बढ़ उसके साथ।

जो कम अच्छा या बुरा
मत दे उसको रोक।

दल को मत चुनना
चुनें अब हम अच्छे लोग।

सच्चे-अच्छे को चुनो
जो दे देश संवार।

नहीं दलों की, देश
अब तो हो सरकार।

वादे-आश्वासन भुला, भुला पुराने बैर।
उसको चुन जो देश की, कर पायेगा खैर।



********************************

एक शे'र : दोस्त -आचार्य संजीव 'सलिल'

ऐ 'सलिल' तू दिल को अब मजबूत कर ले।

आ रहे हैं दोस्त मिलने के लिए॥

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

POETRY -DR. RAM SHARMA


CHILDHOOD MEMORIES

-DR. RAM SHARMA , MEERUT.



I still remember my childhood,



Love, affection and chide of my mother,



Weeping in a false manner,



Playing in the moonlight,



Struggles with cousins and companions,



Psuedo-chide of my father,



I still have everything with me,



But i miss,



Those childhood memories



OCTOPUS



Man has become octopus,



entangled in his own clutches,



fallen from sky to earth,



new foundation was made,



of rituals,



customs and manners,



tried to come out of the clutches,



but notwaiting for doom`s day



****************************

शिव भजन -सतीश चन्द्र वर्मा, भोपाल

नमामि शंकर
नमामि शंकर, नमामि शंकर...

बदन में भस्मी, गले में विषधर.
नमामि शंकर, नमामि शंकर...

जटा से गंगा की धारा निकली.
विराजे मस्तक पे चाँद टिकली.
सदा विचरते बने दिगंबर,
नमामि शंकर, नमामि शंकर...

तुम्हारे मंदिर में नित्य आऊँ.
तुम्हारी महिमा के गीत गाऊँ.
चढ़ाऊँ चंदन तुम्हें मैं घिसकर,
नमामि शंकर,नमामि शंकर...

तुम्हीं हमारे हो एक स्वामी.
कहाँ हो आओ, हे विश्वगामी!
हरो हमारी व्यथा को आकर,
नमामि शंकर,नमामि शंकर...
=====================

नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल मूल व हिंदी काव्यानुवाद॥, आचार्य संजीव 'सलिल'

नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल मूलपाठ॥ .............................................॥नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल हिंदी काव्यानुवाद॥
.....................................................................................................................................संजीव वर्मा "सलिल"
देवासुरा सुपावनी नमामि सिद्धिदायिनी, .......................................सुर असुरों को पावन करतीं सिद्धिदायिनी,
त्रिपूरदैत्यभेदिनी विशाल तीर्थमेदिनी । ........................................त्रिपुर दैत्य को भेद विहँसतीं तीर्थमेदिनी।
शिवासनी शिवाकला किलोललोल चापला, ................................शिवासनी शिवकला किलोलित चपल चंचला,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।१।। ...............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥१॥

विशाल पद्मलोचनी समस्त दोषमोचनी, ...................................नवल कमल से नयन, पाप हर हर लेतीं तुम,
गजेंद्रचालगामिनी विदीप्त तेजदामिनी ।। ..............................गज सी चाल, दीप्ति विद्युत सी, हरती भय तम।
कृपाकरी सुखाकरी अपार पारसुंदरी, .........................................रूप अनूप, अनिन्द्य, सुखद, नित कृपा करें माँ‍
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।२।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥२॥

तपोनिधी तपस्विनी स्वयोगयुक्तमाचरी, .......................................सतत साधनारत तपस्विनी तपोनिधी तुम,
तपःकला तपोबला तपस्विनी शुभामला । ..........................योगलीन तपकला शक्तियुत शुभ हर विधि तुम।
सुरासनी सुखासनी कुताप पापमोचनी, ..............................................पाप ताप हर, सुख देते तट, बसें सर्वदा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।३।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥३॥

कलौमलापहारिणी नमामि ब्रम्हचारिणी, .....................................ब्रम्हचारिणी! कलियुग का मल ताप मिटातीं,
सुरेंद्र शेषजीवनी अनादि सिद्धिधकरिणी । ..................................सिद्धिधारिणी! जग की सुख संपदा बढ़ातीं ।
सुहासिनी असंगिनी जरायुमृत्युभंजिनी, ......................................मनहर हँसी काल का भय हर, आयु दे बढ़ा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।४।। .............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥४॥

मुनींद्र ‍वृंद सेवितं स्वरूपवन्हि सन्निभं, ....................................अग्निरूप हे! सेवा करते ऋषि, मुनि, सज्जन,
न तेज दाहकारकं समस्त तापहारकं । .......................................तेज जलाता नहीं, ताप हर लेता मज्जन ।
अनंत ‍पुण्य पावनी, सदैव शंभु भावनी, ....................................शिव को अतिशय प्रिय हो पुण्यदायिनी मैया,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।५।। .............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥५॥

षडंगयोग खेचरी विभूति चंद्रशेखरी, .........................................षडंग योग, खेचर विभूति, शशि शेखर शोभित,
निजात्म बोध रूपिणी, फणीन्द्रहारभूषिणी । .............................आत्मबोध, नागेंद्रमाल युत मातु विभूषित ।
जटाकिरीटमंडनी समस्त पाप खंडनी, .......................................जटामुकुट मण्डित देतीं तुम पाप सब मिटा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।६।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥६॥

भवाब्धि कर्णधारके!, भजामि मातु तारिके! ......................................कर्णधार! दो तार, भजें हम माता तुमको,
सुखड्गभेदछेदके! दिगंतरालभेदके! ...........................................दिग्दिगंत को भेद, अमित सुख दे दो हमको ।
कनिष्टबुद्धिछेदिनी विशाल बुद्धिवर्धिनी, .......................................बुद्धि संकुचित मिटा, विशाल बुद्धि दे दो माँ!,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।७।। .............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥७॥

समष्टि अण्ड खण्डनी पताल सप्त भैदिनी, ......................................भेदे हैं पाताल सात सब अण्ड खण्ड कर,
चतुर्दिशा सुवासिनी, पवित्र पुण्यदायिनी । ........................................पुण्यदायिनी! चतुर्दिशा में ही सुगंधकर ।
धरा मरा स्वधारिणी समस्त लोकतारिणी, ...........................................सर्वलोक दो तार करो धारण वसुंधरा,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।८।। ..............................भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥८॥

॥साभारःनर्मदा कल्पवल्ली, ॐकारानंद गिरि॥ संपर्कः दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.काम, ९४२५१८३२४४
============================ ================================

शे'र आचार्य संजीव 'सलिल'

शे'र

आचार्य संजीव 'सलिल'

दोस्त जब मेहरबां हुए हम पर।

दुश्मनों की न फिर ज़ुरूरत थी.

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - सफर रूप का

रू प का रिश्ता हमेशा से चमक से रहा है। आमतौर पर रूप में चेहरा या मुख ही पहचाना जाता है मगर रूप शब्द की अर्थवत्ता व्यापक है। संस्कृत की रुप्य धातु से बना है रूप जिसका अर्थ होता है चमक, चेहरा, चांदी। सिक्के के अर्थ में रौप्यमुद्रा प्रचलित थी जिससे रुपया शब्द बना। धातु की जगह कागज़ का रुपया अब आम है। चांदी की आभा को सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है सो चांदी सी आभा वाले चेहरे को ही रूप कहा गया। खूबसूरत महिला कहलाई रूपा। गौरतलब है कि रुप्य से निकले ये तमाम शब्द उर्दू में भी प्रचलित हैं। चमक, प्रकाश, आभा जैसी अर्थवत्ता के साथ ही मुख के लिए रुख़ और गालों के लिए रुख़सार शब्द भी बोले जाते हैं। यह मूल रूप से फारसी के शब्द हैं मगर हिन्दी-उर्दू में समान भाव से इस्तेमाल होते हैं। इंडो-ईरानी भाषा परिवार से जुड़े ज्यादातर शब्द भारोपीय परिवार के ही हैं क्योंकि इंडो-ईरानी परिवार, इंडो यूरोपीय भाषा परिवार का ही एक उपवर्ग है। रुख शब्द को पहले हम इंडो-ईरानी परिवार के दायरे में देखते हैं। संस्कृत में एक धातु है रुच् जिसमें चमक, आभा का भाव है। संस्कृत की ही बहन अवेस्ता, जिसे ईरानी परिवार की भाषाओं में सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। अवेस्ता भी वैदिकी भाषा जितनी ही पुरातन है। रुच् के समकक्ष अवेस्ता में एक धातु है रोचना और यहां भी चमक, प्रकाश जैसे भाव ही उद्घाटित हो रहे हैं। संस्कृत में भी रोचना शब्द है जिसमें उज्जवल आकाश, अंतरिक्ष का भाव है। संस्कृत रुच् से बना रुचि शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है। यू तो रुचि शब्द का सीधा सीधा अर्थ है दिलचस्पी, शौक, पसंद, इच्छा, स्वाद, ज़ायका आदि। मगर इसका धात्विक अर्थ है चमक, सौन्दर्य, रूप आदि। रुचि से जुड़े शेष अर्थों पर ध्यान दें तो स्पष्ट होता है कि इनमें भी इसके धात्विक अर्थ ही झांक रहे हैं। जो कुछ भी रुचिकर है वह सब हमारे लिए प्रसन्नता और सौंदर्य की रचना करता है। सौंदर्य वहीं है जो नुमांयां हो, नज़र आए। चेहरे की चमक ही सौन्दर्य है, उसमें नाक-नक्श की बनावट गौण हो जाती है। रुच या रोचना से ही बना है प्राचीन फारसी का रोचः शब्द जिसका अगला रूप हुआ रोसन और फिर बना रोशन, रोशनी जो फारसी, उर्दू और हिन्दी का प्रकाश, चमक के अर्थ में जाना-पहचान लफ्ज है। संस्कृत के रोचन शब्द की रोशन से समानता पर गौर करें जिसका मतलब भी उज्जवलता, प्रकाश ही होता ... जो ऱोशनी में आए, वही रुख है। यूं रुख में चेहरे का भाव है पर इसका मूल अर्थ उस आयाम से है जो प्रकाशित है। इसीलिए हम रुख शब्द का प्रयोग कई तरह से करते हैं।... है। रोशनदान, रुखे-रोशन, रोशन-दिमाग़ जैसे कई चिरपरिचित शब्द युग्म हमें सहज ही याद आ सकते हैं। सियाही अथवा इंक के लिए फारसी के रोशनाई शब्द से भी हिन्दीभाषी परिचित हैं। यह दिलचस्प है कि स्याही या सियाही का अर्थ होता है कालिख या काला। आमतौर पर काग़ज पर काले रंग से ही लिखा जाता है इसीलिए उसे सियाही कहते हैं। मगर यह शब्द इतना लोकप्रिय हुआ कि अब लाल, नीली, पीली, हरी यानी हर रंग की रोशनाई को सियाही ही कहा जाता है। सियाही के अर्थ में रोशनी से बने रोशनाई में लिखावट को उद्घाटित करने का भाव है। क्योंकि गहरे रंग की वजह से ही लिखावट प्रकाश में आती है, रोशन होती है और पठनीय हो पाती है इसलिए रोशनाई नाम सार्थक है। देवनागरी लिपि में च वर्णक्रम में ही आता है ज। भाषा विज्ञान में अक्सर एक वर्णक्रम के व्यंजनों की ध्वनियों में परिवर्तन होता है। रुच या रोच् का अगला परिवर्तन है रोज़। गौर करें कि हम दिन अथवा वार के लिए दिन भर हम रोज़ शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं। यह बना है रुच् के रुज़ रूप से। रुज़ का अर्थ होता है चमक, प्रकाशित। दिन का अर्थ भी चमक या प्रकाश ही होता है इसीलिए सूर्य का एक नाम दिनकर है अर्थात जो उजाला करे। यही भाव रूज़ से बने रोज़ में है और इसलिए रोज़ का अर्थ होता है दिन। दैनिक के लिए इसका रूप होता है रोज़ाना। इसके अलावा रोजनदारी, रोज़गार, हररोज़, शाहरोज़, रोज़नामचा जैसे कई आमफ़हम शब्द इसी श्रंखला के हैं। रुच् का अगला रूप हुआ रुश् और फिर बना रुख जिसमें चेहरे या रूप का अभिप्राय छिपा है। रुख का रोशनी से रिश्ता साफ है। किसी भी इन्सान की शिनाख्त उसके मुख से ही होती है। किसी भी काया की पहचान जब हम उसकी शख्सियत के साथ करते हैं तो सबसे पहले उसका मुखड़ा ही नज़र आता है। जो ऱोशनी में आए, वही रुख है। यूं रुख में चेहरे का भाव है पर इसका मूल अर्थ उस आयाम से है जो प्रकाशित है। इसीलिए हम रुख शब्द का प्रयोग कई तरह से करते हैं। रुख बदलना मुहावरे का मतलब होता है नई परिस्थिति सामने आना। यहां रुख का अर्थ आयाम से ही है जिसमें नज़रिया, दृष्टिकोण जैसे भाव शामिल हैं। जब किसी पर गुस्सा हुआ बगैर नाराजगी उजागर करनी हो तो उसकी ओर से मुंह फेर लिया जाता है। इसमें उपेक्षा का भाव होता है। फारसी का बेरूखी शब्द रुख से ही बना है जिसका मतलब मुंह फेरना या उपेक्षा जताना ही है। विदा लेने के लिए रुख़सत शब्द है जिसमें जाने का भाव है। क्योंकि उस वक्त चेहरा पलटना पड़ता है। चांद जैसे मुखड़े के लिए माहरुख और राजाओं जैसा के अर्थ में शाहरुख शब्द इसी कड़ी का हिस्सा हैं।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

स्तुति: माँ नर्मदे! -चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध'

आ गया हूँ फ़िर तुम्हारे द्वार मैं माँ नर्मदे!
चाहिए मुझको तुम्हारा प्यार हे माँ नर्मदे!॥

जन्म-मर तट पर तुम्हारे ज्ञान-गुण सन्नद्ध हो।
धर्म ही अनिवार्यता से विवश हित आबद्ध हो।
प्रगतिशाली दृष्टि से भावी सफलता के लिए-
प्रेरणा ली नित तुम्हारी धार से माँ नर्मदे!॥

दूर-दूर गया सदा निज धर्म की अनुरक्ति से।
पा सदा कुछ स्वर्ण-धन सत्संग श्रम सद्भक्ति से।
कुछ देश, कुछ परिवेश कुछ परिवार के सुख के लिए-
पा लोकसेवा का सहज आधार हे माँ नर्मदे!॥

है सदा गति में मेरी कर्तव्यबोधी भावना।
इसी से कर सदा नित श्रम समय की आराधना।
कुछ सुखद संयोग संबल नेह बल विश्वास भी-
मिल सका अब तक सदा साभार हे माँ नर्मदे!॥

शान्ति-सुख की कामना ले, आ गया फ़िर मैं यहाँ।
साधना का यह पुरातन क्षेत्र है पवन महा।
दीजिये आशीष हो साहित्य सेवा के लिए-
रस-भावना अभिव्यक्ति पर अधिकार हे माँ नर्मदे!॥

***********************************

बाल गीत: भोर की धूप - पुष्पलता शर्मा, अहमदाबाद

सोन बाई सोन बाई
नीचे तो आ।
झाडों के ऊपर
तू सोना झरा॥

बदल के पीछे से
सोनेरी तीर छोड़।
घास फूल पत्तों में
जान तो जगा॥

मन्दिर में सोते जो
राम, कृष्ण, शंकर,
खिड़की से झांक-झांक
उन्हें तो जगा॥

भोर हुई, रात गयी
नभ से सोना बरसे,
सोने की घंटी का,
गीत तो सुना॥

चिडियों की तिहुर-तिहुर,
कौवों की कांव-कांव,
पीपल के पत्तों में
नीचे की धूप-छाँव॥

सड़कों पर, बागों पर
नगर के तालाबों पर,
सूखऐ और खिले हुए
मोगरा गुलाबों पर॥

रोते पर, हंसते पर
भूख से बिलखते पर,
कोमल से ममतामय
हाथों से सोनबाई
मरहम सी, सोने की,
परत तो चढा॥
***************

बोध कथा: ईश्वर का निवास -मंजू मिश्रा, अहमदाबाद.

फारस देश का निवासी मलिक अपने पुत्र हुसैन के साथ रहता था। वह नित्य जल्दी उठकर श्रद्धा और भक्ति से मस्जिद जाता और समय पर घर वापिस आ जाता। एक रोज़ की बात है जब वह मस्जिद से घर लौटा तो उसने देखा घर के सभी नौकर अपने-अपने बिस्तरों पर अब अटक गहरी नींद में सो रहे हैं। यह देखकर हुसैन को बड़ा क्रोध आया और वह बोला- 'तुम सभी अधर्मी हो, नास्तिक हो। तुम लोगों के मन में ईश्वर के लिए जरा भी स्थान नहीं है।'


इतने में हुसैन के पिता मलिक उसकी ऊंची आवाज़ सुनकर वहां पहुँच गए और बोले- 'बेटा! तुम इन दीन आत्माओं पर क्यों क्रोध कर रहे हो? ये तो दिन भर के कार्य की थकन के कारण प्रातः शीघ्र उठने में असमर्थ हैं। इन भोले-भले लोगों का कष्ट देखकर और फ़िर भी उन्हें उठने को कहकर अपनी धर्म-निष्ठां और अच्छे कर्मों को मत बिगाडो। मैं यही चाहता हूँ। तुम भी प्रातः देर से उठो और मस्जिद मत जाओ क्योंकि तुम्हें गर्व होने लगा हैकि तुम इन सभीसे अधिक धार्मिक हो और उन्हें दोष देते हो वे अधर्मी हैं जिसके लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं।'


अतः, सदैव यह याद रखो कि तुम्हारी जो इच्छा है वह दूसरे की भी हो सकती है। भले ही उसका नाम अलग हो किंतु वह तुम ही हो। जब कोई अच्छा कार्य करते हो तो वह स्वयं के लिए करते हो। यदि किसी को दुःख देते हो तो उससे अधिक दुःख प्राप्त होता है। हुसैन के पिता मलिक ने अपने पुत्र को यह समझाया कि सभी में ईश्वर का निवास है। किसी पर क्रोध करना उचित नहीं है। हर प्राणी के प्रति हर किसी को दयालु व सहिष्णु होना चाहिए।

******************



सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'

सूक्ति कोष


प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'


विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


नियाज़ जी कहते हैं- 'साहित्य उतना हे सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। ..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।'


आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।


सूक्तियां शेक्सपिअर के साहित्य से-


action कार्य:


'if to do werw as easy to know what were good to do, chapels ha dbeen churches, and poor man's cottages princes' palaces.'


यदि सत्कार्य के ज्ञान के समान उसका संपादन भी सरल होता तो साधारण उपासना गृह भी गिरिजाघर तथा दीं की कुटी भी राज भवन ही होते।


अगर ज्ञान के सदृश ही, होता कार्य सुजान।


पूजाघर मन्दिर, कुटी होती महल महान ॥


******************************************************************

शब्द-यात्रा, अजित वडनेरकर

शब्द-यात्रा

अजित वडनेरकर

गर आप संगीत प्रेमी हैं और बाऊल संगीत नहीं सुना तो आपको अभागा माना जा सकता है । क्योंकि बाऊल तो भक्ति संगीत की एक ऐसी धारा है जिसमें डुबकी लगाए बिना गंगासागर में स्नान का पुण्य भी शायद निरर्थक है। बंगाल भूमि से उपजे इस भक्तिनाद में माधुर्य और समर्पण का ऐसा राग-विराग है जो श्रोता पर परमात्मा से मिलने की उत्कट अभिलाषा का रहस्यवादी प्रभाव छोड़ता है।

बाऊल भी इस देश की अजस्र निर्गुण भक्ति धारा के महान अनुगामी हैं जिनमें सूफी फ़कीर भी हैं तो वैष्णव संत भी। बाऊल बंगाल प्रांत के यायावर भजनिक हैं। ये आचार-व्यवहार से वैष्णव परिपाटी के होते हैं और चैतन्यमहाप्रभु की बहायी हुई भक्तिधारा का इन पर प्रभाव स्पष्ट है। मगर इन्हें पूरी तरह से वैष्णव कहना गलत होगा। बाऊल सम्प्रदाय में हिन्दू जोगी भी होते हैं और मुस्लिम फकीर भी। ये गांव-गांव जाकर एकतारे के साथ निर्गुण-निरंजन शैली के गीत गाते हैं। न सिर्फ बंगाल भर में बल्कि अब तो दुनियाभर में ये बेहद लोकप्रिय हैं।

आप अगर बाऊल संगीत सुन सकें तो हिन्दी फिल्मों के कई गीत याद आ जाएंगे, जो इस सरल संगीत शैली से प्रभावित हैं। इस सम्प्रदाय में सूफी मत से लेकर बौद्धों के तंत्र-मंत्रवादी रहस्यवाद का भी प्रभाव मिलता है। वैष्णवों की प्रेमपगी भक्तिसाधना तो इनकी पहली पहचान ही है।

बाऊल शब्द के विषय में कई तरह के मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार यह शब्द फारस की सूफी परम्परा बा’अल से निकला है। यह पंथ बारहवीं सदी में यमन के प्रसिद्ध सूफी संत अली बा अलावी अल हुसैनी Ali Ba'Alawi al-Husaini के नाम से शुरू हुआ था। इस्लाम की सहज-सरल समानतावादी दृष्टि की शिक्षा देने वाले इस पंथ के सूफियों का भारत आगमन हुआ और बंगाल की संगीतमय पृष्ठभूमि में इन्हें अपने अध्यात्म को जोड़ते देर नहीं लगी।

एक अन्य मत के अनुसार बंगाल में बाऊल संगीत कब से शुरू हुआ कहना कठिन है मगर इसका रिश्ता संस्कृत के वातुल शब्द से है। वातुल बना है वात् धातु से जिसका मतलब है वायु, हवा। गौरतलब है कि शरीर के तीन प्रमुख दोषों में एक वायुदोष भी माना जाता है। बाहरी वायु और भीतरी वायु शरीर और मस्तिष्क पर विभिन्न तरह के विकार उत्पन्न करती है। आयुर्वेद में इस किस्म के बहुत से रोगों का उल्लेख है। वातुल शब्द में वायु से उत्पन्न रोग का ही भाव है। आमतौर पर जिसकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं रहती उसके बारे में यही कहा जाता है कि इसे गैबी हवा लग गई है। बहकना शब्द पर ध्यान दीजिए। इसे आमतौर पर पागलपन से, उन्माद से ही जोड़ा जाता है। संस्कृत की वह् धातु का अर्थ भी वायु ही होता है अर्थात जो ले जाए। वायु की गति के आधार पर यह शब्द बना है। वह् का रूप हुआ बह जिससे बहाव, बहना या बहक-बहकना जैसे शब्द बने।

किसी रौ में चल पड़ना, या जिसका मन-मस्तिष्क किसी खास लहर पर सवार रहता हो, उसके संदर्भ में ही यह क्रिया बहक या बहकना प्रचलित हुई। जाहिर है, यहा वायुरोग के लिए ही संकेत है। वातुल के दार्शनिक भाव पर गौर करें। अपनी धुन में रहनेवाले, मनमौजी लोगों को भी समाज में पागल ही समझा जाता है। तमाम सूफी संतों, फकीरों, औलियाओं और पीरों की शख्सियत रहस्यवादी रही है। परमतत्व के प्रति इनकी निराली सोच, उसे पाने के अनोखे मगर आसान रास्ते और प्रचलित आराधना पद्धतियों-आराध्यों से हटकर अलग शैली में निर्गुण भक्ति का रंग इन्हें बावला साबित करने के लिए पर्याप्त था। स्पष्ट है कि वातुल से ही बना है बाऊल। इसी तरह वातुला से बना है बाउला या बावला। इसका एक अन्य रूप है बावरा। प्रख्यात गायक बैजू बावरा के नाम के साथ जुड़ा बावरा शब्द इसी वातुल से आ रहा है। बैजू की संगीत के प्रति दीवानगी के चलते उसे दीनो-दुनिया से बेखबर बनाती चली गई। सामान्य अर्थों में वह सामाजिक नहीं था, सो वातरोगी के लिए, उन्मादी के लिए प्रचलित बावला शब्द अपने दौर के एक महान गायक की पदवी बन गया।

किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर चाहे आह्लादकारी हों या विशादकारी, प्रभावित व्यक्ति के विचित्र क्रियाकलापों को बौराना कहा जाता है। कुछ लोग इसे आम्रबौर से जोड़ते हैं। यह ठीक नहीं है। यह बौराना दरअसल बऊराना ही है यानी वातुल से उपजे बाऊल की कड़ी का ही शब्द। जिस मूल से बावरा जैसा शब्द बना है, उससे ही बौराना-बऊराना भी बना है। एक अन्य दृष्टकोण के अनुसार निर्गुण वैष्णव भक्तिमार्गियों के इस विशिष्ट सम्प्रदाय के लिए बाऊल शब्द के मायने इनकी उत्कटता, लगन और परमतत्व से मिलने की व्याकुलता है। व्याकुल शब्द ने ही ब्याकुल और फिर बाऊल रूप लिया। यूं देखा जाए तो वात या वातुल शब्द से बाऊल की व्युत्पत्ति का आधार मुझे ज्यादा तार्किक लगता है क्योंकि उसके पीछे भाषावैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण अधिक प्रभावी है। अली सरदार जा़फरी भी अपनी कबीरबानी में इन्हें बाऊल=बावला अर्थात उन्मत्त लिखते हैं जो सभी परम्परागत बंधनों से मुक्त होकर हवा की तरह मारे मारे फिरते हैं।

... अली सरदार ज़ाफरी साहब ने एके सेन की हिन्दुइज्म पुस्तक से एक बेहतरीन नजी़र दी है जो बाऊल क्या हैं, यह बताती है। सेन साहब ने ज्वार के वक्त गंगातट पर बैठे एक बाऊल से पूछा कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना वृत्तांत क्यों नहीं लिखते। बाऊल ने कहा कि हम तो सहजगामी है, पदचिह्न छोड़ना ज़रूरी नहीं समझते। उसी वक्त पानी उतरा और मांझी पानी में नाव धकेलने लगे। बाऊल ने सेन महाशय को समझाया, ‘क्या भरे पानी में कोई नाव निशान छोड़ती है ? केवल वही मांझी जो मजबूरी की वजह से कीचड़ में नाव चलाते हैं, निशान छोड़ते हैं। बाऊल केवल बाऊल है। वह किसी भी वर्ग से आए।

******************

ग़ज़ल, मनु 'बेतख्ल्लुस

ग़ज़ल

-मनु 'बेतख्ल्लुस', दिल्ली

गमे-हस्ती के सौ बहाने हैं,

ख़ुद ही अपने पे आजमाने हैं।

सर्द रातें गुजारने के लिए,

धूप के गीत गुनगुनाने हैं।

कैद सौ आफ़ताब तो कर लूँ,

क्या मुहल्ले के घर जलाने हैं।

आ ही जायेंगे वो चराग ढले,

और उनके कहाँ ठिकाने हैं।

फ़िक्र पर बंदिशें हजारों हैं,

सोचिये, क्या हसीं जमाने हैं।

तुझ सा मशहूर हो नहीं सकता,

तुझ से हटकर, मेरे फ़साने हैं।

**************************

मुक्तिका: सो जाइए -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

सो जाइए

संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए।
नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए।

चंद्रमा में चांदनी भी और धब्बे-दाग भी।
चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए।

होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे।
भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए।

खुदा बनने था चला, इंसां न बन पाया 'सलिल'।
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए।

एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर 'सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए।

*****

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

कुण्डली -आचार्य संजीव 'सलिल'

हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।

जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।

वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।

ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- न दाल गलेगी।

कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।

मिलती है ऊँचाई केवल नीचाई से.

पान-पन्हैया और आम चुनाव- संजीव 'सलिल'

पान पन्हैया की रही, भारत में पहचान।
पान बन गया लबों की, युगों-युगों से शान।
रही पन्हैया शेष थी, पग तज आयी हाथ।
'सलिल' मिसाइल बन चली, छूने सीधे माथ।
जब-जब भारत भूमि में होंगें आम चुनाव।
तब-तब बढ़ जायेंगे अब जूतों के भाव।
- आचार्य संजीव 'सलिल' सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

समाचार : शोध-प्रश्नों के उत्तर दीजिये

प्रश्न उठे उत्तर हैं शेष, पाठक करिए इन्हें अशेष.

आत्मीय!
'परहित सरिस धरम नहीं भाई !
किसी का हित करने का ऐसा अवसर मिले की आपकी गाँठ से कौडी भी न जाए तो धर्म करने का यह अवसर कौन चूकना चाहेगा? आपके सामने एक ऐसा ही अवसर है।
आप जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में पत्रकारिता एंव जनसंचार विभाग की द्वितीय वर्ष की छात्रा निहारिका श्रीवास्तव के कुछ प्रश्नों के उत्तर देकर उसके लघु शोध कार्य में सहायक हो सकते हैं। sनाताकोत्तर चतुर्थ सत्र में उसके लघु शोध पत्र का विषय है - 'बेव पत्रकारिता का बिकास एंव संभावनाये' । प्रश्न निम्न है--
प्रश्न १ : ई न्यूज पेपर क्या है?
प्रश्न 2 : पोर्टल क्या है?
प्रश्न 3 : डाॅट इन, डाॅट काम, डाॅट ओ। आर। जी। तथा अन्य सबंधित शब्दों के अर्थ एवं बेव पत्रकारिता में उनकी भूमिका?
प्रश्न 4 : भारत में बेव पत्रकारिता का प्रचलन कैसा है एंव मुख पोर्टल कौन कौन से है?
प्रश्न 5: वेब पत्रकारिता के विभिन्न स्वरूप एंव उनके समक्ष आने वाली चुनौतिया क्या है।
दिव्य नर्मदा के पाठक / दर्शक इन प्रश्नों के उत्तर देकर इस लधु शोध पत्र के लिए संजीवनी बूटी के समान सहायक सिद्ध हों। इन प्रश्नों के अतिरिक्त उक्त शोध पत्र से संबधित अन्य कोई जानकारी रखते है तो आप निहारिका को अपने ज्ञान से अनुगृहित करें।
निहारिका का ee मेल पता जीमेल.कॉम">---naina7786@जीमेल.कॉम
डाक का पता : निहारिका श्रीवास्तव, जनसंचार एंव पत्रकारिता अध्ययन केन्द्र, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

नमन नर्मदा :

नमन नर्मदा

सुशीला शुक्ला

गुलों स्व खेलती
पहाडों पर उछलती
चंचल बाला सी
खिलखिलाती बहती हो।

सुबह सूरज से खेल
रात तारों को ओढ़
चन्द्र तकिया लगा
परी बन लुभाती हो

फूलों को अपने
आगोश में समेटकर
नेह नर धरती पर
अपने बिखेर कर

लहराती फसलों में
झूम रहे जंगल में
हरियाली से झाँक रहा
तेरा अस्तित्व माँ

लहरों में तैरती
इतिहास की परछाइयाँ
मं को डुबोती हैं
तेरी गहराइयां

वायु के झकोरे जब
छेदते तरंगों को
जल तरंग सी बजकर
कानों को छलती हो

मंगलाय मन्त्र ऐसे
वाणी से झरते हैं
सदियों से जाप करें
जैसे तपस्विनी

धरती को परस रही
परस सा नीर निज
मेरे शब्दों में ढली
बनीं कविता कामिनी।
******************

हास्य रचना स्वादिष्ट निमंत्रण तुहिना वर्मा 'तुहिन'

हास्य रचना

स्वादिष्ट निमंत्रण

तुहिना वर्मा 'तुहिन'

''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते। यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं। मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आये वो भी पछताए...जो न आये वह भी पछताए क्योंकि आपकी सिर्चाधी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं। ये रस मलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेडा शहर, कचौडी नगर, के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिन्गौडीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईन्प्रसाद के साथ होना तय हुआ है। चांदनी चौक में चमचम चाची को चांदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबदा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए आकर डकार रहे हैं। जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दही-बड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूर्पाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे. रसमलाई धरमशाला में सदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवई बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा. शरबती बी के बदबख्त हाथों से भांग पीकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाती के साथ मीठे मसाले वाला पान और नशीला पान बहार लिए आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली रबडी मलाई