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गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

ग़ज़ल स्व. नादां इलाहाबादी

जिस दिल पे मुझको नाज़ था...

पहलू में मेरे जब से मेरा दिल नहीं रहा।
उनकी नजर में मैं किसी काबिल नहीं रहा।।

समझा उसी ने दहर में कुछ राजे-बंदगी।
दैरो-हरम का जो कभी कायल नहीं रहा।।

किस दिल से अब सुनाएँ तुम्हें दिल की दास्ताँ।
जिस दिल पे मुझको नाज़ था वह दिल नहीं रहा।।

महवे-खयाले-दूरिये-मंजिल था इस कदर।
मुझको खयाले-दूरिये-मंज़िल नहीं रहा।।।

दिल ही से जहाँ में सब लुत्फे-जिन्दगी.
क्या लुत्फ़ जिंदगी का अगर दिल नहीं रहा?

उसकी इनायतों में तो कोई कमी नहीं।
मैं ही निगाहे-लुत्फ़ के काबिल नहीं रहा।

दुनिया ने आँखें फेर लीं नादाँ तो क्या गिला?
दिल भी तो मेरा अब वह मेरा दिल नहीं रहा.

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ग़ज़ल मनु बेतखल्लुस

बेखुदी, और इंतज़ार नहीं,
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं
तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं
निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं
सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं
काश! पहले से ये गुमाँ होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं
अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं
जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं
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लघुकथा : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लघु कथा
ज़हर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमीने पूछा।
--'क्यों अभी कटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ?, आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है तो किसी आदमी को काटता, तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त कह ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमती जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
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गीत : पारस मिश्रा

वंश डूबा देंगे कबीर का,
ऐसे लक्षण हैं कमाल में।
उजियारा कम धुआं बहुत है-
इस अवसरवादी मशाल में।

भीड़ तंत्र की नृत्य-मंडली।
टेढी सी लगती अंगनाई।
रह-रह बजे बीन पछुओं की,
लिए मुहर्रम होली आयी।
पात-पात पर टंगी-झूमती, सी -
आकाश-बेल की मस्ती।
मुर्दों के श्रृंगार-साज में-
व्यस्त-त्रस्त जीवन की बस्ती।
अंगारों से प्रश्न दहकते,
टहनी पर उडती गुलाल में...

पनप रही बरगद के नीचे-
नेतागीरी-नौकरशाही।
भाषण, कुर्सी, फाइल, फीते-
छीना-झपटे, हाथा-पायी।
औंधे मुंह बुनियादी ईंटें-
गाती हैं गाथा मुंडेर की।
सारा खेत चारे जाते हैं-
गधे ओढ़कर खाल शेर की।
असली राजहंस लगते हैं-
सारे बगुले चाल-ढाल में...

अब भी देश निरा नंगा है,
जिन्दा है, अभाव रोटी का।
फ़िर भी कर्णधार रखता है-
ज्यादा ध्यान लाल गोटी का।
दूध-धुली मोहक प्रतिश्रुतियाँ-
सिद्धांतों पर जमी मेल है।
आश्वासन की पतिव्रताये-
जाने कितनों की रखैल हैं?

लटके चम्गादड से वादे-
पात-पात में, डाल- डाल में...

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नर्मदा स्तवन

नमन नर्मदा

- संजीव 'सलिल'

नित्य निनादित नर्मदा, नवल निरंतर नृत्य।

सत-शिव-सुन्दर 'सलिल' सम, सत-चित-आनंद सत्य।

अमला, विमला, निर्मला, प्रबला, धवला धार।

कला, कलाधर, चंचला, नवला, फला निहार।

अमरकांटकी मेकला, मंदाकिनी ललाम।

कृष्णा, यमुना, मेखला, चपला, पला सकाम।

जटाशांकरी, शाम्भवी, स्वेदा, शिवा, शिवोम्।

नत मस्तक सौंदर्य लख, विधि-हरि-हर, दिक्-व्योम।

चिरकन्या-जगजननि हे!, सुखदा, वरदा रूप।

'सलिल'साधना सफलकर, हे शिवप्रिया अनूप।

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बुधवार, 8 अप्रैल 2009

स्तवन : माँ शारदा अवनीश तिवारी

नारद के काव्य में,

मोहन की बंसी में,

नटराज के नृत्य में

सर्वत्र माँ शारदा

सुर और ताल में ,

गुण और गान में ,

वेद और पुराण में ,

सर्वत्र माँ शारदा

मस्तिष्क की संवेदना में ,

मन की वेदना में,

ह्रदय की भावना में

सर्वत्र माँ शारदा

मेरी मुक्त स्मृतियों में ,

ऋचा और कृतियों में ,

एकांत की अनुभूतियों में ,

सर्वत्र माँ शारदा
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ग़ज़ल : समीर लाल

ग़ज़ल


सुधीर लाल 'उड़नतश्तरी'


मौत से दिल्लगी हो गयी।


जिन्दगी अजनबी हो गयी।


दोस्तों से तो शिकवा रहा।


गैरों से दोस्ती हो गयी।


उसके हंसने से जादू हुआ।


तीरगी रौशनी हो गयी


साँस गिरवी है हर इक घड़ी।


कैसी ये बेबसी हो गयी?


रात भर राह तकता रहा।


गुम कहाँ चांदनी हो गयी।


आपका नाम बस लिख दिया।


लीजिये शायरी हो गयी


अपने घर का पता खो गया।


कैसी दीवानगी हो गयी?


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नव गीत- आचार्य संजीव 'सलिल'

दिन भर मेहनत
आंतें खाली,
कैसे देखें सपना?...

दाने खोज,
खीजता चूहा।
बुझा हुआ
है चूल्हा।
अरमां की
बरात सजी-
पर गुमा
सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?...

कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने बर्तन.
दे उधार,
देखे उभार
कलमुंहा सेठ
ढकती तन.
नयन गडा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना...

ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
बलदाऊ
चिलम चढाएं।
जेब काटता
कान्हा-राधा छिप
बीडी सुलगाये.
पानी मिला दूध में
जसुमति बिसरी
माला जपना...

बैठ मुंडेरे
बोले कागा
झूठी आस
बंधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं
पथराये.
ईंटों के
भट्टे में
मानुस बेबस
पड़ता खपना...

श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें
करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा
नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की
घर में
चुप ढकना...

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साहित्य समाचार : पुस्तक विमोचन

समीर लाल की काव्य कृति 'बिखरे मोती विमोचित
'दिल की गहराई से निकली और ईमानदारी से कही गयी कविता ही असली कविता' - संजीव 'सलिल'
जबलपुर। सनातन सलिला नर्मदा के तट पर स्थित संस्कारधानी के सपूत अंतर्जाल के सुपरिचित ब्लोगर कनाडा निवासी श्री समीर लाल 'उड़नतश्तरी' की सद्य प्रकाशित प्रथम काव्य कृति 'बिखरे मोती' का विमोचन ४ अप्रैल को होटल सत्य अशोका के चाणक्य सभागार में दिव्य नर्मदा पत्रिका के सम्पादक आचार्य संजीव 'सलिल' के कर कमलों से संपन्न हुआ. इस अवसर पर इलाहांबाद से पधारे श्री प्रमेन्द्र 'महाशक्ति' तथा सर्व श्री, ताराचन्द्र गुप्ता प्रतिनिनिधि हरी भूमि दैनिक, , डूबे जी कार्टूनिस्ट, गिरिश बिल्लोरे, संजय तिवारी संजू, बवाल, विवेक रंजन श्रीवास्तव, आनन्द कृष्ण, महेन्द्र मिश्रा 'समयचक्र' सहभागी हुए.


कृति का विमोचन करते हुए श्री सलिल ने 'बिखरे मोती' के कविताओं के वैशित्य पर प्रकाश डालते हुए इन्हें 'बेहद ईमानदारी और अंतरंगता से कही गयी कविता बताया। उन्होंने शाब्दिक लफ्फाजी, भाषिक आडम्बर तथा शिपिक भ्रमजाल को खुद पर हावी न होने देने के लिए कृतिकार श्री समीर को बधाई देते हुए कहा- 'दिल की गहराई से निकली और ईमानदारी से कही गयी कविता ही असली कविता होती है।' कवि समीर द्वारा अपनी माँ को यह कृति समर्पित किये जाने को उन्होंने भारतीय संस्कारों का प्रभाव बताया तथा इस सारस्वत अनुष्ठान की सफलता की कामना की तथा कहा-

'बिखरे मोती' साथ ले, आये लाल-बवाल।

काव्य-सलिल में स्नान कर, हम सब हुए निहाल।

हम सब हुए निहाल, सुहानी साँझ रसमयी।

मिले ह्रदय से ह्रदय, नेह नर्मदा बह गयी।

थे विवेक आनंद गिरीश प्रमेन्द्र तिवारी।

बिन डूबे डूबे महेंद्र सुन रचना प्यारी.

पहली पुस्तक लेखक के लिए एक अद्‍भुत घटना होती है- समीर लाल

विमोचन के पश्चात् विचार व्यक्त करते हुए श्री समीर ने अपनी माताजी का स्मरण किया। अल्प समयी प्रवास में शीघ्रता से किये गए इस आयोजन के सभी सहयोगियों और सहभागियों से अंतर्जालीय चिटठा जगत में जुड़ने और प्रभावी भूमिका निभाने की अपेक्षा करते हुए समीर जी ने चयनित कविताओं का पाठ किया. श्री सलिल तथा श्री विवेक रंजन माता के विछोह को जीवन का दारुण दुःख बताते हुए समीर जी के साथ माता के विछोह की यादों को साँझा किया. समीर जी ने आकर्षक कलेवर में इस संकलन को प्रकाशित करने के लिए सर्वश्री पंकज सुबीर, रमेश हटीला जी, बैगाणी बंधुओं का विशेष आभार व्यक्त किया।

वातावरण को पुनः सहज बनाते हुए श्री गिरीश बिल्लोरे ने नगर के चिट्ठाकारों के नियमित मिलन का प्रस्ताव किया जिसका सभी ने समर्थन किया। सारगर्भित विचार विनिमय तथा पारिवारिक वातावरण में काव्य पाठ के पश्चात् पारिवारिक वातावरण में रात्रि-भोज के साथ इस आत्मीय कार्यक्रम का समापन हुआ.

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

एक नदी नर्मदा

एक नदी नर्मदा

डॉ. महेश चन्द्र शर्मा


एक नदी इठलाती,

बलखाती,


गुनगुनाती।



सूर्य की रश्मियों में,



धवल ज्योत्सना में।



अपनी चुनरी में



गोटा सजाती



एक नदी।



एक नदी



अपने रूप पर



अपने यौवन पर



आत्ममुग्धा सी।



एक नदी



पाषाणों को भेदती



तीरों को सींचती



तटबंधों को तोड़ती



नित नए रूप संजोती।



एक नदी



बिखेरती सुगंध



देती पुलक



सुनाती संगीत।



एक सामान्य सी



असामान्य



एक बूझी सी



अबूझ नदी।



बिंदु से



सिन्धु तक प्रवाहित



अन्य नदियों सी



एक नदी।



मन को,



तन को,



ज्ञान को,



विज्ञान को,



राग को,



विराग को,



भेदती, तोड़ती,



सींचती एक नदी।



सभी शिल्पों को



आकारों को



विगलित कर



रसधारा में



डुबाती-तिराती



भिगाती-उतराती



अव्यक्त अचल रूप



संजोती एक नदी।




मरू में



उगाती दूर्वा शांति,



सुख-जीवन



एक नदी।



घने तम् में



दीप जलाती



आलोक बिखराती



एक नदी।



आलोक जो करता



परावृत्त



शिखर, गव्हर,



वन-प्रांतर,



तन-मन।



तभी कहलाती



सुखदा-शांतिदा,



मुक्तिदा-मोक्षदा



एक नदी।



आस्था के भाल पर



दैदीप्यमान तिलक



एक नदी।



एक नदी



बनी नारी।



जप-तप कर



सोपान चढ़



वात्सल्य उडेल



बन गयी माँ।



सिन्धु से बिंदु तक



प्रवाहित होती हुई



एक नदी.
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रविवार, 5 अप्रैल 2009

स्मरण : मीना कुमारी

स्मरण : मीना कुमारी

मीना कुमारी... एक अजीम अदाकारा...एक न भुलाई जा सकनेवाली फनकार...एक मासूम शख्सियत... लोगों के दिलों पर राज करनेवाली नायिका... दर्द और तन्हाई को साँस-साँस जीनेवाली रूह जो जिस्म की क़ैद में घुट-घुटकर जीती रही..जी-जी कर मरती रही...और अब मरने के बाद भी जी रही है लोगों के दिलों में , अपने कलाम में--

चाँद तन्हा है,आस्मां तन्हा
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा
thartharata रहा धुंआ तन्हा

ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं?
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा

हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा

जलती -बुझती -सी रौशनी के परे
सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा

मीना जी का शब्द चित्र, गुलज़ार के शब्दों में --

शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस
बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक सांस को खोल कर
अपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी

मीना जिंदा हैं अपने चाहनेवालों के कलाम में --

नहीं,
वह नहीं थी
इस ज़मीन के लिए।
वह तो
कोई कशिश थी,
हर आज से दूर,
हर कल के पास,
हर मंजिल उसे
देती रही दगा,
और वह करती रही
हर दगे पर एतबार।
दगे थक गए
उससे फरेब करते-करते।
पर वह न थकी
फरेब खाते-खाते।
कौन जाने
वह आज भी
कहीं छिपी हो
शबनम की किसी बूँद में,
आफ़ताब की चमक में,
माहताब की दमक में।
न भी हो तो
मन नहीं मानता
कि वह नहीं है।
वह नहीं हो
तो तन्हाई कैसे है?
वह नहीं है
तो रुसवाई कैसे है?
वह नहीं है
तो अदाकारी कैसे है?
वह नहीं है
तो आँसू कैसे हैं?
वह तो यहीं है-
मुझमें...तुममें॥
इसमें...उसमें...सबमें...
मानो या न मानो
पर वह है। -- सलिल
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गज़ल : साज़ जबलपुरी

ग़ज़ल : साज़ जबलपुरी

मौसमे-गुल फ़िर सुहाना हो गया।
आपका भी गम पुराना हो गया।

आपके बिन ज़िंदगी दुश्वार थी,
इस कमी को इक ज़माना हो गया।

ख़ुद से बढ़कर अब नहीं हमदम कोई,
हर किसी को गम सुनाना हो गया।

आपको है दुनियादारी का नशा,
आपसे तो दिल लगाना हो गया।

जगता है देखकर मौका - महल,
दर्दे-दिल कितना सयाना हो गया।

'साज़ साहब' आइये, उठिए चलें,
हो गया आंसू बहाना हो गया।

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साहित्य समाचार : 'शर्म इनको मगर नहीं आती विमोचित"

साहित्य समाचार : 'शर्म इनको मगर नहीं आती' विमोचित
जबलपुर। प्रसिद्द साहित्यकार-पत्रकार साज जबलपुरी के व्यंग लेख संग्रह 'शर्म इनको मगर नहीं आती' का विमोचन अप्रैल २००८ को स्थनीय अरिहंत पैलेस होटल में श्री शशिधर डिमरी, वरिष्ठ महाप्रबंधक आयुध निर्माणी खमरिया के कर कमलों से संपन्न हुआ। श्री एम्. एस. बहोरिया 'अनीस' के संचालन में संपन्न कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साहित्यकारों ने साज जी को बधाई दी। विमोचित कृति की समीक्षा करते हुए डॉ. श्रीमती जगिंदर गुजराल ने साज की पैनी दृष्टि और चुटीली शैली की सराहना की। सर्व श्री अंश्लाल पंद्रे, विजय नेमा 'अनुज' तथा गीता 'गीत' ने सक्रियता से कार्यक्रम को सफल बनाया।
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विश्व काव्य सलिला : भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज' '

: विश्व काव्य सलिला - १ :


भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज'


कविता का उत्स अनुभूतियों और भावनाओं से होता है। मनुष्य ही नही पशु-पक्षी भी सुख-दुःख, हर्ष-विषद आदि की अनुभूति और अभिव्यक्ति करते हैं। समूचे विश्व में मानवों की एकता साहित्य में तथा फ़ुट रणनीति में व्यक्त होता है। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार एवं शिक्षक प्रो। भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज़' ने दिव्य नर्मदा पर विशेष स्नेहाशीष वृष्टि कर अपने द्वारा हिदी में अनुवादित अन्य भाषाओँ और देशों के कवियों की कविताओं को प्रकाशित करने की अनुमति दी है। हर रविवार को पाठक एक रचना का ले सकेंगे। नियाज़ जी १८ भाषाओँ के ३१ देशों के ७६ कवियों की १११ रचनाओं का हिन्दी काव्यानुवाद 'विश्व कविता : कल और आज शीर्षक कृति में कर चुके हैं। दिव्य नर्मदा के संपादक संजीव 'सलिल' के संपादन में प्रो. मिश्र के व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'समयजयी साहित्य शिल्पी प्रो. भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज़' : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' शीर्षक ग्रन्थ प्रकाशित व चर्चित हो चुका है। --संपादक


कवि - डब्ल्यू. बी. यीट्स, देश - आयार्लैंड्स, कविता - वील हिन्दी काव्यानुवाद - चक्र


शीतकाल में हम वसंत को सदा बुलाते।


जब वसंत आता निदाघ के गीत सुनाते।


ग्रीष्म आगमन हुआ, झाडियाँ झूम रही हैं।


शीतकाल है श्रेष्ठ यहीं अनुगूंज रही है।


पर ऋतुराज नहीं आया है देखो अब तक।


नहीं सुता है इस मन को कुछ भी तब तक।


पर हम हैं अनभिज्ञ रुधिर क्यों स्थिर रहता?


कब समाधि मिल जाए कामना करता रहता।


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शनिवार, 4 अप्रैल 2009

बुन्देली दोहे

दयाराम गुप्त 'पथिक', ब्यौहारी, शहडोल

मादल थापों से झरे, जब महुआ का रंग।
झांके गोरी पैंजनी, झुकी-झुकी परत अनंग॥

लगत तुम्हारो हात प्रिय, चेहरा भयो गुलाल।
पायल की झंकार सुन, होत मृदंग निहाल॥

बातन मारी कंकरी, नयनन मरे बान।
तन-मन घायल कर गयी, बेसुध तरसे प्रान॥

बौराए सपने चहक, मलें गुलाबी रंग।
चैती कोयल कूकती, महके अंग-अनंग॥

अंग-अंग अंगडाइयां, पोर-पोर में पीर।
फागुन तन-मन रंग गया, फेंका रंग कबीर॥

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छंद सलिला : १ सीखिए likhna रोला.

छंद सलिला : १
आचार्य संजीव 'सलिल'
vishv वाणी हिन्दी का गीति काव्य संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत दंगल तथा शौरसेनी की विरासत के sath-साथ अरबी-फारसी ka संग मिलने पर रखता-उर्दू के सौख्य , विविध भारतीय भाषाओँ-बोलीओं के साहचर्य से संपन्न-समृद्ध हुआ है। हिन्दी mएन श्रेष्ठ को आत्मसात करने की प्रवृत्ति ने अंगरेजी के सोनेट जैसे छंद के साथ-सजपनी के हाइकु, स्नैर्यु आदि को भी पचा लिया है। वर्तमान में जितना च्वैविध्य हिन्दी गीति काव्य में है ,विश्व की अन्य किसी भाषा में नहीं है। आवश्यकता इस विरासत को आत्मसात करने की क्षमता और सृजन की सामर्थ्य को सतत बढाने की है।
इस लेख माला में हर सप्ताह हम किसी एक छंद का परिचय इस उद्देश्य से कराएँगे की रचनाकार उसे समझ कर उस छंद में कविकर्म प्रारम्भ के कीर्ति अर्जित करें। यह लेखमाला समर्पित है दिव्य नर्मदा अभियान जबलपुर के दिवंगत स्तंभों महामंडलेश्वर स्वामी रामचंद्र दास शास्त्री, धर्मप्राण कवयित्री श्रीमती शान्ति देवी वर्मा, समाजसेवी रामेन्द्र तिवारी तथा श्रीमती रजनी शर्मा को। ---संपादक
रोला को लें जान
इस लेखमाला का श्रीगणेश रोला छंद से किया जा रहा है। रोला एक चतुश्पदीय अर्थात चार पदों (पंक्तियों ) का छंद है। हर पद में दो चरण होते हैं। रोला के ४ पदों तथा ८ चरणों में ११ - १३ पर यति होती है. यह दोहा की १३ - ११ पर यति के पूरी तरह विपरीत होती है ।हर पड़ में सम चरण के अंत में गुरु ( दीर्घ / बड़ी) मात्रा होती है ।
११-१३ की यती सोरठा में भी होती है। सोरठा दो पदीय छंद है जबकि रोला चार पदीय है। ऐसा भी कह सकते हैं के दो सोरठा मिलकर रोला बनता है। आइये, रोला की कुछ भंगिमाएँ देखें-
सब होवें संपन्न, सुमन से हँसें-हँसाये।
दुखमय आहें छोड़, मुदित रह रस बरसायें॥
भारत बने महान, युगों तक सब यश गायें।
अनुशासन में बँधे रहें, कर्त्तव्य निभायें॥
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भाव छोड़ कर, दाम, अधिक जब लेते पाया।
शासन-नियम-त्रिशूल झूल उसके सर आया॥
बहार आया माल, सेठ नि जो था चांपा।
बंद जेल में हुए, दवा बिन मिटा मुटापा॥ --- ओमप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
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नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला- रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मंडल हैं।
बंदी जन खग-वृन्द शेष फन सिहासन है॥
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रोला को लें जान, छंद यह- छंद-प्रभाकर।
करिए हँसकर गान, छंद दोहा- गुण-आगर॥
करें आरती काव्य-देवता की- हिल-मिलकर।
माँ सरस्वती हँसें, सीखिए छंद हुलसकर॥ ---'सलिल'
पाठक रोला लिखकर भेजें तो उन्हें यथावश्यक संशोधनों के साथ प्रकाशित किया जाएगा। प्रश्न आमंत्रित हैं।
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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

श्री राम जन्म भजन

श्री राम जन्म भजन

भजनकार: स्वर्गीय शान्ति देवी वर्मा

अवध में जन्में हैं श्री राम

अवध में जन्में हैं श्री राम,


दरश को आए शंकरजी...


कौन गा रहे?, कौन नाचते?,


कौन बजाएं करताल?


दरश को आए शंकरजी...


ऋषि-मुनि गाते, देव नाचते,


भक्त बजाएं करताल।


दरश को आए शंकरजी...


अंगना मोतियन चौक है,


द्वारे हीरक बंदनवार


अश को आए शंकरजी...


मलिन-ग्वालिन सोहर गायें,


नाचें दे-दे ताल।


दरश को आए शंकरजी...




मैया लाईं थाल भर मोहरें,


लो दे दो आशीष।


दरश को आए शंकरजी...


नाग त्रिशूल भभूत जाता लाख,


डरे न मेरो लाल।


दरश को आए शंकरजी...


बिन दर्शन हम कहूं न जैहें,


बैठे धुनी रमाय।


दरश को आए शंकरजी...


अलख जगाये द्वार पर भोला,


डमरू रहे बजाय।


दरश को आए शंकरजी...


रघुवर गोदी लिए कौशल्या,


माथ डिठौना लगाय।


दरश को आए शंकरजी...


जग-जग जिए लाल माँ तेरो,


शम्भू करें जयकार।


दरश को आए शंकरजी...


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बाजे अवध बधैया




बाजे अवध बधैया,


हाँ हाँ बाजे अवध बधैया...


मोद मगन नर-नारी नाचें,


नाचें तीनों मैया। हाँ-हाँ नाचें तीनों मैया,


बाजे अवध बधैया॥


मातु कौशल्या जनें रामजी,


दानव मार भगैया, हाँ-हाँ दानव मार भगैया


बाजे अवध बधैया...


मातु कैकेई जाए भरत जी,


भारत भार हरैया हाँ हाँ भारत भार हरैया,


बाजे अवध बधैया...


जाए सुमित्रा लखन-शत्रुघन,


राम-भारत की छैयां, हाँ हाँ राम-भारत की छैयां,


बाजे अवध बधैया...


नृप दशरथ ने गाय दान दी,


सोना सींग मढ़ईया, हाँ हाँ सोना सींग मढ़ईया,


बाजे अवध बधैया...


रानी कौशल्या मोहर लुटाती,


कैकेई हार-मुंदरिया, हाँ हाँ कैकेई हार-मुंदरिया,


बाजे अवध बधैया...


रानी सुमित्रा वस्त्र लुटाएं,


साडी कोट रजैया, हाँ हाँ साडी कोट रजैया,


बाजे अवध बधैया...


sइधी-हर हरि-दर्शन को आए,


दान मिले कुछ मैया, हाँ हाँ दान मिले कुछ मैया,


बाजे अवध बधैया...


'शान्ति'-सखी मिल सोहर गावें,


प्रभु की लेंय बलैंयाँ , हाँ हाँ प्रभु की लेंय बलैंयाँ,


बाजे अवध बधैया...


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श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहा अनुवाद, संजीव 'सलिल'



श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद

विनियोग

श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ ।
चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ।।
ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र।
दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र।।
कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम।
जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम।।


ध्यान

दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न।
कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न।।
नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार।
जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार।।

श्री रघुनाथ-चरित्र का, कोटि-कोटि विस्तार।
एक-एक अक्षर हरे, पातक- हो उद्धार।१।

नीलाम्बुज सम श्याम छवि, पुलिनचक्षु का ध्यान।
करुँ जानकी-लखन सह, जटाधारी का गान।२।

खड्ग बाण तूणीर धनु, ले दानव संहार।
करने भू-प्रगटे प्रभु, निज लीला विस्तार।३।

स्तोत्र-पाठ ले पाप हर, करे कामना पूर्ण।
राघव-दशरथसुत रखें, शीश-भाल सम्पूर्ण।४।

कौशल्या-सुत नयन रखें, विश्वामित्र-प्रिय कान।
मख-रक्षक नासा लखें, आनन् लखन-निधान।५।

विद्या-निधि रक्षे जिव्हा, कंठ भरत-अग्रज।
स्कंध रखें दिव्यायुधी, शिव-धनु-भंजक भुज।६।

कर रक्षे सीतेश-प्रभु, परशुराम-जयी उर।
जामवंत-पति नाभि को, खर-विध्वंसी उदर।७।

अस्थि-संधि हनुमत प्रभु, कटि- सुग्रीव-सुनाथ।
दनुजान्तक रक्षे उरू, राघव करुणा-नाथ।८।

दशमुख-हन्ता जांघ को, घुटना पुल-रचनेश।
विभीषण-श्री-दाता पद, तन रक्षे अवधेश।९।

राम-भक्ति संपन्न यह, स्तोत्र पढ़े जो नित्य।
आयु, पुत्र, सुख, जय, विनय, पाए खुशी अनित्य।१०।

वसुधा नभ पाताल में, विचरें छलिया मूर्त।
राम-नाम-बलवान को, छल न सकें वे धूर्त।११।

रामचंद्र, रामभद्र, राम-राम जप राम।
पाप-मुक्त हो, भोग सुख, गहे मुक्ति-प्रभु-धाम।१२।

रामनाम रक्षित कवच, विजय-प्रदाता यंत्र।
सर्व सिद्धियाँ हाथ में, है मुखाग्र यदि मन्त्र।१३।

पविपंजर पवन कवच, जो कर लेता याद।
आज्ञा उसकी हो अटल, शुभ-जय मिले प्रसाद।१४।

शिवादेश पा स्वप्न में, रच राम-रक्षा स्तोत्र।
बुधकौशिक ऋषि ने रचा, बालारुण को न्योत।१५।

कल्प वृक्ष, श्री राम हैं, विपद-विनाशक राम।
सुन्दरतम त्रैलोक्य में, कृपासिंधु बलधाम।१६।

रूपवान, सुकुमार, युव, महाबली सीतेंद्र।
मृगछाला धारण किये, जलजनयन सलिलेंद्र।१७।

राम-लखन, दशरथ-तनय, भ्राता बल-आगार।
शाकाहारी, तपस्वी, ब्रम्हचर्य-श्रृंगार।१८।

सकल श्रृष्टि को दें शरण, श्रेष्ठ धनुर्धर राम।
उत्तम रघु रक्षा करें, दैत्यान्तक श्री राम।१९।

धनुष-बाण सोहे सदा, अक्षय शर-तूणीर।
मार्ग दिखा रक्षा करें, रामानुज-रघुवीर।२०।

राम-लक्ष्मण हों सदय, करें मनोरथ पूर्ण।
खड्ग, कवच, शर,, चाप लें, अरि-दल के दें चूर्ण।२१।

रामानुज-अनुचर बली, राम दाशरथ वीर।
काकुत्स्थ कोसल-कुँवर, उत्तम रघु, मतिधीर।२२।

सीता-वल्लभ श्रीवान, पुरुषोतम, सर्वेश।
अतुलनीय पराक्रमी, वेद-वैद्य यज्ञेश।२३।

प्रभु-नामों का जप करे, नित श्रद्धा के साथ।
अश्वमेघ मख-फल मिले, उसको दोनों हाथ।२४।

पद्मनयन, पीताम्बरी, दूर्वा-दलवत श्याम।
नाम सुमिर ले 'सलिल' नित, हो भव-पार सुधाम।२५।

गुणसागर, सौमित्राग्रज, भूसुतेश श्रीराम।
दयासिन्धु काकुत्स्थ हैं, भूसुर-प्रिय निष्काम।२६क।

अवधराज-सुत, शांति-प्रिय, सत्य-सिन्धु बल-धाम।
दशमुख-रिपु, रघुकुल-तिलक, जनप्रिय राघव राम।२६ख।

रामचंद्र, रामभद्र, रम्य रमापति राम।
रघुवंशज कैकेई-सुत, सिय-प्रिय अगिन प्रणाम।२७।

रघुकुलनंदन राम प्रभु, भरताग्रज श्री राम।
समर-जयी, रण-दक्ष दें, चरण-शरण श्री धाम।२८।

मन कर प्रभु-पद स्मरण, वाचा ले प्रभु-नाम।
शीश विनत पद-पद्म में, चरण-शरण दें राम।२९।

मात-पिता श्री राम हैं, सखा-सुस्वामी राम।
रामचंद्र सर्वस्व मम, अन्य न जानूं नाम।३०।

लखन सुशोभित दाहिने, जनकनंदिनी वाम।
सम्मुख हनुमत पवनसुत, शतवंदन श्री राम।३१।

जन-मन-प्रिय, रघुवीर प्रभु, रघुकुलनायक राम।
नयनाम्बुज करुणा-समुद, करुनाकर श्री राम।३२।

मन सम चंचल पवनवत, वेगवान-गतिमान।
इन्द्रियजित कपिश्रेष्ठ दें, चरण-शरण हनुमान।३३।

काव्य-शास्त्र आसीन हो, कूज रहे प्रभु-नाम।
वाल्मीकि-पिक शत नमन, जपें प्राण-मन राम।३४।

हरते हर आपद-विपद, दें सम्पति, सुख-धाम।
जन-मन-रंजक राम प्रभु, हे अभिराम प्रणाम।३५।

राम-नाम-जप गर्जना, दे सुख-सम्पति मीत।
हों विनष्ट भव-बीज सब, कालदूत भयभीत।३६।

दैत्य-विनाशक, राजमणि, वंदन राम रमेश।
जयदाता शत्रुघ्नप्रिय, करिए जयी हमेश।३७ क।

श्रेष्ठ न आश्रय राम से, 'सलिल' राम का दास।
राम-चरण-मन मग्न हो, भव-तारण की आस।३७ख।

विष्णुसहस्त्रनाम सम, पावन है प्रभु-नाम।
रमे राम के नाम में, सलिल-साधना राम।३८।

मुनि बुधकौशिक ने रचा, श्री रामरक्षास्तोत्र।
'शांति-राज'-हित यंत्र है, भाव-भक्तिमय ज्योत।

आशा होती पूर्ण हर, प्रभु हों सत्य सहाय।
तुहिन श्वास हो नर्मदा, मन्वंतर गुण गाय।४०।

राम-कथा मंदाकिनी, रामकृपा राजीव।
राम-नाम जप दे दरश, राघव करुणासींव।४१।


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॥ श्रीरामरक्षास्तोत्र ॥

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्र ॥

॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥

अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य । बुधकौशिक ऋषिः ।
श्रीसीतारामचंद्रो देवता । अनुष्टुप् छंदः ।।
सीता शक्तिः । श्रीमद् हनुमान कीलकम् ।
श्रीरामचंद्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ॥

॥ अथ ध्यानम् ॥

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थम् ।
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।।
वामांकारूढ सीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभम् ।
नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामंडनं रामचंद्रम् ॥

॥ इति ध्यानम् ॥

चरितं रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥ १॥

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमंडितम् ॥ २॥

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत्रातुं आविर्भूतं अजं विभुम् ॥ ३॥

रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् ।
शिरोमे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥ ४॥

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियश्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ॥ ५॥

जिव्हां विद्यानिधिः पातु कंठं भरतवंदितः ।
स्कंधौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥ ६॥

करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ ७॥

सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत् ॥ ८॥

जानुनी सेतुकृत्पातु जंघे दशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषणश्रीदः पातु रामोखिलं वपुः ॥ ९॥

एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥ १०॥

पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥ ११॥

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ १२॥

जगजैत्रैकमंत्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् ।
यः कंठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः ॥ १३॥

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥ १४॥

आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षांमिमां हरः ।
तथा लिखितवान् प्रातः प्रभुद्धो बुधकौशिकः ॥ १५॥

आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥ १६॥

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुंडरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥ १७॥

फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ १८॥

शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् ।
रक्षः कुलनिहंतारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ १९॥

आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषंगसंगिनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ २०॥

सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्मनोरथोस्माकं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ २१॥

रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघुत्तमः ॥ २२॥

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।
जानकीवल्लभः श्रीमान् अप्रमेय पराक्रमः ॥ २३॥

इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशयः ॥ २४॥

रामं दुर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् ।
स्तुवंति नामभिर्दिव्यैः न ते संसारिणो नरः ॥ २५॥

रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।।

राजेंद्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शांतमूर्तिम् ।
वंदे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥ २६॥

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ २७॥

श्रीराम राम रघुनंदन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ २८॥

श्रीरामचंद्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचंद्रचरणौ वचसा गृणामि ॥
श्रीरामचंद्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचंद्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ २९॥

माता रामो मत्पिता रामचंद्रः ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः ॥
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३०॥

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघुनंदनम् ॥ ३१॥

लोकाभिरामं रणरंगधीरम् ।राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् .
कारुण्यरूपं करुणाकरं तम् ।श्रीरामचंद्रम् शरणं प्रपद्ये ॥ ३२॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगम् ।
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यम् ।
श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३॥

कूजंतं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वंदे वाल्मीकिकोकिलम् ॥ ३४॥

आपदां अपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥

भर्जनं भवबीजानां अर्जनं सुखसम्पदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां राम रामेति गर्जनम् ॥ ३६॥

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः ॥
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोस्म्यहम् ।
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ३७॥

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ३८॥

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥

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लघुकथा


दो लघुकथाएं आचार्य संजीव 'सलिल' की

गुरु दक्षिणा


एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया. प्रगत में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा.
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिऐ छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा.
तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।


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मुखडा देख ले


कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी। गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे। आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- ' बुरा ही देखो'।हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'।' बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी।' अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो?] संपादक जी ने डपटते हुए पूछा।'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है। कोई कमी रह गई हो तो बताएं.'ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'

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